Thriller इंसाफ

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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

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नेता की पत्नी की मौत की खबर आठ बजे की टीवी न्यूज़ में थी ।
खबर में हत्प्राण संगीता का जिक्र कम था, सांसद आलोक निगम का ज्यादा था । खबर में कत्ल की सम्भावना का न कोई जिक्र था, न उसकी तरफ कोई इशारा था, उसे दुर्घटनावश हुई मौत ही बताया जा रहा था ।
खबर के साथ सांसद के विजुअल्स थे जिनमें से कुछ में वो आंसू बहाता दिखाया गया था ।
तभी तो कहा गया है कि नेता और अभिनेता में कोई खास फर्क नहीं होता ।
खबर में इस बात का भी जिक्र था कि शाम छ: बजे निगमबोध घाट पर संगीता का अन्तिम संस्कार किया जा चुका था लेकिन उसके लेकिन उसके कोई विजुअल्स खबर में शामिल नहीं थे । अन्तिम संस्कार इस बात को स्पष्ट करता था कि मेरे द्वारा सरकाई गयी हत्या की थ्योरी को पुलिस खातिर में नहीं लाई थी वर्ना अन्तिम संस्कार यूं आनन फानन न हुआ होता और लाश पोस्टमार्टम के लिये पुलिस के कब्जे में होती । मुझे इस बात की पूरी सम्भावना दिखाई दी कि उस मामले में पुलिस पर नेता जी का भी दबाव पड़ा था । वैसे भी कैसे पुलिस की मजाल हो सकती थी कत्ल की ऐसी किसी थ्योरी को हवा देने की जो कि उसमें नेताजी की खुद की शिरकत की तरफ भी मजबूत उंगली उठाती !
समरथ को नहीं दोष गुसाईं ।
खबर में ही इस बात का जिक्र था कि सांसद महोदय ने कोई महत्वपूर्ण घोषणा करने के लिये रात नौ बजे प्रैस कान्फ्रेंस बुलाई थी ।
रोज़वुड क्लब, सैनिक फार्म्स में ।
अपने सरकारी आवास पर नहीं, पार्टी दफ्तर में भी नहीं, क्लब में ।
बड़े लोगों की बड़ी बातें ।
******************************************************************
पौने नौ बजे मैं रोज़वुड क्लब पहुंचा ।
मीडिया के मुताबिक जहां कि सांसद आलोक निगम की प्रैस कान्फ्रेंस आयोजन था ।
मैं शेफाली को फोन करके वहां आया था इसलिये वो मुझे रिसैप्शन पर मिली ।
वो मुझे क्लब की इमारत की पहली मंजिल पर ले कर आयी जहां कि क्लब का छोटा सा कान्फ्रेंस हाल था । हाल के बाहर एक लाउन्ज था जहां पत्रकार जमा थे । कई हाथों में मुझे ड्रिंक्स के गिलास दिखाई दिये जो कि हैरानी की बात थी । कान्फ्रेंस की जगह क्योंकि बार सर्विस वाली क्लब थी, शायद इसलिये वो रियायत बरती गयी थी । नेता जी मातम में था, उसकी प्रैस कान्फ्रेंस का मिजाज और माहौल शोक सभा जैसा होना चाहिये था इसलिये मेहमान बस इतना अदब और लिहाज दिखा रहे थे कि वहां संजीदगी व्याप्त थी, कोई हा हा हा नहीं हो रही थी ।
दूसरे, होता था तो ऐसी सर्विस का प्रावधान ईवेन्ट के बाद होता था लेकिन वहां वो पहले था ।
मैंने उन बातों की तरफ शेफाली की तवज्जो दिलाई ।
वो सहमति में सिर हिलाती मेरे से अलग हुई और पांच मिनट बाद वापिस लौटी ।
“ड्रिंक्स की सर्विस क्लब की तरफ से है ।” - वो बोली - “बाहुक्म प्रेसीडेंट आफ दि क्लब ।”
“जिसकी सालेहर मरी है ! जिसकी अपनी बेटी को मरे अभी तीन हफ्ते हुए हैं !”
“मिस्टर शर्मा” - वो बोली - “जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है । कोई मरने वाले के साथ नहीं मर जाता । हर कोई आगे की सोचता है, जो बीत गयी उस पर कोई सिर नहीं धुनता आज कल ।”
“बारह घन्टे पहले की ट्रेजेडी को ‘बीत गयी’ बोलते हैं है ?”
“तुम नहीं समझोगे । अरे, ये एक रुटीन है, एक कर्टसी है, क्या फर्क पड़ता है ?”
“सही कहा । क्या फर्क पड़ता है !”
“अब छोड़ो ये किस्सा ।”
“ओके ।”
“हाउ अबाउट ए ड्रिंक ?”
“लेटर ।”
तभी मुझे चार पहचाने हुए चेहरे एक साथ दिखाई दिये । शरद परमार, रॉक डिसिल्वा, माधव धीमरे और विशु मीरानी परे गोला बनाये खड़े बतिया रहे थे ।
सिगार तब भी डिसिल्वा के मुंह में था ।
विशु मीरानी - ‘रॉक्स’ का बारमैन - उन लोगों के साथ उनके ग्रुप में था ।
यानी सब सोशलिज्म के अनुयायी थे, ऊंच नीच के भेद से बरी थे । यानी वो लाउंज फकीर की झोली था जिसमें केक के टुकड़े के साथ रोटी की भी समाई थी ।
तभी शरद की मेरे से निगाह मिली । तत्काल उसके चेहरे ने रंग बदला । उसने अपने साथियों से कुछ कहा और लम्बे डग भरता मेरे करीब पहुंचा ।
चमचों की तरह उसके तीनों साथियों ने उसका अनुसरण किया ।
“तुम फिर आ गये !” - वो निगाह से मेरे पर भाले बर्छियां बरसाता बोला ।
“मेरा प्रेत तो नहीं खड़ा तुम्हारे सामने !” - मैं सहज भाव से बोला ।
“डोंट एक्ट स्मार्ट विद मी, यू... यू...”
“स्मार्ट एक्ट करूंगा तो कहां कुछ तुम्हारे पल्ले पड़ेगा !”
“...यू सन आफ ए...”
“गाली नहीं । गाली नहीं । मर्द की तरह बात करो । नहीं हो तो भी ।”
“तुम्हें यहां आने किसने दिया ?”
“ही इज माई गैस्ट ।” - शेफाली दखलअन्दाज हुई ।
“तो नीचे जाये ।”
“जब होस्ट यहां है तो नीचे क्यों जाये ?”
उसे जवाब न सूझा, वो कुछ क्षण यूं मुझे देखता रहा जैसे उम्मीद कर रहा हो कि मैं डरके भाग जाऊंगा ।
“अभी माहौल नहीं है यहां” - वो दान्त पीसता सा बोला - “वर्ना मैं देखता तेरे को ।”
“जैसे शुक्रवार देखा था ?”
वो मेरे पर झपटने को हुआ लेकिन पहले ही धीमरे ने उसे थाम लिया और ऐसा करने से रोका ।
“एमपी साहब आने ही वाले हैं ।” - डिसिल्वा दबे स्वर में बोला ।
“कल मैं दर्शन सक्सेना से मिला था जो कि मोतीबाग में सार्थक के सामने वाली कोठी में रहता है और पुलिस का गवाह है । मैंने उसे, धीमरे, तुम्हारी तसवीर दिखाई थी । अब उसका खयाल है कि कत्ल की रात को जिस शख्स को उसने सामने की कोठी से निकल कर कार में सवार हो कर वहां से कूच करते देखा था, वो तुम हो सकते थे । क्या कहते हो इस बारे में ?”
उसके मुंह से बोल न फूटा, वो निगाह चुराने लगा ।
“ये ऐसी बातें करने का वक्त नहीं ।” - डिसिल्वा धीरे से बोला ।
“ये कैसी भी बातें करने का वक्त नहीं ।” - मैं बोला - “लेकिन यहां किसे परवाह है !”
“क्या मतलब है उस बकवास का जो अभी की ?” - शरद भड़का - “ये कि श्यामला का कातिल धीमरे है ?”
“हो सकता है ।” - मैं शान्ति से बोला - “दर्शन सक्सेना के नये बयान को खातिर में लाया जाये तो बराबर हो सकता है ।”
“कातिल ये है तो सार्थक फरार क्यों है ? बेल क्यों जम्प कर गया ?”
इससे पहले मैं कोई जवाब दे पाता, अमरनाथ परमार वहां पहुंच गया ।
“वाट्स गोइंग आन ?” - वो अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“पापा” - शरद आवेश से बोला - “दिस मैन...”
“आई नो दिस मैन ! मैं भूला नहीं हूं इसे । मैनर्स नहीं इसको । कहीं भी घुस आता है । हैबिचुअल गेट क्रैशर है...”
“पापा” - शेफाली जल्दी से बोली - “ये मेरा...”
“यू कीप क्वाइट । जब मैं बोल रहा हूं तो...”
तभी लाउन्ज में इंस्पेक्टर यादव ने कदम रखा ।
“इन्स्पेक्टर” - परमार उच्च स्वर में बोला - “कम हेयर दिस मिनट ।”
यादव करीब पहुंचा । उसने परमार का अभिवादन किया ।
“अरैस्ट दिस मैन !” - परमार ने आदेश दिया - “ही इज ए गेट क्रैशर...”
