हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सोफ़िया उठी, और मन में कोई स्थान निश्चित किए बिना ही अहाते से बाहर निकल आई। उस घर की वायु उसे दूषित मालूम होती थी। वह आगे बढ़ती जाती थी; पर दिल में लगातार प्रश्न हो रहा था, कहाँ जाऊँ? जब वह घनी आबादी में पहुँची, तो शोहदों ने उस पर इधार-उधार से आवाजें कसनी शुरू कीं। किंतु वह शर्म से सिर नीचा करने के बदले उन आवाजों और कुवासनामयी दृष्टियों का जवाब घृणायुक्त नेत्रों से देती चली जाती थी, जैसे कोई सवेग जल-धारा पत्थरों को ठुकराती हुई आगे बढ़ती चली जाए। यहाँ तक कि वह उस खुली हुई सड़क पर आ गई, जो दशाश्वमेधा घाट की ओर जाती है।

उसके जी में आया, जरा दरिया की सैर करती चलूँ। कदाचित् किसी सज्जन से भेंट हो जाए। जब तक दो-चार आदमियों से परिचय न हो, और वे मेरा हाल न जानें, मुझसे कौन सहानुभूति प्रकट करेगा? कौन मेरे हृदय की बात जानता है? ऐसे सदय प्राणी सौभाग्य ही से मिलते हैं। जब अपने माता-पिता अपने शत्रु हो रहे हैं, तो दूसरों से भलाई की क्या आशा?

वह इसी नैराश्य की दशा में चली जा रही थी कि सहसा उसे एक विशाल प्रासाद देख पड़ा, जिसके सामने बहुत चौड़ा हरा मैदान था। अंदर जाने के लिए एक ऊँचा फाटक था, जिसके ऊपर एक सुनहरा गुम्बद बना था। इस गुम्बद में नौबत बज रही थी, फाटक से भवन तक सुर्खी की एक रविश थी, जिसके दोनों ओर बेलें और गुलाब की क्यारियाँ थीं। हरी-हरी घास पर बैठे कितने ही नर-नारी माघ की शीतल वायु का आनंद ले रहे थे। कोई लेटा हुआ था, कोई तकिएदार चौकियों पर बैठा सिगार पी रहा था।

सोफ़िया ने शहर में ऐसा रमणीक स्थान न देखा था। उसे आश्चर्य हुआ कि शहर के मध्यश भाग में भी ऐसे मनोरम स्थान मौजूद हैं। वह एक चौकी पर बैठ गई और सोचने लगी-अब लोग चर्च से आ गए होंगे। मुझे घर में न देखकर चौंकेंगे तो जरूर; पर समझेंगे, कहीं घूमने गई होगी। अगर रात-भर यहीं बैठी रहूँ, तो भी वहाँ किसी को चिंता न होगी, आराम से खा-पीकर सोएँगे। हाँ, दादा को अवश्य दु:ख होगा, वह भी केवल इसीलिए कि उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनानेवाला कोई नहीं। मामा तो दिल में खुश होंगी की अच्छा हुआ, ऑंखों से दूर हो गई। मेरा किसी से परिचय नहीं। इसी से कहा, सबसे मिलते रहना चाहिए, न जाने कब किससे काम पड़ जाए। मुझे बरसों रहते हो गए और किसी से राह-रस्म न पैदा की। मेरे साथ नैनीताल में यहाँ के किसी रईस की लड़की पढ़ती थी, भला-सा नाम था। हाँ, इंदु। कितना कोमल स्वभाव था! बात-बात से प्रेम टपका पड़ता था। हम दोनों गले में बाँहें डाले टहलती थीं। वहाँ कोई बालिका इतनी सुंदर और ऐसी सुशील न थी। मेरे और उसके विचारों में कितना सादृश्य था! कहीं उसका पता मिल जाता, तो दस-पाँच दिन उसी के यहाँ मेहमान हो जाती। उसके पिता का अच्छा-सा नाम था। हाँ, कुँवर भरतसिंह। पहले यह बात धयान में न आई, नहीं तो एक कार्ड लिखकर डाल देती। मुझे भूल तो क्या गई होगी, इतनी निष्ठुर तो न मालूम होती थी। कम-से-कम मानव-चरित्र का तो अनुभव हो जाएगा।

मजबूरी में हमें उन लोगों की याद आती है, जिनकी सूरत भी विस्मृत हो चुकी होती है। विदेश में हमें अपने मुहल्ले का नाई या कहार भी मिल जाए, तो हम उसके गले मिल जाते हैं, चाहे देश में उससे कभी सीधो मुँह बात भी न की हो।

सोफ़िया सोच रही थी कि किसी से कुँवर भरतसिंह का पता पूछूँ, इतने में भवन में सामनेवाले पक्के चबूतरे पर फर्श बिछ गया। कई आदमी सितार, बेला, मृदंग ले, आ बैठे, और इन साजों के साथ स्वर मिलाकर कई नवयुवक एक स्वर से गाने लगे :

‘शांति-समर में कभी भूलकर धैर्य नहीं खोना होगा;

वज्र-प्रहार भले सिर पर हो, नहीं किंतु रोना होगा।

अरि से बदला लेने का मन-बीज नहीं बोना होगा;

घर में कान तूल देकर फिर तुझे नहीं सोना होगा।

देश-दाग़ को रुधिार वारि से हर्षित हो धोना होगा;

देश-कार्य की सारी गठरी सिर पर रख ढोना होगा।

ऑंखें लाल, भवें टेढ़ी कर, क्रोध नहीं करना होगा;

बलि-वेदी पर तुझे हर्ष से चढ़कर कट मरना होगा।

नश्वर है नर-देह, मौत से कभी नहीं डरना होगा;

सत्य-मार्ग को छोड़ स्वार्थ-पथ पैर नहीं धारना होगा।

होगी निश्चय जीत धर्म की यही भाव भरना होगा;

मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ’ मरना होगा।’

संगीत में न लालित्य था, न माधुर्य; पर वह शक्ति, वह जागृति भरी हुई थी, जो सामूहिक संगीत का गुण है, आत्मसमर्पण और उत्कर्ष का पवित्र संदेश विराट आकाश में, नील गगन में और सोफ़िया के अशांत हृदय में गूँजने लगा। वह अब तक धार्मिक विवेचन ही में रत रहती थी। राष्ट्रीय संदेश सुनने का अवसर उसे कभी न मिला था। उसके रोम-रोम से वही धवनि, दीपक-से ज्योति के समान निकलने लगी-

‘मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ’ मरना होगा।’

उसके मन में एक तरंग उठी कि मैं भी जाकर गानेवालों के साथ गाने लगती। भाँति-भाँति के उद्गार उठने लगे-मैं किसी दूसरे देश में जाकर भारत कार् आत्तानाद सुनाती। यहीं खड़ी होकर कह दूँ, मैं अपने को भारत-सेवा के लिए समर्पित करती हूँ। अपने जीवन के उद्देश्य पर एक व्याख्यान देती-हम भाग्य के दु:खड़े रोने के लिए, अपनी अवनत दशा पर आँसू बहाने के लिए नहीं बनाए गए हैं।

समा बँधा हुआ था, सोफ़िया के हृदय की ऑंखों के सामने इन्हीं भावों के चित्र नृत्य करते हुए मालूम होते थे।

अभी संगीत की धवनि गूँज ही रही थी कि अकस्मात् उसी अहाते के अंदर एक खपरैल के मकान में आग लग गई। जब तक लोग उधार दौड़े, अग्नि की ज्वाला प्रचंड हो गई। सारा मैदान जगमगा उठा। वृक्ष और पौधो प्रदीप्त प्रकाश के सागर में नहा उठे। गानेवालों ने तुरंत अपने-अपने साज वहीं छोड़े धोतियाँ ऊपर उठाईं, आस्तीनें चढ़ाईं और आग बुझाने दौड़े। भवन से और भी कितने ही युवक निकल पड़े। कोई कुएँ से पानी लाने दौड़ा, कोई आग के मुँह में घुसकर अंदर की चीजें निकाल-निकालकर बाहर फेंकने लगा। लेकिन कहीं वह उतावलापन, वह घबराहट, वह भगदड़, वह कुहराम, वह ‘दौड़ो-दौड़ो’ का शोर, वह स्वयं कुछ न करके दूसरों को हुक्म देने का गुल न था, जो ऐसी दैवी आपदाओं के समय साधारणत: हुआ करता है। सभी आदमी ऐसे सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे कि एक बूँद पानी भी व्यर्थ न गिरने पाता था, और अग्नि का वेग प्रतिक्षण घटता जाता था। लोग इतनी निर्भयता से आग में कूदते थे, मानो वह जलकुंडहै।

अभी अग्नि का वेग पूर्णत: शांत न हुआ था कि दूसरी तरफ से आवाज आई-‘दौड़ो-दौड़ो, आदमी डूब रहा है।’ भवन के दूसरी ओर एक पक्की बावली थी, जिसके किनारे झाड़ियाँ लगी हुई थीं, तट पर एक छोटी-सी नौका खूँटी से बँधी हुई पड़ी थी। आवाज सुनते ही आग बुझानेवाले दल से कई आदमी निकलकर बावली की तरफ लपके, और डूबनेवाले को बचाने के लिए पानी में कूद पड़े। उनके कूदने की आवाज ‘धाम! धाम!’ सोफ़िया के कानों में आई। ईश्वर का यह कैसा प्रकोप कि एक ही साथ दोनों प्रधान तत्तवों में विप्लव! और एक ही स्थान पर! वह उठकर बावली की ओर जाना ही चाहती थी कि अचानक उसने एक आदमी को पानी का डोल लिए फिसलकर जमीन पर गिरते देखा। चारों ओर अग्नि शांत हो गई थी; पर जहाँ वह आदमी गिरा था, वहाँ अब तक अग्नि बड़े वेग से धाधाक रही थी। अग्नि-ज्वाला विकराल मुँह खोले उस अभागे मनुष्य की तरफ लपकी। आग की लपटें उसे निगल जातीं; पर सोफ़िया विद्युत-गति से ज्वाला की तरफ दौड़ी और उस आदमी को खींचकर बाहर निकाल लाई। यह सब कुछ क्षण-मात्रा में हो गया। अभागे की जान बच गई; लेकिन सोफ़िया का कोमल गात आग की लपट से झुलस गया। वह ज्वालाओं के घेरे से बाहर आते ही अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी।

सोफ़िया ने तीन दिन तक ऑंखें न खोलीं। मन न जाने किन लोकों में भ्रमण किया करता था। कभी अद्भुत, कभी भयावह दृश्य दिखाई देते। कभी ईसा की सौम्य मूर्ति ऑंखों के सामने आ जाती, कभी किसी विदुषी महिला के चंद्रमुख के दर्शन होते, जिन्हें यह सेंट मेरी समझती।

चौथे दिन प्रात:काल उसने ऑंखें खोलीं, तो अपने को एक सजे हुए कमरे में पाया। गुलाब और चंदन की सुगंधा आ रही थी। उसके सामने कुरसी पर वही महिला बैठी हुई थी, जिन्हें उसने सुषुप्तावस्था में सेंट मेरी समझा था, और सिरहाने की ओर एक वृध्द पुरुष बैठे थे, जिनकी ऑंखों से दया टपकी पड़ती थी। इन्हीं को कदाचित् उसने, अर्ध्द चेतना की दशा में, ईसा समझा था। स्वप्न की रचना स्मृतियों की पुनरावृत्ति-मात्रा होती है।

सोफ़िया ने क्षीण स्वर में पूछा-मैं कहाँ हूँ? मामा कहाँ हैं?

