मेरा पता कोई और है /कविता

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kunal
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मेरा पता कोई और है /कविता

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मेरा पता कोई और है /कविता


धूप कमरे की खिड़की से घुस कर उसके शिथिल बदन से अठखेलियाँ करने लगी थी। उसकी किरणें उसका सारा ताप सारी थकन हरे ले रहा था। शरीर, मन सब जैसे हल्का हुआ जा रहा हो। अब उसकी नर्म गर्मी उसे सहलाती, छेड़ती, अंतत: परेशान करने लगी थी। वह थोड़ा सा खिसक लेती, वह थोड़ी दूर और फैल जाता। वह थोड़ा और खिसकती वह थोड़ा और फैलता... जैसे उसके इस आलस से उसे चिढ़ हो रही हो।
नंदिता अभी तक उस बिस्तर से चिपकी पड़ी थी; सुबह के साढ़े नौ हो जाने तक। वसीम को यहाँ से निकले हुए लगभग डेढ़ घंटे हो चुके थे और प्रो. हनीफ कई दिनों से घर आए ही नही थे। घर, हाँ अगर उसे वो घर की संज्ञा से नवाजते हों तो... यों उनका आना न आना हमेशा उनकी मर्जी से ही होता है और उसने कभी कोई प्रतिवाद या प्रतिरोध नहीं किया। उसके लिए यही कम नही था कि प्रो. हनीफ से उसका कोई रिश्ता था। जायज-नाजायज ये शब्द बड़े दुनियावी और तुच्छ थे उस रिश्ते के आगे... उसकी गहराइओं-ऊँचाइयों को छूने के लिए।
यहाँ कोई प्रश्न-प्रतिप्रश्न नहीं था और उत्तरों की श्रृंखला भी नहीं थी, न जवाबदेही ही। प्रो. हनीफ इसी से टिक पाते थे इस घर और रिश्ते पर... वह कृतार्थ हो लेती थी।
उसने कभी सोचा भी नहीं था प्रो. हनीफ की ऊँचाइयों को अपने कंधे से माप सकेगी; वे आकाश-कुसुम थे उसके लिए और वह आकाश-कुसुम अब उसकी झोली में था। वह यकीन करने की खातिर अब भी जब-तब टटोल लेती है अपना दामन। उस रिश्ते की छुअन, उसकी गर्मी क्या मौजूद है वहाँ... वह किसी स्वप्न को तो नहीं जी रही...? उनके टँगे कपड़ों को वह आलमारी में टटोल आती है... टटोलने से याद आता है उसे, उनके गंदे कपड़े अभी धुलने को नहीं गए हैं। आज तो दे ही देना होगा उसे। वह अपनी अस्वस्थता -जन्य आलस को छोड़ चेतन होने लगती है। एक दिन और कितने-कितने तो काम... सामने थीसिस के पन्ने पड़े हैं अस्त-व्यस्त। वह उन्हें तरतीब से फाइल-बंद करके रख लेती है।
पता नहीं आगे कब...
वक्त मुट्ठी से फिसलता जा रहा है चुपचाप। पर उसे वक्त का यूँ बीतना पता ही नहीं चल पाता। उसकी जिंदगी के तो उतने ही दिन बीतते हैं; उतने ही दिन जीती है वह जितने दिन हनीफ उसके साथ होते हैं। शेष दिन प्रतीक्षा और सिर्फ प्रतीक्षा में। हनीफ टोकते हैं उसे अक्सर, ऐसे कैसे बिता देती हो सारा समय। कुछ तो पढा-लिखा करो। थीसिस वहीं की वहीं अटकी पड़ी है। कैसे कटता है तुम से सारा का सारा वक्त।
वह उनके नाक से उतरते चश्मे को फिर से नाक पर चढ़ाती हुई कहती है - 'आपकी याद में।'
'भाड़ में जाए यह याद। पढ़ाई-लिखाई...'
वह छोटे बच्चे की तरह उनके कंधे से लटक पड़ती है - 'कर लूँगी वह भी।'
'कब...? अभी...'
'नहीं, आपके जाने के बाद...'
'नहीं, अभी।'
'नहीं, आपके जाने के बाद...'
'अभी...'
अभी तो मैं आपके साथ बैठूँगी, बातें करूँगी। फिर खाना खाएँगे हम। अ... खाने से याद आया, सब्जी चढ़ा रखी थी गैस पर; कहीं जल न गई हो... कैसे खाएँगे आप... उसकी आँखों में चिंता की लकीरें हैं गहरी... नीली... भूरी...
वे लाड़ से देखते हैं उसे... खा लूँगा... पूरी तरह से न जली हो तो ... नहीं तो बाहर भी...
ट्रिन... ट्रिन... मोबाइल की हल्की सी टिनटिनाहट उसे बाहर धकेलती है स्मृतियों से।
वह एसएमएस पढ़ती है - 'तुम्हारे लिए कोई क्षमा नहीं है स्त्री / स्वर्ग के दरवाजे बंद हैं / कि तुम्हारे कारण ही / धकेला गया पुरुष पृथ्वी पर / नींद में चहलकदमी मत करो स्त्री / कि पाँवों की साँकल बज उठेगी / भूलो मत अभिसार के बाद, अभी-अभी नींद आई है तुम्हारे पुरुष को...' - एमीलिया
यह एमी भी... पता नहीं क्या-क्या लिख कर भेजती रहती है। अभी कल तो उसने... वह दुबारे इस कविता को पढ़ती है और चौंक उठती है। ये पंक्तियाँ कहीं उसी कविता की कड़ी तो नहीं।
वह 'इन बाक्स' में जाती है - 'स्त्री / बचा सको तो बचा लो अपना नमक / नमक के सौदागरों से / वे तुम्हें जमीन पर पाँव न धरने देंगे / कि कहीं तुम्हारे पाँव से झर न जाए रत्ती भर नमक... अगर्चे तुम बच गई स्त्री / लिखेंगे वे धर्मग्रंथों और सुनहरी पोथियों में/ कि दर-दर नमक बाँटती फिरती थी निर्लज्ज स्त्री...'
वह समझना चाहती थी एमी क्या कहना चाहती है, वह समझ रही थी एमी का मतलब क्या है... वह भरोसा नहीं करना चाहती थी एमी के कहने पर। एमी की शुक्रगुजार है वह। वह न होती तो प्रो. हनीफ से वह मिल भी कहाँ पाती। वह एमी ही थी जिसने इंटर की परीक्षाओं के बाद के खाली दिनों में उसे आर्ट्स क्लासेज ज्वाइन करवाया था जबरन। वह बेमन से जुड़ी थी सिर्फ एमी का साथ देने की खातिर। पर फिर... प्रो. हनीफ वहाँ गेस्ट फैकल्टी थे। वह पहली मुलाकात, अगर सिर्फ सुने और देखे जाने को भी मुलाकात कहते हों तो अब भी उसकी स्मृतियों में ज्यों की त्यों है। वह आँखें फाड़-फाड़ कर सुनती रहती उन्हें, देखती रहती उन्हें, एकटक। क्लास कब खत्म हो जाते उसे पता ही नहीं चलता अगर एमी बाजू पकड़ कर उठने को नहीं कहती - 'चल।'
वह प्रो. हनीफ के प्रभामंडल की जद में थी, बुरी तरह। उनकी आँखें, उनका चेहरा, सिर के कुछ सफेद बाल, उनका ऊँचा कद। एमी कहती यह उम्र होती ही है ऐसी जब लोग बुजुर्गों की तरफ आकर्षित होते हैं। फादर सिंड्रोम, पितृ-ग्रंथि कहते हैं इसे। वे बाहर आ खड़ी हुई थीं। मुझे जब पिता से कोई लगाव ही नही रहा फिर पितृ-ग्रंथि क्या...?
वही तो... कभी-कभी जो मिलता नहीं उसे हम तलाशते फिरते हैं बाहर-बाहर। तुम्हारे दिमाग मैं बैठा पिता का रोल माडल...
पिता शब्द उसे चुभता है। वह कहती है अब बस भी कर... पर एमी के अनुभव बोलते हैं, बोलते ही रहते हैं।
उबरने के लिए वह हनीफ सर का पहला एसएमएस निकालती है -
'यूँ तो था पास मेरे बहुत कुछ, जो मैं सब बेच आया।
कहीं ईनाम मिला और कहीं कीमत भी नहीं।
कुछ तुम्हारे लिए इन आँखों में बचा रखा है,
देख लो, और न देखो तो शिकायत भी नहीं।'
उनके लिए हैरत का सवब था यह एसएमएस। वे क्लास में हर लड़के का मोबाइल नंबर पता कर-कर के थक चुकी थीं। उससे ज्यादा शायद एमी...
वे तो शायद भूल भी जातीं एसएमएस की बात, लेकिन उस दिन इन्स्टीच्यूट की डायरेक्टरी मिली थी उन्हें और उसे पलटते-पलटते हनीफ सर के नंबर पर उनकी निगाहें अटक गई थीं...
एमी ने चिकोटा था उसे - तो आग दोनों तरफ लगी हुई है... मैं तो समझी थी... बुड्ढे के बच्चे हों शायद हमारे बराबर... मैं बात करती हूँ उससे... नंदिता ने बाँहें थाम ली थी उसकी - ' नहीं एमी... नहीं... मेरी खातिर...'
बुढ़ापे में आदमी सठिया जाता है, और तू तो... वह उसे गुस्से से घूरती है, घूरती रहती है। फोन करती हूँ मैं तेरे घर, बुलाती हूँ अंकल को... तेरी अक्ल तभी ठिकाने आएगी।
वह उसे मासूम निगाहों से देखती है, आँखों में इल्तिजा भर कर, प्लीज घर फोन नहीं करना एमी। पापा नाराज होंगे, नहीं समझ पाएँगे यह सब कुछ।
यह सब कुछ तू समझ पा रही है? कि यह सब कुछ है क्या सिवाय बेवकूफी और बचपने के। बुढ़िया नानी कहती हैं, तू नहीं समझ पाएगी यह सब कुछ।
क्या है यह सब कुछ तू पहले मुझे समझा कर तो देख। अंकल को बाद में... पहले मुझे ही, चल शुरू कर... वह उसे कंधे से झकझोर रही है।
प्लीज एमी...
प्लीज क्या, हमेशा मरी बकरियों की आँखों की तरह आँखें बना मुझे जीत नहीं सकती तू। मैं तुझे नहीं चलने दूँगी इस राह... और अगर इस राह गई तू तो हमारी दोस्ती यहीं खत्म...
छोड़ देना या छूट जाना इतना आसान होता है क्या; न उससे हनीफ सर का मोह छूटा था न एमी से उसका। पूरे पाँच वर्ष बीत चुके हैं इस बीच। लंबे-लंबे पाँच वर्ष। पर उसे लगता है जैसे अभी की बात है यह सब। अभी तक तो वह भरोसा भी नहीं कर सकी कि वह साथ है हनीफ सर के, किसी लंबे स्वप्न में नहीं जी रही वह। और एमी... जब तब मिलने के बहाने ढूँढ़ती है उससे... एसएमएस और फोन। उसने शायद अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी है और नंदिता ने अपना भरोसा...
एमीलिया, कभी की छात्र नेता, आज की तेज-तर्रार पत्रकार। उसकी इच्छाओं के आगे झुक कैसे लेती है, मान कैसे लेती है उसकी बात। अपनी दलील से सबको परास्त करनेवाली एमीलिया। प्यार सबको पराजित करता है, झुका लेता है, प्रिय की इच्छाओं के आगे। एमीलिया कोई अपवाद तो नहीं...
नंदिता खुद नहीं छोड़ आई इस प्यार के पीछे घर-द्वार, दोस्त-रिश्ते सब। लोगों की आँखों में उगे अपमान को वह नहीं पहचानती हो ऐसा नहीं है पर पहचान कर भी उस पर मिट्टी डाल देती है वह। एक घर-परिवार, अपना घर-परिवार कभी-न-कभी उसने भी तो चाहा होगा। पर अब वह सारी चाहत हनीफ सर के साथ की चाहत में बदल कर रह गई है।
...और खुद हनीफ सर, वे किसी के लिए उत्तरदायी नहीं? उसको हर क्षण किसी की आँखों में उगी नफरत नहीं झेलनी होती पर उन्हें तो उनके पूरे परिवार का सामना करना होता है, पत्नी, बच्चे सबका... छोटा लड़का चाहे न समझता हो उतना कुछ पर वसीम... वसीम तो बड़ा है। लगभग उसी उम्र का है वह जिस उम्र में हनीफ सर से मिली थी वह...
प्यार व्यक्ति को कमजोर बना देता है और लाचार भी... एनी अक्सर कहती थी। उस वक्त तो और भी जब आर्ट क्लासेज खत्म हो चुके थे और इंटर का रिजल्ट आने में अभी वक्त बाकी था। नंदिता तड़पती रहती... एक बार, बस एक बार वह हनीफ सर से मिल पाती। वह एमी से प्रार्थना करती बार-बार। कहती, कोई उपाय... कैसे भी... गजब यह कि हनीफ सर ने इस बीच उसे कभी कोई एसएमएस भी नहीं भेजा था। अपनी पहल पर एसएमएस करनेवाले हनीफ सर की इस चुप्पी का कोई मतलब वह नहीं समझ पा रही थी। या यूँ कहें कि यह चुप्पी जो बतलाना चाह रही थी वह सच उसे स्वीकार्य नहीं था। एमी उसकी तकलीफों से पसीज कर कहती है, फोन कर, एसएमएस कर, बुला कर मिल तो उनसे। उसे हैरत होती है पर नहीं होती है। वह जानती है प्यार व्यक्ति को कमजोर बना देता है, लाचार भी। वह चाहती थी एमी उससे यही कहे पर पर जब उसने कह दिया वही सब कुछ तो उसके हाथ मोबाइल उठाने से इन्कार कर देते हैं...। अजीब है तू भी, यही तो चाहती थी न तू, फिर अब क्या हुआ? कर ले फोन, वह उसे मोबाइल थमाती है। वह चुपचाप रख देती है उसे... पागल लड़की, सँभाल खुद को। इस तरह तो तू... एमी ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया है, वह उसके बाल सहला रही है।
एमी सैंडविच बना कर लाती है, प्लेट उसके सामने कर देती है। वह उठा कर कर खाना चाहती है सैंडविच पर उसके हाथ बेतरह काँप रहे हैं, थर-थर। अपनी हालत पर उसे खुद तरस आ जाता है, कैसी तो हालत बना रखी है उसने खुद की। अगर एमी भी साथ न हो उसके तो... और एमी भी कब तक झेल पाएगी यों उसे। उसने बेतरह काँपते शरीर और हाथ को सहेजा है, तोड़ा है एक ग्रास और मुँह में ठूँस लिया है, नहीं बस और अब नहीं। उसने छोटे-छोटे कौर तोड़ने शुरू किए हैं। सैंडविच बिल्कुल बेस्वाद है, कि स्वाद, रस, गंध ही उसकी जिंदगी से पीछे छूट चले हैं...
