वारदात complete novel

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007
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Re: वारदात

Post by 007 »

"तारासिंह देवराज चौहान मोत कै-से स्वर में कह'उठा----"मैंने तुम्हें कहा था ना कि तुम ट्रेगर दबाने में देर कर रहे हो । देख लिया अपनी देरी का नतीजा । बाजी तुम्हारे हाथों से निकल चुकी हे l"



"हां ।" तारासिंह ने फौरन अपने सिर को हिलाया-"मानता हू। तुम वास्तव में जीत गये ।"



"और तुम्हारी हार का मतलब तुम्हारी मौत है ।"



“छोडो इन बातों को । मैं अभी फोन पर चन्द्रप्रकाश दिवाकर से बात करके कल तुम्हारी रकम मंगवा लूंगा । तुम कितना कह रहे थे ! एक मुश्त में एक करोड की बात कही थी तुमने !"



“रहने दो तारासिह ।।" देवराज चौहान मौत से भाव में मुस्कराया-"इस सौदे में मेरी दिलचस्पी समाप्त हो गई हे । अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए सिवाय तुम्हारी जान के ।"



"पागलपन मत करो ।" तारासिंह जल्दी से बोला-"तुम्हें बहुत बही रकम मिलेगी ।”



"मैंने अपनी जिन्दगी में वहुत वड्री बडी रकमें देखी हैं। मैँ ऐसे किसी लालच मे नहीं पड़ना चाहता कि दोबारा किसी प्रकार का खतरा मेरे सिर पर आ जाये I"



"बेकार की बात मत करो । इन बातों में यह सव तो चलता ही रहता हे I”

"नहीं तारासिंह मेरे उसूलों में एक बात शामिल हैं कि मौत का खेल खेलो या फिर शराफत के साथ चलू l तुम शराफत के साथ नहीं चले तो अब मौत का खेल ही सहीं I दौलत से मुझे प्यार है । बहुत प्यार है ।। दौलत कै लिए हर समय खतरे के कुएं में टांगें लटकाये बैठा रहता हुं, परन्तु दौलत के लिए पैं अपने उसूलों को तोडकर तुझ जैसे धोखेबाज क्रो जिन्दा नहीं छोड सकता ।"


तारासिंह ने पहली बार सुखे होंठों पर जीभ फेरी ।


महादेव उनकी बातें सुनकर मामला समझने की चेष्टा करते हुए कमरे में पडी तीनों पेटकटी विक्षिप्त लाशों को देख रहा था और सोच रहा था कि देवराज चौहान इंसान है या शैतान, क्योंकि . … आजकी तारीख मे उसने चार कत्ल कर दिए थे और पांचबां भी शायद होने चाला था ।



"मेरी जान लेकर तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा, अलबत्ता , मुझसे दोस्ती करके दिवाकर सेठ से दौलत को हासिल का सकते हो ।" तारासिंह की आवाज में व्याकुत्तला का पुट था ।



"'तुम जैसे कुतों से देवराज चौहान बहुत दूर रहता हैं । दोस्ती नही करता । तुमने मेरी जान लेने की चेष्टा को है; बदले में अब तुम अपनी जान दोगे ।"



उसी पल तारासिंह ने किसी चीते के समान देवराज चौहार्तो पर छलांग लगा दी ।



देवराज चौहान सावधान था , जिन्दगी कै उस आखिरी पल में उसे तारासिंह से ऐसी ही किसी हरकत की उम्मीद थी I इससे पहले कि देवराज चौहान से तारासिंह टकराता, देवराज चौहान ने दांत खींचकर अपना हाथ जोर से घुमाया । हाथ में दबा रिवॉल्वर वेग के साथ तारासिंह की कनपटी से टकराया । तारासिंह चीखकर दाई तरफ लुढक गया । नीचे गिरते ही उसने संभलने को चेष्टा की तो, उसी क्षण देवराज चौहान के जूते की ठोकर उसके चेहरे पर पडी । तारासिंह तीव्र: कराह के साथ लुढ़कता हुआ महादेव कै करीब जा पहुंचा I

महादेव ने झुककर उसे थामना चाहा तो देवराज चौहान ने सख्त स्वर में उसे रोक दिया ।


"नहीँ महादेव ।" देवराज चौहान अपना शिकार खुद करता है ।



, महादेल ने फिर तारासिंह को थामने की चेष्टा नहीं की।



तभी देवराज चौहान हाथ में रिवॉल्वर दबाए उसकी तरफ बढा ।।



तारासिंह उसके चेहरे पर छाए पांवों को देखकर मन ही मन सिहर उठा । इससे पहले कि वह नीचे से उठ पाता ।


ठक-ठक ।



देवराज चौहान की टांग बिजली की गति की भाँति दो बार घूमी और जूते की एडी दोनों बार तारासिंह की कनपटी से टकराई ।