वृध्द पुरुष ने कहा-तुम कुँवर भरतसिंह के घर में हो। तुम्हारे सामने रानी साहबा बैठी हुई हैं, तुम्हारा जी अब कैसा है?

सोफ़िया-अच्छी हूँ, प्यास लगी है। मामा कहाँ हैं, पापा कहाँ हैं, आप कौन हैं?

रानी-यह डॉक्टर गांगुली हैं, तीन दिन से तुम्हारी दवा कर रहे हैं। तुम्हारे पापा-मामा कौन हैं?

सोफ़िया-पापा का नाम मि. जॉन सेवक है। हमारा बँगला सिगरा में है।

डॉक्टर-अच्छा, तुम मि. जॉन सेवक की बेटी हो? हम उसे जानता है; अभी बुलाता है।

रानी-किसी को अभी भेज दूँ?

सोफ़िया-कोई जल्दी नहीं है, आ जाएँगे। मैंने जिस आदमी को पकड़कर खींचा था, उसकी क्या दशा हुई?

रानी-बेटी, वह ईश्वर की कृपा से बहुत अच्छी तरह है। उसे जरा भी ऑंच नहीं लगी। वह मेरा बेटा विनय है। अभी आता होगा। तुम्हीं ने तो उसके प्राण बचाए। अगर तुम दौड़कर न पहुँच जातीं, तो आज न जाने क्या होता। मैं तुम्हारे ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकती। तुम मेरे कुल की रक्षा करनेवाली देवी हो।

सोफ़िया-जिस घर में आग लगी थी, उसके आदमी सब बच गए?

रानी-बेटी, यह तो केवल अभिनय था, विनय ने यहाँ एक सेवा-समिति बना रखी है! जब शहर में कोई मेला होता है, या कहीं से किसी दुर्घटना का समाचार आता है, तो समिति वहाँ पहुँचकर सेवा-सहायता करती है। उस दिन समिति की परीक्षा के लिए कुँवर साहब ने वह अभिनय किया था।

डॉक्टर-कुँवर साहब देवता है, कितने गरीब लागों की रक्षा करता है। यह समिति, अभी थोड़े दिन हुए, बंगाल गई थी। यहाँ सूर्य-ग्रहण का स्नान होनेवाला है। लाखों यात्राी दूर-दूर से आएँगे। उसके लिए यह सब तैयारी हो रही है।

इतने में एक युवती रमणी आकर खड़ी हो गई। उसके मुख से उज्ज्वल दीपक के समान प्रकाश की रश्मियाँ छिटक रही थीं। गले में मोतियों के हार के सिवा उसके शरीर पर कोई आभूषण न था। उषा की शुभ्र छटा मूर्तिमान् हो गई थी।

सोफ़िया ने उसे एक क्षण-भर देखा, तब बोली-इंदु, तुम यहाँ कहाँ? आज कितने दिनों के बाद तुम्हें देखा है?

इंदु चौंक पड़ी। तीन दिन से बराबर सोफ़िया को देख रही थी, खयाल आता था कि इसे कहीं देखा है; पर कहाँ देखा है, यह याद न आती थी। उसकी बातें सुनते ही स्मृति जागृत हो गई, ऑंखें चमक उठीं, गुलाब खिल गया। बोली-ओहो! सोफी, तुम हो?

दोनों सखियाँ गले मिल गईं। यह वही इंदु थी, जो सोफ़िया के साथ नैनीताल में पढ़ती थी। सोफ़िया को आशा न थी कि इंदु इतने प्रेम से मिलेगी। इंदु कभी पिछली बातें याद करके रोती, कभी हँसती, कभी गले मिल जाती। अपनी माँ से उसका गुणानुवाद करने लगी। माँ उसका प्रेम देखकर फूली न समाती। अंत में सोफ़िया ने झेंपे हुए कहा-इंदु, ईश्वर के लिए अब मेरी और ज्यादा तारीफ न करो, नहीं तो मैं तुमसे न बोलूँगी। इतने दिनों तक कभी एक खत भी न लिखा, मुँह-देखे का प्रेम करती हो।

रानी-नहीं बेटी सोफी, इंदु मुझसे कई बार तुम्हारी चर्चा कर चुकी है। यहाँ किसी से हँसकर बोलती तक नहीं। तुम्हारे सिवा मैंने इसे किसी की तारीफ़ करते नहीं सुना।

इंदु-बहन, तुम्हारी शिकायत वाजिब है, पर करूँ क्या, मुझे खत नहीं लिखना आता। एक तो बड़ी भूल यह हुई कि तुम्हारा पता नहीं पूछा, और अगर पता मालूम भी होता, तो भी मैं खत न लिख सकती। मुझे डर लगता है कि कहीं तुम हँसने न लगो। मेरा पत्र कभी समाप्त ही न होता, और न जाने क्या-क्या लिख जाती।

कुँवर साहब को मालूम हुआ कि सोफ़िया बातें कर रही है, तो वह भी उसे धन्यवाद देने के लिए आए। पूरे छ: फीट के मनुष्य थे, बड़ी-बड़ी ऑंखें, लम्बे बाल, लम्बी दाढ़ी, मोटे कपड़े का एक नीचा कुरता पहने हुए थे। सोफ़िया ने ऐसा तेजस्वी स्वरूप कभी न देखा था। उसने अपने मन में ऋषियों की जो कल्पना कर रखी थी, वह बिल्कुल ऐसी ही थी। ‘इस विशाल शरीर में बैठी हुई विशाल आत्मा को वह दोनों नेत्रों से ताक रही थी। सोफी ने सम्मान-भाव से उठना चाहा; पर कुँवर साहब मधुर , सरल स्वर में बोले-बेटी, लेटी रहो, तुम्हें उठने में कष्ट होगा। लो, मैं बैठ जाता हूँ, तुम्हारे पापा से मेरा परिचय है, पर क्या मालूम था कि तुम मि. सेवक की बेटी हो। मैंने उन्हें बुलाया है, लेकिन मैं कहे देता हूँ, मैं अभी तुम्हें न जाने दूँगा। यह कमरा अब तुम्हारा है, और यहाँ से चले जाने पर भी तुम्हें एक बार नित्य यहाँ आना पड़ेगा। (रानी से) जाह्नवी, यहाँ प्यानो मँगवाकर रख दो। आज मिस सोहराबजी को बुलवाकर सोफ़िया का एक तैल चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी ज्यादा कुशल है; पर मैं नहीं चाहता कि सोफ़िया को उनके सामने बैठना पड़े। वह चित्र हमें याद दिलाता रहेगा कि किसने महान् संकट के अवसर पर हमारी रक्षा की।

रानी-कुछ नाज भी दान करा दूँ?

यह कहकर रानी ने डॉक्टर गांगुली की ओर देखकर ऑंखें मटकाईं। कुँवर साहब तुरंत बोले-फिर वही ढकोसले! इस जमाने में जो दरिद्र है, उसे दरिद्र होना चाहिए, जो भूखों मरता है, उसे भूखों मरना चाहिए; जब घंटे-दो घंटे की मिहनत से खाने-भर को मिल सकता है, तो कोई सबब नहीं कि क्यों कोई आदमी भूखों मरे। दान ने हमारी जाति में जितने आलसी पैदा कर दिए हैं, उतने सब देशों ने मिलकर भी न पैदा किए होंगे। दान का इतना महत्व क्यों रखा गया, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रानी-ऋषियों ने भूल की कि तुमसे सलाह न ले ली।

कुँवर-हाँ, मैं होता, तो साफ कह देता-आप लोग यह आलस्य, कुकर्म और अनर्थ का बीज बो रहे हैं। दान आलस्य का मूल है और आलस्य सब पापों का मूल है। इसलिए दान ही सब पापों का मूल है, कम-से-कम पोषक तो अवश्य ही है। दान नहीं, अगर जी चाहता हो, तो मित्रों को एक भोज दे दो।

डॉक्टर गांगुली-सोफ़िया, तुम राजा साहब का बात सुनता है? तुम्हारा प्रभु मसीह तो दान को सबसे बढ़कर महत्व देता है, तुम कुँवर साहब से कुछ नहीं कहता?

सोफ़िया ने इंदु की ओर देखा, और मुस्कराकर ऑंखें नीची कर लीं, मानो कह रही थी कि मैं इनका आदर करती हूँ, नहीं तो जवाब देने में असमर्थ नहीं हूँ।

सोफ़िया मन ही मन इन प्राणियों के पारस्परिक प्रेम की तुलना अपने घरवालों से कर रही थी। आपस में कितनी मुहब्बत है। माँ-बाप दोनों इंदु पर प्राण देते हैं। एक मैं अभागिनी हूँ कि कोई मुँह भी नहीं देखना चाहता। चार दिन यहाँ पड़े हो गए, किसी ने खबर तक न ली। किसी ने खोज ही न की होगी। मामा ने तो समझा होगा, कहीं डूब मरी। मन में प्रसन्न हो रही होंगी कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। मैं ऐसे सहृदय प्राणियों में रहने योग्य नहीं हूँ। मेरी इनसे क्या बराबरी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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यद्यपि यहाँ किसी के व्यवहार में दया की झलक भी न थी, लेकिन सोफ़िया को उन्हें अपना इतना आदर-सत्कार करते देखकर अपनी दीनावस्था पर ग्लानि होती थी। इंदु से भी शिष्टाचार करने लगी। इंदु उसे प्रेम से ‘तुम’ कहती थी; पर वह उसे ‘आप’ कहकर सम्बोधिात करती थी।

कुँवर साहब कह गए थे, मैंने मि. सेवक को सूचना दे दी है, वह आते ही होंगे। सोफ़िया को अब यह भय होने लगा कि कहीं वह आ न रहे हों। आते-ही-आते मुझे अपने साथ चलने को कहेंगे। मेरे सिर फिर वही विपत्ति पड़ेगी। इंदु से अपनी विपत्ति कथा कहूँ, तो शायद उसे मुझसे कुछ सहानुभूति हो। वह नौकरानी यहाँ व्यर्थ ही बैठी हुई है। इंदु आई भी, तो उससे कैसे बातें करूँगी। पापा के आने के पहले एक बार इंदु से एकांत में मिलने का मौका मिल जाता, तो अच्छा होता। क्या करूँ, इंदु को बुला भेजूँ? न जाने क्या करने लगी। प्यानो बजाऊँ, तो शायद सुनकर आए।

उधार इंदु भी सोफ़िया से कितनी ही बातें करना चाहती थी। रानीजी के सामने उसे दिल की बातें करने का अवसर न मिला था। डर रही थी कि सोफिया के पिता उसे लेते गए, तो मैं फिर अकेली हो जाऊँगी। डॉक्टर गांगुली ने कहा था कि इन्हें ज्यादा बातें मत करने देना, आज और आराम से सो लें, तो फिर कोई चिंता न रहेगी। इसलिए वह आने का इरादा करके भी रह जाती थी। आखिर नौ बजते-बजते वह अधीर हो गई। आकर नौकरानी को अपना कमरा साफ करने के बहाने से हटा दिया और सोफ़िया के सिरहाने बैठकर बोली-क्यों बहन, बहुत कमजोरी तो नहीं मालूम होती?

