जवानी की दहलीज compleet

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जवानी की दहलीज compleet

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जवानी की दहलीज-1

बात उन दिनों की है जब इस देश में टीवी नहीं होता था ! इन्टरनेट और मोबाइल तो और भी बाद में आये थे। मैं उन दिनों जवानी की दहलीज पर क़दम रख रही थी। मेरा नाम सरोजा है पर घर में मुझे सब भोली ही बुलाते हैं। मैं 19 साल की सामान्य लड़की हूँ, गेहुँवा रंग, कद 5'3", वज़न 50 किलो, लंबे काले बाल, जो आधी लम्बाई के बाद घुंघराले थे, काली आँखें, गोल नाक-नक्श, लंबी गर्दन, मध्यम आकार के स्तन और उभरे हुए नितम्भ।

हम कुरनूल (आंध्र प्रदेश) के पास एक कसबे में रहते थे। मेरे पिताजी वहाँ के जागीरदार और सांसद श्री रामाराव के फार्म-हाउस में बागवानी का काम करते थे। मेरी एक बहन शीलू है जो मुझसे चार साल छोटी है और उस पर भी यौवन का साया सा पड़ने लगा है। लड़कपन के कारण उसे उसके पनपते स्तनों का आभास नहीं हुआ है पर आस-पड़ोस के लड़के व मर्द उसे दिलचस्पी से देखने लगे हैं। पिछले साल उसकी पहली माहवारी ने उसे उतना ही चौंकाया और डराया था जितना हर अबोध लड़की को होता है।

मैंने ही उसे समझाया और संभाला था, उसके घर से बाहर जाने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थीइ जैसा कि गांव की लड़कियों के साथ प्राय: होता है। मेरा एक भाई गुन्टू है जो कि मुझसे 12 साल छोटा है और जो मुझे माँ समान समझता है। वह बहुत छोटा था जब हमारी माँ एक सड़क हादसे में गुज़र गई थी और उसे एक तरह से मैंने ही पाला है।

हम एक गरीब परिवार के हैं और एक ऐसे समाज से सम्बंधित हैं जहाँ लड़कियों का कोई महत्त्व या औचित्य नहीं होता। जब माँ थी तो वह पहले खाना पिताजी और गुन्टू को देती थी और बाद में शीलू और मेरा नंबर आता था। वह खुद सबसे बाद में बचा-कुचा खाती थी। घर में कभी कुछ अच्छा बनता था या मिठाई आती थी तो वह हमें कम और पिताजी और गुन्टू को ज़्यादा मिलती थी। हालांकि गुन्टू मुझसे बहुत छोटा था फिर भी हमें उसका सारा काम करना पड़ता था। अगर वह हमारी शिकायत कर देता तो माँ हमारी एक ना सुनती। हमारे समाज में लड़कों को सगा और लड़कियों को पराई माना जाता है इसीलिए लड़कियों पर कम से कम खर्चा और ध्यान लगाया जाता है।

माँ के जाने के बाद मैंने भी गुन्टू को उसी प्यार और लाड़ से पाला था।

पिताजी हमारे मालिक के खेतों और बगीचों के अलावा उनके बाकी काम भी करने लगे थे। इस कारण वे अक्सर व्यस्त रहते थे और कई बार कुरनूल से बाहर भी जाया करते थे। मुझे घर के काम करने की आदत सी हो गई थी। वैसे भी हम लड़कियों को घर के काम करने की शुरुआत बहुत जल्दी हो जाया करती है और मैं तो अब 19 की होने को आई हूँ। अगर मेरी माँ जिंदा होती तो मेरी शादी कब की हो गई होती...

पर अब शीलू और गुन्टू की देखभाल के लिए मेरा घर पर होना ज़रूरी है इसलिए पिताजी मेरी शादी की जल्दी में नहीं हैं। हम रामारावजी के फार्म-हाउस की चारदीवारी के अंदर एक छोटे से घर में रहते हैं। हमारे घर के सब तरफ बहुत से फलों के पेड़ लगे हुए हैं जो कि पिताजी ने कई साल पहले लगाये थे। पास ही एक कुंआ भी है। रामारावजी ने कुछ गाय-भैंस भी रखी हुई हैं जिनका बाड़ा हमारे घर से कुछ दूर पर है।

रामारावजी एक कड़क किस्म के इंसान हैं जिनसे सब लोग बहुत डरते हैं पर वे अंदर से दयालु और मर्मशील हैं। वे अपने सभी नौकरों की अच्छी तरह देखभाल करते हैं। उनकी दया से हम गरीब हो कर भी अच्छा-भला खाते-पीते हैं। शीलू और गुन्टू भी उनकी कृपा से ही स्कूल जा पा रहे हैं।

रामारावजी की पत्नी का स्वर्गवास हुए तीन बरस हो गए थे। उनके तीन बेटे हैं जो कि जागीरदारी ठाटबाट के साथ बड़े हुए हैं। उनमें बड़े घर के बिगड़े हुए बेटों के सभी लक्षण हैं। सबसे बड़ा, महेश, 25-26 साल का होगा। उसे हैदराबाद के कॉलेज से निकाला जा चुका था और वह कुरनूल में दादागिरी करता था। उसका एक गिरोह था जिसमें हमेशा 4-5 लड़के होते थे जो एक खुली जीप में आते-जाते। उनका काम मटरगश्ती करना, लड़कियों को छेड़ना और अपने बाप के नाम पर ऐश करना होता था। महेश शराब और सिगरेट का शौक़ीन था और लड़कियाँ उसकी कमजोरी थीं। दिखने में महेश कोई खास नहीं था बल्कि उसके गिरोह के लगभग सभी लड़के उससे ज़्यादा सुन्दर, सुडौल, लंबे और मर्दाना थे पर बाप के पैसे और रुतबे के चलते, रौब महेश का ही चलता था।

महेश से छोटा, सुरेश, कोई 22 साल का होगा। वह पढ़ाकू किस्म का था और कई मायनों में महेश से बिल्कुल अलग। वह कुरनूल के ही एक कॉलेज में पढ़ता था और घर पर उसका ज़्यादातर समय इन्टरनेट और किताबों में बीतता था। उसका व्यक्तित्व और उसके शौक़ ऐसे थे कि वह अक्सर अकेला ही रहता था।

सुरेश से छोटा भाई, नितेश था जो 19 साल का होगा। वह एक चंचल, हंसमुख और शरारती स्वभाव का लड़का था। उसने अभी अभी जूनियर कॉलेज खत्म किया था और वह विदेश में आगे की पढ़ाई करना चाहता था। इस मामले में रामारावजी उससे सहमत थे। उन्हें अपने सबसे छोटे बेटे से बहुत उम्मीदें थीं... उन्हें भरोसा हो गया था कि महेश उनके हाथ से निकल गया है और सुरेश का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे क्योंकि वह राजनीति या व्यापार दोनों के लायक नहीं था।

तीनों भाई दिखने, पहनावे, व्यवहार और अपने तौर-तरीकों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग अलग थे।

मुझे तीनों में से नितेश सबसे अच्छा लगता था। एक वही था जो अगर मुझे देखता तो मुस्कुराता था। कभी कभी वह मुझसे बात भी करता था। कोई खास नहीं... "तुम कैसी हो?... घर में सब कैसे हैं?.... कोई तकलीफ़ तो नहीं?" इत्यादि पूछता रहता था।

नितेश मुझे बहुत अच्छा लगता था, सारे जवाब मैं सर झुकाए नीची नज़रों से ही देती थी। मेरे जवाब एक दो शब्द के ही होते थे... ज़्यादा कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। इतने बड़े घर के लड़के से बात करने में हिचकिचाहट भी होती और लज्जा भी आती थी। कभी कभी, अपनी उँगलियों में अपनी चुन्नी के किनारे को मरोड़ती हुई अपनी नज़रें ऊपर करने की कोशिश करती थी... पर नितेश से नज़रें मिलते ही झट से अपने पैरों की तरफ नीचे देखने लगती थी।

नितेश अक्सर हँस दिया करता पर एक बार उसने अपनी ऊँगली से मेरी ठोड़ी ऊपर करते हुए पूछा,"नीचे क्यों देख रही हो? मेरी शकल देखने लायक नहीं है क्या?"