तारासिंह को चीखने का भी मौका नहीं मिला और वह बेहोशी की गर्तं में डूबता चला गया ।



देवराज चौहान दांत भीचे क्रूरता-भरी निगाहों से कई पलों तक बेहोश तारासिंह को देखता रहा । फिर रिवॉल्वर जेब में डालकर पलटा और आगे बढकर बाथरूम में प्रवेश कर गया । वहां छोडा चाकू लेकर जब बाथरूम से बाहर निकला तो चेहरे पर वहशीपन के भाव विद्यमान हो चुके थे I



महादेव ने उसे देखा I उसके हाथ में पकडे चाकू क देखा ।



“जो तुम करने जा रहे हो, वह करना जरूरी हे क्या?" महादेव कै होंठों से वेचेनी से भरा-स्वर निकला I



देवराज चौहान ने महादेव को देखा भी नहीं और चाकू थामे फर्श पर बडोश पड़े तारासिह की तरफ बढने लगा ।



महादेव कै होंठ र्भिच गये I वह पलटा और आगे बढकर खिडकी खोली और बाहर देखने लगा । कमरे में जो होने जा रहा धा, उसे देखना वह जरूरी नहीं समझता था ।



पीछे से आती उसके कानों में आवाजें पडी । उन आवाजों में तारासिंह की पीड़ा भरी कराह भी मौजूद थी, जोकि बेहोशी में उसकै होंठों से निकली थी ।



फिर चन्द पलों के बाद कमरे में गहरा सन्नाटा व्याप्त हो गया । कदमों की आहट सुनकर उसने पलटकर देखा ।



देवराज चौहान बाथरूम से बाहर निकल रहा था, हाथों को धोकर । अब उसका चेहरा सामान्य था ।


महादेव की निगाह तारासिंह पर टिकी I जो कि मरा पडा था I


उसका पेट खुल चुका था । अब वहां तीन की अपेक्षा पेट कटी चार लाशें मौजूद थीं ।



“अगर तुम नहीं आते तो इसकी जगह मेरी लाश पडी होती I" देवराज चौहान बोला I"


" मै समझता हूं।" महादेव ने गम्भीरता से सिर हिलाया ।"



"लेकिन तुम यह बात भूल रहे हो कि एक ही दिन में तुमने पांच हत्याएं की हैं I एक को जिन्दा ट्रक के आंगे फेंक दिया और चार का पेट चाकू से फाढ़कर, उन्हें मार डाला । बहुत खतरनाक हो तुम ।"


"गलतफहमी है तुम्हारी ” देवराज चौहान ने उसकी आंखों मैं झांका----"इन पाँचों में किसी की भी जाने लेने का मेरा इरादा नहीं था । परन्तु इन पांचों ने मेरी जान लेने की चेष्टा की थी । तभी तो यह मेरे हाथों से मरे । अपनी निगाहों मेँ मैंने इन्साफ ही किया हैं? "

"मैँ इस बारे में अपनी राय देना ठीक नहीं समझता l तृमने जो कर दिया । कर दिया । बात खत्म । अब एक वात मेरी सुन लो I यहाँ तक तो ठीक है । परन्तु बंगले कै भीतर उन तीनों युवकों को तुमने खामखाह हाथ लगाने की चेष्टा की तो फिर ठीक नहीं होगा I”



"चिन्ता मत करो I उनके लिए मेरे मन में ऐसा कोई विचार नहीं है । वह मेरी जान के दुश्मन नहीं बने I इसलिए मैँ उनका यह हाल नहीं करूंगा I यूँ समझो की वह तीनों मेरे लिए अनजान हैं I”



महादेव कै चेहरे पर तसल्ली कै भाव आये ।



“ तम यहां कैसे आ पहुचे?”



"बातें बाद मेँ I यहां से निकलो।"


जवाब पें देवराज चौहान ने सिर हिला दिया I



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Re: वारदात

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दोनों खामोशी से बंगले से बाहर निकले और बगल…वाले बंगले कै बाहर खडी कार तक पहुंचे I महादेव ने देवराज चौहान को बताया कि किस प्रकाऱ उसे शकं हुआ और वह बंगले में जा पहुचा । सबकुछ तो बताया महादेव ने, परन्तु नोटों से भरे सूटकेस की बात गोल कर गया ।


"तुमने वास्तव में मुझ पर अहसान किया हे । मैं तुम्हारे इस अहसान का बदला चुकाना चाहता हू।"



"वह कैसे?" महादेव ने देवराज चौहान को देखा I



"तुम मेरा थोड़ा-सा साथ दो । एक-दो दिन के लिए एक , आदमी की निगरानी करनी है । वह इस समय मेरी कैद में हे । बदले में तुम जो चाहोगे मिलेगा I मोटा माल मिलेगा ।"



"पक्की बात?"



