गुज़ारिश पार्ट 2

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गुज़ारिश पार्ट 2

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गुज़ारिश पार्ट 2


#१

“मैं जिस दिन भुला दू , तेरा प्यार दिल से वो दिन आखिरी हो मेरी जिन्दगी का ” फूली सांसो के बीच हौले हौले इस गाने को गुनगुनाते हुए मैं तेजी से साइकिल के पेडल मारते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहा था .होंठो पर जीभ फेरी तो पाया की अभी तक बर्फी- जलेबियो की मिठास चिपकी हुई थी . मौसम में वैसे तो कोई ख़ास बात नहीं थी पर मई की गर्म रात में पसीने से भीगी मेरी पीठ से चिपकी शर्ट परेशान करने लगी थी .

“न जाने कितना समय हुआ होगा ” मैंने अपने आप से कहा और दो चार गालिया अपने दोस्तों को दी जो मुझे छोड़ कर न जाने कहाँ गायब हो गए थे . दरसल हम लोग पडोसी गाँव में दावत में आये थे.

“सुबह हरामखोरो को दो चार बाते तो सुना ही दूंगा. ” कहते हुए मैंने गाँव की तरफ जाने वाला दोराहा पार ही किया था की पट की तेज आवाज ने मेरे माथे पर बल डाल दिए.

“इसे भी अभी धोखा देना था. ” मैंने साइकिल से निचे उतरते हुए कहा टायर पंक्चर हो गया था . एक पल में मूड ख़राब हो गया . कहने को तो गाँव की दुरी कोई दो - तीन कोस ही थी पर अचानक से दुरी न जाने कितनी ज्यादा लगने लगी थी . पैदल घसीटते हुए साइकिल को मैं चांदनी रात में गाँव की तरफ चल रहा था .

धीमी चलती हवा में कच्चे सेर के दोनों तरफ लगे सीटे किसी लम्बे कद वाले आदमियों की तरह लहरा रहे थे .दूर कहीं कुत्ते भोंक रहे थे . ऐसे ही चलते चलते मैं नाहर के पुल को पार कर गया था .मेरी खड खड करती साइकिल और गुनगुनाते हुए मैं दोनों चले जा रहे थे की तभी अचानक से मेरे पैर रुक गए .अजीब सी बात थी ये इतनी रात में मेरे कानो में इकतारे की आवाज आ रही थी .इस बियाबान में इकतारे की आवाज , जैसे बिलकुल मेरे पास से आ रही हो . मुझे कोतुहल हुआ .



मैंने कान लगाये और ध्यान से सुनने लगा. ये इकतारे की ही आवाज थी . बेशक मुझे संगीत का इतना ज्ञान नहीं था पर इस गर्म लू वाली रात में किसी शर्बत सी ठंडक मिल जाना ऐसी लगी वो ध्वनी मुझे . जैसे किसी अद्रश्य डोर ने मुझे खींच लिया हो . मेरे पैर अपने आप उस दिशा में ले जाने लगे जो मेरे गाँव से दूर जाती थी . हवाओ ने जैसे मुझ से आँख मिचोली खेलना शुरू कर दिया था . कभी वो आवाज बिलकुल पास लगती , इतनी पास की जैसे मेरे दिल में ही हो और कभी लगता की कहीं दूर कोई इकतारा बजा रहा था .

पथरीला रास्ता कब का पीछे छुट गया था . नर्म घास पर पैर घसीटते हुए मैं पेड़ो के उस गुच्छे के पास पहुँच गया था जिस पर वो बड़ा सा चबूतरा बना था जिसके सहारे से पहाड़ काट कर बनाई सीढिया ऊपर की तरफ जाती थी .साइकिल को वही खड़ी करके मैं सीढिया चढ़ कर ऊपर पहुंचा तो देखा की सब कुछ शांत था ,ख़ामोशी इतनी की मैं अपनी उखड़ी साँसों को खूब सुन पा रहा था . मेरे सामने बुझता धुना था जिसमे शायद ही कोई लौ अब बची थी . सीढिया चढ़ने की वजह से गला सूख गया था तो मैं टंकी के पास पानी पीने गया ही था की मेरे कानो से वो आवाज टकराई जिसे मैं लाखो में भी पहचान सकता था .



“उसमे खारा पानी है , ले मेरी बोतल से पी ले. ”

मैं पलटा हम दोनों की नजरे मिली और होंठो पर गहरी मुस्कान आ गयी .

“तू यहाँ कैसे ” मैंने उसके हाथ से पानी की बोतल लेते हुए कहा .

“आज पूर्णमासी है न तो नानी के साथ कीर्तन में आई थी . अभी ख़तम ही हुआ है , मेरी नजर तुझ पर पड़ी तो इधर आई पर तू इधर कैसे ” उसने कहा

मैंने उसे बताया . मेरी बात सुनकर वो बोली- कीर्तन तो दो- ढाई घंटे से हो रहा पर इकतारा कोई नहीं बजा रहा था .मुझे मालूम है ये तेरा बहाना ही होगा वैसे भी तू तो भटकता ही रहता है इधर उधर

मैं- तुझे जो ठीक लगे तू समझ

“रुक मैं तेरे लिए प्रसाद लाती हूँ , ये बोतल पकड़ तब तक ” उसने कहा और तेजी से मुड गयी . मैंने बोतल का ढक्कन खोला और पानी से गले को तर करने लगा .

