संघर्ष

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rajaarkey
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Re: संघर्ष

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संघर्ष--21

दुकान पर पहुचने के बाद सावित्री काफ़ी राहत महसूस की. मन मे उन आवारों को गलियाँ भी दी. और फिर दुकान मे बैठ कर रोज़ की तरह कुच्छ बेच्वाली भी की. फिर दोपहर हो गया और दुकान को पंडित जी बंद कर के पीछे वाले कमरे मे आ गये और सावित्री भी अपनी चटाई ले कर दुकान वाले हिस्से मे चली गयी. दोपहर होते ही सावित्री के बुर मे खुजली होने लगी. चटाई मे लेटे लेटे अपनी सलवार के उपर से ही बुर को सहलाया और खुजलाया. मन मस्ती से भर गया. रात मे ज़्यादे ना सो पाने के वजह से उसे भी नीद लग गयी. पंडित जी करीब एक घंटे आराम करने के बाद उठे और पेशाब करने के बाद सावित्री को हल्की आवाज़ दी लेकिन सावित्री को नीद मे होने के वजह से सोई रह गयी. दुबारा पंडित जी ने तेज आवाज़ लगाई तब सावित्री की नीद खुली और हड़बड़ा कर उठी और अपने दुपट्टे को अपनी चुचिओ पर ठीक करते हुए दुकान के अंदर वाले हिस्से मे आई तो देखी की पंडित जी चौकी पर बैठे उसे घूर रहे थे. पंडित जी ने कहा "रात मे सोई नही थी क्या...जा मूत कर आ " सावित्री कुच्छ पल वैसे ही खड़ी रही फिर पेशाब करने चली गयी. सवत्री की बुर मे भी खुजली अब तेज हो गयी थी. लंड का स्वाद मिल जाने की वजह से अब उसे चुड़ाने की इच्छा काफ़ी ज़्यादा हो गयी थी.

पेशाब करने के बाद सावित्री चटाई को पिच्छले दिन की तरह चौकी के बगल मे बिच्छा दी और खड़ी हो कर नज़रें झुका ली. पंडित जी ने उसकी ओर देखते हुए मुस्कुराया और बोले "आज मैं तुमको चटाई पर नही बल्कि अपनी चौकी पर चोदुन्गा....अब तेरे साथ मैं कोई उँछ नीच या बड़े छ्होटे का भेदभाव नही करूँगा...." फिर आगे बोले "अरे मैं क्या बड़े बड़े महात्मा तुम्हारी जवानी के सामने घुटने टेक देंगे....सच सावित्री तुम बहुत गरम हो" इतना कह कर सावित्री को अपने चौकी पर लगे बिस्तर पर आने का इशारा किया. सावित्री के कान मे ऐसी बात पड़ते ही उसे विश्वास नही हो रहा था. उसकी बुर मे खुजली अब धीरे धीरे तेज हो रही थी लेकिन पंडित जी से इतना सम्मान पा कर उसका मन झूम उठा. उसे फिर याद आया की उसकी बुर की कितनी कीमत है. पंडित जी सावित्री का बाँह पकड़ कर चौकी पर खेंच लिए और सावित्री भी चौकी पर चढ़ कर बैठ गयी अगले पल पंडित जी सावित्री को लेटा कर उसके उपर चढ़ गये और अपने नीचे दबा दिया. धोती के उपर से ही लंड का दबाव सावित्री के सलवार पर पड़ने लगा और पंडित जी समीज़ के उपर से ही सावित्री की बड़ी बड़ी चुचिओ से खेलने लगे.

थोड़ी देर मे दोनो एकदम नंगे हो गये और पंडित जी रोज़ की तरह सावित्री की झांतों से भरी बुर को जम कर चटा और सावित्री भी उनके लंड को मन लगाकर चूसी. सावित्री चुदने के लिए काफ़ी बेताब थी. वह बार बार पंडित जी के लंड को बुर मे लेने के लिए इशारा कर रही थी. पंडित जी भी सही मौका देख कर लंड को बुर के मुँह पर लगाकर चॅंप दिया और लंड करीब आधा अंदर घूसा ही था की दुकान के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. पंडित जी के कान मे दोपहर के समय दुकान पर किसी के दस्तक की आवाज़ सुनते ही चौंक से गये और लंड को सावित्री के बुर मे डाले वैसे ही पड़े रहे. तभी दुबारा दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई.

पंडित जी को बहुत गुस्सा आया और लंड को सावित्री के बुर से खींच कर बाहर निकाले तो सावित्री को भी अच्छा नही लगा. अचानक दोपहर मे किसी के आ जाने से सावित्री भी डर सी गयी और चौकी पर से उतर कर अपने कपड़े पहनने के लिए लपकी तो पंडित जी ने सावित्री से काफ़ी धीरे से कहा "कपड़े मत पहन ऐसे ही रह मैं उसको दुकान के बाहर से ही वापस कर दूँगा लगता है कोई परिचित ग्राहक है. उसके जाते ही मज़ा लिया जाएगा" पंडित जी एक तौलिया लपेट कर दुकान वाले हिस्से मे आ गये और बीच के पर्दे को ठीक कर दिया ताकि दुकान का दरवाज़ा खुलने पर दुकान के अंदर वाले हिस्से मे दिखाई ना दे जिसमे चौकी पर सावित्री एकदम नंगी ही बैठ कर पंडित जी को दुकान के दवाज़े के ओर जाते हुए देख कर समझने की कोशिस कर रही थी कि आख़िर दोपहर मे कौन आ गया है. और इतना करने मे पंडित जी का खड़ा लंड अब सिकुड़ने लगा था और तौलिया के उपर से अब मालूम नही दे रहा था.

पंडित जी यही सोच कर एक तौलिया लपेटे हुए दुकान के दरवाजे को धीरे से खोलकर देखना चाहा कि बाहर कौन दस्तक दे रहा है. लेकिन उनकी नज़र उस इंसान पर पड़ते ही पंडित जी को मानो लकवा मार दिया. वो और कोई नही बल्कि पंडित जी की धर्मपत्नी थी जो बड़ी बड़ी आँखे निकाल कर पंडित जी को खा जाने की नियत से घूर रही थी. पंडित जी के गले से एक भी शब्द निकल नही पाया और पंडिताइन ने पंडित जी को लगभग धकेलते हुए काफ़ी तेज़ी से दुकान के अंदर आई और अगले पल दुकान के अंदर वाले कमरे जिसमे सावित्री एकदम ही नंगी बैठ कर पर्दे की ओर ही देख रही थी कि आख़िर कौन आया है. पंडिताइन ने पर्दे को हटाते ही सावित्री को एकदम नंगे देख उनका गुस्सा आसमान पर चढ़ गया. इधेर एक दम से अवाक हो चुके पंडित जी ने दुकान का दरवाज़ा बंद कर के तुरंत पंडिताइन के पीछे पीछे अंदर वाले हिस्से मे आ गये पंडिताइन को देखते ही सावित्री को साँप सूंघ गया. पंडिताइन करीब 43 साल की एक गोरे रंग की करीब छोटे कद की औरत थी. और उन्हे मालूम था कि उनका पति भोला पंडित मौका देख कर बाहरी औरतों से बहुत मज़ा लूटते हैं. और नई लड़की के दुकान पर आने की खबर उन्हे लग चुकी थी और इसी चक्कर मे वह ठीक दोपहर के समय दुकान पर आ धमकी थी.

