रहस्यमई आँखें complete

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Jemsbond
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Re: रहस्यमई आँखें

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नंदिनी किसी तरह से शहर में एक थाने तक पहुंची.
“यहाँ का इनचार्ज कौन हैं?” नंदिनी ने अन्दर जाकर एक हवलदार से पूछा.
हवलदार ने एक बार नंदिनी को ऊपर से नीचे घुरा. नंदिनी पूरी अस्त-व्यस्त थी. बाल बिखरे हुए थे. रात को ठीक से न सो पाने की वजह से उसकी आँखे भी सूजी हुई थी.
“आप कौन मेडम? क्या काम हैं आपको?” उस हवलदार ने पूछा.
“मैं जयपुर ब्लाक डी से एसीपी नंदिनी हूँ.” नंदिनी ने अपनी जेब से आईडी कार्ड निकाल कर दिखाते हुए कहा. यह तो गनीमत थी की नंदिनी आईडी कार्ड अपनी जेब में ही रखती थी वरना उसका पर्स, मोबाइल सब तो वही जीप में ही रह गया था.
“जय हिन्द मैडम....” उस हवलदार ने सैल्यूट करते हुए कहा. “माय सेल्फ कांस्टेबल मनीष.”
“जय हिन्द! मुझे यहाँ के इंचार्ज से मिलना हैं.” नंदिनी ने कहा.
“मैडम वो अभी आते ही होंगे, मैं अभी उन्हें फोन कर देता हूँ. आप यहाँ अचानक?” हवलदार ने वापस नंदिनी की हालत को देखते हुए पूछा. उसे यह समझ में नही आ रहा था कि नंदिनी यहाँ इस हालत में क्यों आई हैं.
“किसी केस के सिलसिले में मिलना हैं. मैं एक फोन कर सकती हूँ?”
“ जी बिलकुल मैडम...आप अन्दर केबिन में बेठिये, मैं चाय भिजवाता हूँ.” कांस्टेबल किसी को फोन करता हुआ बाहर चला गया.

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जयपुर के थाने में केबिन में सामने एक तरफ राणा ठाकुर बैठे थे तो दूसरी तरफ विजय बैठा था. विजय राणा ठाकुर के व्यक्तित्व को जानता था इसलिए उन्हें लॉकअप में रखने की बजाय एसी केबिन में बिठाया था.
“आपको उन ट्रक ड्राइवर्स के बारें में कैसे पता चला? क्या वो ट्रक आपके थे?” विजय ने पूछा.
“कैसी बात कर रहे हो विजय? हम तुम्हे इतने पागल लगते हैं कि खुद अपनी ट्रक पकडवाएंगे. वो तो उस ढाबे का मालिक हमारा दोस्त था, उसने उन ड्राइवरो को बात करते हुए सुना तो उसे कुछ शक हुआ, तो उसने हमको बता दिया.”
“हां...लेकिन ऐसे मामलो में तो अमूमन लोग पुलिस वालो को फोन करते हैं, उसने आपको क्यों बताया और उस ड्राईवर ने आत्महत्या क्यों की?”
“हमें क्या पता उस ड्राईवर ने आत्महत्या क्यों की और पुलिस की मदद करना कोई अपराध हैं क्या?” राणा ने थोडा सा गंभीर होते हुए कहा.
“हम्म...नही ऐसा तो नही हैं. नंदिनी की किडनेपिंग के बारें में आप क्या जानते हैं?”
“इस बारें में हम कुछ नही जानते हैं.” राणा ने सधा सा जवाब दिया.
“क्या ताश्री के केस का इससे कोई लेना देना हैं?”
“हम तुम्हे पहले ही बता चुके हैं कि हम ताश्री के मामले में कुछ नही जानते हैं.”
“हां...मगर आपने यह नही बताया कि ताश्री की मौत के बाद उसकी माँ आपकी ही एक होटल में काम करती थी.”
“क्या...?” राणा ने हडबडाते हुए पूछा.
“मुझे पता हैं राणा साहब...शुक्र मनाइए कि आपका लिहाज था कि की मैंने नंदिनी को इस बारें में अब तक कुछ नही बताया. ताश्री की माँ अब कहा हैं?”
“उनका नंदिनी के अपहरण से कुछ भी लेना देना नही हैं.”
“इस सब का एक दुसरे से कुछ न कुछ तो लेना देना हैं राणा साहब...यह नंदिनी की ज़िन्दगी का सवाल हैं, बेहतर हैं आप मुझे सबकुछ सच सच बता दे, वरना मेरे पास दुसरे तरीके भी हैं.”
“ठीक हैं मैं उन्हें जानता हूँ... मैं ताश्री को भी जानता था. मगर उस सबका अब क्या करना हैं? अगर नंदिनी की जान खतरे में हैं, तो बेहतर हैं कि मुझसे नही उससे सवाल करो जिसको इस केस के खुलने से सबसे ज्यादा खतरा हैं.”
“आपकी किसकी बात कर रहे हैं?”
“संगठन के अध्यक्ष मृत्युंजय महाराज.”
“मृत्युंजय महाराज जेल में हैं. वो नंदिनी का अपहरण कैसे करवा सकते हैं?”
“तो फिर तुम संगठन के वर्तमान अध्यक्ष को पकड़ो.”
“वेद सागर..उसके बारें में कोई कुछ नही जानता हैं. मैं सिर्फ शक की बिनाह पर एक राष्ट्रिय संस्था के खिलाफ कार्यवाही नही कर सकता हूँ. मेरे लिए अभी नंदिनी को बचाना बहुत जरुरी हैं, और अगर इसमें संगठन का हाथ हैं तो मेरी मदद सिर्फ दो लोग कर सकते हैं या तो आप या फिर ताश्री की माँ!”
“तुम नंदिनी से प्यार करते हो न?”
अचानक राणा के पूछे गये इस सवाल से विजय झेंप गया. “मुझे तो उसी दिन पता चल गया था, जब तुम पहली बार नंदिनी के साथ मेरे घर आये थे.” राणा कुछ देर रुका. “मैं वेद के बारें में कुछ नही जानता हूँ लेकिन जो सकता हैं ताश्री की माँ जानती हो...वो इस वक्त जोधपुर में हैं. मेरे एक मित्र के होटल धोराराणी में काम करती हैं.”
“शुक्रिया राणा साहब, मैं आपका अहसानमंद हूँ.”
तभी विजय का फोन बजा.
“हेल्लो कौन? इंस्पेक्टर विजय हियर.”
“विजय में नंदिनी बोल रही हूँ.”
“नंदिनी! तुम कहाँ हो नंदिनी?” विजय ने चौंकते हुए कहा. राणा ने भी आश्चर्य से विजय की और देखा.
“मैं अभी हरिद्वार मैं हूँ, बड़ी मुश्किल से उन गुंडों के चुंगल से भाग कर आई हूँ. अभी यहाँ एक पुलिस स्टेशन से फोन किया हैं.”
“तुम ठीक तो हो न?” विजय ने चैन की सांस लेते हुए कहा.
“हां मैं बिलकुल ठीक हूँ. मुझे कुछ पैसो और एक फोन की जरूरत हैं.”
“ठीक हैं वहां के इनचार्ज से मेरी बात करवा दो. मैं सब कुछ करवा दूंगा और तुम्हारे लिए आज शाम का फ्लाइट का टिकट भी करवा देता हूँ.”
“ठीक हैं.”
“ठीक हैं अपना ख्याल रखना.”
इसके बाद विजय ने फोन रखा. राणा उसे घुर रहा था जैसे बिना ईद के कोई बकरा कट गया हो.
“मिस नंदिनी कैसी हैं?” राणा ने संयत होते हुए पूछा.
“वो ठीक हैं. किसी तरह से उन गुंडों की गिरफ्त से भाग छुटने में कामयाब रही.”
“हम्म...तो मैं अब जा सकता हूँ?”
“जी...बिलकुल...मैं आपको जो तकलीफ हुई उसके लिये माफ़ी चाहता हूँ.” राणा ने एक बार फिर विजय को घुरा और बाहर चला गया.
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इंस्पेक्टर यशपाल ने केबिन में प्रवेश किया. अन्दर नंदिनी ने अभी फोन रखा ही था.
“जय हिन्द मैडम...मैं इंस्पेक्टर शर्मा यहाँ का इनचार्ज...” इंस्पेक्टर ने नंदिनी से हाथ मिलाते हुए कहा.
“मैं एसीपी नंदिनी...” नंदिनी को अपनी हालत पर तरस आ रहा था. वो इससे ज्यादा कुछ नही बोल पाई.
“जी कहिये मैडम मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ. इंस्पेक्टर ने अपनी सीट पर बैठते हुए कहा.
“आप इस नंबर पर बात कर लीजये वो आपको सब समझा देगा.” नंदिनी ने एक नंबर डायल करते हुए कहा.
“जी मैडम...”
नंदिनी ने विजय को फोन किया था, विजय ने उस इंस्पेक्टर को सब समझा दिया.
“मैडम यह मेरा क्रेडिट कार्ड हैं..२५२५ इसके पिन हैं..आपको जितना कैश चाहिए आप इसके जरिये निकाल सकती हैं...मैं यही पास ही एक होटल में कमरा बुक करवा रहा हूँ और आपको एक फोन भी दिलवा देता हूँ...”
“थैंक यू..” नंदिनी ने बस इतना ही कहा. इंस्पेक्टर कुछ देर के लिए बाहर गया और वापस आया.
“सब हो गया हैं मैडम...टैक्सी कुछ देर में आती ही होगी. और कुछ...”
“थैंक्स अगेन...मुझे एक हेल्प और चाहिए थी. यहाँ किसी जेल में मृत्यंजय महाराज करके कोई कैदी हैं, आप मुझे उसके बारें में डिटेल्स दे सकते हैं?”
“आप कही बिएसएस के अध्यक्ष श्री मृत्युंजय जी महाराज की बात तो नहीं कर रही हैं?”
“जी वहीँ...आप जानते हैं उनके बारें में?”
“उनके बारें में कौन नही जानता...२०१३ का सबसे हाई प्रोफाइल केस रहा हैं यहाँ का... मुझे तो अब तक विश्वास नही होता की मृत्युंजय जी महाराज ऐसा काम कर सकते हैं.”
“वो इस वक्त कौनसी जेल में हैं?”
“शायद सेंट्रल जेल में होंगे. वैसे उनका केस पास ही के एक थाने में था. मैं वहां के इनचार्ज से बात कर लेता हूँ वो आपको सारी जानकारी दे देंगे.”
“जी शुक्रिया..”
तभी एक हवलदार आया.
“सर...वो टैक्सी आ गयी हैं.”
“मैं चलती हूँ.” नंदिनी ने कहा और टैक्सी में बैठ गयी.
नंदिनी के जाने के बाद इंस्पेक्टर ने अपना फोन निकाला और किसी को फोन किया.
“जय महाकाल. हम नागपाल बोल रहे हैं.”
“जय महाकाल”
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Re: रहस्यमई आँखें