आसमान में पूनम का चाँद शोखियो से लहरा रहा था . काली रात और चमकता चाँद कोई शायर होता तो अब तक न जाने क्या लिख चूका होता , ये तो मैं था जो कुछ कह नहीं पाया.

“अब ऊपर क्या ताक रहा है , चलना नहीं है क्या ” उसने एक बार मेरे ख्यालो पर दस्तक दी .

मैं- हाँ चलते है .

उसने एक मुट्टी प्रसाद मेरी हथेली पर रखा और हम सीढियों की तरफ चलने लगे.

मैं- नानी कहा है तेरी .

वो- आ रही है मोहल्ले की औरतो संग , मैंने बोल दिया की तेरे संग जा रही हूँ .

मैं- ठीक किया.

“बैठ ” मैंने साइकिल पर चढ़ते हुए कहा

वो- पैदल ही चलते है न

मैं- जैसा तू कहे

वो मुस्कुरा पड़ी , बोली- कभी तो टाल दिया कर मेरी बात को .

मैं- टाल जो दी तो फिर वो बात, बात कहाँ रहेगी .

“बातो में कोई नहीं जीत सकता तुझसे ” वो बोली.

मैं- ऐसा बस तुझे ही लगता है.

बाते करते करते हम लोग अपनी राह चले जा रहे थे. कच्चे रस्ते पर झूलते पेड़ अब अजीब नहीं लग रहे थे. न ही खामोश हवा में कोई शरारत थी .

“बोल कुछ , कब से चुपचाप चले जा रहा है ” उसने कहा

मैं- क्या बोलू, कुछ है भी तो नहीं

वो- क्लास में तो इतना शोर मचाते रहता है , अभी कोई देखे तो माने ही न की वो तू है .

मैं मुस्कुरा दिया .

“बर्फी खाएगी ” मैंने पूछा उससे

“बर्फी , कहाँ से लाया तू ” उसने कहा

मैं- पड़ोस के गाँव में दावत थी , दो चार टुकड़े जेब में रख लिए थे .

वो- पक्का कमीना है तू . मुझे नहीं खानी कहीं रात में कोई भूत न लग जाये मुझे

मैं- तू खुद भूतनी से कम है क्या

कहके जोर जोर से हंस पड़ा मैं

वो- रुक जरा तुझे बताती हूँ .

मेरी पीठ पर एक धौल जमाई उसने .

मैंने जेब से बर्फी के टुकड़े निकाले और उसकी हथेली पर रख दिए.

“अच्छी है , ” उसने चख कर कहा .

मैं- वो तेरे मामा से बात की तूने

वो- तू खुद ही कर ले न

मैं- मेरी हिम्मत कहाँ उस खूसट के आगे मुह खोलने की

वो- कितनी बार कहा है मामा को खूसट मत बोला कर .

मैं- ठीक है बाबा. पर तू बात कर न .

वो- मैंने तुझसे कहा तो है , बाजार चल मेरे साथ .

मैं- तू जानती है न , वैसे ही तू बहुत करती है मेरे लिए .

वो- तो ये भी करने दे न ,

मैं- इसलिए तो कह रहा हूँ, तेरे मामा से बोल दे , कैंटीन में रेडियो थोडा सस्ता मिल जायेगा. कुछ पैसे है मेरे पास कुछ का जुगाड़ कर लूँगा.

“पर मुझसे पैसे नहीं लेगा. हैं न , कभी तो अपना मानता है और कभी एक पल में इतना पराया कर देता है . जा मैं नहीं करती तुझसे बात ” उसने नाराजगी से कहा .

फिर मैंने कुछ नहीं कहा. जानता था एक बार ये रूस गयी तो फिर सहज नहीं मांगेगी. हालाँकि हम दोनों जानते थे हालात को , ऐसे ही ख़ामोशी में चलते चलते गाँव आ गया. मैंने उसे उसके घर के दरवाजे पर छोड़ा और अपने घर की तरफ साइकिल को मोड़ दिया. घर, अपना घर .............................
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#2



आँख थोड़ी देर से खुली .सूरज चढ़ आया था. . मैंने कपडे बदले और रसोई की तरफ गया , वहां पर ताला लगा था . मेरी नजर छींके पर गयी जहाँ पर कपडे में तीन रोटिया लिपटी पड़ी थी .

“हम्म,” एक गहरी साँस ली और सूखी रोटी का एक टुकड़ा चबाया. लोगो से सुना था की जब रोज़ कोई चीज़ अपने साथ हो तो उसकी आदत हो जाती है पर फिर ये रोटी के सूखे टुकड़े आसानी से गले के निचे क्यों नहीं उतरते थे . ऐसा नहीं था की मुझे शिकवे नहीं थे पर शिकायत करते भी तो किससे .

कक्षा में आज थोड़ी देर से पहुंचा, मास्टर की दो बात सुनी और फिर अपने काम में लग गया. दोपहर में मालूम हुआ की स्टूडेंट्स का एक टूर करवा रहे है उदयपुर जाने के लिए . मेरे मन में भी चाव सा उठा . एक पल की उस तम्मना को दिल की जिस गहराई में मैंने महसूस किया वो बता नहीं सकता था .

“मास्टर जी, कितना खर्चा आएगा इस टूर का ” मैंने पूछा

मास्टर- 800 रूपये

“आठ सौ. ” मैंने एक गहरी साँस ली .

दिल में एक आस लिए शाम को मैं चाची के पास गया.

