कामलीला complete

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Kamini
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Re: कामलीला

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rangila
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Re: कामलीला

Post by rangila »

एक बार एक परिवार ने उसके खिलाफ छेड़खानी की शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन अंजाम यह हुआ था कि पुलिस तो उसका क्या कुछ बिगाड़ती, चंदू ने उस लड़की सुनयना के घर घुस के उसके साथ गलत कर दिया था और कोई कुछ नहीं कर पाया था।
उसकी दहशत ऐसी थी कि उसके खिलाफ बोलने के लिये कोई नहीं खड़ा होता था… हर किसी को सिर्फ बर्दाश्त ही करना होता था।
आज वह पहली बार उसकी फब्ती का शिकार नहीं हुई थी, पहले भी कई बार हो चुकी थी पर आज उसने हद ही कर दी थी।
आज जब अपनी गली में घुसी थी तो जाने कहां से वह भूत की तरह पीछे आ गया था और एकदम उसके नितम्बों के बीच सीधे उंगली घुसाते हुए बोला था- और गुठली, अभी तक चूत वैसी ही सीलपैक्ड रखे है या चुदवाना शुरू कर दिया है?

वह बचपन से ही ‘गुठली’ कहता था, क्यों कहता था उसे पता नहीं… उसकी मोटी उंगली उसने अपने गुदाद्वार में घुसती महसूस की थी और उसके शब्दों ने जैसे उसकी कानों की लवों को सुलगा दिया था।
उसे इतना तेज़ गुस्सा आया कि जी किया, बस उस पर पिल पड़े… पर जानती थी कि यह संभव नहीं था, साथ ही ज़िल्लत और घबराहट से उसका पसीना छूट गया था।
उसने खुद को एकदम आगे उचकाते हुए चंदू की उंगली से बचाया और दौड़ने के अंदाज़ में घर की तरफ चली। उसे लगा था चंदू पीछे आएगा पर वह पीछे नहीं आया।
हां उसकी आवाज़ ज़रूर आई- अभी हम जिन्दा हैं, कोई जुगाड़ न बना हो तो बताना।
वह घर पहुंची थी तो उसका मूड बहुत ख़राब था।
ऐसी हरकतें कई बार उसने रानो के साथ भी की थी और आकृति के साथ तो कई बार ब्रेस्ट पंचिंग की थी, जिसके बाद वह हमेशा रोते हुए घर लौटी थी।
पर न चंदू के खिलाफ वह पहले कुछ कर पाए थे और न अब हो पाने वाला था… सिवा उससे नफरत करने और कोसने के।
रानो के पूछने पर उसने जनानी गालियां देते हुए बात बताई और दोनों ही उसे कोसने लगीं।
तब रानो ने उसे एक और मनहूस खबर सुनाई कि आज चाचे को शायद ठंड सता रही होगी कि किचन में तापने पहुंच गया और सीधा हाथ जला बैठा था।
यह वाकई उनके लिए बुरी खबर थी क्योंकि उसका बायां हाथ बेहद कमज़ोर था और अपने सारे काम वह दाएं हाथ से ही करता था और वह भी अब कुछ दिन के लिए बेकार हो गया था।
रानो ने बताया कि अभी उसे अपने हाथों से खाना खिलाया है।
लैट्रीन की दिक्कत नहीं थी क्योंकि उसके लिए अटैच्ड बाथरूम था, जहां सेल्फ सर्विस वाला कमोड था, पर खिलाना, कपड़े उतारना पहनाना अब उन्हें करना पड़ेगा।
हालांकि यह उनके लिए बड़ी चिंता का विषय था लेकिन फ़िलहाल आज का काम हो गया था तो सबके खाने के बाद रानो भी ऊपर ही चली गई थी।
टीवी उन्ही लोगों के कमरे में था जहां पहले वे बहनें सोती थीं।
