लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

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mastram
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

”हां मैं उसे जानता हूँ, खुद मानू ने ही मुझे उसके बारे में बताया था। अब कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि मानू द्वारा हवेली बेचे जाने से इंकार करने पर उसी ने मानू का कत्ल कर दिया।“
”हो सकता है, ऐसा ही हुआ हो।“
”हो सकता है“ - वो विरोध जताता हुआ बोला - ”ऐसा नहीं भी हुआ हो।“
”जरूर हो सकता है जनाब, वो निर्दोष हो सकता है? ऐसे में उसका नाम बताने में आपको क्या हर्ज है?“
”अगर वो गुनहगार भी है तो मुझे उसका नाम बताने में कोई हर्ज नहीं।“ - वो दृढ़ स्वर में बोला।
”शुक्रिया बंदापरवर“ - मैं बोला - ”मगर अभी तक मुझे उसका नाम सुनने को नहीं मिला।“
”बच्चन सिंह उर्फ बच्चू, मकानों के खरीद-फरोख्त का धंधा करता है।“
”उसका कोई अता-पता।“
”आलम नगर पहुंचकर किसी से भी पूछ लेना।“
”शुक्रिया“ - मैं उठकर खड़ा हो गया।
”एक बात और।“ - वो खुद भी उठता हुआ बोला।
”जी कहिए।“
”किसी अजनबी के लिये यह शहर बेहद खतरनाक है और फिर खास तुम्हारे जैसे व्यक्ति के लिए जिसका कि मकसद ही खुराफातों से भरा पड़ा है। उसके साथ जो न हो जाय वही कम है।“
क्या शहर था, हर दूसरा आदमी मुझे डराने या सावधान रहने की नसीहत दे डालता था।
”आप मुझे डरा रहे हैं या फिर अपने शहर की बुराइयाँ गिना रहे हैं।“
”गलत समझे, मैं सिर्फ तुम्हे आगाह कर रहा हूँ। खबरदार कर रहा हूँ, आने वाली मुसीबतों से, और ये कहना चाहता हूँ कि वक्त-बेवक्त, जायज या नाजायज किसी भी प्रकार की मदद दरकार हो तो मुझे इत्तिला करना।“
कहते हुए उसने अपना एक विजटिंग कार्ड निकालकर मुझे पकड़ा दिया।
कार्ड जेब के हवाले करके मैंने एक बार पुनः उसे धन्यवाद दिया और बाहर निकल आया। हैरानी की बात थी कि इस केस में मैं जिससे भी मिलता था वही मेरी निगाहों में खटकने लगता था। अब यह आदमी भी मुझे बार-बार खटक रहा था। मैं उसकी बातों से तनिक भी आश्वस्त नहीं था, मुझे लग रहा था कि वो खुद को जैसा शो करना चाहता है असलियत उसके विपरीत है और वो गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर जान पड़ता था। मगर लीड को फॉलो करना मेरी जरूरत थी, मजबूरी थी।
ग्यारह बजे मैं आलम नगर पहुंचा।
बच्चन सिंह का नाम पूछने पर लोगों ने अनभिज्ञता जाहिर की मगर जब मैंने ”बच्चू“ कहा तो फौरन एक मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटा हुआ छोटा सा लड़का सामने आया। तत्पश्चात वो मुझे एक दो मंजिला इमारत के सामने छोड़ गया। घंटी की तलाश में मैंने चौखट के अगल-बगल निगाह दौड़ाया मगर वहाँ मुझे किसी कॉल बेल स्विच के दर्शन नहीं हुए। अतः मैंने दरवाजे पर दस्तक दे दिया और इंतजार करने लगा। करोड़ों का सौदा करने को मरा जा रहा प्रापर्टी डीलर इस मुर्गी के दरबे में रहता हो भला ये कोई मानने वाली बात थी। पता नहीं किसके पास भेज दिया था बुढऊ ने मुझे।
दो मिनट बीत गये मगर दरवाजा नहीं खुला।
मैंने दोबारा दस्तक दिया।
जवाब नदारद। और इससे पहले कि मैं तीसरी बार दस्तक देता!
”कौन है?“ एक सुरीला किंतु तीखा नारी स्वर मुझे सुनाई पड़ा, आवाज ऊपर से आई थी। मैंने गर्दन उठाकर देखा, पहली मंजिल की बॉलकनी पर एक कम उम्र सांवली, किन्तु आकर्षक नयन-नक्श वाली युवती खड़ी थी।
”किससे मिलना है बाबूजी?
मुझे अपनी ओर देखता पाकर वो तनिक मुस्कराती हुई बोली।
”बच्चू से।“ मैंने उत्तर दिया।
”वो घर पर नहीं है, शाम को आयेगा।“
”तुम कौन हो?“
”मैं कौन हूँ“ - वो अचकचा सी गई फिर सम्भलती हुई बोली - ”मेरा नाम शम्मो है, तुम्हे बच्चू से क्या काम था?“
”कुछ खास नहीं मैं शाम को दोबारा आ जाऊँगा।“
”ऊपर आ जाओ।“
”क्या?“
”मैंने कहा ऊपर आ जाओ, बहरे हो क्या?“
मैं उसकी बात का जवाब दिये बगैर सीढ़ियां चढ़ने लगा।
मेरे ऊपर पहुंचने से पहले वो दरवाजा खोल चुकी थी, मैं अंदर दाखिल हुआ तब उसने मेरे पीठ पीछे दरवाजा बंद कर दिया।
”आओ।“ कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, मैं उसके साथ चलने लगा। उसका यह व्यवहार हैरान कर देने वाला था। मुझे लेकर वो जिस कमरे में पहुंची थी वो निश्चय ही बैडरूम के रूप में प्रयुक्त होने वाला एक बड़ा कमरा था, उसने मुझे पलंग पर बैठने का इशारा किया और खुद मेरे सामने एक स्टूल पर बैठ गई।
”अब बोलो क्या काम है बच्चू से?“
”ये मैं उसी को बताऊँगा।“
”तुम्हारी मर्जी है मैं तो सिर्फ इसलिए पूछ रही थी कि अगर तुम ”उस लिए‘‘ आये हो तो तुम्हारा मतलब मुझसे भी हल हो सकता है।“
”उस लिये“ - मैं अचकचाता हुआ बोला- ”मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।“
”अच्छा। इतने नासमझ तो नहीं दिखते।“
”देखो। मैं सचमुच नहीं समझा कि तुम कहना क्या चाहती हो?