“चाची , मुझे कुछ पैसे चाहिए थे . ” मैंने कहा

चाची - किसलिए

मैंने अपना प्रयोजन बताया उसे.

चाची- आठ सौ, जानता भी है कितने होते है .और बड़ा आया लाट साहब जायेगा घुमने, मैं तो दिन रात काम करके टूटी पड़ी हूँ, और इसे पैसे बर्बाद करना है . कोई जरुरत नहीं है कही जाने की अगले माह गाँव में मेला लगेगा उसमे चक्कर लगा आना. वैसे भी फिर खेत कौन देखेगा.घर के काम तो होते नहीं परसों तुझसे कहा था की गेहू चक्की पर दे आ पर वो तो हुआ नहीं तुझसे.

मैं- अभी कट्टा दे आता हूँ चाची .

मैंने गेहूं का कट्टा साइकिल पर लादा और दरवाजे के पास पहुंचा ही था की पीछे से मैंने चाची की आवाज सुनी जो मुझे ही कोस रही थी . एक नजर ऊपर आसमान पर डाली और मैं आगे बढ़ गया .ऐसा नहीं था की मुझे कोफ़्त नहीं होती थी चाची के इस रवैये से पर पिछले कुछ महीनो से तो जैसे हद्द हो गयी थी . मुझे सुनाने का कोई मौका नहीं छोडती थी वो .

“आठ सौ रुपैया , ” मैंने एक गहरी सांस ली और अपना हिसाब लगाने लगा. सब कुछ जोड़ कर मेरे पास 127 रूपये थे. तालाब किनारे बैठे बैठे मेरी गुना भाग जारी थी .

“ओ क्या सोच रहा है ”

मैंने पलट कर देखा. पानी का मटका लिए वो मेरी ही तरफ आ रही थी .

“कुछ नहीं सरकार ” मैंने कहा .



“तू क्या सोचता है , मुझसे छुपा लेगा अपने मन की बात , तुझे तुझसे ज्यादा जानती हूँ ” उसने मेरे पास बैठते हुए कहा.

मैं- तो तू ही बता मैं क्या करू. मेरे हालात तुझसे छुपे तो नहीं , चाची से पैसे मांगे थे उदयपुर जाने के लिए उसने झट से मना कर दिया.

“गलती तेरी भी तो है , कब तक चुप रहेगा. कभी न कभी अपने हक़ की बात करनी ही होगी न तुझे,जो व्यवहार तेरे साथ करती है वो मैं होती तो उसका मुह तोड़ देती ” उसने कहा .

मैं- जानती है सुख की सबसे बेकार बात क्या होती है , सुख के दिन ख़त्म हो जाते है , पर दुःख की भी एक अच्छाई होती है दुःख के दिन भी बीत जाते है.

वो- सुन तू फ़िक्र मत कर तू उदयपुर जरुर जायेगा, पैसे का इंतजाम हो जायेगा.

मैं- कैसे

उसने अपनी चांदी की पायल उतारी और मेरे हाथ में रख दी.

“इसे बेच देते है ” बोली वो .

एक नजर मैंने उसकी हथेली पर रखी पायल को देखा और एक नजर मैंने मेरी मजबूरियों को देखा.ना जाने कब आँख से गिरे पानी के कतरे उसकी हथेली को भिगो गए. उसने कस के मेरे हाथ को थाम लिया. और मेरे काँधे पर अपना सर टिका दिया.

“बहुत याद आती है माँ-बाप की मुझे , बापू कहता था चाचा चाची का उतना ही मान रखना जितना हमारा करता, कभी भी इनका कहा टालना मत , बस वही तो कर रहा हूँ, तू नहीं जानती , मैं हर रोज़ मरता हूँ अपने ही घर में. चाची अपने बच्चो को इतना लाड करती है , उनकी हर फरमाइश पूरी करती है . मुझे कभी गले नहीं लगाती, गले लगाना तो दूर, कभी सर पर हाथ भी नहीं फेरा. बापू कहता था थोडा बड़ा होजा मेरे पूत फिर तुझे फौज में ले चलूँगा. 9 साल हो गए देखते देखते बापू ही नहीं आया फौज से वापिस . क्या करू मैं तू बता. गर्म रोटी मेरे भाग में उस दिन होती है जब किसी और के घर मैं जीमने जाता हु तू कहती है की मैं कहता नहीं , किस से कहूँ चाचा से , उसे नहीं पता क्या उसके घर में क्या हालात है मेरे ” मेरी रुलाई छुट पड़ी .

“मैं जानती हूँ तेरे हालात , देखना एक दिन आयेगा. ये सब झुक कर सलाम करेंगे तुझे , ये रब्ब सब देख रहा है ” उसने कहा .

“छोड़ इन बातो को , देर हो रही है तू जा घर ” मैंने कहा

वो- तू भी चल

मैं- आता हूँ थोड़ी देर बाद.

रात जब गहराने लगी तो मैं भी थके कदमो से घर की तरफ चल दिया. मोहल्ले में जाके देखा अलग ही तमाशा चल रहा था . पडोसी जो नाते में मेरा ताऊ लगता था , अपनी घर वाली को दारू पीकर पीट रहा था . गालिया दे रहा था . मोहल्ले वाले बजाय उनको अलग करने के खड़े होकर तमाशे का मजा ले रहे थे .

