तवायफ़ की प्रेम कहानी complete

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jay
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Re: तवायफ़

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अचानक ऋुना की नज़र उसी दरवाज़े से बाहर आती सोफी पर पड़ी...कुच्छ कौंधा उसके दिमाग़ मे...


"कोहिनूर मे अभी आई..वो मैं अपना पर्स भूल गयी अंदर........."ऋुना ने कहा .


"जी बाजी" कोहिनूर बिना आँखे खोले ही बोली.

ऋुना तेज़ी से बाहर निकली और सबसे नज़रे बचाते हुए सोफी के पास पहुचि.इस से पहले सोफी कुच्छ समझ पाती ऋुना ने उसे चुप रहने का इशारा किया और उसका हाथ पकड़ कर दरवाज़े से अंदर हो गयी.

" वो लड़का कहाँ है?? अंदर ही है ??वो..वो ठीक है ना...??" ऋुना फिक्रमंदी से पुच्छ रही थी.

" हू...?? कौन ..आलोक " सोफी ने धीरे से कहा.

"हां...." ऋुना ने इतना ही कहा.....कि बाहर से लैला की आवाज़े आने लगी.....

"ओ ऋुनाअ?कहाँ मर गाइिईई"



"सुनो मैं जा रही हूँ...उस लड़के से कहना बहुत जल्द कोहिनूर मिलेगी उस से..कुच्छ वक़्त लग सकता है लेकिन मिलेगी ज़रूर....कहना कि बहुत मजबूर है कोहिनूर...कहना कि ......समझा देना उसे..." जल्दी जल्दी इतना ही बोल पाई ऋुना और बाहर निकल गयी.शायद जो करने आई थी वो कर भी ना पाई.पर वो किसी भी तरह से लैला के शक के दायरे मे नही आना चाहती थी.


सोफी उसकी बातें तो शायद ही समझ पाई हो लेकिन उसके हाव भाव और उसके कहने का मतलब खूब समझ गयी थी.



"कहाँ मर गयी थी तू " ऋुना को देखते ही लैला ने डांटा.

"जी वो पर्स भूल गयी थी अपना अंदर"

"तो कहाँ है पर्स ??"


"व..वो..वो थोड़ी ना मिलेगा..किसी नौकर के हाथ लग गया होगा... वैसे भी शक्ल से तो सारे चोर ही लग रहे हैं.." ऋुना बोलते बोलते कार मे घुस गयी.

लैला भी कार मे बैठ गयी....और कार चल दी.



लैला बड़े ध्यान से कोहिनूर को देख रही थी.......जो कुच्छ हुआ था उसे पूरा तो नही पता चल पाया था ...लेकिन कोहिनूर के लिए आलोक ने उसका गला दबाया था ,ये अच्छी तरह याद था....भला कैसे भूल जाती.



"साली तू चीज़ क्या है रे....आए हाए रजाआ !!!! जमाना तो देखो..तवायफ़ की मोहब्बत मे एक शरीफजादा साला अपने बाप से लड़ गया......हा हा हा.....अच्छा एक बात बता.... अयीईयी बता ना !! ...क्या चक्कर है ....इतनी सी देर मे क्या जादू फूँक दिया....पहले का याराना लगता है....साली मैं तो तुझे बड़ी शरीफ समझती थी....खैर मुझे क्या ...सदाबाबू से ज़्यादा कीमत कौन देगा तेरी........और मुझे तो बस नोटो से मतलब है......."



लैला चटकारे ले लेकर बोल रही थी...ज़ाहिर है उसे किसी बड़े माल की उम्मीद दिलाई गयी थी...कोहिनूर चुप चाप आँसू बहाए जा रही थी और ऋुना एकदम शांत थी ..मानो अपने मौके का इंतज़ार कर रही हो........अपने वक़्त का इंतज़ार कर रही हो.


बहुत कुच्छ चल रहा था उसके दिमाग़ मे ...कुच्छ अतीत के बारे मे कुच्छ भविश्य के बारे मे.......कुच्छ बुरी यादें, कुच्छ अच्छे सपने.


कार एक बड़े से बंगले के सामने जाकर रुकी.......वहाँ नही जहाँ लैला बाई का कोठा था.


"आज रात हम यहीं रुकेंगे....." लैला ने कहा और हवेली के अंदर चल दी.