"देवराज चौहान का वायदा है यह l” उसके चेहरे पर पहली बार मुस्कान उभरी ।



“ठीक है । मोटा माल देने का वायदा कर रहे हो तो फिर इन्कार नहीं कर सकता । वेसे भी एक भारीं गड़बड़ हो गई हे ।" महादेव ने लम्बी सांस लेते हुए कहा ।


"क्या ? "


"जिस बुढिया का भाई बनकर में रह रहा था , सोच रहा था उसकी जमीन जायदाद अपने नाम करवा लूगा I उसका कोई दूर का रिश्तेदार निकल आया हे I उसका खत आया है वह तोन-चार दिन में आ रहा है I"

"यानी कि तुम्हारा पत्ता साफ?" देवराज चौहान हंसा l



"हां ' मेरी सारी कोशिश बेकार गई । वह अपना सबकुछ उस रिश्तेदार को देगी ।"


"किस्मत अपनी-अपनी । ऐसे खेल खत्म होने मे देर नही लगती ।" देवराज चौहान कार का दरवाजा खोलकर भीतर बैठता' हुआ बोला--------"आओ वेठो । चलें I"



महादेव भीतर बैठा तो देवराज चौहान ने कार आगे बढा दी ।



“महादेव ।" कार ड्राईव करते हुए देवराज चौहान सिगरेट सुलगाते हुए बोला-"मेरा सुटकैस कहां रख आये?"



"सूटकैस? कौन-सा सूटकेस?" महादेव ने लापरवाहीँ से कहा ।



" वही जो कार की पिछली सीट पर पड़ा था ।"


"मुझे नहीँ पता । ना हीँ मैंने कोई सूटकैस कार में पड़ा देखा था I"



“झूठ बोलना बुरी बात हे, महादेव । उसमें नोट भरे पड़े थे । यह तो तुम जान ही चुके होंगे ।"



“अच्छा । मुझे नहीं मालूम था l कितने नोट थे उसमें?"



"नब्बे लाख I”


“नब्बे लाख ......!" क्षण-भर के लिए महादेव हड़बड़ा उठा ।



" लगता है सूटकेस में तुमने झांक तो लिया, लेकिन नोटों को गिना नहीं I”



महादेव की समझ में नहीं आया कि क्या कहे ।



"बैसे मुझे तुम पर इतना तो परोसा हैं कि तुमने सूटकेस जहां भी रखा होगा वहां किसी दूसरे का हाथ नहीं पहुच सकेगा I" देवराज चौहान ने बगल मैं बेठे महादेव पर निगाह मारी ।



“तुम खामखाह मुझ पर शक कर रहे हो । मुझे क्या मालुम तुम्हारा सूटकेस कहां है ।" महादेव ने जल्दी से कहा-“किसी के नोटों को तो छूना भी मै पाप समझता हूं !"



"सूटकेस को तो छूना पाप नहीँ हे-। बैसे महादेव जहा तुमने सूटकेस रखा हे वहां तक कोई दूसरा पहुंच गया तो जानते हो पूरा नब्बे लाख हाथ से निकल जायेगा ।"



"उस तक कोई नहीं पहुंच सकेगा-मैँने..... ।" महादेव ने तुरन्त होंठ भींच लिए !"



देवराज चौहान हौले से हंस पडा ।

"वंगले में रखा है ना?"



" हां ।" महादेव ने गहरी सांस लेकर कहा । जो बात बह कबूल नहीँ करना चाहता था, वह गलती से उसके मुंह से निकल गई थी ।



"तुम नोटों से भरा सूटकेस लेकर भागे नहीं! मुझें देखने. आ गए, क्यों?"



“गलती हो गई I मुझे वास्तव में सूटकेस के साथ खिसक जाना चाहिए था I लेकिन मन में उत्सुकता थी कि नोटों से भरा सूटकेस बाहर कार मेँ छोड़कर तुम दोपहर से भीतर क्या कर रहे हो I" महादेव ने सिर हिलाकर कर कहा ------" मैंने तुम्हारी जान बचाई है I तुम्हारी जानकी कीमत नोटों से भरा वह सूटकेस तो होना ही चाहिए । अब वह मेरा हे I तुम उसके हकदार नहीं रहे I भूल जाओ उसे ।"



"इसका मतलब तुमने जबरदस्ती ही अपने अहसान की कीमत वसूल कर ली I" वह बोला I



"और क्या I मांगने की मेरी आदत नहीं है I”



"अगर मैं कहूं , सूटकेस मुझे बापस दे दो तो?"



"सवाल ही नहीं पैदा होता I अब वह सिर्फ मेरा है I”



देवराज चौहान मुस्कराकर रह गया । एक शब्द भी नहीं बोला फिर I


कुछ आगे जाकर पब्लिक फोन बूथ के सामने उसने कार रोकी I


नीचे उतरने लगा तो बोला महादेव ।



“कहां जा रहे ही?"



. "फोन करने I" कहने के पश्चात् देवराज चौहान कार से निकला और बूथ में प्रवेश कर गया ।



कुछ ही पलों के बाद सम्बन्ध बनने पर वह इन्सपेक्टर सूरजभान से बात कर रहा था I



इन्सपेक्टर सूरजभान के पास कुछ देर पहले ही रंजीत श्रीवास्तव के उंगलियों के निशानों का रिजल्ट आया था I



साथ में रिपोर्ट भी नत्थी थी कि उसकी उंगलियों…कै निशान फाइल में मौजूद राजीव मल्होत्रा की उंगलियों से नहीं मिलते । दोनों जगहों पर उंगलियों के निशान अलग-अलग व्यक्तियों के हैं I इस रिपोर्ट के साथ ही सूरजभान का सारा जोश एकाएक ठण्डा पड़ गया था । वरना वह तो सोचे हुए था कि राजीव मल्होत्रा जिन्दा है ।



" हैलो , इन्सपेक्टर सूरजभान । मैं देवराज चौहान बोल रहा हूं I"



"मैं तुम्हें बहुत ही जबरदस्त खबर देना चाहता हू" I सुनना चाहोगे?"



