सोलहवां सावन complete

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mini

सोलहवां सावन-छठवीं फुहार

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Komaalrani wrote: छठवीं फुहार ,










उसकी डाकू उँगलियों ने हिम्मत की अंदर घुसने की , मैंने बहुत जोर से सिसकी भरी , जब उसके ऊँगली के पोर मेरे निपल से छू गए।

जैसे खूब गरम तवे पे किसी ने पानी के छींटे दे दिए हों


अंगूठा और तर्जनी के बीच वो मटर के दाने ,

लेकिन तबतक झूला धीमा होना शुरू हो गया था और उसने हाथ हटा लिया।


झूले के रूकने पे अजय ने मेरा हाथ पकड़ के उतारा और एक बार फिर उसकी हथेली मेरे उभारों पे रगड़ गयी।

वो बेशर्मों की तरह मुझे देख के मुस्करा रहा था , लेकिन मैं ऐसी शरमाई की , हिरनी की तरह अपने सहेलियों के झुण्ड से दूर।

कुछ दूर जाकर मैं ऐसे ही मेले में इधर उधर टहलती रही , लेकिन मन में तो बस अजय का हाथ ,



मेले में



कुछ देर कभी चूड़ियों की दूकान पे तो कभी कहीं कुछ देर इधर उधर घूमने के बाद मैं उधर पहुँच गयी जहाँ मेरी सहेलियां खड़ी थी। शाम करीब करीब ढल चुकी थी , नौटंकी और बाकी दुकानों पे रौशनी जल गयी थी। बादल भी काफी घिर रहे थे।

जब मैंने अपनी सहेलियों की ओर निगाहें डाली तो वहां उनके साथ कई लड़के खड़े थे, जब मैं नजदीक गई तो पाया कि चन्दा के साथ सुनील, गीता के साथ रवी और कजरी और पूरबी के साथ भी एक-एक लड़का था। अजय अकेला खड़ा था।

गीता ने अजय को छेड़ा- “अरे… सब अपने-अपने माल के साथ खड़े हैं… और तुम अकेले…”

मैंने ठीक से सुना नहीं पर मैं अजय को अकेले देखकर उसके पास खड़ी हो गयी और बोली- “मैं हूँ ना…”

सब हँसने लगे, पर अजय ने अपने हाथ मेरे कंधे पर रखकर मुझे अपने पास खींच लिया और सटाकर कहने लगा- “मेरा माल तो है ही…”

थोड़ा बोल्ड बनकर अपना हाथ उसकी कमर में डालकर, मैं और उससे लिपट, चिपट गयी और बोली- “और क्या, जलती क्यों हो, तुम लोग…”



चन्दा मुझे चिढ़ाते हुए, अजय से बोली- “अरे इतना मस्त, तुम्हारा मन पसंद माल मिल गया है, मुँह तो मीठा कराओ…”

“कौन सा मुंह… ऊपर वाला या नीचे वाला…” छेड़ते हुए गीता चहकी।

“अरे हम लोगों का ऊपर वाला और अपने माल का दोनों…” चन्दा मुश्कुरा के बोली।

एक दुकान पर ताजी गरम-गरम जलेबियां छन रहीं थीं। हम लोग वहीं बैठ गये।


सब लोगों को तो दोने में जलेबियां दीं पर मुझे उसने अपने हाथ से मेरे गुलाबी होंठों के बीच डाल दी। थोड़ा रस टपक कर मेरी चोली पर गिर पड़ा और उसने बिना रुके अपने हाथ से वहां साफ करने के बहाने मेरे जोबन पे हाथ फेर दिया। हम लोग थोड़ा दूर पेड़ के नीचे बैठे थे। उसका हाथ लगाते ही मैं सिहर गयी।


एक जलेबी अपने हाथों में लेकर मैंने उसे ललचाया- “लो ना…” और जब वो मेरी ओर बढ़ा तो मैंने जलेबी अपने होंठों के बीच दबाकर जोबन उभारकर कहा- “ले लो ना…”

