दिलेर मुजरिम
अजीबो-ग़रीब क़त्ल
‘‘मुझे जाना ही पड़ेगा मामी।’’ डॉक्टर शौकत ने कमरे में दाख़िल होते हुए ओवरकोट की दूसरी आस्तीन में हाथ डालते हुए कहा।
‘‘ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे और इसके सिवा मैं कह ही क्या सकती हूँ।’’ बूढ़ी सविता देवी बोलीं। ‘‘लेकिन सिर में अच्छी तरह मफ़लर लपेट लो...सर्दी बहुत है।’’
‘‘मामी...!’’ डॉक्टर शौकत बचकाने अन्दाज़ में बोला। ‘‘आप तो मुझे बच्चा ही बनाये दे रही हैं...मफ़लर सिर में लपेट लूँ...हा-हा-हा...!’’
‘‘अच्छा बड़े मियाँ! जो तुम्हारा जी चाहे, करो।’’ सविता देवी मुँह बना कर बोलीं। ‘‘मगर मैं कहती हूँ, यह कैसा काम हो गया...न दिन चैन, न रात चैन। आज ऑपरेशन, कल ऑपरेशन।’’
‘‘मैं अपनी अच्छी मामी को किस तरह समझाऊँ कि डॉक्टर ख़ुद आराम करने के लिए नहीं होता, बल्कि दूसरों को आराम पहुँचाने के लिए होता है।’’
‘‘मैंने तो आज ख़ास तौर से तुम्हारे लिए मैकरोनी तैयार करायी थी। क्या रात का खाना भी शहर ही में खाओगे?’’ सविता देवी बोलीं।
‘‘क्या करूँ, मजबूरी है...इस वक़्त सात बज रहे हैं। नौ बजे रात को ऑपरेशन होगा। केस ज़रा नाज़ुक है...अभी जा कर तैयारी करनी होगी...अच्छा, ख़ुदा हाफ़िज़।’’
डॉक्टर शौकत अपनी छोटी-सी ख़ूबसूरत कार में बैठ कर शहर की तरफ़ रवाना हो गया। वह सिविल हस्पताल में असिस्टेंट सर्जन की हैसियत से काम कर रहा था। दिमाग़ के ऑपरेशन का माहिर होने की वजह से उसकी शोहरत दूर-दूर तक थी, हालाँकि अभी उसकी उम्र कुछ ऐसी न थी; वह चौबीसपच्चीस बरस का एक ख़ूबसूरत नौजवान था। अपनी आदतों और व्यवहार के चलते सोसायटी में इज़्ज़त की नज़रों से देखा जाता था। क़ुरबानी का जज़्बा उसकी फ़ितरत में था। आज का ऑपरेशन वह कल पर भी टाल सकता था, लेकिन उसके ज़मीर ने इसकी इजाज़त न दी।
सविता देवी अकसर उसकी भाग-दौड़ पर झल्ला भी जाया करती थीं। उन्होंने उसे अपने बेटे की तरह पाला था। वह हिन्दू धर्म को मानने वाली एक बुलन्द किरदार औरत थीं। उन्होंने अपनी दम तोड़ती हुई सहेली जाफ़री ख़ानम से जो वादा किया था, उसे आज तक निभाये जा रही थीं। सविता देवी ने अपनी सहेली की वसीयत के अनुसार उसके बेटे को डॉक्टरी की उच्च शिक्षा दिला कर इस क़ाबिल बना दिया था कि वह आज सारे देश में अच्छी-ख़ासी शोहरत रखता था। हालाँकि शौकत की माँ उसकी पढ़ाई के लिए काफ़ी धन छोड़ कर मरी थीं, लेकिन किसी दूसरे के बच्चे को पालना आसान काम नहीं और फिर बच्चा भी ऐसा जिसका सम्बन्ध दूसरे धर्म से हो। अगर वे चाहतीं तो उसे अपने धर्म पर चला सकती थीं, लेकिन उनकी नेकनीयती ने यह गवारा न किया था। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने उसकी धार्मिक शिक्षा का भी ठीक-ठाक इन्तज़ाम किया था। यही वजह थी कि वह नौजवान होने पर भी शौकत अली ही रहा। सविता देवी के बिरादरी के लोगों ने एक मुसलमान के साथ रहने की वजह से उनका बाइकाट कर रखा था, मगर वे अपने मज़हब की पूरी तरह पाबन्द थीं और शौकत को उसके धार्मिक कर्तव्य को पूरा करने के लिए मजबूर करती रहती थीं। वे डॉक्टर शौकत और एक नौकरानी के साथ निशात नगर नाम के क़स्बे में रह रही थीं, जो शहर से पाँच मील की दूरी पर था। वहाँ उनकी अपनी कोठी थी। वे जवानी ही में विधवा हो गयी थीं। उनके पति अच्छी-ख़ासी जायदाद के मालिक थे जो किसी क़रीबी रिश्तेदार के न होने के कारण पूरी-की-पूरी उन्हीं के हिस्से में आयी थी।
डॉक्टर शौकत के चले जाने के बाद उन्होंने नौकरानी से कहा—‘‘मेरे कमरे में बिजली मत जलाना। मैं आज शौकत ही के कमरे में सोऊँगी। वह आज रात भर थकता रहेगा। मैं नहीं चाहती कि सुबह जब वह आये तो अपने बिस्तर को ब़र्फ की तरह ठण्डा पाये। जाओ, जा कर उसका बिस्तर बिछा दो।’’
नौजवान नौकरानी उन्हें हैरत से देख रही थी। आज पहली बार उसने उन्हें इस क़िस्म की बात करते सुना था। वह कुछ कहना ही चाहती थी कि फिर उसे एक ममता-भरे दिल की भावना समझ कर ख़ामोश हो रही।
‘‘क्या सोच रही हो?’’ सविता देवी बोलीं।
‘‘तो क्या आज रात हम अकेले रहेंगे?’’ नौकरानी अपनी आवाज़ धीमी करके बोली। ‘‘वह आदमी आज फिर आया था।’’
‘‘कौन आदमी...?’’