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“हमें श्री वेद सागर जी से बात करनी हैं.”
“वेद सागर जी से?” सामने वाले ने चौंकते हुए कहा. “कोई विशेष प्रायोजन?”
“यह उस एसीपी नंदिनी के बारें में हैं.”
“एसीपी नंदिनी...ठहरिये अभी बात करवाते हैं.”
इतना कहकर सामने वाले ने फोन काट दिया. कुछ देर बाद वापस फोन आया.
“जय महाकाल...हम वेद सागर बोल रहे हैं.”
जय महाकाल...मैं राजपाल यहाँ हरिद्वार के....”
“हमें ज्ञात हैं...नंदिनी के बारें क्या जानते हो?”
“वो यहाँ आई थी. श्री मृत्युंजय महाराज से मिलने के लिए कह रही थी.”
“अवश्य...स्वयं मृत्यंजय महाराज भी यही चाहते हैं. उसे सुविधापूर्वक महाराज से मिलवाया जाए.”
“जी महोदय...और उसके बाद अगर कहे तो वापस उसे....”
“नही...उसकी कोई आवश्यकता नही हैं. उसे मुक्त रहने दीजिये. हमारा प्रायोजन पूरा हुआ.”
“जैसी आपकी आज्ञा.”
“आपका आभार.”
नंदिनी होटल गयी और वहां से वापस थाने गयी। इंस्पेक्टर ने पहले ही दूसरे थाने में बात कर रखी थी, वहां से एक* हवलदार आया हुआ था जो नंदिनी को जेल लेकर गया। वहां गेट पर एक पहरेदार ने एंट्री की और एक दूसरे व्यक्ति ने उन्हें अपने पीछे आने को कहा।

'तुम यही रुको मैं उससे अकेले में मिलना चाहती हूँ।" नंदिनी ने अपने साथ आये हवलदार से कहा।
वो व्यक्ति नंदिनी को अंदर एक बैरक में लेकर गया। "यहीं हैं वो" उसने सामने एक आदमी की तरफ इशारा करते हुए कहा।
नंदिनी ने देखा कि सलाखों के पीछे एक आदमी बैठा हुआ था। उसने सामने दिवार की तरफ मुंह कर रखा था।

"महाभारत का युद्ध जितना पांडवों के लिए असंभव था अगर श्री कृष्णा उनके साथ न होते...श्री कृष्ण ने स्वयं शस्त्र नहीं उठाया बल्कि वे मात्र अर्जुन के सारथि थे, किन्तु क्या यह सत्य था? शतरंज में चाल हमेशा मोहरे से चली जाती हैं इसका यह अर्थ तो नही कि खेल मोहरा खेल रहा हैं। वह तो एक माध्यम मात्र हैं, असली खेल तो खिलाडी खेलता हैं। तो युद्ध कौन लड़ रहा था, अर्जुन या कृष्ण?" उसने बिना नंदिनी की ओर देखे ही कहा।

"उससे फर्क क्या पड़ता हैं?" नंदिनी ने पास जाते हुए कहा।

"फर्क पड़ता हैं नंदिनी...तुम कौन हो कृष्ण या अर्जुन?" उसने मुड़ते हुए कहा। यह एक 55 साल का प्रौढ़ आदमी था। लंबी दाढ़ी, सफेद बाल, चेहरे पर हलकी झुर्रियां मगर आँखो में एक चमक...ऐसा लगता था मानो किसी तेज तर्रार* सांप को टोकरी में बंद कर रखा हो। नंदिनी* एक बारगी तो अपना नाम सुनकर चौंकी मगर फिर उसे लगा कि अगर मृत्यंजय ने उसका अपहरण करवाया है तो ज़रूर वो उसके बारे में जानता होगा।

"मैं कोई युद्ध नही लड़ रही हूँ।" नंदिनी ने उसकी आँखों में देखते हुए।

"हम सब लड़ रहे हैं। कोई अपना युद्ध तो कोई दूसरे का, कोई कृष्ण है, कोई पार्थ हैं, कोई दुर्योधन हैं तो कोई कर्ण हैं। कोई जीतने के लिए लड़ रहा हैं तो कोई जीत कर भी लड़ रहा हैं।"

"तुम किसकी तरफ से युद्ध लड़ रहे हो?"

"मैं! नही नही...मैं कारक हूँ कर्ता नही। मैं धृतराष्ट्र हूँ जो सिर्फ युद्ध होते हुए देख रहा हूँ।"

"तब तो सबसे ज्यादा नुकसान भी तुम्हारा ही होगा।"

"हानि की चिंता वो करता हैं जिसके पास खोने के लिए कुछ होता हैं। शून्य हमेशा अविभाज्य होता हैं।" मृत्यंजय पहेलियों में बात कर रहा था, तो नंदिनी भी पहेलियों से ही जवाब ढूंढ रही थी। मगर जब बात बनती नज़र नही आई तो उसने सीधा सवाल पूछा।

"मेरे अपहरण के पीछे तुम्हारा हाथ था?"

"जिन प्रश्नो के उत्तर ज्ञात हो उन प्रश्नो में समय क्यों व्यर्थ करना।"

"तो फिर मुझे वो बताओ जो ज्ञात नहीं हैं, तुमने ताश्री को क्यों मारा?"

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।

आत्मा अजर-अमर हैं। हम किसी के प्राण नही हर सकते हैं। कब, किसको, कैसे मरना हैं, यह उस महान ईश्वर के हाथ में हैं। मैं कौन होता हूँ किसी को मारने वाला, सब उसकी इच्छा पर हैं।"

"....और वो लडकिया जो तुम्हारे आश्रम से मिली थी, वो वहां क्या कर रही थी?"

