उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

Jemsbond
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Re: उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

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विनोदिनी- "भाई साहब, यह सब आपके शास्त्र की बात है। ये बातें सुनने- जैसी मति अभी अपनी नहीं हुई। अपनी पोथी पटककर एक बार अंतर्यामी की तरह मेरे दिल की दुनिया में बैठो। आज मैं अपना भला-बुरा, सब तुमसे कहना चाहती हूँ।"
बिहारी- "पोथी क्या यों ही खोले बैठा हूँ, भाभी? हृदय को हृदय के क़ानून से समझने की ज़िम्मेदारी अंतर्यामी पर ही रहे, हम पोथी के अनुसार न चलें तो अंत में पार नहीं पड़ने का।" विनोदिनी- "बेहया होकर कहती हूँ सुनो, तुम मुझे लौटा सकते हो। महेन्द्र मुझे चाहता है, मगर वह अंधा है, मुझे नहीं समझता। कभी यह लगा था कि तुमने मुझे समझा है- कभी तुमने मुझ पर श्रद्धा की थी- सच-सच बताओ, आज इस बात को छिपाने की कोशिश मत करो!"
बिहारी- "सच है, मैंने श्रद्धा की थी।"
विनोदिनी- "तुमने ग़लती नहीं की थी भाई साहब! लेकिन जब समझ ही लिया, जब श्रद्धा की ही थी, तो फिर वहीं क्यों रुक गए? मुझे प्यार करने में तुम्हें क्या बाधा थी? आज मैं बेहया बनकर तुम्हारे पास आई हूँ और बेहया होकर ही तुमसे कहती हँ, तुमने भी मुझे प्यार क्यों नहीं किया? मेरी फूटी तकदीर! या तुम भी आशा की मुहब्बत में गर्क हो गए! न, नाराज़ नहीं हो सकते तुम! बैठो, आज मैं छिपाकर कुछ नहीं कहना चाहती। आशा को तुम प्यार करते हो, इस बात का जब खुद तुम्हें भी पता न था, मैं जानती थी। लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि आशा में तुम लोगों ने देखा क्या है! बुरा या भला- उसके पास है क्या? विधाता ने क्या मर्दों को ज़रा भी अन्तर्दृष्टि नहीं दी है? तुम लोग आखिर क्या देखकर, कितना देखकर दीवाने हो जाते हो।"
बिहारी उठ खड़ा हुआ बोला- "आज तुम जो कुछ भी कहोगी, आदि से अंत तक मैं सब सुनूँगा, मगर इतनी ही विनती है, जो बात कहने की नहीं है, वह मत कहो।"
विनोदिनी- "तुम्हे कहाँ दुखता है, जानती हूँ भाई साहब। लेकिन मैंने जिसकी श्रद्धा पाई थी और जिसका प्रेम पाने से मेरी ज़िन्दगी बन सकती थी, लाज-डर, सबको बाला-ए-ताक धर कर उसके पास दौड़ी आई हूँ-कितनी बड़ी वेदना लेकर आई हूँ, कैसे बताऊँ? मैं बिलकुल सच कहती हूँ, तुम आशा को प्यार करते होते तो उसकी आज यह गत न हुई होती।"
बिहारी फक रह गया। बोला- "आशा को क्या हुआ? कौन-सी गत की तुमने।"
विनोदिनी- "अपना घर-बार छोड़कर महेन्द्र मुझे लेकर कल चल देने को तैयार है।"
बिहारी एकाएक चीख पड़ा- "यह हर्गिज नहीं हो सकता, हर्गिज नहीं।"
विनोदिनी- "हर्गिज नहीं? महेन्द्र को रोक कौन सकता है?"
बिहारी- "तुम रोक सकती हो।"
विनोदिनी ज़रा देर चुप रही, उसके बाद बिहारी पर अपनी ऑंखें रोककर कहा- "आखिर किसके लिए रोकूँ? तुम्हारी आशा के लिए? मेरा अपना सुख-दु:ख है ही नहीं? तुम्हारी आशा का भला हो, तुम्हारे महेन्द्र की दुनिया बनी रहे- यह सोचकर मैं अपने आज का अपना सारा दावा त्याग दूँ। इतनी भली मैं नहीं हूँ- इतना शास्त्र मैंने नहीं पढ़ा। मैं छोड़ दूँगी तो उसके बदले मुझे क्या मिलेगा?"
धीरे-धीरे बिहारी के चेहरे का भाव सख्त हो आया। बोला- "तुमने बहुत साफ-साफ कहने की कोशिश की है, अब मैं भी एक बात स्पष्ट बताऊँ। आज जो भी हरकत तुमने की है, और जो बेहूदा बातें कह रही हो, इसकी अधिकांश ही उस साहित्य से चोरी की हुई हैं, जो तुमने
पढ़ा है। इसका पचहत्तर फीसदी नाटक और उपन्यास है।"
विनोदिनी- "नाटक! उपन्यास!"
बिहारी- "हाँ, नाटक, उपन्यास। वह भी वैसे महत्व का नहीं। तुम सोचती हो, यह सारा कुछ तुम्हारा निजी है- बिलकुल ग़लत। यह सब छापेखाने की प्रतिध्व नि है। तुम अगर निहायत अबोध, सीधी-सादी बालिका होतीं, तो भी संसार में प्रेम से वंचित न होतीं- लेकिन नाटक की नायिका रंगमंच पर ही फबती है, उससे घर का काम नहीं चलता।"
कहाँ है विनोदिनी का वह तीखा तेज, दारुण दर्प! मंत्रबिद्ध नागिन-सी वह स्तब्ध होकर झुक गई। बड़ी देर के बाद बिहारी की ओर देखे बिना ही शांत और नम्र स्वर में बोली- "तो मैं क्या करूँ?" बिहारी बोला- "अनोखा कुछ न करो। एक सामान्य स्त्री के अच्छे विचार से जो आए, वही करो। अपने घर चली जाओ।"
विनोदिनी ने कहा- "कैसे जाऊँ?"
बिहारी- "गाड़ी में तुम्हें औरतों वाले डिब्बे में बिठाकर तुम्हारे घर के स्टेशन तक छोड़ आऊँगा मैं।" विनोदिनी- "आज की रात यहीं रहूँ?"
बिहारी- "नहीं, अपने ऊपर मुझे इतना विश्वास नहीं।"
सुनते ही विनोदिनी कुर्सी से उतरकर ज़मीन पर लोट गई। बिहारी के दोनों पैरों को जी-जान से अपनी छाती से चिपकाकर बोली- "इतनी कमज़ोरी तो रखो भाई साहब! बिलकुल पत्थर के देवता- जैसे पवित्रा मत बनो। बुरे को प्यार करके ज़रा-सा बुरा तो बनो।"
कहकर विनोदिनी ने बिहारी के पाँवों को बार-बार चूमा। विनोदिनी के ऐसे आकस्मिक और अकल्पनीय व्यवहार से ज़रा देर के लिए तो बिहारी मानो अपने को ज़ब्त न कर सका। उसकी तन-मन की सारी गाँठें ढीली पड़ गईं। बिहारी की इस विह्नल दशा का अनुभव करके विनोदिनी ने उसके पैर छोड़ दिए, अपने घुटनों के बल ऊँची होकर उसने कुर्सी पर बैठे बिहारी की गर्दन को बाँहों से लपेट लिया। बोली- "मेरे सर्वस्व, जानती हूँ, तुम मेरे सदा के लिए नहीं, लेकिन आज एक पल के लिए तुम मुझे प्यार करो! फिर मैं अपने उसी जंगल मे चली जाऊँगी- किसी से कुछ भी न चाहूँगी। मरने तक याद रखने लायक़ एक कोई चीज़ दो।"
ऑंखें मूँदकर विनोदिनी ने अपने होठ बिहारी की ओर बढ़ा दिए। ज़रा देर के लिए दोनों सन्न रह गए, सारा घर सन्नाटा। इसके बाद धीरे-धीरे विनोदिनी की बाँहें हटाकर बिहारी दूसरी कुर्सी पर जा बैठा और रुँधी-सी आवाज़ साफ़ करके कहा- "रात को एक बजे एक पैसेंजर गाड़ी है।"
विनोदिनी ज़रा देर खामोश रही, फिर बोली- "उसी गाड़ी से चली चलूँगी।" इतने में नंगे पाँव, ख़ाली बदन अपना गोरा स्वस्थ शरीर लिये बसन्त बिहारी के पास आ खड़ा हुआ और गंभीर होकर विनोदिनी को देखने लगा।
बिहारी ने पूछा- "सोने नहीं गया, बसन्त?"
बसन्त ने कोई उत्तर न दिया। उसी तरह गंभीर खड़ा रहा। विनोदिनी ने अपने दोनों हाथ फैला दिए। बसन्त ने पहले तो ज़रा आगा-पीछा किया, फिर विनोदिनी के पास चला गया। विनोदिनी उसे छाती से लगाकर ज़ोर से रो पड़ी।
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असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेन्द्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कहकर महेन्द्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महेन्द्र के यहाँ पहुँचा। आशा उस समय बिस्तर पर ही थी। बैरे ने आवाज़ दी- "माँ जी, चिट्ठी।"
आशा के कलेजे पर लहू ने धक् से चोट की। पलक मारने भर की देर में हज़ारों आशा-आशंकाएँ एक साथ ही उसकी छाती में बज उठीं। झटपट सिर उठाकर उसने पत्र देखा, महेन्द्र के अक्षरों में विनोदिनी का नाम। तुरंत उसका माथा तकिए पर लुढ़क पड़ा। बोली कुछ नहीं। चिट्ठी बैरे को वापस कर दी। बैरे ने पूछा- "किसे दूँ?"
आशा ने कहा- "मैं नहीं जानती।"
रात के आठ बज रहे होंगे। महेन्द्र ऑंधी की तरह लपककर विनोदिनी के कमरे के सामने हाज़िर हुआ। देखा, कमरे में रोशनी नहीं है। घुप्प अंधेरा। जेब से दियासलाई निकालकर एक तीली जलाई। कमरा ख़ाली पड़ा था। विनोदिनी नहीं थी, उसका सरो-समान भी नदारद। दक्खिन वाले बरामदे में गया। वह भी सूना पड़ा था। आवाज़ दी- "विनोदिनी!" कोई जवाब नहीं।
'नासमझ! नासमझ हूँ मैं। उसी समय साथ ले जाना चाहिए था। माँ ने ज़रूर उसे इस बुरी तरह डाँटा-फटकारा है कि वह टिक न सकी।'
ध्याान में यही आया और अटल विश्वास बन गया। अधीर होकर वह उसी दम माँ कमरे में गया। रोशनी वहाँ भी न थी, लेकिन राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं- यह अंधेरे में भी दिखा। महेन्द्र ने रंजिश में कहा- "माँ, तुम लोगों ने विनोदिनी से क्या कहा।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "कुछ नहीं।"
महेन्द्र- "तो वह कहाँ गई?"
राजलक्ष्मी- "मैं क्या जानूँ?"
महेन्द्र ने अविश्वास के स्वर में कहा- "तुम नहीं जानतीं? खैर उसे तो मैं जहाँ भी होगी, ढूँढ़ ही निकालूँगा।"
महेन्द्र चल पड़ा। राजलक्ष्मी झटपट उठ खड़ी हुई और उसके पीछे-पीछे चलती हुई कहने लगीं- "मत जा, मेरी एक बात सुन ले, ठहर।"
महेन्द्र दौड़कर एक ही साँस में घर से बाहर निकल गया। उलटे पाँवों लौटकर उसने दरबान से पूछा- "बहूजी कहाँ गईं?"
दरबान ने कहा- "हमें बताकर नहीं गईं। पता नहीं।"
महेन्द्र ने चीखकर कहा- "पता नहीं।"
दरबान ने हाथ बाँधकर कहा- "जी नहीं, नहीं मालूम।"
महेन्द्र ने सोचा, "माँ ने इन्हें पट्टी पढ़ा दी है।" बोला- "खैर।"
महानगरी के राजपथ पर गैस की रोशनी के मारे अंधेरे में बर्फ़ वाला बर्फ़ और मछली वाला मछली की रट लगा था। भीड़ की हलचल में घुसकर महेन्द्र ओझल हो गया।
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रात के अंधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यामन नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमुखता देकर वह मजे में था। लेकिन अचानक ज़ोर के धक्के से एक दिन उसका सब कुछ विच्छिन्न हो गया-प्रलय के अंधेरे में वेदना की आकाश-छूती चोटी पर उसे अकेले खुद को लेकर खड़ा होना पड़ा। उसी समय अपने निर्जन संग से उसे भूलकर भी अवकाश नहीं देना चाहता।
लेकिन आज अपने उस भीतर वाले को बिहारी किसी भी तरह से दूर न रख सका। कल वह विनोदिनी को उसके घर छोड़ आया, उसके बाद जो भी काम, जिस भी आदमी के साथ जुटा रहा है, उसका गुफा के अन्दर का वेदनामय हृदय उसे अपने गहरे एकांत की ओर लगातार खींच रहा था।
थकावट और अवसाद ने आज बिहारी को परास्त कर दिया। रात के ठीक नौ बजे होंगे। घर के सामने दक्खिन वाली छत पर गर्मी के दिन-ढले की हवा उतावली-सी हो उठी थी। वह अंधेरी छत पर एक आराम-कुर्सी पर बैठ गया।
आज शाम को उसने बसन्त को पढ़ाया नहीं- जल्दी ही वापस कर दिया। आज सांत्वना के लिए, संग के लिए, प्रेम-सुधा- सने अपने पिछले जीवन के लिए उसका हृदय मानो माँ द्वारा त्यागे गए शिशु की तरह संसार के अंधेरे में दोनों बाँहें फैलाकर न जाने किसे खोज रहा था! जिनके बारे में न सोचने की उसने कसम खाई थी- उसका अंतर्मन उन्हीं की ओर दौड़ रहा था- रोकने की शक्ति ही नहीं रह गई थी। छुटपन से छूट जाने तक महेन्द्र से उसकी मैत्री की जो कहानी रंगों में चित्रित, जल-स्थल, नदी-पर्वत में बँटी मानचित्र- जैसी उसके मन में सिमटी पड़ी थी, बिहारी ने उसे फैला दिया। लेकिन फिर भी यह बिछोह और वेदना अनोखी नेह-किरणों रंगी माधुरी से भरी-पूरी रही। उसके बाद जिस शनि का उदय हुआ, जिसने मित्र के स्नेह, दंपती के प्रेम घर की शांति और पवित्राता को एकबारगी मटियामेट कर दिया, उस विनोदिनी को बिहारी ने बेहद घृणा से अपने मन से निकाल फेंकने की कोशिश की। लेकिन गज़ब! चोट गोया निहायत हल्की हो आई, उसे छू न सकी। वह अनोखी ख़ूबसूरत पहेली अपनी अगम रहस्यभरी घनी काली ऑंखों की स्थिर निगाह लिये कृष्ण पक्ष के अंधेरे में बिहारी के सामने डटकर खड़ी हो गई। गर्मी की रात की उमगी हुई दक्खिनी बयार उसी के गहरे नि:श्वास-सी बिहारी को छूने लगी। धीरे-धीरे उन अपलक ऑंखों की जलती हुई निगाह मलिन हो आने लगी, प्यास से सूखी वह तेज नजर ऑंसुओं में भीगकर स्निग्ध हो गई और देखते-ही-देखते गहरे भावरस में डूब गई। अचानक उस मूर्ति ने बिहारी के कदमों के पास लौटकर उसकी दोनों जाँघों को जी-जान से अपनी छाती से पकड़ लिया। उसके बाद एक अनूठी मायालता की तरह उसने पल में बिहारी को लपेट लिया और फैलकर तुरन्त खिले सुगंधित फूल- जैसे चुम्बनोन्मुख मुखड़े को बिहारी के होठों के पास बढ़ा दिया। ऑंखें मूँदकर अपनी सुधियों की दुनिया से बिहारी उस कल्पमूर्ति को निर्वासित कर देने की चेष्टा करने लगा; लेकिन उस पर आघात करने को उसका हाथ हर्गिज न उठा! एक अधूरा अकुलाया चुंबन उसके मुँह के पास उत्सुक हो रहा- पुलक से उसने उसे आच्छन्न कर दिया।
छत पर के सूने अंधेरे में बिहारी और न रह सका। किसी और तरफ ध्या न बँटाने के ख्याल से वह जल्दी-जल्दी चिराग की रोशनी से जगमग कमरे में चला आया।
कोने में तिपाई पर रेशमी कपड़े में टँकी एक मढ़ी हुई तस्वीर थी। बिहारी ने कपड़ा हटाया, तस्वीर को लेकर रोशनी के पास बैठा और उसे अपनी गोद में रखकर देखने लगा।
तस्वीर महेन्द्र और आशा की थी- ब्याह के तुरंत बाद की। उसमें महेन्द्र ने अपने लेख में 'महेन्द्र भैया' और आशा ने 'आशा' लिख दिया था।
तस्वीर को अपनी गोद में रखकर धिक्कारते हुए बिहारी ने विनोदिनी को मन से दूर हटाना चाहा। लेकिन विनोदिनी की प्रेम-कातर, यौवन कोमल बाँहें बिहारी की जाँघों को जकड़े रहीं। बिहारी मन-ही-मन बोला- 'प्रेम की इतनी अच्छी दुनिया को तबाह कर दिया! लेकिन विनोदिनी का उमगा आकुल चुंबन- निवेदन उससे चुपचाप कहने लगा- 'मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। सारी दुनिया में मैंने तुम्हीं को अपनाया है।' 'लेकिन यही क्या इसका उत्तर हुआ! एक उजड़ी हुई दुनिया की करुणाभरी चीख को यह बात ढक सकती है! पिशाचिन!'
पिशाचिन! यह बिहारी की निखालिस झिड़की थी या इसमें ज़रा स्नेह का सुर भी आ मिला था? जीवन में प्रेम के सारे अधिकारों से वंचित होकर जब वह निरा भिखारी-सा राह पर जा खड़ा हुआ, तब अनमाँगे अजस्र प्रेम के ऐसे उपहार को वह तहेदिल से ठुकरा सकता है! और इससे बेहतर उसे मिला भी क्या! अब तक तो वह अपने जीवन की बलि देकर प्रेम की अन्नपूर्णा ने महज़ उसी के लिए सोने की थाली में पकवान परोसकर भेजा है, तो किस संकोच से वह अभागा अपने को उससे वंचित करे ?
तस्वीर को गोद में रखे वह इसी तरह की बातों में डूबा हुआ था कि पास ही आहट हुई। चौंककर देखा, महेन्द्र आया है। वह हड़बड़ी में खड़ा हो गया। तस्वीर गोद से फर्श के कालीन पर लुढ़क पड़ी। बिहारी ने इसका ख्याल न किया।
महेन्द्र एकबारगी पूछ बैठा- "विनोदिनी कहाँ है?"
बिहारी ने ज़रा आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया। बोला- "महेन्द्र भैया, बैठ जाओ, अभी बातें करते हैं।"
महेन्द्र ने कहा- "मेरे पास बैठने और बात करने का वक्त नहीं है। तुम यह बताओ कि विनोदिनी कहाँ है?"
बिहारी ने कहा- "तुम जो पूछ रहे हो, एक वाक्य में जवाब नहीं दिया जा सकता। उसके लिए ज़रा बैठना पड़ेगा।" महेन्द्र ने कहा- "उपदेश दोगे? वे सारे उपदेश मैं बचपन में ही पढ़ चुका हूँ।"
बिहारी- "नहीं। उपदेश देने का न तो मुझे अधिकार है, न क्षमता।"
महेन्द्र- "तो धिक्कारोगे? मुझे पता है, मैं पापी हूँ, और तुम जो कहोगे, वह सब हूँ मैं। लेकिन सिर्फ इतना पूछना चाहता हूँ, विनोदिनी कहाँ है?" बिहारी- "मालूम है।"
महेन्द्र- "मुझे तो बताओगे या नहीं?"
बिहारी- "नहीं बताऊँगा।"
महेन्द्र- "तुम्हें बताना ही पड़ेगा। तुम उसे चुरा लाए हो और छिपाकर रखे हुए हो। वह मेरी है। मुझे लौटा दो।"
बिहारी कुछ क्षण ठगा-सा रहा। फिर दृढ़ता से बोला-"वह तुम्हारी नहीं है। मैं उसे चुराकर भी नहीं लाया- वह खुद-ब-खुद मेरे पास आई है।" महेन्द्र चीख उठा- "सरासर झूठ!"
और महेन्द्र ने बगल के कमरे के दरवाज़े पर धक्का देते हुए आवाज़ दी- "विनोद! विनोद!"