”इधर पहली बार आये हो लगता है जो इतना भी नहीं जानते कि यहां लोग दो जिस्मों के बीच की दूरियां मिटाने आते हैं।“
”क्या?“ मैं भौंचक्का सा उसकी शक्ल देखने लगा, वो जो चेहरे पर एक आकर्षक मुस्कान लिए अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से लगातार मुझे घूरे जा रही थी। सहसा मुझे यकीन नहीं आया कि अभी-अभी वो इस घर को कोठा बताकर हटी थी। अब मुझे उसके ”उस लिए‘‘ का अर्थ भी समझ में आ चुका था। खैर मैं अपने मनोभावों पर काबू पाता हुआ बोला - ”देखो मैं बच्चू से कुछ बेहद जरूरी बात करना चाहता था, इसलिए यहाँ आ पहुंचा। ना कि तुम्हारे ”उस‘‘ के लिए।“
कहकर मैं उठ खड़ा हुआ।
मेरी हड़बड़ाहट पर वो खिलखिलाती हुई हंस पड़ी।
”क्या हुआ?“
”इतना घबड़ा क्यों रहे हो बाबू, बैठ जाओ। मैं तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती थोड़े ही कर रही हूँ।“
”मैं शाम को आऊंगा।“
वह उठ खड़ी हुई, उसने मेरे कंधों पर हाथ रखा और पलंग पर धकेल दिया, उस दौरान उसका दायाँ उरोज मेरे कंधे से टकरा गया मेरे पूरे शरीर में झनझनाहट सी दौड़ गई जबकि वो जालिम मुस्कराती हुई बोली- ‘‘एक और है मेरे पास, पूरे दो हैं देखोगे।‘‘
‘‘नहीं रहने दो, तुम कहती हो तो दो ही होंगे, बिना देखे ही यकीन कर लेता हूं।‘‘
‘‘अच्छा तनिक ठहरो, चले मत जाना मैं अभी आई।‘‘
कहकर वो कमरे से बाहर निकल गई, मैं दबे पांव दरवाजे तक पहुंचा और हल्की सी झिर्री बनाकर भीतर देखने लगा। मेरे देखते ही देखते वो एक दूसरा दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गई। मैं दबे पांव उसके पीछे लपका और दरवाजे के समीप पहुंचकर अपना समूचा ध्यान अंदर से उभरने वाली किसी आहट को सुनने के लिए केंद्रित कर दिया।
अभी चंद मिनट ही गुजरे थे कि मुझे अंदर से आती शम्मो की आवाज सुनाई पड़ी।
”हल्लो“ - वो निश्चय ही किसी से फोन पर बात कर रही थी - ”मैं शम्मो बोल रही हूँ।“
जवाब में दूसरी तरफ से क्या कहा गया ये जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं था।
”आज बच्चू को तलाश करता एक बाबू यहां आ पहुंचा है कहता है उसे बच्चू से कुछ काम है।“
पुनः चुप्पी छा गई।
‘‘हां-हां मुझे तो वही लगता है और भला इतनी शिद्दत से उसे कौन तलाश करेगा।“
एक बार फिर से शम्मो की आवाज आनी बंद हो गई। मैं दम साधे प्रतीक्षा करने लगा।
”ठीक है, मैं उसे कुछ खिला-पिला देती हूँ। आधे-एक घंटे के लिए तो समझो वो गया काम से“....नहीं, नहीं उसे कोई शक नहीं होगा।....... तुम घबड़ाओ मत अगर उसे होश आ भी गया तो मैं उसे उलझा लूंगी......मैं अब फोन रखती हूँ कहीं वो चला ना जाय।“
मैं दरवाजे से हट गया और वापस पहले वाले कमरे में आ बैठा।
जनाब औरतें दो-मुंहा सांप की तरह होती हैं। इसलिए जब भी कोई औरत आप पर बेवजह मेहरबान होती दिखाई दे, तो संभल जाएं क्योंकि उस वक्त वह अपने दूसरे मुंह से आपको डसने की तैयारी कर रही होती है।
थोड़ी देर बाद विस्की की बोतल और गिलास हाथ में लिए शम्मो ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने महसूस किया कि इस दौरान उसने अपने चेहरे पर हल्का मेकअप भी पोत लिया था। खूबसूरत तो वो यकीनन थी ऊपर से कजरारी बड़ी-बड़ी आंखों का तो कहना ही क्या था? उसके तीखे नयन-नक्श किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेने की क्षमता रखते थे। मगर इन सब के अलावा उसमें कुछ खामियाँ भी थी, वो हरजाई थी, बेवफा थी, दगाबाज थी।
गिलास में विस्की उड़ेलते वक्त, वो जानबूझकर इतना नीचे झुकी कि मुझे उसकी खुले गले की बॉलकनी में झांकने का मौका मिल जाय। सचमुच लाजवाब चीज थी स्साली। मेरी निगाहों का अनुसरण कर उसने जो शरमाने की एक्टिंग की वो भी लाजवाब थी, गिलास में विस्की उड़लने के पश्चात् उसने जाम मुझे पकड़ा दिया और उठकर मेरी गोद में बैठ गई। मैं निहाल हुआ, उसने मेरे हाथों से जाम लेकर गिलास को चूमा और मुस्कुराते हुए मेरे होठां से लगा दिया। शबाब के हाथों में गिलास देखकर, कौन बेवकूफ होगा जो पीने से इंकार कर दे। एक बारगी तो मेरा भी दिल हुआ कि, अगर वो जहर भी है तो पी जाऊँ।
”क्या सोचने लगे? वो खनकती हुई बोली अब मुझे उसकी आवाज भी पहले से ज्यादा लुभावनी प्रतीत हुई और होती भी क्यों नहीं आखिरकार वो मेरी गोद में बैठी हुई थी।
”मुझे अकेले पीने की आदत नहीं।“
”तुम अकेले कहां हो बाबू?“ वो इठलाकर बोली - ”मैं जो हूँ तुम्हारे साथ।“
”हाँ मगर मैं चाहता हूँ तुम भी साथ बैठकर पियो।“
”बस इतनी सी बात है, मैं अभी आई।“ - कहकर वो कमरे से बाहर निकल गई। मैं समझ गया वो दूसरा गिलास लेने गई है, वक्त बहुत कम था वो किसी भी क्षण वापस लौट सकती थी। पलंग से उठकर खिड़की से बाहर झांका, यह मकान का पिछवाड़ा था, गली सूनी पड़ी थी। मैंने पूरा जाम गली में उड़ेल दिया और वापस पलंग पर पहुंचकर बोतल खोलकर अपना गिलास एक चौथाई भर लिया। अब सारा दारोमदार इस बात पर था कि जो भी मिलावट थी वो महज गिलास तक सीमित रही हो, जिसका फैसला अगले चंद मिनटों में हो जाने वाला था।
दो मिनट बाद वो कमरे में वापस लौटी, उसके हाथ में खाली कांच का गिलास देखकर मुझे तसल्ली हुई, मुस्कराती हुई वो मेरे बगल में आ बैठी।
जाम तैयार कर चुकने के बाद उसने चियर्स बोला तत्पश्चात हम दोनों चुस्कियां लेने लगे, अभिनय में उसका पार्ट अब खत्म हो चुका था। जिसे उसने बखूबी अदा किया था।
अब मेरी बारी थी।
मेरा गिलास खाली हो चुका था। मेरी आंखें नींद से बोझिल होने लगी। मुझे पूरा का पूरा कमरा घूमता प्रतीत हुआ। धीरे-धीरे मैं बेहोशी के गर्त में डूबता चला गया और एक वक्त वो भी आया जब मैं बेहोशी के आलम में पलंग पर ढेर हो गया।
मेरे गिरने के साथ ही वो पलंग से उठ खड़ी हुई, उसके होठों पर एक तिक्त मुस्कान रेंग रही थी। अपनी जीत पर वो फूले नहीं समा रही थी।
बहरहाल कुछ देर तक यूंही अनिश्चित सी खड़ी रहने के पश्चात वो कमरे से बाहर निकल गई। मैं इंतजार करने लगा, उसके अगले कदम का, बल्की उत्सुक था ये जानने को कि अब वो क्या करने वाली थी?
मुझे ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा लगभग पांच मिनट बाद ही वो कमरे में वापस लौटी। मगर वो खाली हाथ नहीं थी। बल्कि लाइलोन की एक पतली िंकंतु, दूर से ही मजबूत दिखने वाली डोरी वो अपने साथ लेकर आई थी। कमरे में घुसने के साथ ही वो मेरे पैरों के पास आकर खड़ी हो गई। फिर ज्योंही उसने डोरी का फंदा मेरे पैरों में डालना चाहा मैं उठकर बैठ गया।