"साधना...ईश्वर से साक्षात्कार का एक मार्ग हैं। कोई भी इस मार्ग पर चल सकता हैं। अगर कुछ बालिकाएँ मेरे सानिध्य में,* ईश्वर की साधना करना चाहती थी तो इसमें आपत्ति क्या हैं? कोई युवा स्त्री अगर पुरुष के संग हो तो इसका यह अर्थ तो नही की हमेशा कुछ अनुचित ही होगा।"

"बेशक! मगर यह उद्देश्य पर निर्भर करता हैं। यह किस तरह की साधना थी, जिसमें मासूम लड़कियों की जान खतरे में आ गयी थी।" नंदिनी ने मृत्युंजय की फ़ाइल पढ़ी थी, जिससे उसे मृत्यंजय की गिरफ्तारी के वक्त उन लड़कियों की हालत के बारें में पता चला था।

"कुछ रास्ते बहुत ही दुर्भर होते हैं। ईश्वर की प्राप्ति आसान नहीं होती हैं।"

"ईश्वर की आड़ में तुम क्या करना चाहते थे यह कौन जानता हैं? वैसे भी तुम्हे तुम्हारे किये की सजा मिल ही रही हैं।" नंदिनी कह कर जाने के लिए मुड़ी।

"तुम यहाँ क्यों आई थी? अपने सवालो के जवाब जानने के लिए...मगर तुम तो अब भी अनुत्तरित ही हो।"

"मुझे दीवारो से सर पटकने का कोई शौक नही हैं। मैं जानती हूँ तुम मुझे कुछ नही बताने वाले हो। कोई अपनी चिता की लकड़ियाँ खुद नही जमाता।"

"हां, परन्तु कुछ महान लोग समाधि भी लेते हैं...हाहाहा.." मृत्युंजय ने ठहाका लगाया। "तुम सत्य को पाना चाहती हो, मगर सत्य की प्राप्ति आसान नही हैं। तुम साधना कर रही हो, मगर बिन गुरु के साधना कठिन हैं। तुम अपना गुरु ढूंढो।"

"तूम किसकी बात कर रहे हो?" नंदिनी ने चोंकते हुए कहा।


मृत्यंजय मुस्कुराया और वापस पीछे मुड़कर बैठ गया।

"जगतीमवितुं कलिताकृतयो विचरन्ति महामहसश्छलतः ।
अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥"

नंदिनी* बाहर आ गयी।

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नंदिनी ने शाम को फ्लाइट पकड़ी और वापस जयपुर आ गयी। एअरपोर्ट पर विजय पहले से ही खड़ा था। नंदिनी को देखते ही उसने गले से लगा लिया।

"तुम ठीक तो हो।" विजय ने नंदिनी को देखते हुए पूछा।

"हां...अब ठीक हूँ।" नंदिनी और विजय दोनों जीप में बैठ गए।

"कुछ पता चला यह किसका काम हैं?" विजय ने पूछा

"हां उसी संगठन का..."

"मगर संगठन ऐसा क्यों करेगा?"

"शायद वो नही चाहते की उनके बारे में किसी को ज्यादा पता चले। लेकिन मुझे एक बात समझ में नही आई मेरी पिस्तौल खाली कैसे थी?"

"क्या? तुम्हारी पिस्तौल खाली थी!"

"हां...मैंने जब अपने बचाव में फायरिंग करने की कोशिश की तो मुझे पिस्तौल खाली मिली और अजीब बात हैं कि किडनैपर्स को यह बात पहले से ही पता थी।"

"हम्म...यह जरूर दिनेश का काम होना चाहिए।"

"दिनेश का?" दिनेश उनका पहरेदार था।

"हां, वो आज सुबह ड्यूटी पर नही आया हैं, मैंने फोन किया तो उसका फोन बंद आ रहा था, घर पर फोन किया तो वहां भी कुछ* जवाब नही मिला। ऐसा लग रहा हैं कहीं भाग गया हैं।"

"उस दिन जब उस ड्राईवर ने आत्महत्या की थी वो तब भी ड्यूटी पर ही था।" नंदिनी ने आशंका व्यक्त की।

"हो न हो यह उसी का ही काम होगा। मैं सीसीटीवी फुटेज चेक करवाता हूँ।"

नंदिनी और विजय दोनों घर पहुंचे।

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"....तुम मृत्यंजय से मिली थी?" नंदिनी और विजय खाना खाते हुए बात कर रहे थे।

"हां...मगर आश्चर्य की बात यह हैं कि उसे पहले से ही पता था कि मैं वहां आने वाली हूँ।"

"तुम्हारे अपहरण के पीछे भी उसी का हाथ था?"

"उसने कबूल तो नही किया मगर उसकी बातों से लग रहा था कि हो न हो यह उसी का काम हैं।"

"उससे और कुछ पता चला?"

"कुछ ख़ास नही ऐसा लगता हैं यह सब वो किसी और से करवा रहा है। लगता है वेद सागर भी मृत्यंजय के इशारो पर काम कर रहा है, और अप्रत्यक्ष रूप से पूरा संगठन ही मृत्युंजय के हाथ में हैं...वो मुझे कोई गुरु ढूंढने को कह रहा था।" नंदिनी ने अचानक विजय से पूछा जैसे वो इस पहली का मतलब जानना चाहती हो।

"गुरु! मगर क्यों?"

"वो कह रहा था, अगर सत्य को पाना चाहती हो तो कोई गुरु ढूंढो। भला मुझे कौनसा सत्य जानना हैं?"

"सत्य कोई तथ्य न होकर तत्व हैं, यह एक उद्देश्य हैं, हम सब किसी उद्देश्य की और काम करते हैं, उस उद्देश्य का भान ही सत्य की प्राप्ति हैं।" विजय ने गंभीरता से कहा तो नंदिनी उसे घूरने लगी।

"मेरा उद्देश्य अब तुम ही हो।" नंदिनी ने विजय के हाथ के हाथ रखते हुए, प्यार से कहा। "जब उन गुंडों ने मेरा अपहरण किया था तब मैं तुम्हारे बारें में ही सोच रही थी कि अगर मुझे कुछ हो गया तो हमारा प्यार सिर्फ एक दिन की दास्ताँ बन कर ही रह जाएगा।"

"हा हा...नही ऐसा कुछ नही होगा, अभी हमें अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ करना बाकि हैं। तुम अब बहुत थक गयी होगी, आराम कर लो।"

"हम्म...दो दिन से नींद पूरी नही हुई हैं, मुझे अब सो जाना चाहिए।"

"गुड़ नाइट।"

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सुबह नंदिनी और विजय दोनों थाने पहुंचे।

"...मगर तुम राणा को थाने क्यों लाये?" केबिन में बैठे दोनों बातें कर रहे थे।

"मुझे शक था कि तुम्हारे अपहरण के बारें राणा कुछ न कुछ जरुर जानता हैं और न भी जानता हो तब भी कुछ न कुछ मदद कर सकता हैं।"

"तो फिर उसने कुछ मदद की?"

"नही...उसने ताश्री की माँ के बारें में भी गलत बताया था।"

"ताश्री की माँ के बारें में! वो ताश्री की माँ के बारें में क्या जानता है?"

"नंदिनी...मैंने तुम्हे बताया नही था पर ताश्री की मौत के बाद ताश्री की माँ राणा के ही एक होटल में। काम करती थी।"

"लगा ही था।" नंदिनी ने शांत रहते हुए कहा। "तो उसने क्या बताया?"

"मैंने उससे पूछा था कि वो अब कहाँ हैं? उसने एक एड्रेस दिया था वो भी गलत निकला।"

"संगठन का हर व्यक्ति एक बात अच्छी तरह से जानता हैं और वो हैं छल करना, राणा अगर सचमुच संगठन का आदमी हैं तो वो तुम्हे कभी सही जानकारी नही देगा।"

"मुझे लगा ही था, इसलिए मैंने दूसरा तरीका अपनाया।"

"दूसरा तरीका?"