सावित्री पंडिताइन को देखते ही चौकी पर से कूद कर चटाई पर पड़े अपने कपड़ों की ओर लपकी लेकिन पंडिताईएन उन कपड़ों पर ही पैर रख कर खड़ी थी और कपड़े ना मिल पाने के वजह से सावित्री ने एक हाथ से अपनी दोनो चुचियाँ और दूसरे हाथ से अपनी झांतों से भरी बुर को धक लिया और आँखें झुका कर खड़ी हो गयी. कमरे मे एकदम सन्नाटा था पंडित जी भी कुच्छ नही बोल रहे थे. पंडिताइन गुस्से के वजह से आँखें निकाल कर कभी सावित्री के नंगे शरीर को देखती तो कभी पंडित जी की ओर देखती और हाँफ भी रही थी. अगले पल पंडिताइन चिल्ला पड़ी "तू कभी नही सुधरेगा.....रे....कुत्ता...मेरी को पूरी जिंदगी बर्बाद कर दू हरामी कहीं का.......हे भगवान मेरी तकदीर मे यही सब देखने को लिखा है....इस कुत्ते से कब नीज़ात मिलेगा भगवान..." इतना कह कर पंडिताइन रो पड़ी और और अपने दोनो हाथों से अपने चेहरे को ढक ली. कमरे मे पंडित जी और सावित्री दोनो एक दम शांत अपनी अपनी जगह पर खड़े थे.
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कमरे मे केवल पंडिताइन के रोने की आवाज़ आ रही थी पंडिताइन ने फिर कुच्छ सोचा और रोना कम करते हुए सावित्री के नंगे शरीर पर आँखे लाल लाल कर के देखी और सावित्री से पुच्हीं "अरी रंडी हरजाई बुर्चोदि तेरा क्या नाम है रे जो लंड के लिए यहाँ डेरा डाल ली है....किस रंडी की बुर से पैदा हुई है तू भोसड़ी कही की....तेरी बुर मे कीड़ा पड़ जाए जो तू इन बुढ्ढो का लंड लील रही है....बोल..." अब पंडिताईएन की आवाज़ तेज होने लगी और उनका शरीर भी गुस्से से काँपने लगा. सावित्री को मानो बिजली मार दी है और शरीर मे जान ही ना रह गयी हो. पंडिताईएन की आवाज़ और गाली कान मे पड़ते ही सावित्री एक दम से कांप गयी. पंडित जी भी अपनी पत्नी के ठीक पीछे चुपचाप खड़े थे और उन्हे भी अब कुच्छ बोलने की हिम्मत नही रह गयी थी. जब पंडिताइन ने गंदी गलिओं की बौच्हर कर दी तब सावित्री की घबराहट और बढ़ गयी लेकिन दूसरे पल पंडिताईएन ने सावित्री के मुँह पर एक जोरदार चॅटा जड़ दी. चाँते की आवाज़ पूरे कमरे मे गूँज उठी. सावित्री चाते का दर्द को कम करने के लिए चुचिओ पर का हाथ गाल पर ले जा कर सहलाने लगी. लेकिन पंडित जी ने कुच्छ भी नही बोले बल्कि पंडिताईएन का आक्रामक तेवर देखकर वो भी डर से गये. पंडिताइन ने अपने साड़ी के पल्लू को अपने कंधे से घुमाकर कमर मे खोस ली मानो कोई काम करने जा रही हों. सावित्री ऐसा देख कर समझ गयी कि पंडिताइन अब उसे बहुत मार मारेंगी. और वो भी डर के वजह से रोने लगी. फिर भी पंडितानी का आक्रामक तेवर मे कोई बदलाव नही आया और सावित्री पर टूट पड़ी. सावित्री के काले और लंबे बॉल को पकड़ कर काफ़ी ज़ोर से हिलाया की सावित्री दर्द के मारे चिल्ला उठी "आरी एम्मी म्‍मैइ बाअप हो राम रे माई......" और पंडिताइन ने थप्पाड़ों को बरसात कर दी. सावित्री एक दम नगी होने के वजह से थप्पड़ काफ़ी तेज लग रहे थे. और पंडिताइन ने गुस्से मे सावित्री के बॉल को इतनी ज़ोर से झकझोरा की नंगी सावित्री का पैर फिसला और चटाई पर गिर पड़ी. संयोग ठीक था की कहीं चोट नही आई लेकिन गिरने के बाद सावित्री का काला और बड़ा चूतड़ पंडिताइन के सामने दिखा और पंडिताइन ने उन दोनो चूतदों पर लातों से हमला बोल दिया. चूतड़ काफ़ी मांसल होने के नाते सावित्री को कोई बहुत चोट नही महसूस हो रही थी. और काले काले चूतदों पर लातों को मारते हुए पंडिताइन ने गुस्से मे गलियाँ बकने लेगीं "साली रंडी ...भैंस की तरह चूतड़ ली है और मोटा लंड खोजते इस दुकान तक आ पहुँची... तेरे को और कहीं लंड नही मिला रे हरजाई जो तू मेरा घर बर्बाद करने आ गई....तेरे को दुनिया मे लंड ही नही मिला ......भगवान तेरी बुर मे कितना आग लगा दी है रे जो तू इन बुढ्ढों को भी नहीं बक्ष रही है....तेरी बुर मे गधे का लंड पेल्वा दूं....बुर्चोदि..."