उसके स्पर्श से मैं सकपका गई और मेरी आवाज़ गुम हो गई। कुछ बोल नहीं पाई। उसका हाथ मेरी ठोड़ी से हटा नहीं था। मेरा चेहरा ऊपर पर नज़रें नीचे गड़ी थीं।

"अब मैं दिखने में इतना बुरा भी नहीं हूँ !" कहते हुए उसने मेरी ठोड़ी और ऊपर कर दी और एक छोटा कदम आगे बढ़ाते हुए मेरे और नजदीक आ गया।

मेरी झुकी हुई आँखें बिल्कुल बंद हो गईं। मेरी सांस तेज़ हो गई और मेरे माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूँदें छलक पड़ीं।

नितेश ने मेरी ठोड़ी छोड़ कर अपने दोनों हाथ मेरे हाथों पर रख दिए जो चुन्नी के किनारे से गुत्थम-गुत्था कर रहे थे...

"इस बेचारे दुपट्टे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इसे क्यों मरोड़ रही हो?" कहते हुए नितेश ने मेरे हाथ अपने हाथों में ज़ोर से पकड़ लिए।

किसी लड़के ने मेरा हाथ इस तरह कभी नहीं पकड़ा था। मुझे यकायक रोमांच, भय, कुतूहल और लज्जा का एक साथ आभास हुआ। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।

एक तरफ नितेश की नज़दीकी और उसका स्पर्श मुझे अपार आनन्द का अनुभव करा रहा था वहीं हमारे बीच का अपार फर्क मुझे यह खुशी महसूस करने से रोक रहा था। मैं आँखें मूंदे खड़ी रही और धीरे से अपने हाथ नितेश के हाथों से छुड़ाने लगी।

"छोड़ो जी... कोई देख लेगा..." मेरे मुँह से मरी हुई आवाज़ निकली।

"तुम बहुत भोली हो" नितेश ने मेरा हाथ एक बार दबाकर छोड़ते हुए कहा। नितेश के उस छोटे से हाथ दबाने में एक आश्वासन और सांत्वना का संकेत था जो मुझे बहुत अच्छा लगा।

मैं वहाँ से भाग गई।

रामारावजी के घर में कई नौकर-चाकर थे जिनमें एक ड्राईवर था... कोई 30-32 साल का होगा। उसका वैसे तो नाम गणपत था पर लोग उसे भोंपू के नाम से बुलाते थे क्योंकि गाड़ी चलाते वक्त उसे ज़्यादा होर्न बजाने के लत थी। भोंपू शादीशुदा था पर उसका परिवार उसके गांव ओंगोल में रहता था। उसकी पत्नी ने हाल ही में एक बिटिया को जन्म दिया था। भोंपू एक मस्त, हंसमुख किस्म का आदमी था। वह दसवीं तक पढ़ा हुआ भी था और गाड़ी चलाने के अलावा अपने फ्री समय में बच्चों को ट्यूशन भी दिया करता था।

इस वजह से उसका आना-जाना हमारे घर भी होता था। हफ्ते में दो दिन और हर छुट्टी के दिन वह शीलू और गुंटू को पढ़ाने आता था। उसका चाल-चलन और पढाने का तरीका दोनों को अच्छा लगता था और वे उसके आने का इंतज़ार किया करते थे। जब पिताजी बाहर होते वह हमारे घर के मरदाना काम भी खुशी खुशी कर देता था। भोंपू शादी-शुदा होने के कारण यौन-सुख भोग चुका था और अपनी पत्नी से दूर रहने के कारण उसकी यौन-पिपासा तृप्त नहीं हो पाती थी। ऐसे में उसका मेरी ओर खिंचाव प्राकृतिक था। वह हमेशा मुझे आकर्षित करने में लगा रहता। वह एक तंदुरुस्त, हँसमुख, मेहनती और ईमानदार इंसान था। अगर वह विवाहित ना होता तो मुझे भी उसमें दिलचस्पी होती।

एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रहा था और मैं खाना बना रही थी, मेरा पांव रसोई में फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर गई। गिरने की आवाज़ और मेरी चीख सुनकर वह भागा भागा आया। मेरे दाहिने पैर में मोच आ गई थी और मैंने अपना दाहिना घुटना पकड़ा हुआ था।

उसने मेरा पैर सीधा किया और घुटने की तरफ देख कर पूछा,"क्या हुआ?"

मैंने उसे बताया मेरा पांव फिसलते वक्त मुड़ गया था और मैं घुटने के बल गिरी थी। उसने बिना हिचकिचाहट के मेरा घाघरा घुटने तक ऊपर किया और मेरा हाथ घुटने से हटाने के बाद उसका मुआयना करने लगा। उसने जिस तरह मेरी टांगें घुटने तक नंगी की मुझे बहुत शर्म आई और मैंने झट से अपना घाघरा नीचे खींचने की कोशिश की।

ऐसा करने में मेरे मोच खाए पैर में ज़ोर का दर्द हुआ और मैं नीचे लेट गई। इतने में शीलू और गुंटू भी वहाँ आ गए और एक साथ बोले "ओह... दीदी... क्या हुआ?"

"यहाँ पानी किसने गिराया था? मैं फिसल गई..." मैंने करहाते हुए कहा।

"सॉरी दीदी... पानी की बोतल भरते वक्त गिर गया होगा..." गुंटू ने कान पकड़ते हुए कहा।

"कोई बात नहीं... तुम दोनों जाकर पढ़ाई करो... मैं ठीक हूँ !"

जब वे नहीं गए तो मैंने ज़ोर देकर कहा,"चलो... जाओ..." और वे चले गए।

अब भोंपू ने अपने हाथ मेरी गर्दन और घुटनों के नीचे डाल कर मुझे उठा लिया और खड़ा हो गया। मैंने अपनी दाहिनी टांग सीधी रखी और दोनों हाथ उसकी गरदन में डाल दिए। उसने मुझे अपने बदन के साथ सटा लिया और छोटे छोटे कदमों से मेरे कमरे की ओर चलने लगा।

उसे कोई जल्दी नहीं थी... शायद वह मेरे शरीर के स्पर्श और मेरी मजबूर हालत का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता होगा। उसकी पकड़ इस तरह थी कि मेरा एक स्तन उसके सीने में गड़ रहा था। उसकी नज़रें मेरी आँखों में घूर रही थीं... मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।

उसने मुझे ठीक से उठाने के बहाने एक बार अपने पास चिपका लिया और फिर अपना एक हाथ मेरी पीठ पर और एक मेरे नितम्भ पर लगा दिया। ना जाने क्यों मुझे उसका स्पर्श अच्छा लग रहा था... पहली बार किसी मर्द ने मुझे इस तरह उठाया था। मेरे बदन में एक सुरसुराहट सी होने लगी थी...

कमरे में पहुँच कर उसने धीरे से झुक कर मुझे बिस्तर पर डालने की कोशिश की। वह चाहता तो मुझे सीधा बिस्तर पर डाल सकता था पर उसने मुझे अपने बदन से सटाते हुए नीचे सरकाना शुरू किया जिससे मेरी पीठ उसके पेट से रगड़ती हुई नीचे जाने लगी और एक क्षण भर के लिए उसके उठे हुए लिंग का आभास कराते हुए मेरी पीठ बिस्तर पर लग गई।

अब मैं बिस्तर पर थी और उसके दोनों हाथ मेरे नीचे। उसने धीरे धीरे अपने हाथ सरकाते हुए बाहर खींचे... उसकी आँखों में एक नशा सा था और उसकी सांस मानो रुक रुक कर आ रही थी। वह मुझे एक अजीब सी नज़र से देख रहा था... उसका ध्यान मेरे वक्ष, पेट और जाँघों पर केंद्रित था।

मैं चोरी चोरी नज़रों से उसे देख रही थी।

उसने सीधे होकर एक बार अपने हाथों को ऊपर और पीछे की ओर खींच कर अंगड़ाई सी ली जिससे उसका पेट और जांघें आगे को मेरी तरफ झुक गईं। उसके तने हुए लिंग का उभार उसकी पैन्ट में साफ़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर इस अवस्था में रुक कर उसने हम्म्म्म की आवाज़ निकालते हुए अपने आप को सीधा किया। फिर उसने शीलू को बुलाकर थोड़ा गरम पानी और तौलिया लाने को कहा। जब तक शीलू ये लेकर आती उसने गुंटू और शीलू के गणित अभ्यास के लिए कुछ सवाल लिख दिए जिन्हें करने में वे काफी समय तक व्यस्त रहेंगे। तब तक शीलू गरम पानी और तौलिया ले आई।

"शीलू और गुंटू ! मैंने तुम दोनों के लिए कुछ सवाल लिख दिए हैं... तुम दोनों उनको करो... तब तक मैं तुम्हारी दीदी की चोट के बारे में कुछ करता हूँ... ठीक है?"