"हां मैंने राणा की कॉल डिटेल्स निकलवाई थी। और तुम जानती हो उसने यहाँ से बाहर निकलते ही किसे फोन किया था? ताश्री की माँ को।"

"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बेटी के पास भी भटकने की?" मेरी माँ ने अंदर आते हुए कहा. अंतस एक तरफ खड़ा हो गया जैसे किसी को सम्मान में आने के लिए रास्ता दे रहा हो. "मैं जानती थी मृत्यंजय किसी न किसी को तो भेजेगा मगर ये तुम होंगे मुझे विश्वास नहीं हो रहा हैं, मेरा नहीं तो कम से कम ताश्री के पिता का तो ख्याल किया होता, तुम्हे ज़रा सी भी शर्म नही आई." उन्होंने अंतस को किसी छोटे बच्चे की तरफ डाँटते हुए कहा. मुझे इस बात का आश्चर्य हो रहा था, कि माँ सच में अंतस को जानती थी. इसका मतलब था कि अंतस जो कुछ कह रहा था वो सब सच था. दूसरा माँ कह रही थी कि मृत्युंजय किसी न किसी को जरूर भेजेगा. मृत्यंजय भला किसी को क्यों भेजेगा.

"माँ आप मेरी बात तो सुनिए..." अंतस जैसे मिमियाया. ऐसा लग रहा था इस परिस्थिति में क्या कहना हैं उसे भी समझ में नही आ रहा हैं. उसकी सारी वाकपटुता माँ के सामने जैसे सुन्न पड़ गयी थी.
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"कोयल को कौआ पाले तब भी वो रहती तो कोयल ही हैं, तुम तो अपनी जात तक भूल गए. ऐसा कौनसा लालच दिया मृत्यंजय ने तुम्हे जो तुम इस हद तक गिर गए..."

"आप जैसा सोच रही हैं वैसा कुछ नही हैं, मैं तो बस ताश्री..."

"...ताश्री संगठन के बारें में जानती हैं?" अंतस अपनी बात भी नही कह पाया था कि माँ ने सवाल दागा. माँ ने अब तक मेरी और देखा तक नही था, जैसे मुझसे उन्हें कोई मतलब ही नही हो.

"मुझे बताना पड़ा, राणा के लोगो ने कल मुझ पर हमला किया था."

मैंने अंतस का बचाव करते हुए कहा. वैसे मुझे कुछ समझ में तो नही आ रहा था पर इस तरह से अंतस का बेइज्जत होना अच्छा नही लगा रहां था.

"मैं गलत समझ रही हूँ? और तुम क्या जानती हो इसके बारें में, तुम तो इसका सही नाम तक नही जानती हो. क्यों ऋषि क्या नाम बताया तुमने इसे "अन्तस" और यह नही बताया कि तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो?"

"मैं जानती हूँ माँ यह तांत्रिक हैं.." अब मैं भी गुस्से में थी, आखिर मेरी माँ ने मुझसे इतने लंबे वक्त तक झूठ बोला था और ऊपर से वो अंतस को ही डांटे जा रही थी. "...और यह कौन हैं उससे ज्यादा मतलब मुझे इस बात से हैं कि आप कौन हैं और इस तस्वीर में आपके साथ यह आदमी कौन हैं?" मैंने अपने पर्स से वो तस्वीर निकालकर माँ को दिखाते हुए कहा.

"यह तस्वीर इसे तुमने दी?" माँ ने मुझे नज़रअंदाज करते हुए अन्तस से पूछा. वो चुपचाप बिना कुछ बोले खड़ा था.

"आपने मुझे मेरे पिता के बारें में क्यों नही बताया माँ?" मैंने गुस्से से चिल्लाते हुए कहा.

"तुम अपने पिता के बारें में सबकुछ जानती हो, रणवीर ही तुम्हारे पिता हैं." मेरी माँ ने मुझे घूरते हुए कहा.

"तो फिर तस्वीर में आपके साथ यह आदमी कौन हैं?" मैंने भी उन्हें घूरते हुए ही कहा.

"मैं तुम्हे बताती ताश्री, अगर तुमने यह सवाल किसी अजनबी की बजाय, सीधा मुझसे ही पूछा होता, मगर तुम समझने की बजाय जानने में विश्वास रखती हो . इसीलिए आज तुम सबकुछ जानकर भी अनजान हो. ना तुम मुझे जानती हो, न ऋषि को और न ही अपने पिता के बारें मे...

"माँ मेरा कोई भी गलत इरादा नही था, अगर आप मौका दे तो मैं आपको समझा सकता हूँ." अंतस ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, वो जानता था माँ ने मुझे शब्दों के चक्रव्यूह में फंसा दिया था जिससे निकलना मेरे लिए असंभव था.

"मुझे अब कुछ भी जानना और समझना नही हैं. सिर्फ एक बात तुम अच्छी से समझ लो, अगर आज के बाद मेरी बेटी के आसपास नज़र भी आये तो यह तुम्हारे और तुम्हारे संगठन दोनों के लिए अच्छा नही होगा, तुम जानते हो मैं क्या कर सकती हूँ." माँ ने अंतस को धमकी देते हुए कहा. "चलो यहाँ से ताश्री."

"माँ...मगर...वो.." मैंने माँ को रोकते हुए कहा.

"ताश्री....चलो.." माँ ने जैसे आदेश देते हुए कहा. मेरे पास उसे मानने के अलावा और कोई रास्ता नही था. अन्तस ने मेरी और देखा और वापस अपनी नज़रे झुका ली. वो कुछ नही बोला.

मैं माँ के साथ बाहर आ गयी. होटल के नीचे आकर हम दोनों खड़े हो गए. माँ ने फोन निकाला और किसी को फोन किया. मुझे मैं असमंजस में थी कि हम दोनों यहाँ क्यों खड़े हैं, ऑटो तो बाहर से ही मिलना हैं. तभी हमारे सामने एक लंबी सी कार आकर रुकी. यह शायद जैगुआर थी.

"अंदर बैठो." मैं कार को निहार ही रही थी, तभी माँ ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा. मैंने माँ को आँखे फाड़ कर देखा कि अब यह कौनसा नया बखेड़ा हैं, मगर वो बिलकुल सामान्य बनी हुई थी जैसे यह कोई बड़ी बात नही हैं.

"ताश्री..." माँ ने मेरी तन्द्रा तोड़ते हुए कहा. मैं चुपचाप कार में बैठ गयी. कार कोई ड्राईवर चला रहा था, मैं पीछे की सीट पर थी इसलिए उसका चेहरा नही देख पाई.

काफी देर तक हम दोनों खामोश बैठे रहे. कोई कुछ नही बोला.

"तुमने ऋषि की आँखों में क्यों नही देखा?" माँ ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.

मैंने कुछ नही कहा बस चुपचाप बैठी रही. शायद इस सवाल का जवाब में खुद नही जानती थी या जानती भी थी तो बता नही सकती थी.

"क्या बेहतरीन चाल चली हैं मृत्युंजय ने, हमारे ही मोहरे से हमें ही मात दे दी. सबसे बेहतरीन ढाल के लिए सबसे बेहतरीन तलवार.."

"आप अंतस को कैसे जानती हैं?" मुझे उसे ऋषि बुलाना अच्छा नही लग रहा था. मैंने उसे शुरूसे ही अंतस ही माना था और वो मेरे लिए अंतस ही रहेगा, चाहे यह झूठ ही क्यों न हो.

"तुम्हे याद हैं उस दिन तुमने मुझसे कहा था कि तुमने अपने सपने में अपने पिता के साथ एक लड़का देखा हैं आठ साल का...वो ऋषि ही था. तुम उसे जानती हो ताश्री, तुम उसे तब से जानती हो जब से तुम पैदा हुई थी, तुम दोनों साथ में खेले हुए हो.

