ये कैसा संजोग माँ बेटे का complete

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Rohit Kapoor
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ये कैसा संजोग माँ बेटे का complete

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ये कैसा संजोग माँ बेटे का

मित्रो राज शर्मा की एक कहानी पेश करने जा रहा हूँ जो इस फोरम पर नही है मेरी ये कोशिश आपका ज़रूर मनोरंजन करेगी
अगर कुछ मित्रो ने कहानी पढ़ रखी हो तो क्षमा करना और जिन्होने इस कहानी को नही पढ़ा वो अपने कमेंट ज़रूर दें

धन्यवाद....................
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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा एक और मस्त कहानी लेकर हाजिर हूँ और उम्मीद करता हूँ कि मेरी बाकी कहानियों की तरह ये कहानी भी आपको पसंद आएगी

दोस्तो ये एक ऐसा संयोग था अपनी माँ के साथ जिसके बारे में मैं आपको बताने जा रहा हूँ . दोस्तो ये तभी होता है जब सितारे किसी बहुत खास मौके पर किसी खास दिशा में लाइन बद्ध हों. मेरे ख़याल से इसे और किसी तरीके से परभाषित नही किया जा सकता. मैं घर के पिछवाड़े में क्यारियों में खोई अपनी बॉल ढूढ़ रहा था जब मैने माँ की आवाज़ अपने माता पिता के कमरे के साथ अटॅच्ड बाथरूम की छोटी सी खिड़की से आती सुनी. खिड़की थोड़ी सी खुली थी और मैं उसमे से अपनी माँ की फुसफुसाती आवाज़ को सुन सकता था जब वो फोन पर किसी से बात कर रही थी.

वो वास्तव में एक अदुभूत संयोग था. वो शायद बाथरूम में टाय्लेट इस्तेमाल करने आई थी और संजोग वश उसके पास मोबाइल था, जो अपने आप में एक दुर्लभ बात थी क्योंकि माँ बाथरूम में कभी मोबाइल लेकर नही जाती थी और संयोगवश मैं भी खिड़की के इतने नज़दीक था कि वो क्या बातें कर रही है सॉफ सॉफ सुन सकता था.

मैं कोई जानबूझकर उसकी बातें नही सुन रहा था मैं तो अपनी बॉल ढूँढ रहा था मगर कुछ अल्फ़ाज़ ऐसे होते हैं कि आदमी चाह कर भी उन्हे नज़रअंदाज़ नही कर सकता, खास कर अगर वो अल्फ़ाज़ अपनी सग़ी माँ के मुँह से सुन रहा हो तो. जब मैने माँ को वो बात कहते सुना तो मेरे कान खड़े हो गये: "अब मैं तुम्हे क्या बताऊ. मुझे तो अब यह भी याद नही है कि लंड का स्पर्श कैसा होता है. इतना समय हो गया है मुझे बिना सेक्स के"

पहले पहल तो मुझे अपने कानों पर यकीन ही नही हुआ कि शायद मैने सही से सुना ही नही है, मैं अपनी साँसे रोक कर बिना कोई आवाज़ किए पूरे ध्यान से सुनने लगा.

तब वो काफ़ी समय तक चुप रही जैसे वो फोन पर दूसरी और से बोलने वाले को सुन रही थी और बीच बीच 'हाँ', 'हुंग', 'मैं जानती हूँ' कर रही थी. आख़िरकार अंत में वो बोली "मैं वो सब करके देख चुकी हूँ मगर कोई फ़ायदा नही. अब हमारी ज़िंदगी उस पड़ाव पर पहुँच गयी है जिसमे सेक्स हमारी रोजमर्रा की जिंदगी की ज़रूरत नही रहा"

उफफफ्फ़ मैं अब जाकर समझा था. मेरी माँ अपनी सेक्स लाइफ से संतुष्ट नही थी और फोन पर किसी से शिकायत कर रही थी या अपना दुखड़ा रो रही थी. फोन के दूसरे सिरे पर कॉन था मुझे मालूम नही था मगर जो कोई भी था जाहिर था माँ के बहुत नज़दीक था. इसीलिए वो उस शख्स से इतने खुलेपन और भरोसे से बात कर रही थी.