"ठीक है।" कहकर शीलू ने मेरी ओर देखा और पूछा,"अब कैसा लग रहा है?"

मैंने कहा,"पहले से ठीक है.... तुम जाओ और पढ़ाई करो..." मैंने अधीरता से कहा।

पता नहीं क्यों मेरा मन भोंपू के साथ समय बिताने का हो रहा था... मन में एक उत्सुकता थी कि अब वह क्या करेगा...

"कुछ काम हो तो मुझे बुला लेना..." कहती हुई शीलू भाग गई।

भोंपू ने एक कुर्सी खींच कर बिस्तर के पास की और उस पर गरम पानी और तौलिया रख दिया... फिर खुद मेरे पैरों की तरफ आकर बैठ गया और मेरा दाहिना पांव अपनी गोद में रख लिया। फिर उसने तौलिए को गरम पानी में भिगो कर उसी में निचोड़ा और गरम तौलिए से मेरे पांव को सेंक देने लगा। गरम सेंक से मुझे आराम आने लगा। थोड़ा सेंकने के बाद उसने मेरे पांव को हल्के हल्के गोल-गोल घुमाना शुरू किया। मेरा दर्द पहले से कम था पर फिर भी था। मेरे "ऊऊंह आह" करने पर उसने पांव फिर सी अपनी जांघ पर रख दिया और गरम तौलिए से दुबारा सेंकने लगा। ठोड़ी देर में पानी ठंडा हो गया तो उसने शीलू को बुला कर और गरम पानी लाने को कहा।

जब तक वह लाती भोंपू ने मेरे दाहिने पैर और पिंडली को सहलाना और दबाना शुरू कर दिया। वह प्यार से हाथ चला रहा था... सो मुझे भी मज़ा आ रहा था।

जब शीलू गरम पानी देकर चली गई तो भोंपू ने मेरे दाहिने पैर को अपनी जाँघों के बीच में बिस्तर पर टिका दिया। उसकी दाईं टांग मेरी टांगों के बीच, घुटनों से मुड़ी हुई बिस्तर पर टिकी थी और उसकी बाईं टांग बिस्तर से नीचे ओर लटक रही थी। अब उसने तौलिए को गीला करके मेरे दाहिने घुटने की सेंक करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए जब वह आगे को झुकता तो मेरे दाहिने पांव का तलवा उसकी जाँघों के बीच उसकी तरफ खिसक जाता। एक दो बार इस तरह करने से मेरा तलवा हल्के से उसके लिंग के इलाके को छूने लगा। उसके छूते ही जहाँ मेरे शरीर में एक डंक सा लगा मैंने देखा कि भोंपू के शरीर से एक गहरी सांस छूटी और उसने एक क्षण के लिए मेरे घुटने की मालिश रोक दी। अब उसने अपने कूल्हों को हिला-डुला कर अपने आप को थोड़ा आगे कर लिया। अब जब वह आगे झुकता मेरा तलवा उसके यौनांग पर अच्छी तरह ऐसे लग रहा था मानो ड्राईवर ब्रेक पेडल दबा रहा हो। मेरे तलवे को कपड़ों में छुपे उसके लिंग का उभार महसूस हो रहा था।

kramashah.........................

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Re: जवानी की दहलीज

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जवानी की दहलीज-2

मुझे मज़ा आ रहा था पर मैं भोली बनी रही। मैंने अपनी कलाई अपनी आँखों पर रख ली और आँखें मूंदकर अपने चेहरे को छुपाने का प्रयत्न करने लगी।

"एक मिनट सरोज !" कहकर उसने अपना हाथ मेरे घुटने से हटाया और वह पीछे हुआ। उसने पीछे खिसक कर मेरे तलवे का संपर्क अपने भुजंग से अलग किया। उफ़... मुझे लगा शायद ये जा रहा है... मैंने चोरी निगाह से देखा तो भोंपू अपना हाथ अपनी पैन्ट में डाल कर अपने लिंग को व्यवस्थित कर रहा था... उसने लिंग का मुँह नीचे की तरफ से उठाकर ऊपर की तरफ कर दिया। मुझे लगा उसे ऐसा करने से आराम मिला। फिर वह पहले की तरह आगे खिसक कर बैठ गया और मेरे तलवे का संपर्क दोबारा अपने अर्ध-उत्तेजित लिंग से करा दिया। मुझे जो डर था कि वह चला जायेगा अब दूर हुआ और मैंने अंदर ही अंदर एक ठंडी सांस ली।

अब भोंपू ने मेरे घुटने की तरफ से ध्यान हटा लिया था और उसकी उँगलियाँ घुटने के पीछे वाले मुलायम हिस्से और घुटने से थोड़ा ऊपर और नीचे चलने लगी थीं। मुझे भी अपनी मोच और घुटने का दर्द काफूर होता लगने लगा था। उसकी मरदानी उँगलियों का अपनी टांग पर नाच मुझे मज़ा देने लगा था। मेरे मन में एक अजीब सी अनुभूति उत्पन्न हो रही थी। मुझे लगा मुझे सुसू आ रहा है और मैंने उसको रोकने के यत्न में अपनी जांघें जकड़ लीं।

तभी अनायास मुझे महसूस हुआ कि भोंपू का दूसरा हाथ मेरी दूसरी टांग पर भी चलने लगा है। उसके दोनों हाथ मेरी पिंडलियों को मल रहे थे... कभी हथेलियों से गूंदते तो कभी उँगलियों से गुदगुदाते। मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी।

उधर भोंपू ने अपने कोल्हू को थोड़ा और आगे कर दिया था जिससे मेरे तलवे का उसके लिंग पर दबाव और बढ़ गया था। अब मैं अपने तलवे के स्पर्श से उसके लिंग के आकार का भली-भांति अहसास कर सकती थी। मुझे लगा वह पहले से बड़ा हो गया है और उसका रुख मेरे तलवे की तरफ हो गया था। मेरे तलवे के कोमल हिस्से पर उसके लिंग का सिरा बेशर्मी से लग रहा था।

अचानक भोंपू ने अपने कूल्हों को थोड़ा और आगे की ओर खिसकाया और अपने दोनों हाथ मेरे घुटनों के ऊपर... निचली जाँघों तक चलाने लगा। मेरा तलवा अब उसके लिंग को मसलने लगा था। मेरा दायाँ पांव अपने आप दायें-बाएं और ऊपर-नीचे होकर उसके लिंग को अच्छी तरह से से छूने लगा था। मेरे तन-बदन में चिंगारियाँ फूटने लगीं। मुझे लगा अब मैं सुसू रोक नहीं पाऊँगी। उधर भोंपू की उँगलियाँ अब बहुत बहादुर हो गई थीं और अब वे अंदरूनी जाँघों तक जाने लगी थीं। मेरी साँसें तेज़ होने लगी... मुझे ज़ोरों का सुसू आ रहा था पर मैं अभी जाना नहीं चाहती थी... बहुत मज़ा आ रहा था।

भोंपू अब बेहिचक आगे-पीछे होते हुए अपने हाथ मेरी जाँघों पर चला रहा था... मेरा पैर उसके लिंग का नाप-तोल कर रहा था। अचानक भोंपू थोड़ा ज्यादा ही आगे की ओर हुआ और उसके दोनों अंगूठे हल्के से मेरी योनि द्वार से पल भर के लिए छू गए। मुझे ऐसा करंट जीवन में पहले कभी नहीं लगा था... मैं उचक गई और मुझे लगा मेरा सुसू निकल गया है। मैंने अपनी टांगें हिला कर भोंपू के हाथों को वहाँ से हटाया और अपने दोनों हाथ अपनी योनि पर रख दिए। मेरी योनि गीली हो गई थी। मुझे ग्लानि हुई कि मेरा सुसू निकल गया है पर फिर अहसास हुआ कि ये सुसू नहीं मेरा योनि-रस था। मुझे बहुत लज्जा आ रही थी।

उधर भोंपू ने अपने हाथ मेरे जाँघों से हटा लिए थे और अब उसने अपने हाथ अपने कूल्हों के बराबर बिस्तर पर रख लिए और उनके सहारे अपने कूल्हों को हल्का हल्का आगे-पीछे कर रहा था। वह मेरे दायें तलवे से अपने लिंग को मसलने की कोशिश कर रहा था। मुझे मज़े से ज़्यादा लज्जा आ रही थी सो मैंने अपना पांव अपनी तरफ थोड़ा खींच लिया।

पर भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया.

भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया...

भोंपू के अचानक भागने की आवाज़ सुनकर शीलू और गुंटू दोनों कमरे में आ गए,"क्या हुआ दीदी? सब ठीक तो है?"

"हाँ... हाँ सब ठीक है।"

"मास्टरजी कहाँ गए?"

"बाथरूम गए हैं... तुमने सवाल कर लिए?"

"नहीं... एक-दो बचे हैं !"

"तो उनको कर लो... फिर खाना खाएँगे... ठीक है?"

"ठीक है।" कहकर वे दोनों चले गए।

भोंपू तभी गुसलखाने से वापस आया। उसका चेहरा चमक रहा था और उसकी चाल में स्फूर्ति थी। उसने मेरी तरफ प्यार से देखा पर मैं उससे नज़र नहीं मिला सकी।

"अब दर्द कैसा है?" उसने मासूमियत से पूछा।

"पहले से कम है...अब मैं ठीक हूँ।"

"नहीं... तुम ठीक नहीं हो... अभी तुम्हें ठीक होने में 2-4 दिन लगेंगे... पर चिंता मत करो... मैं हूँ ना !!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।

"नहीं... अब बहुत आराम है... मैं कर लूंगी..." मैंने मायूस हो कर कहा।

"तो क्या तुम्हें मेरा इलाज पसंद नहीं आया?" भोंपू ने नाटकीय अंदाज़ में पूछा।

"ऐसा नहीं है... तुम्हें तकलीफ़ होगी... और फिर चोट इतनी भी नहीं है।"

"तकलीफ़ कैसी... मुझे तो मज़ा आया... बल्कि यूँ कहो कि बहुत मज़ा आया... तुम्हें नहीं आया?" उसने मेरी आँखों में आँखें डालते हुए मेरा मन टटोला।

मैंने सर हिला कर हामी भर दी। भोंपू की बांछें खिल गईं और वह मुझे प्यार भरे अंदाज़ से देखने लगा। तभी दोनों बच्चे आ गए और भोंपू की तरफ देखकर कहने लगे,"हमने सब सवाल कर लिए... आप देख लो।"

"शाबाश ! चलो देखते हैं तुम दोनों ने कैसा किया है... और हाँ, तुम्हारी दीदी की हालत ठीक नहीं है... उसको ज़्यादा काम मत करने देना... मैं बाहर से खाने का इंतजाम कर दूंगा... अपनी दीदी को आराम करने देना... ठीक है?" कहता हुआ वह दोनों को ले जाने लगा।जाते जाते उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और एक हल्की सी आँख मार दी।

"ठीक है।" दोनों ने एक साथ कहा।

"तो क्या हमें चिकन खाने को मिलेगा?" गुंटू ने अपना नटखटपना दिखाया।

"क्यों नहीं !" भोंपू ने जोश के साथ कहा और शीलू की तरफ देखकर पूछा,"और हमारी शीलू रानी को क्या पसंद है?"

"रस मलाई !" शीलू ने कंधे उचका कर और मुँह में पानी भरते हुए कहा।

"ठीक है... बटर-चिकन और रस-मलाई... और तुम क्या खाओगी?" उसने मुझसे पूछा।

"जो तुम ठीक समझो !"

"तो ठीक है... अगले 2-4 दिन... जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तुम आराम करोगी... खाना मैं लाऊँगा और तुम्हारे लिए पट्टी भी !"

"जी !"

"अगर तुमने अपना ध्यान नहीं रखा तो हमेशा के लिए लंगड़ी हो जाओगी... समझी?" उसने मेरी तरफ आँख मारकर कहा।

"जी... समझी।" मैंने मुस्कुरा कर कहा।

"ठीक है... तो अब मैं चलता हूँ... कल मिलते हैं..." कहकर भोंपू चला गया।

मेरे तन-मन में नई कशिश सी चल रही थी, रह रह कर मुझे भोंपू के हाथ और उँगलियों का स्पर्श याद आ रहा था... कितना सुखमय अहसास था। मैंने अपने दाहिने तलवे पर हाथ फिराया और सोचा वह कितना खुश-किस्मत है... ना जाने क्यों मेरा हाथ उस तलवे से ईर्ष्या कर रहा था। मेरे तन-मन में उत्सुकता जन्म ले रही थी जो भोंपू के जिस्म को देखना, छूना और महसूस करना चाहती थी। ऐसी कामना मेरे मन में पहले कभी नहीं हुई थी।

मैंने देखा मेरे पांव और घुटने का दर्द पहले से बहुत कम है और मैं चल-फिर सकती हूँ। पर फिर मुझे भोंपू की चेतावनी याद आ गई... मैं हमेशा के लिए लंगड़ी नहीं रहना चाहती थी। फिर सोचा... उसने मुझे आँख क्यों मारी थी? क्या वह मुझे कोई संकेत देना चाहता था? क्या उसे भी पता है मेरी चोट इतनी बड़ी नहीं है? ...क्या वह इस चोट के बहाने मेरे साथ समय बिताना चाहता है? सारी रात मैं इसी उधेड़-बुन में रही... ठीक से नींद भी नहीं आई।
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Re: जवानी की दहलीज

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अगले दिन सुबह सुबह ही भोंपू मसाला-दोसा लेकर आ गया। शीलू ने कॉफी बनाईं और हमने नाश्ता किया। नाश्ते के बाद भोंपू काम पर जाने लगा तो शीलू और गुंटू को रास्ते में स्कूल छोड़ने के लिए अपने साथ ले गया। जाते वक्त उसने मेरी तरफ आँखों से कुछ इशारा करने की कोशिश की पर मुझे समझ नहीं आया।

मैंने उसकी तरफ प्रश्नात्मक तरीके से देखा तो उसने छुपते छुपते अपने एक हाथ को दो बार खोल कर 'दस' का इशारा किया और मुस्कुरा कर दोनों बच्चों को लेकर चला गया।

मैं असमंजस में थी... दस का क्या मतलब था?

अभी आठ बज रहे थे। क्या वह दस बजे आएगा? उस समय तो घर पर कोई नहीं होता... उसके आने के बारे में सोचकर मेरी बांछें खिलने लगीं... मेरे अंग अंग में गुदगुदी होने लगी... सब कुछ अच्छा लगने लगा... मैं गुनगुनाती हुई घर साफ़ करने लगी... रह रह कर मेरी निगाह घड़ी की तरफ जाती... मुई बहुत धीरे चल रही थी। जैसे तैसे साढ़े नौ बजे और मैं गुसलखाने में गई... मैंने अपने आप को देर तक रगड़ कर नहलाया, अच्छे से चोटी बनाईं, साफ़ कपड़े पहने और फिर भोंपू का इंतज़ार करने लगी।

हमारे यहाँ जब लड़की वयस्क हो जाती है, यानि जब उसको मासिक-धर्म होने लगता है, तबसे लेकर जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती उसकी पोशाक तय होती है। वह चोली, घाघरा और चोली के ऊपर एक दुपट्टे-नुमा कपड़ा लेती है जिससे वह अपना वक्ष ढक कर रखती है। इस पोशाक को हाफ-साड़ी भी कहते हैं। इसे पहनने वाली लड़कियाँ शादी के लिए तैयार मानी जाती हैं। शादी के बाद लड़कियाँ केवल साड़ी ही पहनती हैं। जो छोटी लड़कियाँ होती हैं, यानि जिनका मासिक-धर्मं शुरू नहीं हुआ होता, वे फ्रॉक या बच्चों लायक कपड़े पहनती हैं। मैंने प्रथानुसार हाफ-साड़ी पहनी थी।

दस बज गए पर वह नहीं आया। मेरा मन उतावला हो रहा था। ये क्यों नहीं आ रहा? कहीं उसका मतलब कुछ और तो नहीं था? ओह... आज नौ तारीख है... कहीं वह दस तारीख के लिए इशारा तो नहीं कर रहा था? मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ... दस बज कर बीस मिनट हो रहे थे और मुझे भरोसा हो गया था कि वह अब नहीं आयेगा।

मैं उठ कर कपड़े बदलने ही वाली थी कि किसी ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।

मैं चौंक गई... पर फिर संभल कर... जल्दी से दरवाज़ा खोलने गई। सामने भोंपू खड़ा था... उसके चेहरे पर मुस्कराहट, दोनों हाथों में ढेर सारे पैकेट... और मुँह में एक गुलाब का फूल था।

उसे देखकर मैं खुश हो गई और जल्दी से आगे बढ़कर उसके हाथों से पैकेट लेने लगी... उसने अपने एक हाथ का सामान मुझे पकड़ा दिया और अंदर आ गया। अंदर आते ही उसने अपने मुँह में पकड़ा हुआ गुलाब निकाल कर मुझे झुक कर पेश किया। किसी ने पहली बार मुझे इस तरह का तोहफा दिया था। मैंने खुशी से उसे ले लिया।

"माफ करना ! मुझे देर हो गई... दस बजे आना था पर फिर मैंने सोचा दोपहर का खाना लेकर एक बार ही चलूँ... अब हम बच्चों के वापस आने तक फ्री हैं !"