बेल बजी है, एमी गई है दौड़ कर। कौन होगा, वह सोचती है कोई नहीं आता उन दोनों के घर। बाहर-बाहर ही वे मिलती हैं लोगों से, जरूरत भर की बातचीत भी कर लेती हैं, पर घर तो सिर्फ उन दोनों का है, उनका एकछ्त्र साम्राज्य। उन्हें कभी किसी तीसरे की जरूरत नहीं पडी, बचपन से अब तक। लोगों को भी उनके इस एकांत में खलल डालने का कोई शौक नहीं था। खास कर इस शहर में। यह शहर उन्हें इसलिए भी बहुत पसंद था। यहाँ उनके लिए झोली भर आजादी थी और सिर पर मुट्ठी भर सपनों की छतरी भी, जिसके साये तले वे धूप, बारिश सबसे बचती-बचाती अपने सुख-दुख आपस में बाँट लेती थीं, बचपन के अपने पुराने शहर के दिनों की तरह ही...
वह कभी-कभी सोचती थी उन दिनों उन दोनों का अपना घर जो कि अब उसे एमी का घर लगने लगा था छोड़ देने से पहले, एमी के स्वरों में जो हनीफ सर के लिए हिकारत है वह कहीं सिर्फ इसलिए तो नहीं कि वह उससे उसका कुछ निजी छीन ले जा रहे थे। वैसा निजी जिसे वह सिर्फ अपना समझ जी रही थी अब तक...। या कि उसके स्वर की पीड़ा-चिंता सब जेनुइन है। खालिस फिक्र और उसके हित से जुड़ी हुई। पर वह जब भी इस मुद्दे पर सोचना शुरू करती उलझ जाती बुरी तरह से। कोई निष्कर्ष न कभी निकला था न अब निकलता। हार-झख कर खयालों के उलझे गुच्छे को वह दूर फेंक देती जैसे माँ अक्सर उलझे पुराने ऊन को सुलझाते-सुलझाते हार जाती तो उठा कर दूर फेंक देती थी... यह अलग बात है कि वह अगले दिन या कि उसी दिन एक-दो घंटे के बाद उसे फिर सुलझाने बैठती...
वह अभी तक वैसी उलझी-उलझी ही बैठी थी, अधकुतरा हुआ सैंडविच का प्लेट उसी तरह सामने रखे हुए। उसके विचार अभी तक उन्ही दोनों ध्रुवों के दो छोर पर तने खडे थे कि एमी ने पूछा था उससे - कौन होगा? फिर उससे जवाब की अपेक्षा न रखते हुए वह गेट की तरफ बढ़ गई थी। पोस्टमैन ने साइन करवाया था एमी से। फिर लिफाफा उसके सामने रख कर उसकी बगल में आ बैठी थी, 'क्या है' की उत्सुकता के साथ।
वह अब तक ऊहापोह में थी, राइटिंग तो बहुत खूबसूरत और पहचानी सी है... किसने भेजा होगा, और क्या...? वह कोइ अंदाजा नहीं लगा पा रही। एमी के सिवा कोई दूसरी सहेली भी नहीं। माँ-पिताजी तो चेक भेज कर ही निवृत हो लेते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से। फिर... उसने इशारा किया था खोलो एमी...
एक कागज निकला था लिफाफे से... एक पन्ना मात्र। एमी ने पढ़ना शुरू किया था उसे -
'खलबतो-जलवत में मुझसे तुम मिली हो बारहा
तुमने क्या देखा नहीं, मैं मुस्कुरा सकता नहीं
'मैं' की मायूसी मेरे फितरत में शामिल हो चुकी,
जब्र भी खुद पर करूँ तो गुनगुना सकता नहीं।
मुझमें क्या देखा कि तुम उल्फत का दम भरने लगी
मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं।
किस तरह तुमको बना लूँ मैं शरीके जिंदगी,
मैं खुद अपनी जिंदगी का भार उठा सकता नहीं।
यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे,
अब मैं शम्मे जिंदगी की लौ बढ़ा सकता नहीं।'
पढ़ने के बाद एमी बुदबुदा रही थी - बुड्ढे में इतनी भी हिम्मत नहीं कि अपनी बात आमने-सामने कह सके। कायर... डरपोक। इधर-उधर की पंक्तियाँ भेजता रहता है, वह भी बिना अपने नाम के। और यह है कि उसी में मार खुशी के मार गम के डूबती-उतराती रहती है...। बल्कि डरपोक नहीं, खेला-खाया हुशियार है वह। सब कुछ इतनी सफाई... अपने दामन को पाक-साफ रखते हुए, हर गँदले छींटे से बचाते हुए...
उसके कान यह सब सुन रहे थे पर वैसे ही जैसे बिना काम की बातें... उसने कागज के उस टुकड़े को छाती से लगा लिया था। जार-जार रोई थी वह। उसने काँपती उँगलियों से उन्हें फोन मिलाया था - सर मैं मिलना चाहती हूँ... बगैर एमी की तरफ देखे... आपसे, अभी इसी वक्त। उधर से कोई पुरजोर मनाही भी नहीं सुनाई दी थी... कहाँ सर? ठीक है... आती हूँ मैं... वह एमी से आँखें चुराती उठी थी। कुछ भी नहीं कहा था उससे, और तैयार होने चली गई थी।
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रास्ते भर एमी की आँखें उसका पीछा करती रहती हैं, घूरती हुई। वह उन शिकायती नजरों से दूर भागना चाहती है, बहुत दूर। वह आटो रिक्शावाले से कहती है, गाड़ी इतनी धीरे-धीरे क्यों चला रहे हो, तेज चलाओ। अभी मैडम, आटोवाला बहुत कम उम्र का है, उसकी आँखों में एक शरारत भरी चमक है, वह शरारत और गहराती है, नंदिता के कहने से। वह उन शरारत भरी आँखों की अनदेखी करना चाहती है। अब कितनी-कितनी आँखों से उलझे वह। गाड़ी जैसे हवा में उड़ने लगी है, वह हिल रही है बिल्कुल। गनीमत है कि दोपहर है, भीड़ उतनी नहीं सड़कों पर। पर फिर भी ठहरी तो दिल्ली की भीड़ ही। अरे कोई एक्सीडेंट करने का इरादा है क्या, तेज चलाने को कहा था पर इतना तेज भी नहीं, अभी गिरते-गिरते बची मैं। ठीक है मैडम... पर कह वह कुछ इस अंदाज में रहा है जैसे कह रहा हो 'जो हुक्म शाहजादी'। गाड़ी ठीक-ठीक गति से चलने लगी थी। आटोवाले ने कोई गीत लगा दिया है, वह सुनती है उसे ध्यान दे कर -
शबनम कभी, शोला कभी, तूफान है आँखें,
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क के सरहद की निगहबान हैं आँखें।
उफ अब यहाँ भी आँखें, एमी की आँखें... निगहबानी का शौक जिन्हें बेइंतहा हैं। इसी चौकसी से भाग कर वह दिल्ली आई थी ताकि जी सके अपनी तरह, अपनी मर्जी से। पर मुश्किल यह कि एक सिपाही वह खुद साथ लेती आई थी, जो तैनात रहता था हरदम उसकी पहरेदारी में। तब तो बहुत खुश थी वह। उसकी सबसे अच्छी दोस्त, उसकी बचपन की सहेली, चौबीस घंटे उसके साथ होगी। उन्हें मिलने, फिल्म देखने और गप्पबाजियों के लिए मौकों और समय की तलाश नहीं करनी होगी। वे साथ होंगी दिन-रात...।
उन्होंने अपने कमरे को भी बहुत प्यार से सजाया था। दो फोल्डिंग, दो बुक रैक्स, एक आल्मारी और एक किचेन। दिन बड़े प्यार से गुजर रहे थे उनके। हनीफ सर के नंदिता की जिंदगी में आने तक।
उसे कोफ्त हो रही है बेइंतहा। वह एमी के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाह रही, रत्ती भर भी नहीं। उसने अपनी पीठ से टँगी उन आँखों की पलकें जबरन बंद कर दी है। फिर भी वे पीछे-पीछे चली आ रही हैं...। चली आ रही हैं। वह एमी के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहती इस वक्त। अभी वह सिर्फ हनीफ सर के बारे में सोचना चाहती है, अभी उसकी इंतजार में होंगे वह, उसे ऐसा सोच कर अच्छा लग रहा है। इंतजार करने का ढंग भी क्या उनका बिल्कुल अलग होगा... बेचैनी को काबू में करने का ढंग... कि आम आदमी की तरह चहलकदमी कर रहे होंगे वह भी... नहीं, सर आम लोगों जैसे बिल्कुल भी नहीं। उनकी कोई भी आदत आम लोगों जैसी कैसे हो सकती है। वह देखना चाहती है सर को इस हाल में... वह पगली है बिल्कुल।
वह आटोवाले को बरजती है, यह क्या बजा रहे हो तुम। कोई और अच्छा गाना नहीं है तुम्हारे पास। उसकी शरारती आँखें कहती हैं 'अभी बदलता हूँ मैडम'। वह छुपी हुई ध्वनि सुनती है, 'जो हुक्म मल्लिका'। उसने कैसेट पलट दिया है - 'ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखें, इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी...' लगता है आटो रिक्शावाले के पास जो कैसेट है उसके सारे गाने आँखों से ही संबंधित हैं। वह उसकी आँखों की चमक को इग्नोर करती है, चलेगा, चल जाएगा यह। कम से कम इस गाने में उसे अपने पीछे कौंधती एमी की आँखें तो नहीं दिखेंगी...
वह आँखें मूँद कर प्रतीक्षा करते हनीफ सर की कल्पना करती है। अब मन्ना डे की आवाज गूँज रही है - 'तेरे नैना तलाश करें जिसे वे हैं तुझी में कहीं दीवाने... तेरे नैना...'
सदियों लंबा यह रास्ता भी आखिरकार तय हो ही गया। वह आटोवाले को पैसे थमाती है। पलट कर देखने की जरूरत नहीं है उसे, न बचे हुए खुल्ले पैसे लेने की। वह तेज कदमों से गेट की तरफ बढ़ती है। अगर वे गेट पर ही नहीं मिले तो... वे गेट पर ही थे, सफेद कुर्ते पाजामे में, कानों के पीछे से बहते पसीने को रूमाल से पोंछते। पसीने की बूँदों से चमकता लेकिन धूप से सँवलाया हुआ चेहरा। साँवले लगते चेहरे पर उनकी आँखें और ज्यादा चमकदार और उदास सी... उसे उनके भेजे नज्म की अंतिम पंक्तियाँ याद हो आईं -
'यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे,
अब मैं शम्मे जिंदगी की लौ बढ़ा सकता नहीं।'
आखिर क्या कहना चाहते थे वह... पूछना था उसे उन्हीं से। वह समझ रही थी कुछ-कुछ पर जैसे उसे अपनी समझ पर विश्वास ही नहीं रह गया था... इसीलिए भागी आई थी वह, पर अब जबकि चली आई थी उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था। इस तरह परेशान किया उन्हें, न जाने धूप में ऐसे कब से खड़े होंगे। उसका मन हुआ बढ़े वह और अपने रूमाल से, अपने हाथों से पोंछ दे उनका पसीनाया चेहरा। पर तब हिचक थी और खूब थी। वह चुपचाप उनके सामने जा खड़ी हुई थी, चाभी की गुड़िया सी।
उन्होंने देखा था उसे, पर जैसे देखा नहीं हो। चल रहे थे उसके साथ पर जैसे साथ नहीं चल रहे हों। वे बोल रहे थे कुछ साथ-साथ चलते, उसने अपना ध्यान बटोरा था - 'इस कुतुबमीनार को अलाउद्दीन खिलजी, इससे ढाई गुना बड़ा बनाना चाहता था। पर पहले तल के बनते ही उसकी मृत्यु हो गई। ख्वाहिशों का क्या वे बेइंतहा होती हैं जिंदगी मे और अंत तक पीछा करती रहती हैं हमारा। सब कुछ हमारे ही हाथों में नहीं होता। तुमने सुना है ना, 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...'
वह समझ रही थी वह जो वे उससे कहना चाह रहे थे; पर वह जो कह रहे थे उसे वह बिल्कुल ही नहीं समझना था... वह यही सब सुनने-समझने तो नहीं आई थी यहाँ।
वे कह रहे थे - 'ऐबक बहुत ही महत्वाकांक्षी इनसान था। वह मुहम्मद गोरी का गुलाम था जिसने गुलाम वंश की स्थापना की और एक गुलाम इल्तुतमिश को ही अपना दामाद चुना। इल्तुतमिश ने ही कुतुबमीनार को पूरा करने का काम अपने शासन काल में किया। दिल्ली सल्तनत की पहली महिला शासक रजिया बेगम इसी इल्तुतमिश की बेटी थी।'
वह धूप से आँखें बचाती पेड़ों की ओट-ओट बढ़ रही थी। वे अब भी कह रहे थे - 'तुम जानती हो कुतुबमीनार और ताजमहल दोनों अर्थक्वेक प्रूफ हैं। सोचो, विज्ञान और कला का विकास उन दिनों कितना हो चुका था।
ऐबक ने जहाँ हिंदू आर्किटेक्ट से काम लिया, इल्तुतमिश ने वहाँ इजिप्ट से कलाकार बुलाए। अलाउद्दीन खिलजी ने जहाँ सफेद संगमरमर का उपयोग किया वहीं इल्तुतमिश ने लाल बलुई पत्थर का। यहाँ चार राजाओं के शासन काल की कला-विशेषताएँ अलग-अलग अंदाज में नजर आती हैं।
कुतुबमीनार का मेन गेट जिसे अलाई दरवाजा कहते हैं देखने में कितना खूबसूरत है कभी गौर से देखा है? दरवाजे पर छोटे-छोटे कमल, राजपूत कला के चिह्न बल्कि कहें तो हिंदू और जैन शैलियों का मिश्रित रूप। छतरियाँ बुद्धिष्ट कला से प्रेरित... मृत्योपरांत ऐबक का क्या हुआ कुछ पता नहीं, कहते हैं वह पोलो खेलते वक्त घोड़े से गिर गया था और उसकी मृत्यु हो गई थी। इसीलिए इल्तुतमिश ने अपने जीवन काल में ही यह मकबरा बनवा लिया था।' वे चलते-चलते आगे आ चुके थे। 'यह जो मकबरा देख रही हो न तुम इसके सेंटर टाप दो तरह के हैं। एक तो ऊपर नकली और दूसरी नीचे मिट्टी में असली।
वह बोलते हुए हनीफ सर का चेहरा गौर से देख रही थी। उसे लग रहा था वे कक्षा में हैं और सर... वह उन्हें टोकना चाहती थी पर नहीं भी। उनके चेहरे पर पसरी गरिमा और विद्वता उसमें झिझक भर रही थी। इतनी बार तो वह आई है यहाँ, लेकिन इतने सलीके से... करीने से कहाँ किसी ने बताया कभी। उसने गाइडों को भी बोलते हुए सुना है, पर उनके चेहरे पर उनका पेशेवराना अंदाज छपा रहता है लगातार, उनकी सीमाओं को बताता हुआ। सर बहुत कुछ बताना-कहना चाह रहे हैं उससे, उसे ऐसा लगा, इतना कि एक बात को अधबीच छोड़ दूसरी जगह आ ठिठकते हैं वे।
वे अशोक स्तंभ के सामने थे। अब बाड़े में कैद स्तंभ। जिसे कितने लोगों ने न जाने कितनी बार अपनी बाँहों में कैद कर कितनी मन्नतें माँगी थी, जिसके चिह्न उसके बदन पर थे। उसकी इच्छा हुई वह भी उसे बाहों में भर एक कामना करती, पूरे मन से... काश...
