स्वाँग

koushal
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Re: स्वाँग

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अध्याय चार

आम का जिक्र करके नीलिमा ने ठीक नहीं किया। क्योंकि भुट्टे खाने की इच्छुक परी के लिए अब रसीले आम का इंतजार करना मुश्किल होने लगा था। दोपहर समाप्त होने के पहले ही दोनों ने निर्णय लिया कि गाँव के बगीचे से जाकर आम चुराएगी और छिपकर खाएगी। लेकिन यह आसान नहीं था क्योंकि एक मोटे शरीर वाला आदमी बगीचे की रखवाली करता था जिसकी बहुत बड़ी-बड़ी मूंछें थी। और जिसके वजह से वह डरावना भी लगता था लेकिन उससे ज्यादा डरावना वह तब लगता था जब उसके हाथ में उसकी वो मोटी लाठी होती थी। लेकिन शरारती स्वभाव वाली परी के लिए उनकी निगरानी करने के बावजूद भी आम तोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती थी।

प्लान के अनुसार उन्होंने आम तोड़ लिया और उस पहरेदार की नजर से खुद को बचाते हुए दोनों बहनें बगीचे से दूर निकल आयी थी। दोनों बहुत खुश थी क्योंकि उन्होंने पर्याप्त फल तोड़ लिया था और पहरेदार को इसका आभास भी नहीं हुआ था। नदी के किनारे स्थित उस नीम के वृक्ष के नीचे बैठ कर दोनों बहने रसीले आम के स्वाद का आंनद ले रही थी। इस दौरान उन्हें समय का बिल्कुल भी आभास नहीं हुआ था। सूर्यास्त होने में बस कुछ ही मिनट बाकि था और इस समय उन्हें गाय को चारा देना होता था। यह बात अचानक से परी को स्मरण आई। वह डर गई क्योंकि वह जानती थी कि अगर समय पर गाय को चारा नहीं मिला तो दादी दोनों को बहुत खरी खोटी सुनाएंगी। लेकिन अभी थोड़ा वक्त शेष था और घर ज्यादा दूर भी नहीं था; लगभग आधा किलोमीटर या उससे कुछ ज्यादा।

"अरे नहीं..!" परी चौंकते हुए बोली। उसके स्वर में दादी का भय था।

"क्या हुआ परी?" लेकिन सुलेखा अब भी रसीले आम को बहुत ही चाव से खा रही थी और वह यह बिल्कुल ही भूल गई थी कि इस समय में उसे गाय को चारा देने का काम सौंपा गया था, जिसे न करने पर दादी के तरफ से सजा मिलना तो तय था।

"गाय को चारा देने का समय हो गया है। कुछ देर बाद दादाजी गाय दुधने आयेंगे।" बोलते हुए परी उठ खड़ी हुई और नदी में ढलान की ओर तेजीसे भागी और फटाफट हाथ धोने लगी।

"परी उससे हाथ मत धो, बीमार पड़ जाएगी। चल घर पर वहीं पर धो लेना।" सुलेखा ने सलाह दिया। लेकिन इसका परिणाम क्या होगा उसने उसकी कल्पना भी नहीं की।

"नहीं दीदी। अगर उन्हें पता चलेगा कि हमने आम चुराया है तो बहुत पीटेंगे।" परी बोली।

दादा और दादी के नफ़रत का सामना करने से तो बेहतर था गड्ढे में जमे हुए उस थोड़े से जल से हाथ धो लेना। और सुलेखा के पास निर्णय लेने का समय भी तो नहीं था क्योंकि गाय को चारा समय पर नहीं पड़ने से वैसे भी उसे दादा और दादी के नफ़रत का सामना करना ही था। लेकिन आम की चोरी की बात उनका गुस्सा बढ़ा सकता था। वैसे भी वे लोग तो बस बहाने ढूंढ़ते रहते हैं उसे और परी को डांटने के लिए।

"क्या सोच रही हो दीदी? जल्दी करो। गाय को चारा भी देना है। नहीं तो दादाजी पीटेंगे। वैसे भी वो हमसे प्यार नहीं करते, दादी भी।" सुलेखा परी के बात पर सहमत थी। बिना वक़्त गवाए उसने भी उसी दूषित जल से हाथ धो लिया और तुरंत घर की ओर भागी।

अपनी क्षमता से ज्यादा तेज भागने की कोशिश करने के बावजूद भी दोनों समय पर घर नहीं पहुँच पाई। सूर्यास्त हो गया था और दलान में बैठी नीलिमा की सास बिना रुके परी और सुलेखा को डांटने के लिए बुलाए जा रही थी। लेकिन दोनों में से किसी के तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं पा कर वह क्रोधित हो रही थी। जब दोनों दलान के समीप पहुँची तो सुनी दादी दोनों को पुकार रही है।

"आई दादी।" दोनों ने एक साथ एक स्वर में दादी को उत्तर दिया। बहुत तेज रफ्तार में भागने की वजह से दोनों हांफ रही थी। लेकिन गहरी सांस लेने के लिए रुकने का समय नहीं था। पता नहीं दादी दोनों को कब से बुला रही थी।

"आज तो पीटना तय है। पहले दादाजी को नाराज किया और अब दादी को।" सुलेखा डरते हुए बोली।

"कोई बात नहीं।" परी के बात में हौसला था और हर तरह की परिस्थिति से लड़ने की शक्ति भी। और शायद वह इसका सामना करने के लिए बिल्कुल तैयार थी। वह दलान के भीतर गई। उसने तय कर लिया था कि आज वह दादी से बिल्कुल भी नहीं डरेगी और उनके सभी प्रश्नों का उत्तर बहुत ही बहादुरी से देगी। सुलेखा उसके पीछे थी।

"क्यों महारानी कहाँ थी? कब से बुला रही हूं तुम दोनों को। क्या करती रहती हो?" दलान में दादी एक खटोले पर बैठी थी और परी को देखते ही उसपर चिल्लाने लगी। हालाँकि परी ने उनके प्रश्नों का जवाब डटकर देने का निर्णय की थी लेकिन इस बार हार गई।

"दादी... वो..." वह कोई अच्छा सा बहाना ढूंढ़ने लगी।

"क्या काम करने को कहा गया था तुम दोनों बहनों को? सूर्यास्त होने से पहले गाय को चारा देना। लेकिन तुम दोनों... जा वहाँ से घास लेजाकर गाय को दे आ। तेरे दादाजी आते ही होंगे।" दादी बोली।

परिस्थिति के अनुसार दोनों ने दादी के जिस स्वरूप की कल्पना की थी, उनका प्रतिक्रिया बिल्कुल ही उसके विपरीत था। शायद चमत्कार था या दोनों कोई स्वप्न देख रही थी। परी दौड़ते हुए घास के ढेर के पास गई और सुलेखा उसके पीछे। सुलेखा ने तुरंत टोकरी को घास से भर दिया और उसे उठा कर गाय के पास चली गई। टोकरी भर घास गाय के नाद में डाल दी और उसे अच्छे से हिलाने लगी।

चारा मिलते ही गाय भोजन करने में व्यस्त हो गई लेकिन जैसे ही उसे बछड़े के आने का आभास हुआ वह राँभाने लगी। हालाँकि बछड़ा अभी दलान से दूर था फिर भी वह अपनी माँ से मिलने के लिए बेचैन था और बिना रुके राँभाये जा रहा था जिसे शायद गाय को बछड़े से मिलने की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। शायद उसका बछड़ा भूखा था। सुलेखा अभी चारा को अच्छी तरह से मिला ही रही थी, गाय ने बछड़े से मिलने की उत्सुकता से रस्सी को झटके से खींचा। फलस्वरूप रस्सी खूंटे सहित खुल गई। क्योंकि अब गाय बिल्कुल आजाद हो गई थी और अब उसे बछड़े के पास जाने से रोकने के लिए कोई बंधक नहीं था वह बहुत तेजी से बाहर की ओर भागी। लेकिन शायद यह सुलेखा का दुर्भाग्य था कि खूंटे से बंधा हुआ गाय का रस्सी उसके पैर से फंस गया और वह गिर पड़ी। ईंट पर अचानक गिरने की वजह से उसका सर फट गया लेकिन गाय को इसका जरा सा भी आभास नहीं था। लेकिन परी जोर से चीख पड़ी "दीदी..!"

सुलेखा भी गाय के साथ घिसटने लगी लेकिन दलान से बाहर निकलने के पहले ही रस्सी उसके पांव से खुल गया था। वह रोने लगी थी। उसे बहुत गहरी चोट आई थी।

गाय को बाहर भागता देखकर दादी उठी और गाय को पकड़ने के लिए वह उसके पीछे भागी। उन्होंने सुलेखा की ओर एक बार भी ध्यान नहीं दिया – जैसे कि सुलेखा यहाँ पर थी ही नहीं।

एक इंसान किसी वस्तु को पाने की ख्वाईश करता है, उसके साथ उसकी भावनाएं इस हद तक जुड़ जाती है कि अगर वह वस्तु उसने न मिले तो संसार की समस्त चीजें उसे व्यर्थ लगने लगती है। वह इतना निराश हो जाता है, वह बेचैन हो जाता है। सत्य ही कहते हैं कि इंसान के समस्त दुखों की वजह चाहत ही होता है। अगर वह इस वस्तु को पाने की चाहत न करता तो उसे उससे मोहब्बत ही नही होती। न ही उसकी उम्मीद टूटती और न ही वह निराश होता। फिर निराशा के दलदल से निकल जाना इतना आसान भी तो नही होता है। उस व्यक्ति या वस्तु की छवि आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूमते रहता है। तो फिर वह कैसे उसे भूल सकता है! ऐसी ही निराशा और बुरी सोच के कैद मे जकड़ी हुई थी परी की दादी जिन्हे सुलेखा की चीखें तो सुनाई नही पड़ी लेकिन उन्हे इस बात का भय कहीं ज्यादा ही था कि गाय सारा दूध बछड़े को न पीला दे। इसलिए वह गाय के पीछे दौड़ी। लेकिन अपने मकसद मे नाकाम रही। उन्होने देखा कि गाय बछड़े को दूध पीला रही है और स्नेह से उसके शरीर के कई हिस्सों को चाट रही है।

इस बात पर उन्हें बहुत क्रोध आया। राघव के पिता जी भी कुछ नही कर पाये थे क्योंकि आवेग मे भागते हुए गाय को रोकने की कोशिश करना खतरनाक हो सकता था। दादी को एक और अवसर मिल गया था अपनी पोतियों को भला बुरा कहने का। सुलेखा जख्मी हो गयी है इसका उन्हे ख्याल भी नही था और यह जानने के बाद भी उनका व्यवहार नही बदला।

जब वह गाय और बछड़े को लेकर दलान वापस पहुँची तो देखी कि सुलेखा का सर फटा हुआ है और नीलिमा जख्म को साफ कर रही है। सुलेखा रो रही है। यह दृश्य देखने के पश्चात राघव की माँ के हृदय में तो जैसे अनगिनत काँटे चुभने लगे। माँ-बेटी के बीच का स्नेह उनसे देखा बर्दाश्त नही होता था। गाय को उसके स्थान पर बाँधने के बाद वह सुलेखा के नजदीक गयी और अपने हृदय में चुभे एक-एक काँटे को निकालकर शब्द रूपी बाण से सुलेखा, परी और नीलिमा पर प्रहार करने लगी।

“और लगा दो मरहम। थोड़ा सा सर क्या फूटा माँ-बेटी का नाटक शुरू हो गया। अच्छी तरह से लगा दो दवाई ताकि घाव के साथ-साथ दिमाग भी ठीक हो जाय इसका। थोड़ा अक्ल आ जाय इसे। काम करते समय न जाने क्या सोचते रहती है? नुकसान कर दिया आज तुम्हारी लाड़ली ने।“

सुलेखा का सर फट गया था। वो जख्मी हो गयी थी लेकिन अब भी उन्हे सिर्फ फायदे और नुकसान की ही पड़ी थी। न जाने कब वो इस पगडंडी का प्रयोग छोड़ कर एक औरत की तरह, एक सास की तरह, एक दादी की तरह सोचेंगी? इस जन्म में तो शायद संभव नही।

“माँ जी, इसे चोट लगी है। खून बह रहा है।“ नीलिमा चाहती थी कि कम से कम इस समय तो वह ऐसा व्यवहार न करे।

“ये मर जाती तो अच्छा होता। कम से कम एक बोझ तो हल्का हो जाता हमारे सर से।“

इतना कठोर। कल्पना करिए यही अगर उनके पोते के साथ हुआ होता। सुलेखा लड़की नही बल्कि लड़का होती। तब नीलिमा की सास का व्यवहार कैसा होता?

