जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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Re: जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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दोपहर बीती,
शाम हुई!
मैंने कुछ वस्तुएं टटोलीं और एक छोटे बैग में भर लीं! और फिर हुई रात, गहन हुई थोड़ी और हम चले अब सिवानों की ओर! मार्ग में अँधेरा, हाँ बारिश नहीं हो रही थी, ये एक अच्छी खरा थी हमारे लिए, अजी खबर क्या यूँ कहो कि सोने पर सुहागा! मार्ग में अँधेरा और उजारे की तलाश में भटकते कीट-पतंगे! कभी मुंह से टकराते, कभी सर से टकराते, कभी कभार चेहरे पर पनाह ले लेते थे! ये टॉर्च की रौशनी के कारण था! रास्ते के पेड़ गवाह बने खड़े थे कि अब रात है और हम तीन अकेले हैं इस मार्ग पर! शर्मा जी, मैं और बिरजू!
बचते बचाते हम पहुंचे किसी तरह सिवाने, वहाँ दो चिताएं जल रही थीं, अब अँधा कहा चाहे! दो आँखें!
मैंने शर्मा जी और बिरजू को पास के ही एक मंदिर में बिठवा दिया, जूते उतारे और खुद नंगे पाँव चल पड़ा चिताओं की ओर, दोनों चिताओं का मुआयना किया, एक स्त्री की थी, उसको छोड़ दिया, दोस्री किसी पुरुष की थी, उसके गर्दन की हड्डी टूट कर बाहर आयी हुई थी, यही उचित था, मैंने आसन लगाया और एक दिया जलाया उस चिता की अग्नि से!
और अब शुरू कुआ क्रिया-कलाप!
आधे घंटे में ही मेरी नेत्राम-देख चालू हो गयी और सारी तस्वीर दिमाग में घूमती चली गयी!
बड़ी ही ह्रदय-विदारक कहानी थी वहाँ की!
ओह!
ऐसा क्यों होता है?
क्यों?
और?
क्यों किया?
क्यों किया उसने?
क्या मिला उसको?
बतायेगा!
बतायेगा! अवश्य ही बतायेगा! क्यों किया उसने ऐसा!
कौन बतायेगा?
बाबा सोनिला!
हाँ!
वो सपेरा तो नहीं था लेकिन था बेहद कुशल तांत्रिक! सर्प-विद्या में निपुण! सिद्धहस्त! बाबा सोनिला!
आयु अधिक नहीं थी उसकी, यही कोई चालीस बरस रही होगी, अपने गुरु के आशीर्वाद से बहुत उच्च शिखर पर पहुँच गया था!
वही था इस कहानी का असली नायक और खलनायक!
अब मैं उठा वहाँ से! सामान-सट्टा उठाया और बैग में डाला! और चल पड़ा वापिस उसी मंदिर की ओर, जहां शर्मा जी और बिरजू बैठे थे, वहाँ एक बर्मा(हैंडपंप) लगा था, हाथ-मुंह और सर-पाँव धोये मैंने पानी भी पिया और फिर शर्मा जी के पास आ गया!
"कुछ हाथ आया?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ" मैंने ख़ुशी से कहा,
उनका उत्साह भी बढ़ गया!
"क्या?'' उन्होंने पूछा,
"बाद में बताऊंगा" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम उठे और चले वापिस,
"बिरजू?" मैंने कहा,
"क्या आपके खेत में कोई बीजक वगैरह है?" मैंने पूछा,
"पता नहीं, हाँ कुछ पत्थर तो हैं वहाँ, वो हमने आजतक नहीं हटाये" बोले बिरजू,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ जी, आप चाहें तो कल देख लें" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
और इस तरह बातचीत करते हुए हम लौट आये, बिरजू के घर!
अब कल सुबह ही करना था सब!
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और फिर हुई सुबह!
नहाये-धोये! चाय नाश्ता किया! और थोडा सा घूमने के लिए अहाते में बाहर आये, काफी लम्बा-चौड़ा स्थान था वो, गाय-भैंस रम्भा रही थीं, कुछ कटरे आव-ताव में भाग रहे थे इधर-उधर!