“ही इज माई गैस्ट ।” - शेफाली ने तीव्र प्रतिरोध किया ।
यादव ने अर्थपूर्ण भाव से परमार को देखा और विद्रुपपूर्ण भाव से तनिक मुस्कराया ।
“तुम चुप रहो ।” - परमार बेटी पर बरसा ।
“मैं चुप नहीं रह सकती । मैं किसी को अपने गैस्ट की तौहीन करने की इजाजत नहीं दे सकती ।” - उसने एक बार स्थिर आंखों से अपने पिता को देखा और फिर बोली - “किसी को भी ।”
परमार मुंह बाये अपनी बेटी को देखने लगा ।
“मैं इस क्लब का प्रेसीडेंट हूं ।” - फिर मेरे से सम्बोधित हुआ - “मैं तुम्हारी गैस्ट वाली प्रिविलेज को खारिज करता हूं । नाओ गो अवे ऑर यू विल बी सॉरी ।”
“पापा !”
“शट अप ! खबरदार जो दोबारा जुबान खोली । और ये तुम्हें तुम्हारा पापा नहीं, क्लब का प्रेसीडेंट कह रहा है जिसकी कि तुम महज एक मेम्बर हो । मैं बेअदब औलाद को सीधा नहीं कर सकता लेकिन आउट आफ आर्डर क्लब मेम्बर को सैट कर सकता हूं...”
“एमपी साहब आ गये !” - एकाएक शोर उठा - “एमपी साहब आ गये ।”
तत्काल परमार लाउन्ज के प्रवेश द्वार की तरफ लपका ।
फिर सबकी तवज्जो का मरकज नेता बन गया, मैं किसी की तवज्जो के काबिल अदद न रहा ।
संजीदासूरत सांसद आलोक निगम कान्फ्रेंस हाल की तरफ एस्कार्ट किया जाने लगा । वो हाल में स्टेज पर पहंच गया तो लाउन्ज में मौजूद तमाम लोग भी भीतर दाखिल हो गये । उस हुजूम में शामिल हो कर मैं भी भीतर पहुंच गया । किसी ने मेरी तरफ तवज्जो न दी । फिर कान्फ्रेंस शुरू हुई ।
पहले अमरनाथ परमार की तरफ से शोक सन्देश पेश हुआ ।
“बड़े दुख की बात है कि हमारी प्यारी संगीता, एमपी साहब की पत्नी, इतनी कमउम्री में एक डोमेस्टिक एक्सीडेंट की शिकार हो कर इस नश्वर संसार से सिधार गयी । हम निगम साहब के शोक में शरीक हैं और परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि वो इन्हें इस दारुण दुख को सहन करने की शक्ति दे । अपने को खोने के दुख को वही बेहतर समझ सकता है जिसने कभी अपने को खोया हो । जैसे आज इन्होंने अपनी देवी समान पत्नी खोई, वैसे अभी कुछ ही समय पहले मैंने अपनी जवान बेटी खोई । मैंने ये सोच कर कलेजे पर पत्थर रखा कि भगवान इम्तहान ले रहा था, अब यही सोच निगम साहब को बनानी होगी कि भगवान इम्तहान ले रहा है । विद्वजन कहते है कि होत सोई जो राम रचि राखा । जो पहले से ही रच के रख दिया गया, कैसे कोई उसमें परिवर्तन ला सकता है ! जो बनाता है, वो बिगाड़ता भी है, जो फूल खिलाता है, वो कांटे भी खिलाता है, जीवन मरण का खेल ऊपर वाले के हाथ में है जिस पर इंसान का कोई जोर नहीं । जो लिखने वाले ने लिख दिया है उसको नतमस्तक हो कर स्वीकार करना मानव मात्र की नीयति है । कहते है जिन्हें ईश्वर प्यार करता है, उन्हें जल्दी अपने करीब बुला लेता है । संगीता को उसने जल्दी अपने करीब बुला लिया, निमित्त एक घरेलू हादसा बना, श्यामला को उसने और भी जल्दी अपने करीब बुला लिया, निमित्त एक चाण्डाल बना जो कि उसका पति था । मैं एक बार फिर निगम साहब के लिये हार्दिक सम्वेदना प्रकट करता हूं और दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिये प्रभू से प्रार्थना करता हूं ।”
उसने एक बार सिर नवाया और पीछे खाली कुर्सी पर बैठ गया ।
मुझे अन्देशा हुआ कि श्रोता कहीं तालियां न बजाने लगें लेकिन गनीमत हुई कि ऐसा न हुआ वर्ना घूंट लगाते वहां का कर बैठे पत्रकारों के मिजाज का क्या पता लगता था !
माइक नेता के सामने रखा गया ।
“जनाबेहाजरीन !” - नेता गमगीन लहजे से बोला - “मेरी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं आप लोगों से कोई लम्बा डायलॉग कर सकूं । इसलिये मैं सीधे उस विषय पर आता हूं जिसकी वजह से ये प्रैस कान्फ्रेंस आयोजित की गयी है । मेरी पत्नी की आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात पहुंचाया है । ये ठीक है कि मरने वाले के साथ कोई नहीं मर जाता लेकिन कुछ सदमे ऐसे होते है जो जीते जी मार डालते हैं । मैं आमूलचूल टूट चुका हूं । मैं संसार नहीं त्याग सकता लेकिन सांसारिक मोहमाया त्याग देने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ हूं । मैंने पीएम साहब को लिख भेजा है कि आगे आने वाले कैबिनेट के पुनर्गठन में मन्त्री पद के लिये मेरे नाम पर विचार न किया जाये ।”
हैरानी की सिसकारियां सुनाई देने लगीं ।
“मैं अपनी एमपी की सीट छोड़ रहा हूं । कल लोकसभा अध्यक्ष महोदया को मेरा इस्तीफा पहुंच जायेगा ।”
हैरानी की सिसकारियां और प्रबल हुईं ।
“मैं सक्रिय राजनीति से सन्यास ले रहा हूं ।”
सिसकारियां ‘ओह, नो ! ओह, नो !’ की पुकार में बदल गयीं ।
“मैं और नहीं बोल सकता इसलिये आप लोगों के किन्हीं सवालों के जवाब देने में अक्षम हूं । आशा है आप मेरी मजबूरी को समझेंगे और मुझे क्षमा करेंगे ।” - वो उठ खड़ा हुआ - “गुड नाइट एण्ड गुड बाई लेडीज एण्ड जन्टलमैन ।”
वो दायें बायें हाथ जोड़ कर, हाथ हिला कर मंच से उतर गया । जरूर हाल से निकासी का पिछवाड़े से भी कोई रास्ता था क्योंकि लाउन्ज में तो वो फिर दिखाई न दिया जिधर से कि वो भीतर दाखिल हुआ था ।
भीड़ धीरे धीरे छंटने लगी ।
किसी ने फिर मेरी तरफ तवज्जो न दी - मेरी होस्ट ने भी नहीं ।
सिवाय इंस्पेक्टर यादव के ।
उसके इशारे पर मैं उसके करीब पहुंचा ।
“यादव साहब” - उसके बोल पाने से पहले मैंने उससे सवाल किया - “आप यहां कैसे ?”
“नेता की वजह से । स्पैशल ड्यूटी लगी ।”
“ओह !”
“भाषण सुना नेता का ?”
“हां ।”
“क्या खयाल है ?”
“पाखण्ड है । नेता लोग आम करते हैं ऐसे तमाशे !”
“अच्छा !”
“मालूम पड़ गया होगा कि मन्त्री पद के लिये उसका नाम विचाराधीन नहीं है । कुछ दिनों बाद अखबारों में छपेगा कि सांसद पद से दिया उसका इस्तीफा नामंजूर हो गया है ।”
“मिली भगत ?”
“बराबर । वैसे ही जैसे नेता किसी बात के विरोध में जुलूस निकालता है तो पहले थाने जाकर सबको खबरदार कर जाता है कि सालो, दस मिनट में गिरफ्तार कर लेना, पन्द्रह मिनट में गिरफ्तार कर लेना, ज्यादा टाइम न लगाना । आनन फानन सुर्खी बन जाती है - एक मिशन की खातिर फलां नेता गिरफ्तार । दो घंटे थाने में बैठ के नेता घर चला जाता है । होता है कि नहीं होता ऐसा ?”
koushal
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Post by koushal »

“होता है । लेकिन उसने राजनीति से सन्यास लेने की बात भी तो कही ?”
“जनता की प्रबल मांग पर नेता को अपना सन्यास का फैसला वापिस लेना पड़ा । समर्थकों ने जगह जगह जुलूस निकाले, बैनर चमकाये, नारे लगाये ‘नेताजी, फैसला वापिस लो’ ‘नेता जी, आप देश की धरोहर है, आपने देश के लिये सक्रिय रहना है’, नेताजी सन्यास का फैसला वापिस लो, वापिस लो, वापिस लो !’ ‘देश का नेता कैसा हो ? आलोक निगम जैसा हो’, वगैरह । नेताजी भाव विह्वल ! इतना प्यार ! इतना दुलार ! अपने समर्थकों की प्रशंसकों की, शुभचिंतकों की, वगैरह वगैरह की प्रबल मांग पर मैं अपना सन्यास का फैसला वापिस लेता हूं । दि एण्ड । ड्रामा मुकम्मल !”
“सही पकड़ा है ।” - वो हंसता हुआ बोला ।
“मैंने पकड़ा है ? तुम्हें नहीं मालूम ? सबको नहीं मालूम ?”
“तू जहां जाता है, पंगे क्यों लेने लगता है ?”