'पता है तुम्हें, यह आयरन पिलर पहले विष्णुपद पर था और उसके शिखर पर एक विष्णु ध्वज भी था, जो कालांतर में नहीं रहा। तुम सोच सकती हो गुप्त काल के लोग कितने एडवांस रहे होंगे। उन्हें स्टील बनाने की कला आती थी। इस पर कभी जंग लगते नहीं देखा गया। दूसरा अशोक स्तंभ जो मेरठ से लाया गया और टूट गया था, उसे लानेवाला फिरोज शाह तुगलक था और जिसे बाड़ा हिंदूराव के समय में जोड़ा गया था... इस पर ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है आदमी कैसे जिंदगी जिए...'
नंदिता वह पकड़ना चाहती है जो सर कहना चाहते हैं उससे, पर कौन सा छोर पकड़े वह। कहाँ से जोड़े बातों का सिरा। वह बहुत छोटी है... और इस वक्त तो जैसे और भी ज्यादा छोटी हो गई है। वह इस व्यक्ति का सामीप्य चाहती है; इसकी निकटता... लेकिन यह पास हो कर भी पास नहीं होगा और वह उसकी छत्रछाया में और सिकुड़-सिमट जाएगी। ठीक कहती है एमी...
वह साफ-साफ जानना चाहती है, उनका इरादा क्या है... वह कहती है उनसे 'यही सब कहने के लिए आए थे...'
'जो कहना था लिख कर भेज तो दिया था। फिर भी...' वे चुप रहते हैं थोड़ी देर... फिर कहते हैं, 'इस जगह पर जहाँ तुम खड़ी हो, इसे देखने के लिए लोग इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी टूट कर आते हैं। इसे बनाने केलिए 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़ा गया था। तुगलकाबाद जिसे हम आज सिरी फोर्ट के नाम से जानते हैं, को बनाते वक्त हूण और मंगोल जाति के लोगों को पकड़ कर उनके सिर काट कर नींव में दबाए गए। गयासुद्दीन तुगलक इसे अपनी राजधानी बनाना चाहता था... और और कितनी बातें कहूँ मैं...
'मैं उसी कौम का हूँ जिसके लिए तुम्हारी पद्मिनी और कितनी रानियों ने जौहर का व्रत लिया था। और... और...' उनका चेहरा उत्तेजना से लाल है। वे अपने अराजक गुस्से पर काबू करना चाहते हैं... 'क्या करोगी मेरी दुनिया मे आ कर...? मेरे दो बच्चे, बीवी... सौत बनोगी उसकी... उनकी सौतेली माँ... चलो मान भी लिया... हमारे समाज को इसमें कोई उज्र भी नहीं। पर खुद सोचो तुम, मुझ पर इल्जाम और तोहमतें लगेंगी... एक मासूम लड़की को... दूसरे कौम की लड़की को बरगला कर... अंजाम इससे भी बुरा हो सकता है नंदिता... दंगे... बलवा...'
'अतीत का बोझ यूँ भी मेरे सिर चढ़ रोता रहता है, बेताल की तरह... कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी अलग... तुम क्या... क्या चाहती हो मुझसे...?'
'कुछ भी नहीं।'
'कुछ भी नहीं तो फिर आई क्यों हो यहाँ?'
'मैं मीरा के देश की हूँ, उसी परंपरा में विश्वास करती हूँ। मैं आप से कुछ भी नहीं चाहती सर... कुछ भी नहीं।'
'मीरा बनने के लिए जीते-जागते इनसान के सामीप्य की जरूरत नहीं होती। बुत ढूँढ़ो कोई। मुझ से मिलना इतना जरूरी क्यों है... क्यों है तुम्हारे लिए...'
वह उठ कर चल देती है, चुपचाप। अपने आँसू कहीं भीतर ही पीती हुई। हिचकियों को कहीं अपने भीतर साधे... एमी नहीं है उसके पास... पर साथ है वह, रास्ते भर उसकी पीठ सहलाती, कंधे को अपने सिर से लगाए हुए...
उसे लगता है घर बिल्कुल भी न जाए वह, एमी के सामने तो बिल्कुल भी न पड़े। कभी भी नहीं... अपनी हार को लिए हुए तो और भी नहीं।
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Re: मेरा पता कोई और है /कविता

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एमीलिया ने नंदिता को जाते देखा है चुपचाप। उससे आँखें चुराकर जाते हुए। उससे कहे बगैर जाते हुए। उसने जाती हुई बहार को देखा है। उसे बेमौसम पतझड़ के आने की आशंका है और यह आशंका निराधार नहीं है। 21 साल की कोई लड़की अगर 52 साल के किसी पुरुष से जुड़ती है तो और क्या हो सकता है। नंदी अगर जीतती भी है तो भी हार उसी की है, और हारती है तो हार है ही...
उसने हमेशा नंदी में खुद को देखा है। वे एक जैसी नहीं हैं। पर एक जैसी हैं। एमीलिया जो नहीं है वह खुद को उसे बनाए रखने में जुटी रहती है। अपने भीतर की नंदी या नंदी जैसी को सुलाए रखने में। वह नंदी को देख-देख जी लेती है अपने वजूद का वह हिस्सा जो कहीं उसने दबाए रखा है। नंदी का साथ उसे इसलिए भी बेहद जरूरी लगता है।
आनंद जैन और इशिता पंडित की इकलौती बेटी, नंदिता, नंदिता जैन। माँ-बाप की दुलारी बेटी नंदिता जैन। नंदी के पास एक अपना घर है। बहुत ज्यादा ध्यान देनेवाले माता-पिता और अब उसके हनीफ सर। वह सारी खुशियाँ जिसे एमी ने हमेशा अपने लिए चाही थी... नंदिता के लिए वे खुशियाँ ही बंधन थीं। वह प्यार ही बंधन। चीजों को देखने-आँकने के दृष्टिकोण सबके अपने-अपने होते हैं। कोई अलग सा नाम भी नहीं सूझा उन्हें। मतलब क्या है नंदिता का? दोनों नाम इकट्ठा किए और जो कुछ उससे बन पड़ा बना लिया। मेरी अपनी पहचान-स्वायत्तता कुछ भी नहीं। मेरे नाम के प्रति उनका रवैया ही मेरे जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण का परिचय दे देता है। उनकी इच्छाओं की गुलाम। उनके लिए एक गुड़िया... यह नाम उन दोनों के प्यार का प्रतीक भी तो हो सकता है... भाड़ में जाए यह प्यार-व्यार, मुझे चिढ़ होती है इस तरह के और इतने ज्यादा प्यार से। मेरी साँसें घुटती हैं इस प्यार के तहखाने में। नंदिता तब भी कहती ही रहती है। सहज, सरल मृदुभाषिणी नंदिता। स्कूल में सबकी चहेती, वेल मैनर्ड...। घर के मुद्दे पर ही वह बिफरी सिंहनी क्यों हो जाती है, एमीलिया कभी समझ नहीं पाई।
खुद एमी का बचपन; एमी याद करना चाहे तो सिवाय माँ की स्मृतियों के उसे कुछ याद करने लायक लगता भी नहीं। नंदी को अपने नामकरण के जिस जोड़-घटाव से नफरत है वही जोड़ वही लगाव वह तलाशती रहती अपने नाम में। पर नाम बड़ा अजनबी सा उसके लिए...। उसने माँ से ही पूछा था एक दिन, उसका नाम ऐसा क्यूँ है? ऐसा मतलब? ऐसा मतलब बिल्कुल अलग-अलग सा। रंग रूप कद काठी सब में बिल्कुल अपनी माँ की उसी छवि की अनुकृति एमी का नाम विदेशियोंवाला। माँ चुप रही थी कुछ देर। तेरे पापा को पसंद था यह नाम। और तुम्हें? ...माँ चुप रही थी बहुत देर तक। ...उसने फिर माँ को छुआ, झकझोरा था। बोलो न माँ तुम्हें? ...माँ ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा था, उतना नहीं। मैंने सोचा था तेरा नाम दिव्या रखूँगी। दिव्या मतलब...? दिव्य, अलौकिक, अपरूप। मतलब जिसकी बराबरी कोई न कर सके। जो इस लोक का नहीं हो। तो फिर किस लोक का हो माँ? बच्ची एमीलिया की जिज्ञासा थमती ही नहीं थी कहीं। परियों की दुनिया से आई कोई परी, राजकुमारी।
वह खुश हुई थी उस नाम के अर्थ को जान-सुन कर... तो फिर रखना था न माँ। माँ कुछ उदासी से बोली थी - एमीलिया तेरे पापा की बहुत अच्छी दोस्त थी। तेरे पापा उसे बहुत पसंद करते थे। वह कहाँ है माँ? रूस में। तेरे पापा जब वहाँ थे; तभी उससे जान-पहचान हुई थी उनकी। तुम नहीं मिली कभी उससे? नहीं। उसकी तस्वीर देखी है? पता नहीं क्या सोच कर वह उससे पूछती है - तस्वीर देखेगी तू उसकी? उसने न जाने क्या सोच कर कहा था या कि बस बच्चोंवाली उत्सुकतावश - हाँ। पिता के कमरे में बहुत कम जानेवाली माँ उस दिन उनके कमरे में घुसी थी। बहुत ढूँढ़-ढाँढ़ कर एक पुराना एलबम निकाल लाई थी। चमकीला कवर। काले मोटे पन्ने के उपर एक पतला पारदर्शी कागज। वे पन्ने पलटती रही थीं और ठिठक गई थीं उस पन्ने तक आ कर। एमी चाहती थी माँ जल्दी से वह कागज पलटे और वह देख पाए उस औरत का चेहरा जिसका नाम उसे दिया गया है। माँ के हाथ ठिठके हुए हैं उसी जगह। एमी कहती है माँ, फोटो... वे चौंकती हैं जैसे, अरे हाँ... वे उस पतली सी पारदर्शी पन्नी को हटाती है। अंदर ब्लैक एंड ह्वाइट में ली गई तस्वीरें हैं। गोल-मटोल पर मोटी नहीं। लंबी, हृष्ट-पुष्ट। गोल से ही चेहरेवाली, भरे-भरे गालोंवाली। उजले स्कर्ट-शर्ट में एक औरत... पापा के कंधे से झूलती। कहीं पापा उसका हाथ थामे खड़े हैं। कहीं पता नहीं किस बात पर दोनों खिलखिला रहे हैं, हँस रहे हैं जोर-जोर से। और हैं माँ...? उसने उत्सुकतावश पूछा होगा। माँ ने कहा था 'हाँ, पर अब नहीं बेटा। कहते-कहते माँ की आँखें छलछलाई थीं। वह तब समझ नहीं पाई थी क्यों? अपने आँचल से पोंछा था उन्होंने आँखों को, एल्बम को उसकी सही जगह पर रख दिया था सलीके से और उसे ले कर पापा के कमरे से निकल आई थी। माँ के स्वरों की उदासी ने उसे जिद करने से रोक लिया था। वह चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी उनसे अगर और हैं तो वह उन्हें देख क्यों नहीं सकती? ...उसी रात पापा फिर बहुत नाराज थे... उनके सामान छुए तो किसने छुए? उनके कमरे में गया तो कौन? पिता के कमरे में सिर्फ पिता ही जाते थे। नौकर भी जब सफाई के लिए जाते तो पिता की उपस्थिति में ही।
माँ ने कहा था - एमी जिद कर रही थी। क्यों जिद कर रही थी वह, मेरे कमरे में ऐसा क्या है? और बच्ची जिस चीज के लिए जिद करे वह पूरा करना जरूरी है क्या? उसे हैरत हुई थी, माँ से ज्यादा तो पिता को ही उसकी इच्छाओं का खयाल था। वह जो कुछ माँगती पिता उसे तुरंत ला देते। फिर... और माँ झूठ क्यों बोल रही है उनसे? उसने तो नहीं कहा था वह पिता के कमरे में जाना चाहती है... उसने पापा से सच कहने को मुँह खोला ही था कि माँ के आँसू भरे चेहरे ने रोक लिया था उसे। माँ ने इसीलिए झूठ कहा होगा। पिता नाराज जो होते रहते हैं बिन बात उन पर। हर बात में गुस्सा, गुस्सा बस गुस्सा। पापा ने फिर अपना सारा सामान करीने से रखा था। ड्राअर्स में ताले लगाए थे। सब कुछ एक बार फिर से चेक किया था और क्लीनिक चले गए थे बगैर खाए... माँ ने भी फिर नहीं खाया था उस दिन कुछ।
उसे अब याद आता है, पापा और माँ को उसने औरों की तरह कभी हँसते-बतियाते नहीं देखा। एक साथ सोते भी नहीं। पर बचपन में उसे यह अजीब नहीं लगता था। अच्छा लगता था कि माँ उसके साथ सोती है। उसी के पास रहती है हर वक्त। पिता की जिंदगी में क्लीनिक, क्लीनिक और बस क्लीनिक। उन्हें काम से फुरसत नहीं होती थी, वे कभी काम से फुर्सत नहीं चाहते थे। यही था घर का हो कर भी घर से दूर रहने का उपाय। एक एमी ही थी जिसकी किलकारियाँ, जिसकी तुतली बातें उन्हें खींच लाती थी घर तक। जिसकी जिम्मेवारियाँ जिसके परवरिश के दायित्व से बँधे हुए थे वे। पिता जतलाते भी रहते थे हरदम माँ के लिए अपने व्यवहार से यह सब।