"अच्छा किया... एक बार तो मैं डर ही गई थी।"

"किस लिए?"

"कहीं तुम नहीं आये तो?" मैंने शरमाते हुए कहा।

"ऐसा कैसे हो सकता है?... साब हैदराबाद गए हुए हैं और बाबा लोग भी बाहर हैं... मैं बिलकुल फ्री हू॥"

"चाय पियोगे?"

"और नहीं तो क्या...? और देखो... थोड़ा गरम पानी अलग से इलाज के लिए भी चाहिये।"

मैं चाय बनाने लगी और भोंपू बाजार से लाये सामान को मेज़ पर जमाने लगा।

"ठीक है... चीनी?"

"वैसे तो मैं दो चम्मच लेता हूँ पर तुम बना रही हो तो एक चम्मच भी काफी होगी " भोंपू आशिकाना हो रहा था।

"चलो हटो... अब बताओ भी?" मैंने उसकी तरफ नाक सिकोड़ कर पूछा।

"अरे बाबा... एक चम्मच बहुत है... और तुम भी एक से ज़्यादा मत लेना... पहले ही बहुत मीठी हो..."

"तुम्हें कैसे मालूम?"

"क्या?"

"कि मैं बहुत मीठी हूँ?"

"ओह... मैंने तो बिना चखे ही बता दिया... लो चख के बताता हूँ..." कहते हुए उसने मुझे पीछे से आकर जकड़ लिया और मेरे मुँह को अपनी तरफ घुमा कर मेरे होंटों पर एक पप्पी जड़ दी।

"अरे... तुम तो बहुत ज्यादा मीठी हो... तुम्हें तो एक भी चम्मच चीनी नहीं लेनी चाहिए..."

"और तुम्हें कम से कम दस चम्मच लेनी चाहिए !" मैंने अपने आप को उसके चंगुल से छुडाते हुए बोला... "एकदम कड़वे हो !!"

"फिर तो हम पक्का एक दूसरे के लिए ही बने हैं... तुम मेरी कड़वाहट कम करो, मैं तुम्हारी मिठास कम करता हूँ... दोनों ठीक हो जायेंगे!!"

"बड़े चालाक हो..."

"और तुम चाय बहुत धीरे धीरे बनाती हो..." उसने मुझे फिर से पीछे से पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा।

"देखो चाय गिर जायेगी... तुम जल जाओगे।" मैंने उसे दूर करते हुए चाय कप में डालनी शुरू की।

"क्या यार.. एक तो तुम इतनी धीरे धीरे चाय बनाती हो और फिर इतनी गरम बनाती हो... पूरा समय तो इसे पीने में ही निकल जायेगा !!!"

"क्यों?... तुम्हें कहीं जाना है?" मैंने चिंतित होकर पूछा।

"अरे नहीं... तुम्हारा 'इलाज' जो करना है... उसके लिए समय तो चाहिए ना !!" कहते हुए उसने चाय तश्तरी में डाली और सूड़प करके पी गया।

"अरे... ये क्या?... धीरे धीरे पियो... मुंह जल जायेगा..."

"चाय तो रोज ही पीते हैं... तुम्हारा इलाज रोज-रोज थोड़े ही होता है... तुम भी जल्दी पियो !" उसने गुसलखाने जाते जाते हुक्म दिया।

मैंने जैसे तैसे चाय खत्म की तो भोंपू आ गया।

"चलो चलो... डॉक्टर साब आ गए... इलाज का समय हो गया..." भोंपू ने नाटकीय ढंग से कहा।

मैं उठने लगी तो मेरे कन्धों पर हाथ रखकर मुझे वापस बिठा दिया।

"अरे... तुम्हारे पांव और घुटने में चोट है... इन पर ज़ोर मत डालो... मैं हूँ ना !"

और उसने मुझे अपनी बाहों में उठा लिया... मैंने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डाल दी... उसने मुझे अपने शरीर के साथ चिपका लिया और मेरे कमरे की तरफ चलने लगा।

"बड़ी खुशबू आ रही है... क्या बात है?"

"मैं तो नहाई हूँ... तुम नहाये नहीं क्या?"

"नहीं... सोचा था तुम नहला दोगी !"

"धत्त... बड़े शैतान हो !"

"नहीं... बच्चा हूँ !"

"हरकतें तो बच्चों वाली नहीं हैं !!"

"तुम्हें क्या पता... ये हरकतें बच्चों के लिए ही करते हैं..."

"मतलब?... उफ़... तुमसे तो बात भी नहीं कर सकते...!!" मैंने उसका मतलब समझते हुए कहा।

उसने मुझे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया।

"कल कैसा लगा?"

"तुम बहुत शैतान हो !"

"शैतानी में ही मज़ा आता है ! मुझे तो बहुत आया... तुम्हें?"

"चुप रहो !"

"मतलब बोलूँ नहीं... सिर्फ काम करूँ?"

"गंदे !" मैंने मुंह सिकोड़ते हुए कहा और बिस्तर पर बैठ गई।

"ठीक है... मैं गरम पानी लेकर आता हूँ।"

भोंपू रसोई से गरम पानी ले आया। तौलिया मैंने बिस्तर पर पहले ही रखा था। उसने मुझे बिस्तर के एक किनारे पर पीठ के बल लिटा दिया और मेरे पांव की तरफ बिस्तर पर बैठ गया। उसके दोनों पांव ज़मीं पर टिके थे और उसने मेरे दोनों पांव अपनी जाँघों पर रख लिए। अब उसने गरम तौलिए से मेरे दोनों पांव को पिंडलियों तक साफ़ किया। फिर उसने अपनी जेब से दो ट्यूब निकालीं और उनको खोलने लगा। मैंने अपने आपको अपनी कोहनियों पर ऊँचा करके देखना चाहा तो उसने मुझे धक्का देकर वापस धकेल दिया।

"डरो मत... ऐसा वैसा कुछ नहीं करूँगा... देख लो एक विक्स है और दूसरी क्रीम... और अपना दुपट्टा मुझे दो।"

मैंने अपना दुपट्टा उसे पकड़ा दिया।

उसने मेरे चोटिल घुटने पर गरम तौलिया रख दिया और मेरे बाएं पांव पर विक्स और क्रीम का मिश्रण लगाने लगा। पांव के ऊपर, तलवे पर और पांव की उँगलियों के बीच में उसने अच्छी तरह मिश्रण लगा दिया। मुझे विक्स की तरावट महसूस होने लगी। मेरे जीवन की यह पहली मालिश थी। बरसों से थके मेरे पैरों में मानो हर जगह पीड़ा थी... उसकी उँगलियाँ और अंगूठे निपुणता से मेरे पांव के मर्मशील बिंदुओं पर दबाव डाल कर उनका दर्द हर रहे थे। कुछ ही मिनटों में मेरा बायाँ पांव हल्का और स्फूर्तिला महसूस होने लगा।कुछ देर और मालिश करने के बाद उस पांव को मेरे दुपट्टे से बाँध दिया और अब दाहिने पांव पर वही क्रिया करने लगा।

"इसको बांधा क्यों है?" मैंने पूछा।

"विक्स लगी है ना बुद्धू... ठण्ड लग जायेगी... फिर तेरे पांव को जुकाम हो जायेगा !!" उसने हँसते हुए कहा।

"ओह... तुम तो मालिश करने में तजुर्बेकार हो !"

"सिर्फ मालिश में ही नहीं... तुम देखती जाओ... !"

"गंदे !!"

"मुझे पता है लड़कियों को गंदे मर्द ही पसंद आते हैं... हैं ना?"

"तुम्हें लड़कियों के बारे बहुत पता है?"

"मेरे साथ रहोगी तो तुम्हें भी मर्दों के बारे में सब आ जायेगा !!"