घर करीब चार हज़ार स्क़्वायर फिट में बना था लेकिन गलियारे के एंट्रेंस के बाद एक साइड किचन, उलटे हाथ की तरफ दो कमरे, उनके आगे बरामदा और उसके बाद बड़ा सा दलान।
जिसके अंत में एक और बरामदा जिसमें कभी जब घर में बाबा ने गाय पाल रखी थी तो उसे बांधते थे, उसी साइड सबके लिए कॉमन लैट्रीन बाथरूम और उसी की छत पर दो कमरे बने थे जिसकी सीढियां आँगन से गई थीं।
एक कमरे में बबलू अकेला रहता था और दूसरे में वे तीनों बहनें… नीचे एक अटैच्ड बाथरूम वाला कमरा चाचा के लिये रिज़र्व था और दूसरे में पहले माँ-बाबा और बाद में बाबा और बाबा के जाने के बाद वह रहती थी।
वहां चाचा की ही वजह से किसी को रहने की ज़रूरत हमेशा रहती थी। अब चूंकि वही सब ज़िम्मेदारियों को ओढ़े थी तो उसे ही वहां रहना था।
सबसे अंत में रानो के जाने के बाद उसने कपड़े बदले और लेट गई।
चंदू की उंगलियों की सख्त चुभन उसे अब भी अपने नितंबों की दरार में महसूस हो रही थी और चंदू से शदीद नफरत के बावजूद भी ये चुभन उसे टीस रही थी।
जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसके नितंबों के बीच मौजूद वह छेद, जहां तक चंदू की उंगली पहुंची थी, उस स्पर्श को फिर से मांग रहा हो।
जैसे उस पर खुद उसका अख्तियार न हो, जैसे वह खुद उससे अलग कोई वजूद हो। शरीर में पैदा होती ऊर्जा कभी गुस्से में ढल जाती तो कभी बेचैनी में।
तभी चाचा की कराह ने उसकी तन्द्रा तोड़ दी।
उसे लगा जैसे चाचा किसी तकलीफ में हो… उसने ध्यान देकर सुना तो चाचा की एक कराह और सुनाई दी।
उसकी बेचैनी बढ़ गई।
वह बिस्तर से उठ गई, कमरे की लाइट जलाने की ज़रूरत नहीं महसूस की और ऐसे ही निकल कर पड़ोस के चाचा वाले कमरे में पहुँच गई।
चाचा के कमरे में हमेशा एक नाईट बल्ब जला करता था ताकि वह अंधेरे में कहीं डर न जाए या गिर गिरा न पड़े।
दरवाज़ा खुला ही रहता था।
और रोशनी में वह देख सकती थी कि चाचा ने पजामा घुटनों तक खिसकाया हुआ था और अपने बड़े से लिंग को पकड़े हुए था जो पूरी तरह उत्तेजित अवस्था में था।
उसका हाथ जला हुआ था और इस अवस्था में नहीं था कि वह उससे हस्तमैथुन कर सके पर शारीरिक इच्छा के आगे कमज़ोर पड़ के वही कर रहा था और यही उसकी तकलीफ का कारण था।
तभी चाचा के मुंह से एक कराह और निकली और वह असमंजस में पड़ गई कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे।
उसने जल्दी से चाचा के पास पहुंच कर उसका हाथ लिंग से हटाया और कंधे तक ऊपर कर दिया। उसके हाथ में लगी क्रीम उसके लिंग में पुंछ गई थी। शीला ने उसके सरहाने रखी क्रीम फिर उठाई और उसके हाथ में लगा दी।
फिर उसके लिंग की तरफ ध्यान दिया तो पाया कि अब चाचा अपने उलटे हाथ से उसे रगड़ रहा था।
पर उस हाथ में इतनी जान ही नहीं थी… जल्द ही थक कर झूल गया और वह बेबसी से शीला को देखने लगा।
शीला ने उसकी आँखों में देखा तो लगा जैसे उनमें पानी आ गया हो और वह एकदम झुरझुरी लेकर रह गई… क्या करे वह अब?