‘‘हल्लो स्वीट हार्ट।‘‘
फिर एक साथ दो काम हुए, वह बौखलाकर दो कदम पीछे हट गई और दूसरा उसका हाथ तेजी से अपने गिरेबां की तरफ बढ़ा। वहाँ मौजूद चीज क्या थी यह कहना मुहाल था। मगर वह जो भी था निश्चय ही मेरे लिए खतरनाक था। इससे पहले की वो अपने मकसद में कामयाब हो पाती, मैंने अपनी रिवाल्वर उसपर तान दी।
”डोंट मूव।“ - मैं तिक्त स्वर में बोला और पलंग से उठ खड़ा हुआ। उसका हाथ जहां का तहां फ्रीज हो गया। मैं उसकी तरफ बढ़ा मेरा इरादा उसके गिरेबां से वो चीज निकाल लेने का था, जिसका इस्तेमाल वो अपने बचाव के लिए करना चाहती थी।
मैं उसके करीब पहुंचा।
”नमस्ते फूलन देवी जी“ - मैं बोला- ”उम्मीद है अब आपके होश दुरूस्त हो चुके होंगें।“
जवाब में उसका अंग-प्रत्यंग सुलग उठा। उसकी बड़ी-बड़ी खूबसूरत आंखें इस वक्त आग उगलती सी प्रतीत हो रही थीं। मानो वो अपनी आंखों की ज्वाला में मुझे भस्म कर देना चाहती हो। खैर मैं उसके समीप पहुंचा। मगर उसके गिरेबां में हाथ डालने का हौसला न कर सका। जिन्दगी के यही वो नाजुक क्षण होते हैं। जहाँ पहुंचकर इंसान - अगर आप हैं तो - बेबस हो जाता है। उसके पूर्व संस्कार आड़े आ जाते हैं।
”माल निकालो“ - मैं रिवाल्वर से उसे टकोहता हुआ बोला।
”माल निकालो?“ वो सकपकाई।
”मैं उस माल की बात कर रहा हूँ जो तुमने अपने गिरेबां में छुपाया हुआ है।
”अच्छा वो“
”हां वो“
”खुद क्यों नहीं निकाल लेते बाबू।“ - वो इठलाती हुई मुस्कराई - ”क्या शर्म आ रही है?“
तभी अचानक ही बिग बी कि फिल्म ”हम“ का एक सीन मेरे दिमाग में उभरा बस फिर क्या था, मैंने आनन-फानन में अपने सामने खड़ी शम्मों को उल्टा कर दिया। उसके गिरेबां में मौजूद वस्तु फर्श पर गिर पड़ी मगर वो कोई सिक्का नहीं था बल्कि हाथी दांत के मूठ वाली एक छोटी पिस्टल थी। दोबारा शम्मो को सीधा खड़ा करने के पश्चात मैं उसकी पिस्तौल की तरफ झुका। इससे पहले की मैं फर्श पर पड़ी पिस्तौल को उठा पाता, शम्मो की टांग चली मैं पीठ के बल नीचे गिर पड़ा इस दौरान मेरी खुद की रिवाल्वर भी मेरा साथ छोड़ गई, जबकि शम्मो की पिस्तौल उसके हाथ में पहुंच चुकी थी।
”अब बोलो बाबू“ - वो हर्षित स्वर में बोली - ”चला दूं गोली।“
”मुझे मारकर तुम बच नहीं सकती।“
”बचने कि बात छोड़ो बाबूजी वो सब दिलावर साहब हैंडल कर लेगा।“
”लेकिन मुझे मारकर तुम्हे क्या हासिल होगा?“
मैं तनिक दीन स्वर में बोला जिसका प्रत्याशित परिणाम सामने आया, वो तनिक नम्र हुई।
”कुछ भी नहीं“ - वो बोली - ”मगर तुम भी तो यही करने वाले थे, फिर मैं तुम्हें क्यों छोड़ दूं?“
”तौबा, तुम्हारे ऊपर गोली चलाने का तो मुझे ख्याल भी नहीं आया था। अगर मेरी ऐसी कोई मर्जी होती तो तुम्हारे ‘वर्ल्ड बैंक‘ से तुम्हारी पिस्तौल निकलवाने की कोशिश क्यों करता सीधा गोली नहीं मार देता।“
”रिवाल्वर क्यों दिखाई?“
”बस यूं ही, तुम कोई बेजा हरकत न करो इसलिए, महज तुम्हें डराने के लिये।“
”डरी तो नहीं मैं“ - वो धूर्त भाव से मुस्कराई।
मैं खामोश रहा। साथ के साथ मेरी निगाह फर्श पर अपनी रिवाल्वर की तलाश में भटकने लगी।
”वो उधर है“ -मेरा मंतव्य समझकर वो बोली - ”पलंग के पायताने, चाहो तो उठा लो।“
मैंने हैरान निगाहों से उसकी ओर देखा। मेरे देखते ही देखते उसकी पिस्तौल पुनः उसके गिरेबान में जाकर खो गई अब वो निहत्थी थी। मैंने आगे बढ़कर पलंग के पायताने से अपना रिवाल्वर उठा लिया, मगर दोबारा उस पर रिवाल्वर तानने का मन नहीं हुआ। शायद पहली शिकस्त का असर था, ऊपर से उसके द्वारा पिस्तौल वापस ब्लाउज के अंदर रख लेने का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक असर हुआ था, सो मैंने भी अपनी रिवाल्वर जेब में ठूंस ली, और उसके सामने पलंग पर बैठ गया।
”आदमी तुम पसंद आये।“
”जहेनसीब, कोई खास बात दिखाई दे गई।“
”दोबारा रिवाल्वर दिखाने जैसी छिछोरी हरकत तुमने नहीं की।“
”तुमने भी तो मेरी जान बख्श दी।“
”मेरी बात कुछ और थी, मेरे पास और भी तरीके थे तुमसे निपटने के।“
”तौबा, यानी दोबारा रिवाल्वर दिखाता फिर भी तुम जीतती।“
”उम्मीद तो थी अलबत्ता गारंटी नहीं कर सकती।“
”प्रकाश का कत्ल किसने किया?“
‘‘क्या?‘‘ - मेरे इस अचानक सवाल पर वो हड़बड़ाई - ”क्या कहा तुमने?“
”प्रकाश का कत्ल किसने किया?“
”मुझे क्या मालूम?“
”मालूम होता तो बता देती।“
”शायद हां, शायद नहीं भी।“
”वैसे जानती तो होगी, प्रकाश को।“
उसने सहमति में गर्दन हिलाई।
”वो यहाँ आता था।“
”कभी-कभार महीने में एक बार।“
”अकेले“
”अमूमन तो अकेले ही आता था, कभी राकेश के साथ भी।“
”किसलिए?“
”कोठे पर आदमी किसलिये आता है? बताऊँ।“
”नहीं जाने दो“ - मैं बोला - ”यहाँ उसकी खिदमत में कौन होता था?‘‘
”वैसे तो कोई भी, मगर प्र्रकाश और राकेश अक्सर सौम्या या फिर संगीता का साथ पसंद करते थे।“
”अभी कहां हैं वो दोनों?
‘‘किसी रिश्तेदार की शादी में गई हैं।“
”रिश्तेदार“ - मैं तनिक चौंका।
”हाँ भाई। क्या हम लोगों का कोई रिश्तेदार नहीं हो सकता?“
”मैंने ऐसा कब कहा, वैसे तुम इस धंधे में कैसे आ गई?“
”क्या कहना चाहते हो?“
”मेरा मतलब है, शक्लो-सूरत से तो किसी भले घर की पढ़ी-लिखी, जहीन लड़की दिखाई देती हो।“
”दिखाई देती थी बाबू, अब नहीं दिखती।“
”क्या?“
”वही भले घर कि पढ़ी-लिखी और जहीन।“
”यानी की तुम्हारी बाबत मेरा अंदाजा दुरुस्त है।“
”हाँ तुम ऐसा समझ सकते हो।“
”इस दलदल से निकलने का कभी मन नहीं हुआ।“
”पहले होता था, मैं एक बार यहां से भागकर घर पहुंच भी गई थी। मगर माँ-बाप ने घर में रखने से इंकार कर दिया, तब मैं उलटे पांव लौट कर यहां आ गई, और फिर यहीं कि होकर रह गई।“
‘‘वैसे धंधे में लाया कौन था तुम्हे?‘‘
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

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‘‘मेरा आशिक, ऐसा आशिक जो मुझे ख्वाबों के हिंडोले पर झुलाता था। कहता था चांद तारे तोड़कर ला सकता है मेरे लिए। उसकी बातों में आकर मैं उसके साथ घर से भाग गई। फिर उसने मुझे एक आदमी के हवाले कर दिया जिसने बाद में मुझे दिलावर साहब के किसी आदमी को बेच दिया। तब मेरी उम्र 14 साल थी। इश्क की आग ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था। मगर जब तक यह बात समझ में आई बहुत देर हो चुकी थी।‘‘
”ओह! - कहकर मैं खामोश हो गया।
कमरे में निःस्तब्धता छा गई। कुछ पल यूं ही गुजरे।
”क्या सोचने लगे बाबू?‘‘ कहकर उसने खामोशी भंग की।
