भूत प्रेतों की कहानियाँ

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Re: भूत प्रेतों की कहानियाँ

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हम सीधा शंकर के पास आये, वे सभी बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे, चेहरे पर हवाइयां उडी हुईं थीं उनके!
"सब खैरियत तो है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ सब खैरियत से है" मैंने कहा,
अब उन्हें चैन पड़ा!
"शंकर?" शर्मा जी ने कहा,
"जी?" वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,
"तुमने जो दो औरतें देखीं थीं, वो रक्त-रंजित थीं क्या?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं जी, बिलकुल नहीं" उसने कहा,
अब मुझे जैसे झटके से लगने लगे!
"एक दम साफ़ थीं वो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हाँ उन्होंने पेट पर शायद कोई भस्म या चन्दन सा मला हुआ था, पक्का नहीं कह सकता" शंकर ने कहा,
"कोई हथियार था उनके हाथ में?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल खाली हाथ थीं वो" उसने कहा,
यहाँ हरि साहब और क़य्यूम भी की साँसें रुक रुक कर आगे बढ़ रही थीं! आँखें ऐसे फटी थीं जैसे दम निकलने वाला ही हो! एक एक सवाल पर आँखें और चौड़ी हो जाती थीं उनकी!
"क्या हुआ गुरु जी?" हरि साहब ने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने उलझे हुए भी सुलझा सा उत्तर दिया!
"आपको दिखाई दीं वो?" अब क़य्यूम ने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
अब तो जैसे दोनों को भय का भाला घुस गया छाती के आरपार!
"क्क्क्क्क.......क्या?" हरि साहब के मुंह से निकला!
"हाँ, उनका बसेरा यहीं है!" मैंने कहा,
"मैंने कहा था न गुरु जी? यहाँ बहुत बड़ी गड़बड़ है, आप बचाइये हमे" अब ये कहते ही घबराए वो, हाथ कांपने लगे उनके!
"आप न घबराइये हरि साहब, मै इसीलिए तो आया हूँ यहाँ" मैंने कहा,
"हम तो मर गए गुरु जी" वे गर्दन हिला के बोले,
"आप चिंता न कीजिये हरि साहब" मैंने कहा,
"गुरु जी, वहाँ उस पेड़ को देखें?" शर्मा जी ने याद दिलाया मुझे,
"हाँ! हाँ! अवश्य!" मैंने कहा,
हम भागे वहाँ से, उस अमलतास पेड़ की तरफ! वहाँ पहुंचे, टोर्च की रौशनी डाली वहाँ, कोई नहीं था वहाँ! हम आगे गए! मैंने रुका, शर्मा जी को रोका, कुछ पल ठहरा और फिर मै अकेला ही आगे बढ़ा, पेड़ के नीचे कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं! मैंने आसपास गौर से देखा, और देखने पर अचानक ही मुझे पेड़ से दूर, चारदीवारी के पास एक आदमी खड़ा दिखा, साफ़ा बांधे! मै वहीँ चल पड़ा! वो अचानक से नीचे बैठ गया, जैसे कोई कुत्ता छलांग मारने के लिए बैठता है, मै रुक गया तभी कि तभी, जस का तस! वो नीचे ही बैठा रहा, मै अब धीरे धीरे आगे बढ़ा! और फिर रुक गया!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
अब मै आगे बढ़ा तो वो उठकर खड़ा हो गया! लम्बा! कद्दावर और बेहद मजबूत! पहलवानी जिस्म! उसने बाजूओं पर गंडे-ताबीज़ बाँध रखे थे! गले में माल धारण कर राखी थी, कौन सी? ये नहीं पता चल रहा था! कद उसका सात या सवा सात फीट रहा होगा! उम्र कोई चालीस के आसपास!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
मै आगे बढ़ा!
"जहां है, वहीँ ठहर जा!" वो गर्रा के बोला!
भयानक स्वर उसका और लहजा कड़वा! रुक्ष! धमकाने वाला!
मै ठहर गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"क्या करेगा जानकार?" उसने जैसे ऐसा कह कर चुटकी सी ली!
"मै जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
अब इसका उत्तर मेरे पास नहीं था!
"यहाँ प्रेतों का वास है" मैंने कहा,
वो हंसा! बहुत तेज! सच में बहुत तेज!
"मै चाहता हूँ कि तुम सब यहाँ से चले जाओ, अज ही!" मैंने कहा,
"अब वो गुस्सा हो गया! कूद के मेरे सामने आ खड़ा हुआ! मरे सर पर अपना भारी भरकम हाथ रखा! और मुझे हैरत! मेरे तंत्राभूषण भी नहीं रोक पाए उसे मुझे छूने से! ये कैसा भ्रम??