उसे झिझकते देख चाचा ने फिर अपना हाथ नीचे ले जाना चाहा तो शीला ने उसे पकड़ लिया।
चाचा उसे छुड़ाने के लिए मचलने लगा।
अंततः उसे यही समझ में आया कि चाचा कोई सामान्य इंसान तो था नहीं जो स्थिति को समझ सकता। अगर उसे हस्तमैथुन की इच्छा थी तो बिना किए शायद न रह पाये और करने की हालत में खुद था नहीं।
एक ही विकल्प था कि उसके लिए अब शीला इस कार्य को अंजाम दे।
हलाकि यह उसके लिए अब तक गन्दा, घिनौना और ऐसा काम था जो उसके स्त्रीसुलभ आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाला था लेकिन इधर जब से उसने चाचा के लिंग को खुद साफ़ करना शुरू किया था उसकी मनोदशा बदलने लगी थी।
अब शायद उसमें ऐसे किसी भी कार्य के लिये विरोध की भावना बेहद क्षीण पड़ चुकी थी। उसने कुछ पल खुद को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार किया और फिर कांपते झिझकते हाथ से उसे थाम लिया।
बेहद गर्म लिंग… उसके कल्पना ने एक तपते हुए लोहे की गर्म रॉड से उसकी तुलना की।
लिंग पर उभरी मोटी-मोटी नसों में अजीब सा गुदगुदापन था।
वह अपना हाथ इतना ऊपर ले गई जहां लिंग के अग्रभाग को छू सके।
एक रबर के टमाटर जैसा महसूस हुआ।
जब वह उसके मुरझाये हुए लिंग को स्खलन के पश्चात् साफ़ करती थी तब ऐसा नहीं होता था पर अभी था और गर्म भी तब नहीं होता था जैसे अभी था।
फिर इतना नीचे ले गई कि हथेली लिंग की जड़ में लटकते बड़े से अंडकोषों से स्पर्श हुई… वे भी जैसे फूल पिचक रहे थे।
पर उसके हाथ ने बेहद धीमे अंदाज़ में क्रिया की थी जिससे चाचा को वह घर्षण नहीं मिला जो चाहिए था और उसने खुद कमर उचका उचका कर लिंग खुद से ही ऊपर नीचे किया तो शीला समझ सकी कि उसे कैसे करना था।
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rangila
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Re: कामलीला

Post by rangila »

वह थोड़ी तेज़ गति से हाथ ऊपर-नीचे करने लगी तो चाचा ने कमर चलानी बन्द कर दी।
अब शीला के हाथ की हरारत चाचा को जो भी फीलिंग दे रही हो लेकिन उसके लिंग की हरारत शीला के जिस्म में ऐसी सनसनाहट पैदा कर रही थी कि उसकी योनि में अजीब सी हलचल होने लगी थी।
शायद उसका दिमाग इस बारे में कुछ भी नही सोच रहा था लेकिन पुरुष संसर्ग को तरसा उसका शरीर खुद अपनी तरफ से प्रतिक्रिया दे रहा था।
ऐसी हालत में उसे शर्म भी आ रही थी और डर भी लग रहा था कि दरवाज़ा खुला था, कहीं कोई भाई बहन नीचे न आ जाएं और उसे यह करते देख लें।
उसके अवचेतन में कहीं नैतिकता के कांटे भी सुरक्षित थे जो उसके दिमाग के एक हिस्से को कचोट रहे थे कि वह उसका सगा चाचा था और यह अनुचित था… अनैतिक था।
पर विकल्प क्या था?