”यही कि तुम्हारे आका लोग अभी तक पहुंचे क्यों नहीं?“
”आका लोग“ - वो अचकचाई।
”हाँ, मेरे आने के फौरन बाद जिन्हें तुमने फोन पर इत्तला की थी।“
”हे भगवान, तुमने मुझे फोन करते देखा था।“
”सुना भी था।“
”ओह, ओह, अब मैं समझी, समझ गई, मैं सब समझ गई।“
”क्या समझ गई?“
”छोड़ो ये बताओ अब तुम्हारा इरादा क्या है?“
”क्या मतलब?“
”अगर तुम जाना चाहो तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगी।“
”इतनी हमदर्दी कहीं मुझसे मुहब्बत तो नहीं कर बैठी।“
जवाब में वो खुलकर मुस्कराई, बोली - ”लद गये वो जमाने यारों! जब हमारे सीने में भी एक दिल धड़कता था।“
”अरे वाह! तुम तो शायरी भी करती हो।“
वो खामोश रही, अचानक ही वो उदास नजर आने लगी।
मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकालकर उसे सिगरेट पेश किया जिसे उसने मशीनी अंदाज में कबूल किया। एक सिगरेट मैंने अपने होठों से लगाया फिर लाइटर निकालकर पहले उसका फिर अपना सिगरेट सुलगाया।
”तुमने दिलावर सिंह को फोन किया था।“
”हाँ“
”आगंतुक वही होगा।“
”ठीक-ठीक नहीं कह सकती वैसे ज्यादातर उम्मीद उसके किसी गुर्गे के आने की है। तुम जल्दी करो जाओ यहाँ से।“
”आगंतुक को जवाब क्या दोगी।“
”कह दूंगी, शिकार होशियार निकला जाल तोड़कर फरार हो गया?“
‘‘और ऐसा तुम मेरे लिए करोगी एक अजनबी के लिए। जिसे घंटा भर पहले तुम जानती तक नहीं थी।“
”जान-पहचान के लिए कोई वक्त निर्धारित नहीं होता बाबू।“
”बच्चू से तुम्हारी कैसी बनती है?“
”अच्छी बहुत अच्छी, बहुत ही नेकदिल आदमी है वो।“
”वो लाल हवेली खरीदना चाहता था, तुम्हें खबर होगी।“
”हाँ मगर उस बात को खत्म हुए एक अरसा हो गया, अब उसका जिक्र क्यों कर रहे हो?‘‘
”बच्चू उस हवेली के तीन चार करोड़ तक देने को तैयार था। क्या इतना पैसा था बच्चू के पास।“
”बच्चू वो हवेली दिलावर साहब के कहने पर खरीद रहा था, इसलिए पैसे कि चिन्ता उसे करनी ही नहीं थी।“
”दिलावर के पास इतना रुपया होगा।“
”शायद नहीं“ - वो सोचती हुई बोली- ”मुझे लगता है असली खरीदार कोई और था, पूंजी उसी ने लगानी थी, वैसे भी दिलावर साहब क्या करता उस हवेली को लेकर।“
”वही सही मगर वो तीसरा आदमी हवेली की इतनी बड़ी कीमत क्यों देने को तैयार थी?“
”सुनने में आया है“ - वो दबे स्वर में बोली - ”हवेली वाली जमीन पर भारत सरकार कोई शूगर मिल लगाना चाहती है लिहाजा हवेली के मालिकानों को मुंहमांगा मुआवजा मिलने की उम्मीद है, जो कि हवेली की मूल कीमत से पांच-छह गुना या इससे ज्यादा भी हो सकती है।“
डॉली ने भी ऐसा ही कुछ कहा था, मगर न जानें क्यों ये बातें मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही थीं। ये तो सरासर अंधा सौदा था, कोई भी समझदार आदमी ऐसे सौदे में रुपया फंसाने कि हिम्मत नहीं कर सकता। मेरा दिल बार-बार गवाही दे रहा था कि असल बात कुछ और थी। कोई बहुत ही गहरा षड़यंत्र रचा जा रहा था। जिसके हवन कुण्ड में मानसिंह और प्रकाश की आहूति पड़ चुकी थी। रोजी भी उसी सिलसिले कि एक कड़ी थी और अब जूही को होम करने कि तैयारी हो रही थी। मैं और डॉली भी इससे अलग नहीं थे। अगर जूही कि जान खतरे में थी तो हम भी उस अनदेखे खतरे से महफूज नहीं थे।
‘‘तुम्हें पता है हवेली के आस-पास के काफी सारे खेत भी खरीदे जा चुके हैं।‘‘
‘‘हां पता है, वो सब दिलावर साहब के जरिए ही तो खरीदे गये थे।‘‘
‘‘किसके लिए?‘‘
‘‘मुझे नहीं मालूम।‘‘
”क्या मान सिंह का कातिल बच्चू हो सकता है?“
”हरगिज नहीं, जिस दिन उनका कत्ल हुआ वो हर वक्त मेरे साथ था।“
”यानी तुम्हे मालूम है कि मानसिंह का कत्ल ही हुआ है ना कि वे किसी दुर्घटना के शिकार हुए थे।“
”हाँ बच्चू ने बताया था“ - वो बोली - ”अब ये मत पूछना बच्चू को कैसे मालूम था, क्योंकि वो सिर्फ उसका अंदाजा था जो कि उसके कहे अनुसार सौ फीसदी दुरूस्त था।“
”ओह!“
”अब जल्दी करो, तुम जाओ यहाँ से वो लोग आते ही होंगे।“
”तुम्हे क्या लगता है वो लोग मेरा कत्ल करेंगे?“
”कुछ कह नहीं सकती फिर भी उम्मीद तो यही है।“
”देखेंगे“ - मैं लापरवाही से बोला।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।
”कौन है?“ वह सशंक भाव से बोली।
”हम हैं“ -अधिकार पूर्ण स्वर - ”दरवाजा खोलो।“ उसने हड़बड़ाकर मेरी तरफ देखा।
”तुम किचन में छुप जाओ“ - वो फुसफुसाई - “मैं उन्हें यहीं से वापस भेज दूंगी।“
मैं हिला तक नहीं,
”जल्दी करो जाओ।
मैं बजाय किचन कि तरफ जाने के, दरवाजे की तरफ बढ़ा। किसी लड़की को मुसीबत में डालकर अपने लिए पनाह तलाशने में मेरा ईगो हर्ट होता था। मैंने सिटकनी हटाकर दरवाजा खोल दिया। सबसे पहले मेरी निगाह जिस शख्स पर पड़ी, वो दिलावर सिंह था।
मुझे इस तरह दरवाजे के बीचों-बीच देखकर वो हड़बड़ाया मगर यह स्थिति ज्यादा देर तक बरकरार न रह सकी, अगले ही पल मुझे धकेलता हुआ वो कमरे में दाखिल हुआ। उसके पीछे-पीछे दो व्यक्ति और अंदर आ गये, दरवाजा पुनः बंद हो गया, दिलावर के पीछे दाखिल होने वाले एक शख्स को मैं पहचान गया, वो पुलिस वाला था जिसे मैं पहले भी कोतवाली में देख चुका था। दूसरे शख्स को मैं नहीं पहचान सका जो कि ग्रे कलर का सूट और उससे मैच करती टाई लगाये था और शक्लो-सूरत से कुलीन दिखाई दे रहा था।
दिलावर के साथ इन दोनों कि उपस्थिति का मतलब मैं नहीं समझ सका।
दिलावर सिंह ने उड़ती सी निगाह शम्मो पर डाली और एक कुर्सी खींचकर बैठने के पश्चात सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया।
”एक मुझे भी।“
उसने बगैर कुछ कहे सिगरेट का पैकेट और लाइटर मुझे पकड़ा दिया। मैंने एक सिगरेट सुलगाकर पैकेट और लाइटर उसे वापस लौटा दिया।
”तुम्हें“ - वो मुझे घूरता हुआ बोला - ”मेरे आमद की जानकारी थी।“
”नहीं“ - मैं बोला।
”यानी इसने“ - वो शम्मो को घूरता हुआ बोला - ”आखिरकार तुम्हें बेवकूफ बना ही दिया।“
”अब तो यही लगता है।“
जवाब में वो हो-हो करके हंस पड़ा, मैं दीवार से टेक लेकर खड़ा हो गया, और चुपचाप सिगरेट के कस लगाने लगा।
”तुम जानते हो हम यहाँ क्यों आये हैं?“
”नहीं, मगर अंदाजा लगा सकता हूँ“ - मैं शांत भाव से बोला - ”तुम नाक रगड़कर यह कहने आये हो कि मैं दिल्ली वापस लौट जाऊँ, क्योंकि तुम्हें डर है कि अगर मैं यहां बना रहा तो एक ना एक दिन लाल हवेली के रहस्य से परदा उठ ही जायेगा, और फिर तुम बुरी मौत मरोगे।“