अन्दर से रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। बोला- "कोई डर नहीं विनोद, मैं महेन्द्र हूँ- मैं तुम्हें कोई कैद करके नहीं रख सकता।"
महेन्द्र ने ज़ोर से धक्का दिया कि किवाड़ खुल गया। दौड़कर अंदर गया। कमरे में अंधेरा था। धुंधली छाया-सी उसे लगी। न जाने वह किस डर के मारे काठ होकर तकिए से लिपट गया। जल्दी से बिहारी कमरे में आया। बिस्तर से बसंत को गोद में उठाकर दिलासा देता हुआ बोला- "डर मत बसंत, मत डर।"
महेन्द्र लपकर वहाँ से निकला। घर के एक-एक कमरे की खाक छान डाली। उधर से लौटकर देखा, अब भी बसन्त डर से रह-रहकर रो उठता था। बिहारी ने उसके कमरे की रोशनी जलाई। उसे बिछौने पर सुलाकर बदन सहलाते हुए उसे सुलाने की चेष्टा करने लगा।
महेन्द्र ने आकर पूछा- "विनोदिनी को तुमने कहाँ रखा है?"
बिहारी ने कहा- "महेन्द्र भैया, शोर न मचाओ। नाहक ही तुमने इस बच्चे को इतना डरा दिया की यह बीमार हो जाएगा। मैं कहता हूँ, विनोदिनी के बारे में जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं।"
महेन्द्र बोला- "महात्माजी, धर्म का आदर्श न बनो। मेरी स्त्री की तस्वीर अपनी गोद में रखकर इस रात को किस देवता के ध्याकन में किस पुण्य मन्त्र का जाप कर रहे थे? पाखंडी!"
कहकर महेन्द्र ने तस्वीर को जूते से रौंदकर चूर-चूर कर डाला और फोटो के टुकड़े-टुकड़े करके बिहारी पर फेंक दिया। उसका पागलपन देखकर बसन्त फिर रो पड़ा। गला रुँध आया बिहारी का। अंगुली से दरवाज़े का इशारा करते हुए वह बोला- "जाओ!"
महेन्द्र ऑंधी की तरह वहाँ से निकल गया।
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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की ज़िंदगी ताज़ी हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के बीच अपने-आप बनाए कल्पना के बसेरे में अपनी किताबों से उलझकर कुछ दिनों के इस नगर-प्रवास के दु:ख-दाह और जख्म से उसे शान्ति मिलेगी।
प्यासी छाती में चैन की वह उम्मीद ढोती हुई विनोदिनी अपने घर पहुँची। मगर हाय, चैन कहाँ! वहाँ तो केवल शून्यता थी, थी गरीबी। बहुत दिनों से बन्द पड़े सीले घर के भाप से उसकी साँस अटकने लगी। घर में जो थोड़ी-बहुत चीज़ थीं, उन्हें कीड़े चाट गए थे, चूहे कुतर गए थे, गर्द से बुरा हाल था। वह शाम को घर पहुँची- और घर में पसरा था बाँह- भर अंधेरा। सरसों के तेल से किसी तरह रोशनी जलाई- उसके धुएँ और धीमी जोत से घर की दीनता और भी साफ़ झलक उठी। पहले जिससे उसे पीड़ा नहीं होती थी, वह अब असह्य हो उठी-उसका बागी हृदय अकड़कर बोल उठा- "यहाँ तो एक पल भी नहीं कटने का। ताक पर दो- एक पुरानी पत्रिकाएँ और किताबें पड़ी थीं, किन्तु उन्हें छूने को जी न चाहा। बाहर सन्न पड़े-से आम के बगीचे में झींगुर और मच्छरों की तानें अंधेरे में गूँजती रहीं।"
विनोदिनी की जो बूढ़ी अभिभाविका वहाँ रहती थी, वह घर में ताला डालकर अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चली गई थी। विनोदिनी अपनी पड़ोसिन के यहाँ गई। वे तो उसे देखकर दंग रह गईं। उफ, रंग तो ख़ासा निखर आया है, बनी-ठनी, मानो मेम साहब हो। इशारे से आपस में जाने क्या कहकर विनोदिनी पर गौर करती हुईं एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।
विनोदिनी पग-पग पर यह महसूस करने लगी कि अपने गाँव से वह सब तरह से बहुत दूर हो गई है। अपने ही घर में निर्वासित-सी। कहीं पल-भर आराम की जगह नहीं।
डाकखाने का बूढ़ा डाकिया विनोदिनी का बचपन से परिचित था। दूसरे दिन वह पोखर में डुबकी लगाने जा रही थी कि डाक का थैला लिये उसे जाते देख विनोदिनी अपने-आपको न रोक सकी। अगोछा फेंक जल्दी से बाहर निकलकर पूछा- "पंचू भैया, मेरी चिट्ठी है?"
बुङ्ढे ने कहा- "नहीं।"
विनोदिनी उतावली होकर बोली- "हो भी सकती है। देखूँ तो ज़रा।"
यह कहकर उसने चिट्ठियों को उलट-पलटकर देखा। पाँच-छ: ही तो चिट्ठियाँ थीं। मुहल्ले की कोई न थी। उदास-सी जब घाट पर लौटी तो उसकी किसी सखी ने ताना दिया- "क्यों री बिन्दी, चिट्ठी के लिए इतनी परेशान क्यों?"
दूसरे एक बातूनी ने कहा- "अच्छी बात है, अच्छी! डाक के ज़रिये चिट्ठी आए, ऐसा भाग कितनों का होता है? हमारे तो पति, देवर, भाई परदेस में काम करते हैं, मगर डाकिए की मेहरबानी तो कभी नहीं होती।" बातों-ही-बातों में मज़ाक साफ़ चि‍‍कोटी गहरी होने लगी। विनोदिनी बिहारी से निहोरा कर आई थी- निहायत ही रोज़-रोज़ लिखते न बने, तो कम-से-कम हफ्ते में दो बार तो दो पंक्तियाँ ज़रूर लिखे। आज ही बिहारी की चिट्ठी आए, यह उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, लेकिन आकांक्षा ऐसी बलवती हो कि वह दूर सम्भावना की आशा भी विनोदिनी न छोड़ सकी। उसे लगने लगा, जाने कब से कलकत्ता छूट गया है! गाँव में महेन्द्र को लेकर किस क़दर उसकी निन्दा हुई थी, दोस्त-दुश्मन की दया से यह उसकी अजानी न रही। शांति कहाँ!
गाँव के लोगों से उसने अपने को अछूता रखने की कोशिश की। लोग-बाग इससे और भी बिगड़ उठे। पापिनी को पास पाकर घृणा और पीड़न के विलास सुख से अपने को वे वंचित नहीं रखना चाहते। छोटा-सा गाँव- अपने को सबसे छिपाए रखने की कोशिश बेकार है। यहाँ जख्मी हृदय को किसी कोने में दुबकाकर अंधेरे में सेवा-जतन की गुंजाइश नहीं- जहाँ-तहाँ से कौतूहल-भरी निगाह जख्म पर आकर पड़ने लगी। उसका अन्तर टोकरी में बन्द पड़ी ज़िन्दा मछली-सा तड़पने लगा। यहाँ आज़ादी के साथ पूरी तरह दु:ख भोग सकने की भी जगह नहीं।
दूसरे दिन जब चिट्ठी का समय निकल गया तो कमरा बन्द करके विनोदिनी पत्र लिखने बैठी- "भाई साहब, डरो मत, मैं तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने नहीं बैठी हूँ। तुम मेरे विचारक हो, तुम्हें प्रणाम करती हूँ। मैंने जो पाप किया, तुमने उसकी बड़ी सख्त सज़ा दी। तुम्हारा हुक्म होते ही मैंने उस सज़ा को माथे पर रख लिया है। अफशोस इसी बात का है कि तुम देख नहीं सके कि यह सज़ा कितनी कड़ी है। देख पाते, कहीं जान पाते, तो तुम्हारे मन में जो दया होती, मैं उससे भी वंचित रही। तुम्हें याद करके, मन-ही-मन तुम्हारे पाँवों के पास माथा टेके मैं उसे भी बर्दाश्त करूँगी। लेकिन प्रभु, कैदी को क्या खाना भी नसीब नहीं होता? व्यंजन न सही, जितना-भर न मिलने से काम नहीं चल सकता, उतना भोजन तो उसका बँधा होता है? मेरे इस निर्वासन का आहार है तुम्हारी दो पंक्तियाँ- वह भी न बदा हो तो वह निर्वासन-दण्ड नहीं, प्राण-दण्ड है। सज़ा देने वाले मेरी इतनी बड़ी परीक्षा न लो। मेरे पापी मन में दम्भ की हद न थी- स्वप्न में भी मुझे यह पता न था कि किसी के आगे मुझे इस क़दर सिर झुकाना पड़ेगा। जीत तुम्हारी हुई प्रभो, मैं बगावत न करूँगी। मगर मुझ पर रहम करो, मुझे जीने दो। इस सूने जंगल में रहने का थोड़ा-बहुत सहारा मुझे दिया करना। फिर तो तुम्हारे शासन से मुझे कोई भी किसी भी हालत में डिगा न सकेगा। यही दुखड़ा रोना था। और जो बातें जी में हैं, कहने को कलेजा मुँह को आता है।- पर वे बातें तुम्हें न बताऊँगी, मैंने शपथ ली है। उस शपथ को मैंने पूरा किया। -तुम्हारी विनोदिनी।"
विनोदिनी ने पत्र डाक में डाल दिया। मुहल्ले के लोग छि:-छि: करने लगे। कमरा बन्द किए रहती है, चिट्ठी लिखा करती है, चिट्ठी के लिए डाकिए को जाकर तंग करती है- दो दिन कलकत्ता रहने से क्या लाज-धरम को इस तरह घोलकर पी जाना चाहिए!
उसके बाद के दिन भी चिट्ठी न मिली। विनोदिनी दिन-भर गुमसुम रही।
बिहारी का उसके पास कुछ भी न था- एक पंक्ति की चिट्ठी तक नहीं। कुछ भी नहीं। वह शून्य में मानो कोई चीज़ खोजती फिरने लगी। बिहारी की किसी निशानी को अपने कलेजे से लगाकर सूखी ऑंखों में वह ऑंसू लाना चाहती थी। ऑंसुओं में मन की सारी कठिनता को गलाकर, विद्रोह की भभकती आग को बुझाकर, वह बिहारी के कठोर आदेश को अन्तर के कोमलतम प्रेम-सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। लेकिन सूखे के दिनों की दोपहरी के आसमान- जैसा उसका कलेज़ा सिर्फ जलने लगा।
विनोदिनी ने सुन रखा था, हृदय से जिसे पुकारो, उसे आना ही पड़ता है। इसीलिए हाथ बाँधे ऑंखें मूँदकर वह बिहारी को पुकारने लगी- 'मेरा जीवन सूना पड़ा है, हृदय सूना है, चारों ओर सुनसान है- इस सूनेपन के बीच तुम एक बार आओ। घड़ी-भर को ही सही- तुम्हें आना पड़ेगा। मैं तुम्हें हर्गिज़ नहीं छोड़ सकती।' हृदय से इस तरह पुकारने से विनोदिनी को मानो सच्चा बल मिला। उसे लगा, प्रेम की पुकार का यह बल बेकार नहीं जाने का।
साँझ का दीप-विहीन अंधेरा कमरा जब बिहारी के ध्यादन से घने तौर पर परिपूर्ण हो उठा, जब दीन-दुनिया, गाँव-समाज, समूचा त्रिभुवन प्रलय में खो गया तो अचानक दरवाज़े पर थपकी सुनकर विनोदिनी झटपट ज़मीन पर से उठ खड़ी हुई और दृढ़ विश्वास के साथ दौड़कर दरवाज़ा खोलती हुई बोली- "प्रभु, आ गए?" उसे पक्का विश्वास था कि इस घड़ी दूसरा कोई उसके दरवाज़े पर नहीं आ सकता। महेन्द्र ने कहा- "हाँ, आ गया विनोद!"
विनोदिनी बेहद खीझ से बोल उठी- "चले जाओ, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से। अभी चल दो तुरन्त।" महेन्द्र को मानो काठ मार गया।
"हाँ री बिन्दी, तेरी ददिया सास अगर कल..." कहते-कहते कोई प्रौढ़ा पड़ोसिन विनोदिनी के दरवाज़े पर आकर सहसा 'हाय राम!' कहती हुई लम्बा घूँघट काढ़कर भाग गई।
39
टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे होकर बड़े-बूढ़ों ने कहा- "अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था- मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेन्द्र को चिट्ठी, लिख-लिखकर उसे बुलाकर यहाँ ऐसा खुलकर खेलना, यह बेहयाई! ऐसी पापिन को गाँव में नहीं रहने दिया जा सकता।"
विनोदिनी को विश्वास था कि बिहारी का जवाब आज ज़रूर आएगा। लेकिन न आया। अपने मन में वह कहने लगी- 'बिहारी का मुझ पर अधिकार कैसा! मैं उसका हुक्म मानने क्यों गई? मैंने उसे यह क्यों समझने दिया कि वह जैसा कहेगा, सिर झुकाकर मैं वही मान लूँगी। उससे तो मेरा महज़ उतने ही भर का नाता है, जितना-भर उसकी प्यारी आशा को बचाने की ज़रूरत है। मेरा अपना कोई पावना नहीं, दावा नहीं, मामूली दो पंक्तियां की चिट्ठी भी नहीं- मैं इतनी तुच्छ हूँ?' डाह के ज़हर से विनोदिनी का कलेज़ा भर गया।
काठ की मूरत- जैसी सख्त बनी विनोदिनी जब कमरे में बैठी थी, उसकी ददिया सास दामाद के यहाँ से लौटीं और आते ही उससे बोलीं- "अरी मुँहजली, यह सब क्या सुन रही हूँ?" विनोदिनी ने कहा- "जो सुन रही हो, सब सच है।"
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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Re: उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

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ददिया सास बोलीं- "तो फिर इस कलंक का बोझा लिये यहाँ आने की क्या पड़ी थी- आई क्यों यहाँ?" रुँधे क्रोध से विनोदिनी चुप बैठी रही।
वह बोलीं- "मैं कहे देती हूँ, यहाँ तुम नहीं रह सकती। अपनी खोटी तकदीर, सब तो मर ही गए- वह दु:ख सहकर भी मैं ज़िन्दा हूँ- तुमने हमारा सिर झुका दिया। तुम तुरन्त यहाँ से चली जाओ।" इतने में बिना नहाया- खाया महेन्द्र रूखे- बिखरे बालों से वहाँ आ पहुँचा। तमाम रात जागता रहा था-ऑंखें लाल-लाल, चेहरा सूखा पड़ा। उसने संकल्प किया था कि मुँहअंधेरे ही आकर वह विनोदिनी को साथ ले जाने की फिर से कोशिश करेगा। लेकिन पहले दिन विनोदिनी में अभूतपूर्व घृणा देख उसके मन में तरह-तरह की दुविधा होने लगी। धीरे-धीरे जब वेला चढ़ आई, गाड़ी का समय हो आया, तो स्टेशन के मुसाफिरखाने से निकलकर, मन से सारे तर्क-वितर्क दूर करके वह गाड़ी से सीधा विनोदिनी के यहाँ पहुँचा। हया-शर्म छोड़कर दुस्साहस का काम करने पर आमादा होने से जो एक स्पर्धापूर्ण बल पैदा हो आता है, उसी बल के आवेश में महेन्द्र ने एक उदभ्रांत आनन्द का अनुभव किया- उसका सारा अवसाद और दुविधा जाती रही। गाँव के कौतुहल वाले लोग उस उन्मत्त दृष्टि में उसे काग़ज़ के निर्जीव पुतले-से लगे। महेन्द्र ने किसी तरफ नहीं देखा, सीधा विनोदिनी के पास जाकर बोला- "विनोद, इस लोकनिंदा के खुले मुँह में तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँ, ऐसा कायर मैं नहीं हूँ। जैसे भी हो, तुम्हें यहाँ से ले ही जाना पड़ेगा। बाद में तुम मुझे छोड़ देना चाहो, छोड़ देना! मैं कुछ भी न कहूँगा। तुम्हारा बदन छूकर मैं कसम खाता हूँ, तुम जैसा चाहोगी, वही होगा। दया कर सको, तो जीऊँगा और न कर सको, तो तुम्हारी राह से दूर हट जाऊँगा। दुनिया में अविश्वास के काम मैंने बहुतेरे किए हैं। पर आज तुम मुझ पर अविश्वास न करो। अभी हम कयामत के मुँह पर खड़े हैं, यह धोखे का समय नहीं।" विनोदिनी ने बड़े ही सहज भाव से दृढ़ होकर कहा-"मुझे अपने साथ ले चलो। गाड़ी है?"
महेन्द्र ने कहा- "है।"
विनोदिनी की सास ने बाहर आकर कहा- "महेन्द्र, तुम मुझे नहीं पहचानते, मगर तुम हम लोगों के बिराने नहीं हो। तुम्हारी माँ राजलक्ष्मी हमारे ही गाँव की लड़की है, गाँव के रिश्ते से मैं उसकी मामी होती हूँ। मैं तुमसे पूछती हूँ, यह तुम्हारा क्या रवैया है! घर में तुम्हारी स्त्री है, माँ है और तुम ऐसे बेहया पागल बने फिरते हो? भले समाज में तुम मुँह कैसे दिखाओगे?"
महेन्द्र निरुत्तर हो गया तो बुढ़िया बोली- "जाना ही हो तो अभी चल दो, तुरन्त। मेरे घर के बरामदे पर खड़े न रहो- पल-भर की भी देर न करो। अब।"
कहकर बुढ़िया भीतर गई और अन्दर से दरवाज़ा बन्द कर लिया। बे-नहाई, भूखी, गन्दे कपड़े पहने विनोदिनी ख़ाली हाथों गाड़ी पर जा सवार हुई। जब महेन्द्र भी चढ़ने लगा तो वह बोली- "नहीं, स्टेशन बहुत क़रीब है, तुम पैदल चलो।"
महेन्द्र ने कहा- "फिर तो गाँव के सब लोग मुझे देखेंगे।"
विनोदिनी ने कहा- "अब भी लाज रह गई है क्या?"
और गाड़ी का दरवाज़ा बन्द करके विनोदिनी ने गाड़ीवान से कहा- "स्टेशन चलो!" गाड़ीवान ने पूछा- "बाबू नहीं चलेंगे?"
महेन्द्र ज़रा आगा-पीछा करने के बाद जाने की हिम्मत न कर सका। गाड़ी चल दी। गाँव की गैल छोड़कर महेन्द्र सिर झुकाए खेतों के रास्ते चला।
गाँव की बहुओं को नहाना-खाना हो चुका था। जिन प्रौढ़ाओं को देर से फुरसत मिली, केवल वही अगोछा और तेल का कटोरा लिये बौराए आम के महमह बगीचे की राह घाट को जा रही थीं।
40
महेन्द्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा- ऐसे में विनोदिनी को लेकर महेन्द्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रखकर वह अपने घर गया।
माँ के कमरे में जाकर देखा, कमरा लगभग अंधेरा है। लालटेन की ओट दी गई है। राजलक्ष्मी मरीज़- जैसी बिस्तर पर पड़ी है और पायताने बैठी आशा उनके पाँव सहला रही है। इतने दिनों के बाद घर की बहू को सास के पैरों का अधिकार मिला है।
महेन्द्र के आते ही आशा चौंकी और कमरे से बाहर चली गई। महेन्द्र ने ज़ोर देकर सारी दुविधा हटाकर कहा- "माँ, मुझे यहाँ पढ़ने में सुविधा नहीं होती, इसलिए मैंने कॉलेज के पास एक डेरा ले लिया है। वहीं रहूँगा।"
बिस्तर के एक ओर का इशारा करके राजलक्ष्मी ने कहा- "ज़रा बैठ जा।"
महेन्द्र सकुचाता हुआ बिस्तर पर बैठ गया। बोली-"जहाँ तेरा जी चाहे, तू रह। मगर मेरी बहू को तकलीफ मत देना!" महेन्द्र चुप रहा।
राजलक्ष्मी बोलीं- "अपना भाग ही खोटा है, तभी मैंने अपनी अच्छी बहू को नहीं पहचाना।"- कहते-कहते राजलक्ष्मी का गला भर आया- "लेकिन इतने दिनों तक समझता, प्यार करके तूने उसे इस तकलीफ में कैसे डाला?"