शर्म, डर, झिझक के अहसास और नैतिक-अनैतिक की दिमाग में चलती बहस के बीच उसका हाथ तेज़ी से हरकत करता रहा और उसने महसूस किया कि चाचा के मुंह से अब जो आहें निकल रही थीं वे आनन्द भरी थीं।
फिर जब उसका तेज़ी से चलता हाथ थकने की कगार पर पहुंच गया तो उसने महसूस किया कि चाचा की कमर फिर चलने लगी है और वह जैसे शीला के हाथ के बने छल्ले को योनि समझ कर भेदन करने लगा हो।
और फिर वह अकड़ गया।
एकदम ज़ोर से उसका लिंग फूला था और उसके छेद से सफ़ेद धातु की बड़ी सी पिचकारी ऐसी छूटी थी कि सीधे शीला के कपड़ों पे आई थी।
उसने हड़बड़ा कर लिंग छोड़ दिया था।
पर उसी पल झटके से चाचा ने सीधे हाथ से उसे पकड़ लिया था और उसे ऊपर नीचे करने लगा… वीर्य की कुछ और पिचकारियां छूटी थीं जो इधर उधर गिरीं थी।
और यह ऐसी तेज़ी से हुआ था कि वह चाह कर भी उसके हाथ को रोक नहीं पाई थी और चाचा ने अंत में सख्ती से हाथ से दबोच लिया था और अब वह उसकी मुट्ठी में कैद ठुनक रहा था।
फिर मुट्ठी ढीली पड़ी तो उसने चाचे का हाथ लिंग से दूर किया और गौर से लिंग को देखने लगी जिसकी तनी और चमकती त्वचा अब ढीली पड़ने लगी थी।
उसके देखते देखते वह सिकुड़ कर उतना छोटा हो गया जितना साफ़ करने में वह देखती थी।
फिर उठी, चाचा की सफाई के लिये रिज़र्व रखा कपड़ा बाथरूम से गीला किया, पहले खुद पर आये वीर्य को साफ़ किया और फिर चाचा को साफ़ करने लगी।
चाचा अब आँखें बन्द किये ऐसे पड़ा था जैसे सो गया हो।
हाथ की पुंछ गई क्रीम उसने एक बार और लगाई।
अच्छे से साफ़ कर चुकने के बाद शीला ने उसका पजामा ऊपर खिसकाया और उसे सोता छोड़ कर अपने कमरे में आकर लेट गई।
अब जल्दी नींद नहीं आनी थी, जो हुआ था पहली बार था लेकिन लिंग और हाथ के घर्षण ने उसकी सुप्त पड़ी इच्छाओं में ऐसी हलचल मचाई थी कि शरीर का एक एक हिस्सा जैसे टीस रहा था, कसक रहा था।
उसने अपनी योनि को छूकर देखा, वह भी चिपचिपी हुई पड़ी थी जैसे बही हो, जबकि उसके बहने का उसे अहसास भी नहीं हुआ था।
शरीर अपनी ज़रूरत खुद समझता है और उसके हिसाब से स्वतः ही प्रतिक्रिया देता है, चाहे आप दिमाग से उसकी तरफ ध्यान दें, न दें।
उस रात बड़ी मुश्किल से उसे नींद आई।
अगले दिन रोज़ जैसी दिनचर्या रही और कोई ऐसी बात नही हुई जो काबिले ज़िक्र हो। उस रोज़ चाचा जल्दी ही सो गया था इसलिये कोई अतिरिक्त परेशानी सामने न आई।
वह रानो को यह बात बताना चाहती थी मगर कोशिश करके भी हिम्मत ना जुटा पाई।
बहरहाल उसके अगला दिन भी वैसे ही गुज़र गया जैसे आमतौर पर उनके गुज़रते थे लेकिन उसके अगली रात चाचा को फिर वही हाजत महसूस हुई।