पंडिताइन से पीटते हुए सावित्री ने पाड़ित जी की ओर देखी जो चुपचाप खड़े थे और अपनी नज़रे दूसरी ओर फेर लिए. सावित्री समझ गयी की पंडित जी अपनी पत्नी से डर गये हैं और उसकी पिटाई ख़त्म ही नही होगी और सावित्री भी पीटते और गाली सुनते हुए काफ़ी गुस्से से भर गयी और अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया. तभी सावित्री के चूतादो वाला लात अब पीठ और चुचिओ पर पड़ने लगा. जो की सावित्री के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया और पंडिताइन जिस लात से चटाई मे गिर पड़ी सावित्री को मार रहीं थी, उसे सावित्री ने अपने हाथ से कस कर पकड़ कर अपनी ओर खींच दिया और पंडिताइन लड़खड़ा कर फर्श पर गिर पड़ी और वापस उठ कर सावित्री पर हमला करना चाहीँ की सावित्री पंडिताइन के उपर चढ़ गयी और उनके बॉल पकड़ ली और जबाव मे पंडिताइन ने भी सावित्री के बॉल पकड़ कर नोचने लगी. अब दोनो एक दूसरे से लगभग लिपट कर बाजने लगे और सावित्री का एकदम नंगा और मांसल गड्राया शरीर अब पंडिताइन पर भारी पड़ने लगी थी. सावित्री पंडिताईएन को मारना नही चाहती थी लेकिन जब वह पंडिताइन के उपर से हटना चाहती की पंडिताइन को मौका मिलता और सावित्री को मारना शुरू कर देती. सावित्री मार खाते ही फिर पंडिताईएन को फर्श पर पटकते हुए दबोच लेती और जबाव मे वह भी थप्पड़ चला देती. अब सावित्री खुल कर पंडिताईएन से बाजने लगी और अपने जीवन मे पहली बार किसी को पीट रही थी. आख़िर जब सावित्री डर को मन से निकाल कर खुल कर पंडिताईएन से भिड़ गयी तब 43 साल की पंडिताइन 18 साल की मांसल और मोटी ताजी सावित्री के पिटाई से मैदान छोड़ कर भागने लगी. लेकिन सावित्री को ज्योन्ी अपनी ताक़त का अहसास हुआ की वह एक शेरनी की तरह पंडिताइन पर टूट पड़ी. पंडित जी सावित्री को पंडिताइन पर भारी पड़ते देख अंदर ही अंदर काफ़ी खुश हो गये और खुद दुकान वाले हिस्से मे आकर पर्दे के आड़ से पंडिताइन को पीटते देखने लगे. सावित्री ने देखा की पंडित जी अब पर्दे की आड़ से पंडिताइन को पीटता देख रहे हैं तब समझ गयी की उनको ये देखना पसंद है और पंडिताइन पर पिटाई और तेज कर दी. कभी बॉल नोचती तो कभी पंडिताइन की कमर और चूतदों पर लात से मारती. और सावित्री उच्छल उछल कर पंडिताइन को मारती तब उसकी दोनो चुचियाँ और काले काले चूतड़ खूब हिलते जो पंडित जी पर्दे के आड़ से देख कर मस्त हो जाते. जवान और मांसल सावित्री से पंडिताइन का पिटना पंडित जी को पसंद था. वह चाहते थे कि इसकी पिटाई से पंडिताइन का बढ़ा हुआ हिम्मत पस्त हो जाए. वैसे वह खुद पंडिताइन से सीधे झगड़ा करना नही चाहते थे इसी कारण वह सावित्री को मना नही कर रहे थे. सावित्री की आँखें लाल हो चुकी थी पंडिताइन को लगा कि सावित्री अब जान ले लेगी तब गिड़गिडाना सुरू कर दी "आरे तुम मेरी बेटी की तरह हो ....अरे मत मारो...मैं मार जाउन्गि ...इसमे तो पंडित जी का ही कसूर है...मुझे जाने दो...मैं अब यहाँ से जा रही हूँ ....मुझे जाने दो.."

सावित्री का भी गुस्सा अब काफ़ी तेज हो गया था और गलिया दे डाली "अब तू बेटी कह रही हो बुर चोदि ...हरजाई ...मैं अब डरने वाली नही"

फिर पंडिताइन का बॉल पकड़ कर खड़ा कर दी और दुकान के तरफ धकेलते हुए सावित्री बोली "भाग जा यहाँ से रंडी ..नहीं तो मैं जान ले लूँगी" पंडिताइन ज्योन्हि दुकान वाले हिस्से मे जाने लगी कि सावित्री ने एक लात पंडिताइन के कमर पे मारी और पंडिताइन दुकान मे ही पंडित जी के सामने गिर पड़ी लेकिन पंडित जी कुच्छ सोचते की उसके पहले ही पंडिताइन अपने ही उठ खड़ी हुई और तेज़ी से दुकान का दरवाज़ा खोली और सीधे अपने घर की ओर भाग खड़ी हुई.

पंडित जी ने देखा की पंडिताइन का हिम्मत अब जबाव दे गया था और वह आँखों से ओझल हो चुकी थी. उन्होने दुकान का दरवाज़ा बंद किया और अंदर वाले हिस्से मे आए तो देखा की सावित्री लगभग हाँफ रही थी और अपने कपड़े पहनने जा रही थी. पंडित जी ने सावित्री का हाथ पकड़ते हुए कहा "अरे तुम तो बहुत बहादुर निकली...किस चक्की का आटा खाती है ....मैं जिस औरत से पूरी जिंदगी डरता रहा उसे तुमने सेकोंडों मे धूल चटा कर भगा दिया....साली मधेर्चोद को...बहुत अच्छा किया तुमने...बहुत क़ानून बोलती है...सारा क़ानून उसकी गांद मे चला गया" सावित्री ने कुच्छ सोचकर बोली "वो भी तो मुझे कितना मार मारी आप तो बस देख रहे थे उसे मना नही किया?" सावित्री के इस बात को सुनकर पंडित जी बोले "अरे अपनी पत्नी से बड़े बड़े लोग डरते हैं...मैं क्या चीज़ हूँ..लेकिन तुमने जो कुच्छ किया मैं बहुत खुश हूँ...." और पंडित जी आगे बढ़ कर सावित्री के नंगे बदन से लिपट गये. फिर बोले "पंडिताइन ने तुम्हे थप्पड़ और लात से पिटा तो मैं क्यों पीच्चे रहूं मैं भी तो तुम्हे पिटूँगा...." इतना सुन कर सावित्री सन्न रह गयी. लेकिन पंडित जी ने आगे बोला "अरे मैं तुम्हारी पिटाई आज इस मोटे लंड से करूँगा "
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Sangharsh--21

dukaan par pahuchane ke baad savitri kafi rahat mahsoos ki. man me un awaaron ko galian bhi di. aur fir dukaan me baith kar roz ki tarah kuchh bechwaali bhi ki. fir dopahar ho gayaa aur dukaan ko pandit ji band kar ke peeche wale kamare me aa gaye aur savitri bhi apni chataai le kar dukaan wale hisse me chali gayi. dopahar hote hi savitri ke bur me khujli hone lagi. chataai me lete lete apni salwaar ke upar se hi bur ko sahalaaya aur khujlaaya. man masti se bhar gayaa. raat me jyaade na so paane ke vajah se use bhi need lag gayi. pandit ji kareeb ek ghante aram karne ke baad uthe aur peshaab karne ke baad savitri ko halki awaaz di lekin savitri ko need me hone ke vajah se soyi rah gayi. dubaara pandit ji ne tej awaaj lagayi tab savitri ki need khuli aur hadbadaa kar uthi aur apne dupatte ko apni chuchion par theek karte huye dukaan ke andar wale hisse me aayi to dekhi ki pandit ji chauki par baithe use ghoor rahe the. pandit ji ne kahaa "raat me soi nahi thi kya...jaa mut kar aa " savitri kuchh pal vaise hi khadi rahi fir peshaab karne chali gayi. savtri ki bur me bhi khujli ab tej ho gayi thi. lund ka swaad mil jaane ki vajah se ab use chudaane ki ichha kafi jyada ho gayi thi.