दरअसल गाय से प्राप्त होने वाले दूध को बेचकर वे कुछ धन अर्जित कर लेते थे। बछड़े ने तो बस इस शाम का ही दूध तो पिया था इसमें कितना बड़ा नुकसान हो गया लेकिन इतनी छोटी सी बात के लिए उनका गुस्सा आसमान पर था। अगर उनके वश में होता तो शायद वह उन दोनों की हत्या भी कर देतीं। और ऐसा करने का अवसर उन्हे मिले तो उन्हे संकोच करने का प्रश्न नही उठता।

यह रोज का नियम बन गया था और अपनी दोनों पोतियों पर गुस्सा करना उनकी आदत बन गयी थी। जिस दिन वह ऐसा नहीं करती उनका दिन न शुरू होता और न ही खत्म। सुलेखा ने मास्टर जी के यहाँ पर ट्यूशन जाना आरंभ कर दिया था। विधालय से छुट्टी होने के बाद शाम में दो घंटे तक मास्टर जी बच्चों को पढ़ाते थे। परी को ट्यूशन की आवश्यकता नही पड़ती। सुबह जल्दी जागना। फिर स्कूल भागना। दिनभर स्कूल में पढ़ाई करना और फिर घर का काम करना और फिर ट्यूशन जाना। ट्यूशन से आकार रात को पढ़ाई करना और पाठ याद करना। इतने मे ही दोनों का दिनचर्या सिमट गया था।

आज रविवार का दिन है। दोनों बहने सुबह देर तक सो रही थी जोकि दादी से बर्दाश्त नही हो रहा था।

“हाय राम! मेरी तो किस्मत ही फूटी है। भगवान तेरा क्या जाता जो एक पोता दे देता मुझे लेकिन एक नही दो-दो बोझ कंधों पर दे डाला। खुद को महारानी समझती है। आलसी है। काम करने कहो तो नानी मरती है। देखो ना सूर्योदय कबका हो गया है और यह महारानियाँ अभी तक सो रही है। हाय ! क्या करूँ मैं? कोई जानेगा इनके बारे में तो क्या कहेगा? ताने ही देगा हमें और क्या?”

दादी के तीखे शब्दों को सुनकर न चाहते हुए भी दोनों को जागना पड़ा। कल रात को ज्यादा देर तक पढ़ाई करने की वजह से अभी उन्हे नींद आ रही थी लेकिन दादी को तो बस गुस्सा करने का कोई न कोई बहाना चाहिए था।

जब दोनों बिस्तर पर से उठी तो उनकी नजर गन्ने और आम पर पड़ी। जिसे देखकर दोनों बहुत खुश हो गयी और बिना वक़्त बर्बाद किए उसपर टूट पड़ी।

राघव ने कभी भी बेटे और बेटी मे भेदभाव नही किया था। अभी जितना वह अपनी बेटियों के लिए कर रहा था, बेटों के लिए भी इतना ही करता।

शिक्षित और अदर्शवान बनाता जिसके असुलों में संसार और सांसरिक सोच को बदलने की शक्ति होती। जो उसे इस गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकालता और जो उसके बुढ़ापे की लाठी बनता । लेकिन एक पुत्र ही आपके इन सपनों को पूरा कर सकता है ऐसी विचारधारा क्यो? इस तथ्य को वह बहुत जल्दी ही समझ गया था।

वह समझ गया था कि समाज के द्वारा निर्मित यह विचारधारा न सिर्फ गलत है बल्कि स्त्रियों की आजादी को कैद करने का एक साधन है। इस प्रकार के सोच की नींव रखने वाले लोगों को शायद इस बात का भय था कि ये स्त्रियाँ कहीं उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली न हो जाय।

स्त्रियाँ, जिसकी किस्मत में घर के चार दीवारों के भीतर ही कैद होना लिखा ताकि इनकी प्रतिभा इन्ही के भीतर दफन हो जाय। शासन क्षेत्र या कोई अन्य क्षेत्र जिससे स्त्रियों को दूर रखा गया क्योंकि शायद उन्हे इस बात का भय था कि कहीं ये बेहतर शासक न बन जाय।

बिस्तर पर लेटे-लेटे राघव इन्ही तथ्यों पर विचार कर रहा था। क्यों हमेशा से यही नियम रहा है कि स्त्रियों को लज्जा का कफन ओढ़े घर के चारों दीवारों के भीतर ही कैद रहना धर्म है और संसार के सामने अपने हुनर का प्रदर्शन करना अधर्म !

और आखिर क्या वजह रही होगी उन औरतों की जिन्होंने इस नियम को स्वीकार करके मरने से पहले ही घर के दीवारों मे दफन होने को तैयार हो गयी? क्या उन्होने अपने आने वाली पीढ़ियों के बारे में एक क्षण भी विचार नही किया? क्यों उन्होने अपने आपको घूँघट के पीछे कैद कर लिया? स्वतंत्र हँसने पर पाबंदी। पिता और पति की गुलामी। कुछ इस तरह कि कोई बकरी को पालकर इसलिए बड़ा करता है कि कसाई एक दिन उसे नोंचकर उसके गोश्त को बाजार मे बेच दे। क्या वजह थी कि उन्होने इस बंधन को स्वीकार कर लिया? इतने बड़े समयावधि में किसी ने विद्रोह क्यों नही किया? प्रश्न अनंत थे लेकिन उत्तर एक भी नहीं। और इन प्रश्नो का उत्तर उन्हे कौन देता?

पोती से चिढ़ने वाले उनके माता-पिता या विभिन्न तरह के नियम बताने वाले वरिष्ठ गाँव वाले? किसका दोष है? कौन अपराधी है? और इन नियमों को किसने पारित किया? धर्म ग्रंथ लिखने वाले कौन थे और धर्म और अधर्म के मध्य भेदभाव करने के लिए उन्होने किस पगडंडी का उपयोग किया? सीता की अग्नि परीक्षा से लेकर आज के युग तक जहाँ हर घर में एक सीता है और हर सीता से अग्नि परीक्षा लेने वाले राम भी। इनकी कहानी में रावण का होना या न होना कोई तर्क नही।

पड़ोस में रहने वाली कविता जो सुलेखा से करीब एक वर्ष ही बड़ी थी। चंचल और शांत स्वभाव का उचित मिश्रण जो अपने आपको एक आजाद पंछी की तरह खुले आसमान में उड़ते हुए देखना चाहती थी।

इतिहास के पन्नों पर अपने नाम को अंकित करने की इच्छुक उम्मीदवारों में उसका नाम भी सम्मिलित था। उसके तीन बड़े भाई थे और वह तीनों की ही लाड़ली थी। लेकिन उसके सपनों की कहानी का आरंभ तब हुआ जब उसके दो बड़े भाई दिल्ली गए थे कमाने के लिए और इस बार उन्होने एक टीवी खरीद लिया। टीवी आई तो घर में बिजली भी आई।

जिस घर में दीपक की मंद रौशनी रात्री के अंधकार से पूरी रात संघर्ष करती थी अब तेज बल्ब की रौशनी अंधेरे को रौब दिखाने लगी थी।

टीवी का शोर पूरे गली में गूँजता था और रामायण और महाभारत देखने के लिए उनके घर पर सिनेमाघरों की तरह भीड़ उमड़ी रहती थी। कोई न कोई टीवी देखने के लिए घरपर तैनात रहता था।

शुरुआत में तो अपनी इस तरक्की का प्रदर्शन उन्होने बहुत किया लेकिन जल्दी ही लोगों को टीवी देखने घरपर आना उन्हे खटकने लगा। सीधे मुँह किसी को बोल तो नही सकते थे कि भई तुम टीवी देखने हमारे घर पर मत आया करो लेकिन उनकी बातों की कड़वाहट सबकुछ कह देती थी। खुशी कब अभिमान का रूप धारण कर लेता है इसका आभास ही नहीं होता। उनकी छोटी सी कामयाबी की खुशी ने अभिमान का रूप धरण कर लिया था और वे लोगों को उनकी औकात बताने लगते। लेकिन परी और सुलेखा की बात ही अलग थी।

कविता उन्हे न सिर्फ अपना मित्र मानती थी बल्कि उनके बीच बहनों के जैसा प्रेम था। जब भी वक़्त मिलता वे साथ में बैठकर टीवी देखती। कविता के घर में बिजली होने की वजह से रात में सुलेखा और परी उसके घर में ही पढ़ाई करती और कभी-कभी तो तीनों साथ ही सो जाती।

कविता को टीवी पर आने वाले रोमाँटिक फिल्में बहुत पसंद आती और हिन्दी गानों को सुनते ही उसके पैर थिरकने लगते थे। घरवालों की नजर उसपर न पड़े इसलिए वह कमरे को भीतर से बंद कर लेती और डांस करने की इच्छा को पूरा कर लेती। परी भी फिल्म के दृश्यों को देखकर किरदारों की नकल करती। उन्हे लगता था कि टीवी पर दिखाई देने वाली दुनियाँ कितना अलग होती है, कितना खूबसूरत और रंगीन है, कितनी आजादी है और कितना प्रेम है। आरंभ और अंत के मध्य समस्याओं की बारीश होती है ये बात अलग है, लेकिन अंत तो अत्यंत सुखदाई होता है।

लेकिन उनकी ज़िंदगी किसी मशीन की तरह ही थी। आदेशों का इंतजार और उनकी पूर्ति करना उनका लक्ष्य था, आजतक उन्हे यही तो सिखाया गया था। न दिखने वाली रस्सी का फंदा उनके गले से बाँध दिया गया था और इस फंदे की परिधि जितना क्षेत्र ही उनकी दुनिया थी।

लंबी छुट्टी मनाने के बाद कविता के भाई वापस दिल्ली चले गए थे। लेकिन इस बार उनके चले जाने के बाद वह स्वयं को अकेली नही महसूस कर रही थी। मनोरंजन के लिए साधन घर में था लेकिन उसपर भी उसका नियंत्रण नही था। आरंभ में तो कोई रोकने वाला नही था, न ही कोई पाबन्दियाँ थी लेकिन वक़्त हमेशा एक सा नही रहता। टीवी का दुष्प्रभाव यह पड़ा कि इस लड़की के आँखों मे सपने के बीज उमड़ने लगें। वह भी फिल्मों में काम करने का सपना देखने लगी। बड़े-बड़े फिल्मी सितारों के साथ शूटिंग करने लगी। उस समय वह नींद में होती थी ये बात अलग है।

सपने देखने की स्वतन्त्रता कोई किसी से छिन नही सकता और वह भी स्वतंत्र थी। लेकिन ये दायरे उसकी इस आजादी को भी छिनने लगते। एक लड़की जो सपने देखना तो जानती थी लेकिन उसे पूरा करने की कल्पना भी नही कर सकती थी। एक छोटी सी इच्छा भी वह अपने पिता के सामने स्पष्ट नही कर पाती तो परिंदों की तरह आसमान मे उड़ाने की ख्वाईश कैसे कहती?