“ओ ताया , बहुत हुआ अब बस करो छोड़ दे ताई को ” मैंने कहा

ताऊ- न, आज न छोडू इस कुतिया ने मेरी इज्जत तार तार कर दी है .

मैं-कोई न अन्दर चल के बात कर ,

मैंने ताऊ को अन्दर की तरफ खिसकाया और कमरे में ले आया.

मैं- ताया, दुनिया तमाशा देख रही है . तेरी ही तो तोर हलकी होती है न ताऊ- तोर बची ही नहीं इस रंडी ने सब बर्बाद कर दिया .

मैं- सो जा ताऊ, सुबह आराम से बात करना ताई से जो भी बात है .

ताऊ- तू कहता है तो सुबह देखूंगा इसे .

ताऊ ने जेब से दारू का पव्वा निकाला और खींच गया उसे, थोड़ी देर बाद बडबडाते हुए ताऊ पलंग पर लुढक गया .मैंने कमरे की कुण्डी लगाई और फिर ताई को आँगन में ले आया. उसे पानी पिलाया .

मैं- न रो ताई.

ताई- मेरे तो नसीब में ही रोना लिखा है .

मैं- हुआ क्या .

ताई- ये तो सारा दिन दारू पीकर पड़ा रहता है . घर कैसे चले . तुझे तो मालूम है ही हमारा हाल. मजदूरी से आते आज देर हो गयी तो उल्टा सीधा बोलने लगा.

मैं- कोई न तू हाथ मुह धो ले. खाना खा और आराम कर . सब ठीक होगा.

मैंने उसे छोड़ा और अपने घर आ गया. पुरे घर में अँधेरा था बस चाची के कमरे में रौशनी थी . प्यास के मारे गला सूख रहा था . मैं मटके के पास गया गिलास अपने हलक में उडेला ही था की मेरी नजर खिड़की जो की थोड़ी सी खुली हुई थी उस से अन्दर की तरफ गयी और जो मैंने देखा देखता ही रह गया.
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#3

चाची के बदन पर लहंगा ही था , ऊपर से पूरी नंगी वो . सर के खुल्ले बाल जो बार बार उसके वक्ष स्थल पर आ रहे थे . चाची के चेहरे पर दुनिया भर की शिकायते थी. पर मेरी नजर उन उन्नत छातियो पर थी जिन्हें मैं इतना पास से देख रहा था . बेशक मैंने अभी पानी पीया था पर होंठो पर खुरदुरापन महसूस किया मैंने. वो चाचा से झगड़ रही थी .

“खुद तो दो मिनट में ही ठन्डे हो जाते हो , मैं हमेशा की तरह रह जाती हूँ ,” चाची ने कहा

चाचा- हो जाता है कभी कभी जल्दी . इस बात का क्या बतंगड़ बनाना.

चाची- हाँ, सारा दोष मेरा ही तो है .

“जो जा अब कल और जोर से रगड़ दूंगा तुझे. ” चाचा ने जवाब दिया और पीठ दिवार की दूसरी तरफ मोड़ ली. चाची ने भी ब्लाउज पहन लिया और चाची के पास आकर लेट गयी.

“सुनो , एक बात करनी थी ” चाची ने कहा

चाचा- हाँ बोल.

चाची- वो भतीजा उदयपुर घुमने जाना चाहता है .

चाचा- तूने क्या कहा

मैं- टाल दिया . पर अब वो बड़ा हो रहा है , उसकी आँखों में शिकायते देखती हूँ मैं.

चाचा- हम्म

“क्या हम्म, तुम तो सुबह निकल जाते हो .इस घर में मैं रहती हूँ, ये जो दुश्वारिया उसके साथ करती हूँ मैं, वो मुह से कभी नहीं बोलता पर उसकी आँखे जो सवाल करती है मैं नजरे मिला नहीं पाती उस से ” चाची ने कहा

चाचा- सो जा, कल हम इस बारे में तसल्ल्ली से बात करेंगे. जिंदगी में वैसे ही कुछ ठीक नहीं चल रहा है , वो जब्बर ने अपनी दो एकड़ जमीन दबा ली है . पंच-सरपंचो की भी नहीं मानता वो.

चाची- पुलिस की मदद क्यों नही लेते

चाचा- पुलिस के साथ बैठ के तो दारू पीता है वो . दौर था जब हमारी मर्जी के बिना गाँव में पत्ता तक नहीं हिलता था और आज देखो .

चाची- कमी तो तुम्हारी ही है , जो इस विरासत इस घर के रुतबे को थाम नहीं पाए.

चाचा- इतने साल हो गए तू आज तक समझ नहीं पायी . मेरी जगह कोई और होता तो न जाने...........खैर , रात बहुत हुई सो जा .

चाचा ने बात अधूरी छोड़ दी . वो दोनों तो सो गए थे पर मेरे दिल में एक हूक जगा गए , पहली बार ऐसा लगा की जिंदगी ऐसी भी नहीं थी जैसा मैं सोचता था . पर मेरी और इस घर की जिन्दगी ऐसी क्यों थी अब मुझे ये देखना था . जब्बर ने हमारी जमीन दबा ली थी ये बात भी मुझे मालूम हुई और मैंने सोच लिया की जमीन पर मैं वापिस कब्ज़ा कर लूँगा.