पिता ने तय कर लिया था। वे माँ से अलग हो कर एमीलिया से शादी कर लेंगे। बस जाएँगे वहीं। माँ तब मायके ही रहती थी अक्सर। दादी ने बहुत समझाया था फोन पर पिता को पर उनकी एक भी नहीं सुनी थी उन्होंने। हर बात पर अपनी माँ की बात माननेवाले पिता। माँ ने तब भी कुछ नहीं कहा था उनसे। नानाजी को बुलवाकर मायके चली गई थी। वहीं मालूम हुआ था माँ बननेवाली हैं वो। नानाजी ने दादी को फोन किया था। दादी ने पापा को। पापा लौट आए थे फिर अपने देश। माँ को भी बुलवा लिया गया था। दादी को भरोसा था, आनेवाला बच्चा बाँध लेगा उन्हें एक डोर से। वह माँ को भी यही दिलासा दिलाती रहतीं। पर उनकी गृहस्थी एक समझौता बन कर ही रह गई थी। एमीलिया ने बाँध लिया था अपनी नन्हीं सी मुट्ठी में अपने पापा का हाथ, अपनी भोली सी मुस्कुराहट से भर दिया था उनका मन। पर माँ से वह नहीं जोड़ पाई उन्हें कभी; वह उनके बीच की कड़ी कभी नहीं बन सकी। जब तक वह सब कुछ समझती, ढूँढ़ पाती कोई रास्ता, इतनी समझ आती उसके भीतर। माँ ही नहीं रही थी। ...सब्र और आँसुओं को पीते रहने की कोई सीमा तो होती होगी। माँ शायद उस सीमा को पार कर चुकी थी। उसे बहुत बुरा लगा था, माँ का उसे ऐसे अचानक छोड़ कर चले जाना। उसे अच्छा लगा था, माँ को रोते सिसकते अब नहीं देखना पड़ेगा। अब और आँसू और कष्ट नहीं होंगे उसके हिस्से। वह अकेली हो चली थी, बिल्कुल अकेली। पिता को उसकी फिक्र रहती। वे हमेशा उसके लिए समय निकालते, सरेशाम घर चले आते। उसे चिढ़ होती कभी पहले आए होते इस वक्त, माँ खुश होती। वे उसे बाजार ले जाना चाहते अपने साथ। वह इन्कार कर देती। कभी माँ को ले गए होते। वे उसके जितना नजदीक आने की कोशिश करते वह उतनी ही दूर भागती उनसे। उन्हें पास देख कर उसे माँ का आँसुओं से भीगा चेहरा याद आता। उसकी गुपचुप सिसकियाँ याद आतीं। ऐसे ही वक्त नंदी और उसके परिवार का सहारा उसके बहुत काम आया था। वह नंदी के घर में अपने सपनों का घर देखती। वहाँ उसे स्नेह मिलता, राहत मिलती। वह ज्यादा से ज्यादा वक्त नंदी के घर में बिताती। पापा उसे खुश देख कर खुश हो लेते। यूँ भी उन्होंने कभी उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई थी। वे बच्चों की स्वतंत्रता-स्वायत्तता के पक्षधर थे। वे उसकी इच्छाओं की परवाह करते थे, कद्र भी।
कभी-कभी नंदी भी उसके घर आ जाती; आती तो फिर जाने का नाम ही नहीं लेती। उसे भी अच्छा लगता था यह। अपनी स्मृतियों से, इस दमघोंटू एकांत से छुटकारा मिल जाता उसके आने से। नंदी चैन की साँस लेती। कॉफी पर कॉफी बनाती, पीती। तीखा-खट्टा खाती खूब-खूब पढ़ने का कह कर आती पर खूब गप्पबाजियाँ करतीं वे। नंदी कहती कितने अच्छे हैं तुम्हारे पापा। कभी किसी बात के लिए रोक-टोक नहीं। जो कहो वही मान लेते हैं चुपचाप। और एक मेरा घर, मेरे मम्मी-पापा...। वह मुस्कुरा भर देती नंदी की बात सुनकर। सिवाय मुस्कुराने के वह और कर भी क्या सकती थी। नंदी के मम्मी-पापा को भी नंदी का उसके घर रुकना कभी बुरा नहीं लगा, खला भी नहीं। उसकी साँस-साँस की गिनती रखनेवाले उसके मम्मी-पापा उसे उसके घर छोड़ देते थे, यह उसके लिए फक्र की बात थी। पर शायद नहीं... कारण कुछ और था। उन्होंने जो कुछ भी नंदिता में देखना चाहा था एमी के भीतर वह सब था। एमी मेधावी थी, एक अच्छी डांसर थी, एक अच्छी तैराक थी। एमी को म्यूजिक और लिटरेचर से लगाव था। नंदी को इन सब के लिए धकेल-धकेल कर थक गए थे वे। वे सोचते थे एमी के साथ से नंदी भी बदलेगी... और शायद सबसे ऊपर था एमी के पापा का डॉक्टर होना। नंदी के माता-पिता उसे डॉक्टर ही बनाना चाहते थे। वे सोचते एमी के घर का वातावरण उसे उत्प्रेरित करेगा।
इसी बीच दसवीं के रिजल्ट आए थे। दोनों के अंक अच्छे थे। नंदी के 81% और एमी के 85%। नंदी के मम्मी-पापा ने चाहा था वह दिल्ली जाए। वहीं किसी अच्छी कोचिंग में एडमिशन ले मेडिकल के प्रेपरेशन के लिए और आगे की पढ़ाई भी वहीं करे। नंदिता के लिए यह मुक्ति थी, आजादी थी। वह ना क्यों कहती। एमीलिया ने सोचा था वह भी जाएगी नंदी के साथ। इस तरह वह घर की स्मृतियों से पीछा छुड़ा सकेगी। और नंदी के बगैर... शायद पिता को भी आजादी मिल सके इस तरह। और उसके कारण जिन अनजाने बंधनों में जीते रहे वे उम्र भर उसका बोझ उनके सिर से उतर जाएगा... शायद वे अपनी एमीलिया को वापस ला सकें अपनी जिंदगी में... शायद वो चले जाएँ उसी के पास।
यूँ भी पिता को अपने सामने पाना उसके लिए एक त्रासदी थी... पिता के सामने होते उसे माँ याद आती; उनका दुख, उसके आँसू याद आते। उनका चला जाना याद आता। डॉक्टर की पत्नी का कैंसर से खत्म होना। वे अंतहीन दर्द को सहती रहती थी। पर वह दर्द उनके भीतर पलते दर्द से बड़ा नहीं था। जीना नहीं चाहती थीं वे, बिल्कुल भी नहीं। उन्होंने केमियोथेरैपी, रेडियेशन सब से मना कर दिया था। बीमारी भी फैल चुकी थी बहुत ज्यादा। 90% के आस-पास। वे रात-रात भर तड़पती रहतीं। पर एमी को इसका एहसास नहीं होने देना चाहती। कहतीं बस नींद नहीं आ रही थी। वे नहीं चाहती थी कि एमी को कोई बाधा पहुँचे, वह पढ़ नहीं पाए। वे हमेशा उसकी पढ़ाई को ले कर चिंतित रहतीं। वह कराहने की आवाज सुनती और दौड़ कर जाती उनके पास। वे दुत्कार देतीं उसे...जा पढ़, परीक्षा है तेरी। हर समय बच्चों की तरह क्या चिपकी चली आती है। उसे बुरा लगता। पर अब लगता है उसे अलगा रही थीं वे खुद से या फिर खुद को ही उससे। उसे छोड़ जाने की तैयारी में थीं वह।
उनका अंतिम वक्त का केशविहीन, केवल हड्डियों का ढाँचा रह गया शरीर... वह माफ नहीं कर पाती पिता को और उस एमीलिया को भी जो बेवजह उसके वजूद से आ चिपकी थी। पिता का माँ के अंतिम वक्त का बदलाव भी उसे कभी विचलित नहीं कर पाया। पिता दौड़ कर पानी देने जाते। माँ बाद में पानी बहा देतीं। पिता उससे दवा भिजवाते। सारी दवाइयाँ गद्दे के नीचे पड़ी मिली थीं बाद में जिसे देख बहुत रोई थी वह। माँ को उसका तो खयाल करना था, उसके लिए तो दवाएँ लेनी थी। पर नहीं... माँ पापा को माफ नहीं कर सकी थीं। वह सामने होते, कुछ पूछते वह बोलती ही नहीं। देखती तक नहीं उनकी तरफ। आँखें नीचे किए रहती।
माँ ने माफ कर दिया होता तो वह भी माफ कर देती शायद। अभी हनीफ सर को देख, उनके लिए नंदी का लगाव देख उसे पापा याद आते... तस्वीर में देखी गई एमीलिया याद आती। और बेतहाशा बुरा-भला कहती वह पहले हनीफ सर को फिर नंदी को... अब नंदी के भोलेपन और मासूमियत को देख वह मन ही मन नफरत भी नहीं कर पाती उस दूसरी एमीलिया से। उससे, जिसने उसके पापा को उसकी माँ से दूर रखा। वह जो उनके घर में साये की तरह बनी रही हमेशा। वह जिसके लिए उसके पिता ने उसकी माँ के प्रेम और सादगी को कभी महत्व नहीं दिया।
क्या नंदी जैसी ही भोली-भाली रही होगी वह? क्या उसका प्रेम भी इतना ही निश्छल और मासूम रहा होगा? कि सब कुछ बिना जाने-समझे हो गया होगा इसी तरह।
वह एमीलिया को कभी माफ कर भी दे तो पापा को नहीं माफ कर सकती। और इसीलिए हनीफ सर को भी... कभी भी नहीं... बिल्कुल भी नहीं।
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हनीफ को नंदिता का भोलापन बहुत पसंद है। अपने पर इस तरह बेतहाशा विश्वास और भरोसा किया जाना भी। वे देखते रहते हैं उसे दूर तक जाते हुए। वह मुड़ कर नहीं देखती एक भी बार। पतली-दुबली नंदिता का जिस्म हिल रहा है लगातार। हवाओं से नहीं रुलाई के झकोरों को भीतर दबाए रखने की जद्दोजहद में। वह ऑटो रिक्शा रुकवाती है और बैठ जाती है झटके से... वे देखते रहते हैं उसे जाते हुए दूर तक, टकटकी लगाए। काश वह उनकी मजबूरियों को समझ पाती... वे बाहर आते हैं, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहते हैं और बैठ जाते हैं यही सब सोचते-सोचते। उन्होंने उसे दुखी किया है, उन्हें अफसोस है। उन्होंने तो जान बूझ कर ऐसा कुछ भी नहीं किया। वे उसे समझाने जरूर आए थे पर उससे ज्यादा खुद को समझाने।
उनसे शायद गलती हुई थी। आना ही नहीं था उससे मिलने। पर वे रोक नहीं पाए थे खुद को आने से। खास कर वह जब ऐसे इसरार कर रही हो। उनका खुद पर से नियंत्रण खत्म हो गया था। उन्होंने कह दिया था आ रहा हूँ मैं। वे तब सोच रहे थे उससे मिल कर भी वही सब कहेंगे जो उन्होंने लिख कर भेजा है। मिल कर कहने से शायद लिखे हुए में कुछ वजन आ जाए। वह समझ सके उनकी बात थोड़े बेहतर तरीके से... पर शायद वो खुद को बहला रहे थे। दरअसल वे नंदिता की एक झलक देखने के लिए तरस गए थे इन दिनों। वे सोते जागते बस उसी के बारे में सोचते-रहते... उसकी खिलखिलाहट, मुस्कुराहट... सोचने का वह अलग सा ढंग... वह अपनी नाक में उँगली घुसा गोल-गोल घुमाती रहती। सोचते हैं वे... क्या यह तरीका घिनौना नहीं। घिन आनी चाहिए थी उन्हें उसकी इस हरकत पर। पर नहीं, उन्हें तो प्यार आता था उस पर और उसकी सारी उटपटाँग हरकतों पर भी...।
वे देखते थे पानी जहाँ कहीं भी दिख जाए कैंपस में, साफ या कि गँदला, वह उस में पाँव जरूर डालती। हल्के से थपकती उसे और थपकती रहती। तब तक जब तक कि एमीलिया उसे बाँहों से खींच कर वहाँ से बड़बड़ाती हुई हटा न ले। एमीलिया का हमेशा उसके साथ होना उनके लिए एक भरोसा था। वह साथ है तो नंदिता सुरक्षित है। वह साथ है तो... अपनी कमजोरियों से जब वह हारने लगते नंदिता का पिघलता-गलता चेहरा उन्हें याद आता। वे सोचते और पूरे भरोसे से सोचते, एमीलिया उबार लेगी उसे। वह उन से दूर ही रखेगी नंदिता को। चाहे कैसे भी... वे जानते थे बल्कि इससे ज्यादा भी कहें तो समझते थे, एमीलिया उनसे नफरत करती है। पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। बल्कि जितनी ज्यादा नफरत से वह उनकी ओर देखती वे मन ही मन उतना ही खुश हो लेते।
सोचते-सोचते वे घर तक आ पहुँचे हैं। घर पहुँच कर वे बीती सारी बातों को यूँ परे छोड़ देना चाहते हैं जैसे रास्ते में चिपक आई गर्दो-गुबार। वे माथा झटकते हैं अपना। शरीर भी झटका खाता है हौले से... पर नंदिता दूर छिटक कर नहीं जाती उनकी स्मृतियों से। उसका रुआँसा चेहरा, उसकी उदास आँखें चिपकी रह जाती हैं उनके वजूद के साथ। कुछ इस तरह कि नसीमा की खिलती मुस्कुराहट के जवाब में कोई हल्की सी जुंबिश तक भी नहीं आ पाती उनके होंठों पर, चेहरे पर। वो मुस्कुराती हुई कह रही है कुछ... चलिए आपको याद तो रहा... मैं तो डर रही थी, वादा कर के आप भले ही निकले हों, पर निकल गई यह बात कहीं खयाल से तो... मैंने तैयारियाँ पूरी कर ली है। आप नहा-धो लें। वे याद करना चाहते हैं। क्या याद रखना था उन्हें पर याद नहीं कर पाते। सुन कर ध्यान से बातों को समझना चाहते हैं वे, पर वह भी मुश्किल। वे पूछते हैं बेचैन होकर बच्चे... छुटका सो रहा है... वसीम निकला है अभी कहीं पड़ोस में... उसे जाने क्यों दिया, उसे बताया नहीं उसका शाम को रहना जरूरी है... आ जाएगा वह। वैसे भी कभी कहीं निकलता कहाँ... वे नसीमा को गौर से देखते हैं। इतनी गौर से जैसे पहले कभी देखा ही न हो उसे। उजली सलवार-कमीज, चिकन की हल्की-फुल्की कढ़ाईवाला। उजला ही दुपट्टा जिसे उसने इस वक्त सिर पर डाल रखा है। जिसे इस तरह डाल लेने से उसका गोल-मटोल चेहरा और गोल हो आया है। वे जैसे याद करते हैं, नसीमा का चेहरा पहले गोल और भरा-भरा नहीं था। कुछ लंबोतरा सा था, गाल धँसे नहीं पर उभरे हुए भी नहीं। कुछ -कुछ नंदी की तरह के। पर शायद नहीं। नंदी के तो कुछ उभरे हुए से हैं। चेहरे की बनावट में अलग से दिख जाते। उसके नक्श ऐसे ही अलग से दिख जानेवाले हैं। चेहरे में गुम होते नहीं, अपने होने को... अपने विशिष्ट होने को दर्शाते... बताते कि मैं हूँ... मैं सबसे अलग हूँ। नसीमा का अक्स तब भी और अब भी उसके चेहरे का हिस्सा है। उसमें घुले मिले, तरलता लिए हुए। वे चीख-चीख कर अपने होने का अहसास नहीं कराते बस होते हैं, जैसे कि खुद नसीमा।
नसीमा तौलिया, धुला कुर्ता पाजामा बाथरूम में रखने जा रही थी वे उसके हाथों से ले लेते हैं। मैं खुद ही ले जाता हूँ। वह एतराज नहीं करती, सौंप देती है उन्हें सब कुछ। वे जानते हैं नसीमा ऐसी ही है। उन्हें इसीलिए उसकी फिक्र रहती है और कुछ ज्यादा भी। वह कभी कुछ नहीं कहेगी। वे गलत भी हों तब भी। यही एहसास उन्हें गलतियाँ करते-करते थाम लेता है - नहीं...