राजलक्ष्मी से और न रहा गया। रो पड़ीं।
वहाँ से उठ भागे तो जी जाय महेन्द्र। लेकिन तुरन्त भागते न बना। माँ के बिस्तर के एक किनारे चुपचाप बैठा रहा। बड़ी देर के बाद राजलक्ष्मी ने पूछा- "आज रात तो यहीं रहेगा न?"
महेन्द्र ने कहा- "नहीं।"
राजलक्ष्मी ने पूछा- "कब जाओगे?"
महेन्द्र बोला- "बस अभी।"
तकलीफ से राजलक्ष्मी उठीं। कहा- "अभी? बहू से एक बार मिलेगा भी नहीं? अरे बेहया, तेरी बेरहमी से मेरा तो कलेजा फट गया।" कहकर राजलक्ष्मी टूटी डाल-सी बिस्तर पर लेट गईं।
महेन्द्र उठकर बाहर निकला। दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़कर वह अपने ऊपर के कमरे की ओर चला। वह चाहता नहीं था कि आशा से भेंट हो।
ऊपर पहुँचते ही उसकी नज़र पड़ी, कमरे के सामने सायबान वाले बरामदे में आशा ज़मीन पर ही पड़ी थी। उसने महेन्द्र के पैरों की आहट नहीं सुनी थी, अचानक उसे सामने देख कपड़े सम्हालकर उठ बैठी। इस समय कहीं एक बार भी महेन्द्र ने चुन्नी कहकर पुकारा होता, तो वह महेन्द्र के सारे अपराधों को अपने सिर लेकर माफ की गई अपराधिनी की तरह उसके दोनों पैर पकड़कर जीवन-भर का रोना रो लेती। लेकिन महेन्द्र वह नाम लेकर न पुकार सका है।
आशा संकोची बैठी रही। महेन्द्र ने भी कुछ न कहा। चुपचाप छत पर टहलने लगा। चाँद अभी तक उगा न था। छत के एक कोने में छोटे-से गमले के अन्दर रजनीगंधा के दो डंठलों में दो फूल खिले थे। छत पर के आसमान के वे नखत, वह सतभैया, वह कालपुरुष, उनके जाने कितनी संध्यार के एकांत प्रेमाभिनय के मौन गवाह थे- आज वे सब टुकुर-टुकुर ताकते रहे।
महेन्द्र सोचने लगा- इधर के इन कई दिनों की इस विप्लव-कथा को इस आसमान के अंधेरे से पोंछकर ठीक पहले की तरह अगर खुली छत पर चटाई डाले आशा की बगल में उसी सदा की जगह में सहज ही बैठ पाता! कोई सवाल नहीं, कोई जवाबदेही नहीं; वही विश्वास, वही प्रेम, वही सहज आनन्द! लेकिन हाय, यहाँ उतनी-सी जगह को फिर लौटने की गुंजाइश नहीं। छत की चटाई पर आशा के पास की जगह का वह हिस्सा महेन्द्र ने खो दिया है। अब तक विनोदिनी का महेन्द्र से एक स्वाधीन संबंध था, प्यार करने का पागल सुख था, लेकिन अटूट बन्धन नहीं था। अब वह विनोदिनी को खुद समाज से छीनकर ले आया है, अब उसे कहीं भी रख आने की, कहीं भी लौटा आने की जगह नहीं रही- महेन्द्र ही अब उसका एक-मात्र अवलंब है। अब इच्छा हो या न हो, विनोदिनी का सारा भार उसे उठाना ही पड़ेगा।
लम्बी उसाँस लेकर महेन्द्र ने एक बार आशा की ओर देखा। मौन रुलाई से अपनी छाती भरे आशा तब भी उसी तरह बैठी थी- रात के अंधेरे ने माँ के दामन की तरह उसकी लाज और वेदना लपेट रखी थी। न जाने क्या कहने के लिए महेन्द्र अचानक आशा के पास आकर खड़ा हुआ। सर्वांग की नसों का लहू आशा के कान में सिमटकर चीखने लगा- उसने ऑंखें मूंद लीं। महेन्द्र सोच नहीं पाया कि वह आखिर क्या कहने आया था- कहने को उस पर है भी क्या? लेकिन, बिना कुछ कहे अब लौट भी न सका। पूछा- "कुंजियों का झब्बा कहाँ है?"
कुंजियों का झब्बा बिस्तर के नीचे था। आशा उठकर कमरे में चली गई। महेन्द्र उसके पीछे-पीछे गया। बिस्तर के नीचे से कुंजियाँ निकालकर आशा ने बिस्तर पर रख दीं। झब्बे को लेकर महेन्द्र अपने कपड़ों की अलमारी में एक-एक कुंजी लगाकर देखने लगा। आशा रह न सकी। बोल पड़ी- "उस अलमारी की कुंजी मेरे पास न थी।"
कुंजी किसके पास थी, यह बात उसकी ज़बान से न निकल सकी, लेकिन महेन्द्र ने समझा। आशा जल्दी-जल्दी कमरे के बाहर निगल गई; उसे डर लगा, कहीं महेन्द्र के पास ही उसकी रुलाई न छूट पड़े। अंधेरी छत की दीवार के एक कोने की तरफ मुँह फेरकर खड़ी-खड़ी उफनती हुई वह रुलाई दबाकर रोने लगी।
लेकिन रोने का ज़्यादा समय न था। एकाएक उसे याद आ गया, महेन्द्र के खाने का समय हो गया। तेज़ी से वह नीचे उतर गई। राजलक्ष्मी ने आशा से पूछा- "महेन्द्र कहाँ है, बहू?"
आशा ने कहा- "ऊपर।"
राजलक्ष्मी- "और तुम उतर आई?"
आशा ने सिर झुकाकर कहा- "उनका खाना..."
राजलक्ष्मी- "खाने का इंतज़ाम मैं कर रही हूँ- तुम ज़रा हाथ-मुँह धो लो और अपनी वह ढाका वाली साड़ी पहनकर मेरे पास आओ- मैं तुम्हारे बाल सँवार दूँ।"
सास के लाड़ को टालना भी मुश्किल था, लेकिन साज-शृंगार के इस प्रस्ताव से वह शर्मा गई। मौत की इच्छा करके भीष्म जैसे चुपचाप तीरों की वर्षा झेल गए थे, उसी प्रकार आशा ने भी बड़े धीरज से सास का सारा साज सिंगार स्वीकार कर लिया।
बन-सँवरकर धीमे-धीमे वह ऊपर गई। झाँककर देखा, महेन्द्र छत पर नहीं था। कमरे के दरवाज़े से देखा, वह कमरे में भी न था- खाना यों ही पड़ा था।
कुंजी नहीं मिली, सो अलमारी तोड़कर महेन्द्र ने कुछ ज़रूरी कपड़े और काम की किताबें निकाल लीं और चला गया।
अगले दिन एकादशी थी। नासाज़ और भारी-भारी-सी राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं। बाहर घटाएँ घिरी थीं। ऑंधी-पानी के आसार। आशा धीरे-धीरे कमरे में गई। धीरे-से उनके पैरों के पास बैठकर बोली- "तुम्हारे लिए दूध और फल ले आई हूँ माँ, चलो, खा लो!"
करुणा-मूर्ति बहू की सेवा की चेष्टा, जिसकी वह आदी न थी, देखकर राजलक्ष्मी की सूखी ऑंखें उमड़ आईं। वह बैठीं। आशा ने अपनी गोद में खींचकर उसके गीले गाल चूमने लगीं। पूछा- "महेन्द्र कर क्या रहा है, बहू!"
आशा लजा गई। धीमे-से कहा- "वे चले गए।"
राजलक्ष्मी- "चला गया? मुझे तो पता भी न चला।"
आशा बोली- "वे कल रात ही चले गए।"
सुनते ही राजलक्ष्मी की कोमलता मानो काफ़ूर हो गई; बहू के प्रति उनके स्नेह-स्पर्श में रस का नाम न रह गया। आशा ने एक मौन लांछन का अनुभव किया और सिर झुकाए चली गई।
41
रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़कर महेन्द्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफ़ी तो उसे कभी भी न थी, इतनी ज़रूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदलकर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार होकर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ ज़रा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाज़ा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी- ज़रा-सी चूक, ज़रा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराये मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेन्द्र के एकबारगी आमने-सामने रहकर सारी ज़िंदगी बितानी पड़ेगी। फ़र्क़ इतना ही है कि महेन्द्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।
अपनी इस असहाय अवस्था को वह जितना ही समझने लगी, उतना ही उसे बल मिलने लगा। कोई-न-कोई उपाय करना ही पड़ेगा, ऐसे काम नहीं चलने का।
बिहारी को प्रेम-निवेदित करने के दिन से ही विनोदिनी के धीरज का बाँध टूट गया था। अपने जिस उमगे हुए चुंबन को वह उसके पास लौटाकर ले आई, संसार में और किसी के पास उसे उतारकर नहीं रख सकती। पूजा के चढ़ावे की तरह देवता के लिए उसे रात-दिन ढोने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उसका मन कभी हथियार डाल देना नहीं जानता, निराशा वह नहीं मानती। उसका मन बार-बार उससे कह रहा था- "यह पूजा बिहारी को कबूल करनी ही पड़ेगी।"
उसके इस अदम्य प्रेम से उसकी आत्म-रक्षा की आकांक्षा आकर मिल गई। बिहारी के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। महेन्द्र को उसने अच्छी तरह समझ लिया था।- उस पर टिकना चाहो तो वह भार नहीं सह सकता- छोड़ने पर ही उसे पाया जा सकता है- पकड़ना चाहो कि भाग खड़ा होना चाहता है। लेकिन औरत के लिए जिस एक निश्चित, विश्वासी सहारे की नितांत आवश्यकता है, वह सहारा बिहारी ही दे सकता है। अब बिहारी को छोड़ने से उसका काम हर्गिज नहीं चल सकता।
यह सोचकर उसने खिड़की खोली और गैस की रोशनी से दमकते शहर की ओर देखने लगी, बिहारी अभी साँझ को इस शहर में ही है, यहाँ से एकाध रास्ते, दो-चार गलियाँ पार करके अभी-अभी उसके दरवाज़े पर मज़े में पहुँचा जा सकता है। द्वार के बाद ही नल वाला छोटा-सा अंगना, वही सीढ़ी, वही सज़ा-सजाया कमरा-सन्नाटे में बिहारी आराम-कुर्सी पर अकेला बैठा-शायद सामने खड़ा ब्राह्मण का वह लड़का, गोल-मटोल, गोरा-गोरा सुन्दर-सा वह लड़का नजर गड़ाये तस्वीरों वाली किसी किताब के पन्ने पलट रहा हो- एकाएक सारे चित्र को सुधि में लाकर स्नेह से, प्रेम से विनोदिनी का सर्वांग पुलकित हो उठा। जी चाहे तो अभी वहाँ पहुँच जाया जा सकता है। यह सोचकर विनोदिनी इस इच्छा को छाती से लगाए खेलने लगी। पहले की बात होती, तो शायद वह अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए लपक पड़ती, लेकिन अब आगे-पीछे बहुत सोचना पड़ता है। अब तो महज़ वासना पूरी करने का सवाल नहीं रहा, उद्देश्य की पूर्ति करनी है। विनोदिनी सोचने लगी- 'पहले यह देखूँ कि बिहारी जवाब क्या देता है, उसके बाद तय करूँगी कि किस रास्ते जाना है।' कुछ समझे बिना बिहारी को तंग करने के लिए जाने की हिम्मत न पड़ी।
इसी तरह सोचते-विचारते जब रात के नौ बज गए तो महेन्द्र लौटकर आ गया। ये कई दिन उसे भूखे-प्यासे, बदपरहेजी और उत्तेजना में कटे। आज कामयाब होकर विनोदिनी को वह अपने डेरे में ले आया; इसीलिए थकावट से मानो चूर-चूर हो गया। दुनिया से, अपने मन की हालत से लड़ने लायक़ बल उसमें नहीं रह गया था। भारों से लदे उसके भावी जीवन की थकावट ने मानो पहले से ही उसे दबोच लिया। बाहर से दरवाज़े के कड़े खटखटाने में महेन्द्र को बड़ी शर्म लगने लगी। जिस पागलपन में दुनिया का कोई ख्याल ही न किया, वह पागलपन कहाँ! रास्ते के अचीन्हे- अजाने लोगों की नज़र के सामने भी उसका सर्वांग सकुचा क्यों रहा है?
अन्दर नया नौकर सो गया था। दरवाज़ा खुलवाने के लिए बड़ा हंगामा करना पड़ा। अपरिचित नए डेरे के अंधेरे में पहुँचाने पर महेन्द्र का मन ढीला पड़ ही गया। माँ का लाड़ला महेन्द्र जिन विलास-उपकरणों- पंखे, कुर्सी, सोफे-का आदी रहा है, उसका अभाव यहाँ साफ़ दिख गया। इन कमी-खामियां को मिटाना ही पड़ेगा। डेरे के सारे इन्तज़ाम का भार उसी पर था। महेन्द्र ने आज तक कभी अपने या किसी के आराम के फ़िक्र नहीं की- आज से उसे एक नए और अधूरे संसार का तीली-तीली भार उठाना। सीढ़ी पर एक ढिबरी धुऑं उगलती हुई टिमटिमा रही थी; वहाँ के लिए एक लैम्प लाना पड़ेगा। बरामदे से सीढ़ी को जाने वाला रास्ता नल के पानी से चिपचिपाता रहता, मिस्त्री बुलाकर सीमेंट से उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। सड़क की तरफ के दो कमरे जूतों की दुकान वालों के जिम्मे थे, उन्होंने अभी तक उन्हें ख़ाली नहीं किया-मकान-मालिक से इसके लिए लड़ेगा। सारा काम खुद ही करना पड़ेगा- लम्हे-भर में यह बात दिमाग में आई और उसकी थकावट के भार पर और भी बोझ लद गया।
सीढ़ी पर कुछ देर खड़े रहकर महेन्द्र ने अपने को सँभाल लिया- विनोदिनी के प्रति जो प्रेम था, उसे उभारा। अपने-आपको समझाया कि आज तक सारी दुनिया को भूलकर उसने जो चाहा था, वह मिल गया- दोनों के बीच अब अड़चन की कोई दीवार नहीं- आज तो महेन्द्र की खुशी का दिन है। कोई अड़चन नहीं थी- लेकिन सबसे बड़ी अड़चन यही थी- आज वह आप ही अपनी बाधा था।
रास्ते में महेन्द्र को देखकर विनोदिनी ध्याअन के आसन से उठी। कमरे में रोशनी जलाई। सिलाई का काम लेकर नज़र झुकाए बैठ गई। सिलाई उसकी एक ओट- थी। उसकी आड़ में मानो उसका एक आश्रय था। कमरे में आकर महेन्द्र बोला- "यहाँ, ज़रूर तुम्हें बड़ी असुविधा हो रही है, विनोद!"
अपनी सिलाई में लगी-लगी बोली- "बिल्कुल नहीं।"
महेन्द्र बोला- "दो ही तीन दिनों में मैं सारा सामान ले आऊँगा। कुछ दिन तुम्हें थोड़ी तकलीफ होगी।"
विनोदिनी बोली- "नहीं, वह न होगा- तुम अब एक भी सामान और न लाओ- जो है, वही मेरे ज़रूरत से कहीं ज़्यादा है।" महेन्द्र ने कहा- "मैं अभागा भी क्या उससे कहीं ज़्यादा में हूँ?"
विनोदिनी- "अपने को उतना ज़्यादा लगाना ठीक नहीं, कुछ विनय रहनी चाहिए।"
दीये की जोत में सूने कमरे में सिर झुकाए विनोदिनी की उस आत्मतल्लीन मूर्ति को देखकर महेन्द्र के मन में फिर उसी मोह का संचार हुआ।
घर में होता तो दौड़कर विनोदिनी के पैरों में गिर पड़ता- मगर यह घर तो था नहीं, इसलिए वैसा न कर सका। आज विनोदिनी बड़ी बेचारी थी बिलकुल महेन्द्र की मुट्ठी में- आज अपने को संयत न रखे तो बड़ी कायरता होगी।
विनोदिनी ने कहा- "अपने किताब-कपड़े यहाँ क्यों ले आए?"
महेन्द्र ने कहा- "उन्हें मैं अपने लिए ज़रूरी सामान मानता हूँ- वे कहीं ज़्यादा वाले वर्ग में नहीं हैं..."
विनोदिनी- "मालूम है, मगर यहाँ क्यों?"
महेन्द्र- "ठीक है, आवश्यक चीज़ें यहाँ नहीं सोहतीं-विनोद, इन किताबों-विताबों को उठाकर रास्ते पर फेंक देना, मैं चूँ भी न करूँगा- केवल उनके साथ मुझे भी मत उठा फेंकना।" इतना कहकर महेन्द्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बँधी किताबों की गाँठ को विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।
उसी गंभीर भाव से सिलाई करती हुई विनोदिनी बोली- "भाई साहब, तुम यहाँ नहीं रहोगे।"
अपने उठते हुए आग्रह पर चोट पाकर महेन्द्र व्याकुल हो उठा। गद्गद स्वर में बोला- "क्यों, तुम मुझे दूर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारे लिए सब-कुछ छोड़ने का यही पुरस्कार है?" विनोदिनी- "अपने लिए मैं तुम्हें सब-कुछ न छोड़ने दूँगी।"
महेन्द्र कह उठा- "अब वह तुम्हारे हाथ की बात नहीं- सारी दुनिया मेरी चारों तरफ से खिसक पड़ी है-बस, एक तुम हो- तुम विनोद..." कहते-कहते विह्नल होकर महेन्द्र लौट पड़ा और विनोदिनी के पैरों को पकड़कर उन्हें बार-बार चूमने लगा।
पाँव छुड़ाकर विनोदिनी उठ खड़ी हुई। बोली- "याद नहीं, तुमने क्या प्रतिज्ञा की थी?"
सारी शक्ति लगाकर महेन्द्र ने अपने को ज़ब्त किया। कहा- "याद है मैंने शपथ ली थी कि तुम जो चाहोगी वही होगा, मैं कभी कोई एतराज़ न करूँगा। उस शपथ को मैं रखूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है?" विनोदिनी- "तुम अपने घर पर रहोगे।"
महेन्द्र- "एक मैं ही क्या तुम्हारी अनिच्छा की वस्तु हूँ, विनोद! अगर यही बात है तो तुम मुझे खींच क्यों लाई? जो तुम्हारे भोग की चीज़ न थी, उसके शिकार की क्या ज़रूरत पड़ी थी? सच-सच बताओ, मैंने स्वेच्छा से तुम्हें पकड़ लि‍या या तुमने जानकर मुझे पकड़ा? मुझसे तुम इस तरह खिलवाड़ करोगी और यह भी मुझे सहना पड़ेगा? फिर भी अपनी शपथ मैं रखूँगा, जिस घर को मैं लात मारकर आया, वहीं जाकर रहूँगा।"
विनोदिनी ज़मीन पर बैठी फिर से सिलाई में जुट गई।
कुछ देर तक उसके मुँह की ओर एकटक देखकर महेन्द्र बोल उठा- "बेरहम! निर्दयी हो तुम, विनोद! मैं बड़ा ही अभागा हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया।"
विनोदिनी से सिलाई में कोई गलती हो गई। रोशनी के पास बड़ी मेहनत से वह धागे को खोजने लगी। महेन्द्र के जी में आ रहा था कि विनोदिनी के संगदिल को अपनी मुट्ठी में लेकर पीस डाले। उसकी इस मौन निर्दयता और अडिग उपेक्षा को धक्का देकर बाहु-बल से शिकस्त देने को जी चाह रहा था।
महेन्द्र बाहर निकला और फिर-फिर लौट आया। बोला- "मैं न रहूँगा तो यह तुम्हारी हिफाज़त कौन करेगा?"
विनोदिनी- "उसकी तो तुम फ़िक्र ही न करो। बुआ ने उस छमिया नौकरानी को जवाब दे दिया है। आज से वह यहीं रहेगी। अन्दर से घर बन्द करके हम दोनों मज़े में यहाँ रह लेंगी।" भीतर-भीतर उस पर जितना ही गुस्सा आने लगा, विनोदिनी के लिए उसका उतना ही ज़बरदस्त खिंचाव होने लगा। उस टस से मस न होने वाली मूरत को वज्र की ताकत से छाती से चिपकाकर चूर-चूर कर देने की इच्छा होने लगी। अपनी उस प्रबल इच्छा के हाथों से छुटकारा पाने के लिए महेन्द्र दौड़कर कमरे से बाहर चला गया।
रास्ते से जाते हुए महेन्द्र प्रतिज्ञा करने लगा, उपेक्षा के बदले में वह विनोदिनी की उपेक्षा ही करेगा। संसार में महेन्द्र के सिवाय अब विनोदिनी का और कोई सहारा नहीं, ऐसी हालत में भी इस निडरता और अडिगता से उसे ठुकराना- किसी मर्द के नसीब में ऐसा भी अपमान कभी हुआ है। महेन्द्र का गर्व चूर-चूर होकर भी मटियामेट न हुआ- पीड़ित और दलित होता रहा। वह सोचने लगा- 'ऐसा नाचीज़ हूँ मैं! मेरे लिए ऐसी स्पर्धा उसके मन में कैसे आई? मेरे सिवाय इस समय उसका और है कौन?'