"तब तुम चार साल की थी, यह सब कुछ याद रखने के लिए तुम बहुत ही छोटी थी. उस वक्त तुम्हारा सिर्फ एक ही दोस्त था ऋषि, तुम पुरे दिन उसी के साथ खेलती रहती थी. जब तुम पैदा हुई थी ऋषि सिर्फ चार साल का था मगर किसी बड़े की तरह तुम्हारी देखभाल करता था.
वो तुम्हे अब याद नही होगा मगर तुम उसे पूरी तरह से भूली भी नही हो, तुम्हारे अंतर्मन में वो अब भी कहीं बसा हुआ हैं, वो तुम्हारा अंतस ही हैं. मृत्युंजय यह बात अच्छी तरह से जानता था. उसने तुम्हे अपने अंतर्मन से ही लड़ने पर मजबूर कर दिया. तुम्हारी ताकत को ही तुम्हारी कमजोरी बना दिया. अगर ऋषि की जगह कोई भी और होता तो तुम उसकी आँखों में झांक कर सारा सच जान लेती मगर तुम चाहकर भी उसकी आँखों में नही देख पाई क्योंकि अगर तुम ऐसा करती तो तुम हमेशा के लिए उसे खो देती. तुम्हारे इसी डर का उसने ने फायदा उठाया."

"मगर मृत्यंजय को मुझसे क्या चाहिए."

"उसे तुमसे कुछ नही चाहिए...बल्कि खुद तुम चाहिए...तुम ग्यारहवा सूत्र हो. "

"ग्यारहवा सूत्र ! मैं सुनकर सिहर गयी. मतलब की मेरे वो सपने सच थे. कही ऐसा तो नही की मेरे सपनो में आने वाला वो तांत्रिक अंतस न होकर मृत्यंजय हो.

तभी गाडी रुकी.

तभी गाडी रुकी. "मैडम घर आ गय." ड्राईवर ने पीछे मुड़कर कहा. उसे देखकर मेरे होश उड़ गए. यह उनमें से एक था जो कल अंतस को पीटने के लिए आये थे.

"माँ ये तो..." मैंने डरते हुए उसकी तरफ इशारा करत हुए कहा. वो एक बार मुझे देख कर हल्का सा मुस्कुराया और वापस आगे देखने लगा.

"घर में चलो ताश्री!" माँ ने गाड़ी से उतरते हुए कहा.

मैं चुपचाप उतरकर अंदर चली गयी. मुझे अब लगने लगा था कि हो न हो, मेरी माँ राणा को जानती हैं, और यह गाडी भी राणा की हैं. मेरे मन में तरह तरह के विचार आने लगे की कहीं मेरी माँ का राणा के साथ कुछ चक्कर तो नही हैं. मैं सोचते सोचते ही अंदर गयी. अंदर मैने देखा कि सामने सोफे पर राणा ठाकुर बैठ हुआ था. वो हमें देखकर खड़ा हो गया. अब मुझे ये माज़रा कुछ कुछ समझ में आने लगा था. राणा ने माँ को अंतस और मेरे बारें में बताया था.

"ये आदमी यहाँ क्या कर रहा हैं? इसी ने तो कल अंतस पर हमला करवाया था." मैं राणा की तरफ लपकी.

"तमीज से बात करो ताश्री...राणा तुम्हारे मामा हैं.

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Re: रहस्यमई आँखें

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मामा! मुझे लगा की अब मेरा सर फटने वाला हैं. मैं वहीं सोफे पर ही बैठ गयी. एक-एक कर मेरे सामने इतने राज आ रहे थे कि मेरे लिए यह कुछ समझ पाना नामुमकिन हो रहा था. मुझे लग रहा था जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया से आई हूँ. हर शख्स जो मुझसे मिल रहा था मुझे अजनबी लग रहा था.

"उसने क्या कहा?" राणा ने मेरी माँ से पूछा.

"वो क्या कहता, कुछ कहने के लायक बचा ही नहीं था. कह रहा था मैं उसे गलत समझ रही हूँ. हूँ...मैं भला होती ही कौन हूँ उसे समझने वाली...उसे समझने जाने का ठेका तो मृत्युंजय ने ले रखा हैं.

"मुझे उसी दिन समझ जाना चाहिए था जब उसने मेरे भतीजे को पीटा था. मैंने उसे ताश्री का कोई आम दोस्त मान कर नज़रअंदाज कर दिया था." माँ और राणा इतनी गंभीरता से बातें कर रहे थे जैसे अंतस कोई आतंकवादी हो.

"...मैं ऋषि को हॉस्पिटल में देखते ही पहचान गयी थी. कोई चाहे कितना भी बड़ा चल कर ले, उसकी आँखे हमेशा सच बोलती हैं, मैं उन आँखों को बचपन से जानती हूँ.

"बेहतर होगा ताश्री के साथ तुम कुछ दिनों के लिये मेरे घर पर आ जाओ, वहां तुम ज्यादा सुरक्षित रहोगे." राणा ने प्रस्ताव रखा.

"ऋषि की इतनी हिम्मत नही हैं कि मेरे होते हुए अब वो ताश्री के पास भी फटक सके. "

"मुझे कोई समझायेगा कि यह हो क्या रहा हैं?" मैंने दोनों हाथो में अपना सर पकड़ते हुए कहा.

"तुम अपने कमरे में जाओ ताश्री." मेरी माँ ने रुखा सा जवाब दिया.

"क्या?" यहाँ मेरा दिमाग तरह तरह के सवालो से फटा जा रहा था और माँ मुझे अपने कमरे में जाने के लिए बोल रही थी.

"बेटा आप अभी अपने कमरे में जाइए, आपकी माँ आपको बाद में सब समझा देगी. राणा ने इतने प्यार से कहा जैसे चाशनी में डुबो कर शब्द निकाले हो.

मैं वहां से चुपचाप उठकर अपने कमरे में आ गयी. अंदर आते ही मैं पेड़ से ऐसे गिर पड़ी जैसे किसी पेड़ से कोई डाली टूट कर गिरी हो. मेरी आँखों से आंसू बाह पड़े. सबकुछ जानने का दावा करने वाली ताश्री आज खुद के बारें में कुछ नही जानती हैं. मैं जिनसे प्यार करती थी, जिनपर विश्वास करती थी सब के सब झूठे निकले.

तभी मुझे डोरबेल की आवाज सुनाई दी. इस वक्त कौन हो सकता हैं? मैं देखने के लिए वापस नीचे गयी और आधी सीढ़ियां उतरकर वही खड़ी हो गयी. राणा ने एक नज़र मुझे देखा और फिर नज़रअंदाज कर दिया. दरवाजा माँ ने खोला.

यह अंतस था!

तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की. मेरे आदमी बाहर ही हैं. राणा ठाकुर ने अंतस की और लपकते हुए कहा. मैं भी सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ गयी.

"आपके आदमी बाहर विश्राम कर रहे हैं और अब शायद प्राथमिक चिकित्सा मिलने पर ही उठ पाएंगे. अंतस ने अपनी आवाज में कुछ तीव्रता लाकर कहा तो राणा कुछ ठन्डे पड़े.

"तुम्हे आखिर चाहिए क्या?" मेरी माँ ने पूछा.

"मुझे ताश्री चाहिए." अंतस ने आत्मविश्वास से मेरी और देखते हुए कहा.

"लगता हैं तुम्हे अपनी ज़िन्दगी प्यारी नही हैं. मेरे होते हुए तुम ताश्री को छु तक नही सकते हो." राणा ने आगे आते हुए कहा.

"मुझे अपनी नहीं उन मासूमो की ज़िन्दगी की परवाह हैं."

"मतलब." माँ और राणा दोनों चोंक गए.

"मृत्यंजय फिर से सूत्र साधना कर रहा हैं." अंतस ने जवाब दिया.
"हां मैंने राणा की कॉल डिटेल्स निकलवाई थी। और तुम जानती हो उसने यहाँ से बाहर निकलते ही किसे फोन किया था? ताश्री की माँ को।"

"तुम जानते हो यह गैर कानूनी हैं, राणा को अगर इस बारें में पता चल गया तो वो हमारी बैंड बजा देगा, तुम्हे ताश्री की माँ की लोकेशन पता चली?"

"हां वो यही हैं जयपुर में...अपने किसी रिश्तेदार के यहां रह रही हैं."

"हम्म...ठीक हैं मैं उनसे आज ही मिल लेती हूँ...दिनेश के बारें में कुछ पता चला. सीसीटीवी से कुछ जानकारी मिली?"

"नही, कोई फायदा नहीं हैं...वो तो हमारे कंप्यूटर की हार्डडिस्क निकालकर ले गया."

"बहुत बढ़िया...पहले एक ड्राईवर जेल में आत्महत्या कर लेता हैं, फिर कोई मेरी पिस्तौल से गोलियां निकाल लेता हैं और अब हमारे कंप्यूटर्स की हार्डडिस्क ही गायब हैं, आखिर हो क्या रहा हैं इस थाने में?"