कविता और सुलेखा एक ही क्लास में थी और पढ़ने में दोनों एक समान ही थी। जिस तरह से काले अक्षरों को देखकर सुलेखा का सर घूमने लगता था, कविता का भी वही हाल था। कुछ दिन बीत गए और सबकुछ सामान्य सा था। वही दिन, वही सुबह, वही विधालाय और वही दिनचर्या, वही कैद और वही सपने।

आज शाम को जब सुलेखा मास्टर जी के पास ट्यूशन पढ़ने पहुँची तो देखी कि साथ पढ़ने वाले सभी लड़के अपने घर वापस जा रहे हैं। उसे लगा कि मास्टर जी को कोई आवश्यक काम होगा इसलिए उन्होने सबको छुट्टी दे दी है। लेकिन ऐसा बिलकुल भी नही था। मास्टर जी के डांट से बचने के लिए वह अंदर गयी। वह यह पुष्टि करना चाहती थी कि वास्तव मे उन्होने छुट्टी दे दी है या यह उन लड़को का मज़ाक है। तब मास्टर जी ने बताया कि उन्होने सभी लड़कों को सुबह के समय में बुलाया है लेकिन उसे इसी समय में आना है। क्योंकि वह पढ़ने में बहुत ज्यादा कमजोर है इसलिए वह उसे स्पेसल पढ़ाएंगे। उनके फैसले के ऊपर तर्क-वितर्क करना उसकी सीमा क्षेत्र से परे था। वह नीचे फर्श पर बैठने लगी तभी मास्टर जी ने उसे ऊपर बिस्तर पर बैठने को कहा।

वह उनके मंसूबों से अज्ञात थी लेकिन उसे घबराहट हो रही थी। अब भी वह उनसे बहुत डरती थी। हालाँकि मास्टर जी अब उससे बहुत ही नम्रता से बात करते थे, फिर भी। वह खड़ी हुई और बिस्तर पर चढ़कर बैठ गयी। किताब निकालकर पढ़ने लगी।
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Re: स्वाँग

Post by koushal »

सबसे कठिन कार्य होता है इंसान के विचार को सझना। किस समय वह क्या सोच रहा है और किसी के प्रति उसका क्या विचार है, यह जान पाना। मास्टर जी का भी हाल कुछ ऐसा ही था। सुलेखा अभी जिस उम्र से गुजर रही थी और अब वह बच्ची नही रही थी।

उसका बाल अवस्था लगभग समाप्त हो गया था और अब वह जबान हो रही थी। इसका एहसास मास्टर जी को तब हुआ था जब राघव ने उनसे सुलेखा की शादी की बात कही थी। तब से उनके आँखों पर धीरे-धीरे वासना का परत चढ़ने लगा था। सुलेखा जो बिस्तर पर बैठकर किताब के पन्नों को उलट-पलट कर देख रही थी, मास्टर जी लगातार उसे ही देखे जा रहे थे। जैसे कि आज से पहले उन्होने उसे देखा ही नही था।

उसकी मासूम चेहरे पर भय और उसके हाथ भी काँप रहे थे। मास्टर जी ने बहुत प्रयास किया था कि सुलेखा उनसे डरने के बजाय उनसे अपनी मित्र की तरह बात करे। उन्हे अपने हवस की अग्नि को ठंडा जो करना था। हर दिन उनके जहन में यही विचार चलता रहता कि अपनी इस वासना की भूख को मिटाने के लिए क्या करे। उनकी सोच दिनों-दिन गंदी होती चली जा रही थी और आज उन्होने अपने लिए एक अवसर बना ही लिया।

“क्या हुआ सुलेखा? सिर्फ पन्ने ही पलटोगी या कुछ पढ़ोगी भी?” उनके होंठों पर वासना से लथपथ मुस्कान लिपटी थी, जो सुलेखा के भय पर विजय पाने में असमर्थ साबित हो रही थी।

अगले कुछ मिनटों तक वातावरण बिलकुल शांत रहा।

सुलेखा पुस्तक में लिखे प्रश्नों को हल करने के प्रयास में थी लेकिन आज उसका हृदय कुछ ज्यादा ही विचलित हो रहा था। वह अपने भय पर नियंत्रण पाकर पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रही थी। शायद उसे मास्टर जी के हृदय में उमड़ रहे अश्लील विचारों का आभास हो गया था। मास्टर जी ने अपने कार्य को अंजाम देने की सोची।

उन्होने उसे अपने पास बुलाया और उसकी कॉपी उसके हाथ से ले ली। एक नजर उन प्रश्नों पर डाली और हँसते हुए बोले कि ये सब तो बिलकुल ही आसान है। और उसके कंधे पर हाथ रख दिया।

सुलेखा का हृदय भय के मारे अत्यंत तीव्र वेग से धड़कने लगा। उसके लगा कि अब मास्टर जी उसे पिटेंगे। इसलिए उसने आँखें बंद कर ली। लेकिन मास्टर जी पीटने के बजाय उसके कंधे को सहलाने लगे। और जैसे ही उसे इसका आभास हुआ वह दो कदम पीछे हट गयी। अब मास्टर जी का वास्तविक चेहरा उसके सामने स्पष्ट था और वो समझ गयी थी कि मास्टर जी क्या चाहते हैं। लेकिन वह अकेली थी। छोटी थी। कमजोर थी। चाहकर भी कुछ नही कर सकती थी।

“देखो, डरो मत। क्यों डर रही हो मुझसे.. हाँ? देखो न तुम कितनी बड़ी हो गायी हो। बहादुर बनो सुलेखा। बहादुर।“ बोलते हुए मास्टर जी ने एक नजर उसे सर से पाँव तक देखा।

उसकी जवानी उसके सौन्दर्य को निखार रही थी। गोरा रंग और लंबे केश। और भय के बादल के पीछे छुपा हुआ बहुत ही मासूम चेहरा।

“इतनी सी थी तुम और मैंने तुम्हें अपनी गोद में खेलाया था। और देखते-देखते तुम कब बड़ी हो गयी, पता ही नही चला। सुलेखा, सच में तुम अब बड़ी हो गयी हो।“

मास्टर जी के बातों का उसके पास कोई जबाब नही था। लेकिन उसका हृदय बगावत करने को कह रहा था। अपनी दुर्बलता का त्याग कर नायक की तरह बहदुरी से इस परिस्थिति का सामना करने को कह रहा था। फिल्मों में उसने ऐसी कई परिस्थियों का दृश्य देखा था, एक के बाद एक उसके सामने आने लगा था। एक नायक कैसे अकेले ही विजय होने तक लड़ता है। एक नायिका जो कभी हार नही मानती। वह अपनी इस कहानी की नायक और नायिका दोनों ही थी और उनके सामने खलनायक के रूप मे मास्टर जी बैठे थे।

वह उन्ही फिल्मों में दिखाई जाने वाली उन स्त्रियों की तरह इस परिस्थिति का सामना करना चाहती थी लेकिन उसका भय उसे और भी दुर्बल बनाते जा रहा था।

“खूबसूरत बहुत हो तुम सुलेखा। लेकिन तुम्हारे चेहरे पर ये डर बिलकुल भी अच्छा नही लगता। एक बात जानती हो सुलेखा? जब तुम अपने सहेलियों के साथ होती और जो खूब हँसती हो, तो तुम और भी ज्यादा खूबसूरत लगती हो। देखो सुलेखा, अब तुम मुझसे डरोगी तो कैसे काम चलेगा? मैं कोई राक्षस थोड़ी न हूँ और न ही मेरे सिर पर दो बड़े सींग है।“

अपनी ही बात पर उनकी हंसी छुट पड़ी लेकिन सुलेखा पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा।

“मैं तो तुम्हारा दोस्त बनना चाहता हूँ सुलेखा और तुम मुझसे डरती हो। ये अच्छी बात नहीं है। बताओ सुलेखा... मेरी दोस्त बनोगी?”

सुलेखा ने हाँ मे सिर हिलाया क्योंकि इसके अलावा उसके पास कोई और विकल्प भी तो नही था।

“चलो ये हुई न बात।“ जैसे की उन्हे कोई बड़ा खजाना मिल गया हो, वो इतने खुश हुए। “चलो अब इस नए दोस्ती की खुशी मे थोड़ा सा मुस्कुरा भी दो।“

सुलेखा ने मुस्कुराने का नाटक किया। कोशिश करने के बाद भी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर नही आयी।

“हाथ नही मिलाओगी मुझसे, दोस्त? मैंने सुना है कि जब नई दोस्ती होती है तो एक दूसरे के साथ मिलाया जाता है?” उन्होने सुलेखा की ओर हाथ बढ़ते हुए कहा।

सुलेखा ने डरते हुए उनसे साथ भी मिला ली। उसके पास और कोई विकल्प भी तो नही था।

“अच्छा। अब जब हम दोनों दोस्त हैं तो एक सीक्रेट बताऊँ तुम्हें? लेकिन वादा करो कि तुम मेरा ये सीक्रेट किसी को नहीं बताओगी।“

सुलेखा ने सिर्फ सिर हिलाया।

मास्टर जी को लगा कि सुलेखा उसके झांसे में आ रही है और जल्दी वो अपने मकसद में कामयाब हो जाएंगे। उनसे सुलेखा का हाथ पकड़ समीप खींच लिया और तुरंत ही उसके कमर को कसकर पकड़ लिया। वह अपने आपको उनके चंगुल से छुड़ाने का प्रयास कर रही थी लेकिन उसकी उँगलियों में उतना बल नही था।

“क्या हुआ सुलेखा? कुछ नही करूंगा मैं तुम्हें। सीक्रेट है ना? इसलिए कान में बता रहा हूँ ताकि कोई और न सुन ले।“ मास्टर जी अपने होंठ को उसके कान के समीप ले गए। उसके बालों की खुशबू को लंबी सांस लेकर सूंघा। उनका मन तो उसके कोमल गालों को चूम लेने को कर रहा था लेकिन उन्होने ऐसा नही किया।

“ये बात मैं सिर्फ तुम्हें ही बता रहा हूँ कि मुझे ना लड़कियों के स्तन बहुत पसंद है। उभरे हुए स्तन। बड़े से। और तुमहे?”

आखिर वो अश्लीलता पर उतर ही आए। इससे पहले कि वह कुछ और कहते या करते सुलेखा ने अपना पूरा ज़ोर लगाया और खुद को वासना के उस बेड़ियों की कैद से बाहर निकलने का पहला प्रयास किया जो मास्टर ने उसके जिस्म से लपेट दिया था। वह कुछ कदम पीछे आई। लेकिन भय ने इस बार फिर से उसे प्रहाश्त कर दिया। काश इस वक़्त परी उसके साथ होती तो वह जरा सा भी नही डरती। और ना हारती। ना जाने ये हवसी मास्टर उसके साथ क्या करेगा अब? परी होती तो वह उसे इस समस्या से जरूर निकाल लेती।

“शर्माओ मत सुलेखा। मैं भी किसी को कुछ नही बताऊंगा। मुझे तुमने अपना दोस्त बनाया है ना? अपने दोस्त के गले नहीं लगोगी? कविता और पुजा की तरह? अगर वो यह पुछती तो तुम उसे बताती ना?”