वे जब नहा कर निकले तो भौंचक हो उठे, पूरा घर रोशनी से नहा उठा था। घर के लंबे-लंबे बाउंड्री वाल पर मोमबत्तियों और रंगीन बल्बों की लड़ियाँ जगमगा रही थीं। घर भी पूरा रोशन-रोशन। उन्होंने पूछना चाहा था नसीमा से कोई खास बात? कोई पार्टी-वार्टी है क्या... कहने को मुँह खोलते-खोलते मामला उनकी समझ में आ गया था। जानकर अपनी भुलक्कड़ी पर वे बेतरह खीजे थे, अगर नसीमा उनकी जिंदगी में न हो तो... तो...।
आगे की पाक की हुई जमीन पर वे बैठ गए थे चुपचाप। रूमाल के कोनों को अपने कानों पर अटकाते हुए उन्होंने अपना सिर ढक लिया था। सामने जरूरी चीजें फैली हुई थीं। काँच के एक गिलास में भरा हुआ अछूता पानी। छोटी सी कटोरियों में थोड़ी सी संदल, उसमे डले हुए गुलाब के फूल, आग से भरी उददानी, एक पुड़िया में पिसा हुआ लोबान। अगरबत्ती की खुशबू से माहौल खुशनुमा और पाक हुआ जा रहा था।
नसीमा बोली थी - आज शबे-बरात है, शबे कद्र की रात। उन्हें लगा जैसे सामने नसीमा नहीं बल्कि अम्मी खड़ी कह रही हों... भूली-बिसरी रूहें आज घर का रुख करती हैं, इबादतों और दुआ की रात है यह, जिस रात जन्नत के दरवाजे खुले हुए होते हैं। और इस एक रात की इबादत मतलब चार सौ बरस के सिजदे के बराबर... अजाब और गुनाहों से तौबा करने का बेशकीमती मौका होता है यह।
नसीमा आगे झुकी। काली जिल्दवाली एक कापी उसने उनकी ओर बढ़ाई। उन्होंने आगे बढ़ के उसे थाम लिया था। उनसे पहले उनके हाथों को उसका चिकनापन खला था। उन्हें याद आया पहले यह जिल्द चमड़े की नहीं होती थी। रुखड़ी सी, जगह-जगह से फटी हुई कूट के दस्तेवाली। अम्मी उसे जब भी थमाती कहती जरूर... मुई जगह-जगह से फटी-उड़ी जा रही है, कितना पुराना तो कागज है इसका पीला-बुसा। एक दिन जिल्दसाज को दे कर इसे बँधवा दे। पर अम्मी की यह पुकार और ललक भी सिर्फ एक दिन की ही होती। बाकी के 364 दिन बिसरा रिरियाता रहता वह किसी पुरानी-धुरानी ट्रंक के काले अँधेरे कोने में। और हनीफ को भी इस बीच कभी इसकी याद नहीं आती। वह समझ नहीं सका था यह करिश्मा कब हुआ। हुआ तो उसकी नजर उस पर आज और इसी वक्त क्यों गई? उसने दिमाग पर जोर डाला। पिछले कई वर्षों से वे इस दिन घर पर रहे ही नहीं। उनके पीछे वसीम ही पढ़ता रहा है फातिहा। शायद उसकी अम्मी ने भी उससे कहा हो - इसे जिल्दसाज को दे कर बँधवा दे बेटा। कितनी तो पुरानी हो चली है, मुई जगह-जगह से फटी पड़ रही है' और वसीम बँधवा लाया हो जिल्दसाज से उसे। उन्हें लगा उनका कद कुछ छोटा हो आया है अचानक। कि उनकी रीढ़ की हड्डियाँ घिस-घुस चुकी है बीचम बीच। वे बूढ़े हो चले हैं अचानक और बेकार भी। घर तो नसीमा और उसके बड़े बेटे वसीम ने सँभाल रखा है। वे तो बस पैसे थमा देते हैं हर महीने। वसीम सचमुच अपनी अम्मी का बेटा है। तहेदिल से। शक्ल, सूरत,सीरत और अक्ल सभी में। वह जहीन नहीं है अपनी माँ की तरह पर दुनियादारी में बिल्कुल परफेक्ट। माँ जो बोले वही मानता है और पूरे दिल से मानता है। वे कभी अपनी माँ के लिए वैसे नहीं हो पाए, चाह कर भी नहीं। वे बँटे रहे छोटी अम्मी और अम्मी के बीचम-बीच। कभी उन्हें वो सही लगती रहीं कभी ये। कभी वो ननहर रहे तो कभी अम्मी के पास। उनकी जहीनियत कभी इस फैसले पर नहीं पहुँच सकी कि सही कौन है। और छोटी अम्मी भी कोई दूसरी तो थी नहीं, उनकी अपनी छोटी मासी, माँ की लाड़ली, दुलारी बहन, जो बाद में बिल्कुल भी दुलारी नहीं रह गई थी।
वे सब बेचेहरे से नाम थे उनके लिए। नसीमा रोटियाँ बदलती, हलवा डालती तश्तरी में। वे फातिहा पढ़ते। फिर रोटियाँ बदल दी जाती चुपचाप। नसीमा ने फिर रोटियाँ बदली थी - कुदैशा बेगम... नाम उचारा था उसने। वे चौंक गए थे, छोटी अम्मी का चेहरा, गोरा, लाल भभूका सा उनकी आँखों के आगे आगे आ खड़ा हुआ था। हाँ छोटी अम्मी ही सबसे पहले... अब्बू और अम्मी से भी पहले। बहुत छोटी थी उम्र में। बिल्किस तब सिर्फ आठ साल की थी। अम्मी ने समेट लिया था तब उसे अपनी गोद में। नानी के सारे हील-हुज्जतों के बावजूद उसे अपने साथ लेती आई थी। वे कहतीं एकदम से कुस्सो है यह। वैसे ही गोद में चिपकी रहती है हरदम। वो भी उतनी बड़ी हो जाने पर भी पीछे-पीछे लगी रहती थी, इसी तरह।
अम्मी फूट-फूट कर रोई थीं। कुदैशा बेगम, उर्फ कुस्सो, उर्फ अपनी छोटी बहन उर्फ अपनी इकलौती सौत के इंतकाल पर। उन्हें अजीब लगा था यह सब। 18-19 की उम्र हो गई थी उनकी। वे अपने तई समझने-जानने लगे थे चीजों-बातों को। उन्हें अजीब लगता। वे जब भी ननिहाल जाते, अम्मी दिन भर बिसूरती रहतीं, कुस्सो के गर्क हो जाने की, खाक में मिल जाने की दुआएँ करती फिरती। कहतीं, बित्ते भर की जान इतनी घुइयाँ, इतनी चालाक निकलेगी वे कब जान पाई थीं। जानती तो इतना प्यार-दुलार ही न दिखाया होता। चौबीस घंटे गोद से चिपकी फिरती थी। अम्मी को कब फुर्सत थी कि वे... उन तीन बच्चों के होते न होते उसका शरीर टूट चुका था भीतर से। वह सबसे बड़ी थीं। सबकी जिम्मेवारी सँभाली उन्होंने। सबको खिलाया चोटियाँ की, कंघी किया, स्कूल भेजा। खुद की पढ़ाई कहाँ होती थी उस जमाने में। मौलवी आते थे। शुरुआती सलीका और दीनो-मजहब की बातें उन्हींने सिखाई... पर वे कुस्सो के लिए अड़ गई थीं, कुस्सो स्कूल जाएगी... और गोल-गोल टमाटर जैसे गालोंवाली उस लड़की को जब वे पहले दिन स्कूल छोड़ने गई थीं, उनके रानों में धँसी जा रही थी वह। कस के जकड़ रखा था उनकी टाँगों को। अलग करना चाहा था खुद से तो बुक्का फाड़ के रो पड़ी थी। किसी तरह स्कूल तो छोड़ आई थी वे उसे पर मन कहीं उसी में अटका रहा। वह जो उनके बिना न खाए, न पीए, न सोए। वह जो उनके पीछे-पीछे घूमती फिरे दिन भर... कैसे रही होगी उनके बगैर। ...शाम को अब्बू के उसके घर लाते ही उन्होंने उसे बाँहों में कस लिया था।
उनके उसी उन्स का तो फायदा उठाती रही वह हमेशा। उनके नए-नए दुपट्टे कतर कर अपनी गुड़िया के कपड़े बना डालती। वे कुछ नहीं कहतीं। उनके कंघे, रिबन, सुरमा सब इधर उधर करती रहती वो। थोड़ी बड़ी हुई तो उनके दुपट्टे, उनके सारे अच्छे कपड़े... वे कुछ भी नहीं कहती थी। चुपचाप पुराने-धुराने से ही मन मार लेतीं। खेलने-खाने के दिन हैं उसके। छुटकी थी सबसे। अब्बा रहते अब तक तो इस खूबसूरत सी जान पर सौ जान निछावर जाते। दुनिया भर की खुशियाँ रख देते उसके कदमों पर। लेकिन, बिचारी ने कुछ नही देखा तो नहीं देखा... इतने से ही खुश हो लेती है तो वे कौन होती हैं उसकी खुशियाँ छीन लेनेवाली। वे लाड़ करतीं फिर भी। छोटी तो है वो। पर वे शायद गफलत में ही रही थीं हमेशा। वह छोटी न जाने कब की बड़ी हो चुकी थी। इतनी बड़ी कि बहन की छोटी-छोटी चीजों से उसका मन नहीं भरनेवाला था। बहन की गृहस्थी, उसकी खुशियाँ सब की चाहत होने लगी थी उसे। तभी तो पूछा होगा अमिया से और अमिया ने कुस्सो से तो उसने मनाही न की... उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं टूटकर... जब रहमान मियाँ ने ही एक बार भी मना नहीं किया तो...
कोई आ गई होती... कोई भी... कोई हुस्नपरी या कि फिर कोई ऐरी-गैरी, ऐसी-वैसी, सब सिर माथे पर। पर उस कुस्सो के हाथों कैसे देखती रहती वे अपने शौहर को छिनते हुए। किए हैं उन्होंने वे सारे करम जिसके लिए पहले रहमान मियाँ और फिर हनीफ कुसूरवार समझता है उन्हें... और नहीं है उन्हें कोई अफसोस... वह क्या कोई भी औरतजात सह पाती यह सब कुछ?... और किया भी तो क्या... अच्छी सौत नहीं बन सकीं... सौत भी कभी अच्छी हुई है...?