फिर से एक लंबी चुप्पी छा जाती है और वो सिर्फ़ सुनती रहती है. तब वो बोलती है "मुझे नही मालूम मैं क्या करूँ, मेरी समझ में कुछ नही आता. कभी कभी मुझे इतनी इच्छा होती है चुदवाने की, मेरी चूत जैसे जल रही होती है, कामोउत्तेजना जैसे सर चढ़ कर बोलती है, और मैं रात भर सो नही पाती और वो दूसरी और करवट लेकर ऐसे सोता है जैसे सब कुछ सही है, कुछ भी ग़लत नही है"

मैने कभी भी माँ को कामोउत्तेजना शब्द के साथ जोड़ कर नही देखा था. वो मेरे लिए इतनी पूर्ण, इतनी निष्कलंक थी कि मैं जानता भी नही था कि उसकी भी शारीरिक ज़रूरतें थीं मेरी...मेरी ही तरह. वो मेरे लिए सिर्फ़ माँ थी सिर्फ़ माँ, एक औरत कभी नही.

मैं जानता था माँ और पिताजी एक साथ सोते हैं और मेरे मन के किसी कोने मे यह बात भी अंकित थी कि उनके बीच आत्मीय संबंध थे मगर अब जब मैने अपने मन को दौड़ाया और इस बात की ओर ध्यान दिया कि आत्मीयता का असली मतलब यहाँ चुदाई से था. मैने कभी यह बात नही सोची थी कि मेरे पिताजी ने मेरी माँ को चोदा है और अपना लंड माँ की चूत में घुसेड़ा है, वो लंड जिसका एहसास माँ के अनुसार वो कब की भूल चुकी थी.

माँ और चूत यह दो ऐसे लफ़्ज थे जो मेरे लिए एक लाइन में नही हो सकते थे. मेरी माँ तो बस माँ थी, पूरी शुद्ध और पवित्र. जब उसकी बातचीत ने इस ओर इशारा किया कि उसके पास भी एक चूत है जो लंड के लिए तड़प रही है. बस, मैं और कुछ नही सुनना चाहता था. मैं यह भी भूल गया कि मैं वहाँ क्या कर रहा था जा क्या करने गया था. मैं वहाँ से दूर हट जाना चाहता था इतना दूर के माँ की आवाज़ ना सुन सकूँ



उस दिन के बाद में जब मैने उसे रसोई में देखा तो मुझे उसकी उपस्थिती में बेचैनी सी महसूस होने लगी. मुझे थोड़ा अपराध बोध भी महसूस हो रहा था के मैं उसकी अंतरंग दूबिधा को जान गया था और उसे इस बात की कोई जानकारी नही थी. उस अपराधबोध ने माँ के लिए मेरी सोच को थोड़ा बदल दिया था. उसकी समस्या की जानकारी ने उसके प्रति मेरे नज़रिए में भी तब्दीली ला दी थी. मैं शायद इसे सही ढंग से बता तो नही सकता मगर मेरे अंदर कुछ अहसास जनम लेने लग थे.

उस दिन जब वो ड्रॉयिंग रूम में आई तो बरबस मेरा ध्यान उसकी टाँगो की ओर गया. मैं चाहता नही था मगर फिर भी खुद को रोक नही पाया. सिर्फ़ इतना ही नही, मेरी नज़र उसकी टाँगो से सीधे उस स्थान पर पहुँच गयी जहाँ उसकी टाँगे आपस में मिल रही थीं, उस स्थान पर जहाँ उसने ना जाने कितने समय से लंड महसूस नही किया था. उपर से वो टाइट जीन्स पहने हुए थी और उसने अपनी टीशर्ट जीन्स के अंदर दबा रखी थी जिस से उसकी टाँगो का वो मध्य भाग मुझे बहुत अच्छे से दिखाई दे रहा था बल्कि थोड़ा उभरा हुआ नज़र आ रहा था. उसके वो लफाज़ मेरे कानो में गूँज रहे थे जब मैं उसकी जाँघो को घूर रहा था.

वो अपनी फॅवुरेट जीन्स पहने हुए थी और वो स्थान जहाँ उसकी जांघे आपस में मिल रही थी वहाँ थोड़ा गॅप था जो उसकी चूत को हाइलाइट कर रहा था........खूब उभर कर. मैने माँ को पहले भी उस जीन्स में देखा था मगर टाँगो के बीच का वो गॅप मुझे कभी नज़र नही आया था ना ही वो तिकोने आकर का भाग. असलियत में, शायद मैने वो उभरा हुआ हिस्सा देखा ही नही था, शायद वो मेरी कल्पना मात्र थी. उसकी जीन्स काफ़ी मोटे कपड़े की बनी हुई थी इसलिए उस हिस्से को देखना बहुत मुश्किल था मगर आज मैं उसे एक अलग ही रूप में देख रहा था..

उसकी चूत की ओर बार बार ध्यान जाने से मुझे कुछ बेचिनी महसूस होने लगी थी. उस रात मैं सो ना सका.