सोफ़िया-बिल्कुल नहीं। मुझे तो मालूम होता है कि मैं चंगी हो गई।

इंदु-तुम्हारे पापा कहीं तुम्हें अपने साथ ले गए, तो मेरे प्राण निकल जाएँगे। तुम भी उनकी राह देख रही हो। उनके आते ही खुश होकर चली जाओगी, और शायद फिर कभी याद न करोगी।

यह कहते-कहते इंदु की ऑंखें सजल हो गईं। मनोभावों के अनुचित आवेश को हम बहुधा मुस्कराहट से छिपाते हैं। इंदु की ऑंखों में आँसू भरे हुए थे, पर वह मुस्करा रही थी।

सोफिया बोली-आप मुझे भूल सकती हैं, पर मैं आपको कैसे भूलूँगी?

वह अपने दिल का दर्द सुनाने ही जा रही थी कि संकोच ने आकर जबान बंद कर दी, बात फेरकर बोली-मैं कभी-कभी आपसे मिलने आया करूँगी।

इंदु-मैं तुम्हें यहाँ से अभी पंद्रह दिन तक न जाने दूँगी। धर्म बाधक न होता, तो कभी न जाने देती। अम्माँजी तुम्हें अपनी बहू बनाकर छोड़तीं। तुम्हारे ऊपर बेतरह रीझ गई हैं। जहाँ बैठती हैं, तुम्हारी ही चर्चा करती हैं। विनय भी तुम्हारे हाथों बिका हुआ-सा जान पड़ता है। तुम चली जाओगी, तो सबसे ज्यादा दु:ख उसी को होगा। एक बात भेद की तुमसे कहती हूँ। अम्माँजी तुम्हें कोई चीज तोहफा समझकर दें, तो इनकार मत करना, नहीं तो उन्हें बहुत दु:ख होगा।

इस प्रेममय आग्रह ने संकोच का लंगर उखाड़ दिया। जो अपने घर में नित्य कटु शब्द सुनने का आदी हो, उसके लिए उतनी मधुर सहानुभूति काफी से ज्यादा थी। अब सोफी को इंदु से अपने मनोभावों को गुप्त रखना मैत्री के नियमों के विरुध्द प्रतीत हुआ। करुण स्वर में बोली-इंदु, मेरा वश चलता तो कभी रानी के चरणों को न छोड़ती, पर अपना क्या काबू है? यह स्नेह और कहाँ मिलेगा?

इंदु यह भाव न समझ सकी। अपनी स्वाभाविक सरलता से बोली-कहीं विवाह की बातचीत हो रही है क्या?

उसकी समझ में विवाह के सिवा लड़कियों के इतना दु:खी होने का कोई कारण न था।

सोफिया-मैंने तो इरादा कर लिया है कि विवाह न करूँगी।

इंदु-क्यों?

सोफ़िया-इसलिए कि विवाह से मुझे अपनी धार्मिक स्वाधीनता त्याग देनी पड़ेगी। धर्म विचार-स्वतंत्रता का गला घोंट देता है। मैं अपनी आत्मा को किसी मत के हाथ नहीं बेचना चाहती। मुझे ऐसा ईसाई पुरुष मिलने की आशा नहीं, जिसका हृदय इतना उदार हो कि वह मेरी धार्मिक शंकाओं को दरगुजर कर सके। मैं परिस्थिति से विवश होकर ईसा को खुदा का बेटा और अपना मुक्तिदाता नहीं मान सकती, विवश होकर गिरजाघर में ईश्वर की प्रार्थना करने नहीं जाना चाहती। मैं ईसा को ईश्वर नहीं मान सकती।

इंदु-मैं तो समझती थी, तुम्हारे यहाँ हम लोगों के यहाँ से कहीं ज्यादा आजादी है; जहाँ चाहो, अकेली जा सकती हो। हमारा तो घर से निकलना मुश्किल है।

सोफ़िया-लेकिन इतनी धार्मिक संकीर्णता तो नहीं है?

इंदु-नहीं, कोई किसी को पूजा-पाठ के लिए मजबूर नहीं करता। बाबूजी नित्य गंगास्नान करते हैं, घंटों शिव की आराधाना करते हैं। अम्माँजी कभी भूलकर भी स्नान करने नहीं जातीं, न किसी देवता की पूजा करती हैं; पर बाबूजी कभी आग्रह नहीं करते। भक्ति तो अपने विश्वास और मनोवृत्ति पर ही निर्भर है। हम भाई-बहन के विचारों में आकाश-पताल का अंतर है। मैं कृष्ण की उपासिका हूँ, विनय ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करता; पर बाबूजी हम लोगों से कभी कुछ नहीं कहते, और न हम भाई-बहन में कभी इस विषय पर वाद-विवाद होता है।

सोफ़िया-हमारी स्वाधीनता लौकिक और इसलिए मिथ्या है। आपकी स्वाधीनता मानसिक और इसलिए सत्य है। असली स्वाधीनता वही है, जो विचार के प्रवाह में बाधक न हो।

इंदु-तुम गिरजे में कभी नहीं जातीं?

सोफ़िया-पहले दुराग्रह-वश जाती थी, अबकी नहीं गई। इस पर घर के लोग बहुत नाराज हुए। बुरी तरह तिरस्कार किया गया।

इंदु ने प्रेममयी सरलता से कहा-वे लोग नाराज हुए होंगे, तो तुम बहुत रोयी होगी। इन प्यारी ऑंखों से आँसू बहे होंगे। मुझसे किसी का रोना नहीं देखा जाता।

सोफिया-पहले रोया करती थी, अब परवा नहीं करती।

इंदु-मुझे तो कभी कोई कुछ कह देता है, तो हृदय पर तीर-सा लगता है। दिन-दिन भर रोती ही रह जाती हूँ। आँसू ही नहीं थमते। वह बात बार-बार हृदय में चुभा करती है। सच पूछो, तो मुझे किसी के क्रोध पर रोना नहीं आता, रोना आता है अपने ऊपर कि मैंने उन्हें क्यों नाराज किया, क्यों मुझसे ऐसी भूल हुई।

सोफ़िया को भ्रम हुआ कि इंदु मुझे अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना चाहती है, माथे पर शिकन पड़ गई। बोली-मेरी जगह पर आप होतीं, तो ऐसा न कहतीं। आखिर क्या आप अपने धार्मिक विचारों को छोड़ बैठतीं?

इंदु-यह तो नहीं कह सकती कि क्या करती; पर घरवालों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करती।

सोफ़िया-आपकी माताजी अगर आपको जबरदस्ती कृष्ण की उपासना करने से रोकें, तो आप मान जाएँगी?

इंदु-हाँ, मैं तो मान जाऊँगी। अम्माँ को नाराज न करूँगी। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उपासना की जरूरत नहीं। उपासना तो केवल अपने मन के संतोष के लिए है।

सोफ़िया-(आश्चर्य से) आपको जरा भी मानसिक पीड़ा न होगी?

इंदु-अवश्य होगी; पर उनकी खातिर मैं सह लूँगी।

सोफिया-अच्छा, अगर वह आपकी इच्छा के विरुध्द आपका विवाह करना चाहें तो?

इंदु-(लजाते हुए) वह समस्या तो हल हो चुकी। माँ-बाप ने जिससे उचित समझा, कर दिया। मैंने जबान तक नहीं खोली।

सोफ़िया-अरे, यह कब?

इंदु-इसे तो दो साल हो गए। (ऑंखें नीची करके) अगर मेरा अपना वश होता, तो उन्हें कभी न वरती, चाहे कुँवारी ही रहती। मेरे स्वामी मुझसे प्रेम करते हैं, धान की कोई कमी नहीं। पर मैं उनके हृदय के केवल चतुर्थांश की अधिाकारिणी हूँ, उसके तीन भाग सार्वजनिक कामों में भेंट होते हैं। एक के बदले चौथाई पाकर कौन संतुष्ट हो सकता है? मुझे तो बाजरे की पूरी बिस्कुट के चौथाई हिस्से से कहीं अच्छी मालूम होती है। क्षुधा तो तृप्त हो जाती है, जो भोजन का यथार्थ उद्देश्य है।

सोफिया-आपकी धार्मिक स्वाधीनता में तो बाधा नहीं डालते?

इंदु-नहीं। उन्हें इतना अवकाश कहाँ?

सोफ़िया-तब तो मैं आपको मुबारकबाद दूँगी।

इंदु-अगर किसी कैदी को बधाई देना उचित हो, तो शौक से दो।

सोफ़िया-बेड़ी प्रेम की हो तो?

इंदु-ऐसा होता, तो मैं तुमसे बधाई देने को आग्रह करती। मैं बँधा गई, वह मुक्त हैं। मुझे यहाँ आए तीन महीने होने आते हैं; पर तीन बार से ज्यादा नहीं आए; और वह भी एक-एक घंटे के लिए। इसी शहर में रहते हैं, दस मिनट में मोटर आ सकती है; पर इतनी फुर्सत किसे है। हाँ, पत्रों से अपनी मुलाकात का काम निकालना चाहते हैं, और वे पत्र भी क्या होते हैं, आदि से अंत तक अपने दु:खड़ों से भरे हुए। आज यह काम है, कल वह काम है; इनसे मिलने जाना है, उनका स्वागत करना है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गए, राज्य मिल गया। जब देखो, वही धुन सवार! और सब कामों के लिए फुर्सत है। अगर फुर्सत नहीं है, तो सिर्फ यहाँ आने की। मैं तुम्हें चिताए देती हूँ, किसी देश-सेवक से विवाह न करना, नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरंजन-सामग्री-मात्रा रहोगी।

सोफ़िया-मैं तो पहले ही अपना मन स्थिर कर चुकी; सबसे अलग-ही-अलग रहना चाहती हूँ, जहाँ मेरी स्वाधीनता में बाधा डालनेवाला कोई न हो। मैं सत्पथ पर रहूँगी, या कुपथ पर चलूँगी, यह जिम्मेवारी भी अपने ही सिर लेना चाहती हूँ। मैं बालिग हूँ और अपना नफा-नुकसान देख सकती हूँ। आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती; क्योंकि रक्षा का कार्य पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं।

इंदु-क्या तुम अपने मामा और पापा के अधीन नहीं रहना चाहतीं?

