कुमकुम/कुशवाहा कान्त
मदमत्त मेघों ने स्वच्छाकाश पर अपना नृत्य आरंभ कर दिया। वायु वृक्षों के कोमल पल्लवों का आलिंगन करता हुआ विचरण करने लगा। मयूर हर्षोत्फुल हो चीत्कार कर उठे। मनोरम वनस्थली के पक्षी, वृक्षों की शाखाओं पर बैठकर कलरव करने में निमग्न हो गये। भुवनभास्कर के प्रज्जवलित मुख-मण्डल को, उमड़ती हुई सघन घनराशि ने आच्छादित कर लिया।
युवराज ने एक क्षण के लिए अपना अश्व रोककर सामने के वन्य-प्रदेश पर दृष्टि डाली। कितना सघन, कितना वृक्षलतादिपूर्ण एवं कितना मनोहारी था भूखंड का यह भाग।...................
जहां पक्षियों का गुंजरित कलरव, प्रकृति-नटी की अद्भुत छटा एवं नेत्ररंजक हरियाली का मुग्धकारी नृत्य, हृदयप्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनंद की सृष्टि कर रहा था।
संसार की कोलाहलमयी सीमा से दूर अवस्थित था, वनस्थली का यह अपूर्व प्रदेश।
युवराज अपने नेत्रों पर हथेली की आड़ देकर सामने की ओर देखने लगे, परन्तु मन्थरगति से हिलती हुई वृक्षों की टहनियों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर न हुआ।
'जाम्बुक कहाँ रह गया...?' युवराज ने मानो बनस्थली में व्याप्त उस घोर नीरवता से प्रश्न किया और फिर तुरंत ही अश्व से नीचे उतर पड़े।
अश्व की लम्बी बागडोर एक वृक्ष की शाखाओं में बांधकर, वे एक स्वच्छ स्फुटित-शिला पर आ बैठे।
आज ऊषा के आगमन के साथ ही युवराज ने उस वनस्थली में पदार्पण किया था आखेट के हेतु। उनके साथ कितने ही पायक थे, परन्तु इस समय सब न जाने किधर भटक गये थे और युवराज वाराह की खोज में भयानक जंगल के उस भाग में आ पहुंचे थे।
युवराज के सुगठित शरीर पर बहमूल्य वस्त्र एक विचित्रता लिए देदीप्यमान हो रहे थे। उनकी सुंदर मुखाकृति पर भीनती हुई यौवन-रेखायें अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही थीं। कंधे से लगा हुआ कार्मुक, तूणीर में आच्छादित कितने ही तीर एवं पाश्र्व में लटकता हुआ तीक्ष्ण कृपाण-सब उनकी अतुल शक्ति के साक्षी थे।
सृष्टि के आदिकाल में, जिस समय संसार इतना सभ्य नहीं था, इतनी विशाल अट्टालिकायें, इतने वैभवशाली राजा प्रासाद एवं इतना उन्नत कला-कौशल नहीं था, जनता में शांति की रक्षा के लिए नियम उप-नियम नहीं बने थे, लोग अपने झगड़ों का निवारण तलवार की धार से किया करते थे उस समय समस्त जम्बूद्वीप (भारतवर्ष) पर एक जाति शासन करती थी-द्रविड़ ! द्रविड़ राज युगपाणि की राजधानी थी पुष्पपुर एवं युवराज नारिकेल थे, युगपाणि के एकमात्र पुत्र।
'जाम्बुक..! जाम्बुक...!' युवराज की तीव्र पुकार निर्जन वन्य-प्रदेश में गुंजायमान हो उठी। 'जाम्बुक...! जाम्बुक...!' दूर क्षितिज से टकराकर युवराज की ध्वनि लौट आई, मानो उनका परिहास करता हुआ चारों दिशाओं में प्रकृति का भयानक अट्टहास गूंज उठा हो।
उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के मध्य से सूखे पत्तों के चरमराने की ध्वनि सुनाई पड़ी। युवराज चौंककर उठ खड़े हुए।