कंटिन्यू................................
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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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मित्रो अगर कहानी की शुरुआत अच्छी लगी हो तो इसे कंटिन्यू करूँ ..............................

आपके विचारों की आशा में...............................
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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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उस रात जब मेरे माता पिता अपने कमरे में सोने के लिए चले गये तो मैं कल्पना करने लगा कैसे मेरी माँ मेरे पिताजी के नीचे होगी और उस लंड को अपनी चूत में ले रही होगी जो उसने ना जाने कितने समय से महसूस भी नही किया था. मैने यह सब फितूर अपने दिमाग़ से निकालने की बहुत कोशिश की मगर घूम फिर कर वो बातें फिर से मेरे दिमाग़ में आ जाती. मेरा ध्यान उसकी पॅंट के उस गॅप वाले हिस्से की ओर चला जाता और मैं कल्पना में अपने पिताजी के लंड को उस गॅप को भरते देखता.

मेरे ख़याल मुझे बैचैन कर रहे थे और मैं ठीक से कह नही सकता कि मुझे किस बात से ज़यादा परेशानी हो रही थी, इस बात से कि माँ की चूत बार बार मेरी आँखो के सामने घूम रही थी या फिर इस ख़याल से कि मेरे पिताजी उसे चोद रहे होंगे.

अगले दिन मेरा मूड बहुत उखड़ा हुया था. मेरे हाव भाव मेरी हालत बता रहे थे, खुद माँ ने भी पूछा कि मैं ठीक तो हूँ. वो उस दिन भी वोही जीन्स पहने हुए थी मगर उसके साथ एक फॉर्म फिटिंग टी-शर्ट डाली हुई थी. उस दिन जिंदगी में पहली बार मेरा ध्यान माँ के मम्मों की ओर गया. एक बारगी तो मुझे यकीन ही नही हुआ कि उसके मम्मे इतने बड़े और इतने सुंदर थे. उसके भारी मम्मो के एहसास ने मेरी हालत और भी पतली कर दी थी.

बाकी का पूरा दिन मेरा मन उसकी टाँगो के जोड़ से उसके मम्मो, उसके उन गोल-मटोल भारी मम्मों के बीच उछलता रहा. मेरे कानो में बार बार उसकी वो बात गूँज उठती कि उसे अब लंड का एहसास भी भूल गया था कि कभी कभी उसको चुदवाने का कितना मन होता था.

मैं मानता हू उसे मात्र एक माँ की तरह देखने की वजाय एक सुंदर, कामनीय नारी के रूप में देखने का बदलाव मेरे लिए अप्रत्याशित था . ऐसा लगता था जैसे एक परदा उठ गया था और जहाँ पहले एक धुन्धलका था वहाँ अब मैं एक औरत की तस्वीर सॉफ सॉफ देख सकता था. लगता था जैसे मेरी कुछ इच्छाएँ मन की गहराइयों में कहीं दबी हुई थीं जो यह सुनने के बाद उभर कर सामने आ गयी थी कि उसको कभी कभी चुदवाने का कितना मन होता था. वो जैसे बदल कर कोई और हो गयी थी और मेरे लिए सर्वथा नयी थी. जहाँ पहले मुझे उसके मम्मो और उसकी जाँघो के जोड़ पर देखने से अपराधबोध, झिजक महसूस होती थी, अब हर बितते दिन के साथ मैं उन्हे आसानी से बिना किसी झिजक के देखने लगा था बल्कि जो भी मैं देखता उसकी अपने मन में खूब जम कर उसकी तारीफ भी करता. मुझे नही मालूम उसने इस बदलाव पर कोई ध्यान दिया था या नही मगर कयि मौकों पर मैं बड़ी आसानी से पकड़ा जा सकता था.

एक दिन आधी रात को मैं टीवी देख रहा था, मुझे किचन में माँ के कदमो की आहट सुनाई दी. उस समय उसे सोते होना चाहिए था मगर वो जाग रही थी. वो ड्रॉयिंग रूम में मेरे पास आई. उसके हाथ में जूस का ग्लास था.

"मैं भी तुम्हारे साथ टीवी देखूँगी?" वो छोटे सोफे पर बैठ गयी जो बड़े सोफे से नब्बे डिग्री के कोने पर था जिस पे मैं बैठा हुआ था. उसने नाइटी पहनी हुई थी जिसका मतलब था वो सोई थी मगर फिर उठ गई थी.