जवाब में उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा और एक बार पुनः वो हो-हो, करके हंस पड़ा मगर फिर तत्काल हंसी को ब्रेक लगाता हुआ बोला - ”तेरी दूसरी बात सही है। मगर पहली बिल्कुल गलत, क्योंकि मैं तुझसे रिक्वेस्ट करके दिल्ली भेजने की बजाय तेरा कत्ल कर के ऊपर भेजने आया हूँ। आज तू बच नहीं सकता भले ही आईजी-डीआईजी या मुख्यमंत्री को भी यहां तेरे आमद की खबर क्यों ना हो।“
”तुम एक पुलिसिये कि मौजूदगी में मेरा कत्ल करने कि हिम्मत नहीं कर सकते।“
”पुलिसिया“ - वो सकपकाया - ”कौन है यहाँ?“
मैंने इशारा किया तत्काल उस पुलिसिये का चेहरा निचुड़ सा गया।
”ये मेरे से बाहर नहीं जा सकता।“ दिलावर बोला।
”कब तक?“
”क्या मतलब भई?“
”एक कत्ल का चश्मदीद गवाह होगा ये, कभी भी तुम्हें फंसवा सकता है, ब्लेकमेल कर सकता है।“
”इसकी मजाल नहीं हो सकती।“
”दिलावर साहब“ - पुलिसिया बीच में बोल पड़ा - ”क्या इसके कत्ल के अलावा कोई रास्ता नहीं।“
”अब नहीं है।“
”मैं कुछ कहूँ।“ -तीसरा सूटधारी व्यक्ति बोला।
”जरूर कहो भई।“ दिलावर बोला।
”ये लड़की कौन है?“ - सूटवाले का इशारा शम्मो की तरफ था।
”क्या मतलब?“
”समझने की कोशिश कीजिए“ - सूट वाला बोला - ”क्या ये कोई खास है, क्या इसका दुनिया में बने रहना जरूरी है?“
मैंने शम्मो की तरफ देखा, वो हकबकाई सी उसकी ओर देख रही थी।
”नहीं मगर साफ-साफ कहिए क्या कहना चाहते हैं?“ - दिलावर बोला।
”सिर्फ इतना कि लड़की को इसकी रिवाल्वर से गोली मार दीजिए और इसे“ - उसने मेरी तरफ इशारा किया - ”उसके कत्ल के इल्जाम में अंदर करवा दीजिए।“
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

तौबा, उनके खतरनाक इरादों को भांपते ही मैं भीतर तक कांप उठा। शम्मों चुपचाप वही फर्श पर बैठ गई। सचमुच कितने खतरनाक लोग थे ये, जो किसी के कत्ल जैसा जघन्य अपराध सिर्फ इसलिए कर सकते थे क्योंकि उसमें किसी दूसरे को फँसाना था।
”हाँ ये ठीक रहेगा।“ - पुलिसिया हर्षित स्वर में बोला।
”हर कत्ल का कोई मोटिव होता है“ - दिलावर बोला - ”बेवजह कोई किसी का कत्ल नहीं करता, इसके पास शम्मो कि हत्या का क्या उद्देश्य है?“
”उद्देश्य है दिलावर साहब“ - सूटधारी बोला -‘‘ये शम्मो से पूछताछ करने यहां पहुंचा था, शम्मों ने जब इसे कुछ बताने से इंकार किया तो इसने उसपर रिवाल्वर तान दी, जवाब में शम्मों अपनी जान बचाने के लिए दरवाजे की ओर भागी तो इसने गोली चला दी। ऐन वक्त पर मैं यहाँ पहुंच गया मैंने इसे गोली चलाते देख लिया और कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर के पुलिस को खबर कर दी।“
”आप अचानक यहाँ कैसे टपक गये?“
”मैं मौज मेले के लिए यहाँ पहुंचा था, आखिर है तो ये एक कोठा ही।“
”बढ़िया, बहुत बढ़िया।“
मैं समझ गया, अब ड्रामें का अंतिम दृश्य शुरू होने वाला था, मैंने अपना हाथ रिवाल्वर कि तरफ बढ़ाया, मगर...।
”खबरदार“ - दिलावर कर्कश स्वर में बोला - ”मुझे लापरवाह मत समझना मैं जब से इस कमरे के अंदर आया हूँ मेरी निगाह तुम पर ही टिकी है, अगर कोई बेजा हरकत की तो वक्त से पहले जहन्नुम का नजारा करा दूंगा।“
मुझे उसके पास किसी हथियार के दर्शन नहीं हुए मगर उसकी धमकी कोरी नहीं थी। उसके कोट का दाहिना हिस्सा थोड़ा खिंचा हुआ था और उसका हाथ कोट की जेब में था, मुझे लगा वो पहले से ही निशाना साधे बैठा था, अलबत्ता रिवाल्वर अभी भी कोट की जेब में ही थी।
”भगवत“ - दिलावर बोला - ”तू इसकी तलाशी ले।“
जवाब में वहाँ खड़ा पुलिसिया आगे बढ़ा, उसने तलाशी ली और मेरी रिवाल्वर निकालकर दिलावर को पकड़ा दिया।
”शम्मो का कत्ल और तुम उसके कातिल“ -दिलावर बोला - ”अब बोल जासूस के बच्चे कहानी कैसी लगी?“
”कहानी अच्छी है, मगर एक बहुत बड़ा झोल है, कोई ये मानकर राजी नहीं होगा कि मैंने महज अपने सवाल का जवाब ना मिलने पर इसे गोली मार दी?“
‘‘भई ये भगवत का डिपार्टमेंट है, वो कहानी में कुछ जोड़-तोड़ कर लेगा। कर लेगा न भाई?‘‘
‘‘जी कर लूंगा।‘‘ भगवत जोश में बोला।
दिलावर ने मेरी रिवाल्वर दाहिने हाथ में स्थानांतरित की। रिवाल्वर वाला हाथ शम्मो कि तरफ घूमा, वो मेरी तरफ से निश्चिंत था। मैं नीचे झुका, मैंने अपने टखनों के पास से दूसरी रिवाल्वर निकालकर गोली चला दी। निशाना दिलावर का रिवाल्वर वाला हाथ था। गोली उसके हाथ में ही लगी, मगर तब तक वो गोली चला चुका था। अलबत्ता ऐन वक्त पर मेरी गोली लगने से उसका निशाना डगमगा गया। सिर को निशाना लेकर चलाई गई उसकी गोली शम्मो के कंधे जा घुसी, और रिवाल्वर दूर जा गिरा, दिलावर और शम्मों कि चीखें एक साथ गूँजी।
तभी एक हैरतअंगेज वाकया हो गया। घायल शम्मों ने चीखने के साथ ही अपनी पिस्तौल निकालकर पहले दिलावर फिर वहाँ खड़े पुलिसिये को गोली मार दी। इसी दौरान सूटधारी व्यक्ति वहाँ से गायब हो गया। मैंने दिलावर को देखा, गोली उसके सिर में लगी थी। नब्ज टटोला, मगर नब्ज गायब थी।
शहर पर राज करने वाला जाबर, मजलूम की गोली से अपने बनाने वाले के पास पहुंच चुका था। वही हाल पुलिसिये का भी हुआ था। दोनों अपने अंजाम को पहुंच चुके थे। मैंने शम्मों पर दृष्टिपात किया वो बायें हाथ से अपने दायें कंधे को पकड़े दर्द को पीने कि कोशिश कर रही थी। मैं उसके समीप पहुंचा।
”तुम ठीक हो।“ - एक बेवकुफाना सवाल मेरे मुँह से निकल ही गया। उसने सिर हिलाकर हामी भरी।
मैं उसे सहारा देकर नीचे खड़ी अपनी कार तक ले गया, उसे कार में बैठाकर उलटे पांव वापस लौटा। मैंने दिलावर कि तलाशी ली। काबिलेजिक्र दो चीजें बरामद हुई पहला एक कागज पर जल्दीबाजी में घसीटा गया कोई फोन नम्बर था और दूसरी चीज आड़ी-तिरछी लकीरों से भरा किसी डायरी का एक पन्ना था।
कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। असल खलीफा अभी भी सात पर्दों के पीछे छिपा हुआ था। अलबत्ता दिलावर नाम का एक अहम किरदार कम जरूर हो गया था।
दोनों कागज मैंने अपनी जेब में रख लिए, तभी मुझे रिवाल्वर का ख्याल आया जो एक ओर उपेक्षित सी पड़ी थी। रिवाल्वर उठाकर मैंने बेल्ट में ठूंस लिया और एक-एक करके उन सभी तथ्यों को मिटाना शुरू किया जो मेरी वहाँ आमद कि चुगली कर सकते थे, फिर वहीं से फोन करके मैंने पुलिस को वारदात की सूचना दी, और कार में जा बैठा।
शम्मो को अस्पताल पहुंचाने के पश्चात मैं लाल हवेली पहुंचा। वहां काफी भीड़ थी, प्रकाश की डैड बॉडी आ चुकी थी। लोग-बाग उसे घेरे खड़े थे। भीड़ को चीरता हुआ मैं हवेली के भीतर दाखिल हुआ। ड्राईंग रूम में ही डॉली मुझे मिल गई, मैं उसे अपने पीछे आने का इशारा करके पहली मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ गया। मेरे पीछे-पीछे डॉली वहाँ पहुँची।