peshaab karne ke baad savitri chataai ko pichhle din ki tarah chauki ke bagal me bichha di aur khadi ho kar nazren jhukaa li. pandit ji ne uski or dekhte huye muskuraya aur bole "aaj main tumko chataai par nahi balki apne chauki par chodunga....ab tere saath main koi unch neech ya bade chhote ka bhedbhav nahi karunga...." fir aage bole "are main kya bade bade mahatma tumhaari jawaani ke samne ghutne tek deknge....sach savitri tum bahut garam ho" itna kah kar savitri ko apne chauki par lage bistar par aane ka ishara kiya. savitri ke kaan me aisi baat padte hi use vishwaas nahi ho rahaa tha. uski bur me khujli ab dheere dheere tej ho rahi thi lekin pandit ji se itna samman paa kar uska man jhum utha. use fir yaad ayaa ki uski bur ki kitni keemat hai. pandit ji savitri ka baanh pakad kar chauki par khench liye aur savitri bhi chauki par chad kar baith gayi agle pal pandit ji savitri ko letaa kar uske upar chad gaye aur apne neeche dabaa diya. dhoti ke upar se hi lund ka dabaav savitri ke salwaar par padne lagaa aur pandit ji sameez ke upar se hi savitri ki badi badi chuchion se khelne lage.

thodi der me dono ekdam nange ho gaye aur pandit ji roz ki tarah savitri ki jhanton se bhari bur ko jam kar chata aur savitri bhi unke lund ko man lagaakar choosi. savitri chudne ke liye kafi betaab thi. vah baar baar pandit ji ke lund ko bur me lene ke liye ishara kar rahi thi. pandit ji bhi sahi mauka dekh kar lund ko bur ke munh par lagaakar champ diya aur lund kareeb adhaa ander ghoosaa hi tha ki dukaan ke darwaaje par kisi ne dastak dee. pandit ji ke kaan me dopahar ke samay dukaan par kisi ke dastak ki awaaz sunte hi chaunk se gaye aur lund ko savitri ke bur me daale vaise hi pade rahe. tabhi dubaaraa darwaaza khatkhataane ki awaaj aayi.

pandit ji ko bahut gussa aayaa aur lund ko savitri ke bur se kheench kar baahar nikaale to savitri ko bhi achha nahi lagaa. achanak dopahar me kisi ke aa jaane se savitri bhi dar see gayi aur chauki par se utar kar apne kapade pahnane ke liye lapaki to pandit ji ne savitri se kafi dheere se kahaa "kapade mat pahan aise hi rah main usako dukaan ke baahar se hi vapas kar dunga lagta hai koi parichit grahak hai. usake jaate hi mazaa liyaa jayega" pandit ji ek tauliya lapet kar dukaan wale hisse me aa gaye aur beech ke parde ko theek kar diya taaki dukaan ka darwaaza khulne par dukaan ke andar wale hisse me dikhaai na de jisme chauki par savitri ekdam nangi hi baith kar pandit ji ko dukaan ke dawaaze ke or jaate huye dekh kar samajhne ki koshis kar rahi thi ki akhir dopahar me kaun aa gayaa hai. aur itna karne me pandit ji ka khadaa lund ab sikudne lagaa tha aur taulia ke upar se ab maloom nahi de rahaa tha.

pandit ji yahi soch kar ek tauliya lapete huye dukaan ke darwaaje ko dheere se kholkar dekhna chaha ki bahar kaun dastak de rahaa hai. lekin unki nazar us insaan par padte hi pandit ji ko mano lakwaa maar diyaa. wo aur koi nahi balki pandit ji ki dharmpatni thi jo badi badi aankhe nikaal kar pandit ji ko khaa jaane ki niyat se ghur rahi thin. pandit ji ke gale se ek bhi shabd nikal nahi payaa aur panditaein ne pandit ji ko lagbhag dakelte huye kafi teji se dukaan ke ander aayi aur agle pal dukaan ke ander wale kamre jisme savitri ekdam hi nangi baith kar parde ki or hi dekh rahi thi ki akhir kaun aaya hai. panditaein ne parde ko hataate hi savitri ko ekdam nange dekh unka gussa asmaan par chad gayaa. idher ek dam se awaak ho chuke pandit ji ne dukaan ka darwaaza band kar ke turant panditaein ke peechhe peechhe ander wale hisse me aa gaye panditaein ko dekhte hi savitri ko samp sungh gayaa. panditaein kareeb 43 saal ki ek gore rang ki kareeb chote kad ki aurat thin. aur unhe maloom tha ki unka pati bhola pandit mauka dekh kar baahari aurton se bahut mazaa lootate hain. aur nai ladki ke dukaan par aane ki khabar unhe lag chuki thi aur isi chakkar me vah theek dopahar ke samay dukaan par aa dhamki thin.