"ये भूमि हमारी है! पार्वती नदी तक, सारी भूमि हमारी है!" उसने मुझे दूर इशारा करके बताया!
"कैसी भूमि?" मैंने उसका हाथ अपने सर से नीचे किया और पूछा,
"ये भूमि" उसने अपने पैर से भूमि पर थाप मारते हुए कहा!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"मेरा नाम खेचर है! ये मेरा ही स्थान है!" उसने कहा,
स्थान? यही सुना न मैंने??
''स्थान? कैसा स्थान?" मैंने पूछा,
"ये स्थान!" उसने फिर से इशारा करके मुझे वही भूमि दिखा दी!
मै हतप्रभ था!
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हतप्रभ इसलिए कि मेरे सभी मंत्र और तंत्राभूषण, सभी शिथिल हो गए थे! खेचर के सामने शिथिल! दो ही कारण थे इसके, या तो खेचर स्वयंभू एवं स्वयं सिद्ध है अथवा उसको किसी महासिद्ध का सरंक्षण प्राप्त है! ये स्थान या तो परम सात्विक है या फिर प्रबल तामसिक! जो भी तत्व है यहाँ, वो अपने शीर्ष पर है! एक बार को तो मुझे भी आखेट होने का भय मार गया था, उसी खेचर के सामने जिसके सामने मै खड़ा था!
"सुना तूने?" अचानक से खेचर ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ये मेरा स्थान है, अब तुम यहाँ से चले जाओ" उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!
"मै नहीं जाऊँगा खेचर!" मैंने भी डटकर कहा!
"मारा जाएगा! हा हा हा हा!" उसने ठहाका मार कर कहा!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
उसका ठहाका बंद हुआ उसी क्षण!
वो चुप!
मै चुप!
और फिर से मैंने अपना प्रश्न दोहराया!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
वो चुप!
और फिर मेरे देखते ही देखते वो झप्प से लोप हो गया!
मेरा प्रश्न अब बेमायनी हो गया था!
"खेचर?" मैंने पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
"खेचर?" मैंने फिर से पुकारा!
अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!
वो चला गया था!
अब मै पलटा वहां से और शर्मा जी के पास आया, वे भी हतप्रभ खड़े थे! बड़ी ही अजीब स्थिति थी! अभी तक कोई ओर-छोर नहीं मिला था! धूल में लाठी भांज रहे थे हम!
"चला गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर मैंने उसी पेड़ को देखा जहां कुछ देर पहले खेचर आया था! वहाँ का माहौल इस वर्तमान में भूतकाल की गिरफ्त से आज़ाद हो चुका था! उसके पत्ते बयार से खड़खडाने लगे थे! वर्तमान-संधि हो चुकी थी!
"चलो, अब कुँए पर चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम कुँए पर पहुंचे! कुँए में से भयानक शोर आ रहा था! जैसे बालक-बालिकाओं की पिटाई हो रही हो! उनका क्रंदन कानफोड़ू था! मैंने और शर्मा जी ने कुँए में झाँक कर देखा! वहाँ जो देखा उसको देखकर आँखें चौड़ी हो गयीं! साँसें बेलगाम हो गयीं! अन्दर लबालब सर कटे पड़े थे, बालक-बालिकाओं के! और सभी अपनी जिव्हा निकाल तड़प के स्वर में चिल्ला रहे थे! रक्त की धाराएं एक दूसरे पर टकरा रही थीं! हमसे कोई छह फीट दूर! अत्यन्त भयावह दृश्य था! मैंने गौर किया, कुछ सर दो टुकड़े थे बस हलके से एक झिल्ली से चिपके थे, वो चिल्ला तो नहीं रहे थे, हाँ, सर्प की भांति फुफकार रहे थे, अपने नथुनों से!
मैंने तभी ताम-मंत्र का संधान किया, और नीचे से मिट्टी उठाकर वो मिट्टी अभिमंत्रित की और कुँए में डाल दी, विस्फोट सा हुआ! और वहाँ की माया का नाश हुआ! अब कोई सर नहीं बचा था वहाँ, पानी में नीचे हलचल थी, मैंने टोर्च की रौशनी मारी पानी के ऊपर तो वहाँ पानी के ऊपर कुछ तैरता हुआ दिखाई दिया! मैंने ध्यान से देखा, ये वही दो औरतें थीं! कमर तक पानी में डूबी हुईं और अपना अपना सर अपने हाथों में लिए! एक बार को तो मै पीछे हट गया! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था! उनके कटे सर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे थे! अजीब सी भाषा में! न डामरी, न कोई अन्य भाषा, ऐसे जैसे कोई अटके हुए से शब्द, कुछ कराह के शब्द जिसका केवल स्वर होता है और कोई व्यंजन नहीं!