"नींद नही आ रही" मैने पूछा. मेरे दिमाग़ में उसकी टेलिफोन वाली बातचीत गूँज उठी जिसमे उसने कहा था कि कभी कभी उसे चुदवाने की इतनी जबरदस्त इच्छा होती थी कि उसे नींद नही आती. मैं सोचने लगा क्या उस समय भी उसकी वोही हालत है, कि शायद वो काम की आग यानी कामाग्नी में जल रही है और उसे नींद नही आ रही है, इसीलिए वो टीवी देखने आई है. इस बात का एहसास होने पर कि मैं अती कामोत्तेजित नारी के साथ हूँ मेरा बदन सिहर उठा.

वो वहाँ बैठकर आराम से जूस पीने लगी , उसे देखकर लगता था जैसे उसे कोई जल्दबाज़ी नही थी, जूस ख़तम करके वापस अपने बेडरूम में जाने की. जब उसका ध्यान टीवी की ओर था तो मेरी नज़रें चोरी चोरी उसके बदन का मुआइना कर रही थी. उसके मोटे और ठोस मम्मों की ओर मेरा ध्यान पहले ही जा चुका था मगर इस बार मैने गौर किया उसकी टाँगे भी बेहद खूबसूरत थी. सोफे पे बैठने से उसकी नाइटी थोड़ी उपर उठ गयी थी और उसके घुटनो से थोड़ा उपर तक उसकी जाँघो को ढांप रही थी.

शायद रात बहुत गुज़र चुकी थी, या टीवी पर आधी रात को परवीन बाबी के दिलकश जलवे देखने का असर था, मगर मुझे माँ की जांघे बहुत प्यारी लग रहीं थी. बल्कि सही लफ़्ज़ों में बहुत सेक्सी लग रही थी. सेक्सी, यही वो लफ़्ज था जो मेरे दिमाग़ में गूंजा था जब हम दोनो टीवी देख रहे थे या मेरे केस में मैं, टीवी देखने का नाटक कर रहा था. असलियत में अगर मुझे कुछ दिखाई दे रहा था तो वो उसकी सेक्सी जांघे थी और यह ख़याल मेरे दिमाग़ में घूम रहा था कि वो इस समय शायद वो बहुत कामोत्तेजित है.


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वो काफ़ी समय वहाँ बैठी रही, अंत में बोलते हुए उठ खड़ी हुई "ओफफ्फ़! रात बहुत गुज़र गयी है. मैं अब सोने जा रही हूँ"

मैं कुछ नही बोला. वो उठ कर मेरे पास गुडनाइट बोलने को आई. नॉर्मली रात को माँ विदा लेते हुए मेरे होंठो पर एक हल्का सा चुंबन लेती थी जैसा मेरे बचपन से चला आ रहा था. वो सिर्फ़ सूखे होंठो से सूखे होंठो का क्षणिक स्पर्श मात्र होता था और उस रात भी कुछ ऐसा ही था, एक सूखा, हल्का सा लगभग ना मालूम होने वाला चुंबन. मगर उस रात उस चुंबन के अर्थ बदल गये थे, क्योंकि मेरे दिमाग़ में उसके कामुक अंगो की धुंधली सी तस्वीरें उभर रही थीं. वो एक हल्का सा अच्छी महक वाला पर्फ्यूम डाले हुए थी जिसने मेरी दशा और भी खराब कर दी. मैं उत्तेजित होने लगा था.

मैं उसे मूड कर रूम की ओर जाते देखता रहा. उसका सिल्की, सॉफ्ट नाइट्गाउन उसके बदन के हर कटाव हर मोड़ हर गोलाई का अनुसरण कर रहा था. वो उसकी गान्ड के उभार और ढलान से चिपका हुआ उसके चुतड़ों के बीच की खाई में हल्का सा धंसा हुआ था. उस दृश्य से माँ को एक सुंदर, कामनीय नारी के रूप में देखने के मेरे बदलाव को पूर्ण कर दिया था.

"माँ कितनी सुंदर है, कितनी सेक्सी है" मैं खुद से दोहराता जा रहा था. मगर उसकी सुंदरता किस काम की! वो आकर्षक और कामनीय नारी हर रात मेरे पिताजी के पास उनके बेड पर होती थी मगर फिर भी उनके अंदर वो इच्छा नही होती थी कि उस कामोत्तेजित नारी से कुछ करें. मुझे पिताजी के इस रवैये पर वाकाई में बहुत हैरत हो रही थी.