“वो दोनों नही पुछती ये सब।“

“तो क्या हुआ? हम तो तुम्हारे खास दोस्त हैं ना? आओ गले लगो अपने इस नए दोस्त के।“

सुलेखा पूरी तरह से काँपने लगी थी। ऐसा लग रहा था कि भय ने उसके शरीर को बिलकुलही दुर्बल कर दिया है। अब वह बस एक निष्प्राण मूर्ति की भांति थी जिसमें बस थोड़ा सा ही प्राण शेष था।


“उस दिन एक हवसी मास्टर के वासना की भूख से मेरी बहन बच गयी। शायद उसकी किस्मत अच्छी थी। मास्टर ने उसके साथ जबर्दस्ती नही किया क्योंकि उसे यकीन था कि अब वह अपने मसूबों में कामयाब हो ही जाएगा। उस रात वह बिलकुल खामोश थी और भय उसकी आँखों में मुझे बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा था। भले ही मैं उससे छोटी थी लेकिन अपने बहन के हृदय को पढ़ सकती थी। उसके जहन में मास्टर का वह दृश्य पत्थर की लकीर की तरह अंकित हो गया था, अगर इसे जल्दी नही मिटाया जाता तो वह पागल हो जाती।“ परी जज साहब की ओर देखते हुए बोली।

अचानक से आए कहानी मे ट्विस्ट ने सबको विवश कर दिया आगे की कहानी बिलकुल ध्यान से सुनने को।

“तो फिर तुमने क्या किया?” जज साहब ने उससे पूछा।

“उस रात मुझे मेरी बहन सुलेखा नही मिल रही थी। मेरी बहन जो अपना पूरा दिनचर्या मेरे साथ शेयर करती, मुझे हँसाने के लिए बनाबटी कहानियाँ सुनाती, उस दिन बिलकुल ही खामोश थी। बनाबटी किस्सों की नायिका, मेरी बहादुर बहन उस रात कमरे के एक कोने में दुबकी हुई थी। मानों काल्पनिक कहानियों वाला राक्षस वास्तविक दुनियाँ में आ गया हो और उसके पीछे पड़ा हो।“ कटघरे में खड़ी वो कुरूप लड़की अपने वस्त्रों को व्यवस्थित करते हुए बोली।

“फिर क्या हुआ?”

“कुछ खास नहीं।“ उस कहानी के अंजाम को स्मरण करते हुए वह मुस्कुरायी और फिर बोली।“मास्टर की कहानी का अंत”


“मुझे बिलकुल ठीक नही लग रहा था क्योंकि मेरी बड़ी बहन न जाने क्यों ऐसी खामोश और डरी हुई थी। किसी ने तंग तो नहीं किया तुम्हें? – मैं उससे पुछना चाहती थी और उसका नाम भी। क्योंकि मैंने उसे सजा देने की ठान ली थी। दीदी ने डरते हुए बताया उस हवसी मास्टर की सारी हरकतें जो उसने उसके साथ किया था। बोली उस समय उसे गुस्सा आ रहा था और अपनी कहानी की नायक बनकर उसे सजा भी देना चाहती थी। उसका मन कर रहा था कि ईंट मारकर उसका सर फोड़ दे जो उससे ऐसी अश्लील बाते और हरकतें कर रहा है। वो अब वहाँ पर पढ़ने कभी नही जाएगी लेकिन फिर बाबा को ये बात कैसे बताएगी? मास्टर उसे स्कूल में भी तंग करेगा इसलिए वह स्कूल नही जाना चाहती।“

“तो क्या हुआ दीदी? उसका सिर ही फोड़ना है न? चलो अब फोड़ देते हैं।“ मैं बोली। मैं अपनी बहन को उसकी कहानी की नायिका के रूप में देखना चाहती थी जो अपने लिए खुद संघर्ष करे, गुनहगारों को सजा दे। लेकिन इसके लिए मुझे उसका ताकत बनना था।

“लेकिन कैसे?” दीदी पुछी।

“चलो।“ मैं मुस्कुरायी।

करीब रात के एक बजे होंगे। पूरा गाँव गहरी नींद में सो गया था तब हम दोनों बहने उस मास्टर को सजा देने निकले। गर्मी के मौसम होने की वजह से लोग ज़्यादातर या तो घर के छत पर सोये हुए थे या तो बाहर गलियारों में। अगर किसी की भी नजर हम पर पड़ जाती तो सारा प्लान चौपट हो जाता। इसलिए हम दोनों बिलकुल ही चौकन्ने थे। इतनी गर्मी में चादर ओढ़ कर निकलना थोड़ा अजीब था लेकिन उस समय मुझे वही सही लगा। हम दोनों मास्टर के घर के बाहर पहुँचे। बिजली चली गई थी और मास्टर अपने कमरे मे गर्मी से बेहाल होकर सो रहा था। हमने ज़ोर से दरवाजा खटखटाया और छिप गए। मैंने एक मोटा डांडा ले लिया था जिसके एक ही प्रहार से मास्टर की हड्डियाँ टूटने वाली थी।

“आधी रात को कौन हो सकता है? कौन है?” आधी नींद में मास्टर चिल्लाया। बिस्तर पर से उठा और बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोला। लेकिन दरवाजे पर उसे कोई नही दिखा।

जैसे ही मास्टर दुबारा बिस्तर पर सोने के लिए लेटा मैंने फिर से दरवाजा खटखटाया। मास्टर फिर से चिल्लाते हुए आया और दरवाजा खोला। जब उसे फिर से दरवाजे पर कोई नही दिखा तब वह फिर से बड़बड़ाते हुए अंदर गया। अंदर जाकर वह लेटने ही वाला था कि फिर से मैंने दरवाजा खटखटाया । बार-बार उसे इसी तरह से हमने उसकी नींद खराब कर दी। तंग आकार वह दरवाजे के बीच में बैठ गया और वैसे ही सो गया। मैंने दीदी को कहा कि ईंट उठा ले और मौका अच्छा है मास्टर को मजा चखा दे।

दीदी ने ईंट उठाया और उसके ऊपर फेंक दिया। ईंट मास्टर के सर से लगा और वह ज़ोर से चिल्लाया। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता मैंने चादर से उसे ढक दिया और डंडे बरसने शुरू कर दिया। अफसोस अभी तक उसका सर नही फूटा था। उसकी पीठ और बाजुओं की हड्डियाँ तो टूट गयी थी ये बात अलग है, लेकिन अश्लील विचार को जन्म देने वाले उसके सिर को मुझे फूटते हुए देखना था, वो भी दीदी के हाथों।

“क्या दीदी कैसे मारती हो? इसका सर तो फूटा ही नही। एक और बार कोशिश करो। और डरो मत कुछ नही होगा। ये हमारा और मास्टर जी का सीक्रेट है। मास्टर जी भी इसे सीक्रेट ही रखेगे।“ बोलते हुए मैंने उसके ऊपर से चादर हटा दिया और उसके सामने आकार खड़ी हो गयी। इतनी पिटाई के बाद वह सिर्फ दर्द से चीख सकता था, उठकर हमें पीटने या हमारे पीछे भागने की हिम्मत नही बची थी उसमें।

“क्यो चीख रहे हो मास्टर जी? आधी रात है। लोग जग जाएंगे। फिर उन्हे आपका सीक्रेट पाता चल जाएगा। हमें तो बस आपका सर फोड़ना है। प्यार से आपका सिर फोड़ेंगे फिर चले जाएंगे। गाँव वाले पता नही आपके साथ क्या-क्या करेंगे। बुलाऊँ उन्हे?” मैं मास्टर को आँखे दिखाते हुए बोली।

“यह तुमने ठीक नही किया।“ वह अपनी आबाज धीमी करते हुए चिल्लाया।

“दीदी, जल्दी करो ना... मुझे नींद आ रही है। सुबह जल्दी जागना है। स्कूल भागना है। देर होगी तो मास्टर जी पिटेंगे। तुम्हें भी पिटेंगे। जल्दी से फोड़ो सर का सिर और चलो।“ मास्टर की बातों को इगनोर करते हुए, अपनी बहन की हिम्मत बढाते हुए मैंने कहा। मैं देख सकती थी कि अब उसके हृदय मे भय बिलकुल भी नही था। और आज वह अपने अपराधी को दंडित करने के लिए निर्भय होकर खड़ी थी। बिलकुल नायिका की तरह।

मेरी आँखों मे जीत और होंठों पर विजय भरी हंसी देखकर दीदी का भय बिलकुलही खत्म हो गया। जिस मास्टर के सामने जाने की सोच से ही वह थर-थर काँपने लगती थी, जिसने उसके साथ अश्लीलता का व्यवहार किया था, आज उसके सामने अपराधी बनकर खड़ा था। दीदी ने फिर से ईंट उठायी और मास्टर की ओर बढ़ी।

“इस बार इनका सिर फूटना चाहिए। नही तो मैं तुमसे बात नही करूंगी।“

दीदी मास्टर की ओर उसका सर फोड़ने बढ़ी। मास्टर को सामने से यमराज का आगमन दिखाई पड रहा था। वह सुलेखा को समझाने का प्रयास कर रहा था। वह मुझे भी बहलाने का प्रयास कर रहा था। कह रहा था कि हम ऐसा नही करे। उसका सिर नही फोड़ें। वो हमें मिठाइयाँ देगा। चॉकलेट देगा। और भी बहुत कुछ। लेकिन दीदी को तो बस उसका सिर ही फोड़ना था। मास्टर का सारा प्रयास व्यर्थ गया। न हम बदलें न वह अपने सिर को फूटने से बचा पाया। दीदी उसके नजदीक गयी और पूरी ताकत लगाकर दे मारी उसके सर पर। वह दर्द सह नही सका और ज़ोर से चिल्लाया। उसके चिल्लाने की आवाज सुनकर दीदी मुस्कुरायी और उसे मुसकुराता देखकर मै भी।

गाँववाले चीखने की आबाज सुनकर जाग गए थे और इधर ही आ रहे थे।

“चलो दीदी।“ दीदी ने ईंट वहीं फेंका। मैंने चादर लिया और हम दोनों वहाँ से भागे। अपने कमरे में जाकर सो गए।


“क्या मैंने गलत किया था? क्या उस मास्टर का सिर फोड़ना गलत था या उस मास्टर का वो अश्लील हरकत सही था?” परी ने जज साहब को प्रश्न भरी निगाहों से देखा।

वह निशब्द थे। क्योंकि अभी इतनी जल्दी वह इसका फैसला नही करना चाहते थे। परी की कहानी अजीब थी क्योंकि जज साहब ने उससे उसकी कहानी कहने को कहा था लेकिन उसकी इस कहानी का संबंध तो इस मामले से बिल्कुल ही नही था।
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Re: स्वाँग

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अध्याय पाँच

एक लंबी खामोशी के बाद जब जज साहब ने कुछ नही कहा परी आगे की कहानी सुनाने लगी।

उस घटना के बाद मेरी बहन सुलेखा को स्कूल से आजादी मिल गई। पिताजी ने उसके लिए लड़का ढूंढना आरंभ कर दिया और कुछ ही महीनों के बाद उसकी शादी तय कर दी गई। वह बहुत खुश थी। क्योंकि कुछ ही महीनों के बाद उसे उसका जीवनसाथी जो मिलने वाला था। हालाँकि शादी में अभी समय था लेकिन इसकी तैयारी कई महीने पहले से ही शुरू कर दिया गया था।