देखा, एक विशालकाय वाराह खड़ा था, अपने प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा युवराज को घूरता हुआ। युवराज के नयन प्रकाशमान हो उठे। उनके विशाल बाहु चंचल हो गये। उन्होंने कार्मुक पर तीर चढ़ाया। वाराह के मुख से क्रोधपूर्ण गुर्राहट की ध्वनि निकल पड़ी। वह प्रबल वेग से टूट पड़ा युवराज के ऊपर।
युवराज संभल गये थे। जरा-सा पीछे हटकर दायीं ओर खड़े हो गये। दूसरे ही क्षण, तीव्र गति से उन पर आक्रमण करने के लिए आए हुए उस विकराल वाराह के तीक्ष्ण दांत, दाहिनी ओर के वृक्ष में धंस गए।
Romance कुमकुम complete
- rajsharma
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Re: कुमकुम
उसका बार खाली गया, इससे वह भयानक जन्तु और भी क्रोधित हो उठा। उसके मुख से दिशाओं को प्रकम्पित करती हुई भयानक घुरघुराहट निकाली।
युवराज ने कार्मुक कान तक खींचा। दूसरे ही क्षण तौर सर्राता हुआ जाकर उस क्रुद्ध वाराह के पंजर में घुस गया। दारुण चीत्कार के साथ वह भूमि पर लेट गया और छटपटाने लगा।
युवराज धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़े। उनका अनुमान था कि वह मृतप्राय वाराह उस समय पूर्णतया अशक्त है और उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुंचाने की सामर्थ्य उसमें नहीं है।
इसलिए वे वाराह के एकदम समीप चले गए, परन्तु ज्यों ही वे उसके सन्निकट पहुंचे, वह विचित्र गति से उठ खड़ा हुआ और सामने के घने जंगल की ओर भाग चला।
अपने शिकार को भागता देखकर युवराज विद्युत वेग से अश्व पर आरूढ़ हो गये। उनका संकेत पाकर द्रुतगामी अश्व लक्षित दिशा की ओर भाग चला, अविराम गति से। कितने ही नदी-नाले, झाड़-झंखाड़ पार किये जा चुके, परन्तु न तो वह वाराह ही रुका और न युवराज ने उसका पीछा छोड़ा।
दोनों में से किसी की गति में बाधा न पहंची। युवराज का अश्व इतना अभ्यस्त था कि ऊबड़ खाबड़ भूमि पर भी तीव्र गति से अग्रसर हो रहा था।
पीछा करने की धुन में युवराज ने इस बात का ध्यान न दिया कि उनके मार्ग में ही एक वृक्ष की शाखा बहुत नीचे तक झुकी हुई है।
दूसरे ही क्षण एक करुण चीत्कार के साथ युवराज अश्व पर से नीचे आ रहे। वृक्ष की शाखा उनके मस्तक से इतने प्रबल वेग से टकराई कि रक्त की धारा प्रवाहित हो चली। स्वामिभक्त अश्व दो-चार पग आगे बढ़कर खड़ा हो गया। युवराज कुछ क्षणों तक चेतनाहीन रहे।
परन्तु चेतना आते ही वे पुनः अश्व पर जा चढ़े। मस्तक के घाव का उन्हें कुछ ध्यान ही नहीं रहा-ध्यान रहा तो केवल उस वाराह का, जो इस समय उनकी दुर्दशा का कारण बना।
वाराह अधिक दूर नहीं गया कि युवराज ने पुन: अपने कार्मुक पर तौर चढ़ाया। सर्राता हुआ वह तीर जाकर वाराह की ग्रीवा में घुस गया। ठीक उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के पीछे से एक सांगी प्रबल वेग से आकर उस वाराह के पंजर में जा धंसी।
इन दोनों प्रबल आघातों को सहन न कर सकने के कारण वह दुर्दान्त वाराह भूमि पर लुढ़ककर अंतिम सांस लेने लगा। युवराज को आश्चर्य हुआ, महान आश्चर्य-यह देखकर कि उनके शिकार पर इस प्रकार आक्रमण करने वाला यह दूसरा कौन आ पहुंचा?