savitri panditaein ko dekhte hi chauki par se kud kar chatai par pade apne kapdon ki or lapki lekin panditaien un kapadon par hi pair rakh kar khadi thin aur kapade na mil paane ke vajah se savitri ne ek haath se apni dono chuchian aur dusare haath se apni jhanton se bhari bur ko dhak lee aur ankhen jhukaa kar khadi ho gayi. kamare me ekdam sannata tha pandit ji bhi kuchh nahi bol rahe the. panditaein gusse ke vajah se aankhen nikaal kar kabhi savitri ke nange shareer ko dekhti to kabhi pandit ji ki or dekhti aur hanf bhi rahi thin. agle pal panditaein chilla padi "tu kabhi nahi sudharega.....re....kuttaa...meri ko puri jindagi barbaad kar du haraami kahin kaa.......he bhagwaan meri takdeer me yahi sab dekhne ko likhaa hai....is kutte se kab nizaat milga bhagwaan..." itna kah kar panitaein ro padi aur aur apne done hathon se apne chehre ko dhak lee. kamare me pandit ji aur savitri dono ek dam shant apni apni jagah par khade the. kamre me keval panditaien ke rone ki awaaz aa rahi thi panditaein ne fir kuchh sochaa aur rona kam karte huye savitri ke nange shareer par ankhe lal lal kar ke dekhi aur savitri se puchhin "aree randi harjaai burchodi tera kyaa naam hai re jo lund ke liye yahaan dera daal lee hai....kis randi ki bur se paida hui hai tu bhosadi kahi kee....teri bur me kida pad jaaye jo tu in budhhon ka lund leel rahi hai....bol..." ab panditaien ki awaaz tej hone lagi aur unka shareer bhi gusse se kampne lagaa. savitri ko mano bijli maar dee hai aur shareer me jaan hi na rah gayi ho. panditaien ki awaaz aur gaali kaan me padte hi savitri ek dam se kamp gayi. pandit ji bhi apni patni ke theek peechhe chupchaap khade the aur unhe bhi ab kuchh bolne ki himmat nahi rah gayi thi. jab panditaein ne gandi galion ki bauchhar kar di tab savitri ki ghabrahat aur badh gayi lekin dusre pal panditaien ne savitri ke munh par ek jordaar chaata jad dee. chaate ki awaaj pure kamre me goonj uthi. savitri chate ka dard ko kam karne ke liye chuchion par ka haath gaal par le jaa kar sahlaane lagi. lekin pandit ji ne kuchh bhi nahi bole balki panditaien ka akramak tevar dekhkar wo bhi dar se gaye. pandittaein ne apne saadi ke pallu ko apne kandhe se ghumaakar kamar me khos lee mano koi kaam karne jaa rahi hon. savitri aisa dekh kar samajh gayi ki panditaien ab use bahut maar maarengi. aur wo bhi dar ke vajah se rone lagi. fir bhi panditaein ka akramak tevar me koi badlaav nahi aaya aur savitri par toot padi. savitri ke kaale aur lambe baal ko pakad kar kafi jor se hilaya ki savitri dard ke maare chilla uthi "aaree mmi mmaii baaap ho raam re maai......" aur panditaein ne thappadon ko barsaat kaar dee. savitri ek dam nagi hone ke vajah se dhappad kafi tej lag rahe the. aur panditaein ne gusse me savitri ke baal ko itni jor se jhakjhoraa ki nangi savitri ka pair fislaa aur chataai par gir padi. sanyog theek tha ki kahin chot nahi aayi lekin girne ke baad savitri ka kala aur bada chutad panditaien ke samne dikha aur panditaein ne un dono chutadon par laton se hamlaa bol diyaa. chutad kafi mansal hone ke naate savitri ko koi bahut chot nahi mahsoos ho rahi thi. aur kaale kaale chutadon par laaton ko marte huye panditaein ne gusse me galiyan bakne legin "saali randi ...bhains ki tarah chutad lee hai aur motaa lund khojte is dukaan tak aa pahunchi... tere ko aur kahin lund nahi milaa re harjaai jo tu mera ghar barbaad karne aa gai....tere ko duniyaa me lund hi nahi milaa ......bhagwaan teri bur me kitnaa aag lagaa dee hai re jo tu in budhdhon ko bhi nahin baksh rahi hai....teri bur me gadhe ka lund pelwaa dun....burchodi..."

panditaien se pitate huye savitri ne padit ji ki or dekhi jo chupchap khade the aur apni nazre dusari or fer liye. savitri samajh gayi ki pandit ji apni patni se dar gaye hain aur uski pitai khatm hi nahi hogi aur savitri bhi pitate aur gaali sunate huye kafi gusse se bhar gayi aur ab bardasht karna mushkil ho gayaa. tabhi savitri ke chutado wala laat ab peeth aur chuchion par padne lagaa. jo ki savitri ke liye bardasht karna mushkil ho gayaa aur panditaien jis laat se chataai me gir padi savitri ko maar rahin thin, use savitri ne apne hath se kas kar pakad kar apni or kheench diya aur panditaien ladkhada kar farsh par gir padi aur vapas uth kar savitri par hamalaa karna chahin ki savitri panditaein ke upar chad gayi aur unke baal pakad lee aur jabaav me panditaein ne bhi savitri ke baal pakad kar nochne lagi. ab dono ek dusare se lagbhag lipat kar baajne lage aur savitri ka ekdam nanga aur mansal gadrayaa shareer ab panditaein par bhari padne lagi thi. savitri panditaien ko maarna nahi chahati thi lekin jab vah panditaein ke upar se hatna chahti ki panditaein ko mauka milta aur savitri ko marna shuru kar deti. savitri maar khaate hi fir panditaien ko farsh par patakte huye daboch leti aur jabaav me vah bhi thappad chalaa deti. ab savitri khul kar panditaien se baajne lagi aur apne jeevan me pahli baar kisi ko peet rahi thi. akhir jab savitri dar ko man se nikaal kar khul kar panditaien se bhid gayi tab 43 saal ki panitaein 18 saal ki mansal aur moti taaji savitri ke pitaai se maidaan chorkar bhagne lagi. lekin savitri ko jyonhi apni taakat ka ahsaas huaa ki vah ek sherni ki tarah panditaein par toot padi. pandit ji savitri ko panditaein par bhari padte dekh andar hi andar kafi khush ho gaye aur khud dukaan wale hisse me aakar parde ke aad se panditaein ko pitataai dekhne lage. savitri ne dekha ki pandit ji ab parde ki aad se panditaein ko pitataa dekh rahe hain tab samajh gayi ki unko ye dekhnaa pasand hai aur panditaein par pitaai aur tej kar de. kabhi baal nochti to kabhi panditaein ke kamar aur chutadon par laat se maarti. aur lab savitri uchhal uchaal kar panditaein ko marti tab uski dono chuchian aur kaale kaale chutad khoob hilate jo pandit ji parde ke aad se dekh kar mast ho jaate. jawaan aur mansal savitri se panditaein ka pitanaa pandit ji ko pasand tha. vah chahte the ki iski pitai se panditaien ka badhaa huaa himmat past ho jaaye. vaise vah khud panditaein se sidhe jhagadaa karnaa nahi chahate the isi karan vah savitri ko manaa nahi kar rahe the. savitri ki aankhen lal ho chuki thi panditaein ko lagaa ki savitri ab jaan le legi tab gidgidaana suru kar di "aare tum meri beti ki tarah ho ....are mat maaroo...main mar jaungi ...isme to pandit ji ka hi kasoor hai...mujhe jaane do...main ab yahaan se jaa rahi hun ....mujhe jaane do.."

savitri ka bhi gussaa ab kafi tej ho gayaa tha aur galia de daali "ab tu beti kah rahi ho bur chodi ...harajaai ...main ab darne vali nahi"

fir panditaein ka baal pakad kar khadaa kar di aur dukaan ke taraf dhakelte huye savitri boli "bhaag jaa yahaan se randi ..nahin to main jaan le lungi" panditaein jyonhi dukaan waale hisse me jaane lagi ki savitri ne ek laat panditaein ke kamar pe maari aur panditaein dukaan me hi pandit ji ke saamne gir padi lekin pandit ji kuchh sochte ki uske pahle hi panditaein apne hi uth khadi hui aur teji se dukaan ka darwaaza kholi aur seedhe apne ghar ki or bhaag khadi hui.