सुलेखा की शादी तय हो जाने के बाद राघव पहले से ज्यादा ही व्यस्त हो गया था। पहले से ज्यादा समय तक मजदूरी करता ताकि कुछ रुपया ज्यादा कमाए। न ठीक से सो पाता न ही उसे चैन ही मिलती। हर घड़ी बस एक ही बात की फिक्र उसे सताते रहती कि सुलेखा के विवाह में कोई कमी न रह जाए।

क्योंकि सुलेखा को पता था कि शादी के बाद उसे माँ बाप से दूर जाना होगा। सबसे बड़ी बात अपनी प्यारी बहन परी से दूर जाना होगा इसलिए इन बचे समय में वह जितना ज्यादा हो सके सभी के साथ गुजारना चाहती थी। दादी की कड़वी बोली में भी स्नेह ढूंढ लेती और उनके गुस्से में प्यार।

वक्त रेत की तरह जैसे किसी पात्र से देखते ही देखते फिसल गया। समय आ गया जब शादी से पहले की विधियों का आरम्भ हुआ। उधर उसकी सहेली कविता को भी एक लड़के से प्यार हो गया था। पास ही के गाँव का एक लड़का जो उसके साथ ही में स्कूल में पढ़ता था। प्यारी बातें करके उसे हंसाता, अमिताभ बच्चन की नकल करता और उनके फिल्मों के गानों को बेसुरे अंदाज में गाता। सुलेखा तो स्कूल नहीं जाती थी लेकिन कविता जब उस लड़के से मिलने जाया करती तो वह उसके साथ जाती।

शादी का दिन आ गया था। राघव की बेचैनी असमान पर थी। अपनी ओर से वह कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहता था। कोई ऐसी बात जो बारातियों को अच्छी न लगे या किसी को किसी तरह की असुविधा न हो।

आज सुबह भागते हुए कविता सुलेखा के पास आई थी। क्योंकि आज वह फिर से उस लड़के से मिलने जा रही थी और उसके पास कोई खास कपड़े भी नहीं थे। सुलेखा को बहुत सारे नए कपड़े मिले थे इसलिए कविता ने उसका एक ड्रेस बस दो घंटों के लिए उधार माँगी।

सुलेखा उसे रोक लेना चाहती तो थी लेकिन उसकी बेचैनी बहुत अच्छे से समझती थी। और बस दो ही घंटों की ही तो बात थी, फिर उसकी सहेली विदाई तक उसके साथ ही में रहने वाली थी। लेकिन शादी के इस दिन को, जब कुछ घंटों के बाद जीवन का एक नया अध्याय शुरू होने को था, वह अपनी सहेली के साथ बातें करना चाहती थी। लेकिन उसपर तो इश्क का बुखार जो चढ़ा था। समझाने से थोड़ी समझती और न रोकने से रुकती। उसे मिले रंग बिरंगे कपड़ों में से एक खूबसूरत ड्रेस का चयन सुलेखा ने कविता के लिए किया। हालाँकि दुल्हन सुलेखा बनने वाली थी लेकिन सजाई कविता जा रही थी।

कविता खूब सजी और सुलेखा को यह बोलकर चली गया कि बस एक घंटे में चली आएगी। घर में व्यस्तता बढ़ने लगी। गाँव की औरतें आंगन में बैठ गीत गा रही थी। सुलेखा को सजाया जा रहा था। परी तो साथ ही में थी लेकिन कुछ मिनट के अंतराल में किसी न किसी वजह से उसे कोई न कोई बुला लेता।

एक घंटा तो कब का समाप्त हो गया था लेकिन कविता लौट कर नहीं आई थी अब तक। कोई हंस रहा था, कोई हँसा रहा था। घर में शादी का माहौल जो था। गीत और संगीत न सिर्फ घर में गूंज रही थी बल्कि सुलेखा की शादी की रौनक पूरे गाँव में थी। ऐसे में बेचैन सुलेखा की नजरें उस कमरे के दरवाजे पर ही टिकी थी जिससे कविता आने वाली थी। यह दुल्हन का जोड़ा और ये गहनें जिसे वह हमेशा से पहनना चाहती थी, आज उसकी इस बेचैनी को दूर करने में नाकाम साबित हो रही थी।

"कब आएगी ये लड़की? एक घंटा बोल कर गई थी, दोपहर समाप्त होने को है अभी तक नहीं आई। पहले तो खूब कहा करती थी कि शादी का दिन आने दो। मैं ये करूंगी। मैं वो करूंगी। लेकिन आज? आने दो उसे।" सुलेखा मन ही मन कविता को डांट रही थी। तभी किसी के आगमन का आभास हुआ उसे। झट से वह दरवाजे की ओर मुड़ी तो देखी कि नीलिमा खड़ी है। आँखों में आंसुओं की गंगा है, वह रो भी रही है और मुस्कुरा भी रही है।

अपने माँ को ऐसे देख कर उसका दिल भारी हो गया। उसे लगा की रो पड़ूं लेकिन अगर ऐसा वो करती तो उसकी माँ का क्या हाल होता जिसके आँखों में पहले से ही आंसू थे! लेकिन वो पत्थर तो नहीं थी जिसमे भावनाएं नहीं होती। तो वह कैसे न रोती?

नीलिमा जब अंदर आई तब वह उठ कर उसके सीने से लिपट गई थी।

इतने में परी भी आ गई थी। भावुक होकर वह भी दोनो से लिपट गई।

बच्चे गली में शोर मचा रहे थे। ठोल के धुन के साथ कोई कमर हिला रहे थे तो कोई फिल्मी अदाकारों की तरह अभिनय करने के प्रयास में उछल कूद रहा था। पकवान की खुशबू हवाओं में घुल रही थी और साथ में शाम भी ढल रही थी। लेकिन कविता का अभी तक कोई पता नहीं था। न वो लौट कर घर आई थी। सुलेखा तब से तीन बार कविता को ढूंढने उसके घर गई थी लेकिन वो कहाँ गई किसी को नहीं मालूम था। उसकी माँ आंगन में उन औरतों के साथ बैठ गीत गाए जा रही थी। भाई और पिता राघव के साथ अन्य कामों में व्यस्त थे।

सुलेखा का दिल घबरा रहा था। लगभग आठ घंटों से कविता गायब थी। उसे जब लगा कि इस बारे में परी से बात करना चाहिए तब तक बारात आ गई थी।

ठोल और झाल के धुन में भी बाराती झूम कर नाचे जा रहे थे। पठाकों की शोर ने उनके आगमन का संदेशा दिया था। फिर राघव ने उनका स्वागत किया। शादी की सारी विधियां अच्छे से हो गई। मंडप पर बैठी सुलेखा अवसर पाकर चारों ओर नजरें दौड़ाती लेकिन जब कविता को नहीं देखती तो निराश हो जाती।

शादी की सारी विधियां समाप्त हो गया। अब सुलेखा पराई हो गई थी। विदाई के समय रोना तो अनिवार्य था। विदाई के बाद जब वह चली गई घर सन्नाटे से भर गया।

सबकुछ अच्छे से हो जाने की संतुष्टि थी। राघव को खुशी थी कि सुलेखा ससुराल चली गई लेकिन दिल खाली भी हो गया था क्योंकि इसमें रहने वाली उसकी प्यारी सी गुड़िया को कोई अपने देश ले गया था।

परी एक कोने में खामोश बैठी थी। उसे ये सन्नाटा बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहा था। सुलेखा के साथ बिताए हुए वो पल कानों में गूंज रहा था। लेकिन वह विवश थी। यही नियम, धर्म और प्रथा था। जिस तरह से आज सुलेखा पराई हुई एक दिन उसे भी इस आंगन से दूर जाना था। फिर ये मोह के मजबूत धागे टूट जाना था। नए लोगो के साथ नए रिश्ते बनेंगे। हालाँकि वह उनके लिए भी पराई ही रहेगी लेकिन उसके आगे की पूरी बची जिंदगी उन्ही अजनबियों के साथ ही तो बिताना होगा।

कैसी बंदिश है ये और इस बंदिश में सुलेखा कैसी महसूस कर रही होगी? आज वह एक अनजान जगह गई है। जहाँ न उसे कोई जानता है और न ये किसी को। लोगों के होंठों पर मुस्कान तो होगी लेकिन खुशी झूठी होगी या सच्ची ये कौन जानता होगा। हां, उस घर का माहौल इस घर से बिल्कुल ही अलग होगा। लेकिन कल्पनाओं में उस वास्तविक को वह किस हद तक चित्रित कर सकती थी।

ऐसा लगता कि अगले सेकेंड सुलेखा भागते हुए आएगी और अपने सबसे प्यारी सहेली और बहन परी से लिपट जायेगी।

शाम होते होते बेचैनी की सीमा चरम पर थी। परी बेचैन मन को शांत करने के लिए खेतों की ओर निकल पड़ी। मन विचलित हुआ जा रहा था। सुलेखा और कविता एक के बाद एक नजरों के सामने प्रकट होती फिर गायब होती। मृगतृष्णा सा, दोनों का आभासी तस्वीर अचानक से सामने आ जाती। और जब वह भावुक होकर सुलेखा को गले लगाने भागती तो वह सजीव चित्र रेत बनकर हवाओं में घुल जाती। आज उसे आभास हो रहा था कि वह सुलेखा से कितना प्रेम करती थी। सैकड़ों लोगों की भीड़ लेकर आया वो नौजवान न सिर्फ सुलेखा को ले गया था बल्कि उसके साथ परी का हृदय भी था।

अजीब तरह के धुन बादलों से बह रही थी। उदासी मानों आज हवा बन गई हो। जो सभी सजीव और निर्जीव के हृदय में प्राण की तरह बस गया हो। फिर अचानक से कविता उसे दिखाई पड़ी। खेत के किनारे वाले पेड़ के नीचे बैठ बस रोए जा रही थी। उसे देखकर परी का मन कुछ शांत हुआ लेकिन उसके इस व्यवहार के लिए उसपर गुस्सा भी बहुत आया उसे। उसकी खबर लेने के लिए उसके पास भागी। इससे पहले की कविता से कुछ पूछती कविता भी गायब हो गई। यह भी बस उसके मस्तिष्क का छलावा था, वास्तविकता नहीं। उसका मस्तिष्क उसके साथ खेल रहा था।

परी रो पड़ी। जिस बेचैनी को शांत करने वह अकेली इधर आई थी, इन आभासी तस्वीरों ने इसे कई गुना बढ़ा दिया था। नजर घुमाकर जब चारो ओर देखी तो अंधेरे के दलदल में डूबते बादलों के अलावा बस बहुत सारे पंक्षियों का ही शोर था।