" क्या ??" सूरजभान की आबाज में सतर्कता भर आई थी I

“दिल्ली में बैंक डकैती और हत्याओं कै तीन मुजरिम इंस समय विशालगढ़ में …छिपे हुए हैं । अगर तुम फौरन मूव करो तो उन्हें पकढ़ सकते हो । सुबह तक वह भाग भी सकते हैँ I"


“तीन मुजरिम .....? कौन-से तीन मुजरिम !"


"दिबाकर, हेगड़े और खेडा।”



"क्या !! यह तीनों बिशालमढ़ मे ?!" सूरजभान उत्तेजित होकर चीखा----“कहां हैं वह?"



देवराज चौहान ने सूरजभान को उनके बंगले का पता बताया और रिसीवर रखकर बूथ से बाहर आ गया । चेहरे पर मुस्कान फैली थी ।


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Re: वारदात

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राजीव मल्होत्रा की निगाहें डॉक्टर बैनर्जी के साथ आये रजीत श्रीवास्तव पर जा टिकीं । दोनों कईं पलों तक एक-दूसरे क्रो देखते रहे । रंजीत कठिनता से खुद पर काबू पाए हुए था क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि सामने बैठा इंसान उसका जुड़वां बचपन से बिछड़ा भाई है ।




और राजीव मल्होत्रा अपने हमशक्ल को देखकर हैरान हो रहा था ।



"कौन हो लुम?" आखिरकार रंजीत श्रीवास्तव ने वहां छाई खामोशी को तोडते हुए पूछा l




"डाक्टर बैनर्जी को बता चुका हू कि मै कौंन हूं !" कहने के बाद उसने बैनर्जी को देखा ---" आप कब तक मुझे इस तरह बांधे रखेंगे? मेरे जिस्म का एक-एक हिस्सा टूट रहा है !"



डॉक्टर बैनर्जी ने प्रश्नभरो निगाहों से रंजीत को देखा !



"डाँक्टर-खोल दो इसे ।" रंजीत ने कहा।



बैनर्जी ने राजीव को खोल दिया ।


'तुम दिल्ली के रहने वाले हो?”


" हा I"



“तुम्हारे पिता का नाम वया था?"



राजीव मल्होत्रा ने असमंजसताभरी निगाहों से उसे देखा ।


“तुम्हें मेरे पिता से क्या लेना-देना, जो भी बात करनी हो मैरा से करो I"



"जो मैँने पूछा हे, उसका जबाव दो फिर पैं तुम्हारी बात का जबाव भी दे दूगा । तुम्हारे पिता अब कहा हैं?”

"नहीं हैं ।” राजीव मल्होत्रा ने गहरी सांस लेकर कहा---"दस-बारह साल पहले ही उनका स्वर्गवास हो चुका है ।"



"उनका नाम क्या है?"



"बनारसी दास !"



रंजीत श्रीवास्तव का शरीर जौरों से कांपा आले हीँ पल उसने खुद पर काबू पा लिया । चेहरे पर एकाएक ही प्रसन्नत्ता के भाव नाचने लगे । उसने गर्दन घूमाकर बैनर्जी को देखा जो उसे ही देखे जा. रहा था ।



फिर बैनर्जी ने गहरी सांस लेकर सिगरेट सुलगाई ।


"तुम्हरि पिता बनारसी दास ने तुम्हें अपने बारे में और कुछ नहीं बताया ?"



“और क्या बताते वह?" राजीव मल्होत्रा की आंखें सिकुड गई ।


रंजीत ने सिर हिलाया और फिर जेब से बनारसी दास की पुरानी तस्वीर निकालकर राजीव के सामने करते हुए कहा… "यह तुम्हारे पिता की तस्वीर तो नहीं है l"


राजीव ने तस्वीर देखी तो चौक पड़ा।



"यह तो मेरे पिता की तस्वीर है । तुम्हारे पास कहां.-से आई?" राजीव के होंठों से निकला ।


रंजीत ने डॉक्टर बैनर्जी को देखा ।



"अब बताओ डॉक्टर-क्या अब भी शक की कोई गुंजाइश है?"



