“फिर मृत्यु का कारण ?”
“क्या जाने बेटा...साधू के दुश्मन भी तो कम नहीं थे।” ताऊ जी ने कहा – “अब तो हमे सिर्फ उनका दाह संस्कार करना है।”
मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पिता की मृत्यु स्वाभाविक मौत नहीं है, उसके पीछे कोई न कोई भेद अवश्य है। न जाने कौन सी बात मस्तिष्क में खटक रही थी फिर भी मैंने इस जांच पड़ताल में पड़ना मुनासिब नहीं समझा।
इस प्रकार एक बुराई का अंत हो चुका था। सवेरे मेरे पिता की चिता शमशान घाट पर लग गई। उस समय बारिश थम चुकी थी पर बादलों ने आसमान खाली नहीं किया था।
वह भारी भरकम बरगद शमशान से आधा फर्लांग दूर पार्श्व भाग में खड़ा था, और मैं बार-बार उसी की तरफ देखे जा रहा था। पिछली रात शम्भू ने उसी बरगद का जिक्र किया था – उसका कथन था आग वहीं लगी थी और वह अगिया बेताल का घर था।
लेकिन इस वक़्त वहां कुछ भी नहीं था। पूरे शमशान में पिछली रात लगी आग का कोई निशान तक न था न ही वहां पिछले सात रोज से किसी की चिता जली थी।
पिता की मृत्यु पर बाल मुंडवाने की रीति पूर्वजों से चली आ रही थी अतः मुझे भी उस रीति को दोहराना पड़ा और नउए ने बड़ी बेदर्दी से मेरे लच्छेदार घुंगराले बाल उड़ा कर खोपड़ी को सफाचट कर दिया।
दाह संस्कार हो गया।
आखिर चिता जल कर राख हो गई।
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Horror अगिया बेताल
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Re: Horror अगिया बेताल
नये मकान पर ताला डालकर मैं क़स्बा सूरजगढ़ की और चल दिया, वहां हमारा पुराना मकान था। मुझे यह देखना था कि मेरे पिता के पास कितनी जमीं-जायदाद शेष रही थी। पूरे अट्ठारह साल बाद मैं उस कस्बे में लौट रहा था।
ताऊ जी ने मुझे बताया था कि मेरे पिता की तीसरी पत्नी इसी मकान में रह रही है। वह उसी जगह रह कर अपने पति का शोक मना रही है।
गंजे सर को ढकने के लिए मैंने उस पर कपड़ा लपेट दिया था। मेरे लठैत साथी विदा हो गए थे। और वे लोग भी, जिन्होंने चिता में मेरा साथ दिया था।
इन अट्ठारह बरसों में सूरजगढ़ काफी विकसित हो गया था, उसका क्षेत्रफल बढ़ गया था और वहां बिजली की राहत भी पहुच गई थी, फिर भी कस्बे के अधिकांश घरों में बिजली नहीं पहुची थी। किन्तु सरकार ने अपने कोटे में सूरजगढ़ का नाम भी लिख लिया था, वह भी ठाकुर भानुप्रताप की दौड़ धूप से हो पाया था, अन्यथा नया डैम बनने तक समस्या उलझी हुई थी।
सूरजगढ़ का सबसे शक्ति संपन्न व्यक्ति ठाकुर भानुप्रताप सिंह ही था, जिसका दूर दराज तक बोलबाला था, गढ़ी में रजवाड़ो की शान अब भी देखने को मिलती थी। भानुप्रताप आज भी सूरजगढ़ी को अपनी मिलकियत समझते थे।
जब मैं कस्बे में पहुंचा तो सूरज ढलने को आ रहा था। वृक्षों के साये लम्बे पड़ने लगे थे और पक्षी अपने रैन बसेरों की ओर उड़ने लगे थे। आसमान पर अब इक्का-दुक्का खरगोशी रंग के बादल तैर रहे थे, जो अब शाम के धुँधलके में खोते जा रहे थे।