और इस बार उसने खुद से करना नहीं शुरू किया बल्कि ‘ईया-ईया’ की पुकार लगा कर उसे बुलाया था।
पहले उसे लगा शायद कोई ज़रूरत हो लेकिन जब उसके पास पहुंची तो वह पजामा खिसकाए, लिंग निकाले पड़ा था।
इस बार उसने हाथ नहीं लगाया था और उसे ऐसी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा था जैसे कह रहा हो कि तुम करो, जैसे किया था।
उसकी मानसिक अवस्था किसी अबोध बच्चे जैसी थी, जिसे कोई चीज़ या क्रिया अच्छी लगी तो वह चाहता है कि वह बार बार वैसी ही हो।
पहले उसके जले हाथ की वजह से मज़बूरी में शीला ने जो किया था, आज वही वह चाहता था कि शीला ही करे। अब यह तो जगज़ाहिर बात है कि अपने हाथ के हस्तमैथुन से ज्यादा मज़ा दूसरे के हाथ से आता है और इतना फर्क तो अविकसित दिमाग के बावजूद उसे समझ में आता था।
वह उलझन में पड़ गई कि उसने अनजाने में चाचा को एक नया रास्ता दिखा कर सही किया था या गलत? क्या अब वह इसी चीज़ की इच्छा बार-बार नहीं करेगा कि हर बार उसका हस्तमैथुन शीला ही करे।
चाचा ने उसे फिर पुकारा तो उसने कदम बढ़ाये।
डर आज भी इस बात का था कि कोई देख न ले। उसने एहतियातन दरवाज़े को बंद करके सिटकनी लगा दी।
कमरे में वेंटिलेशन के लिए एक बड़ा सा रोशनदान था और एक बिना पल्ले वाली खिड़की थी जो आँगन में खुलती थी। उसपे पर्दा पड़ा रहता था मगर आवाज़ें तो बाहर जाती ही थीं।
दिमाग में फिर नैतिक-अनैतिक की अंतहीन सी बहस शुरू हो गई पर लड़खड़ाते कदम चाचा के बिस्तर तक जाकर ही रुके।
वह चाचा को देखते शर्माई, झिझकी लेकिन चाचा को न उसकी मनोदशा का अहसास था और न ही समझ। वह बस कल जैसा सुख चाहता था।
शीला ने कपकपाते हाथ से उसके लिंग को पकड़ ही लिया और चाचे की आँख बन्द हो गई।
अभी उसमें इतना तनाव नहीं आया था जितना उसने कल देखा था लेकिन जब उसने उसे ऊपर नीचे सहलाना शुरू किया तो वह वैसे ही कठोर होता गया जैसे कल था।
सहलाते सहलाते उसके दिमाग में चलती सही-गलत, नैतिक-अनैतिक की बहस कमज़ोर पड़ती गई और उसका ध्यान अपने जिस्म में पैदा होती सनसनाहट और लहरों की ओर जाने लगा।
वह रात में ब्रा नहीं पहनती थी, नीचे पैंटी होती थी और ऊपर से नीचे तक लंबी नाइटी।
स्वतःस्फूर्त तौर पर सीधे हाथ को चाचे के लिंग पर चलाते उसका बायां हाथ अपने वक्ष-स्थल पर चला गया और उसके मुंह से ‘सी’ निकल गई।
ऐसा पहली बार नहीं था… उसने पहले भी अपने वक्षों को अकेली रातों में जागते-सुलगते दबाया था, सहलाया था पर शायद उसे वह फील नहीं मिला था जो आज हाथ लगाने पर मिला।
ऐसा क्यों?
जो हो रहा है, वह तो गलत है न… उसका दिमाग जानता है कि यह गलत है, फिर उसका शरीर इसे क्यों नहीं महसूस कर रहा?
क्यों नहीं इसका प्रतिकार कर रहा?