"नहीं । आप ठीक कर रहे हैं कि यह......!" बैनर्जी एकाएक खामोश हो गया ।



"बात क्या है ।" राजीव असंमजसता मे घिरा बोला---- "मेरे पिता की तस्वीर आपकै मास कहां से आई? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा । यह तस्वीर दिखाकर तो'आप लोगों ने मुझे… ।"



“राजीब ।" रंजीत ने गम्भीर स्वर में कहा-----"बनारसी दास कभी मेरे पिताजी के पास बंगले में नौकर हुआ करता था । एक दिन उसे पिताजी ने चोरी करते पक्रड़ लिया । उसे मारा । अपनी बेइज्जती और मार का बदला लेने के लिए बनारसी दास मेरै जुड़वां भाई को उठाकर भाग गया ।"



“क्या मतलब?" राजीव का मुंह -खुला का खुला रह गया ।



"मतलब यह कि तुम और कोई वहीँ हो जिसे बनारसी दास लेकर भागा था l तब तुम दो साल के थे । तुम मेरे भाई । मेरे हमशक्ल हो I" कहते हुए रंजीत श्रीवास्तव की आवाज में भारीपन आ गया

तुम्हें पिताजी ने वहुत्त ढूंढा I कई साल ढूढते रहे l लेकिन तुम कहीं भी नहीं मिले, जव वह आखिरी सांस ले रहे ये, तन भी तुम्हें याद कर रहे थे कि जाने तुम किस हाल मेँ-होगे । आ मेरे भाई-मेरे गले से लग जा । मै तो आशा ही छोड बैठा था कि कभी दूसरा भाई मुझे मिलेगा ।" रंजीत की आंखों में पानी चमक उठा ।


राजीव अपनी जगह से नहीं हिला । रंजीत क्रो देखता ही रहा वह I



"देख क्या रहा डै, मेरे गले से नहीं लगेगा?" कहने कै साथ ही रंजीत ने आने बढकर राजीव क्रो अपनी बांहों में समेट लिया । राजीव्र की बाहें भी खुद ब-खुद उससे सिमटती चली गईं--“तुम पिले भी तो किस मोड पर सब-कुछ होते हुए भी… l”



"दो बातें ऐसी हैँ कि जिस पर मैँ अविश्वास नहीं कर सकता ।" राजीव मल्होत्रा ने उसकी बात. काटकर गम्भीर स्वर में कहा-“एक तो मेरे पिताजी-थानी की बनारसी दास की तस्वीर का तुम्हारे पास होना और दूसरी बात तुम ठीक मेरी शक्ल कै हो । तीसरी'वात एक और पैदा होती है कि तुम वहुत पैसे वाले ही । इसलिए मुझे भाई कहने के पीछे तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं हो सकता । मतलब कि इस बात पर मैं विश्वास करता हूं कि तुन वास्तव में मेरे बचपन कै बिछडे हुए भाई हो ।"



रंजीत श्रीवास्तव का चेहरा उठा ।


"लेकिन-मुझे दुनिया के सामने तुम भाई ना ही कहो तो ठीक होगा ।”



"क्यों ?" रंजीत कै होंठों से निकला ।


राजीव ने गहरी सांस लो फिर गम्भीर स्वर में कह उठा ।



"मैं बेंक-डकैती और हत्याओं का मुजरिम हूं। अगर मेरा नाम तुम्हारे साथ जुड गया तो तुम्हारी बहुत ही ज्यादा बदनामी होगी । बेहतर होगा मुझसे रिश्ता कायम मत करो ।” .



" बदनामी की वजह से मैं बरसों से बिछड़े भाई को नहीं छोड -सकता ।" रंजीत श्रीवास्तव ने दृढ़ स्वर में कहा-" तुम मेरे भाई हो और भाई ही रहोगे । चूंकि अभी बैंक-डकैती का मामला ताजा . हैं इसलिए दो तीन साल तुम्हारे रहने का इन्तजाम कही और कर दूंगा । बाद में मामला ठण्डा पड़ जाएगा। वेसे जो इन्सपेक्टर दिल्ली में तुम्हारे केस की तफत्तीश कर रहा था, उसने मुझे राजीव मल्होत्रा समझकर कुछ घण्टे पहले ही मेरी उंगलियों निशान लिए है

अब तक उसे'तसल्ली हो गई होगी कि दिल्ली पें रहने वाले राजीव का कोई भी बजूद विशालगढ़ में नहीं हे । बिशालगढ़ मे उसकी शक्ल का रंजीत् रहता है ।यह बात भविष्प , में हमारे लिए फायदेमंद रहेगी । यह इंस्पेक्टर तुम्हें देखेगा , रंजीत श्रीवास्तव ही समझेगा । तुम किसी बात की फिक्र मत करो णै सब ठीक कर देंगा ।"



राजीव कुछ कहना चाहकर मी कह ना सका I



"तुम अभी मेरे साथ चलोगे I कुछ दिन तक मैं तुम्हारे ठिकाने का इन्तजाम कर दूंगा ।तब तक हम एक साथ किसी . को नजर नहीं आयेंगे । हम को चोंकाना नहीं चाहते । तुम . कमरे में बन्द रहोगे तो मैं बाहर रहूंगा । मैं भीतर रहूगा तो तुम बाहर रहोगे। एक बार तो तुम्हें खो दिया पस्तु अब पैं तुम्हें किसी मी मौके पर खोना नहीं चाहूगा I"



राजीव कै होंठों पर बरबस हीँ मुस्कान उभरती चली गई I दोनों भाइयों के मिल जाने से डॉक्टर कै चेहरे पर तसल्ली से भरे भाव फैले हुए थे ।