“अरे यादव साहब, मैं उसूलन कभी पंगे से पंगा नहीं लेता जब तक कि पंगा मेरे से पंगा न ले । वो छोकरा - शरद परमार - नाहक मेरे खिलाफ है । मेरी शक्ल से भड़कता है । बाप क्लब का प्रेसीडेंट है इसलिये हूल देता है । अल्कोहलिक है, हर वक्त नशे में रहता है । वो पब्लिक में मेरी इन्सल्ट करे, मेरी इज्जत उतारे, मैं क्या करूं ? क्या कहूं ? ‘सिर माथे, माई डियर । मैं इसी ट्रीटमेंट के काबिल यूं अच्छा किया, तुम्हारे से मिला । शुक्रिया । कल फिर आऊंगा सिर में खाक डलवाने ।’ ठीक !”
उसने इंकार में सिर हिलाया ।
“एक बात बताओ” - मैं बोला - “तुम तभी यहां पहुंचे थे जब परमार ने आवाज दी थी या पहले से यहां थे ?”
“पहले से था । भीड़ की वजह से पहले उसकी मेरे पर नजर नहीं पड़ी थी ।”
“तब तो तुमने झगड़ा सुना होगा ?”
“हां ।”
“दखल क्यों न दिया ?”
“क्या जरूरत थी ! बड़ा अच्छा भुगत रहे थे तुम छोकरे को !”
“कमाल है ! अरे, वो फौजदारी पर आमादा था !”
“तब दखल देता ।”
“अच्छे यार हो !”
“अव्वल तो यही बात गलत है कि मैं तुम्हारा यार हूं दूसरे, फौजदारी होती तो थी किसी के साथ भी होती, मैं दखल देता ।”
“हूं ।”
“एक बात की मुझे हैरानी है । सार्थक की बाबत खबर अभी आम नहीं हुई, फिर भी उस छोकरे शरद को मालूम था कि सार्थक बेल जम्प करके फरार था !”
“हैरानी की बात है । यादव साहब, मुझे एक बात का अन्देशा है, कहो तो तुम्हारे सामने उसे हवा दूं ?”
“दो !”
“मुझे अन्देशा है कि उसका अगवा हुआ है ताकि इस धारणा को बल मिले कि वो फरार हो गया है । लगता है कोई उसकी जमानत से राजी नहीं, कोई उसके फरार हो जाने को फोकस में लाकर उसके जुर्म को और संगीन बनाना चाहता है । क्या खयाल है ? नहीं हो सकता ?”
“हो सकता है, भई । आजकल क्राइम और क्रिमिनल दोनों हाई फाई होते जा रहे हैं । लिहाजा क्या नहीं हो सकता ?”
“ये खबर सच है कि सार्थक की तलाश में पुलिस ने शहर में कई ठिकानों पर दबिश की है ?”
“कौन से ठिकानों पर ?”
“सुना है सैनिक फार्म्स के ‘रॉक्स’ नाम के बार पर ! उसके प्रोप्राइटर रॉक डिसिल्वा के घर पर ! मदनगीर में माधव धीमरे के घर पर !”
“कैसे सुना है ? कहां से सुना है ?”
“बस, सुना है ।”
“कान बहुत तीखे हैं तुम्हारे !”
“बचपन में नानी कानों में सरसों का तेल डाला करती थी, शायद उस वजह से ।”
“पुलिस के पास ऐसे कानों के लिये भी ट्रीटमेंट है ।”
“जरूर होगा लेकिन मुझे क्या डर है ! जिसको यादव रक्खे, उसको कौन चक्खे ! पुराने जमाने में बारसूख लोग औलाद का - मेल चाइल्ड का - मुंह देखते थे तो खजानों का मुंह खोल देते थे । आज के हाकिमों को कुछ तो जलवाअफरोज होना चाहिये या नहीं होना चाहिये इस महकमे में !”
“हूं । हां, रेड हुईं थी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला था ।”
“ओह !”
“लेकिन उन लोगों का पीछा बेनतीजा रेड्स के बाद हमने छोड़ नहीं दिया है । सब जगहों की बाकायदा खुफिया निगरानी जारी है ।”
“बढ़िया । अब शिखर बराल के बारे में कुछ बताओ ।”
“क्या बताऊं ? सिवाय इसके कि किसी ने उसको धुन दिया ।”
“सुना है उसने शरद परमार और माधव धीमरे की निशानदेयी की है !”
“ठीक सुना है लेकिन निशानदेयी बेदम है क्योंकि दोनों के पास बड़ी दमदार एलीबाईज हैं ।”
“क्या एलीबाईज हैं ? ये कि वारदात के वक्त वो दोनों ‘रॉक्स’ में थे तो...”
“नहीं । यहां थे ।”
“क्या कर रहे थे ?”
“शाम ढ़ले एक ही कारोबार तो होता है क्लब्ज़ में !”
“ड्रिंक कर रहे थे ?”
“हां । सर्विस स्टाफ गवाह है ।”
“हूं । संगीता निगम की बाबत क्या कहते हो ?”
“वो कहानी अब खत्म है । उसकी बाबत तुम्हारी थ्योरी मैं कबूल भी कर लूं तो अब कुछ नहीं हो सकता ।”
“यानी रॉक डिसिल्वा से सवाल तक नहीं करोगे ?”
“क्या फायदा होगा ? वो अपने गवाह के तौर पर नेता को पेश कर देगा । सांसद आलोक निगम से जवाबतलबी की मजाल होगी मेरी ? वो भी मौजूदा माहौल में, जबकि वो पब्लिक सेंटीमेंट्स के घोड़े पर सवार है ?”
“ठीक !”
वार्तालाप उससे आगे न चला ।
Chapter 5
दस बजे मैं अभी घर पर ही था जब कि मैंने एडवोकेट महाजन की काल रिसीव की ।
“कहां हो, भई ?” - वो भुनभुनाया - “तुम्हारी तो कोई खोजखबर ही नहीं मिलती ।”
“तो ?” - मैं बोला ।
“कल फोन नहीं किया तुमने ?”
“अरे, तो !”
“क्या तो ? डेली रिपोर्टिंग की हिदायत भूल गये क्या ?”
“नहीं भूला । लेकिन कुछ रिपोर्ट करने को होता तो करता न !”
“रिपोर्ट करने को होता ! अरे संगीता निगम की एकाएक मौत...”
“उसकी सारी दिल्ली को खबर है, आपको नहीं है ?”
“ये जुबानदराजी है । जो करार है उस पर अमल करो । आई वांट माई डेली रिपोर्ट फ्रॉम यू आई रिपीट - फ्रॉम यू ।”
“सॉरी ! खता माफ ! आइन्दा ऐसा ही होगा । अब बोलिये संगीता निगम की मौत की बाबत क्या कहते हैं ?”
“क्या कहूं ?”
“वो सार्थक की एयर टाइट एलीबाई थी जो अब उसे उपलब्ध नहीं रही । अब आपके केस का क्या होगा ?”
“मैं खुद इसी फिक्र से हलकान हूं । ऊपर से सार्थक की हरकत ने मेरा दम निकाला हुआ है । केस तो समझो मेरे हाथों से निकल गया बशर्ते कि तुम कोई करतब न कर दिखाओ ।”
“आपको यकीन है कि संगीता दुर्घटनावश मरी ?”
“भई, हर कोई यही कह रहा है । अखबार में भी यही छपा है ।”
“महाजन साहब, गुस्ताखी माफ, कैसे वकील हो जो ये एक बात आपके जेहन में नहीं बजी कि संगीता का कत्ल हुआ हो सकता है ।”
“क्या !”
“कोई सार्थक के हक में कोर्ट में उसकी गवाही नहीं होने देना चाहता । वो गवाही न होने पाये, उसने यूं इस बात का इन्तजाम किया ।”
“कत्ल करके ?”
“हां ।”
“एक रूलिंग पार्टी के नेता के, एमपी के सरकारी बंगले में ?”
“आपने सैंया भये कोतवाल वाली मसल नहीं सुनी जान पड़ती ।”
“क - कत्ल किया ?”
“करवाया ।”
“किससे ?”
“है एक जमूरा ।”
“नाम लो ।”
“शाम को... शाम को लूंगा । अभी कुछ बातों को कनफर्मेशन की जरूरत है जो कि शाम तक हो जायेगी । बहरहाल इस बात पर गौर करना, न यकीन में आये तो भी गौर करना कि संगीता निगम का कत्ल हुआ है ताकि वो सार्थक के तक में गवाही न दे सके ।”
“वो तो मैं करूंगा लेकिन ये एक गैरजिम्मेदाराना बात है जो गलत साबित हुई तो... तो प्राब्लम करेगी तुम्हारे वास्ते ।”
“देखा जायेगा ।”
“सैंया भये कोतवाल वाली एक कहावत तुमने कही, एक मेरे से सुनो । हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचना चाहिये । बच के चलना चाहिये वर्ना अंजाम...”
“हाकिम घोड़े पर सवार हो तो फिर कहां चलना चाहिये ?”
“गॉड ! यू आर इमपासिबल ।”
लाइन कट गयी ।
मैंने इंस्पेक्टर यादव को फोन लगाया ।
उसने काल रिसीव की ।
“मैंने ये पूछने के लिये फोन किया था कि युवराज के जन्म की खुशी की पार्टी कब है ?”
“उसमें टाइम है अभी ।” - यादव की आवाज आयी - “हमारे यहां घर से सूतक निकलने तक ऐसे जश्न नहीं किये जाते और वो चालीस दिन बाद निकलता है ।”
“ओह ! मुझे नहीं मालूम था । और क्या खबर है ?”