ऋुना को क्या ऐतराज़ होना था..तवायफ़ की तो ज़िंदगी ही यही होती है...कोई कोठा या फिर हर रात नया बंगला...."घर" कहाँ होता है उनके नसीब मे.



रात के 12 बाज रहे थे और ऋुना , लैला के सामने बैठी थी बंगले मे . ऋुना सदानंद को देखकर चौकी थी, ये लैला ने देखा था..लैला ने पुछा तो उसने कह दिया कि उसके धंधे मे आने के बाद , सदानंद कुच्छ सुरू के कस्टमर मे से था.लैला को भी पता ही था कि तवायफों की किसी से भी पहचान बस जिस्म के सौदे तक ही होती है..उसने भी ज़्यादा नही पूछा.



"ऋुना, एक काम है तुझ से ..."


"जी कहिए"


"सदा बाबू ने कहा है कि कोहिनूर को कुच्छ दिनो के लिए इस शहर से हटाना है..जब तक उनका बेटा यहाँ है ...फिर वो कोहिनूर का कोई बंदोबस्त कर देंगे........." लैला बोले जा रही थी.


"जी" ऋुना का दिमाग़ बहुत तेज़ी से काम कर रहा था.


"तो मैं चाहती हूँ कि तू उसे लेकर अपने गाँव चली जा.....बड़े लोग हैं..यहाँ रहेगे और उस लौन्डे के हत्थे चढ़ गयी तो जाने सदाबाबू क्या करेंगे..समझ रही है ना तू......"


"जी"ऋुना ने बस इतना ही कहा.


"कल का तेरा और उसका टिकेट करवा देती हूँ......और सुन उसे कुच्छ मत बताना ....उसे यही पता चलना चाहिए कि वो लड़का इसके साथ रात गुज़रना चाह रहा था और उसके बाप को ये पसंद नही था....और इसीलिए उसे कुच्छ दिन के लिए शहर से दूर भेजा जा रहा है...क्यूकी बात एक बड़े आदमी की है..नेता की है...अगर बात खुल गयी तो तेरी और मेरी दोनो की खाल उतर जाएगी...बहुत ज़ालिम होते है ये खादी वाले."


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( आखिर वो दिन आ ही गया Complete )...(ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगाना complete)..(ज़िद (जो चाहा वो पाया) complete)..(दास्तान ए चुदाई (माँ बेटी बेटा और किरायेदार ) complete) .. (एक राजा और चार रानियाँ complete)..(माया complete...)--(तवायफ़ complete)..(मेरी सेक्सी बहनेंcompleet) ..(दोस्त की माँ नशीली बहन छबीली compleet)..(माँ का आँचल और बहन की लाज़ compleet)..(दीवानगी compleet..(मेरी बर्बादी या आबादी (?) की ओर पहला कदमcompleet) ...(मेले के रंग सास,बहू और ननद के संग).


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jay
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लैला अपनी आदत के वीपरीत काफ़ी संजीदगी से बात कर रही थी......उसे खुद नही पता था कि आलोक कैसे जानता है कोहिनूर को...और कोहिनूर कैसे जानती है उसे...वैसे भी वो जानकर क्या करती..उसे कोई दिलचस्पी नही थी..उसे तो बस कोहिनूर के रूप मे एक तिजोरी मिली थी जिसकी सही कीमत उसे मिलनी थी.


बेचारी लैला ऋुना को वो समझा रही थी जो वो अभी तक खुद ना समझी थी.दौलत का परदा पड़ा था आँखो पर, इसीलिए आलोक की तड़प भूल गयी थी.वैसे और कर भी क्या सकती थी वो, जो कहा गया था उसे वो करना था और इसकी कीमत उसे मिल रही थी...इस से ज़्यादा उसे मतलब नही था किसी चीज़ से.



उसकी नज़र मे कोहिनूर भी एक तवायफ़ थी और अगर आलोक के साथ उसका कोई रिश्ता था भी तो बस एक तवायफ़ का अपने आशिक़ से होने वाला रिश्ता ...और लैला को अच्छे से पता था ऐसे रिश्तों की उम्र बहुत लंबी नही होती...सिर्फ़ तब तक जब तक उस से अच्छि तवायफ़ किसी कोठे पर ना आ जाए.यही उसका अनुभव था और यही उसकी अपनी सोच थी.