pandit ji ne dekha ki panditaein ka himmat ab jabaav de gayaa tha aur vah ankhon se ojhal ho chuki thin. unhone dukaan ka darwaaza band kiyaa aur andar wale hisse me aaye to dekha ki savitri lagbhag hanf rahi thi aur apne kapade pahnane jaa rahi thi. pandit ji ne savitri ka haath pakadte huye kahaa "are tum to bahut bahaadur nikali...kis chakki ka aataa khaati hai ....main jis aurat se puri jindagi dartaa rahaa use tumne secondon me dhool chataa kar bhagaa diyaa....saali madherchod ko...bahut achha kiyaa tumne...bahut kanoon bolti hai...saraa kanoon uski gaand me chalaa gayaa" savitri ne kuchh sochkar boli "wo bhi to mujhe kitnaa mar maari aap to bas dekh rahe the use manaa nahi kiyaa?" savitri ke is baat ko sunkar pandit ji bole "are apni patni se bade bade log darte hain...main kya cheez hun..lekin tumne jo kuchh kiyaa main bahut khush hun...." aur pandit ji aage badh kar savitri ke nange badan se lipat gaye. fir bole "panditaein ne tumhe thapaad aur laat se pitaa to main kyon peechhe rahun main bhi to tumhe pitoonga...." itna sun kar savitri sann rah gayi. lekin pandit ji ne aage bola "are main tumhaari pitaai aaj is mote lund se karoonga "

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संघर्ष--22

पंडित जी ने तौलिया को कमर से अलग कर सावित्री को गोद मे लेते हुए चौकी पर आ गये. उनका लंड सिकुड चुका था. उन्होने सावित्री के साँवले और कुच्छ मुन्हान्सो से भरे गाल को चूमना सुरू कर दिया. हाथों से चुचिओ को भी मीज़ना सुरू कर दिया और थोड़ी देर मे दोनो गरम हो गये. फिर पंडित जी ने सावित्री को घोड़ी बनाकर खूब मन से चोदा. अंत मे वीर्य को बुर के अंदर ही धकेल दिया. और पिच्छले दिन की तरह फिर सावित्री की चड्डी मे लंड को पोंच्छा और सावित्री को उसी चड्डी को पहनना पड़ा. सावित्री इस बात का विरोध करना चाहती थी लेकिन चुप ही रहना उचित समझी.

दोनो तृप्त हो गये तब पंडित जी और सावित्री कपड़े पहन कर दुकान वाले हिस्से मे आ गये. पंडित जी ने सावित्री से बोला "दवा को खाती हो की नही" सावित्री ने कहा "खाती हूँ" फिर पंडित जी बोले "ठीक है...लेकिन आज जो कुच्छ भी पंडिताइन और तुम्हारे बीच हुआ उसे किसी से कहना मत...यह मेरी इज़्ज़त की बात है...तुमने उसे पीट कर बहुत अच्छा किया...उसका भी रुआब अब ठीकाने लग गया.." सावित्री भी चुपचाप सुन रही थी लेकिन कुच्छ बोली नही.

सावित्री अंधेरा होने से पहले ही घर चल दी. आज राषते मे खंडहर के पास दो आवारों की गंदी बातें मन मे याद आ गयी. सावित्री को कुच्छ डर सा लगने लगा. पंडिताइन से मार पीट होने के वजह से उसके शरीर मे दर्द भी महसूस हो रहा था. तभी खंडहर से पहले ही उसकी नज़र धन्नो चाची पर पड़ी जो रश्ते पर ही खड़ी हो कर मानो उसी का इंतज़ार कर रही हो. सावित्री का कलेजा हिल सा गया. लेकिन सुबह जिस तरह से धन्नो चाची ने सावित्री को देख कर मुस्कुराया था मानो दोस्ती करना चाहती हों. सावित्री जैसे ही धन्नो चाची के करीब आई वैसे ही धन्नो ने मुस्कुराते हुए बोली "अरे सावित्री कहाँ से आ रही हो?" सावित्री भी धन्नो चाची के पास खड़ी हो गयी और जबाव मे बोली "इसी कस्बे से आ रही हूँ...पंडित जी के दुकान पर काम करती हूँ." धन्नो चाची ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा "बहुत खुशी हुई जो तुमने अपनी मा की ज़िम्मेदारीओं मे हाथ बटाना शुरू कर दिया..क्या कहूँ तुम्हारी मा तो मुझे देख कर बहुत जलती है इसी लिए मैं तुमसे भी चाहते हुए बात नही कर पाती.." फिर आगे बोली "मैने देखा की तुम आ रही हो तो सोची की चलो यहाँ तुमसे हाल चाल ले लूँ. घर तो बगल मे है लेकिन तुम्हारी मा के गुस्से के डर से तुमसे बात करना ठीक नही लगता." सावित्री ने कुच्छ नही बोली लेकिन उसके दीमाग मे यह बात घूमने लगी की धन्नो चाची ने चड्डी के उपर वीर्य के दाग और दवा के पत्ते को तो देख ही चुकी थी इस लिए कहीं इस बारे मे ना पुच्छे. कुच्छ घबराए मन से सावित्री धन्नो चाची के सामने ही खड़ी थी लेकिन नज़रें जेमीन पर झुकी हुई थी. फिर धन्नो ने सावित्री के एक कंधे पर हाथ रखते हुए बोली "तुम भी अपनी मा की तरह हमसे नही बोलॉगी क्या?'" और इतना कह कर धन्नो हँसने लगी इस पर सावित्री भी मुस्कुरा दी और जबाव मे बोली "क्यों नही....ज़रूर बोलूँगी ....हा लेकिन मा के सामने तो बोलना ठीक नही होगा...तुम तो मा को अच्छी तरह जानती हो चाची" इस पर धन्नो चाची एक दम खुश हो गयी मानो उसका काम बनाने लगा हो. "सावित्री तुम एकदम मेरी बेटी की तरह हो..सच तुम्हारी यह बात सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है मानो मेरी एक नही बल्कि दो दो बेटी है ..एक मुसम्मि और एक तुम." इतना बोलने के बाद धन्नो ने सुनसान रश्ते पर सावित्री को प्यार से गले लगा लिया. धन्नो ने सावित्री को पहली बार अपने बाहों मे लेते समझ गयी की चुचियाँ काफ़ी बड़ी बड़ी और शरीर एकदम भरा पूरा है. धन्नो सावित्री को जल्दी ही करीब आते देख मन ही मन खुश होने लगी. उसका काम अब काफ़ी तेज़ी से बनने लगा था. वह जानती थी की सावित्री के गदराई जवानी लूटने के चक्कर मे पड़ने वाले नये उम्र के आवारों से अपनी भी बुर की आग बुझवाने का मौका मिल सकेगा. धन्नो नये उम्र के लड़कों से चुदने की काफ़ी शौकीन थी. लेकिन उसकी खुद की उम्र 43 होने के वजह से नये उम्र के लड़कों को फाँसना इतना आसान नही होता. धन्नो को मालूम था की ऐसे मे किसी भी जवान लड़की को आगे कर देने पर लड़के मद्राने लगते और थोड़ी बहुत मशक्कत के बाद अपनी भी बुर मे नया लंड नसीब हो जाता.