”क्या चल रहा है, यहाँ?“ - मैं बोला।
”जैसे तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं।“
”मेरा मतलब कुछ खास कि तरफ था, कुछ नये कि तरफ था।“
‘‘प्रकाश के मां-बाप आ चुके हैं, आने के साथ ही श्याम सिंह ने अपने को प्रकाश के कमरे में बंद कर लिया। जबकि उनकी मिसेज जूही के कमरे में है, वे जब से आई हैं उनके आंसू सूखने का नाम नहीं लेते, दोनों चाची-भतीजी बस रोये जा रही हैं।“
”और कुछ।“
”हाँ एक खास बात पता लगी है।“
”वो क्या?“
”आओ“ - कहकर वो आगे-आगे चल पड़ी। जूही के कमरे को पार करके अगले दरवाजे पर वो ठिठक गई।
”ये कमरा स्टोर के रूप में प्रयुक्त होता है“ - वो जंग लगे कुंडे को खोलती हुई बोली - ”इसके अंदर कूड़ा-कबाड़ा भरा है, इसलिए कोई इसमें झांकने कि कोशिश भी नहीं करता।“
वो दरवाजा खोल चुकी थी, हम दोनों भीतर दाखिल हुए, पूरा कमरा धूल से अटा पड़ा था, फर्श पर कदमों के निशान बने हुए थे। कुछ मर्दाना जूतों के तो कुछ जनाना सैंडिलों के। सैंडिल के निशानों पर गौर करने पर मैंने पाया कि वो डॉली के ही थे, अलबत्ता जूतों के निशानात से मैं कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सका।
फिर उसने वहां रखा एक बक्शा खोला। उसके भीतर एक प्रोजेक्टर रखा था। यह उसका पोर्टेबल संस्करण था, जिससे सिनेमा हॉल में सिनेमा दिखाया जाता है। इसमें डाइरेक्ट पेनड्राइव लगाकर या कम्प्यूटर से जोड़कर मूवी चलाई जा सकती थी।
”क्या है ये?‘‘ मेरे मुंह से निकला।
”खुद देखकर अंदाजा लगाओ“ - वो तनिक इठलाई - ”वैसे तो बड़ा शरलॉक होम्ज बने फिरते हो।“
‘‘ये तो प्रोजेक्टर है।‘‘
मैंने उसपर जाहिर नहीं होने दिया कि ऐसी किसी चीज की उपस्थिति का अंदाजा मुझे उसी रोज हो गया था जब जूही के कमरे हमपर चलाई गोली बरामद नहीं हुई थी। और दीवार में ऊपर बने मोखले ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था, तभी मैं समझ गया था कि हमारे सामने महज एक रिकार्डिंग प्ले हो रही थी। डॉली अपनी उस खोज पर बेहद खुश थी और मैं उसकी यह खुशी छीनना नहीं चाहता था।
”एक्जेक्टली यह प्रोजेक्टर ही है“ - वो बोली - ”मगर सवाल ये उठता है कि यह हवेली के इस कमरे में उपेक्षित सी क्यों पड़ी है?“
”क्यों पड़ी है?“ - मैंने दोहराया - ”खैर ठीक है अब इसे उठाकर तेरे कमरे में रख देते हैं।“
”क्यों?“
”रात को दोनों जने ब्लू फिल्में देखा करेंगे“
”नॉनसेंस“ - उसने बुरा सा मुंह बनाया - ‘‘हाँ, मैं पूछ रही थी कि ये मशीन यहाँ क्यों पड़ी है?“
”इसके कई कारण हो सकते हैं, ये मशीन खराब हो सकती है, या फिर किसी को इसके इस्तेमाल कि फुरसत नहीं होगी।“
”नहीं एक ठोस कारण है इस मशीन को यहाँ रखने के पीछे, बल्की असली वजह ही वही है।“
”यानी कि वजह मालूम है।“
”जवाब में वो मुस्करा उठी।
”वजह बता।“
”ये रही वजह“ - कहकर उसने मशीन का फोकस सामने वाली दीवार पर करके बिजली का स्विच ऑन कर दिया - ”दीवार पर तत्काल एक आकृति तैयार हुई, वो एक साया सा दिखाई दे रहा था, उसके सिर पर टोकरी जैसा हैट रखा हुआ था, ये वही साया था जिसने जूही के कमरे में मुझ पर दो गोलियां चलाई थी और मैं बाल-बाल बचा था। ये महज उस फिल्म की देन थी, तभी साये का हाथ हवा में ऊपर उठा उसकी रिवाल्वर से गोली चली मगर किसी को लगी नहीं, लगती भी कैसे वो तो महज एक फिल्म थी। बैकग्राउंड में जो दीवार थी वह जूही के कमरे की थी लिहाजा यह मूवी वहीं सूट की गयी थी।

”क्या समझे बॉस?“
”समझ गया अब तू मेरी अम्मा कहलाने के लायक हो चुकी है, वैसे तुझे सूझी कैसे ये बात?“
”बस यूं ही सुबह इस कमरे में घुस आई, यहां का ताम-झाम देखकर मेरा माथा ठनका तो पड़ गई असलियत जानने के पीछे हाथ धोकर।“
”तूने तो आज कमाल कर दिया।“
”वो तो मैं रोज की करती हूँ“ - डॉली कह रही थी - ”वैसे सबसे बड़ा कमाल तो उस शातिर दिमाग का है जिसने कि इतने बड़े षडयंत्र को अंजाम दिया, मगर उनको इसका फायदा क्या पहुंचता?“
”उनका उद्देश्य जूही को पागल करार देना हो सकता है, जो कि अब मैं देख रहा हूँ, वो लगभग हो ही चुकी थी कि तभी तू यहां आ पहुंची और फिर तेरे पीछे-पीछे मैं। नतीजतन षड़यन्त्रकारियों के काम में बाधा पड़ गई और उनका सुनियोजित, मजबूत जाल काफी हद तक छिन्न-भिन्न हो गया। जूही को पागल घोषित करने की उनकी तमाम कोशिशें असफल हो गइंर्।
जरा सोच इस फिल्म के माध्यम से उसपर गोली चलाई गयी, बाद में ना तो हमलावर मिला ना ही गोली बरामद हुई। ऐसा बार-बार होता तो ना सिर्फ लोग उसे पागल समझ लेते बल्कि उसे भी यकीन आ जाता कि वो पागल है। बाकी कसर वो गोलियां पूरी कर रही थीं जो मैंने पता किया है कि अगर किसी अच्छे-भले इंसान को एक खास क्रम में दी जायं तो वह पागल तक हो सकता है।
और डॉक्टर भी कैसा जिसका कोई वजूद नहीं है। उस रोज जब बाजार में जूही चीख चीखकर कह रही थी कि यहीं उस डॉक्टर का क्लीनिक था तो मुझे भी लगने लगा था कि उसका दिमाग हिल चुका है। मगर अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं अगर कड़ाई से पूछताछ की जाय तो वो दुकानदार ये बकने को मजबूर हो जायेगा, कि एक दिन के लिए उसकी दुकान को ना सिर्फ क्लीनिक का रूप दिया गया था बल्कि वहां कोई फर्जी या कातिल का जोड़ीदार डॉ. भी उलब्ध था, सिर्फ जूही को वो गलत दवाइयां प्रिस्क्राइब करने के लिए। मगर वो गायब है। दुकान और घर दोनों को ताला लगाकर गायब है। कोई बड़ी बात नहीं कि उसकी भी लाश बरामद हो जाय।
और देख दिन भी कौन सा चुना गया था जूही को डॉक्टर के पास ले जाने के लिये, जब पूरी मार्केट बंद होती है। ताकि कोई गवाह ना निकल आए, मेरा दावा है जब जूही वहां पहुंची होगी तो दिलावर के गुर्गे भी वहां आस-पास निगरानी पर रहे होंगे ताकि कोई भटकता हुआ गलती से भी उधर ना पहुंच जाय। सब प्लान का हिस्सा था, एक ऐसा प्लान जिसको बनाने वाले की परछाईं से भी मैं अभी तक अंजान हूं।“
”दिलावर के बारे में क्या कहते हो?“
‘‘वो इस खेल का महज एक मोहरा था।‘‘
‘‘था!‘‘
‘‘हां, आज अपने ही एक प्यादे के हाथों जहन्नुम रशीद हो गया।‘‘
”ओह! ये तो गुड न्यूज है, अब क्या इरादा है।‘‘
‘‘फिलहाल तो बाहर चलते हैं।
हम दोनों कमरे से बाहर आ गये, डॉली ने पुनः कुंडी लगाकर दरवाजा बंद कर दिया।
”ये कमरा क्या हर वक्त यूं ही खुला रहता है?“
