कुमकुम/कुशवाहा कान्त
मदमत्त मेघों ने स्वच्छाकाश पर अपना नृत्य आरंभ कर दिया। वायु वृक्षों के कोमल पल्लवों का आलिंगन करता हुआ विचरण करने लगा। मयूर हर्षोत्फुल हो चीत्कार कर उठे। मनोरम वनस्थली के पक्षी, वृक्षों की शाखाओं पर बैठकर कलरव करने में निमग्न हो गये। भुवनभास्कर के प्रज्जवलित मुख-मण्डल को, उमड़ती हुई सघन घनराशि ने आच्छादित कर लिया।
युवराज ने एक क्षण के लिए अपना अश्व रोककर सामने के वन्य-प्रदेश पर दृष्टि डाली। कितना सघन, कितना वृक्षलतादिपूर्ण एवं कितना मनोहारी था भूखंड का यह भाग।...................
जहां पक्षियों का गुंजरित कलरव, प्रकृति-नटी की अद्भुत छटा एवं नेत्ररंजक हरियाली का मुग्धकारी नृत्य, हृदयप्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनंद की सृष्टि कर रहा था।
संसार की कोलाहलमयी सीमा से दूर अवस्थित था, वनस्थली का यह अपूर्व प्रदेश।
युवराज अपने नेत्रों पर हथेली की आड़ देकर सामने की ओर देखने लगे, परन्तु मन्थरगति से हिलती हुई वृक्षों की टहनियों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर न हुआ।
'जाम्बुक कहाँ रह गया...?' युवराज ने मानो बनस्थली में व्याप्त उस घोर नीरवता से प्रश्न किया और फिर तुरंत ही अश्व से नीचे उतर पड़े।
अश्व की लम्बी बागडोर एक वृक्ष की शाखाओं में बांधकर, वे एक स्वच्छ स्फुटित-शिला पर आ बैठे।
आज ऊषा के आगमन के साथ ही युवराज ने उस वनस्थली में पदार्पण किया था आखेट के हेतु। उनके साथ कितने ही पायक थे, परन्तु इस समय सब न जाने किधर भटक गये थे और युवराज वाराह की खोज में भयानक जंगल के उस भाग में आ पहुंचे थे।
युवराज के सुगठित शरीर पर बहमूल्य वस्त्र एक विचित्रता लिए देदीप्यमान हो रहे थे। उनकी सुंदर मुखाकृति पर भीनती हुई यौवन-रेखायें अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही थीं। कंधे से लगा हुआ कार्मुक, तूणीर में आच्छादित कितने ही तीर एवं पाश्र्व में लटकता हुआ तीक्ष्ण कृपाण-सब उनकी अतुल शक्ति के साक्षी थे।
सृष्टि के आदिकाल में, जिस समय संसार इतना सभ्य नहीं था, इतनी विशाल अट्टालिकायें, इतने वैभवशाली राजा प्रासाद एवं इतना उन्नत कला-कौशल नहीं था, जनता में शांति की रक्षा के लिए नियम उप-नियम नहीं बने थे, लोग अपने झगड़ों का निवारण तलवार की धार से किया करते थे उस समय समस्त जम्बूद्वीप (भारतवर्ष) पर एक जाति शासन करती थी-द्रविड़ ! द्रविड़ राज युगपाणि की राजधानी थी पुष्पपुर एवं युवराज नारिकेल थे, युगपाणि के एकमात्र पुत्र।
'जाम्बुक..! जाम्बुक...!' युवराज की तीव्र पुकार निर्जन वन्य-प्रदेश में गुंजायमान हो उठी। 'जाम्बुक...! जाम्बुक...!' दूर क्षितिज से टकराकर युवराज की ध्वनि लौट आई, मानो उनका परिहास करता हुआ चारों दिशाओं में प्रकृति का भयानक अट्टहास गूंज उठा हो।
उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के मध्य से सूखे पत्तों के चरमराने की ध्वनि सुनाई पड़ी। युवराज चौंककर उठ खड़े हुए।
देखा, एक विशालकाय वाराह खड़ा था, अपने प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा युवराज को घूरता हुआ। युवराज के नयन प्रकाशमान हो उठे। उनके विशाल बाहु चंचल हो गये। उन्होंने कार्मुक पर तीर चढ़ाया। वाराह के मुख से क्रोधपूर्ण गुर्राहट की ध्वनि निकल पड़ी। वह प्रबल वेग से टूट पड़ा युवराज के ऊपर।
युवराज संभल गये थे। जरा-सा पीछे हटकर दायीं ओर खड़े हो गये। दूसरे ही क्षण, तीव्र गति से उन पर आक्रमण करने के लिए आए हुए उस विकराल वाराह के तीक्ष्ण दांत, दाहिनी ओर के वृक्ष में धंस गए।