सोफ़िया-न, पराधीनता में प्रकार का नहीं, केवल मात्राओं का अंतर है।

इंदु-तो मेरे ही घर क्यों नहीं रहतीं? मैं इसे अपना सौभाग्य समझ्रूगी! और अम्माँजी तो तुम्हें ऑंखों की पुतली बनाकर रखेंगी। मैं चली जाती हूँ, तो वह अकेले घबराया करती हैं। तुम्हें पा जाएँ तो फिर गला न छोड़ें। कहो तो अम्माँ से कहूँ? यहाँ तुम्हारी स्वाधीनता में कोई दखल न देगा। बोलो, कहूँ जाकर अम्माँ से?

सोफ़िया-नहीं, अभी भूलकर भी नहीं। आपकी अम्माँजी को जब मालूम होगा कि इसके माँ-बाप इसकी बात नहीं पूछते, मैं उनकी ऑंखों से भी गिर जाऊँगी। जिसकी अपने घर में इज्जत नहीं, उसकी बाहर भी इज्जत नहीं होती।

इंदु-नहीं सोफी, अम्माँजी का स्वभाव बिल्कुल निराला है। जिस बात से तुम्हें अपने निरादर का भय है, वही बात अम्माँजी के आदर की वस्तु है। वह स्वयं अपनी माँ से किसी बात पर नाराज हो गई थीं, तब से मैके नहीं गईं। नानी मर गईं; पर अम्माँ ने उन्हें क्षमा नहीं किया। सैकड़ों बुलावे आए; पर उन्हें देखने तक न गईं। उन्हें ज्यों ही यह बात मालूम होगी, तुम्हारी दूनी इज्जत करने लगेंगी।

सोफी ने ऑंखों में आँसू भरकर कहा-बहन, मेरी लाज अब आप ही के हाथ में है।

इंदु ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर कहा-वह मुझे अपनी लाज से कम प्रिय नहीं है।

उधार मि. जॉन सेवक को कुँवर साहब का पत्र मिला, तो जाकर स्त्री से बोले-देखा, मैं कहता न था कि सोफी पर कोई संकट आ पड़ा। यह देखो, कुँवर भरतसिंह का पत्र है। तीन दिनों से उनके घर पड़ी हुई है। उनके एक झोंपड़े में आग लग गई थी, वह भी उसे बुझाने लगी। वहीं लपट में आ गई।

मिसेज़ सेवक-ये सब बहाने हैं। मुझे उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं रहा। जिसका दिल खुदा से फिर गया, उसे झूठ बोलने का क्या डर? यहाँ से बिगड़कर गई थी, समझा होगा, घर से निकलते ही फूलों की सेज बिछी हुई मिलेगी। जब कहीं शरण न मिली, तो यह पत्र लिखवा दिया। अब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। यह भी सम्भव है, खुदा ने उसके अविचार का यह दंड दिया हो।

मि. जॉन सेवक-चुप भी रहो, तुम्हारी निर्दयता पर मुझे आश्चर्य होता है। मैंने तुम-जैसी कठोर हृदया स्त्री नहीं देखी।

मिसेज़ सेवक-मैं तो नहीं जाती। तुम्हें जाना हो, तो जाओ।

जॉन सेवक-मुझे तो देख रही हो, मरने की फुरसत नहीं है। उसी पाँड़ेपुरवाली जमीन के विषय में बातचीत कर रहा हूँ। ऐसे मूँजी से पाला पड़ा है कि किसी तरह चंगुल में नहीं आता। देहातियों को जो लोग सरल कहते हैं, बड़ी भूल करते हैं। इनसे ज्यादा चालाक आदमी मिलना मुश्किल है। तुम्हें इस वक्त कोई काम नहीं है, मोटर मँगवाए देता हूँ, शान से चली जाओ, और उसे अपने साथ लेती आओ।

ईश्वर सेवक वहीं आराम-कुरसी पर ऑंखें बंद किए ईश्वर-भजन में मग्न बैठे थे। जैसे बहरा आदमी मतलब की बात सुनते ही सचेत हो जाता है, मोटरकार का जिक्र सुनते ही धयान टूट गया। बोले-मोटरकार की क्या जरूरत है? क्या दस-पाँच रुपये काट रहे हैं। यों उड़ाने से तो कारूँ का खजाना भी काफी न होगा। क्या गाड़ी पर न जाने से शान में फर्क आ जाएगा? तुम्हारी मोटर देखकर कुँवर साहब रोब में न आएँगे, उन्हें खुदा ने बहुतेरी मोटरें दी है। प्रभु, दास को अपनी शरण में लो, अब देर न करो, मेरी सोफी बेचारी वहाँ बेगानों में पड़ी हुई है, न जाने इतने दिन किस तरह काटे होंगे। खुदा उसे सच्चा रास्ता दिखाए। मेरी ऑंखें उसे ढूँढ़ रही हैं। वहाँ उस बेचारी का कौन पुछत्तार होगा, अमीरों के घर में गरीबों का कहाँ गुजर!

जॉन सेवक-अच्छा ही हुआ। यहाँ होती, तो रोजाना डॉक्टर की फीस न देनी पड़ती?

ईश्वर सेवक-डॉक्टर का क्या काम था। ईश्वर की दया से मैं खुद थोड़ी-बहुत डॉक्टरी कर लेता हूँ। घरवालों का स्नेह डॉक्टर की दवाओं से कहीं ज्यादा लाभदायक होता है। मैं अपनी बच्ची को गोद में लेकर कलामे-पाक सुनाता, उसके लिए खुदा से दुआ माँगता।

मिसेज़ सेवक-तो आप ही चले जाइए!

ईश्वर सेवक-सिर और ऑंखों से, मेरा ताँगा मँगवा दो। हम सबों को चलना चाहिए। भूले-भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है। मैं भी चलता हूँ। अमीरों के सामने दीन बनना पड़ता है। उनसे बराबरी का दावा नहीं किया जाता।

जॉन सेवक-मुझे अभी साथ न ले जाइए, मैं किसी दूसरे अवसर पर जाऊँगा। इस वक्त वहाँ शिष्टाचार के सिवा और कोई काम न होगा। मैं उन्हें धन्यवाद दूँगा, वह मुझे धन्यवाद देंगे। मैं इस परिचय को दैवी प्रेरणा समझता हूँ। इतमीनान से मिलूँगा। कुँवर साहब का शहर में बड़ा दबाव है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान उनके दामाद हैं। उनकी सहायता से मुझे पाँड़ेपुरवाली जमीन बड़ी आसानी से मिल जाएगी। सम्भव है, वह कुछ हिस्से भी खरीद लें। मगर आज इन बातों का मौका नहीं है।

ईश्वर सेवक-मुझे तुम्हारी बुध्दि पर हँसी आती है। जिस आदमी से राह-रस्म पैदा करके तुम्हारे इतने काम निकल सकते हैं, उससे मिलने में भी तुम्हें इतना संकोच? तुम्हारा समय इतना बहुमूल्य है कि आधा घंटे के लिए भी वहाँ नहीं जा सकते? पहली ही मुलाकात में सारी बातें तय कर लेना चाहते हो? ऐसा सुनहरा अवसर पाकर भी तुम्हें उससे फायदा उठाना नहीं आता?

जॉन सेवक-खैर, आपका अनुरोध है, तो मैं ही चला जाऊँगा। मैं एक जरूरी काम कर रहा था, फिर कर लूँगा। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं। (स्त्री से) तुम तो चल रही हो?

मिसेज़ सेवक-मुझे नाहक ले चलते हो; मगर खैर, चलो।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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भोजन के बाद चलना निश्चित हुआ। अंगरेजी प्रथा के अनुसार यहाँ दिन का भोजन एक बजे होता था। बीच का समय तैयारियों में कटा। मिसेज़ सेवक ने अपने आभूषण निकाले, जिनसे वृध्दावस्था ने भी उन्हें विरक्त नहीं किया था। अपना अच्छे-से-अच्छा गाउन और ब्लाउज निकाला। इतना शृंगार वह अपनी बरस-गाँठ के सिवा और किसी उत्सव में न करती थीं। उद्देश्य था सोफ़िया को जलाना, उसे दिखाना कि तेरे आने से मैं रो-रोकर मरी नहीं जा रही हूँ। कोचवान को गाड़ी धोकर साफ करने का हुक्म दिया गया। प्रभु सेवक को भी साथ ले चलने की राय हुई। लेकिन जॉन सेवक ने जाकर उसके कमरे में देखा, तो उसका पता न था। उसकी मेज पर एक दर्शन-ग्रंथ खुला पड़ा था। मालूम होता था, पढ़ते-पढ़ते उठकर कहीं चला गया है। वास्तव में यह ग्रंथ तीन दिनों से इसी भाँति पड़ा हुआ था। प्रभु सेवक को उसे बंद करके रख देने का अवकाश न था। वह प्रात:काल से दो घड़ी रात तक शहर का चक्कर लगाया करता। केवल दो बार भोजन करने घर आता था। ऐसा कोई स्कूल न था, जहाँ उसने सोफी को न ढूँढ़ा हो। कोई जान-पहचान का आदमी, कोई मित्र ऐसा न था, जिसके घर जाकर उसने तलाश न की हो। दिन-भर की दौड़-धूप के बाद रात को निराश होकर लौट आता, और चारपाई पर लेटकर घंटों सोचता और रोता। कहाँ चली गई? पुलिस के दफ्तर में दिन-भर में दस-दस बार जाता और पूछता, कुछ पता चला? समाचार-पत्रों में भी सूचना दे रखी थी। वहाँ भी रोज कई बार जाकर दरियाफ्त करता। उसे विश्वास होता जाता था कि सोफी हमसे सदा के लिए विदा हो गई। आज भी, रोज की भाँति, एक बजे थका-माँदा, उदास और निराश लौटकर आया, तो जॉन सेवक ने शुभ सूचना दी-सोफ़िया का पता मिल गया।

प्रभु सेवक का चेहरा खिल उठा। बोला-सच! कहाँ? क्या उसका कोई पत्र आया है?

जॉन सेवक-कुँवर भरतसिंह के मकान पर है। जाओ, खाना खा लो। तुम्हें भी वहाँ चलना है।

प्रभु सेवक-मैं तो लौटकर खाना खाऊँगा। भूख गायब हो गई। है तो अच्छी तरह?

मिसेज़ सेवक-हाँ, हाँ, बहुत अच्छी तरह है। खुदा ने यहाँ से रूठकर जाने की सजा दे दी।

प्रभु सेवक-मामा, खुदा ने आपका दिल न जाने किस पत्थर का बनाया है। क्या घर से आप ही रूठकर चली गई थी? आप ही ने उसे निकाला, और अब भी आपको उस पर जरा भी दया नहीं आती?