"शर्मा जी, आज चलते हैं वहाँ, अभी" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"ज़रा सामान ले चलना, वो पीली सरसों तो ज़रूर" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और तभी बिरजू आ गए,
"चलें क्या गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ चलिए" मैंने कहा,
शर्मा जी ने बड़े बैग से एक छोटा झोला निकाल लिया! इसमें पीली अभिमन्त्रिति सरसों थी, इस से अभिमन्त्रण और कीलन लगाया और उठाया जाता है, मैंने ही कहा था क्योंकि इसकी आवश्यकता थी आज!
हम चल पड़े वहीँ खेतों की तरफ!
और पहुँच गए,
बिरजू अपनी कोटरी में ही रुक गए, उनको हमारे साथ चलने से डर लग रहा था, सो वहीँ बाहर चारपाई बिछा कर बैठ गए! उन्होंने जहां वो पुराने पत्थर गढ़े थे वो जगह बता दी, वहाँ से थोड़ी दूर थी, लेकिन थी पहुँच में ही,
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम चल पड़े,
उन पत्थरों तक पहुंचे,
आड़े-तिरछे पुराने पत्थर, आधे भूमि में गढ़े हुए, लेकिन कोई भी बीजक नहीं था उनमे से!
"ये तो बड़े पुराने लगते हैं" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, लग तो रहा है" मैंने कहा,
मैंने मुआयना किया, कुछ ख़ास नहीं वहाँ!
"लाइए, सरसों दीजिये" मैंने कहा,
उन्होंने सरसों का झोला पकड़ाया,
मैंने खोला और एक मुट्ठी सरसों मैंने वहाँ जैसे ही डाली, लगा कोई रीछ सा वहाँ छुपा था जो भाग के निकला, हम दोनों एक दूसरे के ऊपर गिर पड़े!
कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ!
"कौन है यहाँ?" मैंने कहा,
"भाग जा" तभी एक फुसफुसाहट सी आयी!
मेरे और शर्मा जी के हुआ अब कान खड़े, हम थोडा पीछे हटे!
"मेरे सामने आओ?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया, बस हवा का एक झोंका उठा और हमारे गिरेबान हमारा ही गला दबाने लगे!
"सामने आओ, सम्मुख बात करो?" मैंने कहा,
मैंने कहा और हमे किसी ने धक्का दिया पीछे से! हम आगे झुक गए!
मामला गम्भीर है! यही सोचा मैंने!
अब मैंने औंधी-खोपड़ी का प्राण-रक्षण मंत्र पढ़ा और शर्मा जी को भी मैंने उस से पोषित कर दिया!
"आ मेरे सामने?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
मैंने फिर से सरसों अभिमंत्रित कर वहाँ फेंकी!
और फेंकते ही पत्थरों में आग भड़क उठी! इतनी तेज कि हमे पीछे हटना पड़ा!
मैंने काकूश-मंत्र पढ़ कर अग्नि बुझाई!
ये तो युद्ध सा हो रहा था!
"खेल मत खिला, सामने आ, नहीं तो ज़मीन में से ही खींच लूँगातुझे!" अब दी मैंने धमकी!
धमकी क्या दी मैंने, मुसीबत मोल ले ली!
वहाँ गड्ढा हुआ एक! गहरा गड्ढा और उसमे से निकले सर्प! सफ़ेद सर्प! मैंने तुरंत ही सर्प-विनाशिनी विद्या का जाप कर लिए! अब कोई अहित नहीं हो सकता था!
तभी!
तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंधी!
श्वेत सर्प??
ये क्या??
ये तो दैविक सर्प है अथवा कोई यक्षाभूषण??
मैं चकराया!
सच कहता हूँ, दिमाग शिथिल हो गया!
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और जब दिमाग शिथिल होता है तो पास, दूर और दूर पास दिखायी देता है, अर्थात जो दीखता है वो होता नहीं और जो नहीं होता वो दीखता है! यही हो रहा था वहाँ! मैंने फिर भी हिम्मत बटोरी और, और एक मुट्ठी सरसों फेंक के दे मारी!
अचम्भा!
सभी सर्प गायब!
रह गया केवल एक!
सफ़ेद रंग का फनधर!
मैंने गौर किया! ग्रीवा-चिन्ह छोटा था, अर्थात ये मादा थी!
अब तो हथौड़ा सा बजा मेरे सर पर!
एक से एक!
उसने फुफकार मारी! हम पीछे हटे! वो गुस्से में थी! भयानक गुस्से में! हालांकि हमने सर्प-विनाशिनी विद्या पोषित कर राखी थी, लेकिन सर्प-दन्त भी बहुत पीड़ा देते हैं!