इसके आगे जाने की अब इच्छा न थी। वह मुड़ी और वापस लौटने लगी लेकिन ऐसा लगा जैसे कि किसीने ने उसके कंधे पर हाथ रखा हो। अपने मस्तिष्क के छलावे को वह अच्छी तरह से जान गई थी। और यह भी बस एक छलावा है, वह जानती थी। बिना पीछे देखे वह दो कदम आगे बढ़ी। लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे कि पैर से भारी पत्थर बाँध दिया गया है। कोई विवश कर रहा हो वापस न लौटने को। एक अजीब सी अनुभूति जैसे कोई साथ में खड़ा किसी विशेष स्थान पर अपने साथ ले जाने की जिद्द कर रहा हो। कुछ क्षणों तक पत्थर की मूर्ति की तरह वैसे ही खड़ी रही। इन मानसिक यातनाओं को चक्रव्यूह की तरह भेदना असंभव सा था। मन से हार गई और पीछे मुड़ी। इसके आगे अक्सर वह कभी नहीं जाती थी। लेकिन आज कोई विवश कर रहा था इस सीमा को पार करने को। वह आगे बढ़ी। तेज हवाएं उस दिशा में उसके साथ चलने लगी।

आगे कुछ दूर पर कविता का एक खेत था। जब वह इस खेत के पास पहुँची तो उसके कदम से कदम मिलाकर चलती हवाएं शांत हो गई। वह इस पहेली को समझ नहीं पा रही थी कि उसकी नजर कुत्तों के एक झुंड पर पड़ी जो उसे देखकर भौंकने लगे थे।

दस से ज्यादा कुत्ते खेत के एक विशेष हिस्से को घेरे ऐसे बैठे थे जैसे वह उस स्थान की रखवाली कर रहे हों। यह आश्चर्यजनक था। सभी कुत्ते वृताकार घेरा बनाए उस विशेष स्थान को घेरे थे और दो कुत्ते लगातार जमीन को खोदे जा रहे थे।

परी कुत्तों के इस हरकत को अनदेखा कर मुड़ने ही वाली थी कि उसकी नजर मिट्टी से दबे कपड़े पर पड़ा। यह उसी कपड़े का अंश था जिसे सुलेखा ने कविता को शादी के दिन दिया था। यह पहेली जैसी थी। पहेली सुलझ भी गई थी लेकिन परी उलझने लगी। उसकी व्याकुलता शांत कैसे रहती? यह कविता तो नहीं? ये कुत्ते यहाँ क्यों घात लगाए बैठे हैं? यह तो बिलकुल उसी ड्रेस की तरह दिख रहा है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं। मैं.. मेरा दिमाग खराब हो गया है..! ये फिजूल के ख्याल.. हृदय में उमड़ा भय काल्पनिक दृश्यों का रूप ले मुझे सताने नजरों के सामने आ रहा है। ऐसे सैकड़ों विचार उसके जहन में दौड़ने लगें।

परी मूर्ति की भांति खड़ी वास्तविकता नकारती रही। कुत्तों ने शायद उसके चेहरे का भाव पढ़ लिया था। उन्हें लगा होगा कि जमीन के नीचे दफन उस वस्तु को परी से कोई नुकसान नहीं है। कुत्तों ने जमीन खोदना बंद कर दिया।

माहौल कुछ क्षण के लिए थम गया। सिर्फ तेज़ चलती हवाओं के शोर के अलावा कुछ और नहीं था। परी के पैर पर्वत हो गए थे। लेकिन आगे जाना ही था।

मिट्टी में दफन वह अज्ञात शक्ति उसे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। सभी कुत्ते परी को टकटकी लगाए देखे ही जा रहे थे। हवाओं का वेग बढ़ता ही जा रहा था। आसमान पर काले बादल कब्जा करने लगे थे। अभी दिन ढलने में वक्त था लेकिन अंधेरा दामन फ़ैलाने लगा था।

परी उस कपड़े के पास पहुँची। उसके ऊपर पड़ा बड़ा सा मिट्टी का चट्टान हटाई। चट्टान हटाते ही जो दृश्य नजरों के सामने था उसे देखने की हिम्मत न थी उसके पास। वह निर्बल हो पीछे की ओर गिर पड़ी। मिट्टी के नीचे सिर्फ कपड़ा नहीं बल्कि एक इंसान का मृत शव दफ़न था। इन कुत्तों को इसका आभास था।

अगले कुछ मिनटों तक परी अचेत पड़ी रही। उसने जो देखा अकल्पनीय था। काले बादलों ने बारिश का रूप लेना शुरू किया और तेज हवाओं ने आंधी की। जल की दो चार बूंदों ने परी को जगाया।

जब वो जागी तब बारिश तेज हो गई थी। स्वयं को हिम्मत दिला मिट्टी खोदने लगी। उसे पता था कि कब्र के नीचे कौन दफन है लेकिन नजरों के सामने पड़ी इस वास्तविकता को वह मिथ्या साबित करना चाहती थी। यह कविता नहीं हो सकती, स्वयं को समझा दोनो हाथों से मिट्टी खोदते जा रही थी। बारिश मिट्टी की जटिलता को तोड़ सरल बना रहा था क्योंकि कब्र खोदने के लिए परी के पास अभी कोई औजार नहीं था। परी को मिट्टी खोदता देख कुत्तों ने भी मिट्टी खोदना आरंभ कर दिया।

परी पूरी क्षमता से मिट्टी हटाए जा रही थी। उसकी आँखे बंद थी फिर भी कब्र का चित्र स्पष्ट था। चाहते हुए भी वह इससे नजरें फेर नहीं सकती थी। आँखे इसलिए बंद थी कि अगले कुछ मिनटों के दौरान घटित होने वाली घटनाओं को देखने की हिम्मत उसमें नहीं थी। अचानक से उसका हाथ रुक गया। यह कब्र में सोए इंसान का चेहरा था जो परी के हाथ को स्पर्श किए था। इस चेहरे से वह भलीभांति परिचित थी। परी टटोलती रही। आँखें खोल सत्य को मिथ्या साबित करने का प्रयास करती रही। यह वही चेहरा था।

अचानक से बिजली कड़की। आवाज गूंज उठा। परी ने खुद को हौसला बंधाया और आँखें खोली। बारिश तेज हो गई थी। परी कविता के शव के ऊपर बैठी उसके गालों को टटोल रही थी। कड़कती बिजली की रौशनी कविता की धुंधली छवि को स्पष्ट चित्रित किया।

परी तो जैसे निष्प्राण हो गई थी। ऐसी परिस्थिति में उसे कैसे रिएक्ट करना चाहिए था, नहीं जानती थी। वह उठी। घर की दिशा में मुड़ी और अपनी पूरी रफ्तार से भागी। भागती रही। बारिश के साथ साथ उसके आँखों से आंसू भी बरसता रहा। घर पहुँचने तक उसके पैर कहीं नहीं रुके।

घर पर नीलिमा सुलेखा की यादों में खोई थी। दादा और दादी दालान में थे। राघव किसी काम से बाजार गया था। अभी तक नहीं लौटा था। परी नीलिमा के सामने जा खड़ी हो गई। हांफती रही। नीलिमा उससे वजह पूछती रही। ऐसा लग रहा था कि अब एक शब्द बोल पाना भी कठिन है। कविता का मृत चेहरा अभी सामने है। माँ अचानक से इतने प्रश्न पूछ रही है तो उसे कैसे बताए कि कविता कब्र में गहरी नींद सोई है। बताना तो था ही।

नीलिमा भी कविता की मृत्यु की खबर सुन खुद को संभाल नहीं पाई। कुछ देर बाद उसने फैसला किया कविता की मृत्यु की खबर बताने उसके घर जाने को। कविता की माँ न जाने किस हाल में होगी? पिता और भाई हर ओर उसे ढूंढ निराश लौटे होंगे। जब अपनी लाडली बेटी की मृत्यु की खबर सुनेंगे तो क्या होगा? कैसे झेल सकेंगे इस बात को कि किसी ने उनकी लड़की की हत्या कर उनके ही खेत में दफन कर दिया है।

"फिर मैं और माँ कविता के घर गए। उसकी हत्या के बारे में उसके पिता और भाई को बताने।" परी जज साहब की ओर देखते हुए बोली।

"तो फिर क्या हुआ? अचानक से कविता की हत्या? उसे उसके ही खेत में दफ़न होने की खबर सुन तो उसके घरवाले टूट गए होंगे?" जज साहब ने पूछा।

"कुछ नहीं। उस दिन इंसान की शक्ल में दानवों को मैंने देखा। कविता का हत्यारा कोई और नहीं बल्कि उसके अपने दोनों भाई और पिता ही थे।"

जब परी और नीलिमा कविता के घर गई। उसके पिता के सामने कविता का नाम ली तब वे बोल पड़े।

"वह तो मौत की नींद सो रही है। हमने ही तो उसे सुलाया है।" और हंसने लगें।

"भाई अपने ही बहन का हत्यारा बना और पिता पुत्री का कातिल। वजह था कमबख्त इश्क। इश्क। बस इश्क।" परी के झुलसे चेहरे पर उभरा मुस्कान महसूस किया जा सकता था।
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Re: स्वाँग

Post by koushal »

अध्याय छह

इतना निर्दय तो दानव भी नहीं होते। इनकी तुलना न इंसानों से करना ठीक होता और न दानवों से। क्योंकि इन्होंने अपनी बहन और पुत्री की हत्या की और घर पर शांत ऐसे बैठे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। कविता जब उस लड़के से मिलने गई थी। यह उसका दुर्भाग्य था कि उसके पिता ने उसे देख लिया था।

प्रेम की क्या परिभाषा हो सकती है? उन्होंने कविता और उस लड़के के प्रेम का परिणाम का आंकलन करने के लिए जिन तर्कों का सहारा लिया क्या वह प्रेम की परिभाषा हो सकती थी।

किसी अन्य जाति के लड़के के साथ प्रेम करना, इस तरह से मिलना जुलना, अगर इनके संबंधों के बारे में किसी एक को भी खबर लगा तो आग की तरह यह पूरे क्षेत्र में फैल जायेगा।

बदनामी इतनी होगी कि किसी से नजरें मिलाने के काबिल न होंगे। समाज उनका उपहास करेगा। बिना अपराध किए ही लोग हीन भावना से देखेंगे। अभी जो लोग आदर और सम्मान देते है, मुंह पर थूकने को तैयार रहेंगे। भविष्य की हल्की झांकी ने कविता के पिता के हृदय में खौफ के वृक्ष बो दिए। ऐसी परिस्थिति में क्या करना उचित होगा? उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया।

ज्यादा विचार किए बिना ही उन्होंने निर्णय कर लिया था। कविता के ऊपर प्यार का भूत सवार है। समझाने का प्रयास व्यर्थ होगा। इसका परिमाण यह भी हो सकता है कि वह उस लड़के के साथ भाग जाय। इस परिस्थिति में भी बदनामी निश्चित था।

"और वहाँ तुम्हे सिर्फ एक शव ही मिला..?" कविता के पिता ने हंसते हुए परी से पूछा।

उस कब्र में अकेली कविता नहीं थी बल्कि वो लड़का भी था। उन्होंने उन दोनों को मारकर दफना दिया था।

"यह दुनियां प्रेम को समझने के काबिल नहीं है। उन्हें प्रेम के सफर पर चलता देख उनके हर कदम पर काटें बिछाते मिलते ये लोग। इसलिए मैंने उन दोनों को हमेशा के लिए एक कर दिया। अब उनकी प्रेम कहानी अमर है।" उनके स्वर में पश्चाताप के बजाय अभिमान और गर्व था।