मकानों की छतों पर हल्की लालिमा शेष थी परन्तु आँगन सुरमई होने लगे थे। कस्बे में छोटे मोटे झोपड़ो से ले कर आलीशान मकान तक नजर आ रहे थे।
मुझे अपना पुराना मकान तलाश करने में अधिक देर नहीं लगी। यह मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, और इसमें अजीब से खोखलेपन का बोध होता था। शायद इस बूढ़े मकान की बरसों से मरम्मत नहीं हुई थी और यह ढहने को तैयार था।
यही वह मकान था, जहाँ मेरा जन्म हुआ था। इसी मकान के आँगन में मेरा बचपन खेला, मानस पटल पर इसकी हलकी सी स्मृति शेष थी।
आँगन में घास उग आई थी। नीम का पेड़ बूढा हो चला था, ऐसा जान पड़ता जैसे मकान का मनहूस साया उस पर भी पड़ता रहा हो और वह भी दिन-ब-दिन सूखता चला गया हो।
सूने आँगन को पार करता हुआ मैं मकान की दहलीज़ पर चढ़ गया। दरवाज़ा खुला था। भीतर कुछ स्त्रियों के धीमे-धीमे बात करने का स्वर उत्पन्न हो रहा था।
सीधे अन्दर जाने की बजाय मैंने कुंडा बजा दिया।
कुंडे की खोखली ठन-ठन कुछ सेकंड गूंजी।]
भीतर की बातचीत थम गई।
एक बूढी औरत दृष्टिगोचर हुई।
मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“कौन हो बेटा?” बुढ़िया ने क्षीण स्वर में पूछा।
“रोहताश!”
“रोहताश... अरे बबुआ तू है...।” बुढ़िया के स्वर क्षणिक ख़ुशी आई फिर विलीन हो गई।
“हाँ मैं हूँ ... साधुनाथ का बेटा... यह घर हमारा ही है ना ...।” मैंने अपनी शंका का समाधान किया
“हाँ बेटा तेरा ही है। मुझे पहचाना नहीं... अरे मैं दादी हूँ... तुझे गोद में खिलाया है बेटा... कितना बड़ा हो गया है तू... पर बेटा – बहुत देर हो गई।”
“मैं भीतर आऊं...?”
मैं नहीं पहचान पाया कि वह कौन है... मुझे याद न था की मुझे किस-किस ने गोद में खिलाया था।
बुढ़िया ने रास्ता छोड़ दिया।
“तेरा बापू तुझे बहुत याद करता रहता था बेटा... बहुत रोता था—बेचारे को संतान का सुख भी नहीं मिला...।”
वह मुझे एक कमरे में ले गई जिसमे एक टूटी सी चारपाई पड़ी थी और फर्श पर दरियों के कुछ टुकड़े बिछे हुए थे।
“बेटा तू ठीक है ना]...।”
“हां... आप लोग कैसी हैं।”
“अरे हमारा क्या बेटा – अब तो कब्र में पैर लटक रहें है—अच्छा, तू बैठ मैं तेरी मां को खबर देती हूँ।”
ताऊ जी ने मुझे बताया था कि मेरे पिता की तीसरी पत्नी इसी मकान में रह रही है। वह उसी जगह रह कर अपने पति का शोक मना रही है।
गंजे सर को ढकने के लिए मैंने उस पर कपड़ा लपेट दिया था। मेरे लठैत साथी विदा हो गए थे। और वे लोग भी, जिन्होंने चिता में मेरा साथ दिया था।
इन अट्ठारह बरसों में सूरजगढ़ काफी विकसित हो गया था, उसका क्षेत्रफल बढ़ गया था और वहां बिजली की राहत भी पहुच गई थी, फिर भी कस्बे के अधिकांश घरों में बिजली नहीं पहुची थी। किन्तु सरकार ने अपने कोटे में सूरजगढ़ का नाम भी लिख लिया था, वह भी ठाकुर भानुप्रताप की दौड़ धूप से हो पाया था, अन्यथा नया डैम बनने तक समस्या उलझी हुई थी।