"चलो यहाँ से" मैंने कहा,
शर्मा जी पीछे हट गए!
हम वापिस चल पड़े, शंकर के कमरे की तरफ, और तभी पीछे से मुझे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर! मै चौंक पड़ा! ठहर गया! पीछे देखा, वो खेचर था!
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खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!
"मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"बोलो खेचर!" मैंने कहा!
"चला जा यहाँ से!" मैंने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"मै नहीं जाऊँगा फिर भी!" मैंने कहा,
"सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?" उसने मुझे कहा,
"मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!" मैंने कहा,
"तुझे काट डालेगा!" वो गंभीर हो कर बोला,
"कौन?" मैंने पूछा,
"भेरू" उसने कहा,
"कौन भेरू?" मैंने कहा,
"मेरा बड़ा भाई" उसने कहा,
"अच्छा! कहाँ है भेरू?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" उसने कहा,
'कहाँ है उसका वास?" मैंने पूछा,
"वहाँ, नदी से पहले" उसने इशारा करके कहा,
मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!
"खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"पूछ" उसने कहा,
"वो औरत कौन है?" मैंने पूछा,
मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!
वो बताना नहीं चाहता था, या उसका 'समय' हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!
अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!
खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा और हटा वहाँ से,
'जी, चलिए" वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!
हम चल पड़े वापिस!
वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,
"हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!" मैंने हाथ धोते हुए कहा,
हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,
"मामला क्या है?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"ओह...." उनके मुंह से निकला,
"आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?" हरि साहब ने पूछा,
'ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा" मैंने कहा,
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी" बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!
"वैसे है क्या यहाँ?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!" मैंने बताया,
मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!
"खेचर!" मैंने कहा,
"क..क्या?" कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!
"खेचर मिला मुझे यहाँ" मैंने कहा,
"हे ईश्वर!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!" हरि साहब ने बताया!
कहानी में एक पेंच और घुस गया!
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"सपना?" मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,
"जी गुरु जी" हरि साहब बोले,
"तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब" मैंने कहा,
"अवश्य" वे बोले,
मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!
खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!
मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, "कहाँ खो गए गुरु जी?"
"कहीं नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!
"शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?"
"हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी" वे बोले,
"और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!" मैंने कहा,
"हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!" वे बोले,
"हाँ, ये सही कहा आपने" मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,
"खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?" मैंने कहा,
"हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!" वे बोले,
"अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे" मैंने कहा,
"हाँ, कल पूछते हैं उन से" वे बोले,
"हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है" मैंने कहा,
"हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ" वे बोले,
तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!
सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
"हरि साहब?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी?" वे चौंके!
''आपकी पत्नी कहाँ है?" मैंने पूछा,
"मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी" वे बोले,
'अच्छा, आने दीजिये फिर" मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
"वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा" मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
"आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,
"खेचर ने" वे बोलीं,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!" उन्होंने बताया,
"किसी ने कुछ कहा आपसे?" मैंने पूछा,
"हाँ एक औरत ने कहा था कुछ" वे बोलीं,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!" ये बताया उन्होंने
"अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था" वे बोलीं,
"ओह...भामा!" मैंने कहा,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"बाकी वही जो मैंने आपको बताया है" वे बोलीं,
"ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!
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बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, "हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?"
"हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर" उन्होंने बताया,
"क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?" मैंने पूछा,
"कहाँ तक?" उन्होंने पूछा,
"जहां वो बरसाती नदी है" मैंने कहा,
"हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे" वे बोले,
"पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली" मैंने कहा,
"कब चलना है?" उन्होंने पूछा,
"जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए" मैंने कहा,
"ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ" वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, "चलिए गुरु जी"
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
"ये है जी वो नदी" हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
"कोई पुराना मंदिर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको" हरि साहब ने कहा,
"कुछ जानते हैं इसके बारे में?" मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने" वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
"ज़हरीला सांप है जी ये?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!" वे बोले,
"ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!" मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
"ये नहीं काटता!" मैंने कहा,
"कमाल है गुरु जी!" वे बोले,
मै उठा गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
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