"अगर आसितन में ही सांप छुपा बैठा हो तो कोई भला कर भी क्या सकता हैं? मैं आज ही एसपी से बात करके दिनेश का सस्पेंशन करवाता हूँ."

"नही उसकी कोई जरुरत नही हैं...इससे बात और भी ज्यादा फैलेगी. अभी जब तक हम यह सारी गुत्थी सुलझा नही लेते यह बात ज्यादा न फैले तो ही बेहतर हैं."
---------------------------------------------------------
शाम का वक्त था. विजय और नंदिनी दोनों ताश्री की माँ से मिलने के लिए थाने से निकले.

"मुझे उम्मीद हैं आज इस केस के बारें में सबकुछ पता चल ही जाएगा. वैसे तुम लोगो ने डायरी के आधार पर ताश्री की माँ से पूछताछ की थी क्या? क्योंकि कम से कम वो तो अपनी बेटी की डायरी को झूठा नही बता सकती थी."

"उनसे सारी पूछताछ खुद चतुर्वेदी सर ने की थी. उनका कहना था कि उनकी बेटी ताश्री एक बहुत ही लेख़क भी थी, हो सकता हैं उसकी डायरी कोई फिक्शनल ऑटोबायोग्राफी हो. उसे रोमांच पसंद था तो वो अपनी डायरी में भी अपनी ज़िन्दगी रोमांचक तरीके से लिखती थी."

"और उसकी सम्मोहन की शक्ति के बारें में..."

"उनका कहना था कि ऐसा कुछ नही हैं...उसे बस आँखों की दिक्कत थी, सो डॉक्टर ने उसे हमेशा चश्मा लगाए रखने के लिए कहा था."

"काला चश्मा! ...और तुम लोगो ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया?"

"हमारे पास और कोई रास्ता भी नही था, भला हम एक हाल ही में मरी हुई लड़की की माँ से ऐसे सवाल कैसे करते जिनका कोई आधार ही नही था?"


"हां लेकिन अब आधार हैं, एक काल्पनिक संगठन ने मेरा अपहरण किया हैं. मैं इस संगठन का पर्दाफाश करके ही रहूंगी. अंतस पर ताश्री की माँ ने शक जताया था?"

"शक तो नही जताया था पर यह जरूर कहा था अंतिम बार उसे उसी लड़के के साथ देखा था, वो उसके साथ कही बाहर गयी थी."

"यह अजीब नही हैं, कोई भी माँ अपनी बेटी को किसी अनजान लड़के के साथ क्यों जाने देंगी?"

तभी गाडी एक मकान के सामने जाकर रुकी.

"यहीं मकान हैं?" नंदिनी ने पूछा.

"हां कॉल लोकेशन के हिसाब से तो यही होना चाहिए. चलो पूछते हैं."

दोनों जीप से उतरे और डोरबेल बजायी. एक महिला ने दरवाजा खोला. यह ताश्री की माँ ही थी, एक 50 साल की प्रौढ महिला थी, एक आम भारतीय साड़ी, श्रृंगार के नाम माथे पर एक बिंदी, किन्तु पहनावा बिलकुल व्यवस्थित, उनके चेहरे से एक अलग ही तेज झलक रहा था.

"जी कहिये." नंदिनी और विजय सादे कपड़ो में थे, शायद इसलिए ताश्री की माँ उन दोनों को पहचान नही पाई.

"मैं इंस्पेक्टर विजय हूँ और यह हैं एसीपी नंदिनी...हम ताश्री के मामले कुछ पूछताछ करने आये हैं..."

"कौन हैं अवंतिका?" पीछे से किसी औरत की आवाज आई.

"पुलिस वाले हैं, ताश्री के बारें में पूछताछ करने आये हैं."

नंदिनी और विजय अंदर आ गए. तभी किचन से वो दूसरी महिला निकलकर आई. उसे देखते ही नंदिनी खड़ी हो गयी....यह उसकी अंजनी माँ थी.

"अंजनी माँ आप?" नंदिनी ने चोंकते हुए कहा. वो अंजनी के पास में गयी. अंजनी को एक बार तो कुछ समझ में नही आया, फिर उसने पहचान लिया की यह नंदिनी हैं.

"नंदिनी बेटा तुम! बहुत दिनों बाद दिखी हो." अंजनी ने उसे गले से लगा लिया.

"आप यहाँ...?" नंदिनी ने अवंतिका की और देखते हुए अंजनी से पउच्च.. विजय चुपचाप खड़ा खड़ा यह सब देख रहा था.

"अवंतिका मेरी बहन हैं, ताश्री की मौत के बाद वो यहीं रहती हैं."


विजय, नंदिनी और अंजनी तीनो सोफे पर बैठ गए. अवंतिका अंदर चाय लेने के लिए चली गयी.

"आपने अनाथालय आना क्यों छोड़ दिया?" नंदिनी ने अंजनी से पूछा.

"बेटा उस वक्त अचानक ताश्री के साथ यह सब कुछ हुआ जिससे अवंतिका पूरी तरह से टूट गयी थी, उसे सँभालने वाला मेरे अलावा और कोई नहीं था. इस लिए मैंने नोकरी छोड़ दी थी, अभी अवंतिका और मैं यही पास में ही एक स्कूल में पढ़ाने का काम करती हैं."

"मैं यहाँ पर जोइनिंग होते ही अनाथालय आई थी, लेकिन मुझे पता चला कि आप छोड़ कर जा चुकी हैं. मैंने पता करने की कोशिश भी की थी मगर किसी को आपके बारें में कुछ भी पता नही था."

"हां...फिर मैं कभी वापस वहां गयी भी नही थी." तभी अवंतिका चाय लेकर आ गई.

"अंजनी तुम इन्हें कैसे जानती हो?" अवंतिका ने पूछा.

"अरे यह नंदिनी हैं, मैंने तुम्हे बताया तो था मेरे अनाथालय में सबसे होनहार लड़की थी यह...और देखो आज पुलिस इंस्पेक्टर बन कर आई हैं." यह सुनकर विजय थोडा सा मुस्कुरा दिया.

"पोलिस इंस्पेक्टर नही माँ, एसीपी!" नंदिनी ने हँसते हुए कहा.

"जो भी हो, तूने मेरे सपने को साकार कर दिया बेटा." अंजनी ने कुछ भावुक होते हुए कहा.

"यह सब आपकी ही दुआओं का असर हैं."

तभी विजय का फोन बजा.

"हेल्लो...हां कहो."

"क्या...कहाँ पर?"

"ठीक हैं...हम अभी पहुँचते है."

"क्या हुआ?" विजय के फोन रखते ही नंदिनी ने पूछा.

"दिनेश के बारें में कुछ पता चला हैं. एक खबरी ने उसे एमआई रोड के आस पास उसे कहीं देखा हैं."

"ओह...लेकिन...." नंदिनी ने अंजनी माँ की और देखते हुए कहा. विजय नन्दिनी की स्थिति समझ गया.

"कोई बात नही तुम इनसे बात करो, मैं उसे देखता हूँ." विजय चलने के लिए उठ खड़ा हुआ.

"ओके..थैंक्स.." नन्दीनी ने कहा. विजय इसके बाद निकल गया.

"बेटा तुम ताश्री के बारें में कुछ कह रही थी." अवन्तिका ने कहा.

"हां मैं ताश्री के मर्डर केस की फिर से जांच कर रही हूँ." नंदिनी ने पास ही पड़ी ताश्री की एक तस्वीर उठा ली और उसे निहारने लगी. लंबे बाल तीखे नैन नक्श वाली, पतली सी लड़की थी, कोई भी एक बार देखे तो पलक झपकाना भूल जाए. ननंदिनी उसको कुछ देर देखती रही .

"उस लड़के के बारें में कुछ पता चला क्या?" अवंतिका ने कहा तो नंदिनी की तन्द्रा टूटी.

"अभी तो नही लेकिन जल्द ही चल जाएगा, मगर उसके लिए आपको पहले सब सच बताना होगा." नंदिनी ने अवंतिका की आँखों में झांकते हुए कहा.

"सच...मगर कैसा सच?" अंजनी और अवंतिका दोनों चौक गये.