"जी बहुत बेहतर...ऐसा ही होगा.." ऋुना ने एक बार फिर बस इतना ही कहा.


"एक बात बता..ये साला सदा का लौंडा पागल है क्या...........मेरा गला दबाने लगा.....अबे साला क्या शादी करेगा उस से......एक तवायफ़ से..आज तक तो किसी शरीफ़ज़ादे ने की नही....ये साला अमीरों के चोचले ना.......अरे अमरीका से आया है ना...........छोड़ रज्जाआअ.........अपनी समझ मे कहाँ आने वाला हैं..........अपने को तो रोकडे से मतलब और वो अपुन को मिल रहा है........."लैला बोल तो ऋुना से रही थी ...लेकिन सारी बातें खुद से ही किए जा रही थी.



ऋुना मन ही मन खुदा का शुक्रिया अदा कर रही थी..शुक्र था कि उसके साथ कोहिनूर को भेज रही थी लैला.उसने सोच लिया था कि एक बार पहले कोहिनूर से बात हो जाए , सारी सच्चाई पता चल जाए......फिर वो एक कोसिस ज़रूर करेगी,अगर उस कोसिस की ज़रूरत लगी उसे तो.



दूसरे दिन दोपहर के 2 बजे की ट्रेन से कोहिनूर और ऋुना , ऋुना के गाँव को रवाना हो गये .उनके साथ लैला का एक खास आदमी भी था -जुंमन . खूब लंबा चौड़ा , काला रोबीला चेहरा, लाल आँखे...कुर्ता और लूँगी पहने हुए.......किसी दानव के जैसा.......थोड़ी दूर पर बैठा अपनी चील सी नज़रो से ऋुना और कोहिनूर को घूर रहा था.




ट्रेन अपनी रफ़्तार से मंज़िल की ओर बढ़ी जा रही थी....ऋुना के गोद मे सर रख कर लेटी कोहिनूर कल से बिल्कुल खामोश थी..बस हां हूँ मे हर बात का ज़वब दे रही थी.कल से उसने कुच्छ भी नही खाया था..रह रहकर दर्द की एक लहर सी दौड़ जाती थी उसके सीने मे.आँखे नम थी और लब खामोश..बस दिल मे यादों का एक तूफान था,जो थम ही नही रहा था.



ट्रेन मे ज़्यादा भीड़ नही थी.....जुंमन की सीट पिछे थी और ऋुना और कोहिनूर की आमने सामने.... रात हो चुकी थी...सबने कुच्छ थोड़ा बहुत खाया....और कोहिनूर एक बार फिर ऋुना की गोद मे लेट गयी...जुंमन के होने से दोनो कोई बात नही कर रही थी.



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jay
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Re: तवायफ़

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थोड़ी देर बात जुंमन उठकर अपनी सीट पर चला गया सोने....अब उन दोनो के आस पास की सारे सीट खाली थी...ऋुना ने एक नज़र जुंमन पर डाली...कुच्छ ही देर मे उसके ख़र्राटों की आवज़ें आने लगी.........और वैसे भी वो दूसरी ओर चला गया था तो अब वो उनकी बातें सुन पाएगी ऐसा लगभग असंभव ही था.कम से कम ऋुना और कोहिनूर को तो यही लग रहा था कि जुंमन सो गया .और वैसे भी कल से ऋुना के दिल मे हलचल मची हुई थी ...सवालो का एक अंबार था उसके मन मे.अब उस से सब्र नही हो रहा था.....

"कोहिनूर" ऋुना बड़े प्यार से उसके बालो मे हाथ फेरते हुए बोली.

"ह्म्म्मथ" कोहिनूर हल्के से बोली..


"कौन है ये लड़का, वो तुझे काजल बुला रहा था...कैसे जानता है वो तेरे बारे मे ???........" ऋुना ने एक साथ वो सब कुच्छ पुछा, जो वो कल से ही पुछ्ना चाह रही थी.



कोहिनूर ने आँखे खोली और सूनी सूनी नज़रो से उसे देखने लगी....मानो पुच्छ रही हो कि क्या फ़र्क पड़ता है अब......उसने तो खुद ही आलोक को दुतकार दिया था कल...खुद कह दिया था कि क्या हक़ है उसपर ...फिर अब क्यूँ....??