अब वो कहां रुकने वाला था, उसने मेरा सर पकड़ के मेरे होंठों के बीच अपना मुँह लगा के न सिर्फ जलेबी का रसास्वादन किया बल्की अब तक कुंवारे मेरे होंठों का भी जमकर रस लिया और उसे इत्ते से ही संतोष नहीं हुआ और उसने कसके मेरे रसीले जोबन पकड़ के अपनी जीभ भी मेरे मुँह में डाल दिया।

“हे क्या खाया पिया जा रहा है, अकेले-अकेले…” चन्दा की आवाज सुनकर हम दोनों अलग हो गये।
रात शुरू हो गयी थी। हम सब घर की ओर चल दिये।

रास्ते में मैंने देखा कि पूरबी उन दोनों लड़कों से, जो मेरी “रसीली तारीफ” कर रहे थे, घुल मिलकर बात कर रही थी। गीता ने बताया कि वे पूरबी के ससुराल के हैं और बल्की उसके ससुराल के यार हैं।


रात शुरू हो चुकी थी , और साथ कजरारे मतवारे बादल के छैले ,बार बार चांदनी का रास्ता रोक लेते , बस झुटपुट रोशनी थी , और कभी वो भी नहीं /

दूर होते जा रहे मेले में गैस लाइट ,जेनरेटर सब की रौशनी थी , और वहां बज रहे गानों की आवाजें दूर तक साथ आ रही थीं।

सुबह मेरी सहेलियां सब एक साथ थीं और गाँव के लडके पीछे ,

लेकिन अभी ,कभी लडकियां एक साथ तो कभी कुछ अपने यार के साथ भी , ख़ास तौर से पगडंडी जहाँ संकरी हो जाती थी ,या दोनों ओर आम के बाग़ या गन्ने के खेत होते , बस गुट
बनते बिगड़ते रह रहे थे।
mini

Re: सोलहवां सावन,

Post by mini »

Komaalrani wrote:चंदा मेंरा हाथ पकड़ कर चल रही थी , क्योंकि बाकी के लिए तो ये जानी पहचानी डगर थी लेकिन मैं तो पहली बार ,


कुछ ही दूर पे पीछे पीछे अजय और सुनील ,कुछ बतियाते चल रहे थे।

पूरबी , कजरी ,गीता सब आगे आगे।


" धंस गयल, अटक गयल ,सटक गयल हो ,

रजउ , धंस गयल, अटक गयल ,सटक गयल हो ,"


मेले में से नौटंकी के गाने की आवाज आई , और चंदा ने मुझे चिढ़ाते ,मेरे कान में फुसफुसा के बोला ,

" कहो , धँसल की ना ?"

" जाके धँसाने वाले से पूछो न। " उसी टोन में मैंने आँखे नचा के पीछे आ रहे , अजय की ओर इशारा कर के बोला।

" सच में जाके पूछूं उससे ,मेरी सहेली शिकायत कर रही है ,क्यों नहीं धँसाया। " चंदा बड़ी शोख अदा से सच में , पीछे मुड़ के वो अजय की ओर बढ़ी।

" तेरी तो मैं , … " कह के मैंने उसकी लम्बी चोटी का परांदा पकड़ के खींच लिया और मेरा एक मुक्का उसकी गोरी खुली पीठ पे।

चंदा भी , मुड़के मेरे कान में हंस के हलके से बोली , " जब धँसायेगा न तो जान निकल जायेगी ,बहुत दर्द होता है जानू,… "

" होने दे यार ,कभी न कभी तो दर्द होना ही है।" एक बेपरवाह अदा से गाल पे आई एक लट को झटक के मैं बोली।

चांदनी भी उस समय बादलों के कैद से आजाद हो गयीं थी।
अमराई से हलकी हलकी बयार चल रही थी।

और पूरबी ने जैसे मेरी चंदा की बात चीत सुन ली और एक गाना छेड़ दिया , साथ में गीता और कजरी भी।