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Re: वारदात

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देवराज चौहानं ने अपार्टमेंट कै सामने कार रोकी I महादेव के साथ वह नीचे उतरा I



"यहा कहाँ?" महादेव के होंठों से निकला I


"चलो आओ । पूछो कुछ मत ।"


देवराज चौहान के साथ महादेव आगे बढ गया । पहली मजिल पर मौजूद किराये पर हासिल कर रखे अपार्टमेट कै बन्द दरवाजे . कै सामने ठिठककर देवराज चौहान ने जेब से चाबी निकाली और दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया ।


महादेव उसके पीछे था । भीतर पहुंचकर जब उसने लाइट ओंन की तो किसी को बंधे पा कर महादेव चौंका I


"यह कौन है?"


"यह दोपहर सै वंधा हुआ है । सबाल कम पूछो ओर इसे चैक करो ।"



महादेव आगे बढकर उसे टटोला उसे चैक किया फिर देवराज चौहान से बोला I



" यह तो बेहोश है I”



" होश में लाओ I "

उसके बन्धन खोलने कै पश्चात् महादेव ने कहा ---- “यह तो बहुत तगडा बेहोश लगता है !"



“बोला तो यह दोपहर से बंधा हुआ हे I अगर यह मर जाता तो मुझे तब भी हैरानी नहीँ होती I तुम इसे होश में लाओ ।" कहने के पश्चात् देवराज चौहान उठा और आगे बढकर दूसरे कमरे मेँ खुलने वाले दरवाजे पर लटका ताला खोला और भीतर प्रवेश कर गया । सामने ही वह दोनों सूटकेस मौजूद थे।


देवराज चौहान ने आगे बढकर सूटकेसों को खोलकर देखा, सब कुछ ठीक ठाक था l


सूटकेसों में वेसे ही माल भरा पड़ा था, जेसे कि वह छोडकर गया था ।


सूटकेसों क्रो बन्द करके कमरे से निकला और दरवाजे पर पुन: ताला लटका दिया ।



महादेव, बेहोश अशोक उर्फ रंजीत को होश में लाने का प्रयत्न कर रहा था I



"दरवाजे से उस पार क्या है ।” महादेव ने अपने काम में व्यस्त, दरवाजे की तरफ इशारा किया I



"कमरा हे I" देवराज चौहान ने कटु स्वर में कहा ।



"अच्छा ।" महादेव की आवाज में व्यंग्य कै भाव थे-“मैँने समझा झील है, तुम तैरने गए हो I"



" अपने काम में कम और दूसरों के मामले में ज्यादा दिलचस्पी लेते हो ।" देवराज चौहान ने तीखे लहजे में कहा-"यह ,आदत ठीक नहीं होती I क्यों बेकार में हरध-पांव तुडबाते हो ।”



"क्या कंरू-आदत से मजबूर हूँ।” महादेव ने गहरी सास ली फिर बौला-----"यह हे कौन?"



"स्वीत श्रीवास्तव !" देवराज चौहान ने कहते हुए सिगरेट का लापरवाही से कश लिया I



"रंजीत श्रीवरस्तव ।।" महादेव चौंका-"वह करोड़पति जिसके यहां पर तुम.....तुम काम करते हो?”



"हां I"



" तुमने इसे यहा क्यों बाघ रखा है? चक्कर क्या है ??" महादेव के होंठों से निकला ।



"कोई चक्कर नहीं है । तुम अपना काम करो I" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती उभर आई ।



" लेकिन !"



"सुना नहीं तुमने !" देवराज चौहान कै होंठों से गुर्राहट निकली


“मैँ तुम्हें यहा काम कै लिए लाया हूं। अपने काम से मतलब रखो । बस I मेरे मामले में ज्यादा घुसने की चेष्टा मत करौ I"


"रोब डाल रहे हो I" महादेब ने सिर हिलाया, "ठीक है । तुम्हारा रोब बर्दाश्त करना ही पड़ेगा I आखिर तुमने मोटा माल देने का वायदा किया ‘है I" जवाब में देवराज चौहान कुछ वड़बड़त्या जिसे कि महादेव सुन नही सका I

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महादेव की घंटा-भर की कोशिश के पश्चात् किसी प्रकार अशोक उर्फ रंजीत को होश आया I उसकी हालत बुरी हो रही थी I इतनी'हिम्मत नहीं थीं कि उठकर बैठ पाता ।



.. "इसे फ्रिज से निकालकर कुछ खिला-पिला दो I” देवराज चौहान बोला I महादेव उसे खिलाने -पिलाने में व्यस्त हो गया I खाने-पीने कै बाद अशोक की हालत कुछ सुधरी तो उसने क्रोधभरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा I



“तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि तुम मेरे साथ ऐसा च्यवहाऱ कर सको?" अशोक गुर्राया ।



“हिम्मत है तभी तो यह सब-कुछ कर सका I तुम्हें कोई एतराज है क्या?”