अलसाई भोर से पहले ही मैं उठ गया था . हाथ मुह धोकर मैं सीधा मंदिर की तरफ निकल गया . ऐसा नहीं था की पूजा-पाठ में मेरी बहुत दिलचस्पी थी पर मेरे दिल में हसरत रहती थी , रीना से मिलने की . हर सुबह - शाम वो मंदिर आती, दर्शन करती , तालाब से पानी भरती . और मैं बस उसे देखता. सुबह की लाली में उसे देखना किसी तीर्थ से कम नहीं था मेरे लिए.



थोड़ी देर हम सीढियों पर बैठते और फिर हमारा दिन शुरू हो जाता. पर मेरी जिन्दगी में वो दिन ही क्या जो बिना किसी परेशानी के बीत जाए. मुझे कुछ भी करके आठ सौ रूपये का जुगाड़ करना था . मैं सोच रहा था की कोई छोटा मोटा काम मिल जाये तो पैसे मिल जाये. पर इतने पैसे भला दे कौन.

नहर की पुलिया पर बैठे बैठे मैं इसी गहन सोच में डूबा था की मैंने सामने से ताई को आते देखा. मुझे देख कर वो मेरे पास आ गयी .

ताई- इधर क्यों बैठा है

मैं- वैसे ही तुम बताओ

ताई- क्या बताऊ, तुझे तो सब मालूम है ही, दिहाड़ी पीट कर आई हूँ. अब जाकर आदमी की गालिया सुनूंगी , न जाने कब सुख मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं इस जन्म में

मैं- आखिर किस चीज की लड़ाई है तुम दोनों की

ताई- ग्रहस्थी में टोटे की लड़ाई है , तेरा ताऊ कमाता नहीं , कभी कुछ करता भी है तो उसकी दारू पी जाता है , अब उसके पीछे मरू मैं, खैर तू बता कुछ परेशान सा लगता है

मैं- मेरा हाल भी तेरे जैसा ही है ताई. कुछ पैसो की जरुरत आन पड़ी है . जुगाड़ हो नहीं रहा है

ताई- तेरी चाची से मांग, दुनिया को तो ब्याज में पैसे देती है

मैं- पर मुझे नहीं देती .

ताई- बुरा मत मानियो पर तू ही है जो उस से दबके रहता है पुरे गाँव को मालूम है की ये सब तेरा ही है.

मैं- वो भी मेरे ही है , उनके सिवा और कौन है मेरा तू ही बता

ताई- इतना सरल कैसे है तू

मैं- बस ऐसे ही .

ताई- सुन एक काम है जिस से हम दोनों की मुश्किलें थोड़ी आसान हो सकती है , पैसे का जुगाड़ हो सकता है , थोड़े तू रख लेना थोड़े मुझे दे दियो .

मैं- कैसे.

ताई- मैं जहाँ मजदूरी करती हूँ, वहां सड़क बनाने का काम है , तो तारकोल बनाने के लिए न ट्रको में कोयला आता है. अगर हम ट्रक से थोडा कोयला गायब कर ले तो उसे बेच कर पैसे आ सकते है .

मैं- तू पागल हुई है क्या. चोरी करना गलत है और फिर किसी ने पकड़ लिया तो वैसे ही परेशानी हो जाएगी.

ताई- इस दुनिया में आसानी से कुछ नहीं मिलता, मेरे मन में ये बिचार इसलिए आया है की मैंने कुछ मजदूरो की बाते सुनी थी वो कई बार कोयला बेच चुके है , सहर में एक सेठ है जो ये कोयला खरीदता है . देख ले अगर कर पाये तो .

मैं- मन नहीं मानता

ताई-तेरे मन की तू जाने, चल ठीक है मैं चलती हूँ देर से पहुंचूंगी तो दो गाली और बकेगा आदमी.

ताई चली गयी पर मेरे मन में हलचल मचा गयी .. मेरा मन दो हिस्सों में बंट गया एक तरफ मेरा जमीर कहता की गलत काम गलत ही होता है , तो दूसरा हिस्सा कहे की उदयपुर घुमने जाना ही है , जिन्दगी में ये मौका फिर मिले न मिले. कशमकश जब ज्यादा हुई तो मैं गाँव की तरफ चल निकला . कुछ दूर चला ही था की मेरी चप्पल में काँटा फंस गया . किस्मत को कोसते हुए मैं काँटा निकाल ही रहा था की पास के झुरमुट में मुझे हलचल सी महसूस हुई. लगा की कोई हैं वहां पर मैंने तुरंत चप्पल पहनी और झुरमुट में जाकर देखा. ...........................

तो वहां पर ...........................................
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#4

वहां पर गाँव का सुनार था . उसके हाथ में एक छोटा बक्सा था जिसे वो बार बार खोल बंद कर रहा था .लालाजी का इस समय यहाँ पर इस जंगल में होना कुछ तो ठीक नहीं था . मैं थोडा सा छिप गया और देखने लगा की सुनार आखिर कर क्या रहा है . लाला के हाथ सख्ती से उस पुराने बक्से पर जमे हुए थे, और उसकी आँखे बार बार रस्ते की तरफ देख रही थी जैसे की उसे किसी का इंतज़ार हो . पर किसका हिलते झुरमुट की आड़ में शाम अब रात में बदलने लगी थी.



कुछ देर बाद दूसरी तरफ से कदमो की आहट हुई तो मैं थोडा सा और छिप गया . लाला ने आने वाले दोनों आदमियों को देख कर एक गहरी सांस ली और बोला- कितनी देर की आने में .