सूरजगढ़ का सबसे शक्ति संपन्न व्यक्ति ठाकुर भानुप्रताप सिंह ही था, जिसका दूर दराज तक बोलबाला था, गढ़ी में रजवाड़ो की शान अब भी देखने को मिलती थी। भानुप्रताप आज भी सूरजगढ़ी को अपनी मिलकियत समझते थे।
जब मैं कस्बे में पहुंचा तो सूरज ढलने को आ रहा था। वृक्षों के साये लम्बे पड़ने लगे थे और पक्षी अपने रैन बसेरों की ओर उड़ने लगे थे। आसमान पर अब इक्का-दुक्का खरगोशी रंग के बादल तैर रहे थे, जो अब शाम के धुँधलके में खोते जा रहे थे।
मकानों की छतों पर हल्की लालिमा शेष थी परन्तु आँगन सुरमई होने लगे थे। कस्बे में छोटे मोटे झोपड़ो से ले कर आलीशान मकान तक नजर आ रहे थे।
मुझे अपना पुराना मकान तलाश करने में अधिक देर नहीं लगी। यह मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, और इसमें अजीब से खोखलेपन का बोध होता था। शायद इस बूढ़े मकान की बरसों से मरम्मत नहीं हुई थी और यह ढहने को तैयार था।
यही वह मकान था, जहाँ मेरा जन्म हुआ था। इसी मकान के आँगन में मेरा बचपन खेला, मानस पटल पर इसकी हलकी सी स्मृति शेष थी।
आँगन में घास उग आई थी। नीम का पेड़ बूढा हो चला था, ऐसा जान पड़ता जैसे मकान का मनहूस साया उस पर भी पड़ता रहा हो और वह भी दिन-ब-दिन सूखता चला गया हो।
सूने आँगन को पार करता हुआ मैं मकान की दहलीज़ पर चढ़ गया। दरवाज़ा खुला था। भीतर कुछ स्त्रियों के धीमे-धीमे बात करने का स्वर उत्पन्न हो रहा था।
सीधे अन्दर जाने की बजाय मैंने कुंडा बजा दिया।
कुंडे की खोखली ठन-ठन कुछ सेकंड गूंजी।]
भीतर की बातचीत थम गई।
एक बूढी औरत दृष्टिगोचर हुई।
मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“कौन हो बेटा?” बुढ़िया ने क्षीण स्वर में पूछा।
“रोहताश!”
“रोहताश... अरे बबुआ तू है...।” बुढ़िया के स्वर क्षणिक ख़ुशी आई फिर विलीन हो गई।
“हाँ मैं हूँ ... साधुनाथ का बेटा... यह घर हमारा ही है ना ...।” मैंने अपनी शंका का समाधान किया
“हाँ बेटा तेरा ही है। मुझे पहचाना नहीं... अरे मैं दादी हूँ... तुझे गोद में खिलाया है बेटा... कितना बड़ा हो गया है तू... पर बेटा – बहुत देर हो गई।”
“मैं भीतर आऊं...?”
मैं नहीं पहचान पाया कि वह कौन है... मुझे याद न था की मुझे किस-किस ने गोद में खिलाया था।
बुढ़िया ने रास्ता छोड़ दिया।
“तेरा बापू तुझे बहुत याद करता रहता था बेटा... बहुत रोता था—बेचारे को संतान का सुख भी नहीं मिला...।”
वह मुझे एक कमरे में ले गई जिसमे एक टूटी सी चारपाई पड़ी थी और फर्श पर दरियों के कुछ टुकड़े बिछे हुए थे।
“बेटा तू ठीक है ना]...।”
“हां... आप लोग कैसी हैं।”
“अरे हमारा क्या बेटा – अब तो कब्र में पैर लटक रहें है—अच्छा, तू बैठ मैं तेरी मां को खबर देती हूँ।”
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Re: Horror अगिया बेताल
“माँ।”
बुढ़िया चली गई।
“कौन सी माँ ?”