मिसेज़ सेवक-गुमराहों पर दया करना पाप है।

प्रभु सेवक-अगर सोफी गुमराह है, तो ईसाइयों में 100 में 99 आदमी गुमराह हैं! वह धर्म का स्वाँग नहीं दिखाना चाहती, यही उसमें दोष है; नहीं तो प्रभु मसीह से जितनी श्रध्दा उसे है, उतनी उन्हें भी न होगी, जो ईसा पर जान देते हैं।

मिसेज़ सेवक-खैर, मालूम हो गया कि तुम उसकी वकालत खूब कर सकते हो। मुझे इन दलीलों को सुनने की फुरसत नहीं।

यह कहकर मिसेज़ सेवक वहाँ से चली गईं। भोजन का समय आया। लोग मेज पर बैठे। प्रभु सेवक आग्रह करने पर भी न गया। तीनों आदमी फिटन पर बैठे, तो ईश्वर सेवक ने चलते-चलते जॉन सेवक से कहा-सोफी को जरूर साथ लाना, और इस अवसर को हाथ से न जाने देना। प्रभु मसीह तुम्हें सुबुध्दि दे, सफल मनोरथ करें।

थोड़ी देर में फिटन कुँवर साहब के मकान पर पहुँच गई। कुँवर साहब ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। मिसेज़ सेवक ने मन में सोचा था, मैं सोफ़िया से एक शब्द भी न बोलूँगी, दूर से खड़ी देखती रहूँगी। लेकिन जब सोफ़िया के कमरे में पहुँची और उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखा, तो शोक से कलेजा मसोस उठा। मातृस्नेह उबल पड़ा। अधीर होकर उससे लिपट गईं। ऑंखों से आँसू बहने लगे। इस प्रवाह में सोफ़िया का मनोमालिन्य बह गया। उसने दोनों हाथ माता की गर्दन में डाल दिए, और कई मिनट तक दोनों प्रेम का स्वर्गीय आनंद उठाती रहीं। जॉन सेवक ने सोफ़िया का माथा चूमा; किंतु प्रभु सेवक ऑंखों में आँसू-भरे उसके सामने खड़ा रहा। आलिंगन करते हुए उसे भय होता था कि कहीं हृदय फट न जाए। ऐसे अवसरों पर उसके भाव और भाषा, दोनों ही शिथिल हो जाते थे।

जब जॉन सेवक सोफी को देखकर कुँवर साहब के साथ बाहर चले गए, तो मिसेज़ सेवक बोलीं-तुझे उस दिन क्या सूझी कि यहाँ चली आई? यहाँ अजनबियों में पड़े-पड़े तेरी तबीयत घबराती रही होगी। ये लोग अपने धान के घमंड में तेरी बात भी न पूछते होंगे।

सोफ़िया-नहीं मामा, यह बात नहीं है। घमंड तो यहाँ किसी में छू भी नहीं गया है। सभी सहृदयता और विनय के पुतले हैं। यहाँ तक कि नौकर-चाकर भी इशारों पर काम करते हैं। मुझे आज चौथे दिन होश आया है। पर इन लोगों ने इतने प्रेम से सेवा-शुश्रूषा न की होती, तो शायद मुझे हफ्तों बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता। मैं अपने घर में भी ज्यादा-से-ज्यादा इतने ही आराम से रहती।

मिसेज़ सेवक-तुमने अपनी जान जोखिम में डाली थी, तो क्या ये लोग इतना भी करने से रहे?

सोफ़िया-नहीं मामा, ये लोग अत्यंत सुशील और सज्ज़न हैं। खुद रानीजी प्राय: मेरे पास बैठी पंखा झलती रहती हैं। कुँवर साहब दिन में कई बार आकर देख जाते हैं, और इंदु से तो मेरा बहनापा-सा हो गया है। यही लड़की है, जो मेरे साथ नैनीताल में पढ़ा करती थी।

मिसेज़ सेवक-(चिढ़कर) तुझे दूसरों में सब गुण-ही-गुण नजर आते हैं। अवगुण सब घरवालों ही के हिस्से में पड़े हैं। यहाँ तक कि दूसरे धर्म भी अपने धर्म से अच्छे हैं।

प्रभु सेवक-मामा, आप तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक उठती हैं। अगर कोई अपने साथ अच्छा बरताव करे, तो क्या उसका एहसान न माना जाए? कृतघ्नता से बुरा कोई दूषण नहीं है।

मिसेज़ सेवक-यह कोई आज नई बात थोड़े ही है। घरवालों की निंदा तो इसकी आदत हो गई है। यह मुझे जताना चाहती है कि ये लोग इसके साथ मुझसे ज्यादा प्रेम करते हैं। देखूँ, यहाँ से जाती है, तो कौन-सा तोहफा दे देते हैं। कहाँ हैं तेरी रानी साहब? मैं भी उन्हें धन्यवाद दे दूँ। उनसे आज्ञा ले लो और घर चलो। पापा अकेले घबरा रहे होंगे।

सोफ़िया-वह तो तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक थीं। कब की आ गई होतीं, पर कदाचित् हमारी बीच में बिना बुलाए आना अनुचित समझती होंगी।

प्रभु सेवक-मामा, अभी सोफी को यहाँ दो-चार दिन और आराम से पड़ी रहने दीजिए। अभी इसे उठने में कष्ट होगा। देखिए, कितनी दुर्बल हो गई है!

सोफ़िया-रानीजी भी यही कहती थीं कि अभी मैं तुम्हें जाने न दूँगी।

मिसेज़ सेवक-यह क्यों नहीं कहती कि तेरा ही जी यहाँ से जाने को नहीं चाहता। वहाँ तेरा इतना प्यार कौन करेगा!

सोफ़िया-नहीं मामा, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं। मैं अब यहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहती। इन लोगों को मैं अब और कष्ट नहीं दूँगी। मगर एक बात मुझे मालूम हो जानी चाहिए। मुझ पर फिर तो अत्याचार न किया जाएगा? मेरी धार्मिक स्वतंत्रता में फिर तो कोई बाधा न डाली जाएगी?

प्रभु सेवक-सोफी, तुम व्यर्थ इन बातों की क्यों चर्चा करती हो? तुम्हारे साथ कौन-सा अत्याचार किया जाता है? जरा-सी बात का बतंगड़ बनाती हो।

मिसेज़ सेवक-नहीं, तूने यह बात पूछ ली, बहुत अच्छा कया। मैं भी मुगालते में नहीं रखना चाहती। मेरे घर में प्रभु मसीह के द्रोहियों के लिए जगह नहीं है।

प्रभु सेवक-आप नाहक उससे उलझती हैं। समझ लीजिए, कोई पगली बक रही है।

मिसेज़ सेवक-क्या करूँ, मैंने तुम्हारी तरह दर्शन नहीं पढ़ा। यथार्थ को स्वप्न नहीं समझ सकती। यह गुण तो तत्तवज्ञानियों ही में हो सकता है। यह मत समझो कि मुझे अपनी संतान से प्रेम नहीं है। खुदा जानता है, मैंने तुम्हारी खातिर क्या-क्या कष्ट नहीं झेले। उस समय तुम्हारे पापा एक दफ्तर में क्लर्क थे। घर का सारा काम-काज मुझी को करना पड़ता था। बाजार जाती, खाना पकाती, झाड़ई लगाती; तुम दोनों ही बचपन में कमजोर थे, नित्य एक-न-एक रोग लगा ही रहता था। घर के कामों से जरा फुरसत मिलती तो डॉक्टर के पास जाती। बहुधा तुम्हें गोद में लिए-ही-लिए रातें कट जातीं। इतने आत्मसमर्पण से पाली हुई संतान को जब ईश्वर से विमुख होते देखती हूँ, तो मैं दु:ख और क्रोध से बावली हो जाती हूँ। तुम्हें मैं सच्चा, ईमान का पक्का, मसीह का भक्त बनाना चाहती थी। इसके विरुध्द जब तुम्हें ईसू से मुँह मोड़ते देखती हूँ; उनके उपदेश, उनके जीवन और उनके अलौकिक कृत्यों पर शंका करते पाती हूँ, तो मेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, और यही इच्छा होती है कि इसकी सूरत न देखूँ। मुझे अपना मसीह सारे सांसर से, यहाँ तक कि अपनी जान से भी प्यारा है।

सोफ़िया-आपको ईसू इतना प्यारा है, तो मुझे भी अपनी आत्मा, अपना ईमान उससे कम प्यारा नहीं है। मैं उस पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं सह सकती।

मिसेज़ सेवक-खुदा तुझे इस अभक्ति की सज़ा देगा। मेरी उससे यही प्रार्थना है कि वह फिर मुझे तेरी सूरत न दिखाए।

यह कहकर मिसेज़ सेवक कमरे के बाहर निकल आईं। रानी और इंदु उधार से आ रही थीं। द्वार पर उनसे भेंट हो गई। रानीजी मिसेज़ सेवक के गले लिपट गई और कृतज्ञतापूर्ण शब्दों का दरिया बहा दिया। मिसेज़ सेवक को इस साधु प्रेम में बनावट की बू आई। लेकिन रानी को मानव-चरित्र का ज्ञान न था। इंदु से बोलीं-देख, मिस सोफ़िया से कह दे, अभी जाने की तैयारी न करे। मिसेज़ सेवक, आप मेरी खातिर से सोफ़िया को अभी दो-चार दिन यहाँ रहने दें, मैं आपसे सविनय अनुरोध करती हूँ। अभी मेरा मन उसकी बातोें से तृप्त नहीं हुआ, और न उसकी कुछ सेवा ही कर सकी। मैं आपसे वादा करती हूँ, मैं स्वयं उसे आपके पास पहुँचा दूँगी। जब तक वह यहाँ रहेगी, आपसे दिन में एक बार भेंट तो होती ही रहेगी? धान्य हैं आप, जो ऐसी सुशीला लड़की पाई! दया और विवेक की मूर्ति है। आत्मत्याग तो इसमें कूट-कूटकर भरा हुआ है।

मिसेज़ सेवक-मैं इसे अपने साथ चलने के लिए मजबूर नहीं करती। आप जितने दिन चाहें, शौक से रखें।

रानी-बस-बस, मैं इतना ही चाहती थी। आपने मुझे मोल ले लिया। आपसे ऐसी ही आशा भी थी। आप इतनी सुशीला न होतीं, तो लड़की में ये गुण कहाँ से आते? एक मेरी इंदु है कि बातें करने का भी ढंग नहीं जानती। एक बड़ी रियासत की रानी है; पर इतना भी नहीं जानती कि मेरी वार्षिक आय कितनी है! लाखों के गहने संदूक में पड़े हुए हैं, उन्हें छूती तक नहीं। हाँ, सैर करने को कह दीजिए, तो दिन-भर घूमा करे। क्यों इंदु, झूठ कहती हूँ?