‘‘मैं नहीं जानती कि वह कौन है, लेकिन मैंने कल रात को भी उसको बाग़ में छुप-छुप कर चलते देखा था। कल तो मैं समझी कि शायद वह कोई रास्ता भूला हुआ राहगीर होगा। मगर आज छै बजे के क़रीब वह फिर दिखायी दिया।’’
‘‘अच्छा...!’’ सविता देवी सोच कर बोलीं। ‘‘वह शायद हमारी मुर्गियों की ताक में है। मैं सुबह ही थाने के दीवान से कहूँगी।’’
सविता देवी ने यह कह कर उसको इत्मीनान दिला दिया, लेकिन ख़ुद उलझन में पड़ गयीं। आखिर यह सन्दिग्ध आदमी उनकी कोठी के गिर्द क्यों मँडराता रहता है। उन्हें धार्मिक ठेकेदारों की धमकियाँ अच्छी तरह याद थीं, लेकिन इतने समय के बाद उनकी तरफ़ से भी किसी ख़तरनाक क़दम की आशंका नहीं थी। इस प्रकार की न जाने कितनी गुत्थियाँ उनके ज़ेहन में रेंगती थीं। आखिरकार थक-हार कर दिल के सुकून के लिए उन्हें अपने पहले ही विचार की तरफ़ लौटना पड़ा। यानी वह शख़्स कोई मामूली चोर था जिसे उनकी मुर्गियाँ पसन्द आ गयी थीं। जैसे ही थाने के घण्टे ने दस बजाये, वे सोने के लिए डॉक्टर शौकत के कमरे में चली गयीं। उन्होंने रात खाना भी नहीं खाया।
नौकरानी उनकी आदतें बख़ूबी जानती थी। इसलिए उसने ज़्यादा इसरार भी नहीं किया। थोड़ी देर के बाद वह भी सोने के कमरे में चली गयी। वह लेटने ही वाली थी कि उसने बाहर के फाटक को धमाके के साथ बन्द होते सुना। उसे लगा कि डॉक्टर शौकत जल्दी वापस आ गये हैं। वह बरामदे में निकल आयी। बाग़ में सविता देवी की ग़ुस्सायी आवाज़ सुनायी दी। वे किसी आदमी से ऊँची आवाज़ और तेज़ लहजे में बात कर रही थीं। वह हैरत से सुनने लगी। वह अभी बाहर जाने का इरादा ही कर रही थी कि सविता देवी बड़बड़ाती हुई आती दिखायी दीं।
‘‘तुम...!’’ वे बोलीं। ‘‘अरे लड़की, तू क्यों अपनी जान के पीछे पड़ी है। इस सर्दी में बग़ैर कम्बल ओढ़े बाहर निकल आयी है...न जाने कैसी हैं आजकल की लड़कियाँ।’’
‘‘कौन था...?’’ नौकरानी ने उनकी बात सुनी-अनसुनी करते हुए पूछा। ‘‘वही आदमी तो नहीं था।’’ नौकरानी ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा।
‘‘नहीं, वह नहीं था। सर्दी बहुत है। सुबह बताऊँगी... अच्छा, अब जाओ।’’ नौकरानी हैरान हो कर चली गयी। सविता देवी थोड़ी देर तक उस आदमी के बारे में सोचती रहीं। वह उन्हें सन्दिग्ध लग रहा था। लेकिन कुछ ही देर बाद वे ख़र्राटे भरने लगीं।