आदमी जिन्होंने अपना मुह तौलिये से ढका हुआ था वो बोला- ऐसे मामलो में देर तो हो ही जाती है लाला. सामान लाया .

लाला- हाँ, पर आज पुरे 16 साल बाद ऐसी क्या बात हुई जो इस दबी बात को उखाड़नी पड़ी .

आदमी- गुजरा हुआ वक्त , कभी कभी आज बन कर आँखों के सामने आ जाता है और जब ऐसा होता है तो उस आज का सामना करना मुश्किल हो जाता है ,

लाला- तो इस राज को भी दबे रहने देते जैसे की और कितने ही राज दबा दिए हमने.

आदमी-वो दौर अलग था लाला, ये दौर अलग है . खैर, छोड़ इन बातो को तुझे तेरा हिस्सा तो मिल ही जायेगा. ला बक्सा मुझे दे.

वो कहते है न सबकी जिन्दगी में एक ऐसा लम्हा आता है जो पूरी जिन्दगी को एक झटके में बदल देता है . उस छोटे से लम्हे में मुझे न जाने क्या सोचा, मैंने वो करने का सोच लिया जिस से मेरा दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था . मैंने झोली में रेत भरी और उन लोगो की आँखों में झोंक दी. इस से पहले की वो कुछ समझ पाते मैंने बक्सा लाला के हाथ से उड़ा लिया.



पीठ पीछे वो तीनो चीख रहे थे, और मैं दौड़ लगाये जा रहा था . कभी इधर कभी उधर, मेरे फेफड़े जैसे फट ही गए थे पर मैं रुका नहीं . मैं जंगल में और अन्दर भागे जा रहा था . अँधेरा घना और घना होते जा रहा था . इतना घना की जैसे रात ने सब कुछ अपने आगोश में ले लिया था. जब मुझे पूरी तस्सली हो गयी की मैं अकेला हूँ तो मैंने एक पेड़ का सहारा लिया और सांसो को दुरुस्त करने लगा.



मैं इतना तो जान गया था की इस बक्से में कुछ बेहद खास था . कोई दो-तीन किलो का वो बक्सा अपने अन्दर कुछ ऐसा समेटा हुआ था जो 16 साल पुराणी बात का गवाह था . दिल जोर से धडक रहा था ,



जानता था की लाला और उसके साथी पूरा जोर लगा देंगे इस बक्से को हासिल करने के लिए मुझे जंगल से निकल कर सुरक्षित स्थान पर जाना था . अगले कुछ घंटे मेरे लिए बड़े मुश्किल थे हर पेड़, हर लहराती शाख मुझे लाला ही लगी. जैसे तैसे करके मैं गाँव की दहलीज पर पहुंचा. और किस्मत देखिए एक तो रात का समय ऊपर से बिजली गुल.



उस पूरी रात मैं अपने कमरे में बैठा रहा , उस बक्से को घूरता रहा. चिमनी की रौशनी में बक्सा जैसे चमक रहा था . मेरे हाथ कांप रहे थे दिल चीख रहा था की खोल कर देख इसमें क्या है .पर हिम्मत नहीं हो रही थी . घबराहट इतनी की कहीं बुखार न हो जाये. जैसे तैसे सुबह हुई. मैंने बक्से को छुपा दिया. वैसे भी मेरे कमरे में कोई आता जाता तो नहीं था .



सुबह मैं पढने निकल गया . मन कर रहा था की बक्से वाली बात रीना को बता दू, पर फिर खुद को रोक लिया. उसे क्यों उलझाना बेवजह . दोपहर को मैंने साईकिल सुनार की दुकान की तरफ घुमाई मैं देखना चाहता था उसके हाव भाव पर वो बेखबर अपने काम में लगा था जैसे कल कुछ हुआ ही नहीं हो. तब मुझे समझ आया वो कितना घाघ था इतने सालो से बक्से को छुपाये हुआ था तो रात की बात की क्या ही औकात थी उसके सामने.



उदयपुर जाने के अब कुछ ही दिन बचे थे . दो दिन के भीतर पैसे जमा करवाने थे . और पैसे ही तो नहीं थे मेरे पास. मेरे दिमाग में ताई की कही बात बिजली की तरह कौंध रही थी . कुछ सोच कर मैं उस तरफ चल दिया जहाँ ताई काम करती थी .उस समय मुझे कहाँ मालूम था ये मेरी किस्मत थी तो मेरे करम लिख रही थी.

मुझे देखते ही ताई की आँखों में चमक आ गयी . वो मेरे पास आ गयी .

ताई- तो सोच लिया तूने.

मैं- हाँ सोच लिया.

“देख उस तरफ वो दो ट्रक खड़े है , आज ही आये है . दो कट्टे गायब हु तो भी कुछ मालूम नहीं होना किसी को .” ताई ने आँखों से इशारा करते हुए कहा.

मैं- आज रात ही करूँगा ये काम.

ताई- ठीक है , मैं तुझे सेठ की दूकान बताती हूँ, वहां बस कट्टे रख देना वो समझ जायेगा.

मैं- ठीक है . चलता हूँ फिर .

ताई- थोड़ी देर रुक , अब कहाँ पैदल जाउंगी, तेरे साथ ही चल दूंगी मैं भी.

मैं- हाँ,

आधे घंटे बाद मैं और ताई गाँव की तरफ आ रहे थे बाते करते हुए.