क्यों एक गलत और अनैतिक कार्य पर ऐसा रिस्पॉन्स दे रहा जो विपरीतलिंगी शरीरों के घर्षण पर तब देना चाहिए जब घर्षण जायज़ हो, नैतिक हो, सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो।
ज़ाहिर है यह नैतिक अनैतिक के नियम इंसानों ने बनाये थे शरीरों ने नहीं, वे तो वैसी ही प्रतिक्रिया देते हैं जैसी उन्हें ऐसी किसी भी स्थिति में देनी चाहिये।
उसे चाचा के लिंग पर हाथ चलाते अपने स्तनों का मर्दन मज़ा दे रहा था तो क्या उसे नहीं लेना चाहिये, उसे खुद को रोक लेना चाहिये।
बचपन के संस्कारों का असर था कि नैतिकता के पैरोकार दिमाग ने उसे अपेक्षित रूप से रुकने की सलाह दी… फिर एक चोर रास्ता भी सुझाया कि अभी रुक जाना, थोड़ी देर में रुक जाना, क्या हो जायेगा इतनी देर में।
पर यह थोड़ी देर का वक्त ख़त्म होने को न हुआ।
फिर सहज रूप से, बेखयाली में ही, अपनी मुट्ठी में दबे चाचे के लिंग को अपने पूरे शरीर में महसूस करते उसका बायां हाथ वक्ष से उतर कर नीचे पहुंच गया और अपनी योनि को दबाने-भींचने लगा।
और इस स्पर्श ने उसमे जो आग पैदा की तो ये सही, नैतिक, समाज में स्वीकार्य टाइप जो पिलर उसने दिमाग में खड़े कर रखे थे… सब धड़धड़ा कर धराशाई हो गये।
नाइटी उसे बाधा लगी तो उसने नाइटी को समेट कर ऊपर खींचा और पैंटी के ऊपर से ही अपनी योनि को मसलने लगी।
अजीब सा नशा दिमाग पर हावी होता गया।
उसे अच्छा… बेहद अच्छा लग रहा था और वह बस ऐसे ही इसे महसूस करते रहना चाहती थी। इसके सिवा बाकी बातें उसके दिमाग से निकल गईं।
उसकी सोचों का घोड़ा वहां रुका जहां चाचा ने स्खलन की दशा में ज़ोर की ‘आह’ भरते हुए कमर ऊपर उठा दी थी और वीर्य की पहली पिचकारी फिर उसी के ऊपर आई।
लेकिन कल के अनुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था… वह तब तक हाथ चलाती रही जब तक वीर्य निकलना बन्द नहीं हो गया।
फिर उसने लिंग को आज़ाद कर दिया… वह कुछ कुछ देर में ऐसे ठुनक रहा था जैसे कोई दम तोड़ता सांप, या जीव मद्धम होते क्रम में झटके लेता है।
इस वीर्यपात ने उसका ध्यान भटका दिया था जिससे उसकी अपनी उत्तेजना का पारा चरम तक पहुंचते पहुंचते रह गया था।
तीव्र अनिच्छा के बावजूद उसने उठ कर चाचा को साफ़ किया और उसे निश्चल पड़ा छोड़ कर अपने कमरे में चली आई।
आज जो अनुभव मिला था वह नया था, अप्रतिम था मगर उस अनुभव ने उसमे ऐसी बेचैनी पैदा कर दी थी जिसने उसे लगभग पूरी रात न सोने दिया।
अगले दो दिन सामान्य गुज़रे… चाचा कोई नार्मल तो था नहीं कि जो चीज़ अच्छी लगती है वह सिर्फ अच्छा लगने के लिए रोज़ करे, बल्कि तभी करता था जब उसका शरीर इसकी ज़रूरत समझता था।
बस इस बीच वह सोचती रही थी कि क्या सही था क्या गलत… क्या नैतिक था और क्या अनैतिक और जो सही और नैतिक था तो क्यों था और गलत और अनैतिक था तो क्यों था।
हर गुज़रते दिन के साथ उसके अंदर एक दूसरी शीला का अस्तित्व पैदा होता जा रहा था जो बाग़ी थी, जो स्थापित मान्यताओं, परम्पराओं और मर्यादाओं से लड़ जाना चाहती थी, उन्हें तोड़ देना चाहती थी।
आखिर क्या दिया था इन सबने उसे… क्या सिर्फ इसलिए उसे अपने शरीर का सुख प्राप्त करने से रोका जा सकता था कि वह लोगों द्वारा अपेक्षित एक योग्य वधू के मानदंडों पर पूरी नहीं उतरती?