“अभी कोई खबर नहीं ।”
“मेरा सवाल खासतौर से सार्थक की बाबत था ।”
“मालूम है मेरे को । खुफिया निगरानी का कोई नतीजा अभी सामने नहीं आया है । फिर अभी तो दिन चढ़ा है और अभी रात को तो तू मेरे से मिल के हटा है । रात रात में...”
“हकूमतें बदल जाती हैं । दुनिया इधर से उधर हो जाती है, बीवी फिर प्रेग्नेंट हो जाती है...”
“बकवास न कर ।”
“ओके । संजीदा बात करता हूं ।”
“कर ।”
“सार्थक की बाबत ।”
“कर, भई ।”
“मेरे खयाल से कोई इरादतन फरार होता है तो वहीं नहीं टिका रहता जहां से कि वो फरार हुआ होता है, उसका इरादा उस जगह से दूर से दूर निकल जाने का होता है । इस लिहाज से उसके अभी दिल्ली में ही होने की उम्मीद करना... यादव साहब मेरे को तो नहीं जंचता ।”
“तुम ये कहना चाहते हो कि हमारी खुफिया निगरानी बेकार है, बेमानी है ?”
“नहीं, ऐसा कहने की तो मेरी मजाल नहीं हो सकती...”
“फिर भी हो रही है !”
मैंने जवाब न दिया ।
“दिल्ली से दूर निकल जाने के लिये, दूर पहुंच कर रिहायश का नया ठिकाना बनाने केलिये एक खास आइटम की जरूरत होती है जिसे रोकड़ा कहते हैं । नावां कहते हैं । था उसके पास ?”
“नहीं । कहां से होता ! अभी छूटा ही तो था !”
“तो क्या पांव पांव निकल लिया ?”
“न-हीं ।”
“माली इमदाद के लिये उसका कहीं पहुंचना समझ में आता है तेरी ?”
“आता है ।”
“तो फिर ये भी समझ कि इसीलिये खुफिया निगरानी का इन्तजाम है कुछ जगहों पर ।”
“ठीक । दूसरे आल्टरनेटिव की क्या कहते हो ?”
“दूसरा आल्टरनेटिव ?”
“अगवा !”
“अगवा तुम्हारे खब्ती, खुराफाती दिमाग की उपज है ।”
“चलो, ऐसे ही सही । महज एक थ्योरी के तौर पर ही इस बात पर गौर करो ।”
“किया ।”
“तो वो दिल्ली में हो सकता है ?”
“हां ।”
“कहीं गिरफ्तार ?”
“हां ।”
“जिन तीन जगहों पर दबिश की, उनके अलावा कहीं ?”
“हां ।”
“ऐसी कोई जगह है निगाह में ?”
“होती तो अब तक उन पर भी रेड पड़ चुकी होती । लेकिन किन्हीं ऐसी जगहों की बाबत वार फुटिंग पर जानकारी निकालने की कोशिश की जा रही है ।”
“कत्ल की बाबत क्या कहते हो ?”
“कत्ल ! किसका ?”
“उसका, जिसका जिक्र हो रहा है ?”
“कत्ल काहे को ? अगर कत्ल ही करना था तो ग्रेटर कैलाश में तुम्हारे घर पर ही गोली मार दी होती । फिर अगवा की जहमत करने की क्या जरूरत थी ?”
“कोई जानकारी हासिल करनी होगी ! न होती दिखाई दी होगी... तो... उसे रिस्क जान के खत्म कर दिया होगा । या जानकारी निकलवाने के लिये टार्चर किया होगा, वो कमजोर जान निकला होगा, दम तोड़ दिया होगा !”
“ये किताबी बातें हैं ।”
“तो क्या हुआ ? कहते नहीं हैं कि ट्रुथ इज स्ट्रेंजर दैन फिक्शन !”
“शर्मा, कत्ल करना आसान होता है, लाश छुपाना बहुत मुश्किल होता है । कत्ल हुआ होता तो लाश अब तक बरामद हो गयी होती !”
“जरूरी नहीं ।”
“जरूरी तो तेरी इस वक्त की बकवास भी नहीं ।”
“काल डिसकनैक्ट करने का हिंट दे रहे हो ?”
“कितना सयाना है !”
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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

Post by koushal »

चार बजे मैं आफिस पहुंचा ।
रजनी ने यूं मेरे को देखा जैसे आफिस में कोई चन्दा मांगने वाला घुस आया हो ।
“हल्लो !” - मैं बोला ।
“ये टाइम है आने का ?” - वो गुस्से से बोली ।
मैं हड़बड़ाया ।
“मैं दस बजे से यहां फांसी लगी हूं आप चार बजे पधारे हैं !”
“तो ?” - मैं उलझनपूर्ण भाव से बोला ।
“पूछते हैं तो ? कोई बात याद नहीं रख सकते !”
“अरे, क्यों कलपा रही है ? कौन सी बात याद नहीं रखी मैंने ?”
“मैंने इतवार को ड्यूटी पर आना इसलिये मंजूर किया था कि...”
“इतवार ! आज इतवार है ?”
“और क्या है ?”
“हे भगवान ! मेरे को बिल्कुल खयाल नहीं रहा । सॉरी !”
“दोबारा ऐसी भूल न हो ।”
“नहीं होगी ।”
“कान पकड़िये ।”
“बस कर अब, बड़ी अम्मा । मेरे को नहीं ध्यान रहा कि आज का तेरे मेरे बीच कोई स्पैशल अरेंजमेंट था लेकिन मैं सैर करके नहीं आ रहा, सिनेमा देखकर नहीं आ रहा ।”
“तो यूं कहिये न कि सौदागरी करके आ रहे हैं ?”
“कहा ।”
“कहा तो आपकी लेटकमिंग माफ ।”
“थैंक्यू सर ।”
“सर !”
“अन्दर आ ।”
हम भीतर जा कर आमने सामने बैठे ।
“न माफ करती तो क्या करती ?” - मैंने पूछा ।
“तो क्या करती !” - उसने उस बात पर गम्भीर विचार किया ।
“मैं बताऊं ?”
“बताइये । आपको बताने से कौन रोक सकता है ! आप तो आप हैं ?”
“तू गाना गाती ।”
“कौन सा ?”
“वध कर दूं बालमा” - मैं तरन्नुम में बोला - “तेरा वध कर दूं बालमा...”
उसकी हंसी छूट गयी ।
“नहीं, ये गाना मैं नहीं गा सकती” - फिर बोली - “इसमें वध ठीक है लेकिन बालमा ठीक नहीं है ।”
“क्यों ?”
“मालूम है आपको । उस मामले में दिल्ली अभी दूर है । वैसे टेलेंट है आपमें पैरोडी बनाने का ! बढ़िया वर्शन बनाया ‘अंग लग जा बालमा’ का ।”
“इसे अंग्रेजी में कहते हैं टु काल ए स्पेड ए स्पेड । औरतों की यही प्राब्लम है, जो दिल में होता है वो जुबान पर नहीं लातीं ?”
“दिल में ये होता है ?”
“शादीशुदा औरत के । सब जानते हैं कि शादी के वक्त की चरणों की दासी बाद में खून की प्यासी बन जाती है ।”
वो हंसी ।
“वैसे किसी पर्फेक्ट कैंडीडेट से शादी करेगी तो नहीं बनेगी ।”
“परफेक्ट कैंडीडेट ?”
“जैसे कि मैं ।”
“ठीक है, मुझे मंजूर है ।”
“मंजूर है ।”
“आइन्दा दस पन्द्रह मिनट मुझे कोई काम नहीं है, इसलिये मंजूर है ।”
“इसलिये मंजूर है ।”
“हां । स्कूल में टीचर सिखाते थे न, समय का सद्उपयोग करना चाहिये ।”
“अरी, कमबख्त, इतने में तो तरीके से पप्पी नहीं होती, शादी कैसे होगी ?”
“अब मुझे क्या मालूम ! पहली बार ही तो करूंगी शादी ! जब तजुर्बा हो जायेगा तो...”
“तो गाया करेगी” - मैं फिर तरन्नुम में बोला - “मेरे सजना तेरा बीमा मांगे, ये प्यासी तेरी जान की ?”
उसकी फिर हंसी छूटी ।
“अब बस कीजिये ।”
“ओके । तेरी शतरंज प्रतियोगिता की क्या खबर है ?”
“कल से मैच शुरू हैं । आज प्रतियोगियों के लिये ग्रैंड पार्टी है ।”
“कहां ?”
“वहीं । रोजुबुड क्लब में ।”
“यानी मेम्बर्स के लिये आज रात क्लब बंद !”
“नहीं । पार्टी क्लब के लान में है जहां बहुत बड़ा मेक शिफ्ट पंडाल खड़ा किया गया है । कल से मैचिज भी वहीं होंगे ।”
“उस ग्रैंड पार्टी में तू तो नेचुरली इनवाइटिड होगी क्योंकि प्रतियोगी है ?”
“हां । इसलिये आज मैं पांच बजे चली जाऊंगी ।”
“क्यों ?”
“अरे, हाड़-मांस-मज्जा-सुसज्जा क्लीनिक भी तो जाना होगा पहले !”
“कहां जाना होगा !”
“ब्यूटी पार्लर ।”
“टाइम बर्बाद करेगी । पैसा बर्बाद करेगी । तेरी ब्यूटी किसी पार्लर की मोहताज नहीं ।”
“बर्तन सोने का भी हो तो चमकाना तो पड़ता है न !”