“मुझे तो याद भी नहीं था मेरी माँ कैसी थी – कौन थी—पर मेरे पिता ने तो मेरे लिए तीसरी माँ का इन्तजाम किया था। न जाने कौन होगी – कैसी होगी – बहरहाल रिश्ते में तो मेरी माँ ही हुई
मेरा पिता जिस जिस से भी विवाह करता, वह मेरी माँ ही कहलाती। मुझे अपने आप से घृणा होने लगी। काश कि मैं साधुराम का बेटा न होता।
कुछ देर में बहुत सी स्त्रियाँ उस कमरे में एकत्रित हो गई, जिसकी दीवारों का मैं ठीक से जायजा भी नहीं ले पाया था। मेरी निगाहें झुकी हुई थी।
“बेटा...तुम आ गये ...।” धीमा सा स्वर सुनाई पड़ा।
न जाने उनमे से कौन बोला था। मैंने नजरें ऊपर कर देखा कमरे में आधा दर्जन स्त्रियाँ थीं। कोई जवान कोई अधेड़। उनमे से एक युवती ऐसी भी थी जो स्वेत वस्त्रों में थी। उसकी नंगी कलाईयाँ, सूनी मांग इस बात का प्रमाण थी की वह विधवा है। उसके नाक नक्श तीखे थे और रंग गोरा था।
मैंने अनुमान लगाया कि वही युवती चन्द्रावती है। मेरी तीसरी मां, जिसकी आयु मुझसे भी कम है, वह कम से कम मुझसे छः बरस छोटी लगती थी, और अभी वह पूर्णतया स्त्री भी नहीं बन पाई थी। यह अन्याय नहीं तो क्या था। मेर पिता ने मरते मरते भी अन्याय किया था।
वह मेरी तरफ देखे जा रही थी।
मैंने सभी को हाथ जोड़े और स्त्रियाँ बिखरकर मेरे चारो तरफ बैठ गयी। उनके धीमे-धीमे स्वर मेरे कानों में पड़ते रहे, और मैं हूँ... हाँ... या ना... में जवाब देता रहा। मेरे पास कहने को कुछ नहीं था।
अधिक रात बीतने पर वे चली गई, सिर्फ एक बुढ़िया रह गई, जिसके दर्शन मैंने आरम्भ में किए थे।
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सवेरा हुआ।
मैंने अपने आपको काफी हल्का महसूस किया। बुढ़िया मेरे लिए चाय बना कर लाई।
“क्यों रे... तूने अपनी मां से बात भी नहीं की...।” उसने कहा।
“मैं क्या बात करता...।”
“कम से कम उसके दुखी मन को सांत्वना तो दे देता... बेचारी इस छोटी सी उम्र में बेवा हो गई।”
“हाँ सो तो है। यह भी एक जुल्म है।”“
अब वह किसके सहारे जिन्दा रहेगी – तू तो एक-दो रोज में चला जाएगा। उसके लिए कुछ पैसा-वैसा भेजता रहेगा न।”
“क्यों नहीं... मेरा इस दुनियाँ में है भी कौन?”
“अरे बेटा चिंता क्यों करता है, अभी तो मैं भी जिन्दा हूँ... मैंने तय कर लिया है कि इस घर की देख-रेख करुँगी... सब लोगो ने साथ छोड़ दिया तो क्या हुआ अभी मैं जो हूँ। और देखना यहाँ जितने दिन है, चुप ही रहना...।”
“मतलब...।”
“अरे बेटा जमाना बड़ा ख़राब है। जब तक तेरा बाप जिन्दा था, सब डरते थे, मगर अब तो न जाने जरा-जरा से लोग भी क्या कहते फिर रहे हैं। किसी से लड़ना-झगडना नहीं। सब सहन करने में ही भलाई है।”
“मैं क्यूँ लडूंगा भला।”
“ज़रा सुनना...।” बुढ़िया पास आकर धीमे स्वर में बोली – “गढ़ी वालों से बचकर रहना।”
“गढ़ी वाले ?”
बुढ़िया चली गई।
“कौन सी माँ ?”