तो वह या उस जैसी हज़ारों लाखों ऐसी औरतें जो ऐसा अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर हैं, उन्हें अपनी इच्छाओं की तिलांजलि दे देनी चाहिये?
पर दिमाग के सोचे को क्या शरीर भी समझता है? समझता है तो क्यों ऐसी प्रतिक्रियाएं देता है जो सामाजिक नियमों के हिसाब से वर्जित हैं?
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Re: कामलीला

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चौथे दिन सोने से पहले चाचा ने उसे पुकारा था।
और यह पुकार उसे ऐसी लगी थी जैसे उसके कान अस्वाभाविक तौर पर उसी की प्रतीक्षा कर रहे हों और इस पुकार के सुनते ही उसके बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई हो।
उसके दिमाग का एक हिस्सा फिर ‘गलत-गलत’ की रट लगाने बैठ गया था पर उसने खुद को अपने शरीर की ज़रूरतों के हवाले कर दिया और जो अंग जैसी प्रतिक्रिया देता रहा वह स्वीकारती रही।
उसने बेअख़्तियारी की हालत में अपनी नाइटी उठा कर अपनी पैंटी भी उतार दी और अपने कमरे से निकल कर चाचे के कमरे में पहुंच गई।
चाचा का हाथ अब ठीक था और चाहता तो वह खुद ही अपने काम को अंजाम दे सकता था लेकिन अब उसे शीला के हाथ का चस्का लग चुका था और वह लिंग बाहर निकाले उसे आशा भरी दृष्टि से देख रहा था।
उसने दरवाज़ा बन्द कर दिया और चाचा के बैड के सरहाने स्थित अलमारी से वह सरसों का तेल निकाल लिया जो उसने परसों ही रखा था।
यह उसे किसी ने बताया नहीं था बल्कि उसका सहज ज्ञान था कि त्वचा से त्वचा की सूखी रगड़ जलन और रैशेज बना सकती थी। अगर तेल जैसी किसी चिकनी चीज़ का प्रयोग किया जाये तो ऐसा नहीं होगा।
अपने हाथ और दूसरे के हाथ में फर्क होता है… खुद के हाथ का पता होता है कितना दबाव देना है पर दूसरे के हाथ से पता नहीं चलता इसलिये चिकनाहट ज़रूरी थी।
वह चाचा को बिस्तर के एक साइड थोड़ा सरका के पूरी तरह पांव फैला कर उसके पास ही बैठ गई। उसने अपने सीधे हाथ में तेल लिया और उसे चाचा के लिंग पर इस तरह चुपड़ दिया कि वह एकदम चमकने लगा।
अभी वह अर्ध-उत्तेजित अवस्था में था लेकिन जैसे ही शीला के हाथों की गर्माहट और घर्षण मिला, उसमे खून भरने लगा और वह एकदम तन कर खड़ा हो गया।
शीला धीरे-धीरे उसे अपने हाथों से रगड़ने लगी।
साथ ही उसने अपने शरीर की इच्छा को सर्वोपरि रखते हुए अपनी नाइटी के ऊपरी बटन खोल लिये और उलटे हाथ को अंदर डाल कर अपने स्तनों को सहलाने लगी।
नरम दूधों पर हाथ की थोड़ी सख्त चुभन उसके अपने बदन में गर्माहट भरने लगी।
उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वक्षों का योनि से कोई इंटर-कनेक्शन हो… वह अपने स्तनों को मसल रही थी, चुचुकों को रगड़ रही थी, दबा रही थी और उत्तेजना भरी सरसराहट नीचे योनि में हो रही थी।
उसे चाचा की परवाह नहीं थी, चाचा को तो समझ ही नहीं थी कि वह क्या कर रही थी, उसे बस इतना पता था कि वह उसके लिंग को मसल रही थी और उसे बेहद सुखद लग रहा था।
जल्दी ही शीला के लिये अपने हाथ को रोके रखना मुश्किल हो गया।