"बताओ कोहिनूर कौन है ये लड़का ?? "



"नही बाजी....प्लीज़ अब मत पुछिये .......मैं बहुत शर्मिंदा हूँ...कल जाने कैसे एक कमजोर लम्हे का शिकार हो गयी उसे अचानक अपने सामने पाकर मैं...अगर मुझे पता होता कि यहाँ वो होगा तो मैं कभी ना आती........कभी भी नही....." कोहिनूर की आवाज़ मे एक पछ्तावा था.



"पता तो मुझे भी नही था कि वहाँ कौन मिलेगा, नही तो मैं भी ना आती." एक सपने के से आलम मे ऋुना ने कहा.



"खैर वो सब बातें फिर कभी, अभी मेरी बात सुन.......बड़ी किस्मत वाली है तू कि तुझे कोई चाहने वाला है......उसकी नज़रो से चाहत झलक रही थी ...एक तवायफ़ की ज़िंदगी मे वो पल नही आता जब कोई उसकी खातिर अपनो के खिलाफ हो जाए. ..उसे तो बस खरीदा जाता है , बेचा जाता है और एकदुसरे से बाँटा जाता है...अपनाया नही जाता.....लेकिन उस लड़के की आँखो मे कुच्छ और ही था.......मुहब्बत थी...देख मुझे बता सब कुछ......शायद मैं कुच्छ कर पाऊ तेरे लिए...एक छोटी सी कोसिस ......." ऋुना ने उसका चेहरा अपनी ओर करके उसकी आँखो मे देखते हुए कहा.........




"ऐसा क्यू होता है बाजी एक तवायफ़ के साथ.....ना उसके पास मांझी की खूबसूरत यादें होती हैं ना आने वाले दिन के सुहाने सपने....क्यू इतना अंधेरा होता है उसकी ज़िंदगी मे....क्यू जब दिल रोता है तब भी उसे हँसना पड़ता है............बाजी ! कोई क्यू नही बदल देता इस दुनिया की ये रिवायते .........क्यू बना दी जाती है कोई मासूम काजल एक कोहिनूर........ " कोहिनूर की आँखे छलक पड़ी और वो ऋुना के साथ अपनी मांझी के गलियारो मे डूबती चली गयी.......



इस बात से बेख़बर कि दो आँखे और दो कान उनकी हर बात ,हर हरकत देख और सुन रहे थे.......जुंमन इसी खेल का तो शातिर खिलाड़ी था.



"ऋुना बाजी, मेरी ज़िंदगी मे चन्द दिन खुशियों के भी थे ...जिन्हे याद करके अब मुझे सबसे ज़्यादा तकलीफ़ होती है.......काजल ..हां यही नाम था मेरा , मेरे कॉलेज मे........" कोहिनूर अपनी यादो के सफ़र पर ले चली ऋुना को.

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Re: तवायफ़

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" मैं बचपन से ही पढ़ने मे अच्छी थी और स्वाभाव की शांत…….लोगो से ज़्यादा घुलना मिलना मुझे नहीं आता था...शायद इसकी वजह मेरी परवरिश और मेरा परिवारिक अकेलापन था……..बचपन से ही मैं अपने नाना के यहाँ रही ...मेरी मम्मी शहर मे रहती थी ...पापा के बारे मे ज़्यादा पता नहीं है..सिवाय इसके कि वो बचपन मे ही गुजर गये थे.बस इतना ही बताया था माँ ने….छोटी थी तो इस से ज़्यादा पुछा नहीं, बड़ी हुई तो माँ को कभी बताने की फ़ुर्सत नहीं मिली…या शायद….".. बोलते बोलते काजल की आँखे भर आई.ऋुना शांत भाव से सुन रही थी...मानो उसकी अपनी ही कहानी हो.


काजल ने एक लंबी साँस ली और फिर बोलना सुरू किया...........


"बचपन से अपने मम्मी पापा के बारे मे ताने सुनते सुनते मुझे खुद के वजूद से नफ़रत सी हो गयी थी……लोग अलग अलग बातें करते थे.....लेकिन मेरा मन नहीं मानता था….…मुझे हमेसा लगता ज़रूर मम्मी की कोई मजबूरी होगी जो मैं उनसे दूर हूँ…..लेकिन थी तो बच्ची ही, कभी कभी सोचती थी कि जब किसी को मेरी ज़रूरत ही नहीं थी तो क्यू मैं दुनिया मे लाई गयी थी…??