"तुम.......तुम.....मैं तुम्हें जेल में ठुसवा दूंगा, ऐसी हालत कर दूगा कि तुम कभी जेल से बाहर निकल भी ना सकोगे, तुम… तुमने मेरा अपहरण किया हे ।"



“तुम मेरा कुछ नहीं कर सकोगे रंजीत श्रीवास्तव. I” देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया… “ओंर तुम मुझे कुछ भी करने से रोक नहीं सकते I अभी तो मैंने बहुत कुछ करना हे I”



_ “क्या मतलब?" अशोक की आंखें सिकुंड गयी I


"रंजीत साहब, आप जब इस अपार्टमेंट मे आए, तब अपने हमशक्ल को तो देखा होगा?"


"हां I” अशोक कै होंठों से निकला I



"अब वह रंजीत श्रीवास्तव वना तुम्हारे उस महलनुमा खूबसूरत बंगले पर रह रहा हे । सव उसे रंजीत श्रीवास्तव ही समझ रहे हैं I यानी कि इस समय तुम्हारा कोई वजूद नहीं I” .



अशोक अपनी सारी पीड़ा तकलीफ भूल गया I

" समझे , तुम्हारी जगह पर अब मेरा आदमी, तुम्हारी ही शक्ल में पहुंच गया ।"



"तु-तुम क्या चाहते हो?" हक्के-बक्के से अशोक कै होंठों से निकला I



" कुछ खास नहीं । तुम्हारे पास जो दौलत का समन्दर मौजूद है । उसमें से चद बाल्टिया भरना चाहता हूं।"



“मेरे हमशक्ल के दम पर?"


“हां I"



"उसे कुछ भी नहीं मिलेगा ।"


"क्यों?" देवराज चौहान के चेहरे पर कहर कै भाव फैलते चले गए ।


"मेरी दौलत पर, वह मेरा हमशक्ल बनकर मी हक नही जमा सकता I"



"वह तुम्हारी शक्ल लेकर हीवहां नहीं गया, तुम्हारे काफी गुण लेकर भी वहां गया हे I उन गुणों में एक गुण तुम्हारे साईन भी शामिल हैं l तुम्हारे हस्ताक्षर कै दम पर वह काफी कुछ कर सकता है I "


अशोक का दिमाग इस समय तेजी चल रहा था ।



" मैं छोटी-स्री आफर देता हूं जो कि हम दोनों कै लिए ही ठीक I”



“बोलो I अपनी आॅफ़र भी सुना दो।”


" तुम जो चाहते हो वहीँ करो । मुझे कतई कोई एतराज नहीं ।" अशोक उर्फ रंजीत जल्दी से बोला-”बदले में जो मैं कह रहा हूं मान लो । फिर तुम आराम से काम करते रहना I"



“मुह से कुछ फुटोगे भी या बात घुमाते रहोगे ।" देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा ।
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Re: वारदात

Post by 007 »

अशोक अपनी जगह से उठा । अपने वदन को सीधा किया । फिर उसने जेब से सिगरेट लेकर, उसे सुलगाने के पश्वात् कश लिया ।



महादेव कुर्सी पर पसरा पड़ा था । उसकी की पेनी निगाहें अशोक को घूरे जा रही थीं । महादेव मसले को समझने की कोशिश कर रहा था I



"देवराज चौहान ।।" चंद कदम टहलने कै पश्चात् अशोक ठिठकर बोला-"मेरे दो सूटकेस तुम्हारे पास हैं ।"


उसे देखते देवराज चौहान ने सहमति मेँ अपना सिर हिलाया।


"वह मुझे दो । मैं हमेशा के लिए इस शहर से चला जाना चाहता हूं I पीछे क्या होता है या तुम क्या करते हो, मुझे इससे कोई मतलब नहीं । अगर तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं तो तुम मुझे शहर से बाहर छोड दो । तुम सूटकेसों को खोलकर देख चुके होंगे कि उनमें क्या है । वह सब कुछ, मैंने इकटूठा ही इसलिए किया है कि हमेशा के लिए इस शहर को छोड दूं ।"



"यानी कि रजौत श्रीवास्तव ।" वह आखे सिक्रोड़ व्यंग्य भरे. स्वर में कह उठा-" करोडों-अरबों का मालिक थोड्री सी दौलत , सूटकेसों में भरकर, इस शहर से भागना चाहता हैं I वेरी गुड । बहुत खूब । कौन मानेगा तुम्हारी इस बात को. जो भी सुनेगा । वहीं हंसेगा, या मुझे बेवकूफ वना रहे हो?"


"मेरी बात पर विश्वास करो I में सच कह रहा हू।"


देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर महादेव को देखा ।



" महादेव ।"

" हां !"



"तुम विश्वास करते हो इस बात पर कि रजीत श्रीवास्तव जैसी हस्ती दो सूटकेसों मे थोडी -सी दौलत को भरकर, बाकी सबकुछ छोढ़-छाड़कर, हमेशा के लिए इस शहर से जा रहा हो?”