सोचते-सोचते अचानक याद आ गया- 'बिहारी'। सहसा उसके कलेजे का रक्त-प्रवाह थम गया। बिहारी को ही उसने अपना भरोसा माना है- मैं तो उपलक्ष्य-मात्र हूँ, उसकी सीढ़ी हूँ, पैर रखने की, कदम-कदम पर ठोकर मारने की जगह। इसी साहस पर मेरी ऐसी अवज्ञा।
महेन्द्र को शंका हुई कि विनोदिनी से बिहारी की चिट्ठी-पत्री चलती होगी और इसे कोई भरोसा मिला होगा। सोचा और उसी दम वह बिहारी के घर की ओर चल पड़ा। जब उसके घर पहुँचा, तो रात नहीं के बराबर बाकी रह गई थी। बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा पीटते-पीटते बैरे ने दरवाज़ा खोलकर बताया- "बाबूजी घर पर नहीं हैं।"
महेन्द्र चौंक उठा। सोचा, 'मैं इधर नासमझ की तरह मारा-मारा फिर रहा हूँ और इस मौके का फ़ायदा उठाकर बिहारी विनोदिनी के पास गया है। इसीलिए उसने इस बेरहमी से मेरा अपमान किया और मैं भी मारकर भगाए गए गदहे की तरह भाग आया।'
महेन्द्र ने उस जाने-पहचाने पुराने बैरे से पूछा-"भज्जो, मालिक तुम्हारे घर से किस वक्त निकले हैं?" भज्जो ने कहा- "जी, चार-पाँच दिन हो गए। पछाँह की ओर कहीं घूमने गए हैं।"
महेन्द्र की मानो जान में जान आई। जी में आया, 'अब आराम से थोड़ी देर सो लूँ। तमाम रात भटकते रहने की अब हिम्मत नहीं है।' वह ऊपर गया और बिहारी के कमरे में सोफे पर सो गया।
जिस रात महेन्द्र ने बिहारी के घर जाकर ऊधम मचाया, उसके दूसरे ही दिन बिना कुछ तय किए बिहारी न जाने कहाँ चला गया। उसने सोचा, 'यहाँ रहने से जाने कब अपने दोस्त से ऐसा घिनौना संघर्ष हो जाए कि जन्म-भर पछताना पड़े।'
दूसरे दिन महेन्द्र जगा तो ग्यारह बज चुके थे। उठते ही उसकी निगाह सामने की तिपाई पर पड़ी। देखा, बिहारी का एक पत्र पड़ा था। ठिकाने के हरफ विनोदिनी के थे। लिफाफा पत्थर के पेपर-वेट से दबा था। महेन्द्र ने झपटकर उसे उठा लिया। लिफाफा खोला नहीं गया था। प्रवासी बिहारी के इन्तज़ार में बन्द पड़ा था। काँपते हाथों से महेन्द्र ने उसे फाड़ डाला और पढ़ने लगा। यही चिट्ठी विनोदिनी ने अपने गाँव से बिहारी को भेजी थी, जिसका उसे कोई जबाव नहीं मिला था।
चिट्ठी का एक-एक अक्षर महेन्द्र को काटने लगा। छुटपन से सदा ही बिहारी महेन्द्र की ही ओट में पड़ा था। प्रेम-स्नेह के नाते महेन्द्र-देवता के गले की उतरी माला ही उसे नसीब हुआ करती। आज महेन्द्र स्वयं प्रार्थी तथा बिहारी विमुख था, फिर भी विनोदिनी ने महेन्द्र को ठुकराकर बिहारी को अपनाया। विनोदिनी की चिट्ठियाँ महेन्द्र को भी दो-चार मिली थीं, मगर इसके मुकाबले वे निरी नकली हैं, नासमझ को फुसलाने का बहाना!
अपना नया ठिकाना बताने के लिए महेन्द्र को गाँव के डाकखाने में भेजने की व्याकुलता महेन्द्र को याद आई और अब उसका कारण उसकी समझ में आया। विनोदिनी बिहारी के पत्र का बेसब्री से इन्तजार कर रही है।
जैसाकि पहले किया करता था, मालिक की गैरहाजिरी में भज्जो ने महेन्द्र को बाज़ार से लाकर चाय-नाश्ता दिया। नहाना महेन्द्र भूल गया। तभी जैसे रेत पर राही जल्दी-जल्दी क़दम उठाकर चलता है, उसी तरह विनोदिनी की जलाने वाली चिट्ठी पर वह तेजी से नजर दौड़ाने लगा। वह प्रतिज्ञा करने लगा कि विनोदिनी से अब हर्गिज भेंट न करूँगा।फिर मन में आया, 'और दो-एक दिन में जब उसे बिहारी का जवाब न मिलेगा, तो वह बिहारी के यहाँ आएगी और तब सारा हाल जानकर उसे तसल्ली होगी।' यह संभावना महेन्द्र के लिए असह्य हो गई।
आखिर उस पत्र को अपनी जेब में डालकर वह पटलडाँगा पहुँचा। महेन्द्र की यह गत देखकर विनोदिनी को दया आ गई। वह समझ गई- हो न हो तमाम रात वह रास्ते के ही चक्कर काटता रह गया है। पूछा- "रात घर नहीं गए?"
महेन्द्र ने कहा- "नहीं।"
विनोदिनी ने परेशान होकर पूछा- "अभी तक खाया-पिया भी नहीं क्या?" कहकर सेवा-परायणा विनोदिनी ने उसके खाने का इन्तज़ाम करना चाहा। महेन्द्र बोला- "रहने दो, मैं खा चुका हूँ।"
विनोदिनी- "कहाँ खाया?"
महेन्द्र- "बिहारी के यहाँ।"
पलभर के लिए विनोदिनी का चेहरा पीला पड़ गया। ज़रा देर चुप रहकर उसने अपने को सँभाला और पूछा-"बिहारी बाबू कुशल से तो हैं न?"
महेन्द्र बोला- "कुशल से ही है। वह तो पछाँह चला गया।" महेन्द्र ने कुछ इस लहज़े से कहा मानो बिहारी आज ही गया है।
विनोदिनी का चेहरा फिर एक बार पीला पड़ गया। फिर अपने को सँभालकर बोली- "ऐसा डाँवाडोल आदमी तो मैंने नहीं देखा। उन्हें हम लोगों का सारा हाल मालूम पड़ गया है? खूब नाराज़ हो गए हैं क्या?" महेन्द्र- "नाराज़ न हुआ होता तो इस शिद्दत की गर्मी में भी कोई भला आदमी पछाँह घूमने जाता है!"
विनोदिनी- "मेरे बारे में कुछ कहा?"
महेन्द्र- "कहने को क्या है। यह उसकी चिट्ठी लो!"
चिट्ठी उसके हाथ में देकर महेन्द्र तीखी नज़र से उसके मुँह के भाव पर गौर करने लगा।
विनोदिनी ने झट से चिट्ठी लेकर देखी, खुली थी वह। लिफाफे पर उसी के हरफ में बिहारी का नाम लिखा था। अन्दर से चिट्ठी निकाली। वह उसी की लिखी वही चिट्ठी थी। उलटकर देखा, बिहारी का जवाब तो कहीं न मिला।
थोड़ी देर चुप रहकर विनोदिनी ने पूछा- "यह चिट्ठी तुमने पढ़ी है?"
विनोदिनी के चेहरे के भाव से महेन्द्र को डर लगा। वह झूठ बोल गया- "नहीं।"
विनोदिनी ने चिट्ठी फाड़ डाली। उसके टुकड़े-टुकड़े किए और खिड़की से बाहर फेंक दिए।
महेन्द्र बोला- "मैं घर जा रहा हूँ।"
विनोदिनी ने कोई जवाब न दिया।
महेन्द्र- "तुमने जैसा चाहा है, मैं वैसा ही करूँगा। सात दिन मैं वहीं रहूँगा। कॉलेज आते समय रोज़ नौकरानी की मार्फत यहाँ का सारा प्रबन्ध कर जाया करूँगा। तुमसे भेंट करके तुम्हें आजिज़ न करूँगा।" विनोदिनी महेन्द्र की कोई बात सुन भी पाई या नहीं, कौन जाने, मगर उसने कोई जवाब न दिया। खुली खिड़की से बाहर अंधेरे आसमान को ताकती रही। अपनी चीज़ें उठाकर महेन्द्र वहाँ से निकल पड़ा।
सूने कमरे में विनोदिनी बड़ी देर तक काठ की मारी-सी बैठी रही और अंत में मानो जी-जान से अपने को सजग करने के लिए छाती का कपड़ा फाड़कर अपने पर बेरहमी से चोट करने लगी। आवाज़ पाकर नौकरानी दौड़ी आई- "दादी जी, क्या कर रही हैं?"
"तू चली जा यहाँ से"- डपटकर विनोदिनी ने छमिया को कमरे से बाहर निकाल दिया। उसके बाद ज़ोरों से किवाड़ बंद करके दोनों हाथों से मुट्ठी बाँधकर ज़मीन पर लोट गई- तीर खाए जानवर जैसी रोने लगी। अपने को इस तरह विक्षत और श्रांत बनाकर विनोदिनी रात-भर खिड़की के पास नीचे पड़ी रही।
सुबह जैसे ही सूरज की किरणें कमरे में आईं विनोदिनी को अचानक ऐसा लगा, बिहारी गया नहीं होगा, कहीं उसे चकमा देने के लिए महेन्द्र ने यों ही झूठ कह दिया हो। उसने छमिया को बुलाकर कहा- "छम्मी, तू फौरन ज़रा बिहारी भाई साहब के यहाँ जा-उन लोगों का हाल पूछ आ।"
छमिया कोई घंटे-भर बाद लौटकर बोली- "उनके घर के सारे खिड़की-दरवाज़े बन्द हैं। दरवाज़ा पीटने पर अन्दर से बैरा निकला। बोला- 'वे घर पर नहीं हैं। वे घूमने के लिए पछाँह गए हैं'।" विनोदिनी के संदेह का कोई कारण ही न रहा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Re: उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

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'महेन्द्र रात में ही उठकर चला गया,' यह सुनकर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुई। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा- "महेन्द्र रात चला क्यों गया?" आशा ने सिर झुकाकर कहा- "मालूम नहीं, माँ!"
राजलक्ष्मी को लगा, यह भी रूठने की बात है। आज़िजी से कहा- "तुम्हें नहीं मालूम तो किसे मालूम होगा? कुछ कहा था उससे?" आशा ने सिर्फ 'नहीं' कहा।
राजलक्ष्मी को यकीन न आया। ऐसा भी हो सकता है भला। पूछा- "कल वह गया कब?" सकुचाकर आशा बोली- "नहीं जानती।"
राजलक्ष्मी ने ज़ोर देकर यह भी कह दिया कि आशा के आचरण और स्वभाव की वजह से महेन्द्र घर से निकल गया। सिर झुकाकर यह फटकार झेलती हुई आशा अपने कमरे में जाकर रोने लगी। अपने मन में सोचने लगी, 'पता नहीं क्यों कभी मेरे स्वामी ने मुझे प्यार किया था और यह भी नहीं जानती कि उसका वह प्यार मैं फिर कैसे पा सकूँगी। जो प्यार करता है, उसे कैसे खुश करना चाहिए, हृदय आप ही यह बता देता है, लेकिन जो प्यार नहीं करता, उसके हृदय को कैसे पाया जा सकता है, आशा यह क्या जाने। जो आदमी किसी और को प्यार करता है, उससे सुहाग पाने-जैसी शर्मनाक कोशिश वह कैसे करे?' शाम को परिवार के ज्योतिषीजी और उनकी बहन आई। बेटे की ग्रहशांति के लिए राजलक्ष्मी ने उन्हें बुलवाया था। बहू की जन्म-कुंडली और हाथ देखने का राजलक्ष्मी ने उनसे अनुरोध किया, और इसके लिए आशा को वहाँ बुलवाया गया। दूसरों के आगे अपनी बदनसीबी की चर्चा के संकोच से कुंठित होकर आशा किस तरह से अपना हाथ निकालकर बैठी कि इतने में अपने कमरे के पास वाले अंधेरे बरामदे में राजलक्ष्मी को जूतों की हल्की-सी आहट सुनाई दी- कोई जैसे दबे पाँव जा रहा हो। राजलक्ष्मी ने पूछा- "कौन?" पहले तो कोई जवाब न मिला। फिर आवाज़ दी-"कौन है?" इस पर महेन्द्र चुपचाप कमरे में आया।
आशा खुश तो क्या होती, महेन्द्र की लज्जा देखकर लज्जा से उसका हृदय भर गया। अब महेन्द्र को अपने घर में ही चोर की तरह आना पड़ा है। ज्योतिषीजी और उनकी बहन के रहने से उसे और भी शर्म आई। दुनिया-भर के सामने अपने स्वामी के लिए लाज़ ही आशा को दु:ख से बड़ी हो उठी थी। और अब राजलक्ष्मी ने धीमे-से कहा-"बहू, पार्वती से कह दो, महेन्द्र का खाना लगा दो," तो आशा बोली-"न, मैं ही ले आती हूँ।"
घर की दास-दासियों से भी वह महेन्द्र को ढके रखना चाहती।
इधर ज्योतिषीजी और उनकी बहन को देखकर महेन्द्र मन-ही-मन बड़ा नाराज़ हुआ। उसकी माँ और स्त्री जंतर-मंतर से उसे वश में लाने के लिए इन अशिक्षित मूर्खों के साथ बेहयाई से साज़िश कर रही हैं, यह महेन्द्र को सहन नहीं हुआ। इस पर जब ज्योतिषीजी की बहन ने, ज़रूरत से ज़्यादा शहद- सने स्वर में पूछा- 'कुशल तो है, बेटे' तो उससे वहाँ बैठा न गया। उनके कुशल-प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही बोला- "माँ, मैं ज़रा ऊपर चलता हूँ।"
माँ ने समझा, महेन्द्र शायद एकांत में बहू से बात करना चाहता है। बेहद खुश होकर खुद रसोई में गई। जाकर आशा से कहा- "जाओ, जल्दी से ऊपर जाओ, महेन्द्र को शायद कुछ काम है।" आशा धड़कते हृदय और सकुचाते कदमों से ऊपर गई। सास के कहने से उसने यह समझा कि महेन्द्र ने शायद उसे बुलाया है। लेकिन अचानक ही उससे कमरे में जाते न बना, वह पहले अंधेरे दरवाज़े की आड़ से महेन्द्र को देखने लगी।
महेन्द्र बड़े ही सूने मन से फर्श के बिस्तर पर तकिए के सहारे लेटा-लेटा छत के शहतीर गिन रहा था। वही महेन्द्र तो था। सारा कुछ वही मगर कितना परिवर्तन!
आशा अंधेरे में खड़ी-खड़ी जितना ही महेन्द्र को देखने लगी, उतना ही उसके मन में होने लगा कि महेन्द्र अभी-अभी उसी विनोदिनी के यहाँ से आया है, उसके अंगों में उसी विनोदिनी का स्पर्श है, ऑंखों में उसी की मूरत, कानों में उसी विनोदिनी की आवाज़, मन में उसी विनोदिनी की वासना घुली-मिली है। आशा इस महेन्द्र को अपनी पवित्र भक्ति कैसे दे, कैसे एक मन से कहे कि आओ, मेरे हृदय में विराजो। विनोदिनी का महेन्द्र मानो आशा के लिए पराया पुरुष हो। इतने में छत के लोहे-लक्कड़ से महेन्द्र की अनमनी नज़र सामने की दीवार की तरफ उतरी। उसकी नज़र का अनुसरण करते हुए आशा ने देखा, दीवार पर महेन्द्र की तस्वीर के पास ही आशा का एक फोटो लटक रहा है। उसके जी में आया, दामन से उसे ढक दे। अभ्यासवश क्यों वह आज तक उसकी नज़र में न आया, क्यों अब तक उसने उतार नहीं फेंका, यही सोचकर वह अपने को धिक्कारने लगी। उसे लगा, महेन्द्र मन-ही-मन हँस रहा है। अंत में आजिज़ आए महेन्द्र की नज़र दीवार से नीचे उतर आई। अपनी मूर्खता मिटाने के लिए आशा आजकल साँझ को काम-काज और सास की सेवा से फुरसत पाते ही काफ़ी रात तक लिखा-पढ़ी करती थी। उसके पढ़ने-लिखने की कापी-किताबें कमरे में एक तरफ रखी हुई थीं। महेन्द्र ने उनमें से एक कापी उठा ली और देखने लगा। आशा की ख्वाहिश होने लगी कि चीखकर उसे छीन लाए। अपने कच्चे हरफ पर महेन्द्र की व्यंग्य दृष्टि की कल्पना करके वह एक पल-भर भी और न खड़ी रह सकी। तेज़ी से नीचे उतर गई- आहट छिपाने की भी चेष्टा न रही।
महेन्द्र का खाना तैयार था। राजलक्ष्मी सोच रही थी 'महेन्द्र बहू से हँसी दिल्लगी कर रहा होगा,' लिहाज़ा भोजन ले जाकर बीच ही में रुकावट डालने को जी नहीं चाह रहा था। आशा को उतरते देख खाने की जगह पर थाली रखकर उन्होंने महेन्द्र को खबर दी। महेन्द्र खाने जाने को उठा ही था कि आशा दौड़कर कमरे में गई और दीवार से अपनी तस्वीर उतारकर छत की दीवार के बाहर फेंक दी और अपनी कापी-किताबें उठा ले गई।
खा-पीकर महेन्द्र कमरे में आ बैठा। राजलक्ष्मी ने लेकिन बहू को आस-पास कहीं नहीं पाया। अंत में रसोई में जाकर देखा, आशा उनके लिए दूध उबाल रही थी। कोई ज़रूरत न थी इसकी, क्योंकि जो नौकरानी रोज़ दूध उबाला करती थी, वह पास ही थी और आशा के इस निरर्थक उत्साह पर ऐतराज़ कर रही थी। पानी डालकर जितना दूध वह रोज़ गायब करती थी, आज वह हाथ से जाता रहा, इससे वह अकुला रही थी।
राजलक्ष्मी बोलीं- "अरे, यहाँ क्यों बहू, ऊपर जाओ!"