“तेरे पास हर बात का जवाब है ।”
“ड्रैस भी तो चेंज करूंगी कि नहीं !”
“क्या पहनेगी ?”
“लहंगा चोली ।”
“क्या ?”
“लहंगा चोली ।”
“कोई उठा के ले जायेगा ।”
“खामखाह !”
“तेरे को पर्सनल सिक्योरिटी की जरूरत होगी ।”
“मैं नहीं अरेंज कर सकती ।”
“अरेंज नहीं करनी पड़ेगी । वो प्रीअरेंज्ड है ।”
“कैसे ?”
“अरे, मैं हूं न ! कहा तो था तूने कि अपने गैस्ट के तौर पर तू मुझे साथ ले जा सकती है ।”
“आप सच में जाना चाहते हैं ?”
“हां ।”
“वजह ? क्योंकि एकाएक शतरंज में दिलचस्पी जाग उठी है ?”
“क्योंकि एकाएक ‘रोज़वुड’ में मेरे दाखिले पर पाबन्दी खड़ी हो गयी है ।”
“अरे ! क्या हुआ ?”
मैंने वजह बयान की ।
“ओह !” - वो बोली - “ठीक है फिर ।”
“कोई ऐतराज फिर भी खड़ा हुआ तो ? मुझे निकाल बाहर किया जाने की कोशिश की गयी तो ?”
“कहर ढा दूंगी । ऐसा प्रोटेस्ट खड़ा करूंगी कि पार्टी का ही बैंड बज जायेगा और तकरीबन प्रतियोगी मेरा साथ देंगे । आखिर एक बिरादरी हैं हम । कैसे मजाल होगी किसी की मेरे मंगेतर के साथ बेअदबी से पेश आने की ।”
“मंगेतर !” - मैं सकपकाया ।
“आपको बाप कहलाना मंजूर नहीं, भाई कहलाना मंजूर नहीं तो कुछ तो कहूंगी कि नहीं कहूंगी ?”
“ठीक है, जो मर्जी कहना । मुझे वहां दाखिले से मतलब है । कितने बजे से शुरू है पार्टी ?”
“सात बजे से ।”
“फिर तो तू निकल ले । सात से काफी पहले मैं मुझे तेरे घर से पिक करने आऊंगा । तैयार मिलना ।”
“अभी तो सवा चार बजे हैं, तब तक आप क्या करेंगे ?”
“एक तो मैं भी चेंज करने घर जाऊंगा...”
“काला सूट पहनियेगा । लाल टाई के साथ आपको बहुत जंचता है ।”
मैं निहाल हो गया । उसके मिजाज से कहां कभी मुझे लगा था कि वो ऐसी बातें नोट करती थी, ऐसी बातों की परवाह करती थी ।
“ठीक है । एक और भी काम है जो मैं तब तक करके रखूंगा ।”
“वो क्या ?”
“कल रात जब मैं सैनिक फार्म्स से वापिस लौट रहा था तो रास्ते में मेरी कार बिगड़ गयी थी, मजबूरन मुझे उसको आल हैवन हालीडे रिजार्ट पर छोड़ना पड़ा था । कार की रिपेयर का इन्तजाम मैंने दिन में कर दिया था लेकिन उसको उठाने मैंने अभी जाना है ।”
“कहां ? कहां है ये हालीडे रिजार्ट ?”
“महरौली गुडगांव रोड पर । कुतब से छ: किलोमीटर आगे ।”
“उधर कैसे पहुंच गये ? वो तो आपके घर का रूट नहीं !”
“बोलूंगा तो तू आंखें तरेरेगी ! शर्मिन्दा करेगी ।”
“नहीं करूंगी । आखिर आप मेरे कैजुअल मंगेतर हैं !”
“डेली वेजर ?”
“जवाब दीजिये । उधर कैसे पहुंच गये ?”
“नशे में रास्ता भटक गया था ।”
“मेरे को इसी जवाब की उम्मीद थी ।”
“तेरी क्या बात है ! तू तो अन्तर्यामी है !”
“जाती हूं ।”
मैंने सहमात में सिर हिलाया ।
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koushal
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टैक्सी पर मैं आल हैवन हालीडे रिजार्ट पहुंचा ।
मेरी हिदायत के मुताबिक कार मकैनिक ने कार की चाबी पार्किंग अटेंडेंट के पास छोड़ी थी जिससे कि मैंने वो हासिल की । बदले में मैंने उसे पचास का नोट थमाया । खुश होकर वो वहां तक मेरे साथ चला जहां कि मेरी कार खड़ी थी ।
मैं अपनी कार में सवार होने ही लगा था कि मेरी निगाह सलेटी रंग की उस ‘वरना’ पर पड़ी जो कि मेरी कार के ऐन पहलू में खड़ी थी ।
कार मुझे कुछ पहचानी सी लगी ।
मैंने उतर कर उसका घेरा काटा ।
कार की पिछली विंडस्क्रीन पर स्टिकर लगा था जिस पर लिखा था :
माई अदर कार इज ए मर्सिडीज
कमला ओसवाल की कार ! वहां !
कैसे मुमकिन था ?
शहर में ग्रे कलर की वरना कारों की कमी नहीं थी ।
और वो स्टिकर भी बहुत कामन था ।
इत्तफाक !
या वो जयपुर से वापिस लौट आयी थी ! और घर रिहायश के नाकाबिल होने की वजह से वहां डेरा डाले थी !
वहां क्यों ? वो महंगा रिजार्ट था !
तो क्या ? वो ‘वरना’ रख सकती थी तो महंगा रिजार्ट भी अफोर्ड कर सकती थी ।
लेकिन वो रिजार्ट शहर के ऐसे हिस्से में था जो कि शहर से कदरन कटा हुआ था । तो अस्थायी ठिकाना वहां किसलिये ? मोतीबाग के करीब कहीं क्यों नहीं ?
बहरहाल मुझे ये बात न जंची कि कमला ओसवाल दिल्ली में थी और वहां थी ।
उस बाबत पूछताछ का मेरे पास वक्त नहीं था । सवा छ: बज भी चुके थे और अभी मैंने लोधी कॉलोनी जाना था जहां से मैंने रजनी को पिक करना था ।
“ये कार किसकी है ?” - फिर भी मैंने अटैंडेंट से सवाल किया ।
“पता नहीं, साहब ।” - वो बोला ।
“किसी रेजीडेंट की ?”
“गैस्ट की भी हो सकती है ।”
“हूं ?”
मैंने मोबाइल कैमरे से कार की आगे पीछे से दो तसवीरें यूं खींची कि फ्रेम में नम्बर प्लेट भी आ जाती और वहां से रुखसत हुआ ।
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मैं रजनी के साथ रोज़वुड क्लब पहुंचा ।
रजनी गुलाबी रंग का लहंगा-चोली पहने थी और जगमग जगमग कर रही थी । वो पोशाक दिल्ली की जनवरी की ठण्ड के लिहाज से उपयुक्त नहीं थी लेकिन उसे कोई परवाह नहीं जान पड़ती थी । आखिर नौजवानी की अपनी गर्मी होती है । उसके साथ चलता मैं खुद को शहजादा गुलफाम महसूस कर रहा था और बल्लियों उछल रहा था क्योंकि लान में कदम रखते ही बेशुमार तारीफी निगाहें हम पर पड़ने लगी थीं ।
पार्टी का पंडाल किसी टॉप के केटरर का कमाल जान पड़ता था, वो फिल्दी रिच शादियों के मंडप की तरह सुसज्यित था और वहां भरपूर रौनक और हलचल थी ।
प्रतियोगियों की उस पार्टी का अपना अलग रिसैप्शन था, अपना फोटो कार्ड दिखा कर जहां से रजनी ने अपना गले में लटकाने वाला फैंसी कार्ड हासिल किया जिस पर ‘पार्टीसिपेंट’ लिखा था । वैसा ही कार्ड उसने मुझे दिलवाया जिस पर ‘गैस्ट’ लिखा था । हमने वो कार्ड अपने अपने गले में पहन लिये ।
गेट पर प्रतियोगिता के आर्गेनाइजर की हैसियत से अमरनाथ परमार खड़ा था और गर्मजोशी से गैस्ट्स को रिसीव कर रहा था ।
फैमिली में मातम था तो क्या हुआ ! दि शो मस्ट गो आन !
कमीना रजनी से बगलगीर हो कर मिला और मुझे सुलगा दिया ।
साला ठरकी !
फिर उसकी निगाह मेरे पर पड़ी ।
उसके नेत्र सिकुड़े और मुंह ऐसे खुला जैसे यकीन न आ रहा हो कि मुझे देख रहा था ।
“राज ।” - रजनी मधुर स्वर में बोली - “मेरा मंगेतर ।”
“मंगेतर ! ओह ! वैलकम !”
कम्बख्त ‘वैलकम’ यूं बोला जैसे श्राप दे रहा हो ।
उसने रजनी को अपने से अलग किया और बेमन से, एक मजबूरी के तहत मेरे से हाथ मिलाया - मिलाया क्या, बस छुआ ।
हम भीतर दाखिल हुए और भीड़ का अंग बने ।
ड्रिंक्स की बड़ी मुस्तैद सर्विस जारी थी । मैंने विस्की का एक पैग काबू में किया और रजनी ने जूस का एक गिलास थामा ।
“वाइन भी है ।” - मैं बोला ।
“तो ?” - वो बोली ।
“वो ले न ! वो शराब थोड़े ही होती है !”