कुस्सो ने ही क्या नहीं चाहा कि मौका मिलते ही रहमान मियाँ को मोड़ ले अपनी तरफ! वो तो वही खड़ी रही सख्तजान होकर... और फिर खुदा ने सुन ली उनकी... कोख हरी हुई तो पहले-पहल उन्हीं की, चाहे बरसों बाद ही सही।
और उन्होंने छोटी को अपने सारे मौके निकाल लेने के बाद वापस मायके भिजवा दिया। अब उसका काम भी क्या था इस घर में। और अब वह उनकी कुस्सो थी भी कहाँ, सिर्फ छोटी बन कर रह गई थी उनके लिए। हनीफ घुटनों चलने लगा था, गिरस्ती सँभलने लगी थी धीरे-धीरे कि वे चाहने लगी थीं कि उनकी गिरस्थी आजाद हो उस कुस्सो के चंगुल से। अब उसका इस घर में क्या काम। जो देने आई थी वो इस घर को और उसके शौहर को वह तो... या कि देने ही नहीं दिया था उन्होंने... और मारे जलन के उनकी सूखी-सिली हिम्मतहारी कोख अचानक से हरिया उठी थी, कुस्सो का आना जैसे उसे भी न सुहाया हो।
अम्मीजान की नजर भी बदलने लगी थी। जो कुस्सो उनकी आँख का तारा हुई जा रही थी, अचानक से दाई सरीखी होने को आई थी। वे कहती भी - इसमें गलत क्या है, बहन की ही तो टहल करनी है। बहन ने अपना शौहर दे दिया पर तूने क्या दिया बदले में। यह वही अम्मीजान थी जिसने बढ़कर अमिया से कुस्सो का हाथ माँगा था। अमिया भी वारी-वारी। बिलाशौहर तीन-तीन बेटियों को ब्याहते-निबटाते, उनके तीज-त्योहार की रसम पूरी करते-करते थक चली थी वो। इतनी ज्यादा कि बेचारी कुस्सो के लिए कुछ बचा ही नहीं रह गया था उनके पास। उल्टे कुस्सो ही छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेती और कुछ पैसे आ जाते उनके हाथ। नहीं तो पट्टीदारों-बटाईदारों से बच कर जो कुछ हाथ आता वह खींच तान कर बमुश्किल इतना होता कि किसी तरह उन दो जनियों का गुजारा हो जाए। अमिया को कुस्सो की चिंता सताती। इस तरह जवान-जहान बेटी को कब तक सिर बैठा के रखेंगी। वे हर आने-जानेवाले को कुस्सो के लिए कोई बढ़िया लड़का देखने को कहतीं। लोग कुस्सो को देखते, उसकी भोली खूबसूरती को देखते, लड़कों की फेहरिस्त दिमाग में आ जाती पर घर की माली हालत का ख्याल करते हुए वे बस इतना ही कहते - 'बताऊँगा कहीं कोई दिखा तो'।
नफीसा जब पिछली बार मायके गई थी वे और अमिया सारी रात बतियाती रही थी सिर्फ कुस्सो के बारे में। आसापास के लौंडे लफाड़े सामने जमघट लगा कर बैठने लगे थे। दिन भर पत्ती खेलते, हाहा हीही करते। कुस्सो को कहीं भेजना-निकालना भी मुश्किल। अब काम चाहे दो पैसे का ही हो, काम है तो वहीं निकलेंगी। और घर है तो सौ काम। दवाएँ, राशन, घर की घटी-बढ़ी चीजें। वे सोचती रही थीं उस रात शानो और बन्नो दोनों से बातें करेंगी। उन्हीं की तो जिम्मेदारी है कुस्सो। किसी तरह मिल जुल कर निबटा दे उसे। वे माँ की तरह बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि रुपए-पैसे की तंगी में किसी दुहाजू बूढ़े के संग निकाह हो उनकी छोटी सी बहन का। वे सोचती रही, थोड़ा बहुत ही सही पढ़ा-लिखा हो। कमा खा लेने की हैसियत रखता हो और शक्ल से बहुत खूबसूरत न सही बदशक्ल भी न हो। वे तीन-तीन बहनें मिल कर भी क्या कुस्सो के लिए इतना नहीं कर पाएँगी। एक ऐसा लड़का... उसने सोचा रहमान मियाँ से भी बात करेगी वह इस बाबत।
सुबह जब वे सो कर उठीं कुस्सो उनके लिए नहाने का पानी गर्म कर के रख रही थी। साबुन, तौलिए सब अपनी जगह दुरुस्त... उन्होंने ध्यान से देखा दिन पर दिन कितनी खूबसूरत होती जा रही है कुस्सो। वे तीनों बहनें तो कभी ऐसी नहीं रही। साधारण सी शक्ल-सूरत साधारण सा बढ़ाव। बस रंग अमिया जैसा शफ्फाक। यही खूबी उन्हें खूबसूरतों की कतार में ला खड़ा करती। पर कुस्सो... हर तरह से खूबसूरत, कद, बुत, रंग, जिस्म सबसे। फूले-फूले गुलाबी-सुर्ख गाल। बड़ी-बड़ी काली आँखें। उनकी और शानो की आँखें तो अमिया की तरह भूरी हैं, कुईस आँखें। बन्नो की आँखें काली तो हैं लेकिन कुस्सो जितनी बड़ी-बड़ी और गहरी नहीं। उन्हें जलन हुई थी पल भर को कुस्सो से। इसे ही होना था इतना खूबसूरत। वह भी तब जब घर में पाई-कौड़ी तक का ठिकाना नहीं। किसी ऐसे-वैसे से ब्याही गई तो लंगूर-अंगूरवाली कहावत हो जाएगी। और खुदा न खास्ता कुछ ऐसा-वैसा ही हो जाए तो... ताक में बैठे हैं दुश्मन... वे सोच कर ही घबड़ा उठी थीं। सोच की इस बेख्याली में तौलिया उनके हाथ से छूट कर गिर पड़ा था। कुस्सो खिलखिला कर हँस पड़ी थी बेसाख्ता। खिलखिला कर हँसती हुई कुस्सो को देख कर उन्हें गुस्सा आया था। जोर से चीखीं थी वे। इसमें इस तरह खिलखिला कर हँसने की कौन सी बात हो गई। वह चुप हो गई थी अचानक। अमिया ने भी उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाई थी। जनी जात को इस तरह हँसना भाता नहीं... लड़कियों की तरह रहना सीख। फिर उन्हें लगा था बेवजह ही बरस गईं वे उस पर। इत्ती सी उम्र में इतने सारे बोझ, घर का इतना सारा काम और हँसने पर भी पहरे। वे और शानो तो इससे बड़ी होने पर भी अमिया की गोद में घुस कर बैठ जाती थीं। इतनी बेपरवाह कि दुपट्टे-कपड़े तक का शऊर नहीं। हर बात पर खिखियाती फिरतीं। और अब्बू तो जैसे इसी पर वारी-वारी रहते।
वे जब सरापा कुस्सो की फिक्र में जुटी थीं, मायके से अपने घर तक... उसी बीच जिंदगी ने नए रुख ले लिए थे। उनके आने के बाद अम्मीजान मिलने गई थीं अमिया से। अम्मी जान पहले भी मिलने जाती रही थीं अमिया से, इसमें उन्हें क्या उज्र होती। और यूँ भी अम्मी जान के किसी काम में उज्र करे या अपनी टाँग अड़ाये इतनी उनकी हैसियत ही कहाँ थी। पर जाने का अंजाम ऐसा भी होगा या हो सकता है नफीसा बेगम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वरना वो जैसे भी होता, जिस तरह भी बन पड़ता अम्मी जान को अपने मायके नहीं जाने देती।
उन्हें सोच कर तकलीफ होती, अमिया ने कैसे मान ली उनकी बात? और कुस्सो... उसे खयाल भी नहीं आया कि इस तरह वह अपनी अपिया का घर, उसकी जिंदगी तबाह करेगी। पढ़ी-लिखी लड़की ठहरी इतनी तो समझ होगी ही उसे... पर कौन सी मजबूरी थी आखिर...।
उन्हें पता थी सारी मजबूरियाँ। पर वे मजबूरियाँ अभी छोटी जान पड़तीं। वे तो तैयार ही थीं कुस्सो का ब्याह करवाने की खातिर। अमिया ने थोड़ा तो इंतजार किया होता। उसके बारे में नहीं तो रहमान मियाँ की उम्र के बाबत ही सोचा होता। पर अमिया को सोचने-समझने की फुर्सत ही कहाँ थी। बसा-बसाया घर दिख रहा था उन्हें, भरा-पूरा। अपनी आजादी दिख रही थी... अपनी जिम्मेदारी से आजाद होने का खयाल... वह खयाल, जिसकी चिंता में वे दिन-रात घुल रही थी। बस नहीं दिख रही थी तो अपनी बच्ची नफीसा। उनकी निगाह से तो कुछ भी हैरतअंगेज नहीं था। वे न कर देतीं तो उनकी सास कोई और रिश्ता माँग लाती। फिर बुरा क्या था कि कुस्सो ही उनके घर जाए। कम से कम बहन का लिहाज तो रहेगा उसे। खयाल ही रखेगी हमेशा की तरह अपनी अपिया का। सौत बन कर छाती पर मूँग नहीं दलेगी।
अम्मी जान ने छह साल की लंबाई को खींच तान कर इतना बड़ा कर दिया था कि उसके बोझ के तले वे तो अधमरी हुई ही जा रही थी। रहमान मियाँ तक ने भी उफ नहीं किया।
या कि वे भी चाहते थे यही सब कुछ। सोच-सोच कर उनका कलेजा मुँह को आने को होता। पर वे बेचारी सी, करती भी तो क्या। एक कोने में बैठी चुपचाप देखती रही सारा खेल। ब्याह तो ऐसे रचा रही थीं अम्मीजान जैसे पहले-पहल घोड़ी चढ़ने जा रहे हों रहमान मियाँ, 16-18 की उम्र हुई होगी उनकी। साज-सिंगार हौसला... कमी किस चीज की थी। उन्हें दुख होता, इतनी हौस तो पहली बार भी न दिखाई थी उन्होंने... गहमागहमी ऐसी कि अपना दुख बाँटनेवाला कोई कोना न दिखे। रिश्तेदारों की लपक-झपक, चुहल। खदबद-खदबद पकते तरह-तरह के गोश्त... रंग-बिरंगे मसालों की खुश्बू। देग में हमेशा हमेशा कुछ खदबदाता रहता। भाप के गुबार से जाड़े के सर्द दिन भपाए हुए से हल्के नरम-गरम। और कोई छोड़ता कहाँ था उसे, न काम में पेरने से न ताने मारने से। का हुआ भौजाई, बहिन ही तो आ रही है, रानी बन के रहना। मन लगा रहेगा दोनों का। रहमान भाई तो ऐसे भी काम में फँसे रहते हैं। उन्होंने भँड़ास बर्तन-भाड़े पर निकाली थी... धम्म... धुम्म... खट... खटाक...
रमजान मियाँ शायद कपड़े बदल रहे थे। बर्तनों की उठापटक से मन नहीं भरा तो लाज-हया सब छोड़ कर दरवाजे की ओट में लिपट गई थी उनसे। ऐसा कौन सा गुनाह हो गया था हम से... एक बार बस एक बार झूठ ही सही मना तो कर देते अम्मी जान से। मेरा कलेजा जुड़ा गया होता। मैंने आपकी खिदमत में कौन सी कमी छोड़ी थी... आप ही तो कहते थे कि तुम्हारे बगैर अपनी जिंदगी की मैं सोच भी नहीं सकता। फिर मेरी जगह पर किसी और को लाने को कैसे तैयार हो गए आप? उसने देखा था रहमान मियाँ पसीजे थे... उनकी बाँहें उसके इर्द-गिर्द कसी थी, फुसफुसाए थे वे, कोई देख तो नहीं रहा होगा... वह हरी हुई थी भीतर से... देख लेने दीजिए, कौन सी चोरी कर रहे हैं हम। आपकी बीवी हूँ मैं। निकाह पढ़ा कर लाए हैं मुझे। यह अलग बात है मुझमें वो बात नहीं है। उसे लगा उसके सिर पर से ससरा है कुछ कीड़े जैसा, वह माथे तक आया तो समझ पाई रहमान मियाँ के मन का गीलापन था। वह बेकार ही दोष देती रहती है उन्हें, अब बेचारा मर्द तो हर तरफ से मारा जाता है औरतों की तरह बहस, जिरह चिल्ला चिल्ली तो करने से रहा। रहमान मियाँ को पिघलते जान उसने मन की बातें पुख्तगी से जारी रखी...। एक बच्चे के न होने ने... मुझ से मेरे ये सारे हक छीन लिए हैं। मैं कहती हूँ कौन सी उमर बीत गई है मेरी। अभी तो चौबीस को भी नहीं लगी। छ: साल न हुए...। उसे लगा रहमान मियाँ की पकड़ ढीली हुई फिर फिसल गई ऊपर-ऊपर। मुझे एक जरूरी काम याद आ रहा है। वैसे भी घर लोगों से अटा पड़ा है... वे झटके से निकल गए थे। वे जब कमरे से निकली तो उन्हें लगता रहा सब के सब लोग उन्हें ही देख कर हँस रहे हैं। वे जैसे नजरें चुराती फिर रही थीं सबसे। वे आँगन तक निकल आई थी वहाँ। जहाँ रिश्तेदार औरतें सालन के लिए ढेरमढेर प्याज काटने के लिए बैठी थी। उन्हें देखा तो किसी ने पुकार भी लिया इधर उधर कहाँ डोलती फिर रही हो दुल्हन बी? ये न कि थोड़ा हाथ ही बँटा दे हम बूढ़ियों का। चचिया अभी आई कह कर वे चुपचाप बैठ कर प्याज काटने लगी थी। भीतर उमड़-घुमड़ करते आँसू जैसे बाहर निकलने का रास्ता पा गए हों। वे आँसुओं को बहने दे रही थी चुपचाप। अभी मौका है... यही मौका है। किसी ने टोका भी था छोड़ भी दो दुल्हन बी, इस तरह जार-जार आँसू बहाओ तो... आपा जान या रहमान मियाँ ने देख लिया तो... वे फिर भी नहीं उठी थी। बहने दिया था अपने आँसुओं को।
वे सोच रही थी एक ही पल में रहमान मियाँ ने उसे किस तरह परे ढकेल दिया, सिर्फ एक औलाद न होने के कारण न। उन्होंने अपनी हथेलियाँ हौले से पेट पर फिराई थीं। इसी कोख की कारण सब कुछ। इसी कोख ने उनकी छोटी बहन को छोटी नहीं रहने दिया था...। फिर भी जब वे ही माँ बनी तो कैसे भूल जातीं वह सब कुछ। उन्होंने अपने हाथ से छूटी जा रही बागडोर को एक बार फिर अपने हाथों में सँभाल लिया था। अम्मीजान बीमार रहने लगी थीं। पर वे पलट कर भी नहीं देखती उनकी तरफ। उनकी लाड़ली कुदैशा तो है ही, ले आई थीं जिसे बड़े चाव से। करे उनकी सेवादारी। वे पल भर को भी नहीं सोच पाती थीं कि छोटी उनकी अपनी ही बहन है। सगी बहन। बाद में कुदैशा को भी अमिया के घर भिजवा के ही दम लिया था और अम्मीजान का काम दाई नौकरों के हाथ। इस तरह पल भर को उनके कलेजे की बेचैनी कमी थी। पर बस पल भर के लिए। वे जब-जब खुश होने की कोशिश करतीं कहीं से कूद कर आगे आ जातीं वह और जब-तब वो अपनी सारी भँड़ास रहमान मियाँ पर ले कर टूट पड़ती। जितना कड़वा-कसैला था भीतर वे सब बहा देना चाहती। पर वह फिर-फिर उग आता था नमीवाली जगह पर उग आनेवाली काई की तरह।
धीरे-धीरे उन्होंने गौर किया था, रहमान मियाँ तो उससे दूर-दूर ही रहते। छोटा हनीफ भी दूर-दूर भागने लगा था उनसे। रहमान मियाँ की तरह गाहे बगाहे बहाने-बहाने अमिया के घर डेरा डालने लगा था। वहाँ से ले आओ या मँगवा लो तो वो लोटमपोट कि उनका जी घबड़ा उठता। घबड़ा कर सोचती पड़े रहने दो वहीं। उनका क्या कमा जाता है इससे। बेटा तो उन्हीं का कहलाएगा। पर कभी-कभी मन बेतरह कसक उठता। उनके हिस्से सब कुछ था पर कुछ भी नहीं। और उस छोटी के... ऐसे में ही उसका प्यार जीतने की खातिर दस-बारह बरस के हनीफ को बगल में सुलाए-सुलाए ये कथा-व्यथा सुनाई थी...
...पता नहीं कितना और क्या समझा था उसने। पर अब पहले की तरह दूर-दूर नहीं भागता था उनसे। कभी-कभी बगल में आ लेटता। और जब तब उनके पेट में टाँगें घुसेड़ कर, बालों में ऊँगलियाँ फँसा कर सो जाता वह तो उनका मन पल भर को अपने सारे दुख भूल जाता। वह सोचती कुस्सो के हिस्से में ये खुशियाँ कहाँ। अगर हनीफ सो ही लेता होगा ऐसे लिपट कर तो फिर भी मन में एक कसक तो होती होगी... यह उसका खुद का जना होता, उसकी अपनी औलाद... बाद में आई भी तो बिलकिस, उसके गम को और गाढ़ा और पुख्ता करने...। इसी दुख ने लील लिया होगा उसे। वे अपने सिर से जैसे सारे इल्जाम हटा देना चाहती, हनीफ के आगे...
