जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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Re: जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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उफ़! ये कैसी मुसीबत! मैं अब पहुंचा शर्मा जी के पास और लग गया उधेड़बुन में, सारा किस्सा बताया उनको! वे भी हतप्रभ!
"बड़ा ही विचित्र मामला है!" वे बोल पड़े!
"हाँ!" "मैंने कहा,
"लेकिन आप रात को सिवाने में बैठे थे तो क्या पता चला था?" उन्होंने पूछा,
"कि यहाँ सोनिला का किया हुआ है सारा प्रपंच" मैंने कहा,
"कारण?" उन्होंने पूछा,
"नहीं पता" मैंने कहा,
"क्या सोनिला बाबा की माया है यहाँ?" उन्होंने पूछा,
"आप स्वयं देख लीजिये, यहाँ जो कुछ भो हो रहा है वो बाबा सोनिला सपेर से ही हो रहा है, वही है सर्वेसर्वा!" मैंने कहा,
"अब कैसे पार पड़ेगी?" उन्होंने संशय से पूछा,
"बाबा को जगाना होगा फिर" मैंने कहा,
"कोई अनहोनी न हो जाए?" वे घबरा के बोले,
"होनी होती तो आज ही कर देते" मैंने कहा,
"अरे हाँ" वे बोले,
"अब कैसे जगाओगे यहाँ?" उन्होंने पूछा,
"मैं यहीं क्रिया करूँगा" मैंने कहा,
"खेत में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?" उन्होंने पूछा,
"आज ही" मैंने उत्तर दिया!
अब हम खड़े हुए,
और वापिस हुए बिरजू की कोठरी के लिए!
बिरजू आँखें फाड़े बैठा थे!
"आ गए?" उनसे शर्मा जी से पूछा,
"हाँ बिरजू" वे बोले,
और हम चारपाई पर बैठ गए!
"बिरजू?" मैंने टोका,
"हाँ जी?" वे बोले,
"क्या उम्र है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"जी कोई पचपन" वे बोले,
"कभी ऐसा पहले हुए है तुम्हारी याद में?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"पिता जी के समय में?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"हम्म्म" मैंने अंदाजा लगाया,
ये पैंसठया का चक्कर है! मुझे याद आया!
अरे हाँ!
समझ गया!
मोहन बाबा ने ऐसा बताया था! इस वर्ष ये पैंसठया चक्र है! नाग-लोक का चक्र! हमारे पैंसठ वर्ष और उनका एक दिन! समझ गया! मौखिक रूप से ही!
अब चाहिए थीं मुझे कुछ आवश्यक सामग्रियां! और वो शहर से ही मिल सकती थीं!
"चलो, कुछ सामान लाना है, गुड की भेलियां आदि, कुछ और भी, चलो शहर चलें" मैंने उठते हुए कहा,
"चलिए गुरु जी" बिरजू उठे और कहा,
"गुरु जी, गुड की भेलियां एक बाबा ने भी डलवाईं थे वहाँ" बिरजू ने कहा,
"हाँ, बाबा ने सही किया था" मैंने कहा,
अब हम वहाँ से निकले शहर की तरफ!
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Re: जिला बिजनौर की एक घटना वर्ष २०१२

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बाज़ार गए, शहर में, सभी सामग्रियां ले लीं, अब वापिस हुए, एक तो गाडी बूढी एम्बेसडर थी, लचक-पाचक के चलती थी, रास्ते में कई जगह रुकी भी, लेकिन पहुँच ही गए हम गाँव! सामान उतारा गया! पांच भेलियां, पांच बकरे के सर और अन्य मांस अदि आदि खरीद के ले आये थे हम आज मैंने महाक्रिया करनी थी वहाँ! चिता नहीं थी तो चिताभस्म-वेदी भूमि में गाड़नी थी!
संध्या समय दूध पिया थोडा बहुत खाया भी और फिर मैंने एक एक सामान की तिायारी की, बकरे के सरों को ऊपर नाक की तरफ से भेदा, चौड़ा किया ताकि भेजा निकल जाए आराम से, ये आवश्यक था!