आशा ने ऊपर जाकर सास के कमरे में पनाह ली। बहू के इस व्यवहार से राजलक्ष्मी नाराज़ हुईं। सोचा, 'उस मायाविनी के फंदे से निकलकर महेन्द्र घड़ी-भर के लिए घर भी आया, तो नाराज़ होकर, रूठ कर बहू फिर उसे घर से निकालने को तैयार! और विनोदिनी के फंदे में जो महेन्द्र पड़ा वह ही तो आशा के ही चलते। मर्द तो गलत राह पर चलने के लिए पाँव बढ़ाए ही रहता है। औरत का कर्तव्य है, छल-बल कौशल से उसे सही रास्ते पर रखे।'
राजलक्ष्मी ने फटकार बताई- "यह तुम्हारा क्या रवैया है, बहू! खुश-किस्मती से स्वामी कहीं घर आ गए तो मुँह लटकाए तुम इस- उस कोने में क्यों छिपी फिरती हो?" खुद को कसूरवार समझ अंकुश खाए हुए की तरह आशा ऊपर गई और मन को आगा-पीछा करने का ज़रा भी मौक़ा न देकर वह एक साँस में कमरे के अन्दर चली गई। दस बज चुके थे। उस समय महेन्द्र बिस्तर के पास खड़ा बेमतलब बड़ी देर से चिन्तित-सा मच्छरदानी झाड़ रहा था। उसके मन में विनोदिनी के लिए एक तीखा अभियान हो गया था। वह मन में सोच रहा था कि विनोदिनी ने आखिर मुझे ऐसा ख़रीदा हुआ ग़ुलाम समझ रखा है कि मुझे आशा के पास भेजते हुए उसके जी में ज़रा भी आशंका न हुई। कहीं मैं आज से आशा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करूँ तो वह किसके सहारे इस दुनिया में खड़ी होगी? उसने सोचा वह विनोदिनी से अपनी उपेक्षा का बदला ज़रूर लेगा।
आशा ने जैसे ही कमरे में क़दम रखा, महेन्द्र का अनमना होकर मच्छरदानी झाड़ना बन्द हो गया। एक समस्या हुई कि आशा से वह बोल-चाल कैसे शुरू करे। बनावटी हँसी हँसकर अचानक जो बात उसकी जबान पर आ गई, महेन्द्र वही बोला। बोला, "मैं देख रहा हूँ, तुमने भी मेरी तरह पढ़ने में जी लगाया है। यहाँ कापी-किताबें पड़ी देखी थीं, कहाँ गईं?" बात बेसिर-पैर की लगी। इतना ही नहीं, उसने आशा को चोट की। गँवार आशा शिक्षित होने की चेष्टा कर रही है, वह बड़ी ही गोपन बात थी उसकी। और उसका वह संकल्प अगर किसी के हँसी-मज़ाक के अभ्यास से भी गोपन रखने का विषय था तो वह ख़ासतौर से महेन्द्र। और उसी महेन्द्र ने जब बोल-चाल के आरम्भ में ही हँसकर वही बात चलाई, तो बेरहम बातों की मार खाए कोमल बच्चे के देह-सा उसका मन संकुचित और पीड़ित होने लगा। वह कुछ बोली नहीं मुँह फेरकर तिपाई का किनारा पकड़े खड़ी रही।
मुँह से बात निकलते ही महेन्द्र ने समझ लिया था कि बात संगत और समय के अनुकूल नहीं हुई। लेकिन ऐसी स्थिति में उपयुक्त बात क्या हो सकती है, वह सोच ही न सका। बीच में एक इतना बड़ा विद्रोह हो गया, उसके बाद पहले की तरह कोई सहज बात जँचती नहीं। महेन्द्र ने सोचा, 'मसहरी के अन्दर दाखिल हो जाऊँ, तो वहाँ के एकान्त से बात करना शायद सहज हो।' यह सोचकर अपनी धोती के छोर से वह फिर मसहरी झाड़ने लगा। नया अभिनेता रंगमंच पर जाने से पहले जैसे अपना पार्ट मन-ही-मन दुहराया करता है, महेन्द्र वैसे ही मसहरी के सामने खड़ा-खड़ा अपने वक्तव्य और कर्तव्य की सोचता रहा। इतने में हल्की-सी आहट हुई। महेन्द्र ने मुड़कर देखा, लेकिन आशा नहीं थी।
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अगले दिन महेन्द्र ने माँ से कहा- "माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।"
माँ खुश हो गई, "तब तो महेन्द्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई। भला अपनी ऐसी अच्छी बहू की सदा उपेक्षा कर सकता है। ऐसी लक्ष्मी को छोड़कर उस मायाविनी डायन के पीछे वह कब तक भूला रह सकता है?"
माँ ने झट कहा- "हर्ज क्या है, रहो!"
उन्होंने तुरन्त कुंजी निकाली, ताला खोला और झाड़-पोंछ की धूम मचा दी- "बहू, अरी ओ बहू, कहाँ गई?" बड़ी कठिनाई से घर के एक कोने में दुबकी हुई बहू को बरामद किया गया- "एक धुली चादर ले आओ! इस कमरे में मेज़ नहीं है, लगानी पड़ेगी। इस रोशनी से काम नहीं चलेगा, ऊपर से अपना वाला लैम्प भिजवा दो।" इस तरह दोनों ने मिलकर उस घर के राजाधिराज के लिए अन्नपूर्णा के कमरे में राज-सिंहासन तैयार कर दिया। महेन्द्र ने सेवा में लगी हुई माँ-बहू की तरफ ताका तक नहीं, वहीं किताब लिये ज़रा भी समय बर्बाद न करके गम्भीर होकर पढ़ने बैठ गया। शाम को भोजन के बाद वह फिर बैठा। सोना ऊपर के कमरे में होगा या वहीं, कोई न समझ सका। बड़े जतन से राजलक्ष्मी ने आशा को मूरत की तरह सजाकर कहा- "बहू, महेन्द्र से पूछ तो आओ, उसका बिस्तर क्या ऊपर लगेगा?"
इस प्रस्ताव पर आशा का पाँव हर्गिज़ न हिला, वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही। नाराज़ होकर राजलक्ष्मी खरी-खोटी सुनानें लगीं। बड़े कष्ट से आशा दरवाज़े तक गई, पर उससे आगे न बढ़ सकी। दूर से बहू का वह रवैया देखकर राजलक्ष्मी नाराज़ होकर इशारे से निर्देश करने लगीं। मरी-सी होकर आशा कमरे में गई। आहट पाकर किताबों से सिर न उठाकर ही महेन्द्र ने कहा- "मुझे अभी देर है- फिर तड़के से ही उठकर पढ़ना है- मैं यहीं सोऊँगा।"
शर्म की हद हो गई! आशा महेन्द्र को ऊपर सुलाने के लिए थोड़े ही गिड़गिड़ाने आई थी।
वह निकली। निकलते ही खीझकर राजलक्ष्मी ने पूछा- "क्यों, क्या हुआ?"
आशा बोली- "अभी पढ़ रहे हैं। वे यहीं सोएँगे।"
कहकर वह अपने अपमानित शयन-कक्ष में चली गई। कहीं उसे चैन नहीं- मानो सब कुछ दोपहर की धारती-सा तप उठा है। कुछ रात बीती, तो उसके कमरे के दरवाज़े पर थपकी पड़ी- "बहू, बहू, दरवाज़ा खोलो!"
आशा ने झटपट दरवाज़ा खोल दिया। दमे की मरीज़ राजलक्ष्मी सीढ़ियाँ चढ़कर तकलीफ से साँस ले रही थीं। कमरे में जाकर वह बिस्तर पर बैठ गईं और वाक्-शक्ति लौटते ही बोलीं- "तुम्हारी अक्ल की बलिहारी! ऊपर कमरा बन्द किए पड़ी हो! यह क्या राग-रोष का समय हे! इस मुसीबत के बाद भी तुम्हारे भेजे में बुध्दि नहीं आई! जाओ नीचे जाओ!" आशा ने धीमे-से कहा- "उन्होंने कहा है, एकांत में रहेंगे।"
राजलक्ष्मी- "कह दिया और हो गया। गुस्से में जाने क्या कह गया, उसी पर तुम तुनक बैठोगी। ऐसी तुनक-मिज़ाज होने से काम नहीं चलेगा। जाओ, जल्दी जाओ।" दु:ख के दिनों में सास को बहू से लाज नहीं। जो भी तरकीब उन्हें आती है, उसी से महेन्द्र को किसी तरह बाँधना पड़ेगा। आवेग से बातें करते हुए राजलक्ष्मी का फिर से दम फूलने लगा। अपने को थोड़ा-बहुत सँभालकर उठीं। आशा भी आजिज़ न होकर पकड़कर उन्हें नीचे लिवा ले गई। उनके सोने के कमरे में आशा ने उन्हें बिठा दिया और पीठ की तरफ तकिए लगाने लगी। राजलक्ष्मी बोलीं- "रहने दो बहू, किसी को भेज दो। तुम जाओ!"
अबकी आशा ज़रा भी न हिचकी। सास के कमरे से निकलकर सीधी महेन्द्र के कमरे में गई। महेन्द्र के सामने मेज़ पर किताब खुली पड़ी थी- वह मेज़ पर दोनों पैर रखकर कुर्सी पर माथा टेके ध्या्न से न जाने क्या सोच रहा था। उसके पीछे पैरों की आहट हुई। चौंककर उसने पीछे की ओर देखा। मानो किसी के ध्या न में लीन था- एकाएक धोखा हुआ कि वह आ गई। आशा को देखकर महेन्द्र सँभला। खुली किताब को उसने अपनी गोद में खींच लिया।
मन-ही-मन महेन्द्र को अचरज हुआ। इन दिनों ऐसे बेखटके तो आशा उसके सामने नहीं आती- अचानक भेंट हो जाती है तो वह वहाँ से चल देती है। आज इतनी रात को वह इस सहज भाव से उसके कमरे में आ गई, ताज्जुब है! किताब से ऑंखें हटाए बिना ही महेन्द्र ने समझा, आज आशा के लौट जाने का लक्षण नहीं। वह महेन्द्र के सामने आकर स्थिर भाव से खड़ी हुई। इस पर महेन्द्र से मान करते न बना। सिर उठाकर उसने देखा। आशा ने साफ़ शब्दों में कहा- "माँ का दम उखड़ आया है। चलकर एक बार देख लो तो अच्छा हो!" महेन्द्र- "वे हैं कहाँ?"
आशा- "अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।"
महेन्द्र- "अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।"
बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेन्द्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी- महेन्द्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाज़ा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रही। महेन्द्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देखकर राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, 'कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल देने की कहने आया हो।' पूछा- "अब तक सोया नहीं महेन्द्र?" महेन्द्र ने कहा- "क्या दमा उखड़ आया है, माँ?"
ज़माने के बाद यह सवाल सुनकर उनके मन में मान हो आया। समझीं, 'जब बहू ने जाकर बताया, तो यह माँ का हाल पूछने आया है।' इस आवेश से उनका कलेजा और भी काँपने लगा। किसी तरह बोलीं- "तू सो जाकर, यह कुछ नहीं।"
महेन्द्र- "नहीं, नहीं एक बार जाँच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की नहीं।"
महेन्द्र को पता था, माँ को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे का लक्षण देखकर उसे घबराहट हुई।
माँ ने कहा- "जाँचने की ज़रूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।"
महेन्द्र ने कहा- "खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूँ। सवेरे अच्छी तरह से देखा जाएगा।"
राजलक्ष्मी- "दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो गई, तुम सो जाओ।"
महेन्द्र- "तुम्हें ज़रा चैन तो मिले।"
इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाज़े पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा- "बहू, तुम रात में महेन्द्र को तंग करने के लिए यहाँ क्यों ले आईं!"
कहते-कहते उनकी साँस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई। उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में महेन्द्र से कहा- "तुम सोओ जाकर। मैं माँ के पास रहूँगी।"
महेन्द्र ने आशा को अलग बुलाकर कहा- "मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो-खुराक दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे-बाद दूसरी खुराक देना। रात में साँस और बढ़े तो मुझे खबर देना।"
कहकर महेन्द्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं- यह आशा अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेन्द्र ने अपेक्षा की थी, मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।
आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठकर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा- "तुम सोओ जाकर, बहू।"
आशा धीमे-से बोली- "मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।"
आशा समझती थी कि यह जानकर माँ खुश होंगी कि महेन्द्र उसे माँ की सेवा के लिए छोड़ गया है।
44
राजलक्ष्मी ने जब साफ़ समझ लिया कि आशा महेन्द्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेन्द्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठीक न हो जाएँ। इसलिए आशा से छिपाकर दवा फेंकने लगीं।
अनमना महेन्द्र ख़ास कुछ ख्याल नहीं करता था। लेकिन आशा यह देख रही थी कि राजलक्ष्मी की बीमारी दबने के बजाय कुछ बढ़ ही रही है। वह सोचती, 'महेन्द्र खूब सोच-विचारकर दवा नहीं दे रहा है- उसका मन इतना ही ख़राब हो गया है कि माँ की तकलीफ भी उसे सचेतन नहीं कर पाती।' उसकी इस दुर्गति‍ पर आशा अपने मन में उसे धिक्कारे बिना न रह सकी। एक तरफ से बिगड़ने पर कोई क्या हर तरफ से बर्बाद हो जाता है। एक दिन शाम को बीमारी की तकलीफ में राजलक्ष्मी को बिहारी की याद आ गई। जाने वह कब से नहीं आया। आशा से पूछा- "जानती हो बहू, बिहारी आजकल कहाँ है? उसका महेन्द्र से कुछ झगड़ा है, क्यों? यह उसने बड़ा बेजा किया, बहू! उस- जैसा महेन्द्र का भला चाहने वाला और कोई दोस्त नहीं।"
कहते-कहते उनकी ऑंखों में ऑंसू जमा हो आए। एक-एक करके आशा को बहुतेरी बातें याद आईं। अंधा और भोली आशा को समय पर चेताने के लिए जाने कितनी बार, कितनी कोशिश बिहारी ने की और उन्हीं कोशिशों के चलते वह आशा का अप्रिय हो उठा।
फिर बड़ी देर तक चुपचाप चिंतित रहकर राजलक्ष्मी बोल उठीं- "बहू, बिहारी होता तो हमारे इस आड़े वक्त में बड़ा काम आता। वह हमें बचाता, बात यहाँ तक न बढ़ पाती।"
आशा चुपचाप सोचती रही। उसाँस लेकर राजलक्ष्मी ने कहा- "उसे अगर मेरी बीमारी का पता चल जाए, तो वह हर्गिज़ नहीं रुक सकता।"
आशा समझ गई, राजलक्ष्मी चाहती हैं कि बिहारी को यह खबर मिले। बिहारी के न होने से वह असहाय-सी हो गई हैं।
कमरे की बत्ती गुल करके चाँदनी में महेन्द्र खिड़की के पास चुप खड़ा था। पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा था। घर में कोई आराम नहीं। जो नितांत अपने हैं, उनसे जब सहज नाता टूट जाता है तो उन्हें बिराने की तरह आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता और फिर प्रियजन के समान सहज ही अपनाया भी नहीं जा सकता।
पीछे आहट मिली। महेन्द्र ने समझा, आशा आई है। मानो आहट उसे मिली ही नहीं, इस भाव से वह स्थिर रहा। आशा बहाना ताड़ गई, फिर भी वह कमरे से बाहर नहीं गई। पीछे खड़ी-खड़ी बोली- "एक बात है, वही कहकर मैं चली जाऊँगी।"
महेन्द्र ने पलटकर कहा- "जाना ही क्यों पड़ेगा- ज़रा देर बैठ ही जाओ।"
इस भलमनसाहत पर उसने ध्या'न न दिया। स्थिर खड़ी-खड़ी बोली- "बिहारी भाई साहब को माँ की बीमारी की खबर देना लाज़िमी है।"
बिहारी का नाम सुनते ही महेन्द्र के गहरे ज़ख्म पर चोट लगी। अपने को सँभालकर वह बोला- "लाज़िमी क्यों है, मेरे इलाज का भरोसा नहीं हो रहा है, क्यों?"
आशा ने मन में यह शिकायत भरी-सी थी कि महेन्द्र माँ के इलाज में उतना ध्याबन नहीं दे रहा है, तो उसके मुँह से निकल पड़ा- "कहाँ, उनकी बीमारी तो जरा भी नहीं सुधरी, बल्कि दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।"
इस मामूली बात में जो ऑंच थी, महेन्द्र अपने अहंकार से आहत हो विस्मित व्यंग्य के साथ बोला-"देखता हूँ, तुमसे डाक्टरी सीखनी पड़ेगी।" इस व्यंग्य से आशा को उसकी जमी हुई वेदना पर अप्रत्याशित चोट लगी। तिस पर कमरा अंधेरा था, जो सदा ही चुप रह जाने वाली आशा आज बे-खटके तेज़ी के साथ बोल उठी- "डाक्टरी न सही, माँ की सेवा सीख सकते हो।" आशा से ऐसा जवाब पाकर महेन्द्र के अचरज की सीमा न रही। ऐसे तीखे वाक्य सुनने का वह आदी न था। वह कठोर हो उठा। बोला- "तुम्हारे बिहारी भाई साहब को यहाँ आने की मनाही क्यों की है- तुम तो जानती हो- शायद फिर याद आ गई है!"
आशा तेज़ी से बाहर चली गई। शाम की ऑंधी मानो उसे ढकेलकर ले गई। शर्म अपने लिए न थी। जो आदमी सिर से पैर तक अपराध में डूबा हो, वह जुबान पर ऐसे झूठे अपवाद भी ला सकता है! इतनी बड़ी बेहयाई को लाज के पहाड़ से भी नहीं ढका जा सकता।
आशा के चले जाने के बाद ही महेन्द्र अपनी पूरी हार का अनुभव कर सका। महेन्द्र को मालूम भी न था कि आशा कभी भी किसी भी अवस्था में महेन्द्र को इस तरह धिक्कार सकती है। उसे लगा, जहाँ उसका सिंहासन था, वहीं वह धूल में लोट रहा है। इतने दिनों के बाद अब उसे ये शंका होने लगी, 'आशा की वेदना कहीं घृणा में न बदल जाए।'
और उधर बिहारी की चर्चा आते ही विनोदिनी की चिंता ने उसे बेताब कर दिया। पश्चिम से बिहारी लौटा या नहीं, कौन जाने? हो सकता है, इस बीच विनोदिनी उसका पता ले आई हो, विनोदिनी से बिहारी की भेंट भी असंभव नहीं। महेन्द्र से अब प्रतिज्ञा का पालन न हो सका।
रात को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ गई। उससे न रहा गया। उन्होंने महेन्द्र को बुलावा भेजा। बड़ी तकलीफ से बोलीं फूटी- "महेन्द्र, बिहारी को देखने को मेरा बड़ा जी चाहता है- बहुत दिनों से वह नहीं आया है।" आशा सास को पंखा झल रही थी। मुँह नीचा किये बैठी रही। महेन्द्र ने कहा- "वह यहाँ नहीं है। जाने कहाँ पछाँह गया है।"
राजलक्ष्मी ने कहा- "मेरी अंतरात्मा कह रही है, वह यहाँ है, सिर्फ तुझसे रूठकर नहीं आ रहा है। मेरे सिर की कसम रही, कल तू एक बार उसके यहाँ जाना।" महेन्द्र ने कहा- "अच्छा, जाऊँगा।"
आज सब बिहारी के लिए परेशान हैं।
45
दूसरे दिन तड़के ही महेन्द्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाज़े पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेन्द्र ने भज्जो से पूछा- "माजरा क्या है?" भज्जो ने कहा- "बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है।" महेन्द्र ने पूछा- "बाबू घर पर हैं क्या?" भज्जो ने कहा-"वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुककर कल बगीचे चले गए।"
सुनते ही महेन्द्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई सन्देह न रहा। उसने कल्पना की ऑंखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैलगाड़ियाँ लद रही हैं। उसे यह निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेन्द्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हाँकने को कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियाँ सुनाईं कि घोड़े तेज नहीं चल रहे हैं। गली के अन्दर डेरे के दरवाज़े पर पहुँचकर देखा, यात्रा की कोई तैयारी नहीं है। डर लगा, वहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेज़ी से किवाड़ के कड़े खटखटाए। अन्दर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाज़ा खोला, महेन्द्र ने पूछा- "सब ठीक तो है?"
उसने कहा- "जी हाँ, ठीक ही है।"
ऊपर जाकर महेन्द्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सूने सोने के कमरे में जाकर महेन्द्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से खींचकर चादर को छाती के पास ले आया और सूँघकर उस पर मुँह रखते हुए बोला- "बेरहम, निर्दयी!"
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकलकर वह सेज से उठकर विनोदिनी का इन्तज़ार करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श्श के बिछौने पर एक अखबार खुला पड़ा है। समय काटने के ख्याल से कुछ अनमना-सा होकर अखबार अठाकर देखा। जहाँ पर उसकी नज़र पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात-की-बात में अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, 'मामूली तनखा पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा ख़रीदा है, वहाँ एक साथ पाँच आदमियों के लिए प्रबन्ध हो चुका है, आदि-आदि।'
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी, पढ़कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर ही भाग-भागकर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेन्द्र का जी इस वजह से और भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेन्द्र ने अपने मन में 'हम्बग' और उसके इस काम को 'सनक' कहा।
विनोदिनी के पैरों की आहट सुनकर महेन्द्र ने अखबार मोड़ दिया। नहाकर विनोदिनी कमरे में जो आई, महेन्द्र उसके चेहरे की तरफ देखकर हैरत में आ गया। उसमें जाने कैसा एक अनोखा बदलाव आ गया था। मानो पिछले कई दिन तक वह धूनी जलाकर तप कर रही थी। शरीर उसका दुबला हो गया था और उस दुबलेपन को भेदकर उसके पीले चेहरे से एक दमक निकल रही थी।
बिहारी के पत्र की उम्मीद उसने छोड़ दी है। अपने ऊपर बिहारी की बेहद हिकारत की कल्पना करके वह आठों पहर चुपचाप जल रही थी। बिहारी मानो उसी का तिरस्कार करके पछाँह चला गया है- उस तक पहुँच पाने की कोई तरकीब उसे नहीं सूझी। काम-काजी विनोदिनी काम की कमी से इस छोटे-से घर में घुल रही थी- उसकी सारी तत्परता खुद उसी को घायल करती हुई चोट करती थी। उसके समूचे भावी जीवन को इस प्रेमहीन, कर्महीन, आनन्दहीन घर में इस सँकरी गली में सदा के लिए कैद समझकर उसकी बागी प्रकृति हाथ न आने वाले अदृष्ट के ख़िलाफ़ मानो आसमान से सिर मारने की बेकार कोशिश कर रही थी। नादान महेन्द्र ने विनोदिनी की मुक्ति के सारे रास्तों को चारों तरफ से बंद करके जीवन को इतना सँकरा बना दिया है, उस महेन्द्र के प्रति उसकी घृणा और विद्वेष की सीमा न रही। विनोदिनी का दुबला-पीला चेहरा देखकर महेन्द्र के मन में ईर्ष्या जल उठी। उसमें ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वह बिहारी की चिंता में लगी इस तपस्विनी को ज़बरदस्ती उखाड़ सके? गिद्ध जैसे मेमने को झपट्टा मारकर देखते-ही-देखते अपने अगम अभ्रभेदी पहाड़ के बसेरे में ले भागता है, क्या वैसी ही कोई मेघों से घिरी दुनिया की निगाहों से परे जगह नहीं, जहाँ महेन्द्र अकेला अपने इस सुन्दर शिकार को कलेजे के पास छिपाकर रख सके?