मुझे इस बात पर भी ताज्जुब हो रहा था कि मेरी माँ अचानक से मुझे इतनी सुंदर और आकर्षक क्यों लगने लगी थी. वैसे ये इतना भी अचानक से नही था मगर यकायक माँ मेरे लिए इतनी खूबसूरत, इतनी कामनीय हो गयी थी इस बात का कुछ मतलब तो निकलता था. क्यों मुझे वो इतनी आकर्षक और सेक्सी लगने लगी थी? मुझे एहसास था कि इस सबकी शुरुआत मुझे माँ की अपूर्ण जिस्मानी ख्वाहिशों की जानकारी होने के बाद हुई थी, लेकिन फिर भी वो मेरी माँ थी और मैं उसका बेटा और एक बेटा होने के नाते मेरे लिए उन बातों का ज़्यादा मतलब नही होना चाहिए था. उसकी हसरतें किसी और के लिए थीं, मेरे लिए नही, मेरे लिए बिल्कुल भी नही.

अगर उस समय मैं कुछ सोच सकता था तो सिर्फ़ अपनी हसरतों के बारे में, और माँ के लिए मेरे दिल में पैदा हो रही हसरतें. मगर फिर मैं उसकी ख्वाहिश क्यों कर रहा था? क्या वाकाई वो मेरी खावहिश बन गयी थी? मेरे पास किसी सवाल का जवाब नही था. यह बात कि वो कभी कभी बहुत उत्तेजित हो जाती थी और यह बात कि उसकी जिस्मानी हसरतें पूरी नही होती थीं,

इसी बात ना माँ के प्रति मेरे अंदर कुछ एहसास जगा दिए थे. यह बात कि वो चुदवाने के लिए तरसती है, मगर मेरा पिता उसे चोदता नही है, इस बात से मेरे दिमाग़ में यह विचार आने लगा कि शायद इसमे मैं उसकी कुछ मदद कर सकता था. मगर हमारा रिश्ता रास्ते में एक बहुत बड़ी बढ़ा थी, इसलिए वास्तव में उसके साथ कुछ कर पाने की संभावना मेरे लिए नाबराबार ही थी. मगर मेरे दिमाग़ के किसी कोने में यह विचार ज़रूर जनम ले चुका था कि कोशिस करने में कोई हर्ज नही है. उस संभावना ने एक मर्द होने के नाते माँ के लिए मेरे जज़्बातों को और भी मज़बूत कर दिया था चाहे वो संभावना ना के बराबर थी.

ज़्यादातर मैं रात को काफ़ी लेट सोता था, यह आदत मेरी स्कूल दिनो से बन गयी थी जब मैं आधी रात तक पढ़ाई करता था, कॉलेज जाय्न करने के बाद से यह आदत और भी पक्की हो गयी थी. मेरा ज़्यादातर वक़्त कंप्यूटर पर काम करते गुज़रता था मगर माँ के बारे में वो जानकारी हासिल होने के बाद, और जब से मुझे इस बात का एहसास हुया था कि माँ का बदन कितना कामुक है वो कितनी सेक्सी है, और उसकी उपस्थिति में जो कामनीय आनंद मुझे प्राप्त होने लगा था उससे मैं अब टीवी देखने को महत्व देने लगा था. मैं अक्सर ड्रॉयिंग रूम में बैठ कर टीवी देखता और आशा करता कि वो आएगी और मुझे फिर से वोही आनंद प्राप्त होगा.

माँ का ध्यान मेरी नयी दिनचर्या की ओर जाने में थोड़ा वक़्त लगा. शुरू शुरू में वो कभी कभी संयोग से वहाँ आ जाती और थोड़ा वेकार बैठती, और टीवी पर मेर साथ कुछ देखती. मगर जल्द ही वो नियमित तौर पर मेरे साथ बैठने लगी. मगर वो कभी भी लंबे समय तक नही बैठती थी मगर इतना समय काफ़ी होता था एक सुखद एहसास के लिए. मुझे लगा वो घर में अपनी मोजूदगी का किसी को एहसास करवाना चाहती थी

रात को जाने के टाइम उसकी विशेज़ कयि बार ज़ुबानी होती थी, वो हल्के से गुडनाइट बोल देती थी और कयि बार वो हल्का सा होंठो से होंठो का स्पर्श, वो एक सूखा सा स्पर्श मात्र होता था और मेरे ख्याल से वो किसी भी प्रकार चुंबन कह कर नही पुकारा जा सकता था. जो गर्माहट मुझे पहले पहले माँ के चुंबन से होती थी वो समय के साथ उनकी आदत होने से जाती रही. उन चुंबनो में ना कोई असर होता था और ना ही उनका कोई खास मतलब होता था. वो तो सिर्फ़ हमारे विदा लेने की औपचारिकता मात्र थी, एक ऐसी औपचारिकता जिसकी मुझे कोई खास परवाह नही थी.

क्रमशः......................................
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