अब रात हुई, हम आ पहुंचे खेत, कोठरी में सामान रखा और साथ में लाये हुए कुछ खाने के सामान को बाहर निकाला, और अब होना था आरम्भ मदिरापान! मैंने और शर्मा जी ने मदिरापान आरम्भ किया, बिरजू ने बाद में करना था, केवल के आने पर, हमने एक बोतल ख़तम आकर दी, मैंने ताम, एवंग, अभय, ऑंधिया, क़ाहूक, नेत्राम आदि मंत्र जागृत कर लिए, अब मैं तैयार था!
अब मैं उनको वहाँ बिठा चल पड़ा सामान लेकर अपना! टॉर्च ले ली थी, सो रौशनी के सहारे मैं पहुँच गया था वहाँ पर, एक स्थान देखा, सब सही था! मैंने भस्म-वेदिका बीच में गाड़ी! मंत्र से भूमि और वेदी शुद्धन किया, और अपना आसन बिछा कर वहीँ बैठ गया, तांत्रिक पञ्च-महाभोग से अलख उठायी! अलख नमन किया, गुरु नमन और फिर अघोर-पुरुष नमन किया! त्रिशूल दायें गाड़ा और चिमटा खड़खड़ा दिया! चहुंदिश कीलन किया! समस्त दिक्पालों का धन्यवाद किया! आकाश को नमन किया और फिर भूमि को नमन किया! अब भस्म-लेप किया और क्रिया आरम्भ की!
मैंने पीली सरसों फेंकी वहाँ! प्रत्यक्ष-शूल भिड़ा दिया!
भन्न!
गड्ढा खुला और उसमे से बाबा सोनिला सपेर प्रकट हुआ!
अत्यंत क्रोध में!
कमर तक ही प्रकट हुआ!
"तू फिर चला आया?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने भी कहा,
"मरने आया है?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"जा लौट जा, तेरे अभी दिन शेष हैं" वो बोला,
"डर गए हो बाबा?" मैंने उपहास किया!
उसने ठहाका लगया! ठहाका था या यम का अट्ठहास! रूह तक काँप कर पनाह ढूंढने लगे अन्यत्र!
"जा! छोड़ दिया तुझे! जा!" उसने हंसके कहा,
"चला जाऊँगा बाबा, परन्तु कुछ प्रश्न है, उनका उत्तर दे दीजिये" मैंने कहा,
वो चुप हुआ!
थोड़ी देर!
"पूछ?" उसने आखिर हाँ कही ऐसा कह कर!
"वो सर्प, नाग-कन्या कौन है?" मैंने पूछा,
"उर्रुन्गी" उसने कहा,
"उर्रुन्गी!" मैंने ऐसा नाम ना पहले कभी सुना ना किसी को ये शब्द कहते सुना! आज तक, बस इसी घटना में ही!
"वो यहाँ क्यों है?" मैंने पूछा,
"दास है मेरी" उसने कहा,
क्या??
क्या कहा बाबा ने? दास?
"दास?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ" उसने घमंड से कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"बताइये बाबा?" मैंने कहा,
"ये दुमुक्ष की प्रेयसी है" उन्होंने कहा,
"दुमुक्ष? ये कौन है?" मैंने पूछा,
कुछ ऐसे ही खड़ा रहा वो!
फिर अपनी कमर में बंधा एक झोला उतारा! उसको हिलाया, झोले में हरकत हुई! कोई जीव था उसमे!
"ये! ये है दुमुक्ष! हा! हा! हा! हा!" उसने अब दम्भ से किया,
मैं तो जैसे कटे पेड़ सा गिरा!
क्यों?
दुमुक्ष, एक नाग-पुरुष कैसे क़ैद हुआ?
किसने किया?
किसलिए?
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"किसने क़ैद किया इनको बाबा?" मैंने जानते हुए भी पूछा,
"मैंने!" उसने गाल ठोकते हुए कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"नाग-सिद्धि" उसने कहा,
नाग-सिद्धि!!
महा-सिद्धि!
कामेश्वरी यक्षणी स्वयं सिद्ध!
बहुत ऊंची उड़ान!
साक्षात महा-औघड़ को नियंत्रित करने की सिद्धि!
ये क्या किया आपने बाबा!