विरह की जलन स्त्रियों के सौंदर्य को सुकुमार कर देती है, ऐसा महेन्द्र ने संस्कृत-काव्यों में पढ़ा था। आज विनोदिनी को देखकर वह जितना ही अनुभव करने लगा, उतना ही सुख-सने दु:ख के आलोड़न से उसका हृदय बड़ा व्यथित होने लगा।
विनोदिनी ज़रा देर स्थिर रही। फिर पूछा- "तुम चाय पीकर आए हो?"
महेन्द्र ने कहा- "समझ लो, पीकर ही आया हूँ, मगर इस वजह से अपने हाथ से प्याला देने की कंजूसी मत करो-प्याला मुझे दो।"
शायद जानकर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेन्द्र से इस उच्छ्वास को चोट पहुँचाई। कहा- "बिहारी भाई साहब इन दिनों कहाँ हैं, मालूम है?"
महेन्द्र का चेहरा फक हो गया। बोला- "कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन दिनों।"
विनोदिनी- "पता क्या है उनका?"
महेन्द्र- "यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।"
विनोदिनी- "खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ करके?"
महेन्द्र- "मुझे ऐसी ज़रूरत नज़र नहीं आती।"
विनोदिनी- 'जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी नहीं?"
महेन्द्र- "बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज़ दो दिन की है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज़्यादा है।"
विनोदिनी- "इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?"
महेन्द्र- "मुझे इसका क़तई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।" विनोदिनी- "केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी चाहिए।"
महेन्द्र- "गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे दीक्षा ले आऊँ, फिर क्षमता की कसौटी होगी।"
विनोदिनी- "मित्र का पता ढूँढ़ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर कौन यकीन करेगा?"
महेन्द्र- "मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पातीं-मेरे प्रेम पर अगर इतनी निश्चिन्तता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती। बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।"
"आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता"- यह कहकर विनोदिनी खुले बालों को पीठ पर बिखेरकर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेन्द्र अचानक खड़ा हुआ। मुट्ठी कस ली और नाराजगी से गरजकर बोला- "आखिर बार-बार मेरा अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।"
इतना कहकर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ ज़रा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला- "विनोद, चलो यहाँ से चलें- कहीं और। चाहे पछाँह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहाँ तुम्हारा जी चाहे- चलो! यहाँ जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूँ।"
विनोदिनी बोली- "चलो अभी चलें पछाँह।"
महेन्द्र- "पछाँह?"
विनोदिनी- "किसी ख़ास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते- घूमते फिरेंगे।"
महेन्द्र- "ठीक है, आज ही रात को चलो!"
विनोदिनी राज़ी होकर महेन्द्र के लिए खाना बनाने गई। महेन्द्र ने समझ लिया, बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नज़रों से नहीं गुज़री। अखबार में जी लगाने- जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो जाय, इसी उधेड़-बुन में महेन्द्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

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बिहारी की खोज-खबर लेकर महेन्द्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफ़ी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफ़ी थकी थीं, फिर महेन्द्र के लिए यह बेताबी उन्हें और कष्ट दे रही थी। यह देखकर आशा ने पूछ-ताछकर यह पता किया कि महेन्द्र की गाड़ी वापिस आ चुकी है। कोचवान से मालूम हुआ, महेन्द्र बिहारी के यहाँ से होता हुआ पटलडाँगा के डेरे पर गया है। राजलक्ष्मी ने सुना और दीवार की तरफ करवट बदलकर लेटी रहीं। आशा उनके सिरहाने चित्र-लिखी-सी बैठी पंखा झलती रही और दिन समय पर आशा को खाने के लिए जाने का वह आदेश किया करती थीं- आज कुछ न कहा। कल जब उनकी तबीयत ज़्यादा ख़राब थी, यह देखकर भी महेन्द्र विनोदिनी के मोह में चला गया, तो राजलक्ष्मी के लिए दुनिया में कुछ भी करने का मन बुझ गया। कोई दो बजे आशा बोली- "माँ, दवा पीने का वक्त हो गया।"
राजलक्ष्मी ने कोई जवाब न दिया, चुप रहीं, आशा दवा लाने जाने लगी, तो बोलीं- दवा की ज़रूरत नहीं बहू, तुम जाओ!"
आशा ने माँ के रूठने का मर्म समझा और उसकी समझ ने उसके हृदय के आन्दोलन को दूना कर दिया। आशा से न रहा गया। अपनी रुलाई रोकते-रोकते वह फफक पड़ी। राजलक्ष्मी धीरे-धीरे करवट बदलकर आशा की तरफ हो गई और स्नेह से उसका हाथ सहलाने लगीं। कहा- "बहू, तुम्हारी उम्र ही क्या है, सुख का मुँह देखने का तुम्हें बहुत समय है। मेरे लिए तुम परेशान मत होओ बिटिया, मैं काफ़ी जी चुकी, अब क्या होगा जीकर?"
आशा की रुलाई और उमड़ आई। उसने ऑंचल से मुँह दबा लिया। रोगी के घर इस तरह निरानन्द दिन मन्द गति से कट गया। रूठे रहने के बावजूद दोनों नारियों को अन्दर-ही-अन्दर आशा थी कि महेन्द्र अभी आएगा। खटका होते ही दोनों के शरीर में एक चौंक-सी जगती थी, इसे दोनों समझ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्यास्त की आभा धुँधली पड़ गई- कलकत्ता के अन्त:पुर में उस गोधूलि की आभा में न तो खिलावट है, और न अधेरे का आवरण ही होता है- वह विषाद को गहरा और निराशा के ऑंसू सुखा डालती है। कर्म और भरोसे के बल को वह छीन लेती है, लेकिन विश्राम और वैराग्य की शांति नहीं लाती। रोग से दुखी घर की उस सूनी और कुरूप साँझ में आशा पाँव दबाए गई और दीया जलाकर कमरे में ले आई। राजलक्ष्मी ने कहा, "बहू, रोशनी नहीं सुहाती, दीए को कमरे से बाहर रख दो।"
आशा दीये को बाहर रख आई। घना होकर अधेरा जब अनन्त रात को छोटे से कमरे में ले आया, तो आशा ने धीमे-से राजलक्ष्मी से पूछा- "माँ, उन्हें खबर भिजवाऊँ क्या?"
राजलक्ष्मी ने सख्त होकर कहा- "नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, महेन्द्र को खबर मत देना!"
आशा स्तब्ध रह गई। रोने की उसमें शक्ति न थी। कमरे के बाहर से बैरे ने आवाज़ दी- "माँजी, बाबू के यहाँ से चिट्ठी आई है।"
यह सुना और तुरंत राजलक्ष्मी के मन में आया, 'हो न हो, महेन्द्र की अचानक तबीयत ख़राब हो गई है। इसीलिए वह आ न सका और चिट्ठी भेजी है।' चिन्तित और परेशान होकर उन्होंने कहा, "देखो तो बहू, महेन्द्र ने क्या लिखा है?"
काँपते हुए हाथों से आशा ने बाहर जाकर रोशनी में चिट्ठी खोलकर पढ़ी। उसने लिखा था, इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट है, इसलिए वह घूमने के लिए पछाँह जा रहा है। माँ की बीमारी के लिए ख़ास कोई चिंता की बात नहीं। उन्हें बराबर देखने के लिए नवीन डॉक्टर से कह दिया है। रात को उन्हें नींद न आए या सिर-दर्द हो तो क्या करना होगा, यह भी उसने लिखा था। साथ ही दवाखाने से मँगाकर उसने हल्के और ताकतवर पथ्य के दो डिब्बे भी भेज दिए थे। फिलहाल गिरीडीह के पते पर माँ का हाल लिखने के लिए चिट्ठी में 'पुनश्च' में अनुरोध किया था।
चिट्ठी पढ़कर आशा स्तम्भित हो गई- एक ज़बरदस्त धिक्कार ने उसके दु:ख को छिपा लिया। यह कठोर समाचार वह माँ को किस तरह सुनाए?
आशा के इस विलम्ब से राजलक्ष्मी बहुत ही उतावली हो उठीं। बोलीं- "बहू, मुझे बताओ, महेन्द्र ने क्या लिखा है?"
आशा ने आखिर अन्दर बैठकर शुरू से आखिर तक चिट्ठी पढ़ सुनाई। राजलक्ष्मी ने कहा- "अपनी तबीयत के बारे में उसने क्या लिखा है, ज़रा वह जगह फिर से पढ़ो तो..." आशा ने फिर से पढ़ा- "इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट-सी चल रही थी, इसीलिए मैं..."
राजलक्ष्मी- "बस, बस, रहने दो। उचाट न हो तबीयत, क्या हो! बुङ्ढी माँ मरती भी नहीं और बीमार होकर उसे तंग करती है। तुम मेरी बीमारी को कहने उससे क्यों गई?" कहकर वह बिस्तर पर लेट गई। बाहर जूतों की चरमराहट हुई। बैरे ने कहा- "डॉक्टर आए हैं।"
खाँसकर डॉक्टर साहब अन्दर आए। घूँघट निकालकर आशा पलंग की आड़ में हो गई। डॉक्टर ने पूछा- "आपको शिकायत क्या है, यह तो कहें।"
राजलक्ष्मी झुँझलाकर बोलीं- "शिकायत क्यों होगी? किसी को मरने भी न देंगे। आपकी दवा से ही क्या मैं अमर हो जाऊँगी?"
राजलक्ष्मी कह उठीं- "तकलीफ की दवा तभी होती थी, जब विधवाएँ जल मरती थीं अब तो बाँधकर मारना ठहरा। आप जाएँ डॉक्टर साहब, मुझे तंग न करें- मैं अकेली रहना चाहती हूँ।" डॉक्टर ने डरकर कहा- "ज़रा आपकी नब्ज़..."
राजलक्ष्मी ने खीझकर कहा- "मैं कह रही हूँ, आप जाइए... मेरी नब्ज़ सही है- यह ख़तरा नहीं कि यह जल्दी छूटेगी।"
लाचार होकर डॉक्टर कमरे से बाहर चला गया। उसने आशा को बुलाया। उससे बीमारी का सारा ब्यौरा पूछा। सब-कुछ सुनकर गम्भीर-सा होकर वह फिर कमरे में गया। बोला- "महेन्द्र मुझ पर आपके इलाज का भार सौंप गया है। अगर आप इलाज़ न कराएँगी, तो उसे दु:ख होगा।"
महेन्द्र को दु:ख होगा, यह बात राजलक्ष्मी को मज़ाक जैसी लगी। उन्होंने कहा- "महेन्द्र की इतनी फ़िक्र न करें आप। दुनिया में हर किसी को दु:ख भोगना पड़ता है। आप जाएँ, मुझे सोने दें।"
डॉक्टर ने समझा, बीमार को ज़्यादा तंग करना ठीक नहीं। वह बाहर निकला और जो कुछ करना था, आशा को बता दिया।
आशा जब कमरे में लौटी, तो राजलक्ष्मी बोलीं- "तुम ज़रा आराम कर लो जाकर, बिटिया! तमाम दिन मरीज़ के पास बैठी हो! हारू की माँ से कह दो, बगल के कमरे में बैठेगी।"
आशा राजलक्ष्मी को समझती थी। यह उनके स्नेह का आग्रह नहीं, आदेश था- इसे मान लेने के सिवा चारा नहीं। उसने हारू की माँ को भेज दिया था और अपने कमरे में नीचे लेट गई।
दिन-भर उसने खाया-पीया नहीं। तकलीफ भी थी। उसका तन-मन चूर-चूर हो गया था। उस दिन पड़ोस में दिन में ब्याह के बाजे बजते रहे। अभी फिर शहनाई पर धुन छिड़ी। उस रागिनी से चोट खाकर रात का अधेरा काँपकर आशा पर बार-बार आघात करने लगा। उसके अपने विवाह के दिन की छोटी-से-छोटी घटना भी सजीव हो उठी और सबने मिलकर रात के आसमान को स्वप्न की छवि से पूर्ण कर दिया। कमरे में रोशनी जलाकर वह काग़ज़ लिये लगातार ऑंसू पोंछती हुई लिखने बैठ गई- "पूजनीय मौसी- तुम्हारे सिवाय आज मेरा कोई नहीं। एक बार आओ और अपनी इस दुखिया को अपनी गोद में उठा लो, वरना मैं जिऊँगी कैसे! क्या लिखूँ, नहीं जानती। चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम। तुम्हारी प्यारी चुन्नी"
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अन्नपूर्णा काशी से आई। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देखकर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज़ इसश्लिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसकी चुकी चित्ता ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। महेन्द्र की पैदाइश से भी पहले जब इन दिनों जिठानी-देवरानी ने वधू के रूप में इस परिवार के सारे सुख-दु:खों को अपना लिया था- पूजा-त्योहारों पर, शोक-मृत्यु में दोनों ने गृहस्थी के रथ पर साथ-साथ यात्रा की थी- उन दिनों के गहरे सखीत्व ने राजलक्ष्मी के हृदय को आज पल-भर में आच्छन्न कर लिया। जिसके साथ सुदूर अतीत में उन्होंने जीवन का आरम्भ किया था- तरह-तरह की रुकावटों के बाद बचपन की सहचरी गाढ़े दु:ख के दिनों के उनकी बगल में खड़ी हुई। यह एक घटना उनके मौजूदा सुख-दु:खों, प्रिय घटनाओं में स्मरणीय हो गई। जिसके लिए राजलक्ष्मी ने इसे भी बेरहमी से चोट पहुँचाई थी, वह आज कहाँ है!
अन्नपूर्णा बीमार राजलक्ष्मी के पास बैठकर उनका दायाँ हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं- "दीदी!" राजलक्ष्मी ने कहा- "मँझली!"
उनसे और बोलते न बना। ऑंखों में ऑंसू बहने लगे। यह दृश्य देखकर आशा से न रहा गया। वह बगल के कमरे में जाकर ज़मीन पर बैठकर रोने लगी।
राजलक्ष्मी या आशा से अन्नपूर्णा महेन्द्र के बारे में कुछ पूछने का साहस न कर सकीं। साधुचरण को बुलाकर पूछा- "मामा, महेन्द्र कहाँ है?"
मामा ने महेन्द्र और विनोदिनी का सारा किस्सा कह सुनाया। अन्नपूर्णा ने पूछा- "बिहारी कहाँ है?"
साधुचरण ने कहा- "काफ़ी दिनों से वे इधर आए नहीं। उनका हाल ठीक-ठीक नहीं बता सकता।"
अन्नपूर्णा बोलीं- "एक बार बिहारी के यहाँ जाकर खोज-खबर तो ले आइए!"
साधुचरण ने उसके यहाँ से लौटकर बताया- "वे घर पर नहीं हैं, अपने बाली वाले बगीचे में गए हैं।"
अन्नपूर्णा ने डॉक्टर नवीन को बुलाकर मरीज़ की हालत के बारे में पूछा। डॉक्टर ने बताया, "दिल की कमज़ोरी के साथ ही उदरी हो आई है, कब अचानक चल बसें, कहना मुश्किल है।" शाम को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ने लगी। अन्नपूर्णा ने पूछा- "दीदी, नवीन डॉक्टर को बुलवा भेजूँ?"
राजलक्ष्मी ने कहा- "नहीं बहन, नवीन डॉक्टर के करने से कुछ न होगा।"
अन्नपूर्णा बोलीं- "तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?"
राजलक्ष्मी ने कहा- "एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।"
अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाज़े पर से ही अंधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौक़ा मिलेगा।
अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेन्द्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनन्द-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी- बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे हुए थे, छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।
आशा ने देखा, मौसी छत पर गई है। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींचकर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुककर दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ लिये। बार-बार उनके पाँवों से अपना माथा लगाया। बोली- "मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?"
अन्नपूर्णा वहीं ज़मीन पर बैठ गई। आशा उनके पैरों पर सिर रखकर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।
ज़माने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठकर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस- जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।
मन में दिलासा और बल पाकर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा नि:श्वास छोड़कर उठ बैठी। बोली- "मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!" अन्नपूर्णा बोलीं- "उँहूँ, चिट्ठी नहीं लिखूँगी।"
आशा- "तो उन्हें खबर कैसे होगी?"
अन्नपूर्णा बोलीं- "मैं कल खुद उससे मिलने जाऊँगी।"
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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम लेकर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोचकर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ़्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दिनों में डाबर की मछलियाँ जिस तरह कम पानी और कीचड़ में किसी प्रकार जिंदा रह लेती हैं, तंग गलियों के सँकरे कमरों में परिवार का बोझ उठाने वाले बेचारे किरानियों की ज़िन्दगी वैसी ही है-उन दुबले, पीले पड़े, चिन्ता से पिसने वाले भद्रवर्ग के लोगों के प्रति बिहारी को बहुत पहले ही दया हो आई थी- इसलिए उसने उन्हें बगीचे की छाँह और गंगा-तट की खुली हवा दान देने का संकल्प किया।
बाली में उसने बगीचा ख़रीदा और चीनी कारीगरों से छोटे झोंपड़े बनवाने शुरू किए। लेकिन मन को राहत न मिली। काम में लगने का दिन ज्यों-ज्यों क़रीब आने लगा, उसका मन अपने निश्चय से डिगने लगा। बार-बार उसका मन यही कहने लगा- "इस काम में कोई सुख नहीं, रस नहीं, सौंदर्य नहीं-यह महज़ एक नीरस भार है।" काम की कल्पना ने इसके पहले कभी भी बिहारी को इतना परेशान नहीं किया। कभी ऐसा भी था कि बिहारी को ख़ास कोई ज़रूरत ही न थी, जो कुछ भी सामने आ जाता, उसी में वह सहज ही अपने को लगा सकता था। अब उसके मन में न जाने कौन-सी भूख जगी है, उसे बुझा लेने के पहले और किसी भी चीज़ में उसकी आसक्ति नहीं होती। जैसी शुरू से आदत रही है, इस-उस में हाथ डालकर देखता और दूसरे ही क्षण उसे छोड़कर छुटकारा पाना चाहता! बिहारी में यौवन सिकुड़कर आराम कर रहा था। उसने कभी सज्ञान होकर इस तरफ देखा भी नहीं, लेकिन विनोदिनी के स्पर्श ने उसे धधका दिया। अभी-अभी पैदा हुए गरुड़ की तरह अपनी खुराक के लिए वह सारी दुनिया को झिंझोड़ती फिर रही है।
बिहारी का जो पिछला जीवन सुख और सन्तोष से कट गया, उसे वह अब भारी नुकसान समझता। ऐसी मेघघिरी साँझ जाने कितनी आईं, पूर्णिमा की कितनी रातें- वे सब हाथों में अमृत का पात्रा लिये बिहारी के सूने हृदय के द्वार से चुपचाप लौट गईं- उन दुर्लभ शुभ घड़ियों में कितने गीत घुटे रहे, कितने उत्सव न हो पाए, इसकी कोई हद नहीं। बिहारी के मन में जो पुरानी सुधियाँ थीं, उन्हें विनोदिनी ने उद्यत चुम्बन की रक्तिम आभा से ऐसा फीका और तुच्छ कर दिया था। जीवन के ज़्यादातर दिन महेन्द्र की छाया में कटे! उनकी सार्थकता क्या थी? प्रेम की वेदना में सारे जल-थल-आकाश के केन्द्र-कुहर से ऐसी ताप में इस तरह बाँसुरी बजती है, यह तो अचेतन बिहारी कभी सोच भी न पाया था। विनोदिनी ने बिहारी को बाँहों में लपेटकर अचानक एक पल में जिस अनोखे सौंदर्य-लोक में पहुँचा दिया, उसे वह कैसे भूले! फिर भी उस विनोदिनी से बिहारी आज इस तरह दूर क्यों है? इसलिए कि विनोदिनी ने जिस सौंदर्य-रस से बिहारी का अभिषेक किया उस सौंदर्य के अनुकूल संसार में विनोदिनी से किसी संबंध की वह कल्पना नहीं कर सकता।
वह न तो मानिनी का मान भंग करना चाहता है, न सौन्दर्य को कलंकित करना चाहता है और न ही महेन्द्र से कुहनी बाजी करना होता है। शायद यही वजह है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। अपने बगीचे के दक्खिन में फले जामुन-तले बिहारी मेघ-घिरे प्रभात में चुपचाप पड़ा था, सामने से कोठी की डोंगी आ-जा रही थीं। अलसाया-सा वह उसी को देख रहा था। वेला धीरे-धीरे बढ़ती जा रह थी। नौकर ने आकर पूछा, "भोजन का प्रबन्ध करे या नहीं?" बिहारी ने कहा-"अभी रहने दो।"
इतने में उसने चौंककर देखा, सामने अन्नपूर्णा खड़ी है। बदहवास-सा वह उठ पड़ा, दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़कर ज़मीन पर माथा टेककर प्रणाम किया। अन्नपूर्णा ने बड़े स्नेह से अपने दाएँ हाथ से उसके बदन और माथे को छुआ। भर आए से स्वर में पूछा- "तू इतना दुबला क्यों हो गया है, बिहारी?"