"संगठन के बारें में..."

"मैं पहले ही पुलिस को बता चुकी हूँ. संग़ठन जैसा कुछ नही ताश्री ने अपनी डायरी में कोई काल्पनिक कहानी लिखी थी."

"मैं मृत्युंजय से मिली हूँ, अवंतिका जी. उसी काल्पनिक संगठन ने मेरा अपहरण करने की कोशिश की थी. मैं राणा साहब से भी मिली हूँ. मैं इस केस से जुड़े हर शख्स से मिली हूँ. मगर ऐसा लगता हैं हर शख्श कुछ न कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा हैं. कम से कम आप तो सच बोलिये. मैं बस आपकी बेटी को न्याय दिलवाना चाहती हूँ. " नंदिनी थोड़ी सी रुआंसी हो गयी थी. उसे समझ में नही आ रहा था कि क्यों हर व्यक्ति उसे बेवकूफ बनाने पर तुला था.

अवंतिका कुछ देर नंदिनी को देखती रही और फिर उसने अंजनी की और देखा. अंजनी ने अपनी पलके झपका कर मौन सहमति दी.

"नंदिनी बेटा तुम नही जानती तुम किनके खिलाफ लड़ रही हो, वो बहुत ही खतरनाक लोग हैं." अवंतिका ने कुछ पल बाद कहा.

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Jemsbond
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Re: रहस्यमई आँखें

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"मैं एक पोलिस अफसर हूँ, मुझे इससे कोई फर्क नही पड़ता कि मैं किसके खिलाफ लड़ रही हूँ, या वो कितने शक्तिशाली हैं, मेरे लिए बस यह मायने रखता की हर व्यक्ति को इन्साफ मिलना चाहिए. फिर इसके लिए मुझे किसी से भी लड़ना पड़े."

अवंतिका अब भी कुछ सोच रही थी. जैसे किसी अंतर्द्वंद में उलझी हुई हो.

"अवनि तुम नंदिनी को बता सकती हो, यह मेरी सबसे प्यारी बची हैं. यह तुम्हारी मदद कर सकती हैं." अंजनी ने अवंतिका को रास्ता दिखाते हुए कहा.

"यह किसी चक्रव्यूह की तरह हैं नंदिनी, तुम इसमें प्रवेश तो कर सकती हो मगर बाहर नही आ सकती हो. तुम जितना इसके अंदर जाओगी तुम्हारी लिए खतरा इतना ही बढ़ता जाएगा." अचानक अवंतिका के चेहरे पर एक गंभीरता आ गयी.

"आप मेरी परवाह मत कीजिए. मुझे सिर्फ सच जानना हैं."

"हम्म...वह सबकुछ सच था." अवंतिका ने एक निःश्वास छोड़ते हुए कहा. "ताश्री की डायरी में जो लिखा था, वो सबकुछ वास्तव में हुआ था, मैं संगठन की सातवी प्रमुख और पहली महिला प्रमुख गुरु माँ हूँ. तुम क्या जानना चाहती हो." अवंतिका ने सीधा होते हुए कहा.

"उससे आगे जहाँ से ताश्री की डायरी ख़त्म होती हैं, यह 'सूत्र साधना' क्या हैं?"
-----------------------------------------------------------------
"मुझे अपनी नहीं उन मासूमो की ज़िन्दगी की परवाह हैं."

"मतलब." माँ और राणा दोनों चोंक गए.

"मृत्यंजय फिर से सूत्र साधना कर रहा हैं." अंतस ने जवाब दिया.

मैं अब तक उनके पास आ चुकी थी.

"यह सूत्र साधना क्या हैं माँ?" मैंने माँ से पूछा.

मेरा जन्म यहाँ जयपुर में ही हुआ था, हम दो बहने और एक भाई थे.अंजनी सबसे बड़ी थी, मैं दो साल छोटी थी और आर्यन सबसे छोटा था. हमारे पिता श्री मणिप्रकाश जी यहाँ के जाने माने पंडित थे और संगठन की जयपुर शाखा के प्रमुख थे.* उन्होंने बचपन से हम तीनो भाई बहनो को वैदिक शिक्षा दी थी. मेरे दोनों भाई बहनो को तो इसमें कोई विशेष रूचि नहीं थी लेकिन मुझे बचपन से ही आध्यात्म में दिलचस्पी थी. मेरे पिता भी मुझसे विशेष स्नेह रखते थे.

बात तक की हैं जब मैं तेरह साल की थी. संगठन के प्रमुख नित्यानंद जी महाराज हमारे शहर में आये थे. मेरे पिता बहुत ही खुश थे क्योंकि नित्यानंद जी से व्यक्तिगत रूप से* मिलने का सौभाग्य बहुत ही कम व्यक्तियो को प्राप्त होता हैं. पिताजी ने काफी समय पहले ही उनके स्वागत की तैयारी शुरू कर दी थी.* वे रात-रात भर शाखा में ही रुकते थे और वहां सभी लोगो को प्रशिक्षित करते थे कि नित्यानंद जी के सामने कैसे व्यवहार करना हैं.

नियत तिथि को नित्यानंद महाराज शहर में पधारे. पहले वो संगठन की शाखा में गए. वहां भाषण देने के बाद उन्होंने सारी व्यवस्था देखी और फिर कुछ समय के लिए मेरे पिता के साथ चर्चा की. वो मेरे पिता के विचारो से काफी प्रभावित हुए थे.

"हमें* रात को वापस जोधपुर के लिए निकलना हैं, अगर आपको* आपत्ति न हो तो* तब तक हम आपके घर पर विश्राम कर लेंगे." नित्यानंद जी ने मेरे पिता जी से कहा. पिताजी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. स्वयं नित्यानन्द जी उनके घर पधारे इससे बड़ी सौभाग्य की बात उनके लिए कुछ और हो ही नहीं सकती हैं. उन्होंने तुरंत घर पर सन्देश भिजवाकर माँ को भोजन और सारी तैयारी करने के लिए कहा.

कुछ समय बाद नित्यानंद जी अपने कुछ शिष्यो के साथ हमारे घर पधारे. वह कोई चालीस साल के प्रौढ़ व्यक्ति थे, किन्तु उनके चहेरे पर एक विचित्र* शांति और तेज था. उन्होंने सबसे पहले स्नान किया, फिर कुछ समय के लिए अपने शिष्यो के साथ ध्यान किया और फिर सब लोगो ने एक साथ भोजन ग्रहण किया. भोजन करते समय उन्होंने मेरे पिता को अपने साथ ही बिठाया था. भोजन के पश्चात् वो मेरे पिता के साथ बैठ कर किसी आध्यात्मिक मसले पर चर्चा करने लगे.

मेरे दोनों भाई-बहन तो बाहर खेलने के लिए गए थे, मगर मुझे माँ ने अधिक काम होने की वजह से घर में ही रोक लिया था. मैं किचन में ही छिप कर बैठी थी. मुझे इतना मालुम था कि कोई बड़ा व्यक्ति आया हैं इसलिए में उनके सामने जाने से कतरा रही थी. तभी माँ किचन में आयी.

"ले यह पानी नित्यानंद जी को देकर आ."

"कौन मैं?" मैंने चोंकते हुए कहा.

"तो क्या मैं? तू भी जाकर महाराज के चरण स्पर्श तो कर ले."

"नही माँ, मैं यहीं ठीक हूँ. आप ही दे आओ."

"ज्यादा चु-चपड़ मत कर, इतने बड़े व्यक्ति घर पर आये हैं, और तू यहाँ रसोई में छीप कर बैठी हैं, जा और यह पानी देकर आ...और हां चरण स्पर्श करके आशीर्वाद मांगना..."* माँ ने मुझे पट्टी पढ़ाते हुए कहा. मेरे पास माँ की बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नही था. मैं चुपचाप ट्रे लेकर बाहर आ गई.

महराज सामने एक कुर्सी* पर बैठे थे, मेरे पिता और उनके बाकि सारे शिष्य निचे चटाई पर बैठे थे.

"...तो फिर* मनुष्य का अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए?" मेरे पिता ने सवाल पूछा.