“तो क्या चरणामृत होती है ? गंगाजल होती है ?”
“समझती नहीं है । अरे, मौका हो, दस्तूर हो तो सेलीब्रेशन के लिये कभी कभार वाइन पी लेने में कोई हर्ज नहीं होता । अंगूर का रस होता है वो ।”
“मैं सोचूंगी इस बाबत । अभी बहुत टाइम है । अभी बहुत देर तक रुकना है हमने यहां । नो ?”
“यस ।”
फिर उसकी उन मेहमानों से ‘हल्लो’ होने लगी जिन को बतौर प्रतियोगी वो जानती पहचानती थी ।
मैंने एक सिग्रेट सुलगा लिया और सर्व होते ड्रिंक्स का आनन्द लेने लगा ।
तभी मुझे बांसुरी कुशवाहा दिखाई दी । उसने भी मुझे देखा तो वो मेरे करीब आयी ।
“हल्लो ।” - वो बोली ।
“हल्लो युअरसैल्फ, मैम ।” - मैं अदब से बोला ।
मैंने देखा उसके हाथ में चौड़े रिम वाला किसी काकटेल का गिलास था ।
उसने मेरी निगाह का अनुसरण किया तो गिलास ऊंचा करती बोली - “चियर्स !”
“चियर्स !” - मैं बोला ।
“मैं तुम्हें कबूतर कहने लगी थी ।”
“कहतीं । मैंने कोई माईंड तो नहीं करना था !”
“कैसे कहती ! तुम तो जायन्ट स्लेयर हो !”
“जी !”
“फ्राइडे को शरद की क्या गत बनाई थी !”
“मैंने कुछ नहीं किया था । बस एक छोटी सी धक्की दी थी । शेफाली को उसकी स्लैप से बचाने के लिए ।”
“धक्की से वो रेत के बोरे की तरह ढेर हुआ था, धक्का देते तो पता नहीं क्या होता !”
मैं निर्दोष भाव से मुस्कराया ।
“यू सर्व्ड हिम राइट । ही डिजर्व्ड दैट । बहुत गैरजिम्मेदार है । बहुत ड्रिंक करता है । नहीं बाज आता ।”
मैं खामोश रहा ।
“यहां कैसे हो ? पार्टीसिपेंट हो ! नहीं” - उसने मेरे गले में लटका कार्ड पड़ा - “गैस्ट हो मेरी तरह । एनजाय युअरसैल्फ मिस्टर... मिस्टर...”
“शर्मा । राज शर्मा ।”
“मिलते हैं ।”
वो घूमी और आगे बढ़ कर भीड़ में जा मिली ।
मैंने करीब से गुजरते वेटर से नया पैग हासिल किया और नया सिग्रेट सुलगाया ।
मुझे इंस्पेक्टर यादव दिखाई दिया ।
वर्दी की जगह सूटबूट में सजा हुआ । हाथ में गिलास थामे ।
मुझे देख कर वो मेरे करीब पहुंचा । उसने मेरे गले में लटका ‘गैस्ट’ का कार्ड देखा ।
“गैस्ट !” - उसकी भवें उठी ।
“ऑनरेबल ।” - मैं बोला - “सम्मानित अतिथि ।”
“बहुत जुगाडू हो भई !”
“हूं तो सही - दिल्ली में रहते प्रैक्टिस हो ही जाती है जुगाड़ की - लेकिन इस बार कोई ज्यादा जुगाड़ नहीं करना पड़ा ।”
“अच्छा !”
“हां । मेरी सेक्रेट्री रजनी प्रतियोगी है । मैं उसका गैस्ट । जैसे तुम अपने भतीजे के गैस्ट हो जो कि तुमने बताया था कि यहां प्रतियोगी है ।”
“हां ।”
“लेकिन तुम गले में गैस्ट वाला कार्ड नहीं पहने हो !”
“शर्मा, मैं तीन सितारों वाला इन्स्पेक्टर होता हूं दिल्ली पुलिस का । किसकी मां ने सवा सेर सोंठ खाई है जो मेरे से मेरी यहां मौजूदगी की बाबत सवाल करे !”
“शिवेन्द्र सिंह यादव की मां ने ।”
“क्या !”
फिर बात उसकी समझ में आयी तो वो जोर से हंसा ।
“वैसे” - फिर बोला - “हूं मैं भतीजे के, प्रतियोगी के गैस्ट के तौर पर ही यहां । वो गले में लटकाने वाला कार्ड मेरी जेब में है ।”
“ओह ! पी क्या रहे हो ?”
“वही !” - वो धूर्त भाव से बोला - “लेकिन आरेंज जूस में ।”
“ओह !”
“पब्लिक में ड्रिंकिंग से पुलिस की, पुलिस आफिसर की, छवि खराब होती है न !”
“पहले से खराब चीज और खराब क्या होगी !”
“गोली मार देने लायक बात कही लेकिन जा माफ किया ।”
“शिवेन्द्र सिंह यादव की जय !”
वो फिर हंसा ।
“है कहां तेरी सैक्रेट्री ?” - फिर बोला ।
“यहीं है ।”
मैंने करीब खड़ी रजनी को आवाज दी ।
रजनी हमारे पास पहुंची ।
उसने यादव का अभिवादन किया ।
यादव पर कोई प्रतिक्रिया न हुई ।
“आप कौन ?” - वो बोला ।
“अरे, यादव साहब” - मैं बोला - “ये रजनी है । मेरी सैक्रेट्री । जिसे आप अभी याद कर रहे थे ।”
“ये” - यादव भौंचक्का सा बोला - “रजनी है !”
“हां ।”
“अरे ! मैंने तो पहचाना ही नहीं !”
“मैंने भी” - रजनी खनकती आवाज में बोली - “बिना वर्दी के आपको मुश्किल से पहचाना ।”
“कमाल है ! नयी ड्रैस ने, नये हेयर स्टाइल ने तो कायापलट ही कर दिया तुम्हारा ! फिल्म स्टार जान पड़ती हो !”
“थैंक्यू ।”
“तो चैस खेलती हो ?”
“जी हां ।”
“इसी ड्रैस में आओगी खेलने ?”
“अरे, नहीं, सर । ये तो पार्टी की वजह से पहनी ।”
“ठीक । विश यू आल दि बैस्ट ।”
“थैंक्यू सर ।”
“आता हूं ।”
वो चला गया ।
क्योंकि उसका गिलास खाली हो गया था । विस्की अगर आरेंज जूस में छुपा के लेनी थी तो बार का फेरा लगाना जरूरी था ।
रजनी फिर अपने प्लेयर्स के ग्रुप के पास सरक गयी ।
कुछ वक्त और गुजरा तो फिर मुझे शेफाली दिखाई दी । हमारी निगाहें लॉक हुईं तो उसके चेहरे पर हर्ष के भाव आये । लपक कर वो मेरे करीब पहुंची ।
मैंने देखा उसके हाथ में विस्की का गिलास था और तमतमाया हुआ चेहरा कहता था कि पहला भी नहीं था ।
“अरे !” - वो चहकती सी बोली - “तुम यहां ! इस पार्टी में ! आई नैवर एक्सपैक्टिड यू हेयर ! चैस प्लेयर हो ? पार्टीसिपेंट हो ?”
“गैस्ट हूं ।” - मैं बोला ।
“ओह ! किसके ?”
“मेरे !” - रजनी बोली ।
अभी वो मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, अभी जैसे आसमान से टपकी । उसने अथिकारपूर्ण ढण्ग से कन्धे के करीब से मेरी बांह थामी और फिर बोली - “मेरे ।”
“आई सी ।” - शेफाली उसका मुआयना सा करती बोली ।
“ही इज माई फियांस ।”
शेफाली के चेहरे पर से मुस्कराहट यूं ऑफ हुई जैसे बिजली का बल्ब ऑफ हुआ हो । उसने यूं मेरी तरफ देखा जैसे निगाहों से मुझे भस्म कर देना चाहती हो ।
मैं परे देखने लगा ।
“ओह !” - वो रजनी से सम्बोधित हुई - “फियांस यू सैड !”
“यस ।” - रजनी बोली ।
“शादी में देर है अभी ?”
“नहीं । देर कैसी ! यहां पार्टी से फारिग हो लें, शादी करके ही घर जायेंगे ।”
“कमाल है ! इतनी जल्दी किसलिये ?”
“बोलती हूं । जरा कान करीब लाइये ।”
शेफाली उसकी तरफ झुकी ।
“प्रेग्नेंट हूं ।” - रजनी राजदाराना लहजे से बोली - “इसलिये जल्दी है ।”
शेफाली छिटक कर परे हटी । उसकी निगाह रजनी के सपाट पेट पर पड़ी । फिर तुरंत व्यस्तता जताती बोली - “सी यू राज । सी यू मॉम !”
“नाट यैट । नाट यैट । वुड मी मॉम ? वाच दिस स्पेस” - उसने अपने सपाट पेट को एक उंगली से छुआ - “फार फरदर डवैलपमैंट्स ।”
“वैरी स्मार्ट !”
वो घूमी और पांव पटकती आगे बढ़ गयी ।
“ये क्या बकवास की तूने ?” - मैं भुनभुनाया ।
“बकवास नहीं की, सर्र ।” - वो सहज भाव से बोली - “मक्खी भिनभिनाती देखी, उड़ाई ।”
“वो नाराज होके गयी ?”
“क्यों ? आपकी जन्म-जन्म-के-फेरे थी ?”