“ऐसी मजाक बाली बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता I " महरदेव ने सिर हिलाया ।



"लेकिन मैं अब इसकी बात पर विश्वास करूंगा ।"


" क्या?" महादेव ने हेरानी से उसे देखा ।



देवराज चौहान ने गर्दन घुमाई और अशोक पर निगाहे टिका दीं l



“मैं तुम्हें दोनों सूटकेस दे दूंगा। तुम कही भी जाने को आजाद हो।"



अशोक का चेहरा खिल उठा ।


“लेकिन जाने से पहले तुम्हें मेरा एक काम करना होगा l "


"कौन-सा काम?"



"तुम तो हमेशा के लिए इस शहर से जा रहे हो । बापस कभी नहीं आओगे । लेकिन तुम्हारे पीछे जो दौलत पडी रहेगी । उसका मालिक कौन होगा ? तुम जाने से पहले अपना बाकी का सब-कुछ मेरे नाम कर दो । इस पर तो एतराज नहीं होना चाहिए ।"



" य......यह केसे हो सकता है ?" अशोक के होंठों से निकला !!


"क्यों नहीँ हो सकता?"


" मै आज रात ही विशालगढ से बाहर निकल जाना चाहता हूं।" अशोक ने अपने शब्दों पर जोर दिया ।

"आज रात ही क्यों?"


"इस बात से तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिए ।"



"बेटे ।।" देवराज चौहान का लहजा खतरनाक हो गया ----"कल दिन निकलने पर मैं तुम्हारी जायदाद कें कागज तैयार कराऊंगा । तुम उस पर साईन करोगे । उसके बाद मैं तुम्हें कार मेँ बिठाकर इस शहर से बाहर छोड आऊगा । इस मामूली सी बात पर तुम्हें कोई एतराज नहीं होना चाहिए ।"


अशोक ने हड़बड़ाकर, अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।


देवराज चौहान एकाएक अजीब-से अन्दाज़ में मुस्कराया ।


"तुम्हें शायद याद होगा कि छ: महीने पहले तुम्हारी कार की टक्कर, एक कार से होंगई थी । तब तुमने इसी दौलत कै नशे में चूर अपने आदमियों से उस कार वाले को तबियत से ठुकाया था ।"


अशोक की आखें सिकुर्डी ।


“लगता है याद आ गया ।" देवराज चौहान के दांत भिच गये ।


"तुम्हारा उस बात से क्या वास्ता?"



"सारा वास्ता ही उसी बात में हे ।" देवराज चौहान र्दात भीचकर कह उठा----"तुमने जिसकी ठुकाई की थी , वह इन्सान इस दुनिया में मेरा सबसे खास हे । चाहता तो मैँ तुम्हें खत्म सकता था । इंसलिये मैंने तुम्हें कंगाल बनाने की सोची । ताकि दौलत का घमण्ड तुम्हारे सिर से उतर सके । और इस काम में मेरे छ महीने लग गये । अब वह वक्त आ गया है ।"


अशोक श्रीवास्तव देवराज चौहान को देखता रहा ।


महादेव की उलझन भरी निगाह देवराज चौहान पर थी । वह कुछ पूछना चाहता था । लेकिन अभी खामोश ही रहा ।


"कल तुम जमीन-जायदाद कै पेपर्स साईन करके अपना सब कुछ मेरे नाम करोगे । मैं तुम्हें पैसे… पैसे का मोहताज कर दूंगा ।




“मुझे यहा से चले जाने दो । जो तुम सोच रहे हो । उसका कोई फायदा नहीं होगा ।"



" क्यों ?"


अशोक ने सख्ती' से अपना होंठ भीच लिया ।


"जबाव दो मेरी बात का !"


"म......मैँ रंजीत श्रीवास्तव नहीं हूं।"



वह चौंका ।


महादेव हैरान-सा उसका मुह देखने लगा ।

“क्या कह रहे हो?" देवराज चौहान असंमजसता में घिरा कह उठा l



"मैं सच कर रहा हू मैँ रंजीत श्रीवास्तव नहीँ हू । मेरा नाम अशोक है । अशोक श्रीवास्तव । मैं रंजीत का चचेरा भाई हू। मैंने अपने चेहरे को प्लास्टिक सर्जरी करवाकर रजीत जैसा वना रखा है I"



" झूठ बोलते हो तुम l तुम रंजीत श्रीवास्तव ही हो । पिछले छः महीने से में तुम्हारे पास रह रहा हूं।"



"तुम ठीक कहते हो , लेकिन मैं दो सालों से रंजीत कै वेष में वहा रह रहा हूं । तुम चाहो तो मेरे चेहरे पर की गई प्लास्टिक सर्जरी साफ कराकर देख सकते हो ।"



देवराज चौहान उसे देखता रह गया ।

बोला कुछ नहीं I



“हो सकता हे यह सच कह रहा हो t" महादेव कह उठा I



"ठीक है । मैं तुम्हारी बात की सत्यता की जांच करूंगा । लेकिन आज की रात तो तुम्हें यही रहना पडेगा । कल से पहले तुम इस शहर से बाहर नहीँ निकल सकोगे I"



अशोक ने होंठ भीच लिए ।
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