ना ज़्यादा किसी से बोलना , ना कही आना जाना......मेरी दुनिया मेरे वजूद के चारो ओर सिमट सी गयी थी. घर के सारे काम करती और फिर बाकी का वक़्त अपनी किताबों को गले से लगा लेती.....वो कभी कोई ताना ,कोई उलाहना नहीं देती थी...मेरी कितबे मेरी दोस्त बनती गयी और शायद यही वजह थी की मैं पढ़ने मे काफ़ी ज़हीन थी.लेकिन बचपन क्या होता है मैने जाना नहीं.



“एक गीत है ऋुना बाजी, मुझे बड़ा पसंद था……अभी भी पसंद है.” काजल ने किसी छोटे बच्चे की तरह ऋुना के हाथो को सहलाते हुए कहा.


“कौन सा??”ऋुना ने पुछा.


“मैने माँ को देखा है, माँ का प्यार नहीं देखा……..सुना है आपने ???” कहते कहते काजल का गला भर आया


“नहीं सुना….आगे बता” ऋुना का भी वी हाल था, बस इतना ही बोली.



"ऋुना बाजी, माँ बाप के प्यार ना मिल पाने का ख़ालीपन मेरी ज़िंदगी मे एक नासूर बन गया....कभी मैने बचपन के वो खुशियों वाली दिन नहीं देखे...खैर………., जब तक नाना थे सब कुछ ठीक था..मम्मी भी कभी कभी आती थी..नाना कुछ पूछते तो बस इतना ही कहती थी कि शहर मे नौकरी के लिए कोशिस कर रही हुँ...मम्मी का सोचना भी शायद ठीक था.उन्हे शायद पता था कि नाना के ना होने पर ,मैं या वो ,कभी ननिहाल मे नहीं रह पाएँगे...और उनका सोचना बेवजह नहीं था."




"मैं बहुत छोटी थी जब नाना का देहांत हो गया....मैं खूब रोई ....बिल्कुल टूट गयी......नाना के रहते एक सहारा था...एक आसरा था......मेरे नाना मुझे बहुत प्यार करते थे……उनके बाद ननिहाल मे मामा मामी ने रहने नहीं दिया.....माँ ने मुझे बोरडिंग स्कूल भेज दिया....शायद उन्हे कोई नौकरी मिल गयी थी.....मुंबई मे…मैने पुछा तो उन्होने कुछ नाम भी बताया था पोस्ट का..मुझे याद नहीं रहा….." ...फिर एक पल को रुकी काजल, दो घूँट पानी पिया और एक गहरी साँस लेकर फिर बोलने लगी.



"मेरा ननिहाल बंगाल के एक छोटे से गाओं मे था और मेरा बोराडिंग स्कूल वहाँ कोलकाता मे..........बोरडिंग स्कूल मे मैने जी लगाकर पढ़ना सुरू कर दिया...सबकुछ पिछे छ्चोड़कर.........माँ कभी कभी आती थी.......लेकिन मुझे माँ से भी कोई खास लगाव नहीं था..........माँ के साथ मैं कभी ज़्यादा रही ही नहीं थी.....या शायद मेरी माँ ही मुझसे दूर रही थी....मुझे नहीं पता क्या वजह थी.....हां, पैसे महीने के महीने मेरे पास आते थे........"




"फिर बोराडिंग से मैं कॉलेज मे आ गयी और गर्ल्स हॉस्टिल मे रहने लगी........मैं 18 साल की हो चुकी थी....ज़िंदगी का एक ऐसा पड़ाव जब हर लड़की की आँखे सुनहरे सतरंगी सपने सजोने लगती हैं.....लेकिन मेरे सपने बहुत छोटे थे..........पढ़ाई पूरी करना और एक छोटी सी नौकरी...मेरे सपनो की ताबीर इस से ज़्यादा हो पाए, ऐसा हौसला कभी कर ही नहीं पाई मैं.........और ना कोई ऐसा था जो मेरे सपने की उड़ान को पंख देता. ….मैं बड़ी हो गयी थी .........शायद अपनी उमर से ज़्यादा बड़ी हो गयी थी.......लेकिन मेरे अंदर का ख़ालीपन नहीं गया.......... मेरी माँ का मेरे पास ना होना मुझे खलने लगा था अब...."