"छी... गंदे !!"

kramashah.........................

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Re: जवानी की दहलीज

Post by 007 »

जवानी की दहलीज-3

उसने दाहिना पांव करने के बाद मेरा दुपट्टा उस पांव पर बाँध दिया और घुटने पर दोबारा एक गरम तौलिया रख दिया। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। अब वह उठा और उसने मेरे दोनों पांव बिस्तर पर रख दिए और उनको एक चादर से ढक दिया। भोंपू अपनी कुर्सी खींच कर मेरे सिरहाने पर ले आया, वहाँ बैठ कर उसने मेरा सर एक और तकिया लगा कर ऊँचा किया और मेरे सर की मालिश करने लगा। मुझे इसकी कतई उम्मीद नहीं थी। उसकी उँगलियाँ मेरे बालों में घूमने लगीं और धीरे धीरे उसने अपना हुनर मेरे माथे और कपाल पर दिखाना शुरू किया। वह तो वाकई में उस्ताद था। उसे जैसे मेरी नस नस से वाकफियत थी। कहाँ दबाना है... कितना ज़ोर देना है... कितनी देर तक दबाना है... सब आता है इसको।

मैं बस मज़े ले रही थी... उसने गर्दन के पीछे... कान के पास... आँखों के बीच... ऐसी ऐसी जगहों पर दबाव डाला कि ज़रा ही देर में मेरा सर हल्का लगने लगा और सारा तनाव जाता रहा। अब वह मेरे गालों, ठोड़ी और सामने की गर्दन पर ध्यान देने लगा। मेरी आँखें बंद थीं... मैंने चोरी से एक आँख खोल कर उसे देखना चाहा... देखा वह अपने काम में तल्लीन था... उसकी आँखें भी बंद थीं। मुझे ताज्जुब भी हुआ और उस पर गर्व भी... मैंने भी अपनी आँखें मूँद लीं।

अब उसके हाथ मेरे कन्धों पर चलने लगे थे। उसने मेरी गर्दन और कन्धों पर जितनी गांठें थीं सब मसल मसल कर निकाल दीं...

जहाँ जहाँ उसकी मालिश खत्म हो रही थी, वहां वहां मुझे एक नया हल्कापन और स्फूर्ति महसूस हो रही थी।

अचानक वह उठा और बोला,"मैं पानी पीने जा रहा हूँ... तुम ऊपर के कपड़े उतार कर उलटी लेट जाओ।"

मेरी जैसे निद्रा टूट गई... मैं तन्मय होकर मालिश का मज़ा ले रही थी... अचानक उसके जाने और इस हुक्म से मुझे अचम्भा सा हुआ। हालाँकि, अब मुझे भोंपू से थोड़ा बहुत लगाव होने लगा था और उसकी जादूई मालिश का आनन्द भी आने लगा था... पर उसके सामने ऊपर से नंगी होकर लेटना... कुछ अटपटा सा लग रहा था। फिर मैंने सोचा... अगर भोंपू को मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा काम करना होता तो अब तक कर चुका होता... वह इतनी बढ़िया मालिश का सहारा नहीं लेता।

तो मैंने मन बना लिया... जो होगा सो देखा जायेगा... इस निश्चय के साथ मैंने अपने ऊपर के सारे कपड़े उतारे और औंधी लेट गई... लेट कर मैंने अपने ऊपर एक चादर ले ली और अपने हाथ अपने शरीर के साथ समेट लिए... मतलब मेरे बाजू मेरे बदन के साथ लगे थे और मेरे हाथ मेरे स्तन के पास रखे थे। मैं थोड़ा घबराई हुई थी... उत्सुक थी कि आगे क्या होगा... और मन में हलचल हो रही थी।

इतने में ही भोंपू वापस आ गया। वह बिना कुछ कहे बिस्तर पर चढ़ गया और जैसे घोड़ी पर सवार होते हैं, मेरे कूल्हे के दोनों ओर अपने घुटने रख कर मेरे कूल्हे पर अपने चूतड़ रखकर बैठ गया। उसका वज़न पड़ते ही मेरे मुँह से आह निकली और मैं उठने को हुई तो उसने अपना वज़न अपने घुटनों पर ले लिया... साथ ही मेरे कन्धों को हाथ से दबाते हुए मुझे वापस उल्टा लिटा दिया।

अब उसने मेरे ऊपर पड़ी हुई चादर मेरी कमर तक उघाड़ दी और उसे अपने घुटनों के नीचे दबा दिया। मैं डरे हुए खरगोश की तरह अपने आप में सिमटने लगी।

"अरे डरती क्यों है... तेरी मर्ज़ी के बिना मैं कुछ नहीं करूँगा, ठीक है?"

मैंने अपना सर हामी में हिलाया।

"आगे का इलाज कराना है?" उसने इलाज शब्द पर नाटकीय ज़ोर देते हुए पूछा।

मैंने फिर से सर हिला दिया।

"ऐसे नहीं... बोल कर बताओ..." उसने ज़ोर दिया।

"ठीक है... करवाना है" मैं बुदबुदाई।

"ठीक है... तो फिर आराम से लेटी रहो और मुझे अपना काम करने दो।" कहते हुए उसने मेरे दोनों हाथ मेरी बगल से दूर करते हुए ऊपर कर दिए। मुझे लगा मेरे स्तनों का कुछ हिस्सा मेरी बगल की दोनों ओर से झलक रहा होगा। मुझे शर्म आने लगी और मैंने आँखें बंद कर लीं।

उसने अपने हाथ रगड़ कर गरम किये और मेरे कन्धों और गर्दन को मसलना शुरू किया। मेरा शरीर तना हुआ था।

"अरे... इतनी टाईट क्यों हो रही हो... अपने आप को ढीला छोड़ो !" भोंपू ने मेरे कन्धों पर हल्की सी चपत लगाते हुए कहा।

मैंने अपने आप को ढीला छोड़ने की कोशिश की।

"हाँ... ऐसे... अब आराम से लेट कर मज़े लो !"

उसके बड़े और बलिष्ठ हाथ मेरी पीठ, कन्धों और बगल पर चलने लगे। उसका शरीर एक लय में आगे पीछे होकर उसके हाथों पर वज़न डाल रहा था। वैसे तो उसने अपना वज़न अपने घुटनों पर ले रखा था पर उसके ढूंगे मेरे नितम्बों पर लगे हुए थे... जब वह आगे जाते हुए ज़ोर लगा कर मेरी पीठ को दबाता था तो मेरे अंदर से ऊऊह निकल जाती... और जब पीठ पर उँगलियों के जोर से पीछे की ओर आता तो मेरी आह निकल जाती। मतलब वह लय में मालिश कर रहा था और मैं उसी लय में ऊऊह–आह कर रही थी...

अब उसने कुछ नया किया... अपने दोनों हाथ फैला कर मेरे कन्धों पर रखे और अपने दोनों अंगूठे मेरी रीढ़ की हड्डी की दरार पर रख कर उसने अंगूठों से दबा दबा कर ऊपर से नीचे आना शुरू किया... ऐसा करते वक्त उसकी फैली हुई उँगलियाँ मेरे बगल को गुदगुदा सी रही थीं। वह अपने अंगूठों को मेरी रीढ़ की हड्डी के बिलकुल नीचे तक ले आया और वहाँ थोड़ा रुक कर वापस ऊपर को जाने लगा।थोड़ा ऊपर जाने के बाद उसकी उँगलियों के सिरे मेरे पिचके हुए स्तनों के बाहर निकले हिस्सों को छूने लगे। मुझे बहुत गुदगुदी हुई। मैं सिहर गई और सहसा उठने लगी... उसने मुझे दबा कर फिर से लिटा दिया। वह मेरे शरीर पर अपना पूरा अधिकार सा जता रहा था... मुझे बहुत अच्छा लगा।

अब उसने अपनी दोनों हथेलियाँ जोड़ कर उँगलियाँ फैला दीं और मेरी पीठ पर जगह जगह छोटी उंगली की ओर से मारना शुरू किया। पहले छोटी उँगलियाँ लगतीं और फिर बाकी उँगलियाँ उनसे मिल जातीं... ऐसा होने पर दड़ब दड़ब आवाज़ भी आती... उसने ऐसे ही वार मेरे सर पर भी किये।

बड़ा अच्छा लग रहा था। फिर अपने दोनों हाथों की मुठ्ठियाँ बना कर मेरी पीठ पर इधर-उधर मारने लगा... कभी हल्के तो कभी ज़रा ज़ोर से। इसमें भी मुझे मजा आ रहा था। अब जो उसने किया इसका मुझे बिल्कुल अंदेशा नहीं था। वह आगे को झुका और अपने होटों से उसने मेरी गर्दन से लेकर बीच कमर तक रीढ़ की हड्डी पर पुच्चियाँ की कतार बना दी।

मैं भौचक्की हो गई पर बहुत अच्छा भी लगा।

"ओके, अब सीधी हो जाओ।" कह कर वह मेरे कूल्हों पर से उठ गया।

"ऊंह... ना !" मैंने इठलाते हुए कहा।

"क्यों?... क्या हुआ?"