धन्नो कुच्छ बात आगे बढ़ाते हुए बोली "चलो घर की ओर भी चला जाय नही तो यही रात हो जाएगी और ये रश्ते मे पड़ने वाला खंडहर तो मानो औरतों के इज़्ज़त का दुश्मन ही है.." दोनो चलने लगे और अंधेरा अब छाने ही लगा था. फिर धन्नो बोली "चिंता मत कर गाओं आते ही हम दोनो अलग अलग हो जाएँगे...तेरी मा को ऐसा कुच्छ भी मालून नही होगा जिससे तुम दाँत खाओ" इस पर सावित्री को कुच्छ राहत हुई लेकिन फिर भी बोली "कोई बात नही है चाची" फिर रश्ते मे चलते हुए धन्नो बोली "चलो तुम तो बहुत ही अच्छे विचार वाली हो..वैसे तेरी मा भी बहुत अच्छी है लेकिन ये गाओं के लोगों ने उससे मेरे और मेरी बेटी के बारे मे पता नही क्या क्या अफवाह उड़ा दी शायद इसी वजह से वह मुझसे दूर रहना चाहती और...और एक दूसरे के पड़ोसी होते हुए भी कोई किसी से बात नही करता" सावित्री चुपचाप रश्ते पर चलती रही और मन मे वही चड्डी और दवा का पत्ता घूम रहा था. धन्नो ने सावित्री को कुच्छ फुसलाते हुए बोलना जारी रखा "बेटी..तुम तो जानती हो की गाओं मे कितने गंदे बेशरम किस्म के लोग रहते हैं...वे किसी के बारे मे कुच्छ भी बोल देते हैं और दूसरों की खिल्ली उड़ाने मे कोई देरी नही करते...इन्ही कुत्तों के वजह से तुम्हारी मा को मेरे बारे मे ग़लतफहमी हो गयी और इन सबके कारण ही मेरी बेटी मुसम्मि की शादी भी टूट गयी..ससुराल भी छ्छूट गया...पता नही ये सब बदमाश क्या चाहते हैं." सावित्री इन सब बातों को चुपचाप सुन रही थी. लेकिन उसका मान यही सोच रहा था की आख़िर पीच्छले दिन ही धन्नो चाची ने सावित्री की दाग लगी चड्डी और दवा के पत्ते को देखी और दूसरे दिन ही मिलकर बातें भी करने लगी. सावित्री का मन आशानकों से भर उठा. उसे डर लग रहा था कि आख़िर धन्नो चाची क्यों उसके करीब आ रही है. पहले तो कभी भी ऐसा नही हुआ की धन्नो चाची उसमे कोई रूचि रखी हो. यही सब सोच रही थी की रश्ते पर चलते हुए धन्नो ने बात जारी रखी "जानती हो ये गाओं के बदमाश किसी को भी इज़्ज़त से रहना नही पसंद करते और झूठे ही बदनाम करने लगते हैं...सच पुछो तो ये गाओं बहुत गंदा हो गया है..यहा रहने का मतलब बस बदनामी और कुच्छ नही.." सावित्री इन सब बातों को काफ़ी ध्यान से सुन रही थी और उसका कलेजा धक धक कर रहा था. धन्नो रश्ते पर आगे आगे चल रही थी और सावित्री उसके पीछे पीछे. सावित्री के कुच्छ ना बोलने पर धन्नो रुक गयी और सावित्री की ओर देखते हुए पकुहही "अरी कुच्छ बोल नही रही ....क्या मेरी बातें सही नही हैं क्या....क्यों कुच्छ बोलो तो ..सही" इस पर सावित्री कुच्छ घबरा गयी लेकिन जबाव दी "ठीक कहती हो चाची ...लेकिन मैं ये सब बातें नही जानती हूँ..." इतना सुनकर धन्नो फिर रश्ते पर चलने लगी और बोली "अरे तो जानना चाहिए...तुम एक लड़की हो और तुम्हारा धर्म है की तुम इन आवारों से अपनी इज़्ज़त को बचा के रखना और यदि इनके मंसूबों को नही जानोगी तब तुम्हारे साथ धोखा हो जाएगे और बाद मे खोई इज़्ज़त वापस नही आती..समझी बेटी" धन्नो बात बढ़ाते बोली "लड़कियो की इज़्ज़त ऐसे जाती है जैसे कोई मोटा साँप किसी बिल मे घूस्ता है...जैसे मोटा साँप चाहे जितना भी मोटा क्यों ना हो और बिल चाहे जितना ही छ्होटा या संकरा क्यों ना हो, मौका मिलते ही मोटा साँप संकरे या छ्होटे बिल मे घूस्ते देर नही लगती..वैसे ही इन बदमाशों को नही जानोगी तो किसी दिन मौका देख कर अपनी मनमानी कर देंगे और फिर टूटे हुए इज़्ज़त के दरवाजे के अलावा कुच्छ नही बचेगे...बुरा मत मानना तुम्हे अपनी बेटी समझ कर बता रही हूँ" इस तरह के उदाहरण को सुन कर सावित्री कुच्छ सनसना गयी लेकिन कुच्छ बोली नही.
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Re: संघर्ष