कविता की माँ एक कोने में मौन बैठी थी। चाह कर भी वह कुछ नहीं कर सकी थी।

नीलिमा और परी खेत की ओर भागे। गाँव के बाहर दो लाशें दफ़न थी। मूसलाधार बारिश हो रही थी और उनके हत्यारे सुकून की सांस ले रहे थे। नीलिमा और परी खेत पहुँचे। कुत्ते अब भी इस क्षेत्र की रखवाली कर रहे थे। कविता का मृत शव तो सामने था लेकिन वो लड़का? उन्होंने फिर से कब्र खोदना आरंभ कर दिया। हालाकि इन दृश्यों को देखने की हिम्मत उनमें नहीं थी लेकिन सत्य उनके सहारे ही सामने आना चाहता था।

नीलिमा के जाते ही कविता के पिता को गलती का बोध हुआ। नीलिमा ने तो सिर्फ कविता का नाम लिया था और उन्होंने अपने जुर्म के सारे पन्ने खोल दिए। इतनी बड़ी गलती। वह कितने मूर्ख है। अब नीलिमा खेत जाकर उन दोनों के शव को ढूंढ लेगी। लोगों को सब कुछ पता चल जायेगा। जिस बदनामी के भय से उन्होंने अपने हाथ गंदे किए वह तो होगा ही, कत्ल के अपराध में उन्हें कड़ी सजा भी भुगतना पड़ेगा। इतनी बड़ी मूर्खता..! उन्हें इस गलती को भी सुधारना था।

तेज बारिश थमने का नाम नहीं ले रहा था। कविता के घर से सीधे दोनों खेत की ओर आई है, वे जानते थे।

थोड़ा और कब्र खोदने के पश्चात उन्हे उस लड़के का भी शव मिला। दोनों एक दूसरे के हाथ थामें मौत की गहरी नींद सो रहे थे। अभी नीलिमा खड़ी ही हुई थी कि एक गोली उसके सीने को पार कर गई। वह मुंह के बल गिर पड़ी।

दनादन गोलियां बरसाते कविता के पिता और भाई इसी ओर आ रहे थे। उनके द्वारा बरसाए एक गोली ने अपना कार्य कर दिया था। अपनी माँ को मृत गिरता देख परी सदमें में चली गई। उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थी। भावनाएं चेहरे पर उमड़ नहीं पा रहे थे। अचानक से उसकी माँ मौत को गले लगा बैठी थी। वह खड़ी थी। लेकिन निष्प्राण।

बंदूकों की आवाज सुन सभी कुत्ते भाग गए थे। भागते हुए आए और कविता के भाइयों ने परी को दोनो तरफ से घेर लिया। दोनों बंदूक ताने बेरहम हो खड़े थे। इतनी लाशें बिछाने के बाबजूद भी उनमें अपराधी होने का भाव दिखाई नहीं पड़ रहा था। तेज हवाएं, कड़कती बिजली, सब बस तमाशा देखने आए दर्शक की तरह थे।

"अरे..! अरे..! हैवानों.. रुको..! देखो इसे। इतनी प्यारी शक्ल देख तुम्हें इसपर दया नहीं आता? कैसे चला पाओगे बंदूक इसपर? हाथ नहीं कांपगें तुम्हारे?" कविता के पिता परी के नजदीक आए।

वो दोनो अब भी बंदूक ताने वैसे ही खड़े थे।

"बंदूक नीचे करो। सुना नहीं। इस पर गोलियां चलते तो मुझसे देखा न जायेगा।" अपनी ही पुत्री के खून से हाथ रंगने के बाद वो अभिनय अच्छा कर रहे थे दयावान होने का।

दोनों ने बंदूक की पकड़ ढीली कर दी। लेकिन निशाना अब भी परी का सीना और सर था।

कविता के पिता ने इधर उधर देखा। उन्हें वो लकड़ी का मोटा टुकड़ा दिखा जिससे उन्होंने कविता का सर फोड़ा था। उसे जब दफनाया जा रहा था, वो जीवित थी। परी का भी ये वही हाल करना चाहते थे।

उन्होंने लकड़ी उठाया और अगले ही क्षण दे मारा परी के सिर पर। माँ को मरता देख पहले से ही निष्प्राण हो चुकी परी धम्म से गिर पड़ी। खेत बारिश की पानी से भर चुका था। इसमें तीन लाशें तैर रही थी। कविता की, उसके प्रेमी की और नीलिमा की। तीनों बेकसूर थे। तीनों का कातिल एक ही थे। चौथा कत्ल होने को था।

वे आगे बढ़े। परी मुंह के बल गिरी थी। पानी ज्यादा होने की वजह से उसका सिर पूरी तरह से डूब गया था। कविता के पिता ने उसके सिर पर लात रख मिट्टी की ओर दबाया। परी सांस नहीं ले पा रही थी। दर्द मौत की राह पर ले जा रहा था। बस कुछ ही क्षण और। मौत उसे गले लगाने ही वाला था।

अचानक से मौसम बिगड़ जाने की वजह से राघव बाजार में फंस गया था। बारिश थम जाने का इंतजार करता रहा लेकिन यह रुकने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर उसे घर तो वापस आना ही था। भले ही क्यों अब भींगना पड़े। जब वह घर आया तो पूरी तरह से भींग चुका था। परी को पुकारते घर के भीतर गया। लेकिन दोनों में कोई वहाँ पर थी ही नहीं।

अंधेरे हो गया था। इस वक्त दोनों ही घर से बाहर है। वह बेचैन होने लगा। जब अपने पिता से दोनो के बारे में पूछा तो उत्तर मिला कि मर जाएं दोनो तो दिल को सुकून मिले।

राघव ने उनके बातों को अनदेखा कर दिया। लेकिन वो यह नहीं जानता था कि आज नीलिमा की सास और ससुर दोनों की ख्वाइश पूरी कर दी गई है। राघव ने दोनो को पड़ोस के घरों में ढूंढा। स्कूल की ओर भी देखा। जब दोनों में से कोई कहीं नहीं मिले तब वह खेतों की ओर भागा।

खेतों में काफी पानी जम गया था। झींगुर बस सोर मचाए जा रहे थे। मेढकों की आवाजें बेचैनी बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। राघव इधर उधर भागता ही जा रहा था। परी को पुकारते कभी मुंह के बल भी गिर पड़ता। गुजरते समय के साथ राघव का भय आकार लेता जाता। ईश्वर से हर सेकेंड प्रार्थना करता उनकी सलामती की और झाड़ियों, तालाबों, और अन्य स्थानों पर ढूंढता।

राघव की आवाज सुनकर कविता के पिता सतर्क हो गए। उन्होंने ने देखा कि परी ने छटपटाना बंद कर दिया है। शायद यह अब मर गई है। इससे पहले कि राघव यहाँ आए उन्हे यहाँ से जाना चाहिए। अगले ही क्षण उनके दिमाग में एक और कुराफात ने जन्म ले लिया।

"जल्दी भाग यहाँ से।" वे चिल्लाए और भागे। कविता के दोनों भाई उनके पीछे ही थे। इस बार सतर्क थें। इसलिए कि कहीं यह खूनी खेल लंबा न हो जाय।

राघव भागते हुए इसी ओर आ रहा था। उसकी नजरें बेसब्री से नीलिमा और परी की छवि को तलाश रहा था। जैसे ही वह खेत में पहुँचा एक बार फिर मुंह के बल गिर पड़ा। उसकी तेज सांसे जबतक धीमी नहीं हुई वह उठने की हिम्मत न जुटा सका। खेत में बारिश का पानी और पानी में तैरते तीन शव। कीचड़ संग लिपट उनके जिस्म से बहता खून साम्राज्य बढ़ाता ही जा रहा था। यह साम्राज्य राघव की नजरों को आकर्षित न करता ऐसा हो सकता है क्या? फिर वही भय का आतंक। वही मनोनस्थिति। हृदय और मस्तिष्क के मध्य जंग। नजरों के सामने पड़े दृश्य को झुठलाने का प्रयास। यह समझना कि कुछ नहीं बस यह एक बुरा सपना है।

राघव अभी घुटनों के बल ही था, सामने उसकी पत्नी, बेटी, कविता और पड़ोस गाँव का युवक मौत की नींद सोया था। एक साथ चार लाशें। किसकी मृत्यु का शोक सबसे पहले मनाता..! उसकी अवस्था मूर्छा से भी गंभीर थी। आंसू बारिश के बूंदों में घुलती जाती। हवाएं कानों में पराजय गीत गाती। वक्त के कहर पर बादल की हंसी, इन चार लोगों की मृत्यु पर कड़कती बिजली की खुशी। यह बिजली राघव को भी जला दे तो कहानी खत्म। पर ऐसा नहीं होता। कभी नहीं होता। प्रकृति इंसान को हंसाती और रुलाती भी है।

क्या हुआ अचानक से ये सबकुछ? कुछ समझ आता कि उसकी नजर आहट आती दिशा पर पड़ी। इन लाशों के शहर में कुछ अंतिम सांसे गिनती परी करबट बदल जल्दी जल्दी सांसे लेने लगी। जैसे कोई उसके शरीर से आहिस्ता आहिस्ता प्राण निकाल रहा हो। गहरे जख्मों से रक्तस्राव होता ही जा रहा था। यह कीचड़ के रंग में रंग भी रहा था। क्या मौत इतनी दर्दनाक होती है!

राघव उसकी ओर लपका। उसे गोद में उठाया। अपने वस्त्रों को फाड़ रक्तस्राव होने वाले अंगों पर लगाया। यह पहली बार था जब उसने बिना सामाजिक उलाहनों की परवाह किए अपने बेटी को सीने लगाया था। फूट फूट कर रोया भी था। परी मौत और जिंदगी के मध्य खड़ी थी। अपने लिए पिता के आँखों में उमड़े तूफान कैसे देखती, उसकी आँखें जो बंद थी।

वह अपनी पत्नी की मृत्यु और पुत्री के इस अवस्था का विलाप कर ही रहा था कि अचानक से उसे गाँव के लोगों की चीख सुनाई पड़ी। शब्द स्पष्ट तो नहीं था लेकिन ऐसा लगा जैसे कि गाँव में किसी के घर में आग लग गया है। राघव ने गाँव की ओर देखा। घर उसका ही जलाया गया था। आग की लपटें आसमान छूने को बेताब थी। हालाँकि वह गाँव से दूर था लेकिन आग उसके घर को जला रही थी यहाँ से स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था।

कविता के पिता और भाइयों ने अपने अपराध को छिपाने के लिए खेत से वापस लौटते ही राघव के घर में आग लगा डाले। परी के दादा और दादी उसी आग का आहार बन गए। ग्रामीणों ने पूरी कोशिश करी आग बुझाने की लेकिन असफलता के अलावा और क्या हाथ लगता।

"पहले उन्होंने मेरा घर बिखेरा, फिर आग लगाई, लेकिन अभी भी उन्हें संतुष्टि नहीं थी। न जाने किस अपराध का बदला वो हमसे लेना चाहते थे..!"