बिहारी ने कहा- "ताकि तुम्हारा स्नेह पा सकूँ।"
सुनकर अन्नपूर्णा की ऑंखें बरस पड़ीं। बिहारी ने व्यस्त होकर पूछा- "तुमने अभी भोजन नहीं किया है, चाची?"
अन्नपूर्णा बोलीं- "अभी मेरे खाने का समय नहीं हुआ।"
बिहारी बोला- "चलो-चलो, मैं रसोई की जुगत किए देता हूँ। एक युग के बाद तुम्हारे हाथ की रसोई पत्तल का प्रसाद पाकर जी जाऊँगा मैं।"
महेन्द्र और आशा के बारे में बिहारी ने कोई चर्चा नहीं की। इसका दरवाज़ा तो एक दिन खुद अन्नपूर्णा ने ही अपने हाथों बन्द कर दिया था। मान में भरकर उसने उसी निष्ठुर निषेध का पालन किया। खा चुकने के बाद अन्नपूर्णा ने कहा- "घाट पर नाव तैयार है बिहारी, चल, कलकत्ता चल!"
बिहारी बोला- "कलकत्ता से मेरा क्या लेना-देना।"
अन्नपूर्णा ने कहा- "दीदी बहुत बीमार है, वे तुम्हें देखना चाहती हैं एक बार।"
सुनकर बिहारी चौंक उठा। पूछा- "और महेन्द्र भैया।"
अन्नपूर्णा- "वह कलकत्ता में नहीं है, बाहर गया है।"
सुनते ही बिहारी का चेहरा सफेद पड़ गया। वह चुप रहा।
अन्नपूर्णा ने पूछा- "तुझे क्या मालूम नहीं है सारा किस्सा?"
बिहारी बोला- "कुछ तो मालूम है, अंत तक नहीं।"
इस पर अन्नपूर्णा ने विनोदिनी को लेकर महेन्द्र के भाग जाने का किस्सा बताया। बिहारी की निगाह में जल-थल-आकाश का रंग ही बदल गया, उसकी कल्पना के ख़ज़ाने का सारा रस सुनते ही कड़वा हो गया- "तो क्या वह मायाविनी उस दिन शाम को मेरे साथ खेल, खेल गई? उसका प्रेम-निवेदन महज़ मक्कारी था! वह अपना गाँव छोड़कर बेहया की तरह महेन्द्र के साथ भाग गई!"
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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर क़दम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेन्द्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़ दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके क़दम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेन्द्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल-भरी कृपा-दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण लेकर देखेगा!
लेकिन इन चिन्ताओं और संकोच का मौक़ा ही न रहा। हवेली में पहुँचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली- "भाई साहब, जरा जल्दी आओ, माँ को देखो जल्दी!"
बिहारी से आशा की खुलकर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है-जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक सँकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।
आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाकये से ही वह समझ सका कि महेन्द्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टी पलीद कर गया है।
बिहारी राजलक्ष्मी के कमरे में गया। अचानक साँस की तकलीफ हो जाने से राजलक्ष्मी फीकी पड़ गई थीं-लेकिन वह तकलीफ ज़्यादा देर नहीं रही इसलिए सँभल गईं।
बिहारी ने राजलक्ष्मी को प्रणाम किया। चरणों की धूल ली। राजलक्ष्मी ने उसे पास बैठने का इशारा किया और धीरे-धीरे कहा- "कैसा है बिहारी? जाने कितने दिनों से तुझे नहीं देखा!"
बिहारी ने कहा- "तुमने अपनी बीमारी की खबर क्यों नहीं भिजवाई? फिर क्या मैं ज़रा भी देर कर पाता।"
राजलक्ष्मी ने धीमे-से कहा- "यह क्या मुझे मालूम नहीं, बेटे! तुझे कोख में नहीं रखा मैंने, लेकिन तुझसे बढ़कर मेरा अपना क्या दुनिया में है कोई?"
कहते-कहते राजलक्ष्मी की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बिहारी झटपट उठा। ताखों पर दवा-दारू की शीशियों को देखने के बहाने उसने अपने-आपको जब्त किया। उसके बाद आकर उसने राजलक्ष्मी की नब्ज़ देखनी चाही। राजलक्ष्मी बोलीं- "मेरी नब्ज़ को छोड़- मैं पूछती हूँ, तू इतना दुबला क्यों हो गया है?"
अपने दुबले हाथों से राजलक्ष्मी ने बिहारी की गर्दन की हड्डी छूकर देखी।
बिहारी ने कहा- "जब तक तुम्हारे हाथ की रसोई नसीब नहीं होती, यह हवा ढकने की नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओ माँ, मैं इतने में रसोई का इन्तज़ाम कर रखता हूँ।"
राजलक्ष्मी फीकी हँसी हँसकर बोलीं- "हाँ, जल्दी-जल्दी इन्तज़ाम कर, बेटे- तेरी देख-रेख के लिए कोई भी नहीं है। अरी ओ मँझली- तुम लोग अब बिहारी की शादी करा दो, देखो न, इसकी शक्ल कैसी हो गई है।" अन्नपूर्णा ने कहा- "तुम चंगी हो लो, दीदी- यह तो तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "मुझे अब यह मौक़ा न मिलेगा। बहन, बिहारी का भार तुम्हीं लोगों पर रहा, इसे तुम लोग सुखी रखना? मैं इसका ऋण नहीं चुका सकी, लेकिन भगवान भला करे इसका।" यह कहकर उन्होंने बिहारी के माथे पर अपना दायाँ हाथ फेर दिया।
आशा से कमरे में न रहा गया। वह रोने के लिए बाहर चली गई। अन्नपूर्णा ने भरी हुई ऑंखों से बिहारी को स्नेह-भरी दृष्टि से देखा।
राजलक्ष्मी को अचानक न जाने क्या याद आ गया। बोलीं- "बहू, अरी ओ बहू!" आशा के अन्दर आते ही बोलीं- "बिहारी के खाने का इंतजाम किया या नहीं?"
बिहारी बोला- "तुम्हारे इस पेटू को सबने पहचान लिया है माँ। डयोढ़ी पर आते ही नज़र पड़ी, अंडे वाली मछलियाँ लिये वैष्णवी जल्दी-जल्दी अन्दर जा रही है, मैं समझ गया, अभी इस घर से मेरी ख्याति मिटी नहीं है।"
और बिहारी ने हँसकर आशा की ओर देखा।
आशा आज शर्माई नहीं। स्नेह से हँसते हुए उसने यह दिल्लगी कबूल की। इस घर के लिए बिहारी क्या है, पहले आशा यह पूरी तरह न जानती थी- बहुत बार एक बे-मतलब का मेहमान समझकर उसने उसकी उपेक्षा की है, बहुत बार उसकी यह बेरुखी उसके व्यवहार में साफ़ झलक पड़ी है। उसी अफ़सोस से धिक्कार से उसकी श्रद्धा और करुणा की तरफ तेज़ी से उमड़ पड़ी है।
राजलक्ष्मी ने कहा- "मँझली बहू, यह महाराज के बस की बात नहीं, रसोई की निगरानी तुम्हें करनी पड़ेगी। काफ़ी कड़वा न हो तो अपने इस 'बाँगाल'1 ¬लड़के को खाना नहीं रुचता।"
बिहारी बोला- "माँ, तुम्हारी माँ विक्रमपुर की लड़की थीं और तुम नदिया ज़िले के एक भले घर के लड़के को बांगाल कहती हो! मुझे यह बर्दाश्त नहीं।"
इस पर काफ़ी दिल्लगी रही। बहुत दिनों के बाद महेन्द्र के घर की मायूसी का भार मानो हल्का हो गया।
इतनी बातें होती रहीं, मगर किसी भी तरफ से किसी ने भी महेन्द्र का नाम न लिया। पहले बिहारी से महेन्द्र की चर्चा ही राजलक्ष्मी की एकमात्र बात हुआ करती थी। महेन्द्र ने अपनी माँ का इसके लिए बहुत बार मज़ाक भी उड़ाया है। आज उसी राजलक्ष्मी की ज़बान पर भूलकर भी महेन्द्र का नाम न आते देखकर बिहारी दंग रह गया।
राजलक्ष्मी को झपकी लग गई। बाहर जाकर बिहारी ने अन्नपूर्णा से कहा- "माँ की बीमारी तो सहज नहीं लगती।"
अन्नपूर्णा बोलीं- "यह तो साफ़ ही देख रही हूँ।" कहकर अन्नपूर्णा खिड़की के पास बैठ गईं।
बड़ी देर चुप रहकर बोलीं- "महेन्द्र को तू खोज नहीं लाएगा, बेटे! अब तो देर करना वाजिब नहीं जँचता।"
बिहारी कुछ देर चुप रहा, फिर बोला- "जो हुक्म करोगी, वह करूँगा। उसका पता मालूम है किसी को?"
अन्नपूर्णा- "पता ठीक-ठीक किसी को मालूम नहीं, ढूँढ़ना पड़ेगा। और एक बात तुमसे कहूँ- आशा का ख्याल करो। अगर विनोदिनी के चंगुल से महेन्द्र को तू न निकाल सका, तो वह ज़िंदा न रहेगी।" मन-ही-मन तीखी हँसी-हँसकर बिहारी ने सोचा, 'मैं दूसरे का उद्धार करूँ- भगवान मेरा उद्धार कौन करे!' बोला- "विनोदिनी के जादू से महेन्द्र को सदा के लिए बचा सकूँ, मैं ऐसा कौन-सा मंतर जानता हूँ, चाची!" इतने में मैली-सी धोती पहने आधा घूँघट निकाले आशा अपनी मौसी के पाँवों के पास आ बैठी। उसने समझा था, दोनों में राजलक्ष्मी की बीमारी के बारे में बातें हो रही हैं इसीलिए चली आई। पतिव्रता आशा के चेहरे पर गुम-सुम दु:ख की मौन महिमा देखकर बिहारी के मन में एक अपूर्व भक्ति का संचार हुआ। शोक में गर्म ऑंसू से सिंचकर इस तरुणा ने पिछले युग की देवियों-जैसी एक अटूट मर्यादा पाई है। राजलक्ष्मी की दवा और पथ्य के बारे में आशा से बातें करके बिहारी ने उसे वहाँ से जब विदा किया, तो एक उसाँस भरकर उसने अन्नपूर्णा से कहा- "महेन्द्र को मैं उस चंगुल से निकलूँगा।" बिहारी महेन्द्र के बैंक में गया। वहाँ उसे पता चला महेन्द्र इन दिनों उनकी इलाहाबाद- शाखा से लेन-देन करता है।
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Re: उपन्यास -आँख की किरकिरी /रविन्द्र नाथ टैगोर

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स्टेशन जाकर विनोदिनी औरतों वाले डयोढे दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेन्द्र ने कहा, "अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।"
वह बोली "बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी।" महेन्द्र ताज्जुब में पड़ गया। विनोदिनी स्वभाव से ही शौकीन थी। गरीबी का कोई भी लक्षण उसे न सुहाता था। अपनी गरीबी को वह अपने लिए अपमानजनक ही मानती थी। महेन्द्र ने इतना समझ लिया था कि कभी उसके घर की खुशहाली, विलास की सामग्रियों और औरों की अपेक्षा उनके धनी होने के गौरव ने ही विनोदिनी के मन को आकर्षित किया था। इस धन-दौलत की, इन सारे आराम और गौरव की वह सहज ही मालकिन हो सकती थी, इस कल्पना ने उसे बड़ा उत्तेजित कर दिया था। आज जब उसको महेन्द्र पर प्रभुत्व पाने का मौक़ा मिला है, अनचाहे भी वह उसकी धन-दौलत को अपने काम में ला सकती है, तो वह क्यों ऐसी असह्य उपेक्षा से यों तनकर तकलीफदेह शर्मनाक दीनता अपना रही है? वह महेन्द्र पर कम-से-कम निर्भर रहना चाह रही थी।
महेन्द्र ने पूछा- "पछाँह की तरफ जहाँ भी चाहे, चलो! सुबह जहाँ गाड़ी रुकेगी उतर पडेंग़े।"
महेन्द्र को ऐसी यात्रा में कोई आकर्षण नहीं। आराम न मिले तो तकलीफ होती है। बड़े शहर में रहने की इच्छा-जगह न मिले तो मुश्किल। इधर मन में यह डर लगा रहा कि विनोदिनी चुपचाप कहीं उतर न पड़े।
इस तरह विनोदिनी शनि ग्रह की तरह घूमने और महेन्द्र को घुमाने लगी। कहीं भी चैन न लेने दिया। विनोदिनी बड़ी जल्दी दूसरे को अपना बना सकती है। कुछ ही देर में हमसफरों से मिताई कर लेती। जहाँ जाना होता वहाँ की सारी बातों का अता-पता लगा लेती, रात्रिशाला में ठहरती और जहाँ जो कुछ देखने जैसा होता, उन बन्धुओं की मदद से देखती। अपनी आवश्यकता से महेन्द्र विनोदिनी के आगे रोज-रोज़ अपने को बेकार समझने लगा। टिकट लेने के सिवाय कोई काम नहीं। शुरू-शुरू के कुछ दिनों तक वह विनोदिनी के साथ-साथ चक्कर काटा करता था, लेकिन धीरे-धीरे वह असह्य हो गया। खा-पीकर वह सो जाने की फ़िक्र में होता, विनोदिनी तमाम दिन घूमा करती। माता के लाड़ में पला महेन्द्र यों भी चल सकता है, कोई सोचता भी न था।
एक दिन इलाहाबाद स्टेशन पर दोनों गाड़ी का इन्तज़ार कर रहे थे। किसी वजह से गाड़ी आने में देर हो रही थी। इस बीच और जो गाड़ियाँ आ-जा रही थीं, विनोदिनी उनके मुसाफिरों को गौर से देख रही थी। शायद उसे यह उम्मीद थी कि पछाँह में घूमते हुए चारों तरफ देखते-देखते अचानक किसी से भेंट हो जाएगी। कम-से-कम रुँधी गली के सुनसान घर में बेकार की तरह बैठकर अपने को घोंट मारने की अपेक्षा खोज-बीन में, इस खुली राह की चहल-पहल में शान्ति थी।
अचानक उधर काँच के एक बक्स पर नज़र पड़ते ही विनोदिनी चौंक उठी। उसमें उन लोगों की चिट्ठियाँ रखी जाती हैं, जिनका पता नहीं चलता। उसी बक्स के पत्रो में से एक में उसने बिहारी का नाम देखा। बिहारी नाम कुछ असाधारण नहीं। यह समझने की कोई वजह न थी कि यह बिहारी विनोदिनी का ही वांछित बिहारी का सन्देह न हुआ। उसने ठिकाना याद कर लिया। महेन्द्र एक बेंच पर बड़ा खुश बैठा था। विनोदिनी उसके पास जाकर बोली-"कुछ दिनों यहीं रहूँगी।"
विनोदिनी अपने इशारे पर महेन्द्र को नचा रही थी और फिर भी उसके भूखे-प्यासे मन को खुराक तक न देती थी, इससे उसके पौरुष गर्व को ठेस लग रही थी और उसका मन दिन-प्रतिदिन बागी होता जा रहा था। इलाहाबाद रुककर कुछ दिन सुस्ताने का मौक़ा मिले तो मानो वह भी जाय- लेकिन इच्छा के अनुकूल होने के बावजूद उसका मन विनोदिनी के ख्याल पर राज़ी होने को सहसा तैयार न हुआ। उसने नाराज़ होकर कहा- "जब निकल ही पड़ा तो जाकर ही रहूँगा, अब लौट नहीं सकता।"
विनोदिनी बोली- "मैं नहीं जाऊँगी।"
महेन्द्र बोला- "तो तुम अकेली रहो, मैं चलता हूँ।"
विनोदिनी बोली- "यह सही।" और बेझिझक उसने इशारे से कुली को बुलाया और स्टेशन से चल पड़ी।
पुरुष के कर्तत्व-अधिकार से परिपूर्ण महेन्द्र स्याह-सूरत लिये बैठा रह गया। जब तक विनोदिनी ऑंखों से ओझल न हो गई, वह देखता रहा। बाहर आकर देखा, विनोदिनी एक बग्घी पर बैठी है। उसने चुपचाप सामान रखवाया और कोचबक्स पर बैठ गया। अपने अभिमान की मिट्टीपलीद होने के बाद उसमें विनोदिनी के सामने बैठने का मुँह न रहा।
लेकिन गाड़ी चली, तो चली। घंटा-भर बीत गया, शहर छोड़कर वह खेतों की तरफ जा निकली। गाड़ीवान से पूछने में महेन्द्र को संकोच हुआ। शायद गाड़ीवान यह सोचेगा कि असल में अन्दर की औरत ही मालकिन है, इस बेकार आदमी से उसने यह भी सलाह नहीं की है कि कहाँ जाना है। वह कड़वा घूँट पीकर चुपचाप कोचबक्स पर बैठा रहा।
गाड़ी यमुना के निर्जन तट पर सुन्दर ढंग से लगाए एक बगीचे के सामने आकर रुकी। महेन्द्र हैरत में पड़ गया। 'किसका है यह बगीचा? इसका पता विनोदिनी को कैसे मालूम हुआ?'
फाटक बंद था। चीख-पुकार के बाद बूढ़ा रखवाला बाहर निकला। उसने कहा- "बगीचे के मालिक धनी हैं, बहुत दूर नहीं रहते। उनकी इजाज़त ले आएँ तो यहाँ ठहरने दूँगा।"
विनोदिनी ने एक बार महेन्द्र की तरफ देखा। बगीचे के सुन्दर घर को देखकर महेन्द्र लुभा गया था- बहुत दिनों के बाद कुछ दिनों के लिए रुकने की उम्मीद से वह खुश हो गया। विनोदिनी से कहा- "चलो, उस धनी के पास चलें। तुम बाहर गाड़ी पर रहना, मैं अन्दर जाकर किराया तय कर लूँगा।"
विनोदिनी बोली- "मैं अब चक्कर नहीं काट सकती। तुम जाओ, मैं तब तक यहीं सुस्ताती हूँ। डरने की कोई बात नहीं।"
महेन्द्र गाड़ी लेकर चला गया। विनोदिनी ने उस बूढ़े ब्राह्मण को बुलाकर उसके बाल-बच्चों के बारे में पूछा; वे कौन हैं, कहाँ काम करते हैं, बच्चियों की शादी कहाँ हुई है। उसकी स्त्री के देहान्त हो जाने की बात सुनकर करुण स्वर में बोली- "ओह, तब तो तुम्हें काफ़ी तकलीफ है। इस उम्र में दुनिया में निरे अकेले पड़ गए हो, कोई देखने वाला नहीं!"
और बातों-बातों में विनोदिनी ने पूछा- "यहाँ बिहारी बाबू न थे?"