... नसीमा ने अपने सिर का दुपट्टा सँभालते-सँभालते जब अब्बू के नाम की रोटियाँ बदली तब तक वे अम्मी और छोटी अम्मी की यादों से उलझे हुए थे बेपनाह। अब्बू अब सब से बड़े कसूरवार थे उनकी नजर में। अम्मी से तो वे जुड़ भी चले थे धीरे-धीरे पर उन्हें वे कभी माफ नहीं कर पाए। बाकोशिश उनकी किसी याद को उन्होंने इस वक्त भी अपने पास नहीं फटकने दिया। वे मशीन की तरह नसीमा का कहा-किया दुहरा रहे थे बस...।
...पल भर को उन्हें खयाल आया था कल को वसीम भी अगर उनसे इसी तरह नफरत करे तो...? अब्बू के पास तो झूठी-सच्ची ही सही कई मजबूरियाँ थीं, कई दवाब... पर वे? उन्हें अब्बू के नाम का फातिहा पढ़ते-पढ़ते अम्मी की बात याद हो आई - 'अजाब और गुनाहों से तौबा करने की रात है यह। ईबादतों और दुआ की रात।' नसीमा के चेहरे को बराबर देखते हुए उन्होंने एक अनकहा फातिहा नंदिता के नाम का भी पढ़ा था - 'यह अनकहा रिश्ता, भूल-चूक, गिले-शिकवे, सब के सब आज यहीं खत्म। बीती कहानी कभी नहीं दुहराई जाएगी... हर्गिज नहीं... उनके हाथों तो कभी भी नहीं।
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Re: मेरा पता कोई और है /कविता

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सुबह बहुत सीली-सीली थी। दिसंबर की आम सुबहों की तरह हल्की गीली, पोली। नंदिता अभी-अभी नहा कर निकली थी। कुछ कपड़े भी धो डाले थे उसने, अपने और हनीफ सर के। इसलिए हल्की कँपकँपाहट हो रही थी उसे। उसने कॉफी का मग तैयार किया और बाल्कनी में आ बैठी। अखबार अभी आया नहीं था। वह सोच रही थी करे भी तो क्या करे। यूँ करने को बहुत कुछ था। थीसिस अधूरी थी। बहुत दिनों से उसने घर फोन नहीं किया था। माँ की बीमारी की खबर जानने के बाद भी... बात करने का बहुत मन होने के बाद भी। वह जानती थी माँ की इस हालत की जिम्मेवार कहीं वह भी है। पर वह आखिर करे भी तो क्या? अगर फोन किया उसने तो माँ फिर शुरू हो जाएँगी। हनीफ सर के लिए अनाप-शनाप बकेंगी और वह सह नहीं पाएगी। उल्टे अगर उसके मुँह से कुछ निकल गया तो... नहीं, वह ऐसा नहीं होने देना चाहती...। मोबाइल वह कमरे में रख आई थी। फिर क्या करे वह...? उसे एक अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। कोई तीखी सी गंध जैसे नथुनों में पसर रही हो, तेजी से। एक अजीब सी घबड़ाहट। हनीफ सर को फोन करे वह...? नहीं अभी परसों ही तो आए थे वे। और अभी तो वे कान्फ्रेंस के लिए मुंबई पहुँचे ही होंगे...। तो फिर क्या करे वह...? तो क्या सब ठीक ही कहते हैं... उम्र के इसी पड़ाव पर यदि इतना अकेलापन है तो बाद में उसके हिस्से सिर्फ एकांत ही बचेगा। आखिरकार उसने अपनी यह नियति भी तो खुद ही चुनी है। उसे बेतरह घबड़ाहट होने लगी थी। खुद से... अपने घर से... अपने आस पास के माहौल से... उसने बाल्कनी से बाहर देखना चाहा। वहाँ भी बस एक अजीब सा सन्नाटा। माना कि जाड़े की धुर सुबह थी यह... लेकिन स्कूल, कालेज या दफ्तर को ही निकलता कोई व्यक्ति... एक भी इनसान उसे क्यों नहीं दिख रहा दूर-दूर तक... उसकी तलाश जितनी अधिक बढ़ रही थी उसकी घबड़ाहट उससे भी दुगुनी गति से। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी थी कोई आए... कोई आ जाए... एमी ही आ जाए... पर एमी से बातचीत हुए महीनों बीत गए थे। अंतिम बार भी बात बस बहस पर ही आ थमी थी। वह समझाकर नहीं थकती और वह नहीं समझ कर। उसके बाद दोनों ने यही ठीक समझा था कि वे जितना कम मिलें वही बेहतर।
हनीफ सर के होने से इस घर, इसकी दरोदीवारें और खुद उसमें एक नई जान आ जाती है। वह अगला-पिछला सब भूल उठती है उनकी छाया में। ...बस वे और वह। जैसे साधारण से साधारण बात, साधारण से साधारण चीज सब अद्वितीय हुई जा रही हो। सब के सब पल अविस्मरणीय। छोटी से छोटी बातें भी बहुत महत। इन्हीं पलों की चाहत में तो वह इतना बड़ा फैसला ले पाई। वर्ना वह एक कमजोर सी लड़की... उसमें तो एमी जितनी हिम्मत और ताकत भी नहीं। हनीफ सर के कद-बुत ने जैसे उसे भी एक ऊँचाई दी हो...। उसी ऊँचाई, उसी प्रेम-बोध में डूबी वह बिता लेती थी जीवन के और सारे दिन। वे सारे दिन, जब हनीफ सर उसके पास नहीं होते थे, वह यादों की चादर को कस कर ताने रहती अपनी चारों तरफ जिसकी गर्माई और शीतलता मौसमानुकूल उसका कवच बन तनी रहती उसके इर्द-गिर्द। जहाँ बाहर के वातावरण का कोई कण-क्षण प्रवेश नहीं कर पाता था। पर इन दिनों वह देख रही थी, वह चादर थोड़ी पुरानी हो चली थी। हालाँकि नंदिता का मन यह मानने को तैयार नहीं होता था पर अब जब भी वह उसे अपने इर्द-गिर्द लपेट सुकून और चैन से दो पल बिताना चाहती धूल कण की तरह छोटी-छोटी श्रृंखलाएँ उसे आ घेरतीं। नाचतीं चारों तरफ इस हद तक कि उसे परेशान करने लगतीं। वह हैरान थी यह सोच कर कि ऐसा हुआ तो कैसे और कब?
वह चौंकी थी दरवाजे पर कोई दस्तक हुई थी। कौन होगा... तो क्या उसकी प्रार्थना ही रंग ले आई? वह इस तरह खयालों में डूबी थी कि बाल्कनी में होने के बावजूद किसी का आना देख नहीं पाई। विचारश्रृंखलाओं से बँधी-बिंधी वह दरवाजे तक आ पहुँची थी। दरवाजे पर अखबारवाला था। साथ में बिल होने के कारण उसने दरवाजे पर दस्तक दी थी। वह अखबार समेट कर भीतर आई थी और पुनः उसी बाल्कनी में... उसने बेमन से अखबार खोला था। पर अखबार खोलते ही उसकी बेदिली काफूर हो चली थी। उसका अकेलापन भी खो चला था जैसे। ऐसा अक्सर होता है। जब-जब एमीलिया का कुछ लिखा वह अखबार में पाती है। बल्कि पहले साथ-साथ होने पर वह जैसे अखबार के इंतजार में ही रहती थी। एमी कहती थी ऐसा भी क्या इंतजार... लिखना मेरा काम था... लिखने से मैं खुद को रोक नहीं सकी थी। यह इंतजार तो औरों में हो... और इंतजार से भी ज्यादा प्रतीक्षा मुझे उस छोटे से बदलाव की होती है जिसकी आशा में मैं इस जद्दोजहद से बार-बार गुजरती हूँ...
उसके मन से किसी प्रिय की प्रतीक्षा खत्म हो चुकी थी। एमी साथ नहीं थी पर सामने थी उसके। रात को जाग-जाग कर लिखती... बेचैनी में चहलकदमी करती। उसकी या खुद की बनाई कॉफी पीती और फिर-फिर लिखती। उसने लेख को पढ़ना शुरू किया था...। उसे लगा वह एमी से बात ही कर रही है... बल्कि बात न कर के सुन रही है उसे भोली-भौंचक सी हमेशा की तरह। लेख दिल्ली महिला आयोग के उस निर्णय की प्रतिक्रिया में था जिसमें छोटी बच्चियों को भी यौन शोषण और अपराधों के खिलाफ प्रशिक्षित करने की बात थी। शीर्षक था - रक्षा में हत्या। उसने पढ़ा था - तर्क यह कहता है कि जिन छोटी बच्चियों को खुद से कपड़ा पहनने, मुँह धुलने तक का शऊर नहीं, जिन्हें भूख-प्यास और तमाम दैनंदिन आवश्यकताओं के लिए अपने से बड़ों, खास कर स्त्रियों पर आश्रित रहना पड़ता है उन्हें हम समझाँ तो क्या, कितना और कैसे। कितना शंकालु बनाएँ कि वो सामनेवाले की नीयत भाँप सके। कि वो पिता और ताऊ की गोद में जा कर न बैठे, भाई से लाड़ न लड़ाए... क्या इस तरह हम मासूम बच्चियों से उसका बचपन नहीं छीन लेंगे। मर्ज कहीं और ईलाज कहींवाली स्थिति है यह। कौन सा सपना होगा फिर उन आँखों में, रिश्तों के प्रति औन सी संवेदना बची रह जाएगी उनके कोमल हृदय में। कैसा होगा फिर उनका बचपन, डरा-सहमा किसी अनजान-अनहोनी की आशंका से इतनी भयभीत? क्या हमारे लाख प्रयासों के बावजूद ये इतनी हिम्मत जुटा पाएँगी कि जवान और बलिष्ठ पुरुष शरीरों का भरपूर प्रतिरोध कर सकें। जबकि परिपक्व और समझदार स्त्रियाँ चार पुरुषों से घेर लिए जाने पर खुद को अवश और असहाय पाती हैं... गरीबी और भुखमरी से जूझते झुग्गी झोपड़ियों की बच्चियों में कितनी और कैसी शारीरिक शक्ति भर पाएँगे हम...?
एमी ने आगे लिखा था... जरूरत यह है कि बाल बलात्कार के मामलों को अन्य बलात्कार के मामले से जोड़कर न देखा जाय क्योंकि दोनों के बीच मूलभूत अंतर है। उतना ही बड़ा अंतर जितना कि एक मासूम और परिपक्व के शारीरिक और मानसिक बुनावट के बीच होता है। इसके लिए सरकार और न्यायपालिका को कड़ा से कड़ा नियम बनाना चाहिए और इसका सख्ती से पालन होना चाहिए कि बलात्कृत होकर या कि बलात्कार से बचने की प्रक्रिया में किसी के बचपने के साथ बलात्कार न हो...
लेख को पढ़ने के बाद उसका मन बहुत उदास हो आया था। कितनी देर तक बैठी रही थी वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी। फिर जब थोड़ा चेती एमी को एसएमएस किया - लेख बहुत अच्छा था, पढ़ कर जैसे मन विचलित हो उठा। मिलना चाहती हूँ, क्या तुम भी चाहोगी? उसे याद नहीं कि पिछला एसएमएस उसने एमी को कब किया था। वह एसएमएस बहुत कम करती थी। एमी के ही एसएमएस आते रहते थे अक्सर। बातचीत जब लगभग बंद थी उस अवधि में भी। कभी वह उसके एसएमएस से खुश होती थी। पर अब उसके भेजे गए संदेशों से उसे चिढ़ होने लगी थी, जहाँ उसे याद करने या कि उसकी याद आने की भावना से ज्यादा अब वह हनीफ सर और उसके रिश्ते के प्रति अप्रत्यक्ष में अनाम सा जहर ही पाती थी। वह अक्सर सोचती आखिर एमी कब तक ऐसा करती रहेगी। अब जब कि उसके ऐसा करने का कुछ भी मतलब ही नहीं रह जाता।
वह चाहती तो एमी को फोन कर सकती थी पर उसने ऐसा नहीं किया। एसएमएस में अपना कह लेने और दूसरे से रूबरू न होने की आजादी तो थी ही... और दूसरे को भी यह स्वतंत्रता थी कि मन हो तो आपका कहा सुने, माने, जवाब दे कि न दे... नंदिता के मन में झेंप, शर्म, पीड़ा, दुख और अवसाद सब के सब घुले पड़े थे और वह नहीं चाहती थी कि उसकी बातों के साथ यह सब भी एमी तक संप्रेषित हो। फोन सुनना मजबूरी हो सकती है पर एसएमएस पढ़ना...।
एसएमएस भेजने के बाद नंदी प्रतीक्षा करती रही देर तक... या कि वक्त का वह छोटा सा टुकड़ा ही रबड़ की तरह खिंचा चला जा रहा था। उसमें अजीब सा अनमनापन घर करने लगा था। क्यों भेजा उसने मैसेज। ऐसे तो उसने भी कभी एमी के संदेश का जवाब देना तक उचित नहीं समझा फिर आज...। एमी भी उसे जवाब क्यों दे... उससे उम्मीद क्यों? वह उठ कर ब्रेड सेंकने चल दी थी, नाश्ते के लिए। नाश्ता अभी आधा-अधूरा ही तैयार हुआ था कि उसने सुना मोबाइल की घंटी टनटनाई थी, संक्षिप्त सी। वह भागी थी। एमी का ही एसएमएस था - शुक्रिया। अगर व्यस्तता न हो तो तुम जब चाहो और जहाँ, लेकिन शाम के चार बजे से पहले तक ही। ...फिर ठीक, लोदी गार्डेन। दोनों के लिए दूरी समान होगी और थोड़ी धूप भी सेंक पाएँगे हम इन दड़बों से निकल कर। नंदिता ने फिर से एसएमएस ही किया था, फोन नहीं। अब आमना-सामना एक बार ही।
वह तय कर के निकली थी आज चाहे जो हो वह एमी की बातों का बुरा नहीं मानेगी। उसकी अपनी दृष्टि है और वह गलत भी तो नहीं। उसी के भले के लिए तो कहती है वह... उससे प्यार करती है इसी खातिर न। मम्मी पापा तो कितने-कितने दिन दिनों तक नहीं बोलते हैं उससे, एक वही है जो कभी मन में कुछ रखती नहीं।
सुबह के दस बजे होंगे। कुहरा छँट गया था आसमान से। सुबह गुनगुनी हो उठी थी। नर्म, मुलायम सी। सेंक से मन हुलस रहा था। दूर तक फैली हरी घास, पुरानी इमारतें और इस ठंड में भी पेड़ों की ओट में छिपते-दिखते दुनिया से बेखबर जोड़े। उन्हें अभी कुछ से मतलब नहीं था। नीचे हरी घास और ऊपर धूप से भरा आसमान और उन के बीच वे दोनों थीं। यह नेमत थी उनके लिए जो बहुत दिनों बाद नसीब हुई थी उन्हें। वे मूँगफलियाँ टूँगती हुई एक दूसरे को देख रही थीं। बहुत दुबली हो गई है तू... और तू तो मुटा कर जैसे अम्मा हुई जा रही है... एमी ने कहा बिल्कुल खयाल नहीं रखती तू अपना, दोनों ने लगभग साथ-साथ ही कहा था एक दूसरे से और हँस पड़ी थीं साथ-साथ। उनकी हँसी से घुल कर धूप और खिल उठी थी। घास और हरी-हरी और सामने के खंडहरनुमा इमारत में भी जैसे चमक जैसा चमक उठा था कुछ।
पापा आए थे, एमी ने धीरे से कहा... फिर...। बहुत कमजोर और उदास लग रहे थे। कुछ कह रहे थे... क्या कहते, सिवाय इसके कि सैटल हो जाओ अब। जितना कुछ करना-धरना था सब तो कर लिया। और यदि नहीं करनी शादी तो मेरे पास चली आओ या मैं ही तुम्हारे साथ... अब अकेले रहा नहीं जाता। हम दोनों को ही एक दूसरे के सहारे की जरूरत है... क्या सोचा तुम ने? कहती क्या, इसमें से कुछ भी संभव नहीं। वे न अपनी क्लीनिक छोड़ कर यहाँ आएँगे और न मैं सुबह शाम उन्हें अपने सामने बर्दाश्त ही कर पाऊँगी। दूर रह कर कभी-कभी तो सहानुभूति से सोच भी पाती हूँ उनके पक्ष में। जब साथ रहूँगी तो फिर वही पुराना... तब और अब में बहुत अंतर है। शायद सब कुछ अब सुलझ सके। शायद अब तुम उन्हें माफ कर सको। एक बार कोशिश तो कर ही सकती हो। नंदिता सोच कर आई थी कि एक-दूसरे की जाती जिंदगी में दखल नहीं देंगे पर आज एमी ने कुछ नहीं कहा तो वही शुरू हो गई... अचानक बात बदलने के लिए उसने कहा था... सामने के मकबरे को तुमने गौर से देखा है कभी। इसकी आकृति अष्टभुज जैसी है न। आम मकबरों में ऐसा कभी नहीं होता। अष्टभुज हिंदू मैथॉलजी का एक पवित्र चिह्न है। और इसकी छतरियाँ भी लाल बलुई पत्थर की नहीं बनी है, आम मकबरों जैसी। इन छतरियों में राजपूत शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। दो संस्कृतियों का एक दूसरे में घुल-मिल जाना इसी को कहते हैं। एमी हँसी थी खिलखिलाकर, इतना खिलखिलाकर कि सामने पीले सूट और नीली कमीजवाली जोड़ी चौंक कर छिटक पड़ी थी एक दूसरे की बाँहों से। नंदी तू भी... यह सब तुझे हनीफ सर ने बताया होगा न... तू अब उनकी ही बोली बोलने लगी है... बिल्कुल उनकी बोली... कैसे हैं वो...?