उसने अपने चाचा के लिंग से हाथ हटा कर दोनों हाथों पर फिर से तेल चुपड़ा और सीधा हाथ चाचा के लिंग पर पहुंचाकर उल्टा हाथ, नीचे नाइटी उठाकर अपनी योनि तक पहुंचा दिया।
उसे अपने हाथ की आवरण रहित छुअन में भी अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। वह पूरी योनि को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर सहलाने लगी, रगड़ने लगी।
इन पलों में उसके शरीर में कामवासना से भरी जो लहरें दौड़ीं तो उसकी आंखें मुंद गईं। बस यही दो चीजें दिमाग में थी कि उसके एक हाथ में चाचा का मजबूत लिंग है और दूसरा हाथ उसकी योनि को रगड़ दे रहा है।
अवचेतन के जाने किस अंधेरे से चुपके से यह कल्पना सामने आ खड़ी हुई कि योनि से रगड़ देने वाली चीज़ चाचा का लिंग है जो उसकी, भगनासा, भगोष्ठ और भगांकुर को अकूत आनन्द का अहसास दे रहा है।
ऐसी हालत में उसे यह कल्पना अतिरेक न लगी, अनैतिक या मर्यादा से इतर न महसूस हुई बल्कि उसके यौनानन्द में और बढ़ोत्तरी करने वाली चीज़ लगी।
और उसने इस कल्पना को स्वीकार कर लिया और उसी में खो गई।
फिर न उसे अपना होश रहा, न चाचा का, न कमरे की खुली खिड़की का… आँखें बंद किये बस इस कल्पना में जीने लग गई कि चाचा का लिंग उसे वो संतुष्टि दे रहा है जिसकी उसे भूख थी।
आँखें बन्द थीं और होंठों से दबी-दबी सिसकारियाँ निकल रही थीं, दोनों हाथ तेज़ी से अपना काम कर रहे थे और वासना में डूबे इन पलों की सुइयां घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रही थीं।
फिर इस दौड़ का अंत हुआ…
उसने अपनी मुट्ठी में चाचा के लिंग को फूलते अनुभव किया और साथ ही चाचा के बदन की ऐंठन को भी और वह कल्पना से बाहर आ गई।
उसने आँखें खोल दीं और चाचा की एक कराह के साथ जैसे ही लिंग वीर्य की पिचकारी छोड़ने को हुआ उसने मुट्ठी भींच ली ताकि पिचकारी के उछलने का वेग कम हो जाये।
ऐसा ही हुआ और उछलने के बजाय वीर्य इस तरह निकला कि उसकी मुट्ठी से होता चाचा के पेट तक गया… पूर्वानुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था।
वह हाथ फिर भी ऊपर नीचे करती रही मगर इस सख्ती से साथ कि निकलने वाली पिचकारी वेग न लेने पाये और चार पिचकारी में वह ठंडा पड़ गया।
पांचवी बार में बस बूँद निकली और उसने लिंग छोड़ दिया पर आज उसने कल की तरह अपनी उत्तेजना का अंत नहीं होने दिया था… उसे लग रहा था कि अभी उसके सफर का अंत नहीं हुआ।
हालांकि उसका उल्टा हाथ थक चुका था लेकिन चूंकि अब उसका सीधा हाथ फ्री हो गया तो उसने हाथ बदल लिया और चाचा के पैरों पे सर टिकाते हुए तेज़ी से योनि को रगड़ने लगी।
इस रगड़ में उसने एक चीज़ यह महसूस की थी कि भले पूरी योनि की रगड़ उसे मज़ा दे रही थी लेकिन जब उसकी उंगलियां योनि के ऊपरी सिरे को छूती थीं तो उत्तेजना एकदम बढ़ जाती थी।
यानी सबसे ज्यादा संवेदनशील पॉइंट ऊपर था… यह उसकी समझ में आ गया था।
और इसीलिये अब जब वह रगड़ रही थी तो पूरी योनि के बजाय सिर्फ ऊपर ही रगड़ रही थी और हर रगड़ उसे एक नई ऊंचाई तक लिये जा रही थी।
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