"आपको नहीं मिली नाग-सिद्धि?" मैंने पूछा,
"ले कर रहूँगा! इनसे लेकर रहूँगा" वे बोले,
"तो आपने इनको क़ैद किया ताकि कामेश्वरी यक्षिणी इनको बचाये और आप बदल में नाग-सिद्धि प्राप्त हो!" मैंने कहा,
उसके होश उड़े!
"कौन है तू?" मुझे पूछा गया,
मैंने अपना परिचय दे दिया!
"हूँ! समझ गया!" वो बोला,
"आप इनको क्यों नहीं मुक्त कर देते?" मैंने पूछा,
"कदापि नहीं" वो बोला,
"देह तो रही नहीं आपकी, फिर?" मैंने कहा,
उसने अटटहास किया जैसे किसी बालक ने अटपटा सा प्रश्न किया हो!
"वो मैं जब चाहे ले सकता हूँ, रूढ़ता को प्राप्त किया है मैंने बालक!" वो बोला,
रूढ़ता को प्राप्त किया! ओह! महान! महान तांत्रिक! काश मुझे इनका शिष्यत्व प्राप्त हो!
"बाबा! आपके पास क्या नहीं है, आप इनको मुक्त कीजिये और स्वयं भी मुक्त होइए अथवा परिचक्र में सम्मिलित हो जाइये!" मैंने सुझाया,
"मुंह बंद रख अपना, मैंने प्राण लगाए हैं दांव पे!" वे गुस्से से बोले,
"बाबा! मुक्त कर दो इनको, मैं हाथ जोड़ता हौं आपका दास बन जाऊँगा हमेशा के लिए" मैंने कहा,
"नहीं! जब तक कामेश्वरी नहीं आएगी ये सन्तापग्रस्त ही रहेंगे! चाहे युग बीत जाएँ!" अडिग होकर कहा उन्होंने!
"ये अन्याय है" मैंने कहा,
"नहीं" वो चिल्लाया,
"है" मैंने भी गरज कर कहा,
"चला जा यहाँ से!" अब गुस्से से बोले,
"और न जाऊं तो?" मैंने कहा,
"टुकड़े कर दूंगा तेरे!" गुस्से से बोला!
"बाबा तुम अडिग तो मैं भी अडिग! लगा दी मैंने भी प्राण की बाजी!" मैंने कहा,
"अरे बालक! हा! हा! हा! हा!" अट्ठहास!
"छोड़ दो बाबा!" मैंने हाथ जोड़कर कहा,
"जा! तुझे छोड़ दिया! बाबा ने छोड़ दिया!" वो बोला,
"मुझे नहीं बाबा! इनको छोड़ दो!" मैंने कहा,
"असम्भव" वो बोला,
"ये सम्भव है" मैंने कहा,
"कैसे?" पूछा बाबा ने!
"मैं छीन लूँगा इनको आपसे!" मैंने कह दिया!
"तेरी इतनी हिम्मत?" आगबबूला होकर उन्होंने कहा और दुमुक्ष को फिर से बाँध लिया!
अब बाबा ने सर्प-दंड उठाया और किसी का आह्वान किया!
और तभी!
तभी!
धामड़ी प्रकट हो गयी!
ये अत्यंत शक्तिशाली डाकिनी है! मानव का यकृत खा जाती है! अब मैं भी तैयार हुआ, अपने त्रिशूल को उखाड़ा और भद्रलोचिनी-शक्ति का जाप कर डाला, त्रिशूल में जैसे विद्युतीय आवेश दौड़ गया!
जैसे ही डाकिनी क्रंदन कर मेरे समक्ष आयी मैंने त्रिशूल से वार किया! झन्न! झन्न से लोप हुई वो त्रिशूल को छूकर!
बाबा क्रोधित!
"आशीर्वाद दें बाबा!" मैंने व्यंग्य बाण छोड़ा!
बाबा ने एकटक मुझे देखा!
और मैंने बाबा को!
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"तू बच गया! बचा गया! अब जा यहाँ से" बाबा ने चिल्ला के कहा,
"मैं नहीं जाने वाला कहीं बाबा" मैंने भी कह दिया,
"हठ अच्छा नहीं" वो बोला,
"आप भी तो हठी हो?" मैंने कहा,
"मेरी क्षमता जानता नहीं तू?" वो बोला,
"जानता हूँ, तभी तो आपने इनको क़ैद कर लिया?" मैंने कहा,
"जिव्हा काट दूंगा तेरी!" वो चिल्लाया!