”सवाल ही नहीं उठता, जब से मैं यहाँ आई हूँ इस कमरे में हर वक्त ताला झूलता दिखाई पड़ता था। मगर कल से यह खुला पड़ा है, दरवाजे पर हर वक्त झूलने वाला ताला कमरे के अंदर रखा हुआ है। इसे खुला देखकर ही मैं उत्सुकता वश अंदर चली गई थी।“
”जूही को इसकी खबर है।“
”किसकी?“
”मेरा इशारा अंदर के ताम-झाम कि तरफ है।“
”अभी नहीं है।“
”उसे इस बाबत बताना होगा।“
”तुम्हें तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं“ - वो चिढ़े स्वर में बोली - ”मैं उसे खबर कर दूंगी।“ उसकी आवाज की तल्खी पर बरबस ही मेरी हंसी छूट गई, वो भी हँसी।
अभी हम दो-चार कदम ही आगे बढ़े थे कि तभी जूही के कमरे से आती आवाज सुनकर हमें ठिठक जाना पड़ा।
”वो सब तो ठीक है बेटी“ - एक अपरिचित नारी स्वर - ”लेकिन यूं अजनबियों को बुलाकर घर में बिठा लेने को कौन अच्छा कहेगा। सुना है दूसरा कोई मर्द है उसके साथ, छिः-छिः कैसी लड़की है, पराये मर्द के साथ घूमती फिर रही है। अब मैं आ चुकी हूँ, तू उन दोनों से कह दे उनका काम खत्म हो चुका है, वो दोनों अपने घर चले जायें।“
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Re: लाल हवेली (एक खतरनाक साजिश)

Post by mastram »

मैंने डॉली की ओर देखा, तो उसने बताया कि ये जूही की आंटी की आवाज है। मैंने उसका हाथ पकड़ा और जूही के कमरे में प्रवेश कर गया। सामने पलंग पर चाची लेटी हुई थीं और जूही उनके पांव दबा रही थी। चाची सचमुच कॉफी बोल्ड औरत थीं। जवान बेटे की मौत से उन्हें कोई सदमा पहुंचा हो ऐसा कम से कम वो चेहरे से प्रगट नहीं होने दे रही थीं।
हमें यूं ही अचानक कमरे में दाखिल होते देख वो उठकर बैठ गई। जूही भी अब तक सीधी बैठ चुकी थी। मैंने और डॉली ने लगभग एक साथ हाथ जोड़े।
”नमस्ते“ - मैं बोला।
”नमस्ते“ - वो बोली - ”बैठो।“
मैं सामने रखी एक कुर्सी पर बैठ गया। डॉली मेरे पीछे कुर्सी कि पुश्त पकड़कर खड़ी हो गई।
”लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं।“
”ठीक कहते हो बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?“
”राज, दिल्ली से आया हूँ।“
”तो तुम आये हो दिल्ली से“ - वो तिक्त भाव से बोली - अच्छा हुआ तुम यहीं आ गये। मैं खुद भी तुमसे मिलना चाहती थी।“
”कहिए।“
”देखो बेटा......।“
”चाची“ - जूही झुंझलाकर बोली - ”ये भी कोई वक्त है ऐसी बातें करने का।“
”तू चुपकर, ये ऊँच-नीच की बातें, तेरी समझ में नहीं आयेंगी।“
”मैं खूब समझती हूँ। कोई बच्ची नहीं हूँ, अपना भला-बुरा समझ सकती हूँ। आपको कोई हक नहीं पहुंचता कि ......।“
उसने तत्काल अपने होंठ काटे।
”हाँ-हाँ कह ले, चुप क्यों हो गई?“ - चाची बिफर पड़ी- ”क्या जमाना आ गया, जरा सी बच्ची अब हक की बात करने लगी। मुझे सिखाती है, कि अब मैं बच्ची नहीं हूँ, बेशरम कहीं की......।“
”ओफहो! चाची अब बस भी करो।“
”क्या बस करूं.....? वो पुनः झुंझलाई।
”सुनिए“ - मैं अपने शब्दों में मिसरी घोलता हुआ बोला - ”आप शायद मुझसे कुछ कह रही थीं।“
”अरे हाँ बेटा मैं कह रही थी कि, तुम लोगों को यहाँ आये कई दिन हो गये हैं, तुम्हारा भी घर-बार होगा, मां-बाप होंगे। सब तुम्हारी राह देखते होंगे। वैसे अब मैं यहां आ गई हूँ देखती हूँ- कौन तंग करता है मेरी फूल सी बच्ची को“ - कहकर चाची ने जूही के सिर पर हाथ फिराया - ”हां तो बेटा मैं कह रही थी कि अब तुम दोनों भी अपने घर वापस लौट जाओ, एक जवान लड़की के साथ ज्यादा दिन तक परदेश में रहना अच्छी बात नहीं होती।“- अबकी दफा उनका इशारा डॉली कि तरफ था।
मैंने जूही की ओर देखा तो पाया कि वह लज्जित अवस्था में सिर झुकाये बैठी थी। फिर डॉली को देखा और बोल पड़ा - ”ये नहीं हो सकता।“
‘‘क्या नहीं हो सकता?‘‘
”यही कि हम अपने घर लौट जायें।“
”अरे तो क्या जीवन भर यहीं बने रहोगे।“
‘‘जी ठीक समझीं आप।‘‘
”बड़े बेशरम हो भईया तुम तो।“
”खानदानी हूँ कोई नई बात करें।“
मेरी बात सुनकर चाची तिलमिलाती हुई कमरे से बाहर निकल गई, पीछे दो हसीनों की सम्मलित हंसी गूंजी।
”मैं चाची की तरफ से तुम दोनों से माफी मांगती हूँ।“ जूही बोली।
”डॉली से मांगो - शायद मिल जाय मैं तो हरगिज नहीं दे सकता।“
”क्या?“ - वो चौंकी।
”माफी, आजकल मेरे पास उसकी किल्लत चल रही है।“
वो हैरानी से मेरा मुंह देखने लगी।
‘‘मैं जरा तुम्हारे अंकल से मिलकर आता हूँ।“
उसने सहमति में सिर हिलाया, मैं कमरे से बाहर निकल गया।
मैं नीचे पहुंचा, पूछने पर मालूम हुआ श्याम सिंह मास्टर बेडरूम में हैं। वो कमरा मानसिंह जी के जीवन काल में उनका बेडरूम हुआ करता था। उनकी मौत के बाद आज शायद पहली बार खोला गया था। दरवाजे पर पहुंचकर मैंने दस्तक दिया।
”कॅमिंग“ - अंदर से कहा गया। मैं दरवाजा धकेलता हुआ अंदर दाखिल हुआ। सामने चेयर पर एक अधेड़ उम्र का बेहद रौब-दाब वाला व्यक्ति बैठा हुआ था। चेहरे पर निराशा थी, आंखें गमगीन।
”नमस्ते“ - मैं हाथ जोड़कर बोला।
जवाब में उन्होंने अपने सिर को हल्की जुम्बिस दी और मुझे बैठने का इशारा किया। मैं सामने रखी दूसरी कुर्सी को तनिक नजदीक खींचकर बैठ गया।
”तुम शायद राज हो।“
”जी हां“ - मैं बोला - ”ठीक पहचाना आपने।
”बोलो“
”जनाब प्रकाश के साथ जो .....।“
”उसे छोड़ो“ - वो मेरी बात को काटते हुए बोले - ”मतलब कि बात करो।“
”जी हाँ, जरूर“ - मुझे असुविधा सी महसूस हुई - मैं आपका ज्यादा वक्त नहीं लूंगा...।
”आई नो-आई नो, आगे बोलो।“
”मानसिंह जी के पीछे यहाँ हवेली में जो कुछ भी घटित हो रहा था, आपको उसकी खबर थी?“
”कुछ-कुछ, मुझे प्रकाश ने फोन किया था, उसी से मालूम हुआ कि भइया कि मौत का सदमा जूही बर्दाश्त नहीं कर सकी थी। उसका सीधा असर उसके दिमाग पर हुआ था, वह कुछ अपसेट रहने लगी, और उलटी-सीधी हरकतें करने लगी थी।“
”बस“।
”भई उसकी बातों से तो मैंने यही अंदाजा लगाया था, अगर और कोई बात थी तो मुझे उसकी खबर नहीं।“
”फिर तो जनाब आपका जानना, न जानने के बराबर ही था।“ - मैं बोला - ”अब तो मुझे ये कहने में तनिक भी संकोच नहीं की हवेली में पनपने वाले षड़यंत्रों की बाबत आप कुछ भी नहीं जानते। यहां तक कि मानसिंह जी कि मौत भी अब साधारण हादसा नहीं दिखाई देती। बल्कि लगता है कि किसी ने सुनियोजित ढंग से उनकी हत्या इस तरह से की ताकि लोगों को वह दुर्घटना दिखाई दे।“
”जानते हो तुम क्या कह रहे हो“ - वो तनिक आंदोलित हो उठे और मेज पर रखा पेपरवेट लट्टू की तरह घुमाने लगे।
”मुझे मालूम है जनाब मैं क्या कह रहा हूँ।“
”साबित कर सकते हो।“
”अभी नहीं मगर इत्मीनान रखिये जनाब साबित कर के दिखाऊँगा।“