इंदु-तो क्या करूँ, मन-भर सोना लादे बैठी रहूँ? मुझे तो इस तरह अपनी देह को जकड़ना अच्छा नहीं लगता।

रानी-सुनीं आपने इसकी बातें? गहनों से इसकी देह जकड़ जाती है! आइए, अब आपको अपने घर की सैर कराऊँ। इंदु, चाय बनाने को कह दे।

मिसेज़ सेवक-मिस्टर सेवक बाहर खड़े मेरा इंतजार कर रहे होंगे। देर होगी।

रानी-वाह, इतनी जल्दी। कम-से-कम आज यहाँ भोजन तो कर ही लीजिएगा। लंच करके हवा खाने चलें, फिर लौटकर कुछ देर गप-शप करें। डिनर के बाद मेरी मोटर आपको घर पहुँचा देगी।

मिसेज़ सेवक इनकार न कर सकीं। रानीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया, और अपने राजभवन की सैर कराने लगीं। आधा घंटे तक मिसेज़ सेवक मानो इंद्र-लोक की सैर करती रहीं। भवन क्या था, आमोद, विलास, रसज्ञता और वैभव का क्रीड़ास्थल था। संगमरमर के फर्श पर बहुमूल्य कालीन बिछे हुए थे। चलते समय उनमें पैर धाँस जाते थे। दीवारों पर मनोहर पच्चीकारी; कमरों की दीवारों में बड़े-बड़े आदम-कद आईने; गुलकारी इतनी सुंदर कि ऑंखें मुग्धा हो जाएँ; शीशे की अमूल्य-अलभ्य वस्तुएँ, प्राचीन चित्रकारों की विभूतियाँ; चीनी के विलक्षण गुलदान; जापान, चीन, यूनान और ईरान की कला-निपुणता के उत्ताम नमूने; सोने के गमले; लखनऊ की बोलती हुई मूर्तियाँ; इटली के बने हुए हाथी-दाँत के पलँग; लकड़ी के नफीस ताक; दीवारगीरें; किश्तियाँ; ऑंखों को लुभानेवाली, पिंजड़ों में चहकती हुई भाँति-भाँति की चिड़ियाँ; ऑंगन में संगमरमर का हौज और उसके किनारे संगमरमर की अप्सराएँ-मिसेज़ सेवक ने इन सारी वस्तुओं में से किसी की प्रशंसा नहीं की, कहीं भी विस्मय या आनंद का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उन्हें आनंद के बदलेर् ईर्ष्याी हो रही थी।र् ईर्ष्यां में गुणग्राहकता नहीं होती। वह सोच रही थीं-एक यह भाग्यवान् हैं कि ईश्वर ने इन्हें भोग-विलास और आमोद-प्रमोद की इतनी सामग्रियाँ प्रदान कर रखी हैं। एक अभागिनी मैं हूँ कि एक झोंपड़े में पड़ी हुई दिन काट रही हूँ। सजावट और बनावट का जिक्र ही क्या, आवश्यक वस्तुएँ भी काफी नहीं। इस पर तुर्रा यह कि हम प्रात: से संध्या तक छाती फाड़कर काम करती हैं, यहाँ कोई तिनका तक नहीं उठाता। लेकिन इसका क्या शोक? आसमान की बादशाहत में तो अमीरों का हिस्सा नहीं। वह तो हमारी मीरास होगी। अमीर लोग कुत्तों की भाँति दुतकारे जाएँगे, कोई झाँकने तक न पाएगा।

इस विचार से उन्हें कुछ तसल्ली हुई।र् ईर्ष्या की व्यापकता ही साम्यवाद की सर्वप्रियता का कारण है। रानी साहब को आश्चर्य हो रहा था कि इन्हें मेरी कोई चीज पसंद न आई, किसी वस्तु का बखान न किया। मैंने एक-एक चित्र और एक-एक प्याले के लिए हजारों खर्च किए हैं। ऐसी चीजें यहाँ और किसके पास हैं। अब अलभ्य हैं, लाखों में भी न मिलेंगी। कुछ नहीं, बन रही हैं, या इतना गुण-ज्ञान ही नहीं है कि इनकी कद्र कर सकें।

इतने पर भी रानीजी को निराशा नहीं हुई। उन्हें अपने बाग दिखाने लगीं। भाँति-भाँति के फूल और पौधो दिखाए। माली बड़ा चतुर था। प्रत्येक पौदे का गुण और इतिहास बतलाता जाता था-कहाँ से आया, कब आया, किस तरह लगाया गया, कैसे उसकी रक्षा की जाती है; पर मिसेज़ सेवक का मुँह अब भी न खुला। यहाँ तक कि अंत में उसने एक ऐसी नन्हीं-सी जड़ी दिखाई, जो येरुसलम से लाई गई थी। कुँवर साहब उसे स्वयं बड़ी सावधानी से लाए थे, और उसमें एक-एक पत्ती निकलना उनके लिए एक-एक शुभ सम्वाद से कम न था। मिसेज़ सेवक ने तुरंत उस गमले को उठा लिया, उसे ऑंखों से लगाया और पत्तिायों को चूमा। बोलीं-मेरी सौभाग्य है कि इस दुर्लभ वस्तु के दर्शन हुए।

रानी ने कहा-कुँवर साहब स्वयं इसका बड़ा आदर करते हैं। अगर यह आज सूख जाए, तो दो दिन तक उन्हें भोजन अच्छा न लगेगा।

इतने में चाय तैयार हुई। मिसेज़ सेवक लंच पर बैठीं। रानीजी को चाय से रुचि न थी। विनय और इंदु के बारे में बातें करने लगीं। विनय के आचार-विचार, सेवा-भक्ति और परोपकार-प्रेम की सराहना की, यहाँ तक कि मिसेज़ सेवक का जी उकता गया। इसके जवाब में वह अपनी संतानों का बखान न कर सकती थीं।

उधार मि. जॉन सेवक और कुँवर साहब दीवानखाने में बैठे लंच कर रहे थे। चाय और अंडों से कुँवर साहब को रुचि न थी। विनय भी इन दोनों वस्तुओं को त्याज्य समझते थे। जॉन सेवक उन मनुष्यों में थे, जिनका व्यक्तित्व शीघ्र ही दूसरों को आकर्षित कर लेता है। उनकी बातें इतनी विचारपूर्ण होती थीं कि दूसरे अपनी बातें भूलकर उन्हीं की सुनने लगते थे। और, यह बात न थी कि उनका भाषण शब्दाडम्बर-मात्रा होता हो। अनुभवशील और मानव-चरित्र के बड़े अच्छे ज्ञाता थे। ईश्वरदत्ता प्रतिभा थी, जिसके बिना किसी सभा में सम्मान नहीं प्राप्त हो सकता। इस समय वह भारत की औद्योगिक और व्यावसायिक दुर्बलता पर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। अवसर पाकर उन साधानों का भी उल्लेख करते जाते थे, जो इस कुदशा-निवारण के लिए उन्होंने सोच रखे थे। अंत में बोले-हमारी जाति का उध्दार कला-कौशल और उद्योग की उन्नति में है। इस सिगरेट के कारखाने से कम-से-कम एक हजार आदमियों के जीवन की समस्या हल हो जाएगी और खेती के सिर से उनका बोझ टल जाएगा। जितनी जमीन एक आदमी अच्छी तरह जोत-बो सकता है, उसमें घर-भर का लगा रहना व्यर्थ है। मेरा कारखाना ऐसे बेकारों को अपनी रोटी कमाने का अवसर देगा।

कुँवर साहब-लेकिन जिन खेतों में इस वक्त नाज बोया जाता है, उन्हीं खेतों में तम्बाकू बोई जाने लगेगी। फल यह होगा कि नाज और महँगा हो जाएगा।

जॉन सेवक-मेरी समझ में तम्बाकू की खेती का असर जूट, सन, तेलहन और अफीम पर पड़ेगा। निर्यात जिंस कुछ कम हो जाएगी। गल्ले पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता। फिर हम उस जमीन को भी जोत में लाने का प्रयास करेंगे, जो अभी तक परती पड़ी हुई है।

कुँवर साहब-लेकिन तम्बाकू कोई अच्छी चीज तो नहीं। इसकी गणना मादक वस्तुओं में है और स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है।

जॉन सेवक-(हँसकर) ये सब डॉक्टरों की कोरी कल्पनाएँ हैं, जिन पर गम्भीर विचार करना हास्यास्पद है। डॉक्टरों के आदेशानुसार हम जीवन व्यतीत करना चाहें, तो जीवन का अंत ही हो जाए। दूध में सिल के कीड़े रहते हैं, घी में चरबी की मात्रा अधिक है, चाय और कहवा उत्तोजक हैं, यहाँ तक कि साँस लेने से भी कीटाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उनके सिध्दांतों के अनुसार समस्त संसार कीटों से भरा हुआ है, जो हमारे प्राण लेने पर तुले हुए हैं। व्यवसायी लोग इन गोरख-घंधों में नहीं पड़ते; उनका लक्ष्य केवल वर्तमान परिस्थितियों पर रहता है। हम देखे हैं कि इस देश में विदेश से करोड़ों रुपये के सिगरेट और सिगार आते हैं। हमारा कर्तव्य् है कि इस धान-प्रवाह को विदेश जाने से रोकें। इसके बगैर हमारा आर्थिक जीवन कभी पनप नहीं सकता।

यह कहकर उन्होंने कुँवर साहब को गर्वपूर्ण नेत्रों से देखा। कुँवर साहब की शंकाएँ बहुत कुछ निवृत्ता हो चुकी थीं। प्राय: वादी को निरुत्तार होते देखकर हम दिलेर हो जाते हैं। बच्चा भी भागते हुए कुत्तो पर निर्भय होकर पत्थर फेंकता है।

जॉन सेवक नि:शंक होकर बोले-मैंने इन सब पहलुओं पर विचार करके ही यह मत स्थिर किया, और आपके इस दास को (प्रभु सेवक की ओर इशारा करके) इस व्यवसाय का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा। मेरी कम्पनी के अधिकांश हिस्से बिक चुके हैं, पर अभी रुपये नहीं वसूल हुए। इस प्रांत में अभी सम्मिलित व्यवसाय करने का दस्तूर नहीं। लोगों में विश्वास नहीं। इसलिए मैंने दस प्रति सैकड़े वसूल करके काम शुरू कर देने का निश्चय किया है। साल-दो-साल में जब आशातीत सफलता होगी और वार्षिक लाभ होने लगेगा, तो पूँजी आप-ही-आप दौड़ी आएगी। छत पर बैठा हुआ कबूतर ‘आ-आ’ की आवाज सुनकर सशंक हो जाता है और जमीन पर नहीं उतरता; पर थोड़ा-सा दाना बखेर दीजिए, तो तुरंत उतर आता है। मुझे पूरा विश्वास है कि पहले ही साल हमें 25 प्रति सैकड़े लाभ होगा। यह प्रास्सपेक्ट्स है, इसे गौर से देखिए। मैंने लाभ का अनुमान करने में बड़ी सावधानी से काम लिया है; बढ़ भले ही जाए, कम नहीं हो सकता।

कुँवर साहब-पहले ही साल 25 प्रति सैकड़े?