अदालत का माहौल बिल्कुल शांत हो गया था। सबकी नजरें परी के मुखमंडल पर ही टिकी थी। कहानी शायद रोचक होता जा रहा था तभी तो एक सेकेंड की चुप्पी भी अदालत में असहजता का माहौल गढ़ देता।

"आग उन्होनें ही लगाई थी..!" वकील साहब भी आश्चर्य में थे। कहानी सीधी नहीं थी। साधारण रफ्तार से बढ़ती कहानी में आया अचानक से ट्विस्ट सबको कहानी सुनते रहने में रुचि बढ़ाती रही। प्रकाश के लिए पर्याप्त ईंधन की तरह, जब तक जलेगी, रौशनी भी मिलेगी।

"हां... आग सिर्फ उन्होंने मेरे घर में ही नहीं लगाई थी बल्कि गाँव के लोगों के दिलों में लगाई थी। मेरा चरित्र भी उनकी सातिर बुद्धि के द्वारा गढ़ा गया था। उन्होंने लोगों को कहानी तो सच्ची सुनाई लेकिन किरदार बदल दिए। मुझे चरित्र हीन बताया। मुझे मेरी दोस्त कविता का कातिल बताया। मेरे पिता को उस अपराध का भागीदार बताया। उन्होंने कोशिश की थी मेरे और बाबा के बढ़ते अपराधी कदम में बेड़ियां डालने की लेकिन नाकाम रहे.. क्या करते मेरे पिता के हाथों में बंदूक था... जिसकी गोली ने मेरी माँ का प्राण लिया था। जिस दृश्य के वे साक्षी थे... उनकी झूठी कहानी लंबी थी। उनकी कहानी में अपराधी हम थे और हम ही ने अपने घर को जलाया था। मेरी दादा दादी का मेरे प्रति रूखा स्वभाव उनका अभेद हथियार बना। और ग्रामीणों को उनकी बातों का यकीन करना ही पड़ा।" परी बोलती रही।

कविता के पिता के द्वारा फेंका गया राघव के खिलाफ़ पासा उनके हित में था। उनकी झूठी कहानी सुनते ही ग्रामीण क्रोध में लाल हो गए। फैसला किया उन्हें तत्काल दंडित करने का। अपने गाँव में चरित्रहीन लड़की का होना और अपने ही पुत्री के कातिल का होना उचित नहीं था। इस भीषण अपराध का दंड भी भीषण होना चाहिए।

"राघव घर को आग लगा उधर खेतों की ओर भागा है... मैंने देखा था।" कविता का बड़ा भाई आक्रमक ग्रामीणों के सामने खड़ा हो खेतों की दिशा में इंगित करते हुए चीखा। उसके चीखते ही ग्रामीण खेतों की ओर ऐसे भागें जैसे कि वे लोग महीनों से भूखें हों और किसी ने उन्हें भोजन का पता बताया हो।

"मार डालेंगे उस पापी को... उसने हमारे गाँव का नाम खराब किया... वह अपराधी है और उसे दंडित करना गुनाह नहीं होगा... मार डालेंगे उस पापी को..." सभी भागते हुए चीख रहे थे।

उनके क्रोध की कोई सीमा नहीं थी। अगर इस समय राघव सामने होता तो उसका क्या हाल किया जाता कल्पना किया जा सकता है।

राघव को अपनी ओर आती आक्रमक भीड़ की चीखें सुनाई पड़ी। वह उनके मकसद को समझ गया था। अभी कुछ सोचने का समय नहीं था। किसी भी तरह बस परी को और खुद को बचाना था। लेकिन वह कुछ और देर अपनी पत्नी नीलिमा से लिपट कर खूब रोना चाहता था। आखिरी बार गले लगा। खून उसके वस्त्रों से लिपट गया। बारिश तो बहुत पहले ही रुक गया था। गीला घर भी सुखी फूस की तरह धधक रहा था। उसने परी को गोद में उठाया और बिना रास्ते और मंजिल की परवाह किए पूरी रफ्तार से भागा।

परी के बदन से रक्त के धब्बे बह जमीन पर गिरती और इतने समय अंतराल में वह कई मीटर की दूरी तय कर लेता। उसे रास्तों की परवाह नहीं थी। खुरदुरे मिट्टी की नोंक सुई की तरह पैरों में चुभते, पत्थर ठोकर मार बीच रास्ते में ही गिरा उसे नाकाम करने आते, कंटीली झाड़ियां राघव के जिस्म के कई हिस्से को चीर गई। बाप और बेटी दोनों ही एक दूसरे के खून से रंगे थे। एक अंतिम सांसे गिन रहा था तो दूसरा उसे बचाने जी जान लगा कर भाग रहा था।

ग्रामीण जब वहाँ पहुँचे तो उन्हें खेत में तैरते तीन लाशें मिली।

जब जिंदगी और मौत के मध्य प्रतिस्पर्धा होती है, तो जिंदगी चाहने वाला भी जीत जाता है, कई मामलों में हारता भी है। मौत चीज़ ही ऐसी है। राघव ग्रामीणों की नजरों में आने से पहले ही ओझल हो गया था। अब जितनी जल्दी हो सके परी को अच्छे अस्पताल में दाखिल करना अनिवार्य था, अन्यथा अनहोनी निश्चित थी।

वह हाईवे पर आया ही था कि उसकी नजर सड़क किनारे खड़े उस ट्रक पर पड़ी। बिना विचार किए वह उसपर चढ़ गया। उसकी तेज सांसे, आंसुओं की बारिश, अब तो एक शब्द बोल पाना भी कठिन था।

लंबी दूरी तक लगातार भागते रहने और घायल हो जाने की वजह से राघव बुरी तरह से थक गया था। परी को गोद में लिए, उसे अपने सीने से लिपटाए कब सो गया पता नहीं। ट्रक ड्राइवर घड़ी पर चढ़ा और म्यूजिक प्ले किया। गाने के धुन में लिरिक्स गुनगुनाते हुए ट्रक स्टार्ट किया और इस तरह परी, सुलेखा और राघव की जिंदगी का एक नया सफर शुरू हुआ।


अदालत में लगे पेंडुलम घड़ी अचानक से बज पड़ी। किसी को भी समय होश न था। धीरे धीरे सभी कहानी में खोने लगें थे, यह सच था या झूठ इसका निर्णय करना जज साहब का काम था। परी अपराधी थी या नहीं इसका फैसला भी उन्हें ही करना था।

"अदालत का समय समाप्त हो गया... कोट स्थगित किया जाता है और अगले दिन की तारीख तय की जाती है।" जज साहब को समय समाप्त होने का अफसोस हो रहा था। काश थोड़ा और वक्त होता। अब आगे की कहानी जानने के लिए अगले तारीख तक का इंतजार करना था।
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Re: स्वाँग

Post by koushal »

अध्याय सात

माहौल में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ था। अब भी क्रांतिकारी महिलाएं नारे लगाए जा रही थी। मीडिया की भीड़, परी के अदालत से बाहर आते ही उसकी तस्वीरें कैद करने दौड़ी। पुलिस भीड़ को हटाने में व्यस्त रही। अब परी को वापस उसी अंधेरी कोठरी में ले जाया रहा था।

कैमरे के फ्लैश लाइट से चकाचौंध होता माहौल मोहक तो नहीं था। इसमें सनसनी थी। क्रांति थी। आग सुलग रही थी उस भीड़ में जो उस कुरूप लड़की की झलक पाते ही इनसांफ दो के नारे लगा चिल्लाए जा रही थी। अगर इन्हें इंसाफ करने का एक अवसर मिलता तो यकीनन अगले कुछ सेकेंड के पश्चात उस कुरूप लड़की का शव अदालत के परिसर में कुचला हुआ मिलता। क्योंकि वही अपराधी है और अपराध उसी ने किया था, ऐसा ही विश्वास था उन्हें।

न्यूज चैनलों पर आग लगाती यह सुलगती सनसनी। एक खूबसूरत लड़की की छोटी तस्वीर और दूसरे तरफ उस कुरूप कातिल की और बहस जारी था। तर्क और तथ्य अपराधी के अपराध को साबित करते, और वजह की कल्पनाएं भी। कई तरह के विचार अफवाह का रूप लेने लगें। कुरूप लड़की के द्वारा सुनाया गया अधूरा दास्तां टीवी चैनलों की टीआरपी बटोरती रही।

आग की तरह फैला यह मुद्दा पूरे देश को जलाने को बेताब था और इधर बंद सलाखों के पीछे अंधेरे की गोद में बैठी उस लड़की की सिसकने की ध्वनि तक सुनने वाला कोई नहीं था। सत्य और इंसाफ के तराजू में तौल सब की नजरों में अपराधी साबित हुई लड़की का अपराध करने की वजह पूछने वाले उतने नहीं थे जितने उस अपराध की सजा देने के लिए थे। लेकिन अतीत की अंधेरी गुमनाम दुनियां में जाते ही सिर्फ और सिर्फ तूफान आने लगे थे। ह्रदय में भावनाओं की ज्वालामुखी अचानक ही फट पड़ा था। कौन संभाले इस टूटे भवन को, न अब इसमें दीवारें न ईंटें शेष है।

बचपन से अब तक घटित हुआ हर एक घटना चलचित्र की तरह आँखों के चारों ओर परिक्रमा पूरी रात करता रहा। जेल की सन्नाटे में पत्थर की मूर्ति दिखने वाली लड़की अतीत के आंचल में बैठ पूरी रात रोती रही। कोई कहता कि पत्थर रोया नहीं करते तो उसे एक झलक इसे अवश्य देखना चाहिए था। अब तक मजबूत दिखने वाली किसी शिल्पकार द्वारा शिल्पित मूर्ति की भी आँखे गीली थी।

अथाह अंधकार को चीरते हुए प्रकाश की अत्यंत तीव्र रौशनी अचानक से आँखों पर आ पड़ी। जब यह सामान्य हुआ तब नन्ही परी अपने घर के आंगन में नंगे पांव भागते नजर आई। छोटे छोटे पग में बंधे पायल का शोर कानों में गूंजता रहा। राघव उसे इस तरह से भागता देख आनंदित हो तो रहा था लेकिन नजरंदाज करने का असफल दिखावा कर रहा था। उस नन्ही परी के पीछे भागती सुलेखा। हंसने का शोर। खुशी। बचपन।

अचानक से वह दृश्य गायब हो गया। अब वह उसी खेत में खड़ी थी। उसकी सहेली और उसके प्रेमी की लाशें कीचड़ में तैर रही थी। तभी पूरी रफ्तार से गति करता बंदूक की गोली नीलिमा के शरीर में घुस गई। वह इस दृश्य को बिलकुल भी नहीं देखना चाहती थी। रेत पर लिखे अक्षरों की तरह ही इस दृश्य को जितनी जल्दी हो मिटा देना चाहती थी। लेकिन यह क्षण युग जैसे सहस्त्र वर्षों का हो गया हो।

फिर सुलेखा का हाथ थामे खेतों में भागते, बस भागते ही जा रही थी। और अचानक से यह दिन रात में तब्दील हो गया। उसने स्वयं को मोटे बेड़ियों में जकड़ा हुआ पाया और सामने सुलेखा लहूलुहान पड़ी थी। होश में ही थी, चीखती जा रही थी। एक हैवान आरी से उसकी टांगे काट रहा था। लहू की नदी बहती उसके पैरों के पास आ रही थी। रक्त की छींटे परी के चेहरे और वस्त्रों को रंग रहा था।

इस दृश्य ने उसे पूरी तरह से बेचैन कर डाला। ऐसा लगा कि हृदय अचानक से रुक गया है। नशों में दौड़ता रक्त पानी हो गया है। शरीर की प्रत्येक कोशिका नष्ट होती जा रही है। अथाह तड़प, बेशुमार दर्द। सिर्फ दर्द ही दर्द।

वह उठ बैठी। तेजी से हवाओं को फेफड़ों में भरने लगी। खुद को संभालने का प्रयत्न करती रही लेकिन अगले कुछ ही सेकंड के बाद सब्र टूट गया। रोना, व्यर्थ की माया है। रोने से क्या वास्तव में हृदय हल्का हो जाता है! अगर यह कथन सत्य होता तो परी और रोती और उसका दर्द समाप्त हो जाता। वह रोती रही।
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