"मुझे शर्म आती है।"

"मतलब तुम्हें बाकी इलाज नहीं करवाना?"

"करवाना तो है पर..."

"पर क्या?"

"तुम्हें आँखें बंद करनी होंगी।"

"ठीक है... पर मेरी भी एक शर्त है !!"

"क्या?"

"मैं आँखें बंद करके तुम्हारे पूरे बदन की मालिश करूँगा... मंज़ूर है?"

"ठीक है।"

"पूरे बदन का मतलब समझती हो ना? बाद में मत लड़ना... हाँ?"

"हाँ बाबा... समझ गई।" मेरे मन में खुशी की लहर दौड़ गई पर मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।

"तो ठीक है... मैं तुम्हारे दुपट्टे को अपनी आँखों पर बाँध लेता हूँ।" और मैंने देखा वह बिस्तर के पास खड़ा हो कर दुपट्टा अपनी आँखों पर बाँध रहा था।

"हाँ... तो मैंने आँखों पर पट्टी बाँध ली है... अब तुम पलट जाओ।"

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Re: जवानी की दहलीज

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मैंने यकीन किया कि उसकी आँखें बंधी हैं और मैं पलट गई। वह अपने हाथ आगे फैलाते हुए हुआ बिस्तर के किनारे तक आया। उसके घुटने बिस्तर को लगते ही उसने अपने हाथ नीचे किये और मुझे टटोलने लगा। मुझे उसे देख देखकर ही गुदगुदी होने लगी थी। उसका एक हाथ मेरी कलाई और एक मेरे पेट को लगा। पेट वाले हाथ को वह रेंगा कर नीचे ले गया और मेरे घाघरे के नाड़े को टटोलने लगा। मेरी गुदगुदी और कौतूहल का कोई ठिकाना नहीं था। मैं इधर उधर हिलने लगी। मैं नाड़े के किनारों को घाघरे के अंदर डाल कर रखती हूँ... उसकी उँगलियों को नाड़े की बाहरी गाँठ तो मिल गई पर नाड़े का सिरा नहीं मिला... तो उसने अपनी उँगलियाँ घाघरे के अंदर डालने की कोशिश की।

"ये क्या कर रहे हो?" मैंने अपना पेट अकड़ाते हुए पूछा।

"तुम मेरी शर्त भूल गई?"

"मुझे अच्छी तरह याद है... तुम बंद आँखों से मेरे पूरे बदन पर मालिश करोगे।"

"तो करने दो ना..."

"इसके लिए कपड़े उतारने पड़ेंगे?" मैंने वास्तविक अचरज में पूछा।

"और नहीं तो क्या... मालिश कपड़ों की थोड़े ही करना है... अब अपनी बात से मत पलटो।" कहते हुए उसने घाघरे में उँगलियाँ डाल दी और नाड़ा खोलने लगा। मेरी गुदगुदी और तीव्र हो गई... मैं कसमसाने लगी। भोंपू भी मज़े ले ले कर घाघरे का नाड़ खोलने लगा...उसकी चंचल उँगलियाँ मेरे निचले पेट पर कुछ ज्यादा ही मचल रही थीं। हम दोनों उत्तेजित से हो रहे थे... मुझे अपनी योनि में तरावट महसूस होने लगी।

"तुम बहुत गंदे हो !" कहकर मैं निढाल हो गई। उसकी उँगलियों का खेल मेरे पेट पर गज़ब ढा रहा था। उसने मेरे घाघरे के अंदर पूरा हाथ घुसा ही दिया और नाड़ा बाहर निकाल कर खोल दिया। नाड़ा खुलते ही उसने एक हाथ मेरे कूल्हे के नीचे डाल कर उसे ऊपर उठा दिया और दूसरे हाथ से मेरा घाघरा नीचे खींच दिया और मेरी टांगों से अलग कर दिया। मुझे बहुत शर्म आ रही थी... मेरी टांगें अपने आप ज़ोर से जुड़ गई थीं... मेरे हाथ मेरी चड्डी पर आ गए थे और मैंने घुटने मोड़ कर अपनी छाती से लगा लिए। भोंपू ने घाघरा एक तरफ करके जब मुझे टटोला तो उसे मेरी नई आकृति मिली। वह बिस्तर पर चढ़ गया और उसने बड़े धीरज और अधिकार से मुझे वापस औंधा लिटा दिया। वह भी वापस से मुझ पर 'सवार' हो गया और अपने हाथों को पोला करके मेरी पीठ पर फिराने लगा। मेरे रोंगटे खड़े होने लगे। अब उसने अपने नाखून मेरी पीठ पर चलाने शुरू किये... पूरी पीठ को खुरचा और फिर पोली हथेलियों से सहलाने लगा। मुझे बहुत आनन्द आ रहा था... योनि पुलकित हो रही थी और खुशी से तर हो चली थी।

अब वह थोड़ा नीचे सरक गया और अपनी मुठ्ठियों से मेरे चूतड़ों को गूंथने लगा। जैसे आटा गूंदते हैं उस प्रकार उसकी मुठ्ठियाँ मेरे कूल्हों और जाँघों पर चल रही थीं। थोड़ा गूंथने के बाद उसने अपनी पोली उँगलियाँ चलानी शुरू की और फिर नाखूनों से खुरचने लगा। मुझ पर कोई नशा सा छाने लगा... मेरी टांगें अपने आप थोड़ा खुल गईं। उसने आगे झुक कर मेरे चूतड़ों के दोनों गुम्बजों को चूम लिया और मेरी चड्डी की इलास्टिक को अपने दांतों में पकड़ कर नीचे खींचने लगा।

ऊ ऊ ऊ ऊह... भोंपू ये क्या कर रहा है? कितना गन्दा है? मैंने सोचा। उसकी गरम सांस मेरे चूतड़ों में लग रही थी। पर वह मुँह से चड्डी नीचे करने में सफल नहीं हो रहा था। चड्डी वापस वहीं आ जाती थी। पर वह मानने वाला नहीं था। उसने भी एक बार ज़ोर लगा कर चड्डी को एक चूतड़ के नीचे खींच लिया और झट से दूसरा हिस्सा मुँह में पकड़ कर दूसरे चूतड़ के नीचे खींच लिया। अपनी इस सफलता का इनाम उसने मेरे दोनों नग्न गुम्बजों को चूम कर लिया और फिर धीरे धीरे मेरी चड्डी को मुँह से खींच कर पूरा नीचे कर दिया। चड्डी को घुटनों तक लाने के बाद उसने अपने हाथों से उसे मेरी टांगों से मुक्त करा दिया।

हाय ! अब मैं पूरी तरह नंगी थी। शुक्र है उसकी आँखों पर पट्टी बंधी है।

भोंपू ने और कुछ देर मेरी जाँघों और चूतड़ों की मालिश की। उसकी उँगलियाँ और अंगूठे मेरी योनि के बहुत करीब जा जा कर मुझे छेड़ रहे थे। मेरे बदन में रोमांच का तूफ़ान आने लगा था। मेरी योनि धड़क रही थी... योनि को उसकी उँगलियों के स्पर्श की लालसा सी हो रही थी... वह मुझे सता क्यों रहा था? यह मुझे क्या हो रहा है? मेरे शरीर में ऐसी हूक कभी नहीं उठी थी... मुझे मेरी योनि द्रवित होने का अहसास हुआ... हाय मैं मर जाऊँ... भोंपू मेरे बारे में क्या सोचेगा ! मैंने अपनी टांगें भींच लीं।

भोंपू को शायद मेरी मनोस्थिति का आभास हो गया था... उसने आगे झुक कर मेरे सर और बालों में प्यार से हाथ फिराया और एक सांत्वना रूपी चपत मेरे कंधे पर लगाई... मानो मुझे भरोसा दिला रहा था।