“मुझे तो याद भी नहीं था मेरी माँ कैसी थी – कौन थी—पर मेरे पिता ने तो मेरे लिए तीसरी माँ का इन्तजाम किया था। न जाने कौन होगी – कैसी होगी – बहरहाल रिश्ते में तो मेरी माँ ही हुई
मेरा पिता जिस जिस से भी विवाह करता, वह मेरी माँ ही कहलाती। मुझे अपने आप से घृणा होने लगी। काश कि मैं साधुराम का बेटा न होता।
कुछ देर में बहुत सी स्त्रियाँ उस कमरे में एकत्रित हो गई, जिसकी दीवारों का मैं ठीक से जायजा भी नहीं ले पाया था। मेरी निगाहें झुकी हुई थी।
“बेटा...तुम आ गये ...।” धीमा सा स्वर सुनाई पड़ा।
न जाने उनमे से कौन बोला था। मैंने नजरें ऊपर कर देखा कमरे में आधा दर्जन स्त्रियाँ थीं। कोई जवान कोई अधेड़। उनमे से एक युवती ऐसी भी थी जो स्वेत वस्त्रों में थी। उसकी नंगी कलाईयाँ, सूनी मांग इस बात का प्रमाण थी की वह विधवा है। उसके नाक नक्श तीखे थे और रंग गोरा था।
मैंने अनुमान लगाया कि वही युवती चन्द्रावती है। मेरी तीसरी मां, जिसकी आयु मुझसे भी कम है, वह कम से कम मुझसे छः बरस छोटी लगती थी, और अभी वह पूर्णतया स्त्री भी नहीं बन पाई थी। यह अन्याय नहीं तो क्या था। मेर पिता ने मरते मरते भी अन्याय किया था।
वह मेरी तरफ देखे जा रही थी।
मैंने सभी को हाथ जोड़े और स्त्रियाँ बिखरकर मेरे चारो तरफ बैठ गयी। उनके धीमे-धीमे स्वर मेरे कानों में पड़ते रहे, और मैं हूँ... हाँ... या ना... में जवाब देता रहा। मेरे पास कहने को कुछ नहीं था।
अधिक रात बीतने पर वे चली गई, सिर्फ एक बुढ़िया रह गई, जिसके दर्शन मैंने आरम्भ में किए थे।
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सवेरा हुआ।
मैंने अपने आपको काफी हल्का महसूस किया। बुढ़िया मेरे लिए चाय बना कर लाई।
“क्यों रे... तूने अपनी मां से बात भी नहीं की...।” उसने कहा।
“मैं क्या बात करता...।”
“कम से कम उसके दुखी मन को सांत्वना तो दे देता... बेचारी इस छोटी सी उम्र में बेवा हो गई।”
“हाँ सो तो है। यह भी एक जुल्म है।”“
अब वह किसके सहारे जिन्दा रहेगी – तू तो एक-दो रोज में चला जाएगा। उसके लिए कुछ पैसा-वैसा भेजता रहेगा न।”
“क्यों नहीं... मेरा इस दुनियाँ में है भी कौन?”
“अरे बेटा चिंता क्यों करता है, अभी तो मैं भी जिन्दा हूँ... मैंने तय कर लिया है कि इस घर की देख-रेख करुँगी... सब लोगो ने साथ छोड़ दिया तो क्या हुआ अभी मैं जो हूँ। और देखना यहाँ जितने दिन है, चुप ही रहना...।”
“मतलब...।”
“अरे बेटा जमाना बड़ा ख़राब है। जब तक तेरा बाप जिन्दा था, सब डरते थे, मगर अब तो न जाने जरा-जरा से लोग भी क्या कहते फिर रहे हैं। किसी से लड़ना-झगडना नहीं। सब सहन करने में ही भलाई है।”
“मैं क्यूँ लडूंगा भला।”
“ज़रा सुनना...।” बुढ़िया पास आकर धीमे स्वर में बोली – “गढ़ी वालों से बचकर रहना।”
“गढ़ी वाले ?”