"कॉलेज का पहला साल ख़त्म हो चुका था...रिज़ल्ट भी आ गया था...मैने कॉलेज टॉप किया था…..क्लास मे चुप चुप सी रहने वाली मैं, बॅक बेंचर मे शुमार, मुझे कोई जानता ही नहीं था.......लेकिन रिज़ल्ट के आने के बाद से बहुत हाइलाइट हो गयी थी मैं...............मेरी किस्मत एक नया मोड़ ले रही थी...अच्छा या बुरा मुझे खुद नहीं पता था......"



"कॉलेज मे मुझे सम्मानित किया गया था उस दिन.......मुझे ख़ुसी नहीं हुई थी ये कहना शायदा ग़लत होगा............खैर, मेरी ख़ुसी मे शामिल होने वाला मेरा कोई अपना नहीं था....माँ से कभी कभार बात हो जाती थी.लेकिन बस ऐज ए फॉरमैनल्टी..ऐसा नहीं था कि मेरी माँ मुझे प्यार नहीं करती थी...लेकिन शायद कभी उस प्यार का अहसास वो नहीं दिला पाई मुझे....तब तक नहीं जब तक उनकी मौत ना हो गयी." काजल की आँखे एक बार फिर से भर आई……..ऋुना चुपचाप सुन रही थी. ट्रेन अपनी रफ़्तार से दौड़ रही थी..........काजल भी आज अपने दिल का सारा दर्द कह देना चाहती थी....वो दर्द जो किसी कीड़े के जैसे उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था.



उसने फिर से बोलना सुरू किया...........


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Re: तवायफ़

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"धीरे धीरे कॉलेज मे मेरे एक दो दोस्त बने........मुझसे दोस्ती की कोई खास वजह नहीं थी……… ..शिवाय मेरी जहानत के.......स्टडी मे अच्छा होना कुछ लोगो के लिए शायद कॉलेज मे भी मायने रखता था...ऐसे ही दोस्तो मे थी अंजलि...........सदानंद चौहान की बेटी….." काजल ने ऋुना की आँखो मे देखा. सदानंद का नाम लेते ही , ऋुना के चेहरे को देख कर ऐसा लग रहा था कि उसके मन मे कोई उथल पुथल मची हुई थी.

"क्या हुआ ऋुना बाजी" काजल ने बड़ी मासूमियत से पुछा......

"कुछ नहीं मेरी बच्ची ..बस यही सोच रही हू कि हर तवायफ़ की कहानी इतनी एक सी क्यू होती है......खैर, बता आगे ......उसी के ज़रिए उस लौन्डे से तेरी मुलाकात हुई होगी ??...."


"जी.आलोक से ..हां ऋुना बाजी आलोक नाम है उनका........मेरी मुलाकात पहली बार कॉलेज मे हुई थी वो अंजलि को छोड़ने आए थे........पहली बार कॉलेज के बाहर ही हाई हेलो हुई.."



"कोलकाता मे आलोक और अंजलि रहकर पढ़ाई करते थे...उनकी फॅमिली मुंबई मे रहती थी...वैसे उन दोनो के अलावा बस उसके पापा ही थे फॅमिली मे.....काफ़ी रईश लोग थे...एक अच्छा ख़ासा फ्लॅट ले रखा था आलोक ने...आलोक जब भी मिलते मुझे एक अलग ही नज़र से देखते थे...और जब कभी ग़लती से मेरी नज़र पड़ जाती तो बस हल्का से मुस्कुरा देते.......मैं समझ नहीं पाती कि क्या करूँ, लेकिन मैने कभी खुद से कदम उनकी ओर नहीं बढ़ाए..........."



काजल मानो सफाई पेश करते हुए बोली..हां..एक तवायफ़ को ये सफाई देनी ही पड़ती है...उस पर इल्ज़ाम जो होता है अमीरजादों , शरीफाजादों को फाँस लेने का.



"लेकिन ऋुना बाजी आलोक एक बेहद अच्छे इंसान थे.....आइ मीन हैं…..सुलझे हुए ...ज़िंदगी से भरपूर………..हस्मुख.....और मुझे भी अच्छे लगते थे."पहली बार एक हल्की सी शर्म की लाली काजल के गालो पे चमक गयी.....उसने बोलना जारी रखा.