"!!ॐ शांति ॐ!! मनुष्य का अंतिम लक्ष्य शान्ति होना चाहिए. हमें आध्यात्म के उस स्तर तक पहुंचना हैं जहाँ हम अपने मन को नियंत्रित कर अपनी इन्द्रियों पर काबू कर सके...."

"परंतु ऋग्वेद में तो मनुष्य का अंतिम लक्ष्य आनंद बताया गया हैं, शान्ति उस लक्ष्य तक पहुँचने का एक माध्यम मात्र हैं, सहस्त्रार चक्र की जाग्रति भी आनंद प्राप्ति होती हैं. आपका नाम भी तो नित्यानंद ही हैं." अचानक मेरे मुंह से निकल गया. सभी लोग मेरा चेहरा ताकने लगे. किसी ने भी एक तेरह साल की लड़की से इतने सटीक तर्क की अपेक्षा नही की थी.

"अवनि! अंदर जाओ." मेरे पिता ने मुझे गुस्से से झिड़कते हुए कहा.

"नही मणि, इन्हें यही रहने दो. आपका नाम क्या हैं पुत्री?" नित्यानंद जी ने मुझसे पूछा. मुझे समझ में आ चूका था कि मैंने अपना ज्ञान दर्शा कर कोई बड़ी भूल कर दी हैं. फिर भी मैंने तटस्थ रहना ही ठीक समझा.

"अवंतिका." मैंने धीरे से कहा.

"अवंतिका. हम क्षणिक की बजाय शाश्वत को प्राथमिकता देते हैं, आनंद क्षणिक होता हैं, शांति शाश्वत हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे जीवन क्षणिक हैं, परंतु मृत्यु शाश्वत हैं, इसलिए हम मृत्युत्व या मोक्ष की प्रति ध्यान देते हैं." नित्यानंद जी आध्यात्म के थोड़े और ऊँचे स्तर पर गए, उन्हें उम्मीद थी कि शायद मैं वहाँ तक नही पहुँच पाउंगी.

"किन्तु...मृत्यु से अधिक तो जीवन शाश्वत है, मृत्यु का आधार ही तो जीवन ही हैं, और अगर जीवन न हो तो मृत्यु का अस्तित्व ही कहाँ है?" नित्यानंद कुछ सोचने लगे. मेरे पिता और बाकि तमाम लोग मुझे घूरे जा रहे थे. कुछ लोगो के चहेरे पर प्रसंशा के भाव थे. मेरे पिता पसीना पसीना हो रहे थे.

"अवंतिका यहाँ आओ." नित्यानंद जी ने कहा. मैं उनके पास चली गयी.

"क्या ईश्वर का अस्तित्व हैं?" उन्होंने मेरा एक हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा. जैसे वास्तव में वो मुझसे कोई गूढ़ प्रश्न पूछ रहे हैं.

"हां बिलकुल हैं...वो मेरे सामने बैठे है." मैंने अपने पिता की तरफ इशारा करते हुए कहा.

"तुम कहना चाहती हो कि तुम्हारे पिता ईश्वर हैं?" उन्होंने मेरी हथेली को से देखते हुए कहा.

"जो हमारा पालन पोषण करे वही तो ईश्वर हैं, अगर ईश्वर हमारे पिता हैं तो हमारे पिता ईश्वर क्यों नही हो सकते हैं?" वो मेरी हथेली को ध्यान से देखते हुए अचानक रुक गए.

"ग्याहरवां सूत्र!" अचानक उनके मुंह से निकला.

"मणि क्या तुम्हारे पास तुम्हारी पुत्री की कुंडली हैं?" उन्होंने मेरे पिता से कहा.

"जी गुरुदेव."

"लेकर आओ." मेरे पिता दौड़ कर अंदर गए.

"तुमने सही कहा पुत्री! हम जिसका अपने ईश के रूप में वरण करे वही ईश्वर हैं. अगर तुम अपने पिता को ईश्वर मानती हो तो वह सही. "

कुछ देर बाद मेरे पिता अंदर से मेरी कुंडली लेकर आये. नित्यानद जी बड़े घोर से वो कुंडली देखने लगे. किसी को कुछ समझ में नही आ रहा था कि नित्यानंद आखिर कर क्या रहे हैं?

"मणि हम तुमसे कुछ माँगना चाहते हैं?" कुछ देर बाद* नित्यानंद ने ऊपर देखते हुए कहा.

"आज्ञा करे गुरुदेव..." मेरे पिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

"हमें आपकी पुत्री चाहिए." अचानक नित्यानंद ने कहा तो सब लोग चौक गए. सब दबे स्वर में कुछ बात करने लगे.

"क्या...किन्तु..." मेरे पिता के कुछ समझ में नही आया.

"हम चाहते हैं कि अवंतिका की आगे की दीक्षा हमारे सानिध्य में हमारे हरिद्वार आश्रम में हो."

"किन्तु महाराज यह तो अभी बच्ची हैं, इसे इतनी दूर कैसे भेज सकते हैं?" मेरे पिता असमंजस में थे.

"यह बच्ची ही हमारे संगठन का भविष्य हैं. तुम अपनी पत्नी से चर्चा कर लो. हम आज शाम को ही इसे अपने संग लेकर जाएंगे."

मेरे पिता अब पुरे पसीने से लथपथ थे. वो अंदर गए माँ से बात करने लगे. माँ इसके लिए बिलकुल तैयार नही थी. लेकिन वो भी नित्यानंद जी के प्रभाव को भलीभांति जानती थी*. पिता जी के बहुत समझाने के बाद माँ मान गयी.

मेरे माता पिता ने फटाफट मेरा सामान पैक किया. मैंने अपने भाई बहनो से विदा ली और शाम को मैं नित्यानंद जी के साथ ही निकल गयी.

सुबह तक हम हरिद्वार पहुंचे. शहर के बाहर ही संगठन का आश्रम था. यह केवल कहने को आश्रम था वरना सारी सुविधाओं से परिपूर्ण कोई महल था. बाहर गेट पर दो द्वारपाल खड़े थे, जहाँ से अंदर घुसते ही एक बड़ा सा गार्डन था, जहाँ पर योग करवाया जाता था. वहां से सामने एक बड़ी सी बहुमंजिला इमारत थी जिसमें कम से कम 200 कमरे गोलाकार रूप में बने थे, इन कमरो के बीचों* बीच में एक खुला बरामदा था. यहाँ पर बहुत सारे साधू, योगी और बच्चे थे जिन्हें चुन चुन कर आध्यात्म की दीक्षा के लिए लाया गया था.

मुझे थोडा डर लग रहा था क्योंकि मैं पहली बार अपने घर से इतना दूर आई थी मगर नित्यानंद जी बार-बार मुझे हौंसला दे रहे थे. पुरे रास्ते वो मुझे बताते रहे थे* कि सगंठन की शाखा में कैसे रहना हैं, कैसे व्यवहार करना हैं, कब क्या काम करना हैं, किससे कैसे बात करनी हैं वगैरह वगैरह।

वहां पहुँचने पर मुझे एक कमरा दिया गया. यह कोई ख़ास तो नही था, एक बिस्तर था जो जमीन पर ही पड़ा था जिसकी चादर साफ़ थी जिससे लगता था कि आज ही लगाया गया हैं.* एक पानी का मटका था , और एक पंखा था. सामने एक खाली* अलमारी थी जिसमें मैंने अपना सामान रख दिया. खिड़की से ठंडी ठंडी हवा आ रही थी.*और यहाँ रौशनी भी पर्याप्त थी। तभी एक लड़की आई, वो कोई मेरी उम्र की ही थी. दिखने में थोड़ी से साँवली थी मगर हँसमुख लग रही थी.

"तुम अवन्तिका हो." उसने मुझे घूरते हुए कहा. उसका दबाव अवंतिका पर कम और तुम पर ज्यादा था, जैसे वो अवंतिका को तो पहले से ही जानती थी. "मेरा नाम देवप्रभा हैं. मुझे गुरूजी ने भेजा हैं, कहा हैं अगर तुम्हे कोई जरुरत हो तो देख लूँ." वो अब भी मुझे निहारे जा रही थी.

"धन्यवाद, पर अभी मुझे कुछ भी जरूरत नही हैं." मैंने वापस उसे घूरते हुए देखा. जैसे पूछ रही हूँ क्या हुआ, मुझे घूर क्यों रही हो?
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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