जॉन सेवक-जी हाँ, बड़ी आसानी से। आपसे मैं हिस्से लेने के लिए विनय करता, पर जब तक एक साल का लाभ दिखा न दूँ, आग्रह नहीं कर सकता। हाँ इतना अवश्य निवेदन करूँगा कि उस दशा में सम्भव है, हिस्से बराबर पर न मिल सकें। 100 रुपये के हिस्से शायद 200 रुपये पर मिलें।

कुँवर साहब-मुझे अब एक ही शंका और है। यदि इस व्यवसाय में इतना लाभ हो सकता है, तो अब तक ऐसी और कम्पनियाँ क्यों न खुलीं?

जॉन सेवक-(हँसकर) इसलिए कि अभी तक शिक्षित समाज में व्यवसाय-बुध्दि पैदा नहीं हुई। लोगों की नस-नस में गुलामी समाई हुई है। कानून और सरकारी नौकर के सिवा और किसी ओर निगाह जाती ही नहीं। दो-चार कम्पनियाँ खुलीं भी, किंतु उन्हें विशेषज्ञों के परामर्श और अनुभव से लाभ उठाने का अवसर न मिला। अगर मिला भी, तो बड़ा महँगा पड़ा! मशीनरी मँगाने में एक के दो देने पड़े, प्रबंध अच्छा न हो सका। विवश होकर कम्पनियों को कारबार बंदर करना पड़ा। यहाँ प्राय: सभी कम्पनियों का यही हाल है। डाइरेक्टरों की थैलियाँ भरी जाती हैं, हिस्से बेचने और विज्ञापन देने में लाखों रुपये उड़ा दिए जाते हैं, बड़ी उदारता से दलालों का आदर-सत्कार किया जाता है, इमारताें में पूँजी का बड़ा भाग खर्च कर दिया जाता है। मैनेजर भी बहु-वेतन-भोगी रखा जाता है। परिणाम क्या होता है? डाइरेक्टर अपनी जेब भरते हैं, मैनेजर अपना पुरस्कार भोगता है, दलाल अपनी दलाली लेता है; मतलब यह कि सारी पूँजी ऊपर-ही-ऊपर उड़ जाती है। मेरा सिध्दांत है, कम-से-कम खर्च और ज्यादा-से-ज्यादा नफा। मैंने एक कौड़ी दलाली नहीं दी, विज्ञापनों की मद उड़ा दी। यहाँ तक कि मैनेजर के लिए भी केवल 500 रुपये ही वेतन देना निश्चित किया है, हालाँकि किसी दूसरे कारखाने में एक हजार सहज ही में मिल जाते। उस पर घर का आदमी। डाइरेक्टर के बारे में भी मेरा यही निश्चय है कि सफर-खर्च के सिवा और कुछ न दिया जाए।

कुँवर साहब सांसारिक पुरुष न थे। उनका अधिकांश समय धर्म-ग्रंथों के पढ़ने में लगता था। वह किसी ऐसे काम में शरीक न होना चाहते थे, जो उनकी धार्मिक एकाग्रता में बाधक हो। धाूर्तों ने उन्हें मानव-चरित्र का छिद्रान्वेषी बना दिया था। उन्हें किसी पर विश्वास न होता था। पाठशालाओं और अनाथालयों को चंदे देते हुए वह बहुत डरते रहते थे और बहुधा इस विषय में औचित्य की सीमा से बाहर निकल जाते थे-सुपात्राों को भी उनसे निराश होना पड़ता था। पर संयमशीलता जहाँ इतनी सशंक रहती है, वहाँ लाभ का विश्वास होने पर उचित से अधिक नि:शंक भी हो जाती है। मिस्टर जॉन सेवक का भाषण व्यावसायिक ज्ञान से परिपूर्ण था; पर कुँवर साहब पर इससे ज्यादा प्रभाव उनके व्यक्तित्व का पड़ा। उनकी दृष्टि में जॉन सेवक अब केवल धान के उपासक न थे, वरन् हितैषी मित्र थे। ऐसा आदमी उन्हें मुगालता न दे सकता था। बोले-जब आप इतनी किफायत से काम करेंगे, तो आपका उद्योग अवश्य सफल होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। आपको शायद अभी मालूम न हो, मैंने यहाँ एक सेवा-समिति खोल रखी है। कुछ दिनों से यही खब्त सवार है। उसमें इस समय लगभग एक सौ स्वयंसेवक हैं। मेले-ठेले में जनता की रक्षा और सेवा करना उसका काम है। मैं चाहता हूँ कि उसे आर्थिक कठिनाइयों से सदा के लिए मुक्त कर दूँ। हमारे देश की संस्थाएँ बहुधा धानाभाव के कारण अल्पायु होती हैं। मैं इस संस्था को सुदृढ़ बनाना चाहता हूँ और मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि इससे देश का कल्याण हो। मैं किसी से इस काम में सहायता नहीं लेना चाहता। उसके निर्विघ्न संचालन के लिए एक स्थायी कोष की व्यवस्था कर देना चाहता हूँ। मैं आपको अपना मित्र और हितचिंतक समझकर पूछता हूँ, क्या आपके कारखाने में हिस्से ले लेने से मेरा उद्देश्य पूरा हो सकता है? आपके अनुमान में कितने रुपये लगाने से एक हजार की मासिक आमदनी हो सकती है?

जॉन सेवक की व्यावसायिक लोलुपता ने अभी उनकी सद्भावनाओं को शिथिल नहीं किया था। कुँवर साहब ने उनकी राय पर फैसला छोड़कर उन्हें दुविधा में डाल दिया। अगर उन्हें पहले से मालूम होता कि यह समस्या सामने आवेगी, तो नफा का तखमीना बताने में ज्यादा सावधान हो जाते। गैरों से चालें चलना क्षम्य समझा जाता है; लेकिन ऐसे स्वार्थ के भक्त कम मिलेंगे, जो मित्रों से दगा करें। सरल प्राणियों के सामने कपट भी लज्जित हो जाता है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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जॉन सेवक ऐसा उत्तर देना चाहते थे, जो स्वार्थ और आत्मा, दोनों ही को स्वीकार हो। बोले-कम्पनी की जो स्थिति है, वह मैंने आपके सामने खोलकर रख दी है। संचालन-विधिा भी आपको बतला चुका हूँ। मैंने सफलता के सभी साधानों पर निगाह रखी है। इस पर भी सम्भव है मुझसे भूलें हो गई हों, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मनुष्य विधाता के हाथों का खिलौना-मात्रा है। उसके सारे अनुमान, सारी बुध्दिमत्ताा, सारी शुभ-चिंताएँ नैसर्गिक शक्तियों के अधीन हैं। तम्बाकू की उपज बढ़ाने के लिए किसानों को पेशगी रुपये देने ही पड़ेंगे। एक रात का पाला कम्पनी के लिए घातक हो सकता है। जले हुए सिगरेट का एक टुकड़ा कारखाने को खाक में मिला सकता है। हाँ, मेरी परिमित बुध्दि की दौड़ जहाँ तक है, मैंने कोई बात बढ़ाकर नहीं कही है। आकस्मिक बाधाओं को देखते हुए आप लाभ के अनुमान में कुछ और कमी कर सकते हैं।

कुँवर साहब-आखिर कहाँ तक?

जॉन सेवक-20 रुपये सैकड़े समझिए।

कुँवर साहब-और पहले वर्ष?

जॉन सेवक-कम-से-कम 15 रुपये प्रति सैकड़े।

कुँवर साहब-मैं पहले वर्ष 10 रुपये और उसके बाद 15 रुपये प्रति सैकड़े पर संतुष्ट हो जाऊँगा।

जॉन सेवक-तो फिर मैं आपसे यही कहूँगा कि हिस्से लेने में विलम्ब न करें। खुदा ने चाहा, तो आपको कभी निराशा न होगी।

सौ-सौ रुपये के हिस्से थे। कुँवर साहब ने 500 हिस्से लेने का वादा किया और बोले-कल पहली किस्त के दस हजार रुपये बैंक द्वारा आपके पास भेज दूँगा।

जॉन सवक की ऊँची-से-ऊँची उड़ान भी यहाँ तक न पहुँची थी; पर वह इस सफलता पर प्रसन्न न हुए। उनकी आत्मा अब भी उनका तिरस्कार कर रही थी कि तुमने एक सरल-हृदय सज्जन पुरुष को धोखा दिया। तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पाँचों उँगलियाँ घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्देश्य यही है कि नफे का बड़ा भाग किसी-न-किसी हीले से आप हज्म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि ‘बनिया मारे जान, चोर मारे अनजान।’

अगर कुँवर साहब के सहयोग से जनता में कम्पनी की साख जम जाने का विश्वास न होता, तो मिस्टर जॉन सेवक साफ कह देते कि कम्पनी इतने हिस्से आपको नहीं दे सकती। एक परोपकारी संस्था के धान को किसी संदिग्धा व्यवसाय में लगाकर उसके अस्तित्व को खतरे में डालना स्वार्थपरता के लिए भी कड़घवा ग्रास था; मगर धान का देवता आत्मा का बलिदान पाए बिना प्रसन्न नहीं होता। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि अब तक वह निजी स्वार्थ के लिए यह स्वाँग भर रहे थे, उनकी नीयत साफ नहीं थी, लाभ को भिन्न-भिन्न नामों से अपने ही हाथ में रखना चाहते थे। अब उन्होंने नि:स्पृह होकर नेकनीयती का व्यवहार करने का निश्चय किया। बोले-मैं कम्पनी के संस्थापक की हैसियत से इस सहायता के लिए हृदय से आपका अनुगृहीत हूँ। खुदा ने चाहा, तो आपको आज के फैसले पर कभी पछताना न पड़ेगा। अब मैं आपसे एक और प्रार्थना करता हूँ। आपकी कृपा ने मुझे धाृष्ट बना दिया है। मैंने कारखाने के लिए जो जमीन पसंद की है, वह पाँड़ेपुर के आगे पक्की सड़क पर स्थित है। रेल का स्टेशन वहाँ से निकट है और आस-पास बहुत-से गाँव हैं। रकबा दस बीघे का है। जमीन परती पड़ी हुई है। हाँ, बस्ती के जानवर उसमें चरने आया करते हैं। उसका मालिक एक अंधा फकीर है। अगर आप उधार कभी हवा खाने गए होंगे, तो आपने उस अंधे को अवश्य देखा होगा।

कुँवर साहब-हाँ-हाँ, अभी तो कल ही गया था, वही अंधा है न, काला-काला, दुबला-दुबला, जो सवारियों के पीछे दौड़ा करता है?