उसने गुस्से से आगे आकर फिर फुफकार मारी!
"शांत!" मैंने कहा,
उसने कुंडली संकेरी!
"शांत! मैं आपका अहित करने नहीं आया, न ही पकड़ने!" मैंने कहा,
उसने फिर से आगे आकर फुफकार मारी!
"शांत!" मैंने अब हाथ जोड़ कर कहा!
मैं आगे बढ़ा!
वो पीछे हटी!
कुंडली खोलते हुए!
अब मैंने नेत्राम-देख चालू की!
नेत्र खोले तो मैं घबराया!
ये तो एक नाग-कन्या है!
लेकिन यहाँ कैसे??
अब फिर से वज्रपात हुआ!
अब कैसे वार्तालाप करूँ?
ये तो क्रोधित है, फिर?
क़ैद कर लूँ?
हाँ!
यही ठीक है!
दिमाग उलझ गया!
नहीं!
नहीं!
ये तो शायद वैसे ही क़ैद है!
मैं हट गया वहाँ से, शर्मा जी को समझ नहीं आया कुछ भी! मेरे साथ ही चल दिए!
मैं ठहरा, शर्मा जी को वहीँ रोका!
वापिस गया!
मुझे आया देख फिर से क्रोधित हो गयी वो!
फुफकार पर फुफकार!
"शांत!" मैंने कहा,
"चले जाओ!" एक मर्दाना आवाज़ गूंजी!
शर्तिया ये इस नाग-कन्या की तो नहीं है?
कौन है जो नेत्राम-पाश में भी नहीं है?
ऐसा कौन?
भय हुआ!
सिहरन हुई एकदम!
बदन पर चींटियाँ रेंग गयीं!
"कौन है?" मैंने कहा,
कोई नहीं वहाँ!
मैंने आकाश, आयें-दाए,बाएं देखा कोई नहीं!
"मेरे समक्ष आइये" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
और तब! तब! मुझ पर बारिश हो गयी कौड़ियों की! काली और पीली कौड़ियों की! मैं हटा वहाँ से! और बारिश बंद!
अब तो प्रश्नों का टोकरा बहुत भारी हो चला! एक भी जवाब नहीं मिला! बस इतना यहाँ कोई भूत-प्रेत नहीं है! है कोई परम सिद्ध!
कौन?
लेकिन कौन?
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"कौन है यहाँ? मैं जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
सर्प की फुफकार!
हालांकि वो सर्प रूप में ही थी, लेकिन थी एक नाग-कन्या! मैं पहचान गया था नेत्राम विद्या की जांच से!
"कौन है?" मैंने विनम्रता से पूछा,
कोई नहीं आया, और वो वहाँ क्रोध के मारे बस फटने ही वाली थी!
अब मैंने महातमस विद्या जागृत की और प्रत्यक्ष-शूल भिड़ा दिया!
धड़ाम!
आवाज़ हुई!
लेकिन कोई नहीं गिरा!
मैंने सामने देखा!
मुझसे करीब पंद्रह फीट दूर, भूमि में एक गड्ढा था और उसमे कमर तक कोई बाहर निकला हुआ था, अर्थात उसकी कमर से नीचे का भाग भूमि में था, गड्ढे में!
बड़ा ही भयावह दृश्य था!
और हाँ,
उस धड़ाम की आवाज़ के साथ ही वो सर्प-कन्या भी लोप हो गयी थी! अब कोई गड्ढा भी नहीं था वहाँ!
दिमाग चलाया!
ये कौन है?
हाँ!
समझ गया!
मैं वहीँ उसकी तरफ चला!
"रुक जा" उसने मुझे मना किया, अपने सर्प-दंड से मना किया आगे आने को!
मैं रुक गया! यूँ कहो चिपक गया वहीँ!
"कौन हो आप?" मैंने पूछा,
उसका शरीर किसी वज्र की भांति था! गले में पत्थरों की सी माला पहने, कौन सा पत्थर, ये नहीं मालूम पड़ा! नीचे उसके लुंगी पहनी थी या धोती, ये भी पता नहीं चला, उसका जी हिस्सा मुझे दिखायी दे रहा था, वही छह फीट का रहा होगा, कम तो क़तई नहीं!
कोई उत्तर नहीं!
वो चुप था!