नंदिता एक वर्जित प्रदेश से बचते-बचाते दूसरे से आ टकराई थी। जैसे किसी नदी में नाव खे रही हो और एक टापू से बचने की फिराक में दूसरे से लगने-लगने को हो आई हो। वह बेखयाली भी अपनेपन से जाग कर थोड़ी चौकन्नी हो उठी थी। अब जो कुछ भी बोलना है बहुत सोच-समझ कर। बात फिर किसी गलत दिशा की तरफ रुख न कर ले। पर कहानियाँ बनाना उसे ठीक से आता नहीं था। यह एमी ही कहती थी। मुँह से जो निकला वह बिल्कुल सच था। कोरा सच... ठीक हैं वो... एक बार आई थी उनके साथ। बहुत चाव से ले कर आए थे वे। पर आते ही मूड बिगाड़ लिया था... 'हद कर दी है इन लोगों ने, कोई भी जगह नहीं छोड़ी, कोई भी किला पार्क या फिर ऐतिहासिक स्थल। हर जगह लिपटे-चिपटे मिल जाएँगे। जैसे उनसे बाहर जो दुनिया है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है उनके लिए।' वह चौंकी थी उनके क्रोध के अचानक आए इस झोंके से। वह ही नहीं चौंकी थी सिर्फ, एक दूसरे से लिपटा ठीक सामनेवाला जोड़ा जैसे क्षण भर को हिचका था, थमा था। पर क्षण भर को ही... हम लौट चलते हैं नंदी, हनीफ सर ने कहा था। उसने हौले से उनकी हथेलियाँ थामी थी... ऐसा भी क्या हो गया अचानक। इतने दिनों से कहते-कहते तो हम आज निकल पाएँ हैं... कुछ भी नहीं, बस मन नहीं रहा अब। ...वे उसकी हथेलियों पर उल्टे अपना जोर कसने लगे थे लौट चलने के लिए। उसे हँसी आ गई थी। कोई और होता तो... किस बात से कतराते हैं वे, किस चीज से... क्या अपने आप से... अपने मन में बसे आदिम इच्छाओं से...? पर उसने कहा बस इतना भर था... क्या कर रहे हैं वे... प्यार भर हीं न... कोई तो जगह, कोई तो कोना चाहिए उन्हें भी अपना सा, जहाँ बेफिक्र वे मिल सकें... आप तो सर... बजरंग दल और शिव सैनिकों की तरह रिऐक्ट कर रहे हैं...। तुम भी नंदी... तुम भी ऐसा सोचती हो तो हैरत होती है मुझे। देह, बस देह प्यार नहीं होता है... प्यार तो एक कोमल सा एहसास होता है जो अपनी मौजूदगी-गैर मौजूदगी में लपेटे रहता है हमें अपनी नर्म सी उपस्थिति से... देह कहाँ मायने रखती है तब... यह रह ही कहाँ जाती है तब... नंदी तुम... तुम्हें तो यह समझाने की जरूरत नहीं है। वे दोनों वापस लौट आए थे फिर...।
नंदी ने एमी के कहे के समर्थन में सिर्फ हामी में सिर भर हिलाया था। उसने सोच कर देखा था अगर वह उससे यह सब कहेगी तो यह सफाई जैसा ही कुछ होगा। और सफाई देने की उसकी फितरत नहीं थी और न हीं इच्छा।
दोपहर ढल रही थी धीरे-धीरे। धीरे-धीरे बातें करते-करते वे चुप हो चली थीं। हमेशा की तरह, जो कहता था कि अब वे दो हैं। अब वे अपना अलग-अलग वजूद चाहती हैं कि अपनी अलग-अलग दुनिया में खो जाना है उन्हें। ऐसा साथ रहने पर भी होता था कई बार। वे बाहर निकल आई थीं। एमी ने जैसे इशारों-इशारों में जाने की इजाजत माँगी हो। नंदिता डर उठी थी क्षण भर को... फिर वही एकांत, फिर वही अकेलापन। उसने धीमे से पूछा था कहाँ जाना है तुझे? क्या वहाँ मैं तेरे साथ-साथ चल सकती हूँ...? एमी जैसे चौंकी थी। एक क्षण को, फिर सँभली थी... थोड़ा थम कर बोली थी वो... चल क्यों नहीं सकती पर पता नहीं वहाँ तुम्हें कैसा लगे... मन लगे भी कि न लगे। तू जहाँ रहेगी मुझे अच्छा ही लगेगा... कहती तो है वो पर पर मन ही मन सोचती है, ऐसे दिन भी आ गए उनकी जिंदगी में कि उन्हें आज एक-दूसरे से यह कहने की जरूरत भी आन पड़ी। कितनी अलग राहें हो गई उनकी, जाने-अनजाने में ही सही।
ऑटो रिक्शा देर तक चलने के बाद शहर से बहुत दूर निकल आया था। गर्दो गुबार चेहरे-कपड़े ढकने लगे थे। कँकड़ीले, टूटे-फूटे रास्ते पर गाड़ी कभी उछलती कभी फुदकती। पेट में पहले कुछ गुदगुदी सी हुई थी और फिर कुछ मरोड़ सा। उसे याद आया, खाने के नाम पर ठोस कुछ उसके पेट में आज गया नहीं था। ब्रेड भी सिंका-अधसिंका छूटा ही रह गया था, एमीलिया के मैसेज के आने के बाद। क्या एमी भी ऐसा ही महसूस कर रही होगी।
गाड़ी रुकी थी झटके से। वे सारे बच्चे बाहर निकल आए थे और एमी को घेर लिया था उन्होंने। फिर उसे देख एमी से भी अलग हट कर खड़े हो लिए थे। एमी मुस्कुराई थी। ये भी दीदी हैं, आपकी एक और दीदी। मेरी सबसे अच्छी फ्रेंड...। जैसे तुम और निकिता... उसने एक गोल-मटोल बच्ची का गाल छुआ था। पर आप तो बड़े हो न? हम भी इतने से ही थे और तभी से दोस्त हैं। निकिता कही जानेवाली लड़की के चेहरे पर एक आश्चर्य का भाव पुत सा गया था। सच्ची...। उसने शब्द को खींचा था। नंदी की नजर सामने लगे बोर्ड पर पड़ी थी। गाढ़े-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ और छोटे लाल अक्षरों में नीचे लिखा हुआ था - 'आनंदवन' : जीवन के प्रति एक अटूट विश्वास। सच्ची...। एमी ने भी जवाब वैसे ही खींच कर दिया था। उसने गुलथुल सी एक बच्ची को गोद में उठा लिया था। कैसी है गुड़िया? ठीक... ठीक... एमी ने फिर प्रश्न नहीं किया था। हाँ, पल आपसे गुच्छा हूँ। त्यों... त्यों कि आप बहुत दिनों बाद आए हो... आई तो हूँ न बेटा। और बहुत सारी चीजें लाई हूँ आपके लिए। छच... बच्ची की आँखें विस्फरित हुईं। उसके चेहरे का नकली सूजापन कमा था। दरबान ने कहा था दीदी जी जल्दी अंदर आइए। मिली की तबीयत सुबह से ही खराब है, बेहोश है वह। डॉक्टर ने कहा है ब्लड की जरूरत है उसे। आपको इसीलिए बुलवाया। एमी ने आँखों ही आँखों में कहा, पता है उसे। उसने बच्ची को उसकी गोद में थमाया और तेजी से एक कमरे की तरफ बढ़ी थी वह... मैं क्या करूँ समझ नहीं पा रही थी... फिर आदतन वह एमी के पीछे चल दी थी हमेशा की तरह। सामने एक कमरा था। कमरे में दो बेड थे पहले से ही, दोनों पर आक्सीजन और ग्लूकोज चढ़ाए जाने के सरंजाम। एक बेड पर सात-आठ साल की खूबसूरत नक्श पर पीले निचुड़े चेहरेवाली एक बच्ची। दूसरे खाली बेड पर एमी लेट गई थी चुपचाप। डॉक्टर ने पूछा था कुछ खाया-पीया है न, उसने कहना चाहा था नहीं... पर एमी ने नंदी को निगाहों से ही बरजते हुए कहा था 'हाँ'। प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, एमी आँखें बंद किए पड़ी थी। बच्ची को करवट कराया जा चुका था। बेड सीट गीला था कमर के नीचे, रक्त से सनी हुई। वह सिहर उठी। चादर बदल दी गई थी। बच्ची पूर्ववत थी। सब कुछ से अनजान। निस्पंद... वह वहीं स्टूल पर एमी की हथेलियाँ थामे बैठ गई थी। एमी की मुँदी आँखें खुली थी, उसने देखा था उसे क्षण भर को फिर आँखें बंद कर ली थी। वह अंदाजा लगाना चाह रही थी एमी के कष्ट का। पर चेहरे से कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सिवाय अतिरिक्त थकान की मुद्रा के। वक्त लंबा खिंचा था कि लगा था उसे। नहीं... बच्ची के चेहरे पर थोड़ा हरापन दिखा था। पर कोई छोटी प्रक्रिया नहीं थी यह न ही कोई छोटी बात। बेड से उठती एमी के सहारे के लिए उसके हाथ बढ़े थे। वह हँसी थी इसकी कोई जरूरत नहीं। इतनी कमजोर भी नहीं हुई मैं... उसने अपना हाथ फिर भी पीछे नहीं किया था। एमी ने डाक्टर से पूछा था हुआ क्या था आखिर...? कुछ नहीं... ठीक होते-होते सब बिगड़ गया था अचानक। वही दौरा आ पड़ा था मिली को। फिर जिस्म ऐंठ गया। ब्लीडिंग होनी शुरू हो गई थी। इसीलिए आपको फोन किया। ओ निगेटिव ब्लड ग्रुप का इससे जल्दी कोई दूसरा इंतजाम मेरी समझ में नहीं आ रहा था... सॉरी...। एमी हँसी थी एक मासूम सी हँसी। इसमे सॉरी की कौन सी बात है डॉक्टर...। अम्मा कहाँ हैं? बाहर गई हैं। निजाम को वापस लाने। उस नए घर में एडजस्ट नहीं कर पा रहा वह।
वे बाहर निकलने को थीं कि 16-17 साल के एक लड़के ने आकर उन्हें रोक लिया। अम्मा नहीं तो क्या दीदी ऐसे ही चली जाएँगी। उसे पता था कि दीदी आज आनेवाली है और इसीलिए उसने मक्के की रोटी और सरसों की साग पकाई है। गुड़ की भेलियाँ भी मँगवाई सुबह-सुबह। सब खत्म हो चली थी।
उन दोनों ने छक कर खाया, खूब खेली बच्चों के साथ। जब निकलने को हुई तो नंदी का जैसे मन ही नहीं हो रहा था कि वह जाए...। एमी ने अपनी जिंदगी को किस तरह एक सार्थक दिशा दी है और एक वह... प्यार-प्यार करती खुद को चौबीस घंटे एक कमरे में कैद कर लिया है।
एमी भी जानती है कि बदल गई है वह, तभी तो सोच रही थी कि उसे अच्छा लगेगा यहाँ या नहीं। वरना उसे तो पता ही था बच्चों के बीच कितना अच्छा महसूसती है वह।
वे लौट रही थीं कि नंदी अचानक मुड़ी थी सामनेवाले उस कमरे की तरफ। बेसुध पड़ी बच्ची का सिर उसने सहलाया था धीरे से। उसके चेहरे पर हौले से अपनी उँगलियाँ फिराई थी, जैसे उसकी खुद की बच्ची हो वह...
वे दोनों सारे रास्ते चुपचाप थीं, अपने-अपने घर पहुँचने तक। नंदिता की आँखों के सामने उस मासूम सी बच्ची मिली का चेहरा बार-बार घूम जा रहा था... उसे एमी के लेख का मर्म अब समझ आया था।
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