जॉन सेवक-जी हाँ, वही-वही। वह जमीन उसकी है; किंतु वह उसे किसी दाम पर नहीं छोड़ना चाहता। मैं उसे पाँच हजार तक देता था; पर राजी न हुआ। वह बहुत झक्की-सा है। कहता है, मैं वहाँ धर्मशाला, मंदिर और तालाब बनवाऊँगा। दिन-भर भीख माँगकर तो गुजर करता है, उस पर इरादे इतने लम्बे हैं। कदाचित् मुहल्लेवालों के भय से उसे कोई मामला करने का साहस नहीं होता। मैं एक निजी मामले में सरकार से सहायता लेना उचित नहीं समझता; पर ऐसी दशा में मुझे इसके सिवा दूसरा कोई उपाय भी नहीं सूझता। और, फिर यह बिल्कुल निजी बात भी नहीं है। म्युनिसिपैलिटी और सरकार दोनों ही को इस कारखाने से हजारों रुपये साल की आमदनी होगी, हजारों शिक्षित और अशिक्षित मनुष्यों का उपकार होगा। इस पहलू से देखिए, तो यह सार्वजनिक काम है, और इसमें सरकार से सहायता लेने में मैं औचित्य का उल्लंघन नहीं करता। आप अगर जरा तवज्जह करें, तो बड़ी आसानी से काम निकल जाए।

कुँवर साहब-मेरा उस फकीर पर कुछ दबाव नहीं है, और होता भी, तो मैं उससे काम न लेता।

जॉन सेवक-आप राजा साहब चतारी…

कुँवर साहब-नहीं, मैं उनसे कुछ नहीं कह सकता। वह मेरे दामाद हैं, और इस विषय में मेरा उनसे कहना नीति-विरुध्द है। क्या वह आपके हिस्सेदार नहीं हैं?

जॉन सेवक-जी नहीं, वह स्वयं अतुल सम्पत्ति के स्वामी होकर भी धानियों की उपेक्षा करते हैं। उनका विचार है कि कल-कारखाने पूँजीवालों का प्रभुत्व बढ़ाकर जनता का अपकार करते हैं। इन्हीं विचारों ने तो उन्हें यहाँ प्रधान बना दिया।

कुँवर साहब-यह तो अपना-अपना सिध्दांत है। हम द्वैधा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और मेरा विचार यह है कि जनतावाद के प्रेमी उच्च श्रेणी में जितने मिलेंगे, उतने निम्न श्रेणी में न मिल सकेंगे। खैर, आप उनसे मिलकर देखिए तो। क्या कहूँ, शहर के आस-पास मेरी एक एकड़ जमीन भी नहीं है, नहीं तो आपको यह कठिनाई न होती। मेरे योग्य और जो काम हो, उसके लिए हाजिर हूँ।

जॉन सेवक-जी नहीं, मैं आपको और कष्ट देना नहीं चाहता, मैं स्वयं उनसे मिलकर तय कर लूँगा।

कुँवर साहब-अभी तो मिस सोफ़िया पूर्ण स्वस्थ होने तक यहीं रहेंगी न? आपको तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है?

जॉन सेवक इस विषय में सिर्फ दो-चार बातें करके यहाँ से विदा हुए। मिसेज़ सेवक फिटन पर पहले ही से आ बैठी थीं। प्रभु सेवक विनय के साथ बाग में टहल रहे थे। विनय ने आकर जॉन सेवक से हाथ मिलाया। प्रभु सेवक उनसे कल फिर मिलने का वादा करके पिता के साथ चले। रास्ते में बातें होने लगीं।

जॉन सेवक-आज एक मुलाकात में जितना काम हुआ, उतना महीनों की दौड़-धूप से भी न हुआ था। कुँवर साहब बड़े सज्जन आदमी हैं। 50 हजार के हिस्से ले लिए। ऐसे ही दो-चार भले आदमी और मिल जाएँ, तो बेड़ा पार है।

प्रभु सेवक-इस घर के सभी प्राणी दया और धर्म के पुतले हैं। विनयसिंह जैसा वाक्-मर्मज्ञ नहीं देखा। मुझे तो इनसे प्रेम हो गया।

जॉन सेवक-कुछ काम की बातचीत भी की?

प्रभु सेवक-जी नहीं, आपके नजदीक जो काम की बातचीत है, उन्हें उसमें जरा भी रुचि नहीं। वह सेवा का व्रत ले चुके हैं, और इतनी देर तक अपनी समिति की ही चर्चा करते रहे।

जॉन सेवक-क्या तुम्हें आशा है कि तुम्हारा यह परिचय चतारी के राजा साहब पर भी कुछ असर डाल सकता है? विनयसिंह राजा साहब से हमारा कुछ काम निकलवा सकते हैं?

प्रभु सेवक-उनसे कहे कौन, मुझमें तो इतनी हिम्मत नहीं। उन्हें आप स्वदेशानुरागी संन्यासी समझिए। मुझसे अपनी समिति में आने के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया है।

जॉन सेवक-शरीक हो गए न?

प्रभु सेवक-जी नहीं, कह आया हूँ कि सोचकर उत्तर दूँगा। बिना सोचे-समझे इतना कठिन व्रत क्योंकर धारण कर लेता।

जॉन सेवक-मगर सोचने-समझने में महीनों न लगा देना। दो-चार दिन में आकर नाम लिखा लेना। तब तुम्हें उनसे कुछ काम की बातें करने का अधिकार हो जाएगा। (स्त्री से) तुम्हारी रानीजी से कैसी निभी?

मिसेज़ सेवक-मुझे तो उनसे घृणा हो गई। मैंने किसी में इतना घमंड नहीं देखा।

प्रभु सेवक-मामा, आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।

मिसेज़ सेवक-तुम्हारे लिए देवी होंगी, मेरे लिए तो नहीं हैं।

जॉन सेवक-यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है। सोफी को क्यों नहीं लाईं?

मिसेज़ सेवक-वह आए भी तो, या जबरन घसीट लाती?

जॉन सेवक-आई नहीं या रानी ने आने नहीं दिया?

प्रभु सेवक-वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए।

जॉन सेवक-इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी!

मिसेज़ सेवक-हाँ, इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगी, तो मेरी बात माननी पड़ेगी।

जॉन सेवक-तुम दोनों में एक का भी बुध्दि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी हो, वह जिद्दी है। उसे मना-मनूकर जल्दी लाना चाहिए।

प्रभु सेवक-अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगी, तो शायद वह फिर घर न जाए।

जॉन सेवक-आखिर जाएगी कहाँ?

प्रभु सेवक-उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।

जॉन सेवक-यह बेल मुँढ़े चढ़ने की नहीं है। दो में से एक को दबना पड़ेगा।

लोग घर पहुँचे, तो गाड़ी की आहट पाते ही ईश्वर सेवक ने बड़ी स्नेहमयी उत्सुकता से पूछा-सोफी आ गई न? आ, तुझे गले लगा लूँ। ईसू तुझे अपने दामन में ले।

जॉन सेवक-पापा, वह अभी यहाँ आने के योग्य नहीं है। बहुत अशक्त हो गई है। दो-चार दिन बाद आवेगी।

ईश्वर सेवक-गज़ब खुदा का! उसकी यह दशा है, और तुम सब उसे उसके हाल पर छोड़ आए! क्या तुम लोगों में जरा भी मानापमान का विचार नहीं रहा! बिल्कुल खून सफेद हो गया?

मिसेज़ सेवक-आप जाकर उसकी खुशामद कीजिएगा, तो आवेगी। मेरे कहने से तो नहीं आई। बच्ची तो नहीं कि गोद में उठा लाती?

जॉन सेवक-पापा, वहाँ बहुत आराम से है। राजा और रानी, दोनों ही उसके साथ प्रेम करते हैं। सच पूछिए, तो रानी ही ने उसे नहीं छोड़ा।

ईश्वर सेवक-कुँवर साहब से कुछ काम की बातचीत भी हुई?

जॉन सेवक-जी हाँ, मुबारक हो। 50 हजार की गोटी हाथ लगी।

ईश्वर सेवक-शुक्र है, शुक्र है, ईसू, मुझ पर अपना साया कर। यह कहकर वह फिर आराम-कुर्सी पर बैठ गए।
मि.सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें ेदेखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है
नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं
सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है
सन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा
-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है

-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है

-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है

-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी

-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं

-तो आज शाम को आना क्लब में

-जरूर आउंगा

-रूपये का प्रबंध भी करना

-वह तो करना ही पडेगा

इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।

मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती

एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-

सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।

-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।

तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।

सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है

फीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है

संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ

तिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी

नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआ

तिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-

उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है

बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है

घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।

तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय

घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोयाब आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता

बैरा ने चाय मेज पर रख दी तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं

सन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा-कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं

-मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं जिस प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय

-उस पर भी तो पुरूषों पर आक्षेप किये जाते हैं

तिब्बी चौंकी यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है

अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पडेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरूष देवता होते हैं- आप भी जो वगादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से मैं इसे वगादारी नहीं कहती बिच्छू के डक तोडकर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता

सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी-

तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी

-क्यों-

-इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरूष के आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है बिन ब्याही स्त्रीरोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है यह सारा मदोऊ का अपराध है आप भी पुष्पा को नहीं छोड रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरूष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता

सन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी

तिब्बी मुस्कराई-मेरी तरफ से आप निश्ंचित रहिए मगर एक ही क्षण के बाद उसने ग़ीाीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं

-मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पडे

आपके उपर मुझे सचमुच दया आती है क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए शायद मैं उन्हे रास्ते पर ला सकूं

सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है

-उनका रास्ते पर आना असीव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के उपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा

तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी

-तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी

-ऐसा क्यों-

-बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें

-तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं-

-मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं आपसे अपनी मनोव्यथा। कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।

तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं- डरना तो मुझे चाहिए

सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मै आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं

तिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए

-मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता

-आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं-

-यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं

-मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे

-दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं

-अधिकतर शिकारी किस्म केब स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं पुरूषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं

-जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं

-स्त्रीरूप नहीं देखती पुरूष जब गिरेगा रूप पर इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों मैं रूपवती हूं, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे

सन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-

तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं

सन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है

-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं

-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं

-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।

तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं

-आप भी तो आज ही खुली हैं

-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए

सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा

तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता

और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया है

सन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी

-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-

इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।

-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है

-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है

सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो

तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न-

-आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा

-कब आइएगा-

-जल्द ही आउंगा

-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती

सन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे

सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ

-किधर से-

-वहीं से आज तो रंग जम गया

-सच

-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो

-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो

-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा

-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे

-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर

सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है

-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता

दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-

सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगा

दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे

सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार है

देवकुमार ने लाचार होकर कहा-तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो-

-कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूध्द कोई कार्रवाई न करें

मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता

सन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पडेगी

सिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा-क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है हिन्दुस्तान जैसे फार्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगे

देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा-मेरे जीते-जी यह धांधली नहीं हो सकती हरगिज नहीं मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूं

और वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगे
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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