बूढ़े ने कहा- "जी हाँ, थे कुछ दिन। माँजी क्या उनको पहचानती हैं?" विनोदिनी बोली- "वे हमारे अपने ही हैं।"
बूढ़े से बिहारी का जो हुलिया मिला, उसे विनोदिनी को कोई शुबहा न रहा। घर बुलाकर उसने सब कुछ पूछ-ताछ लिया कि बिहारी किस कमरे में सोता था, कहाँ बैठता था। उसके चले जाने के बाद से घर बन्द पड़ा था, इससे लगा कि उसमें बिहारी की गंध है। लेकिन यह पता न चल सका कि बिहारी गया कहाँ- शायद ही वह फिर लौटे।
महेन्द्र किराया चुकाकर मालिक से वहाँ रहने की इजाज़त ले ली।
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शाम को महेन्द्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नज़रों में, साँसों में, नस-नस में, हड्डीयों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबने सूरज की किरणों की सुनहरी वीणा वेदना की मूच्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी!
बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेन्द्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था। उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है; यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो। महेन्द्र की छाती के अन्दर यही पुकार पहुँचने लगी- 'पार करो'।
नदी से उस पार बड़ी दूर पर वह अभिसारिका खड़ी थी- फिर भी महेन्द्र उसे साफ़ देख पाया। उसका कोई काल नहीं, उम्र नहीं, वह चिरंतन गोपबाला है, मगर महेन्द्र ने उसे फिर भी पहचान लिया- पहचाना कि वह विनोदिनी है। सारा विरह, सारी वेदना यौवन का सारा भार लिये वह उस युग के अभिसार के लिए चली थी और आज के युग के किनारे आ निकली है। आज के इस सूने यमुना-तट के ऊपर आकाश में वही स्वर सुनाई पड़ रहा है। 'अरे ओ, पार करो, पार कर दो!'
महेन्द्र मतवाला हो गया। विनोदिनी उसे ठुकरा देगी, चाँदनी रात के इस स्वर्ग-खण्ड को वह लक्ष्मी बनकर पूरा न करेगी, वह सोच भी नहीं सका। वह तुरन्त उठकर विनोदिनी को ढूँढ़ने चल दिया। सोने के कमरे में गया। कमरा फूलों की खुशबू से महमहा रहा था। खुली खिड़कियों से छनकर चाँदनी सफेद बिछौने पर आ पड़ी थी। बगीचे के फूलों से सजी वह बसंत की बिखरी लता-जैसी चाँदनी में बिस्तर पर लेटी हुई थी।
महेन्द्र का मोह दुगुना हो गया। उसने रुँधे गले से कहा- "विनोद, मैं यमुना के तट पर तुम्हारी राह देख रहा था और तुम यहाँ इन्तज़ार कर रही हो, यह सन्देशा मुझे चाँद ने दिया। इसी से मैं यहाँ आ गया।" यह कहकर महेन्द्र बिस्तर पर बैठने ही जा रहा था कि विनोदिनी उठ बैठी और दायाँ हाथ बढ़ाकर बोली-"जाओ; इस बिस्तर पर मत बैठो।" पाल वाली नाव मानो चौंर में अटक गई- महेन्द्र कहा न माने, इसीलिए विनोदिनी बिस्तर से उतरकर खड़ी हो गई।
महेन्द्र ने पूछा- "तो तुम्हारा यह शृंगार किसके लिए है? किसका इन्तज़ार कर रही हो?"
विनोदिनी ने अपनी छाती को दबाकर कहा- "मैं जिसके लिए सजी-सँवरी, वह मेरे अंतस्तल में है।" महेन्द्र ने पूछा- "आखिर कौन? बिहारी।"
विनोदिनी बोली- "उसका नाम तुम अपनी ज़बान पर मत लाओ!"
महेन्द्र- "उसी के लिए तुम पछाँह का दौरा कर रही हो?"
विनोदिनी- "हाँ, उसी के लिए।"
महेन्द्र- "उसका पता मालूम है?"
विनोदिनी- "मालूम नहीं, मगर जैसे भी हो, मालूम करूँगी।"
महेन्द्र- "तुम्हें यह हर्गिज़ न मालूम होने दूँगा।"
विनोदिनी- "न सही, मगर मेरे हृदय से उसे निकाल नहीं पाओगे।"
यह कहकर विनोदिनी ने ऑंखें बन्द करके अपने हृदय में एक बार बिहारी का अनुभव कर लिया।
फूलों से सजी विरह-विधुरा विनोदिनी से एक साथ ही खिंचकर और ठुकराया जाकर महेन्द्र अचानक भयंकर हो उठा; वह मुट्ठी कसकर बोला- "छुरी से चीरकर मैं उसे तुम्हारे कलेजे से निकाल बाहर करूँगा।" विनोदिनी ने दृढ़ता से कहा- "तुम्हारे प्रेम से तुम्हारी यह छुरी मेरे हृदय में आसानी से घुस सकेगी।"
महेन्द्र- "तुम मुझसे डरती क्यों नहीं? यहाँ तुम्हें बचाने वाला कौन है?"
विनोदिनी- "बचाने वाले तुम हो! तुम्हीं मुझे अपने से बचाओगे।"
महेन्द्र- "इतनी श्रद्धा, इतना विश्वास अब भी है!"
विनोदिनी- "यह न होता तो मैं खुदकुशी कर लेती, तुम्हारे साथ परदेस न आती।"
महेन्द्र- "क्यों न कर ली खुदकुशी- उस विश्वास की फाँस मेरे गले में डाल कर मुझे देश-देशान्तर में घसीटकर क्यों मार रही हो? सोच देखो, तुम मर जाती तो कितना कल्याण होता!" विनोदिनी- "जानती हूँ, मगर जब तक बिहारी की उम्मीद है, मर न पाऊँगी।"
महेन्द्र- "जब तक तुम नहीं मरतीं, तब तक मेरी आशा भी नहीं मरने की, मैं भी छुटकारा नहीं पाने का। आज से मैं हृदय से भगवान से तुम्हारी मृत्यु की कामना करता हूँ। तुम मेरी भी न बनो, बिहारी की भी नहीं! जाओ, मुझे मुक्ति दो। मेरी माँ रो रही है, स्त्री रो रही है, उनके ऑंसू दूर से ही मुझे जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जातीं; मेरी और दुनिया-भर की आशा से परे नहीं हो जातीं, तब तक मुझे उनके ऑंसू पोंछने का अवसर नहीं मिलेगा।"
इतना कहकर महेन्द्र बड़ी तेज़ी से बाहर निकल गया। अकेली पड़ी विनोदिनी अपने चारों तरफ माया का जाल बुन रही थी, उसे वह फाड़ गया। विनोदिनी खड़ी-खड़ी चुपचाप बाहर देखती रही- आकाश-भरी चाँदनी को ख़ाली करके उसका सारा संचित अमृत कहीं चला गया? वह क्यारियों वाला बगीचा, उसके बाद रेती-भरा किनारा, उसके बाद नदी का काला-काला पानी, उसके बाद सारा पार का धुँधलापन- सब मानो एक सादे काग़ज़ पर पेंसिल का बना चित्र हो- नीरस, बेमानी।
उसने महेन्द्र को किस बुरी तरह अपनी ओर खींचा है खौफनाक तूफ़ान की तरह कैसे उसे जड़ समेत उखाड़ लिया है- यह अनुभव करके आज उसका हृदय मानो और भी बेचैन हो गया। उसमें यह सारी शक्ति तो है, फिर भी बिहारी पूर्णिमा की रात में उमड़े हुए समुद्र की तरह उसके सामने आकर पछाड़ क्यों नहीं खाता? क्यों बे-मतलब प्यार की कचोट रोज़ उसके ध्यान में आकर रोती है? उसे लगा सब बेकार और निरर्थक है। इतनी व्यर्थता के बावजूद जो जहाँ है, वहीं खड़ा है- दुनिया में किसी बात का कोई कार्यक्रम नहीं। सूरज तो कल भी उगेगा और दुनिया अपने छोटे-से काम को भी न भूलेगी। और बिहारी जैसे दूर रहा है, वैसे ही दूर रहेगा और उस ब्राह्मण के बच्चे को किताब का नया पाठ पढ़ाता रहेगा।
उसकी ऑंखों से ऑंसू फूटकर झरने लगे। अपनी इच्छा और शक्ति लिये वह किस पत्थर को ढकेल रही है? उसका हृदय लहू से नहा उठा, लेकिन उसकी तकदीर सुई की नोक के बराबर भी न खिसकी।
52
रात में महेन्द्र सोया नहीं- थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के क़रीब जगकर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेन्द्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और ज़िन्दगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये ज़िल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेन्द्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झाँका- सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबोकर एक बेरुखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेन्द्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हारा हृदय अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है।
फिर तो धिक्कार के इस मार-चक्र से अपने को छुडाकर घर जाने के लिए महेन्द्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेन्द्र मन-ही-मन कह उठा- 'जो वास्तव, गम्भीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूँकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।'
महेन्द्र ने तय किया- 'मैं आज ही अपने घर जाऊँगा। विनोदिनी जहाँ भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इन्तज़ाम करके मैं मुक्त हो जाऊँगा'- यह ज़ोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनन्द का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि, अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हाँ- ना कहते न बनता; उसकी अन्तरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबाकर वह दूसरी ही राह पर चला करता। अभी जैसे ही उसने ज़ोर से कहा- 'मैं मुक्त हो जाऊँगा'-वैसे ही शरण पाकर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।
महेन्द्र बिस्तर से उठा, मुँह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अन्दर से बन्द है। दरवाज़े पर धक्का देकर पूछा- "सो रही हो?" विनोदिनी बोली- "नहीं, अभी जाओ!"
महेन्द्र ने कहा- "तुमसे ज़रूरी बात करनी है। ज़्यादा देर न रुकूँगा।" विनोदिनी बोली- "बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो- अकेली रहने दो।"
और दिन होता, तो इससे महेन्द्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोख, इस मामूली औरत के आगे अपने- आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे बुरी तरह दुत्कारकर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार देकर इसके मिज़ाज को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है।
विनोदिनी की इस झिड़की से महेन्द्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा- "मैं विजयी होऊँगा- इसके बन्धन तोड़कर चला जाऊँगा।"
भोजन करके महेन्द्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा माँ के लिए कुछ नई चीज़ें ख़रीदने के ख्याल से वह बाज़ार की दुकानों में घूमने लगा।
विनोदिनी के दरवाज़े पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिज़ी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला होकर दरवाज़ा खोलते हुए उसने कहा- "नाहक क्यों बार-बार मुझे तंग करने आते हो तुम?"
बात पूरी करने के पहले ही उसकी नज़र पड़ी- बिहारी खड़ा था। कमरे में महेन्द्र है या नहीं, यह देखने के लिए बिहारी ने एक बार भीतर की तरफ झाँका। देखा, कमरे में सूखे फूल और टूटी मालाएँ बिखरी पड़ी थीं। उसका मन जबर्दस्त ढंग से विमुख हो उठा। यह नहीं कि बिहारी जब दूर था, तो उसके मन में विनोदिनी के रहन-सहन के बारे में सन्देह का कोई चित्र आया ही नहीं, लेकिन कल्पना की लीला ने उस चित्र को ढककर भी एक दमकती हुई मोहिनी छवि खड़ी कर रखी थी। बिहारी जिस समय इस बगीचे में क़दम रख रहा था, उस समय उसका दिल धड़कने लगा था- कल्पना की प्रतिमा को कहीं चोट न पहुँचे इस आंशका से उसका हृदय संकुचित हो रहा था। और विनोदिनी के सोने के कमरे के द्वार पर खड़े होते ही वही चोट लगी।
दूर रहते हुए बिहारी ने सोचा था कि अपने प्रेम के अभिषेक से मैं विनोदिनी के जीवन की सारी कालिमा को धो दूँगा। लेकिन पास आकर देखा, यह आसान नहीं। मन में करुणा की वेदना कहाँ उपजी? बल्कि एकाएक घृणा ने जगकर उसे अभिभूत कर दिया। बिहारी ने उसे बड़ा मलिन देखा।
वह तुरन्त मुड़कर खड़ा हो गया और उसने 'महेन्द्र-महेन्द्र' कहकर पुकारा। इस अपमान से विनोदिनी ने नम्र स्वर में कहा- "महेन्द्र नहीं है, शहर गया है।" बिहारी लौटने लगा। विनोदिनी बोली- "भाई साहब, मैं पैर पड़ती हूँ, ज़रा देर बैठना पड़ेगा।"
बिहारी ने सोच रखा था, वह कोई आरजू-मिन्नत नहीं सुनेगा। तय कर लिया था कि नफरत के इस नज़ारे से तुरन्त अपने को अलग कर लेगा। लेकिन विनोदिनी की करुण विनती से उसके क़दम क्षण-भर के लिए उठ न सके।
विनोदिनी बोली- "आज अगर तुम मुझे इस तरह ठुकराकर चल दिए, तो तुम्हारी कसम खाकर कहती हूँ, मैं मर जाऊँगी।"
बिहारी पलटकर खड़ा हो गया, बोला- "तुम अपने जीवन से मुझे जकड़ने की कोशिश क्यों करती हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? मैं तो कभी तुम्हारी राह में नहीं आया, तुम्हारे सुख-दु:ख में कभी दख़ल नहीं दिया।"
विनोदिनी बोली- "तुमने मुझ पर कितना अधिकार कर रखा है, एक बार तुमसे कहा था मैंने- तुमने विश्वास नहीं किया। तो भी तुम्हारी बेरुखी में भी फिर वही कहती हूँ। बिना बोले जताने का शर्म से बताने का मौक़ा तो तुमने मुझे दिया नहीं। तुमने मुझे पैरों से झटक दिया है, मैं फिर भी तुम्हारे पाँव पकड़कर कहती हूँ- मैं तुम्हें..."
बिहारी ने टोकते हुए कहा- "बस-बस, रहने दो, यह बात जबान पर मत लाओ। एतबार की गुंजाइश नहीं रही।"
विनोदिनी- "इतर लोग इस पर विश्वास न करें, पर तुम करोगे। इसीलिए मैं तुम्हें ज़रा देर बैठने को कह रही हूँ।"
बिहारी- "मेरे विश्वास करने, न करने से क्या आता-जाता है। तुम्हारी ज़िन्दगी तो जैसी चल रही है, चलती रहेगी।"
विनोदिनी- "इससे तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं, मैं जानती हूँ? अपना नसीब ही ऐसा है कि तुमसे मुझे सदा दूर ही रहना होगा। बस मैं केवल इतना हक नहीं छोड़ना चाहती कि मैं चाहे जहाँ रहूँ, मुझे ज़रा माधुर्य के साथ याद करना। मुझे मालूम है, मुझ पर तुम्हें थोड़ी-सी श्रद्धा हुई थी, मैं उसी को अपना अवलम्ब बनाए रहूँगी। इसीलिए मेरी पूरी बात तुम्हें सुननी होगी। मैं हाथ जोड़ती हूँ, ज़रा देर बैठो!" "अच्छा चलो!" कहकर बिहारी उस कमरे से और कहीं जाने को तैयार हुआ।
विनोदिनी बोली- "भाई साहब, जो सोच रहे हो, वह बात नहीं है। इस कमरे को कलंक की छाया नहीं छू सकी है। कभी यहाँ सोए थे- इसे मैंने तुम्हारे ही लिए उत्सर्ग करके रखा है। सूखे पड़े ये फूल तुम्हारी ही पूजा के हैं। तुम्हें यहीं बैठना होगा।"
सुनकर बिहारी के मन में पुलक का संचार हुआ। वह कमरे में गया। विनोदिनी ने दोनों हाथों से उसे खाट का इशारा किया। बिहारी खाट पर बैठा। विनोदिनी उसके पैरों के पास ज़मीन पर बैठी। विनोदिनी ने बिहारी को व्यस्त होते देखकर कहा- "तुम बैठो, भाई साहब! सिर की कसम तुम्हें, उठना मत। मैं तुम्हारे पैरों के पास भी बैठने लायक़ नहीं- दया करके ही तुमने मुझे यह जगह दी है। दूर रहूँ, तो भी इतना अधिकार मैं रखूँगी।"
यह कहकर विनोदिनी जरा देर चुप रही। उसके बाद अचानक चौंककर बोली- "तुम्हारा खाना?"
बिहारी बोला- "स्टेशन से खाकर आया हूँ।"
विनोदिनी- "मैंने गाँव से तुम्हें जो पत्र दिया था, उसे खोलकर पढ़ा और कोई जवाब न देकर उसे महेन्द्र के मार्फत लौटा क्यों दिया?"
बिहारी- "कहाँ, वह चिट्ठी तो मुझे नहीं मिली।"
विनोदिनी- "इस बार कलकत्ता में महेन्द्र से तुम्हारी भेंट हुई थी।"
बिहारी- "तुम्हें गाँव पहँचाकर लौटा, उसके दूसरे दिन भेंट हुई थी। उसके बाद मैं पछाँह की ओर सैर को निकल पड़ा, उससे फिर भेंट नहीं हुई।"
विनोदिनी- "उससे पहले और एक दिन मेरी चिट्ठी पढ़कर बिना उत्तर के वापिस कर दी?"
बिहारी- "नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।"
विनोदिनी बुत-सी बैठी रही। उसके बाद लम्बी साँस छोड़कर बोली- "सब समझ गई। अब अपनी बात बताऊँ-मगर यकीन करो तो अपनी खुशकिस्मती समझूँ और न कर सको तो तुमको दोष न दूँगी, मुझ पर यकीन करना मुश्किल है।"
बिहारी का हृदय पसीज गया। भक्ति से झुकी विनोदिनी की पूजा का वह किसी भी तरह अपमान न कर सका। बोला- "भाभी, तुम्हें कुछ कहना न पडेग़ा। बिना कुछ सुने ही मैं तुम्हारा विश्वास करता हूँ। मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकता। तुम अब एक भी शब्द न कहना!"
सुनकर विनोदिनी की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। उसने बिहारी के चरणों की धूल ली। बोली- "सब न सुनोगे, तो मैं जी न सकूँगी। थोड़ा धीरज रखकर सुनना होगा-तुमने मुझे जो आदेश दिया था, मैंने उसी को सिर माथे उठा लिया था। तुमने मुझे पत्र तक न लिखा, तो भी अपने गाँव में मैं लोगों की निंदा सहकर ज़िन्दगी बिता देती, तुम्हारे स्नेह के बदले तुम्हारे शासन को ही स्वीकार करती- लेकिन विधाता उसमें भी वाम हुए। जिस पाप को मैंने जगाया, उसने मुझे निर्वासन में भी न टिकने दिया। महेन्द्र वहाँ पहुँचा, मेरे घर पर जाकर उसने सबके सामने मेरी मिट्टीपलीद की। गाँव में मेरे लिए जगह न रह गई। मैंने दुबारा तुम्हें बेहद तलाशा कि तुम्हारा आदेश लूँ, पर तुमको न पा सकी। मेरी खुली चिट्टी तुम्हारे यहाँ से लाकर मुझे देते हुए महेन्द्र ने धोखा दिया। मैंने समझा, तुमने मुझे एकबारगी त्याग दिया। इसके बाद मैं बिलकुल नष्ट हो सकती थी-मगर पता नहीं तुममें क्या है, तुम दूर रहकर भी बचा सकते हो। मैंने दिल में तुम्हें जगह दी है, इसी से पवित्रा वही कठिन परिचय सख्त सोने की तरह, ठोस मणि की तरह मेरे मन में है, उसने मुझे मूल्यवान बनाया है। देवता, तुम्हारे पैर छूकर कहती हूँ, वह मूल्य नष्ट नहीं हुआ है।"
बिहारी चुप रहा। विनोदिनी भी और कुछ न बोली। तीसरे पहर की धूप पल-पल पर फीकी पड़ने लगी। ऐसे समय महेन्द्र दरवाज़े पर आया और बिहारी को देखकर चौंक पड़ा। विनोदिनी के प्रति उसमें जो उदासीनता आ रही थी,ईर्ष्या से वह जाने-जाने को हो गई। विनोदिनी को बिहारी के पाँवों के पास बैठी देखकर ठुकराए हुए महेन्द्र को चोट पहुँची।
व्यंग्य के स्वर में महेन्द्र ने कहा- "तो अब रंगमंच से महेन्द्र का प्रस्थान हुआ, बिहारी का प्रवेश! दृश्य बेहतरीन है। तालियाँ बजाने को जी चाहता है। लेकिन उम्मीद है, यही अन्तिम अंक है। इसके बाद अब कुछ भी अच्छा न लगेगा।"
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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