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धन्नो ने अपनी बात लंबी करती हुई बोली "मैने मुसम्मि को भी सुरू से ही काफ़ी दाँत फटकार कर और समझा बुझा कर रखा और समय पर शादी भी कर दी लेकिन ये गाओं वाले शायद हम लोंगो की इज़्ज़त से काफ़ी जलन होने लगी और ये कुत्ते पता नही कौन सी अफवाहों की चाल चली की तलाक़ करवा ही दिया... सच कहती हूँ बेटी इस गाओं से मुझे बहुत घृणा है.." सावित्री धन्नो की इन बातों से मन ही मन राज़ी नही थी क्योंकि उसे भी मालूम था की धन्नो और उसकी बेटी मुसम्मि दोनो ही शुरू से ही चुदैल किस्म की थी और मुसम्मि तो शादी के कई साल पहले से ही गाओं के पता नही कितने मर्दों से चुद चुकी थी. लेकिन धन्नो चाची की इन बातों के हा मे हाँ मिलाना ही ठीक था. और जबाव मे सावित्री ने कहा "सच कहती हो चाची मेरी मा भी यही कहती है की गाओं मे गंदे लोग ज़्यादा रहते हैं" इस पर धन्नो रश्ते पर चलते हुए बातें और मन से करने लगी. आगे बोली "तेरी मा ठीक कहती है बेटी क्योंकि वो बेचारी तो इस गाओं के करतूतों को खूब अच्छी तरह से देखा है..जब तुम्हारा बाप मार गया उस समय तुम्हारी परिवार के मुसीबत के घड़ी मे गाओं के चौधरी काफ़ी साथ दिया और इसी वजह से तुमाहरी मा उनके यहाँ बर्तन और झाड़ू का काम पकड़ लिया.." इतना कह कर धन्नो चाची चुपचाप रश्ते पर चल रही थीं और कुच्छ पल कुच्छ भी ना बोलने पर सावित्री आगे की बात जानने की ललक से पुचछा "फिर क्या हुआ चाची?" तब धन्नो बोली "लेकिन बेटी ये राज की बात है इस लिए किसी से चर्चा मत करना...समझी !" इतना सुन कर सावित्री सहम गयी और काफ़ी धीरे से बोली "हुम्म" फिर धन्नो ने काफ़ी धीरे धीरे चलते हुए सावित्री को बताने लगी "उस समय तुम्हारी मा सीता एकदम जवान और गदराई हुई थी और ...कुच्छ दिन ही बीते थे कि ...चौधरी ने एक दिन मौका पा कर तुम्हारी मा को ग़लत रश्ते पर खींच लिया..तुम्हारी मा की भी कोई ग़लती नही थी क्योंकि वह बेचारी का भी तो खून गरम ही था शायद इस लिए वह भी बेचारी मौका पाते ही चौधरी को अपनी गड्राई जवानी से खूब मनमानी करने देती. आख़िर बेटी तेरी मा विधवा ज़रूर थी लेकिन जवानी एक तूफान की तरह होती है जब अपने जोश पर आती है तो सब कुच्छ उड़ा ले जाती है. तुम्हारी मा कई साल तक चौधरी के शरीर की ताक़त निचोड़ती रही लेकिन पता नही कैसे गाओं के कुच्छ कुत्तों को इसकी भनक लग गयी और इस कारण बेचारी सीता की हिम्मत नही हुई की चौधरी के घर बर्तन झाड़ू का काम करने जाए. उसकी जगह दूसरी कोई औरत होती तो गाओं के इन अवारों और बदमाशों से बिल्कुल ही नही डरती और आज भी रोज़ चौधरी के नीचे दबी होती" इतना सुनते ही सावित्री को मानो मौत मिल गयी हो. उसे अपनी मा के बारे मे ऐसा सुनना बिल्कुल ही पसंद नही था. लेकिन ऐसी बात सुनकर गुस्से के साथ साथ उसके मन मे एक अज़ीब तरह की मस्ती भी छाने लगी. तभी धन्नो ने खंडहर के एक दीवाल के पास खड़ी हो कर सावित्री से बोली "रुक बेटी थोड़ा पेशाब कर लूँ" इतना कह कर धन्नो चाची ने रश्ते के किनारे खंडहर के दीवाल के पास ही अपने साड़ी और पेटिकोट को कमर तक उठा कर बैठ गयी और उसके हल्के गोरे रंग के बड़े बड़े चूतड़ सावित्री के तरफ था. सावित्री घबराहट मे खंडहर के पास खड़ी खड़ी चारो ओर देखने लगी की कहीं कोई आ तो नही रहा है. तभी उसकी नज़र एक 48-50 साल के आदमी पर पड़ी जो धोती कुर्ता पहने साइकल से आ रहा था. सावित्री ने घबराहट मे बोली "चाची एक आदमी आ रहा है..जल्दी करो.." धन्नो चाची का मुँह ठीक खंडहर के दीवार के ओर था इस लिए वह रश्ते पर आ रहे आदमी को देख नही पा रही थी. उनका चूतड़ एकदम रश्ते की ओर था और सावित्री उनके चूतड़ के तरफ ही खड़ी थी और कभी साइकल से तेज़ी से आ रहे उस अधेड़ उम्र के आदमी को देख रही तो कभी पेशाब कर रही धन्नो चाची के दोनो नागे चूतदों को देख रही थी. धन्नो ने सोचा की जब वो पेशाब करने बैठी थी तब तो कोई इर्द गिर्द दिखा नही था और जैसा की सावित्री ने बताया की कोई आदमी आ रहा है तो किसी के करीब भी आने मे कुच्छ समय लगेगा और तब तक वह पेशाब कर लेगी और यही सोच कर वह उठाने के बजाय पेशाब करती रही. लेकिन साइकल पर आदमी होने से काफ़ी तेज़ी से करीब आ गया और सावित्री धीरे से चिल्ला उठी "चाची जल्दी करो...आ गया..." और अभी पेशाब ख़त्म ही हुई थी की साइकल की चर्चराहट धन्नो के कान मे पड़ी लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और साइकल पर बैठा आदमी धन्नो के दोनो नंगे चूतदों के ठीक पीछे से गुजरने लगा और उसकी आँखे दोनो मांसल चूतदों पर पड़ ही गया और अगले पल धन्नो हड़बड़ाहट मे उठी और अपनी साड़ी और पेटिकोट को नीचे गिराते हुए दोनो नंगे चूतादो और जांघों को ढकने लगी जो की उस आदमी ने अपने दोनो आँखों से भरपूर तरीके से देखा और फिर बाद मे सावित्री को भी देखा और सावित्री उस आदमी के नज़रों को ही देख रही थी जो धन्नो चाची के नंगे चूतदों पर चिपक गये थे. सावित्री की नज़रें जैसे ही उस आदमी से मिली सावित्री ने तुरंत अपनी नज़रें हटा ली लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी और उस आदमी ने सावित्री को देखते हुए मुस्कुरा दिया और उसी रफ़्तार से साइकल चलाते हुए शाम के हो रहे अंधेरे मे आँखों से ओझल हो गया. धन्नो चाची ने उस आदमी को तो देख नही पाई क्योंकि जब उठ कर खड़ी हुई और मूडी तब तक केवल उस आदमी का पीठ ही दिखाई दे रहा था और ना ही उस आदमी ने धन्नो चाची के चेहरे को देख पाया. फिर भी धन्नो चाची यह समझ गयीं की उस आदमी ने उनका दोनो मांसल बड़े बड़े चूतदों को देख लिया है. और शायद यही सोच कर धन्नो चाची ने सावित्री को एक हल्का सा थप्पड़ गाल पर मारते हुए हंस पड़ी और बोली "अरी हरजाई तू तो मेरी पिच्छड़ी उस बुड्ढे को दिखवा ही दी...तुम्हे बताना चाहिए था ना की वो हरामी साइकल से आ रहा है तो मैं पहले ही उठ जाती..मैं सोची पैदल होगा तबतक तो पेशाब कर लूँगी....धोखा हो गया..." और सावित्री भी मुस्कुरा दी. आगे बोली "पेशाब करना है तो कर ले ...." सावित्री को हल्की पेशाब लगी थी लेकिन वह पेशाब वहाँ और धन्नो के सामने नही करना चाहती थी और बोली "नही" और फिर दोनो रश्ते पर चलने लगे.

क्रमशः....................

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