“बहुत चहक रही है ।”
“हां । मालूम क्यों ?”
“क्यों ?”
“मैंने आप की राय मानी ।”
“राय मानी ! कौन सी राय मानी ?”
“जो आते ही आपने दी थी ।”
“अरे, कौन सी ?”
“लो ! कोई दस - बीस राय दी थीं जो भूल गये ! वो मौका - दस्तूर - सैलीब्रेशन वाली राय । वो वाइन - पी - लेने - में - कोई - हर्ज - नहीं - होता वाली, अंगूर - का - रस वाली राय !”
“तूने... तूने... वाइन पी !”
“अब सर्र का कहना तो मानना था न ! फिर वो कहते नहीं है कि वैन इन रोजुवुड, डू ऐज रोजवुडियंस डू ।”
“तूने सच में...”
“पहला घूंट बहुत खराब लगा । फिर मैंने उसमें विस्की डाल ली...”
“क्या ! वाइन में विस्की !”
“पहले बकबकी थी, फिर कड़वी लगने लगी । मैंने पैप्सी डाल ली ।”
“वाहन में विस्की । पैप्सी !”
“फिर ऐपल जूस डाल लिया तो जायका बढ़िया हो गया । मजा आ गया !”
उसने होंठ चटकाये ।
“मुंह खोल !”
“क्या ?”
“मुंह खोल !”
“क्यों, क्या चैक करेंगे ? क्यों चैक करेंगे ? पहले एक बात के लिए बढ़ावा देते हैं, फिर मिजाज दिखाते हैं ! यानी आपकी मानूं तो भी गलत,न मानूं तो भी गलत !”
“अब बस कर । मेरे से बेहतर तुझे कोई नहीं जानता । कुछ नहीं किया तूने । कुछ नहीं पिया तूने ।”
वो हंसी
तभी मुझे विशू मीरानी दिखाई दिया ।
वो फासले पर था, सूट पहनकर औकात बनाये था, फिर भी मैंने पहचाना । मेरे देखते देखते दूर दूर चलता ही वो आगे बढ़ा और एक जगह ठिठका ।
माधव धीमरे के सामने ।
ऐसा तो नहीं जान पड़ता था कि वो तभी वहां पहुंचे थे लेकिन मुझे वो तभी दिखाई दिये थे जबकि वहां पहुंचे मुझे एक घन्टा हो चुका था ।
मैंने देखा बारमैन धीमरे की तरफ झुक कर उसके कान में कुछ कह रहा था ।
धीमरे गौर से उसकी बात सुनता जान पड़ा, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया ।
बारमैन का भी सिर सहमति में हिला, वो वहां से हटा और फूड स्टाल्स पर पहुंचा । वहां से उसने कार्डबोर्ड के कार्टन में कुछ भोज्य पदार्थ पैक कराये और करीबी दूसरे स्टाल से मिनरल वाटर की एक बोतल हासिल की । फिर वो घूमा और दोनों चीजों को सम्भाले बाहर को बढ़ चला ।
मैंने गिलास को तिलांजलि दी, सिग्रेट फेंका और आगे बढ़ा ।
“क्या हुआ !” - रजनी सकपकाई सी बोली ।
मैंने उसे दिखाकर अपनी कनकी उंगली उठाई ।
“ओह !”
भीड़ में से रास्ता बनाता मैं आगे बढ़ा । बारमैन पंडाल से बाहर की ओर जा रहा था । उसके और अपने बीच में फासला रखते मैंने उसका अनुसरण किया ।
तभी शेफाली मेरे सामने आ खड़ी हुई ।
“यू चीट !” - वो फुंफकारी - “यू फ्रॉड !”
“आई एम ! आई एम ! नाव प्लीज...”
“यू सन आफ ए बिच !”
“बट दैट्स नाट पासिबल ! आई एम ओल्डर दैन यू ।”
वो भौंचक्की सी मुझे देखने लगी ।
“गिव वे ।” - मैंने बांह पकड़ कर जबरन उसे एक तरफ किया और पंडाल से बाहर को लपका ।
घूमकर शेफाली का मिजाज परखने का वक्त मेरे पास नहीं था ।
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लगभग दौड़ता सा मैं बाहर पहुंचा तो बारमैन मुझे फिर दिखाई दिया लेकिन न वो क्लब की इमारत की ओर बढ़ा और न उसने वहां से बाहर जाता रास्ता पकड़। । क्लब की इमारत का घेरा काट के वो उसके परले पहलू में पहुंचा । उधर भी एक बड़ा कम्पाउंड था लेकिन नहीं लगता था कि किसी - इस्तेमाल में आता था । शायद इसी वजह से वहां रौशनी का कोई उसका अपना साधन मौजूद नहीं था । जो थोड़ी बहुत रौशनी वहां थी वो क्लब की इमारत की खिड़कियों से निकलती रौशनी की वजह से थी इसलिये वो कम्पाउंड के मिडल तक भी नहीं पहुंच रही थी ।
बारमैन उस उजाड़ कम्पाउंड में आगे बढ़ा जा रहा था । रह रह कर वो घूमकर अपने पीछे निगाह दौड़ाता था इसलिये मैं उसके पीछे कम्पाउंड में कदम नहीं रख सकता था, रखता तो निश्चित रूप से देख लिया जाता ।
मैं वहीं ठिठका खड़ा आंखें फाड़े सामने देखता रहा ।
मेरी आंखें अन्धेरे की अभ्यस्त हुईं तो मैंने देखा कि अन्धेरे कम्पाउंड के आखिरी सिरे पर क्लब की बाउंड्री वाल के करीब बना खपरैल की छत वाला एक छोटा सा काटेज सा था जो अन्धकार में डूबा हुआ था ।
आगे बढ़ता बारमैन मुझे महज एक साया लग रहा था जो कि उस कॉटेज पर जा के रुका । कुछ क्षण वो उसके बन्द दरवाजे पर ठिठका, फिर दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल हुआ । भीतर मद्धम सी रोशनी हुई ।
जरूर कोई फुटलाइट जलाई गयी थी ।
दरवाजा बन्द हो गया ।
मैंने कम्पाउंड में कदम डाला और दबे पांव आगे को लपका ।
कॉटेज के एक पहलू में उससे कोई दस गज दूर एक मोटे तने वाला पेड़ था जिसकी ओट उस घड़ी मेरे लिये कारगर साबित हो सकती थी ।
मैं दौड़ कर पेड़ तक पहुंचा ।
कोई हलचल न हुई ।
काटेज के दायें पहलू में दो बन्द खिड़कियां थीं जिनके ऊपर के भाग शीशे के जान पड़ते थे ।
मैं एक खिड़की पर पहुंचा ।
शीशा बहुत ऊंचा था ।
मैंने आसपास निगाह दौड़ाई तो दीवार के करीब मुझे एक ड्रम लुढ़का पड़ा दिखाई दिया । मैंने करीब जाकर उसका मुआयना किया तो उसे अपने काम का पाया । ड्रम को निशब्द लुढ़काता मैं उसे खिड़की पर ले आया । वहां मैंने उसको सीधा खड़ा किया और उसके ऊपर चढ़ गया ।
अब मेरा सिर खिड़की के शीशे के लैवल पर था और मैं भीतर झांक सकता था ।
भीतर एक कमजोर सी फुटलाइट ही जल रही थी जो कि फुट लैवल पर ही पड़ रही थी । फिर भी आंखें फाड़ कर देखने पर मैंने महसूस किया कि वो क्लब का कबाड़खाना था । वहां टूटी कुर्सियां, मेज, लकड़ी के क्रेट, गत्ते की पेटियों वगैरह का अम्बार था जो कि दीवार के करीब तो छत तक पहुंच रहा था । वो काफी बड़ा कमरा था लेकिन कबाड़ के सिवाय मुझे उसमें कुछ न दिखाई दिया ।
बारमैन भी नहीं ।
कहां गया ?
मैं ड्रम से उतर कर दरवाजे पर पहुंचा ।
दरवाजा भीतर से बन्द था, उसके कुंडे के साथ एक जर्जर सा ताला लटक रहा था जिसकी चाबी ताले में ही थी ।
वो भीतर ही था ।
कहां ?
मैं वापिस खिड़की पर पहुंचा और ड्रम पर चढ़ गया ।
अगर भीतर था तो लौटता, लौटता तो मुझे दिखाई देता !
सांस रोके मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
पांच-छ: मिनट गुजरे ।
कहां था कम्बख्त ! कहीं कबाड़ के पीछे ! हो सकता था । लेकिन वहां क्या कर रहा था !