तानी धीरे धीरे डाला ,बड़ा दुखाला रजऊ ,

तानी धीरे धीरे डाला ,बड़ा दुखाला रजऊ ,

सुबह से ये गाना मैंने मेले में कितनी बार सूना था , तो अगली लाइन मैंने भी मस्ती में जोड़ दी।


बचपन में कान छिदायल ,तनिक भरे का छेद

मत पहिरावा हमका बाला , बड़ा दुखाला रजउ।
,
मस्त जोबनवा चोली धयला ,गाल तो कयला लाल ,

गिरी लवंगिया , बाला टूटल , बहुत कईला बेहाल।


और फिर पूरबी , कजरी ,सब ने आगे की लाइने जोड़ी

अरे अपनी गोंदिया में बैठाला ,बड़ा दुखाला रजऊ।

तानी धीरे धीरे डाला ,बड़ा दुखाला रजऊ ,

लौटते समय लड़कियां ज्यादा जोश में हो गयी थी।

एक तो अँधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था साफ साफ ,कौन गा रहा है , सिरफ परछाइयाँ दिख रही थीं। हवा तेज चल रही थी। दूसरे मेले की मस्ती के बाद हम सब भी काफी खुल गए थे

सब कुछ तो ले लेहला गाल जिन काटा ,कजरी ने शुरू किया। वो सब काफी आगे निकल गयी थीं।

पीछे से मैंने भी साथ दिया , लेकिन मुझे लगा ,चंदा शायद , और मैंने बाएं और देखा तो , वास्तव में वो नहीं थीं।

तब तक मुझे गाल पे किसी की अँगुलियों का अहसास हुआ और कान में किसी ने बोला ,

" ऐसा मालपूआ गाल होगा तो , न काटना जुल्म है। "

अजय पता नहीं कब से मेरे बगल में चल रहा था लेकिन गाने की मस्ती में ,

मेरे बिना कुछ पूछे उसने पीछे इशारा किया ,

एक घनी अमराई में , दो परछाइयाँ ,लिपटी, चंदा और सुनील।

सुनील के घर का रास्ता यहाँ से अलग होता था।

बाकी लड़कियों भी एक एक करके ,

कुछ देर में में सिर्फ मैं अजय और चंदा रह गए , मैं बीच में और वो दोनों ओर , फिर चंदा की छेड़ती हुई बातें।


चंदा एक पल के लिए रुक गयी , किसी काम से।

चंदा एक पल के लिए रुक गयी , किसी काम से।
अजय का घर भाभी के घर से सटा हुआ ही था।


जब वो मुड़ने लगा तो हँसकर मैंने कहा- “आज तुमने मुझे जूठा कर दिया…”

शैतानी से मेरी जांघों के बीच घूरता हुआ वो बोला- “अभी कहां, अभी तो अच्छी तरह हर जगह जूठा करना बाकी है…”

मैंने भी जोबन उभारकर, आँख नचाते हुए कहा- “तो कर ले ना, मना किसने किया है…”
"और मान लो मना कर दो तो" वो बोला।


अजय भी अब एकदम ढीठ हो गया था ,खुल के मेरी आँखों में आँखे डाल के बोल रहा था। घर से रौशनी छन छन के आ रही थी।



" तो मत मानना ,.... । कोई जरूरी है तुम हर बात मानों मेरी। " हिम्मत कर के मैं बोली और तब तक चंदा आगयी थी उसके साथ घर में घुस गयी।

चन्दा घर जाने की जिद करने लगी और मुझसे कहने लगी की, मैं भी उसके साथ चलूं। मुझे भी उससे कुछ सामान लेना था, गानों की कापी , जिसमें सोहर ,बन्ना , से लेकर गारी तक। लेकिन मैं अकेले कैसे लौटती, ये सवाल था।

तभी अजय दरवाजे पे नजर गया।

चन्दा ने उससे बिनती की- “अजय चलो ना जरा मुझे घर तक छोड़ दो…”
पर अजय ने मुँह बनाया और कहने लगा कि उसे कुछ जरूरी काम है।