मैंने अपने आप को संभाला... आखिर मुझे भी मज़ा आ रहा था... एक ऐसा मज़ा जो पहले कभी नहीं आया था... और जो कुछ हो रहा था वह मेरी मंज़ूरी से ही तो हो रहा था। भोंपू कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं कर रहा था। इस तरह मैंने अपने आप को समझाया और अपने शरीर को जितना ढीला छोड़ सकती थी, छोड़ दिया। भोंपू ने एक और पप्पी मेरी पीठ पर लगाई और मेरे ऊपर से उठ गया।

"एक मिनट रुको... मैं अभी आया !" भोंपू ने मुझे चादर से ढकते हुए कहा और चला गया। जाते वक्त उसने अपनी आँखें खोल ली थीं।

कोई 3-4 मिनट बाद मुझे बाथरूम से पानी चलने की आवाज़ आई और वह वापस आ गया। उसके हाथ में एक कटोरी थी जो उसने पास की कुर्सी पर रख दी और बिस्तर के पास आ कर अपनी आँखों पर दुपट्टा बाँध लिया।

मैंने चोरी नज़रों से देखा कि उसने अपनी कमीज़ उतार कर एक तरफ रख दी। उसकी चौड़ी छाती पर हल्के हल्के बाल थे। अब उसने अपनी पैन्ट भी उतार दी और वह केवल अपने कच्छे में था। मेरी आँखें उसके कच्छे पर गड़ी हुई थीं। उसकी तंदरुस्त जांघें और पतला पेट देख कर मेरे तन में एक चिंगारी फूटी। उसका फूला हुआ कच्छा उसके अंदर छुपे लिंग की रूपरेखा का अंदाजा दे रहा था। मेरे मन ने एक ठंडी सांस ली।

मैं औंधी लेटी हुई थी... उसने मेरे ऊपर से चादर हटाई और पहले की तरह ऊपर सवार हो गया। उसने मेरी पीठ पर गरम तेल डाला और अपने हाथ मेरी पीठ पर दौड़ाने लगा। बिना किसी कपड़े की रुकावट से उसके हाथ तेज़ी से रपट रहे थे। उसने अपने हथेलियों की एड़ी से मेरे चूतड़ों को मसलना और गूंदना शुरू किया... उसके अंगूठे मेरे चूतड़ों की दरार में दस्तक देने लगे। भोंपू बहुत चतुराई से मेरे अंगों से खिलवाड़ कर रहा था... मुझे उत्तेजित कर रहा था।

अब उसने अपना ध्यान मेरी टांगों पर किया। वह मेरे कूल्हों पर घूम कर बैठ गया जिससे उसका मुँह मेरे पांव की तरफ हो गया। उसने तेल लेकर मेरी टांगों और पिंडलियों पर लगाना शुरू किया और उनकी मालिश करने लगा। कभी कभी वह अपनी पोली उँगलियाँ मेरे घुटनों के पीछे के नाज़ुक हिस्से पर कुलमुलाता... मैं विचलित हो जाती।

अब उसने एक एक करके मेरे घुटने मोड़ कर मेरे तलवों पर तेल लगाया। मेरे दाहिने तलवे को तो उसने बड़े प्यार से चुम्मा दिया। शायद वह कल की मालिश का शुक्रिया अदा कर रहा था !! मेरे तलवों पर उसकी उँगलियों मुझे गुलगुली कर रही थीं जिससे मैं कभी कभी उचक रही थी। उसने मेरे पांव की उँगलियों के बीच तेल लगाया और उनको मसल कर चटकाया। मैं सातवें आसमान की तरफ पहुँच रही थी।

उसने आगे की ओर पूरा झुक कर मेरे दोनों चूतड़ों को एक एक पप्पी कर दी और पोले हाथों से उनके बीच की दरार में उंगली फिराने लगा।

बस... न जाने मुझे क्या हुआ... मेरा पूरा बदन एक बार अकड़ सा गया और फिर उसमें अत्यंत आनन्ददायक झटके से आने लगे... पहले 2-3 तेज़ और फिर न जाने कितने सारे हल्के झटकों ने मुझे सराबोर कर दिया... मैं सिहर गई .. मेरी योनि में एक अजीब सा कोलाहल हुआ और फिर मेरा शरीर शांत हो गया।

इस दौरान भोंपू ने अपना वज़न मेरे ऊपर से पूरी तरह हटा लिया था। मेरे शांत होने के बाद उसने प्यार से अपना हाथ मेरी पीठ पर कुछ देर तक फिराया। मेरे लिए यह अभूतपूर्व आनन्द का पहला अनुभव था।

थोड़ी देर बाद भोंपू ने दोनों टांगों और पैरों की मालिश पूरी की और वह अपनी जगह बैठे बैठे घूम गया। मेरे पीछे के पूरे बदन पर तेल मालिश हो चुकी थी। उसने उकड़ू हो कर अपने आप को ऊपर उठाया और मेरे कूल्हे पर थपथपाते हुए मुझे पलट कर सीधा होने के लिए इशारा किया।

मैं झट से सीधी हो गई। वह एक बार फिर घूम कर मेरे पैरों की तरफ मुँह करके घुटनों के बल बैठ गया और तेल लगा कर मेरी टांगों की मालिश करने लगा। पांव से लेकर घुटनों के थोड़ा ऊपर तक उसने खूब हाथ चलाये। फिर वह थोड़ा पीछे खिसक कर मेरे पेट के बराबर घुटने टेक कर बैठ गया और उसने मेरी जाँघों पर तेल लगाना शुरू किया।

अब मुझे बहुत गुदगुदी होने लगी थी और मैं बेचैन होकर हिलने लगी थी। उसने मेरी टांगों को थोड़ा सा खोला और और जांघों के अंदरूनी हिस्से पर तेल लगाने लगा... उसके अंगूठे मेरे योनि के इर्द-गिर्द बालों के झुरमुट को छूने लगे थे... पर उसने मेरी योनि को नहीं छुआ... मेरी योनि से पानी पुनः बहने लगा था... उसके हाथ बड़ी कुशलता से मेरी योनि से बच कर निकल रहे थे।

मेरी व्याकुलता और बढ़ रही थी। अब मेरा जी चाह रहा था कि वह मेरी योनि में ऊँगली डाले। जब उसका अंगूठा या उंगली मेरी योनि के पास आती तो मैं अपने आप को हिला कर उसे अपनी योनि के पास ले जाने की कोशिश करती... पर वह होशियार था। उसे लड़की को सताना और बेचैन करना अच्छे से आता था।

कुछ देर मुझे इस तरह तड़पा कर उसने घूम कर मेरी तरफ मुँह कर लिया। वह मेरे पेट के ऊपर ही उकड़ू बैठा था। मैंने देखा कि उसका कच्छा बुरी तरह तना हुआ है। उसने हाथ में तेल लेकर मेरे स्तनों पर लगाया और उन्हें सहलाने लगा... सहला सहला कर उसने तेल पूरे स्तनों पर लगा दिया और फिर अपनी दोनों हथेलियाँ सपाट करके मेरे निप्पलों पर रख उन्हें गोल गोल घुमाने लगा। मेरे स्तन उभरने और निप्पल अकड़ने लगे। थोड़ी ही देर में निप्पल बिल्कुल कड़क हो गए तो उसने अपनी दोनों हथेलियों से मेरे मम्मों को नीचे दबा दिया। मुझे लगा मेरे निप्पल उसकी हथेलियों में गड़ रहे हैं।

अब वह मज़े ले ले कर मेरे मम्मों से खेल रहा था। मैं जैसे तैसे अपने आप को मज़े में उचकने से रोक रही थी। उसके बड़े बड़े मर्दाने हाथ मेरे नाज़ुक स्तनों को बहुत अच्छे लग रहे थे। कभी कभी मेरा मन करता कि वह उन्हें और ज़ोर से दबाए। पर वह बहुत ध्यान से उनका मर्दन कर रहा था।

भोंपू अब थोड़ा पीछे की ओर सरका और अपने चूतड़ मेरी जाँघों के ऊपर कर लिए। उसने अपने घुटनों और नीचे की टांगों पर अपना वज़न लेते हुए अपने ढूंगे मेरी जाँघों पर टिका दिए। इस तरह अपना कुछ वज़न मेरी जांघों पर छोड़ कर शायद उसे कुछ राहत मिली। वह काफी देर से उकड़ू बैठा हुआ था... उसके मुँह से एक गहरी सांस छूट गई।

kramashah.........................

कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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