एकाएक एक कोने में मुझे हल्की सी हलचल महसूस हुई । ऐसा लगा जैसे कि कोने में दीवार के करीब फर्श हिल रहा हो ।
मैं आंखें फाड़ फाड़ कर भीतर झांकता रहा ।
फिर हिलता हिस्सा ड्रा-ब्रिज की तरह उठने लगा ।
तहखाना ।
नीचे तहखाना था जो कि बारमैन की मंजिल था, इसलिये वो मुझे दिखाई नहीं दे रहा था ।
तहखाने के दहाने पर से उठता मुझे बारमैन का सिर दिखाई दिया । फिर वो तहखाने से बाहर निकला, उसने उसका ढक्कन जैसा आयताकार दरवाजा नीचे गिरा कर बन्द किया और दरवाजे की ओर बढ़ा ।
मैंने नोट किया कि अब उसके दोनों हाथ खाली थे ।
दरवाजे के रास्ते में वो ठिठका, उसने झुक कर फुटलाइट का स्विच आफ किया ।
मैं खामोशी से ड्रम पर से उतरा और उसके पीछे दुबक गया ।
दरवाजा खुलने और बन्द होने की आवाज आयी ।
कुछ क्षण बाद मुझे कम्पाउंड में क्लब की इमारत की ओर बढ़ता बारमैन दिखाई दिया ।
वो मेरी निगाहों से ओझल हो गया तो मैं उठा । मैंने ड्रम को लिटाया और लुढ़काते हुए उसे वहां पहुंचाया जहां से मैंने उसे काबू में किया था । वहां लोहे का और भी कबाड़ पड़ा था जिसमें से एक मजबूत छड़ मैंने छांटी । छड़ के साथ मैं कॉटेज के दरवाजे पर लौटा ।
अब दरवाजे पर ताला झूल रहा था ।
मैंने एक सावधान निगाह कंपाउन्ड में दूर तक दौड़ाई, फिर छड़ को कुंडे में डाल कर पूरी शक्ति से उसे उमेठा । पहली कोशिश में ताले समेत कुंडा अपनी जगह से उखड़ गया । मैंने छड़ को तिलांजलि दी और दरवाजे को धक्का दिया । दरवाजा निशब्द खुला । मैंने भीतर कदम डाला और दरवाजे को अपने पीछे बन्द किया । अन्धेरे में एक एक कदम मजबूती से उठाता मैं तहखाने के ढक्कन जैसे दरवाजे पर पहुंचा । मैंने ढक्कन उठाया तो आगे मुझे नीचे उतरती अंधेरी सीढ़ियां दिखाई दी । झिझकते हुए मैंने उन पर कदम रखा । मैं दो सीढ़ियां नीचे उतरा तो दीवार का सहारा लेता मेरा हाथ एक छोटे से स्विच बोर्ड से टकराया जिस पर एक ही स्विच था । मैंने उसे आन किया तो नीचे रौशनी हो गयी । वो रौशनी फुटलाइट जैसी मद्धम नहीं थी, वो ऊपर तहखाने के दहाने तक पहुंच रही थी और कोई कॉटेज के करीब होता तो बाहर से उसका आभास पा सकता था जो कि वांछित नहीं था । ढ़क्कन गिराने से मैं नीचे पिंजरे में चूहे की तरह फंस सकता था ।
कुछ क्षण झिझकने के बाद मैंने ढ़क्कन गिराया और बाकी की, अब रौशन, सीढ़ियां तय की ।
आगे जो नजारा मुझे दिखाई दिया वो अपेक्षित था - बारमैन खाने पीने के सामान के साथ वहां पहुंचा था और खाली हाथ लौटा था - फिर भी मैं चौंका ।
तहखाने के फर्श पर बिछी एक फटेहाल मैट्रेस पर सार्थक बराल पड़ा था । उसकी टांगें टखनों के पास क्यी थीं, हाथ पीठ पीछे बंधे थे और मुंह पर सर्जीकल टेप की चौड़ी पट्टी चढ़ी हुई थी । उसके मुंह माथे पर चोटों के, खरोंचों के निशान थे और एक आंख सूजी हुई थी । वो होश में था और बितर बितर मुझे देख रहा था ।
सबसे पहले मैंने उसके मुंह पर से टेप उतारा, फिर हाथ, पांव खोले । बड़ी मेहनत से वो उठ कर बैठा और अपनी कलाईया और पिंडलियां मसलने लगा ।
मैट्रेस के करीब ही मिनरल वाटर की एक तिहाई भरी बोतल पड़ी थी । मैंने बोतल उठा कर उसे थमाई तो वो गटागट बोतल का सारा पानी पी गया और लम्बी सांसें लेने लगा ।
“उठ के खड़े होवो ।” - मैं बोला ।
वो सकपकाया
“अरे, देखो, चैक करो, कि चल फिर सकते हो या नहीं !”
“ओह !” - वो क्षीण स्वर में बोला - “नहीं होगा ।”
“मैं तुम्हें उठा के यहां से नहीं ले जा सकता ।”
उसने उठ कर चलने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका ।
वो लड़खड़ाया, डगमगाया और फिर बैठ गया ।
“नहीं चल सकते ।” - मैं चिन्तित भाव से बोला ।
“मेरा जिस्म जख्मी है ।” - हांफता सा वो बोला - “पसलियां चटक गयी जान पड़ती हैं । हिलता हूं तो बला की दर्द होती है ।”
“तुम तो हास्पिटल केस हो, भाई ।”
वो खामोश रहा ।
मैंने मोबाइल निकाला और यादव को फोन किया । वो लाइन पर आया तो मैंने उसे उसके फरार मुजरिम की खबर की ।
उसके मुंह से हैरानी की सिसकारी निकली, फिर बोला - “आता हूं ।”
“थैंक्यू ।”
मैंने फोन जेब के हवाले किया और सार्थक की ओर घूमा ।
“कहां फोन किया ?” - वो बोला - “हस्पताल ?”
“नहीं । एक वाकिफ पुलिस आफिसर को जो इत्तफाक से यहीं है ।”
“कौन पुलिस आफिसर ?”
“इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव ।”
“वो ! वो तो पहले ही जिद पकड़े बैठा है कि मैं कातिल हूं । श्यामला के केस की तफ्तीश के लिए वो ही तो मोतीबाग पहुंचा था !”
“जिस हालत में तुम हो, जिस जगह पर तुम हो, उस पर एक निगाह डाल चुकने के बाद वो अपनी जिद पर कायम नहीं रह पायेगा । तुम्हारी मौजूदा हालत अपनी कहानी खुद कह रही है । और वो न अन्धा है, न बहरा है । क्या समझे ?”
उसने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“कब से यहां हो ?”
“तभी से, जब से अगवा हुआ ।”
“परसों से ?”
“हां ।”
“किसने किया ?”
“माधव धीमरे ने और उस हरामजादे ने जो अभी यहां मुझे खाना खिलाने आया था । नाम नहीं मालूम ।”
“नाम विशू मीरानी है । ‘रॉक्स’ का बारमैन है ।”
“ये मालूम है । सूरत मैं पहले से पहचानता हूं ।”
“‘रॉक्स’ में जाते रहने की वजह से ?”
“हां । पर बारमैन का नाम जान के मैंने क्या लेना था ?”
“क्यों हुआ अगवा ?”
“अब मैं आजाद हूं अब अगवा करने वाले खुद बोलेंगे न !”
“जख्मी कैसे हुए ?”
“इन्हीं लोगों ने धुना रोज ।”
“क्यों ?”
“बोलते थे मेरी सजा थी ।”
“किस बात की ?”
“नहीं बोला ।”
“तुमने एडवोकेट महाजन को फोन किया था कि तुम्हें आइन्दा उसकी सर्विसिज की जरूरत नहीं थी !”
“मैंने नहीं किया था ।”
“तुम्हारे नाम से किसी और ने किया ! तुम्हारी आवाज बनाकर ! उन्हीं दोनों में से किसी ने ?”
“अगर ऐसा कोई फोन हुआ था तो हां । क्योंकि तुम्हारे फ्लैट पर मेरे नाम से तुम्हारे लिये एक चिट भी इन्होंने लिखी थी । मीरानी ने । मेरे सामने । मुझे दिखा के । साथ में ये कह के कि तुम कौन सा मेरा हैण्डराइटिंग पहचानते थे ।”
“ठीक !”
“लेकिन वकील को फोन किसलिये ?”
“उस पर ये जाहिर करने के लिए कि तुम नेपाल खिसक जाने का इरादा रखते थे । तुम्हारी मौजूदा हालत अपनी कहानी खुद कह रही है । अन्त पन्त तुम्हारी जान जाना निश्चित था । ये लोग लाश को ठिकाने लगा देते और यही समझा जाता कि तुम नेपाल निकल भागने में कामयाब हो गये । यानी फरार अपराधी के तौर पर तुम्हारी तलाश बन्द हो जाती ।”
“ओह !”
“इन्हें पता कैसे लगा कि तुम कहां थे ! तुमने जैसे संगीता को बताया था, वैसे किसी और को भी बताया था कि मेरे फ्लैट पर थे ?”
“हां । अपने बड़े भाई शेखर को बताया था ।”
अब शेखर की धुनाई की वजह साफ थी । उन्होंने उसी से सार्थक का ख़ुफ़िया अता पता निकलवाया था ।
तभी सीढ़ियों पर धम्म धम्म पड़ते कदमों की आहट हुई ।
इंस्पेक्टर यादव आया था ।
सतर्क निगाह से उसने माहौल का मुआयना किया । उसकी निगाह पैन होती सारे तहखाने में घूमी और फिर मेरे पर आ कर टिकी ।
“ये बुरे हाल में है ।” - मैं बोला - “इसे हस्पताल पहुंचाये जाने की जरूरत है ।”
“मैंने लोकल थाने में फोन किया है । वहां से फोर्स पहुंचती ही होगी । फिर वही लोग इसे हस्पताल पहुंचाने का इन्तजाम करेंगे । लेकिन हुआ क्या ? ये मिला कैसे तुम्हें ?”
मैंने तमाम किस्सा बयान किया ।
“हूं ।” - उसने मुझ पर से निगाह हटाई - “अब तुम बोलो, भई...”
वो बोलता बोलता रुक गया ।
सार्थक मैट्रेस पर लुढ़का पड़ा था । उसकी आंखें बन्द थी ।
तभी कई पुलिस वाले वहां पहुंचे ।
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