मैंने बहुत प्यार से कहा- “मैं भी चल रही हूँ और फिर मैं अकेले कैसे लौटूंगी, चलो ना…”
खुशी की लहर उसके चेहरे को दौड़ गयी- “हां, एकदम चलो ना मैं तो आया ही इसीलिये था…”


चम्पा भाभी, जो मेरी भाभी के साथ किसी और काम में व्यस्त थीं, ने भी उससे कहा कि वह हमारे साथ चल चले। भाभी ने मुझसे कहा कि सब लोग पड़ोस में रतजगे में जायेंगे इसलिये मैं जब लौटूं तो पीछे वाले दरवाजे से लौटूं और बसंती रहेगी वह दरवाजा खोल देगी।


हम तीनों चन्दा के घर के लिये चल दिये। चन्दा ने अजय को छेड़ा-

“अच्छा, मैं कह रही थी तो जनाब के पास टाइम नहीं था, और एक बार इसने कहा…”


“आखिर ये मेरा माल जो है…” और अजय ने मुझे कस के पकड़ लिया।

और मैंने भी उसकी बांहो में सिमटते हुए, चन्दा को छेड़ा- “मुझे कहीं कुछ जलने की महक आ रही है…”
चन्दा बोली- “लौटते हुए लगता है इस माल का उद्घाटन हो जायेगा, डरना मत मेरी बिन्नो…”
“यहां डरता कौन है…” जोबन उभारकर मैंने कहा।

चन्दा के यहां से हम जल्दी ही लौट आये। रात अच्छी तरह हो गयी थी। चारों ओर, घने बादल उमड़ घुमड़ रहे थे। तेज हवा सांय-सांय चल रही थी। बड़े-बड़े पेड़ हवा में झूम रहे थे, बड़ी मुश्किल से रास्ता दिख रहा था।


मैंने कस के अजय की कलाई पकड़ रखी थी। पता नहीं अजय किधर से ले जा रहा था कि रास्ता लंबा लग रहा था। एक बार तेजी से बिजली कड़की तो मैंने उसे कस के पकड़ लिया।


हम लोग उस अमराई के पास आ आ गये थे जहां कल हम लोग झूला झूलने गये थे। हल्की-हल्की बूंदे पड़नी शुरू हो गयी थीं।


अजय ने कहा- “चलो बाग में चल चलते हैं, लगता है तेज बारिश होने वाली है…” और उसके कहते ही मुसलाधार बारिश शुरू हो गयी। मेरी साड़ी, चोली अच्छी तरह मेरे बदन से चिपक गये थे।

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jay
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Re: सोलहवां सावन,

Post by jay »

komaalrani wrote:


मैंने चन्दा से कहा- “हे चलो, मैं गीली हो रही हूं…”

चन्दा ने हँसकर कहा- “अरे, बिन्नो देखकर ही गीली हो रही हो तो अगर ये कहीं पकड़ा-पकड़ी करेंगे तो, तुम तो तुरंत ही चिपट जाओगी…”


बहुत खूब कोमल जी बहुत मजेदार स्टोरी है बस आप ऐसे ही लिखती रहें और हम पढ़ते रहें
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Re: सोलहवां सावन,

Post by jay »

komaalrani wrote:
mini wrote:fagun bali puri ker hindi font mai nai shuru kro ya mmw ya jkg hindi font mai dalo na plsssss
i still am new here thanks for all the tarif ...

pahgun ke din chaar ...sure ...it is in the last stage and as soon as it is completed i will post it here ...without break...so that readers can enjoy ...

MMW...may be if moderators of this forum permit it is in hindi font ....


thanks soo much


कोमल जी यहाँ पर किसी की अनुमति की ज़रूरत नही है जहाँ तक मेरी जानकारी है आप खुद इस फोरम की मॉडरेटर हैं
तो आपको आपकी ही परमिशन की ज़रूरत होगी हे हे हे हे हे :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol: :lol:
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