"हम तीनो अक्सर एक साथ बाहर आने जाने लगे.......आलोक के पापा कोलकाता नहीं आते थे...मेरा तो कोई आनेवाला था नहीं……..माँ कभी आती तो 2-4 घंटे मे चली जाती.......अब मैं खुश रहने लगी थी ...अंजलि और आलोक के साथ ने एक और ही दुनिया दिखा दी थी मुझे.........अंजलि एक बहुत अच्छी दोस्त थी ...एक ऐसी दोस्त जिसपर मैं खुद से ज़्यादा यकीन करती थी...और आलोक???...अभी तक इस उलझन मे थी कि इस रिश्ते को क्या नाम दूं.........जो नाम था उस रिश्ते का वो मैं आक्सेप्ट नहीं कर पा रही थी.......दिल डर रहा था कि कही अपनी उड़ान से उँचा सपना ना देख बैठू.....जिसके टूटे हुए टुकड़े आँखो को चुभने लगे..........हां बाजी, खता कर दी थी इस दिल ने....उन दिलकश आँखो की भाषा ये दिल समझ गया था....मुझे मुहब्बत हो गयी थी....एक खामोश मुहब्बत…”



”एक ऐसी खामोश मुहब्बत जिसका गला भी मैं बड़ी खामोशी से घोंट देती, लेकिन किस्मत को तो मेरा मज़ाक बनाना था..ऐसा कर ना सकी..यही मेरी ख़ाता थी कि मैने उसी पल उन दोनो का साथ नहीं छोड़ दिया…नहीं छोड़ पाई बाजी…सेहरा के प्यासे को पानी की एक बूँद मिल जाए तो वो कैसे छोड़ दे…………मैं भी बचपन से इसी थोड़े से अपनेपन को तरसी थी..मैं नहीं छोड़ पाई….…मुझे तो मुहब्बत का समुंदर मिल गया था…..हां, ये नहीं पता था कि ये समुंदर मुझे डुबो देगा." काजल की चेहरे की उदासी और गहरी हो गयी , पर उसने खुद को संभाला और बोलना जारी रखा.



"अंजलि मेरी क्लास मेट थी और हम दोनो अक्सर कॉलेज साथ ही जाते थे...आलोक हमसे एक साल सीनियर थे लेकिन वो दूसरे कॉलेज मे थे..........आलोक अपनी कार मे हम दोनो को कॉलेज छोड़ते हुए खुद के कॉलेज जाते थे......मैं हमेशा आलोक से दूर भागती थी..कभी कोई मौका नहीं देती किसी भी बात का.....और फिर एक दिन जब मैं अंजलि के घर पहुचि.........."काजल की आँखो के सामने सारे पुराने मंज़र उभर आए.....उसके प्यार और दर्द की कहानी.



अंजलि जिसे मैं प्यार से "अंजू" कहती थी अपने रूम मे बिस्तर पर लेटी थी........."क्या हुआ अंजू..........?? तू अभी तक तैयार नहीं हुई........कॉलेज नहीं चलना क्या......"



"नहीं यार........तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही...........प्लीज़ तू चली जा ..नहीं तो लेक्चर मिस हो जाएगा....तेरा रहेगा तो मैं भी कर लूँगी.."पता नहीं क्यू मुझे लग रहा था कि अंजू झूठ बोल रही है....लेकिन ऐसी कोई बड़ी बात भी नहीं थी..मैं बाहर आने लगी.



"सुन ,भाई के साथ चली जा ना...."अंजू ने पिछे से कहा.



मेरे दिल धक्क से रह गया..आज तक मैं कभी अकेली आलोक के साथ कही नहीं गयी थी...मैने साफ साफ मना कर दिया और जल्दी जल्दी वहाँ से निकल गयी.डर था कि कही आलोक से सामना ना हो जाए.मैं मुहब्बत से भाग रही थी बाजी, वो मुहब्बत जो हर रोज जाने कैसे खुद ही बढ़ती जा रही थी.......शायद आलोक की शराफ़त का बड़ा हाथ था इसमे …या फिर शायद उनके अपनेपन का ..या शायद मेरे अकेलेपन का……….मुझे नहीं पता.


क्लास ख़त्म करके मैं बाहर निकली ही थी कि किसी ने आवाज़ लगाई..........


"काजल........." मैने पलट कर देखा, आलोक अपनी बाइक से टेक लगाए खड़े थे...आज बाइक से ..शायद अकेले थे इसलिए.
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