”साफ-साफ बताओ किसी पर शक है तुम्हें?“
”अभी नहीं मगर बहुत जल्द मैं उसे दुनियां के सामने ले आऊंगा।“ - मैं बोला - ”आप दिलावर सिंह को तो जानते होंगे।“
आशा के विपरीत जवाब मिला - ”हाँ“
”कैसे।“
”भई वो सीतापुर के गुंडे बदमाशों का सरगना है। अपराधियों से लेकर पुलिस तक उसकी जी हजूरी करना अपना सौभाग्य समझते हैं। कुछ लोग उसकी तुलना दुबई वाले भाई से करते हैं।“
”बस यही वजह है उसको जानने कि या और भी वजह है।“
”और क्या वजह हो सकती है?“
”आप करते क्या हैं?“ - मैं उसके सवाल को नजरअंदाज करके बोला।
”क्या पूछना चाहते हो?“
”मेरा मतलब है आपका लाइन ऑफ बिजनेस क्या है?“
”मुम्बई में इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का बिजनेस है मेरा।“
”आमदनी कैसी है?“
”अच्छी-बहुत अच्छी, तुम्हारी उम्मीदों से भी कहीं ज्यादा।“
‘‘माफ कीजिए जनाब मुझे पता चला है, कि आपके बिजनेस की हालत डंवाडोल है। ऊपर से बेटे द्वारा लिये गये कर्जे को भरने में आपकी तमाम जमा-पूंजी चुक गई थी। गुस्से में आकर आपने अपने बेटे को घर से निकाल दिया था, तभी से वो यहां आकर रह रहा था।‘‘
‘‘ओह तो अब तुम मेरी जासूसी कर रहे हो।‘‘ उसने फिर पेपरवेट घुमाना शुरू कर दिया।
‘‘मेरा सवाल अभी भी अपनी जगह कायम है जनाब।‘‘
‘‘वो सब पुरानी बातें हैं। बिजनेस में ऊंच-नीच होती रहती है! अब सबकुछ ठीक हो जाएगा।‘‘
‘‘मानसिंह जी के कत्ल पर आप कोई रोशनी डाल सकते हैं?“
‘‘इडिएट, भाई साहब का कत्ल नहीं हुआ था। वो एक हादसा था, अब उसकी नई तजुर्बानी करके हम सब के गम को दोबाला मत करो।‘‘
”नहीं करता जनाब, बहरहाल वक्त देने का शुक्रिया।“ - मैं उठ खड़ा हुआ।
मेरे पास ढेरों सवाल थे जो मैं उससे करना चाहता था। मगर माहौल उपयुक्त नहीं था। फिर कभी सही! सोचता हुआ मैं दरवाजे की ओर बढ़ा।
कमरे से बाहर निकलते ही मेरा सामना सीओ महानायक सिंह से हुआ। वो इस वक्त वर्दी में नहीं था।
”नमस्ते हुजूर। - मैं बोला - ”आप शायद मकतूल के पिता को तलाश रहे हैं।
”ठीक समझे, मगर सिर्फ उनको ही नहीं तुम्हें भी तलाश रहा था मैं।“
”वो कमरे में हैं, और बंदा सामने हाजिर है हुक्म दीजिए।“
”मैं पहले जरा सिंह साहब से मिल लूं फिर तुमसे निपटता हूँ। तुम यहीं रहना खिसक मत जाना कहीं, ओ.के.?“
”ओ.के. बॉस।“
मेरा जवाब सुनने से पहले ही वह कमरे में दाखिल हो चुका था। उसके पीठ पीछे मैंने भीतर से उभरती कोई अपने मतलब की बात सुनने की कोशिश की मगर नाकामयाब रहा। लिहाजा वहीं चहलकदमी करते हुए मैं उस पुलिसिए के बाहर आने का इंतजार करने लगा। वक्त गुजरता गया। मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया।
ठीक दसवें मिनट में कमरे का दरवाजा खुला और महानायक सिंह ने बाहर कदम रखा।
”कुछ नया पता लगा हजूर।“
”किस बारे में पूछ रहे हो?“
”मेरा मतलब है प्रकाश के कत्ल से सम्बंधित कोई नई बात पता लगी हो।“
”अभी तक तो नहीं लगी मगर जल्दी ही कातिल हमारी पकड़ में होगा‘‘ - महानायक सिंह बोला - ”मगर एक नई बात मुझे जरूर पता चली है और उम्मीद करता हूँ तुम भी जानते होगे।“
‘‘कौन सी बात हुजूर।‘‘
”यही कि दिलावर सिंह का कत्ल हो गया।“
”क्या कहते हो माई-बाप, ये कब हुआ?“
”बनो मत साफ-साफ बताओ वहां क्या हुआ था?“
”मुझे क्या मालूम?“
”आज तुम बच्चन सिंह से मिलने गये थे।“
मुझे लगा उसे पहले से ही पता था, लिहाजा छुपाने की कोशिश बेमानी थी, ”गया था।“
”तब समय क्या हुआ था?“
”यही कोई ग्यारह बजे होंगे“
”गये क्यों थे?“ - वो बोला - ”और कोई नया झूठ बोलने की कोशिश मत करना, क्योंकि शम्मो इस वक्त पुलिस हिरासत में है और सब कुछ बक चुकी है।“
”मगर उसे तो गोली लगी थी, वो अस्पताल में थी।“
”अब पुलिस स्टेशन में है, गोली उसकी खाल को चीरती हुई बाहर निकल गई थी। इसलिए उसे अस्पताल से डिस्चार्ज कराने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी।“
‘‘उसने कहा कि मैंने दिलावर सिंह का कत्ल किया है?‘‘
‘‘नहीं मगर वो तुम्हारी खातिर झूठ बोलती हो सकती है।‘‘
‘‘वो क्या मेरी सगी वाली है।‘‘
‘‘बकवास मत करो, मुझे लगता है सब किया धरा तुम्हारा ही है। वरना तुम वहां से भाग खड़े होने की बजाय पुलिस को इंफार्म करते और पुलिस के आने तक वहीं रूके रहते।‘‘
‘‘मैं जरूर ऐसा करता अगर शम्मों को अस्पताल ले जाना जरूरी ना होता।‘‘
‘‘तुम उसे अस्पताल पहुंचाने के बाद पुलिस को वारादात की जानकारी दे सकते थे। मगर तुमने ऐसा नहीं किया। क्योंकि सब किया धरा तुम्हारा था और तुम गिरफ्तारी से बचना चाहते थे।‘‘
‘‘तो फिर मैं यहां क्यों मौजूद हूं, दिल्ली क्यों नहीं भाग गया।‘‘
‘‘वो सब मैं नहीं जानता, मगर तुमने जिस दिन से यहां कदम रखा है इस शहर का सकून छिन गया है। तुमने यहां आने के बाद क्या-क्या गुल खिलाए हैं मैं सब जानता हूं।‘‘
”ओह! जब आप सबकुछ जानते ही हो तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो?“
”शम्मो कि कही गई बातों कि तसदीक के लिए। वो कोई खास बात बताना भूल गई हो सकती है जिसे कि तुम बाखूबी बयान कर सकते हो।“
”ऐसी कोई बात नहीं हुई जो कि भूली जा सकी।“
”फिर भी पूरी कहानी मैं एक बार तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूँ। वो भी कोतवाली पहुंचकर। तुम अभी और इसी वक्त से खुद को गिरफ्तार समझो।‘‘
”अगर मैं ना चलना चाहूं तो .....।“
”तो ये कि मैं तुम्हे दिलावर के कत्ल जुर्म में गिरफ्तार करके बाकायदा हथकड़ियां लगाकर यहां से ले जाऊंगा। फैसला तुम पर है अपना जुलूस निकलवाना चाहते हो या चुपचाप चल रहे हो मेरे साथ।“
”दिलावर ही क्यों तुम्हारे महकमें का भी तो एक व्यक्ति मारा गया है, उसे क्यों भूलते हो?“
”शटअप!“
”क्यों ये बात स्वीकार करते तुम्हारी जान निकलती है कि तुम्हारे महकमें का एक पुलिसिया“ - मैं तनिक उच्च स्वर में बोला - ”सादी वर्दी में दिलावर नाम के गुण्डे के साथ वेश्या के कोठे पर मेरा कत्ल करने के लिए गया था।“
”मैं कहता हूँ जुबान बंद करो, वरना तुम्हारे हक में अच्छा नहीं होगा।“
”आखिरकार पुलिसवाले हो जनाब“ - मैं बोला, पूर्वतः जोर से बोला, तुरंत वहाँ भीड़ एकत्रित होनी शुरू हो गई - ‘‘ताकत बताकर किसी की भी जुबान बंद करवा सकते हो।“
”यू आर अंडर आरेस्ट“ - वो निश्चित स्वर में बोला।
”किस जुर्म में?“
”कत्ल में शरीक होने के जुर्म में।“
अब तक वहां लोगों का हजूम इकट्ठा हो चुका था।
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