मैं-किसी को मालूम हो गया तो

ताई- नहीं होगा. सब ठीक रहेगा. वैसे अगर तू चाहे तो मैं आ जाती हूँ तेरे साथ रात को , मैं चोकिदारी कर लुंगी, तू कोयला उठा लेना.

मैं- ताऊ को क्या कहेगी.

ताई- कहना क्या है , दारू पी कर लुढक जायेगा.एक बार सोया तो फिर होश कहाँ रहता है उसे.

मैं- बड़ी दिलेर है तू

ताई- जरूरते सब कुछ करवा देती है .

मैं- सो तो है तो फिर ठीक रहा , रात को दस बजे तू मुझे फिरनी पर मिलना

ताई-पक्का.

, कल बक्से की वजह से धडकने बढ़ ह गयी थी आज कोयला चुराने का सोच कर. घर आया तो चाची आँगन में नलके पर हाथ मुह धो रही थी , झुक कर वो अपने चेहरे पर पानी के छींटे मार रही थी मेरी नजरे उसके ब्लाउज से झांकती चुचियो पर पड़ी. कल रात वाला सीन आँखों के सामने घूम गया. आधी दिखती गोरी चुचिया मेरे दिल में हलचल मचाने लगी. कनपटी के पास गर्मी महसूस की मैंने. तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो मैं आगे बढ़ गया. इंतज़ार था रात होने का.
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rajababu
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Re: गुज़ारिश पार्ट 2

Post by rajababu »

#5

बहुत देर तक मैं ताई की राह देखता रहा पर वो आई ही नहीं, हार कर मैं खुद ही चल दिया.ताई आये न आये फर्क नहीं पड़ता था मेरी अपनी मजबूरियां थी , पैसे की जरुरत थी बेशक गलत काम था पर जिंदगी में कभी कभी वो भी करना पड़ता है जो गलत हो.

तक़रीबन ग्यारह बजे मैं उधर पहुंचा तो सब कुछ शांत था , घुप्प अँधेरा था मैंने साइकिल थोड़ी दूर खड़ी की और दबी आवाज में ट्रक के पास पहुँच गया . दिल की धड़कने बढ़ी हुई थी , माथे पर पसीना था. मैं ट्रक पर चढ़ा और कोयले को बोरी में भरने लगा. एक बोरी भरने के बाद मैंने उसे साइकिल पर लाद दिया. सब कुछ आसानी से हो गया. पर वो कहते है न की हर चीज की कीमत होती है,

इसी आसानी ने मेरे दिमाग में फितूर भर दिया. मैंने सोचा एक बोरी और मचका देता हूँ, मैं फिर से ट्रक पर चढ़ गया . बोरी आधी भरी ही थी की मेरी आँखे तेज रौशनी से चोंध गयी. चोकीदार की टोर्च मुझ पर तनी हुई थी .

“हरामखोर, तेरी ही तलाश में था, आज हाथ लगा है .साले तेरे बाप का माल है क्या जो चुरा रहा था, चुपचाप निचे आ जा. ”उसने अपना लट्ठ हिलाते हुए कहा.

मैं फंस चूका था , लालच भारी पड़ने वाला था.

“चल, निचे आ ” उसने कहा.

तभी मुझे न जाने क्या सुझा मैंने बोरी चोकीदार पर दे मारी. अचानक हमले से वो गिर गया और मैं उसके ऊपर कूद पड़ा. मैंने पास में पड़ा उसका लट्ठ उठाया और उसे मारने को ही था की वो बोला- नहीं नहीं मारना मत.

मैं- जाने दे मुझे,

वो- बोरी इधर ही छोड़ जा

मैं- बोरी तो लेके ही जाऊंगा, मज़बूरी समझ मेरी

चोकीदार- एक शर्त पर जाने दूंगा, आधा हिस्सा मेरा होगा.

मैं- ठीक है , कल दे जाऊंगा

चोकीदार- कल नहीं अभी

मैं- चूतिये, कोयला बिकेगा तभी तो हिस्सा मिलेगा

चोकीदार- मैं कैसे भरोसा करू तेरा.

मैं- मत कर. तेरा नुकसान , जैसा मैंने कहा मज़बूरी है और मज़बूरी आदमी क्या ही धोखा करेगा किसी से.

चोकीदार- ठीक है भरोसा किया .

मैं- कल दोपहर को मिलता तुझे,

वो- शाम ढले आना , आयेगा न

मैं- जुबान देता हु,

उस रात मुझे एक सीख मिली थी की आदमी ईमानदार तब तक ही होता है जब तक की उसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता. खैर, कोयला तो मैंने पार कर लिया था पर अभी इसे रखु कहा और शहर कैसे ले जाऊ ये भी समस्या थी. मुझे ताई पर भी गुस्सा आ रहा था , मैंने दो चार गालिया दी उसे. दो बोरी कोयला लादे मैं अँधेरी रात में चुतियो के जैसा खड़ा था . बहुत सोच कर मैंने कोयले को अपने खेतो में बने कमरे की छत पर रख दिया और विचार करने करने लगा की कैसे इसे शहर ले जाऊ, उस रात मुझे एक पल भी नींद नहीं आई. खेत में बैठे बैठे ही सुबह हो गयी.

मैं सीधा ताई के घर गया , वो चाय बना रही थी .

“ले,चा ” उसने मुझे कप दिया.

मैं- चाय गयी तेल लेने ये बता तू कल आई क्यों नहीं .