"कौन हैं आप?" मैंने फिर पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
वो मुझे देख रहा था एकटक! गुस्से में! लाल रंग के नेत्र किये हुए! हाथ में एक बड़ा सा सर्प-दंड लिए!
"बताइये?" मैंने फिर कहा,
उसने जैसे अनसुनी की!
मैं आगे बढ़ा कोई दो फीट!
"रुक जा वहीँ" उसने फिर से कहा,
मैं फिर से रुक गया!
"कौन है आप?" मैंने पूछा,
"मैं सोनिला हूँ, सपेर बाबा" उसने उत्तर दिया अब!
"यहाँ क्या हो रहा है बाबा?" मैंने पूछा,
"वापिस चला जा" उसने धमका के कहा,
"मैं नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"जा???" उसने फिर से गुस्से से कहा,
"नहीं" मैंने कहा
शान्ति!
कुछ पल की शान्ति,
एक दूसरे को तोलते हुए हम!
और!
मेरी शान्ति भंग हुई!
भंग हुई शान्ति!
मेरे होठों पर पड़ती और नाक से बहती रक्त-धारा से!
टप! टप!
ऐसे बहे रक्त!
मैंने तुरंत ही जंभाल-मंत्र पढ़ा और रक्त बंद!
फिर मुझे छींक आयीं!
और मेरे सामने ही वो भूमि में समा गया!
गड्ढा फिर से बंद!
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उफ़! ये कैसी मुसीबत! मैं अब पहुंचा शर्मा जी के पास और लग गया उधेड़बुन में, सारा किस्सा बताया उनको! वे भी हतप्रभ!
"बड़ा ही विचित्र मामला है!" वे बोल पड़े!
"हाँ!" "मैंने कहा,
"लेकिन आप रात को सिवाने में बैठे थे तो क्या पता चला था?" उन्होंने पूछा,
"कि यहाँ सोनिला का किया हुआ है सारा प्रपंच" मैंने कहा,
"कारण?" उन्होंने पूछा,
"नहीं पता" मैंने कहा,
"क्या सोनिला बाबा की माया है यहाँ?" उन्होंने पूछा,
"आप स्वयं देख लीजिये, यहाँ जो कुछ भो हो रहा है वो बाबा सोनिला सपेर से ही हो रहा है, वही है सर्वेसर्वा!" मैंने कहा,
"अब कैसे पार पड़ेगी?" उन्होंने संशय से पूछा,
"बाबा को जगाना होगा फिर" मैंने कहा,
"कोई अनहोनी न हो जाए?" वे घबरा के बोले,
"होनी होती तो आज ही कर देते" मैंने कहा,
"अरे हाँ" वे बोले,
"अब कैसे जगाओगे यहाँ?" उन्होंने पूछा,
"मैं यहीं क्रिया करूँगा" मैंने कहा,
"खेत में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?" उन्होंने पूछा,
"आज ही" मैंने उत्तर दिया!
अब हम खड़े हुए,
और वापिस हुए बिरजू की कोठरी के लिए!
बिरजू आँखें फाड़े बैठा थे!
"आ गए?" उनसे शर्मा जी से पूछा,
"हाँ बिरजू" वे बोले,
और हम चारपाई पर बैठ गए!
"बिरजू?" मैंने टोका,
"हाँ जी?" वे बोले,
"क्या उम्र है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"जी कोई पचपन" वे बोले,
"कभी ऐसा पहले हुए है तुम्हारी याद में?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"पिता जी के समय में?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"हम्म्म" मैंने अंदाजा लगाया,
ये पैंसठया का चक्कर है! मुझे याद आया!
अरे हाँ!
समझ गया!
मोहन बाबा ने ऐसा बताया था! इस वर्ष ये पैंसठया चक्र है! नाग-लोक का चक्र! हमारे पैंसठ वर्ष और उनका एक दिन! समझ गया! मौखिक रूप से ही!
अब चाहिए थीं मुझे कुछ आवश्यक सामग्रियां! और वो शहर से ही मिल सकती थीं!
"चलो, कुछ सामान लाना है, गुड की भेलियां आदि, कुछ और भी, चलो शहर चलें" मैंने उठते हुए कहा,
"चलिए गुरु जी" बिरजू उठे और कहा,
"गुरु जी, गुड की भेलियां एक बाबा ने भी डलवाईं थे वहाँ" बिरजू ने कहा,
"हाँ, बाबा ने सही किया था" मैंने कहा,
अब हम वहाँ से निकले शहर की तरफ!
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