अब बाबा ने सर्प-दंड नीचे भूमि पर मारा! मैं थोडा सा डगमगाया! और फिर एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर सर्प-दंड कर दिया, जैसे ही उन्होंने वो मेरी तरफ किया मैंने अपने स्थान से पीछे फिक गया! भूमि ने जकड़ लिया मुझको! अंदर खींचे मुझे! कमाल था, मैंने फ़ौरन जंभाल-मंत्र का जाप किया और मैं छूट गया!
हा! हा! हा! हा! हा!
बाबा का अट्ठहास!
मैं फिर से आसान पर बैठ गया!
"बच गया?" बाबा ने उपहास उड़ाया मेरा!
"हाँ!" मैंने भी दबंगता से उत्तर दिया!
"कब तक?" उसने पूछा,
"जब तक जीवित हूँ!" मैंने कहा,
"नहीं! जब तक मैं चाहूं! हा! हा! हा!" फिर से अट्ठहास किया बाबा ने!
"बाबा! ममी प्रार्थना करता हूँ, इनको मुक्त कर दीजिये" मैंने शान्ति से कहा,
"कभी नहीं" बाबा गर्राया!
"ठीक है बाबा!" मैंने कहा,
और अब मैंने गुड़ की भेलियां सामने रखीं! और उन भेलियों पर बकरों का भेजा सजाया!
बाबा लोप!
मैंने फिर से प्रत्य्क्ष-शूल भिड़ाया!
बाबा फिर हाज़िर!
"चला जा यहाँ से, चला जा!" बाबा ने कहा,
मैं चुप रहा!
एक भेजा उठाया मैंने!
उस पर मंत्र पढ़ा!
और भक्क से पूरा अपने मुंह में भर लिया!
और मंत्र पढ़ते हुए मैंने निगल लिया!
दुहित्रात-मंत्र जागृत हो गया!
मेरी रीढ़ की हड्डी दहक उठी!
अब!
मैं, मैं ना रहा!
मैं एक अत्यंत क्रोधित औघड़ में परिवर्तित हो गया!
आवाज़ भारी हो गयी!
अब कोई विनय-अनुनय नहीं!
सीधी टक्कर!
बाबा का अट्ठहास बंद!
वो हवा में उठ गया! और मैं खड़ा हो गया!
उसने मंत्रोच्चार किया!
और वहाँ,
वहाँ एक नाग-कन्या उत्पन्न हुई, और पल में ही महा-पिशाचिनी के रूप में परिवर्तित हो गयी! मैंने त्रिशूल को चाटा और सामने से आती हुई नाग-कन्या के उदर में घुसेड़ दिया! एक नाद करते हुए!
तत्क्षण एक सर्प मूर्छित हो नीचे गिरा!
अब मैं हंसा!
अट्ठहास लगाया!
"सोनिला, जो कहा मान ले!" मैंने कहा,
वो हंसा!
और फिर और ऊंचा हुआ!
उसने फिर से मंत्र पढ़ा और द्रुतिका नामक वृषभ-वाहिनी प्रकट हुई! चली मुझे टुकड़े करने! मैंने त्रिशूल को सम्मुख किया और उससे टकरा दिया!
टकराते ही वो बाबा को पार करते ही लोप हो गयी!
बौखला गया बाबा!
"असहायों पर क्रूरता की है आज तक! सच्चा औघड़ नहीं टकराया तुझे! इन निरीह नाग-वंशियों को सताया तूने! तुझे दंड मिलेगा!" मैंने कहा,
कुछ नहीं बोला बाबा!
कुछ पल!
शान्ति के!
और फिर अट्ठहास!
चहुंदिश अट्ठहास!
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सोनिला का अट्ठहास बड़ा ही कड़क था! कोई और होता तो इस पचड़े में न पड़ता और भाग खड़ा होता अब तक! सोनिला जहां नाग-विद्या में अत्यंत माहिर था वहीँ एक प्रबल तांत्रिक भी था! स्पष्ट था, वो कामेश्वरी से कुछ सिद्धियाँ प्राप्त करना चाहता था जो उसको जीते जी प्राप्त न हुईं, अब प्रेतात्मा रूप में ऐसा करना चाहता था, सिद्धियाँ प्राप्त कर, रूढ़ता के आसान पर विराजमान हो कर न केवल शक्तिमान अपितु दैविक रूप भी प्राप्त करना चाहता था!