ताई- बस नहीं आ पाई. आज करेंगे वो काम

मैं- काम तो मैंने कर दिया , ये बता बोरी को शहर कैसे ले जायेंगे.

ताई की आँखों में चमक सी आ गयी .

ताई- तू चिंता कर. ये बता माल कहाँ है

मैं- हिफाजत से है

मैंने ताई को बता दिया.

ताई- तू घर जा , बाकि मैं देख लूंगी .

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था . मैं चाहता था की जल्दी से पैसा मेरे हाथ में आ जाये. दोपहर को एक कबाड़ी अपनी टूटी सी गाड़ी लेकर मेरे पास आया और बोला- भैया, आपके पास कबाड़ बताया.

मैं- कहीं और जा भाई, कोई कबाड़ नहीं है मेरे पास.

वो- मुझे तो यही सुचना मिली थी खैर तेरी मर्ज़ी



उसने इशारा किया तो मैं समझा और उसे साथ ले लिया.बोरी उसकी गाड़ी में लदवा दी. उसने तुरंत ही पैसे गिन दिए और बोला- कबाड़ और आये तो बताना. मेरे हाथ में सौ और पचास के कुछ नोट थे. जिन्हें गिन कर बड़ी ख़ुशी मिली पर बस एक पल की ताई और चोकीदार को उनका हिस्सा देने के बाद मेरे पास इतने पैसे बचते ही नहीं की मैं उदयपुर जाने के पैसे भर सकता.



खैर अब जो थे यहीं थे . ताई को उसके पैसे देने के बाद मैं चोकीदार के पास गया . उसको भी दिए.

चोकीदार- क्या बात है लड़के, खुश नहीं लगता तू

मैं- यार, जितने चाहिए थे उतने बन नहीं पाए.

चोकीदार- जो मिला उतने भी कहाँ थे तेरे पास. जितना है उसमे खुश रह .

मैं वहां से चल तो दिया पर जैसे मेरे कदमो को बेडियो ने जकड लिया था . कल का दिन ही बचा था पैसे जमा करने के लिए. कभी मैं आसमान की तरफ देखता तो कभी अपने पैर की तरफ. मुझे अपनी मजबूरियों पर गुस्सा आ रहा था. दिल पर जब काबू नहीं रहा तो मैं पुलिया पर बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा. रोते ही रहा जब तक की मेरा दर्द आंसू बन कर बह नहीं गया.

घर पहुंचा तो देखा रीना बैठी थी .

मैं- तू कब आयी

वो-मैं तो कब से आई, तू न जाने कहाँ था . और ये कैसी शक्ल बनाई है कुछ हुआ है क्या.

मैं- कुछ, कुछ भी तो नहीं

रीना- मुझसे झूठ बोलता है

मैं- कहाँ न कुछ नहीं हुआ वो थोड़ी गर्मी ज्यादा है न तो पसीना पसीना हुआ पड़ा है

रीना-क मेरे साथ आ जरा.

मैं उसके साथ छत पर आया.

वो- पैसे का जुगाड़ नहीं हुआ न .

न जाने वो मेरे मन की बात कैसे जान लेती थी .

मैं- हो जायेगा, उसमे क्या है

रीना- मैं जानती हु, बात नहीं बनी.

मैं- क्या हुआ फिर, तू जब आएगी वहां से तो वहां क्या है कैसा है बता ही देगी फिर क्याफ फर्क पड़ा.

रीना- फर्क पड़ता है .

उसने जिस अंदाज से मेरी आँखों में देखा, मैं कुछ बोल ही नहीं पाया.

रीना- दाल चूरमा लायी थी तेरे लिए डिब्बा रखा है खा लेना गर्म ही .

मैं- हाँ,

एक कल रात नींद नहीं आई थी, एक आज की रात थी जो ख्यालो में कट रही थी .एक बार फिर मैं चाची के पास गया .

चाची- क्या है

मैं- वो पैसे चाहिए थे उदयपुर जाना है

चाची- एक बार समझ नहीं आता क्या तुझे ,कह दिया न नहीं जाना

मैं- मैं जाऊंगा

जिन्दगी में पहली बार था जब मैंने चाची को उल्टा जवाब दिया था. चाची को भी खली ये बात

“क्या कहा तूने फिर कहियो ” उसने कहा

मैं- मैंने कहा मैं उदयपुर जाऊँगा.

चाची ने पास पड़ी थापी उठा कर मेरी बाह पर मारी और बोली- जुबान लडाता है मुझसे,

जब तक उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ, वो मुझे पीटती रही . मैं चाहता तो उसका हाथ पकड़ सकता था , रोक सकता था पर मैं चाची के मुह नहीं लगना चाहता था. दर्द भरे बदन को सहलाते हुए मैं घर से निकल गया . मुझे गुस्सा चाची पर नहीं था बल्कि उस ऊपर वाले पर था , जिसने मुझे मेरे माँ-बाप से दूर कर दिया था आज वो होते तो मेरा ये हाल नहीं होता. घूमते घूमते मैं जंगल की तरफ जा ही रहा था की एक बहुत तेज , जैसे कोई धमाका हुआ हो ऐसी आवाज मेरे कानो में आई, आवाज इतनी तेज थी आस पास सब हिल सा गया हो . मैं उस तरफ दौड़ चला. और जब मैं वहा पंहुचा तो मैंने देखा ........... मैंने देखा की.......................
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