"अरे बालक, अब तक मैंने खेल खिलाया तुझे!" सोनिला गरजा!
अब तक मैंने गुड़ की एक भेली मंत्र पढ़ते हुए, वहीँ गाड़ दी थी!
"सोनिला! इनको मुक्त कर दे!" मैंने कहा,
"कभी नहीं" उनसे दांत भींच कर कहा,
वो ऐसे नहीं बाज आने वाला था! अतः अब मैंने खेल गम्भीरता से खेलना आरम्भ किया, मुझे एक नाग-कन्या क्रिताक्षिका का आशीर्वाद प्राप्त था, उसने मुझे रक्ताभ्रक भी प्रदान किया था और कभी भी मदद का वचन भी दिया था! मैंने क्रिताक्षिका का आह्वान किया, वो स्थान रौशन हुआ लाल प्रकाश से! और वहाँ सजी-धजी क्रिताक्षिका प्रकट हो गयी! ये देख बाबा जैसे गिरते गिरते बचा!
मैंने क्रिताक्षिका को नमन किया और मौन रूप से मैंने अपना उद्देश्य सम्प्रेषित किया! क्रिताक्षिका मुस्कुराई और मुझे एक माला देते हुए लोप हुई! मैंने वो माला धारण कर ली!
बाबा अब गहन मंत्रोच्चार में डूब गया!
और इधर मैं भी!
बाबा ने कर्णिका नाम की एक शक्तिशाली गणिका प्रकट की, मेरे पास गणिका की शक्ति काटने के लिए उस समय न तो चिता थी और न ही कोई घाड़! अत्यंत चतुर बाबा ने युक्ति से काम ले लिया था! मैंने फिर भी रक्षण हेतु वज्रघन्टा-गणिका का एक मंत्र पढ़ स्वयं को सुपोषित कर लिया! शरीर में आवेश सा दौड़ गया!
वहाँ गणिका मेरे समक्ष रौद्र रूप में प्रकट हुई! परन्तु क्रिताक्षिका की दिव्य-माला की दमक के समक्ष ठहर नहीं सकी और लोप हो गयी!
ये देख बाबा अब चौरासी खाने चित!
उसकी चौपड़ बिखर सी गयी!
"सुन ओ बालक!" उसने अब शान्ति से कहा,
बात समझौते की तरफ बढ़ने लगी थी, शायद!
"कहो बाबा?" मैंने कहा,
"तुझे क्या मिलेगा?" उसने अब तर्क से पूछा,
"संतोष" मैंने कहा,
"मैंने अपना जीवन लगा दिया, इसी को उद्देश्य बनाया है, क्या किसी का उद्देश्य इस प्रकार चोटिल किया जाता है?" उसने पूछा,
"जीवन लगाया, माना, आप सिद्धता को प्राप्त हुए, परन्तु आपका उद्देश्य हितकारी नहीं था और न आज है" मैंने भी कह दिया,
"मैंने सिद्धता को प्राप्त किया, असंख्य बलि-कर्म किये, मैं ये अंतिम दो बलियाँ देना चाहता हूँ, मुझे मेरे मार्ग से न रोक" उसने कहा, हालांकि आराम से!
ये बात मैं आरम्भ से जानता था! कि वो इस नाग-युगल की बलि का इच्छुक रहा होगा, तभी तो कामेश्वरी आती वहाँ और बाबा को बदले में सिद्धियाँ प्रदान करती!
"ये सम्भव नहीं, कम से कम मेरे रहते!" मैंने कहा,
मैंने इतना कहा और बाबा लोप!
कुछ प्रपंच लड़ने वाला था वहाँ, मैं तत्पर था!
तभी मेरे ईद-गिर्द कुछ कन्याएं मुझे खड़ी दिखायीं दीं, ये नाग-कन्याएं ही थीं, वे सभी नाग-कन्याएं जिनको बाबा सोनिला ने क़ैद किया हुआ था!
सभी भयभीत!
निर्बल और निस्तेज!
मुझे दया आयी!
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