युवराज अपने अश्व पर से नीचे उतरे। उसी समय एक सघन वृक्षावलि से निकलकर एक बीस वर्षीय बालक उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ।
युवराज ने ध्यानपूर्वक उस युवक पर दृष्टि डाली। देखा-उसके मुख पर अपूर्व तेज प्रस्फुटित हो रहा है। शरीर नग्न है, केवल कटि-प्रदेश पर एक साधारण-सा वस्त्र है। कटि-प्रदेश में कृपाण लटक रहा है एवं हाथ में एक सांगी। वेशभूषा से वह किरात पुत्र-सा लग रहा था।
'कौन हो तुम....?' युवराज ने पूछा उस वीर युवक से। 'मैं किरात कुमार पर्णिक हूं...।' युवक ने किंचित् हास्य के साथ उत्तर दिया। 'किरातकुमार पर्णिक...?' युवराज ने स्थिर वाणी में दोहराया। उनका हृदय तीव्र गति से क्रोधित हो उठा था, यह सोचकर कि इस धृष्ट युवक ने उनके शिकार पर अपनी सांगी चलाकर उनका घोर अपमान किया है।
'किरातकुमार पर्णिक? तुमने युवराज नारिकेल का अपमान किया है, मेरे शिकार पर अपनी सांगी चलाई है...जानते हो इसका परिणाम...?' युवराज बोले।
'इसका परिणाम...?' पर्णिक के सुंदर मुख पर पुन: हास्य रेखा नृत्य कर उठी--- क्या हो सकता है इसका परिणाम...? आप ही बताने का कष्ट कीजिये...चिर कृतज्ञ रहूंगा...।'
युवराज की देदीप्यमान मुखश्री म्लान पड़ गई, युवक की व्यंगात्मक बातें सुनकर।
उन्हें लगा, जैसे किरातकुमार के वेश में कोई आकाशीय देवता उनकी परीक्षा लेने भूतल पर उतर आया है नहीं तो एक किरातकुमार में इतना साहस कहां?
'मुझे आश्चर्य है...!' पर्णिक दो पग आगे बढ़ आया—'कि युवराज ने अपने राजप्रासाद की सुखमयी गोद त्यागकर इस कंटकाकीर्ण वनस्थली में विचरण करना कैसे स्वीकार कर लिया एवं निरीह वन्य पशुओं पर अपनी अतुलित शक्ति का दुरुपयोग करना किस प्रकार उचित समझा?'
युवराज ने कार्मुक कान तक खींचा। दूसरे ही क्षण तौर सर्राता हुआ जाकर उस क्रुद्ध वाराह के पंजर में घुस गया। दारुण चीत्कार के साथ वह भूमि पर लेट गया और छटपटाने लगा।
युवराज धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़े। उनका अनुमान था कि वह मृतप्राय वाराह उस समय पूर्णतया अशक्त है और उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुंचाने की सामर्थ्य उसमें नहीं है।
इसलिए वे वाराह के एकदम समीप चले गए, परन्तु ज्यों ही वे उसके सन्निकट पहुंचे, वह विचित्र गति से उठ खड़ा हुआ और सामने के घने जंगल की ओर भाग चला।
अपने शिकार को भागता देखकर युवराज विद्युत वेग से अश्व पर आरूढ़ हो गये। उनका संकेत पाकर द्रुतगामी अश्व लक्षित दिशा की ओर भाग चला, अविराम गति से। कितने ही नदी-नाले, झाड़-झंखाड़ पार किये जा चुके, परन्तु न तो वह वाराह ही रुका और न युवराज ने उसका पीछा छोड़ा।
दोनों में से किसी की गति में बाधा न पहंची। युवराज का अश्व इतना अभ्यस्त था कि ऊबड़ खाबड़ भूमि पर भी तीव्र गति से अग्रसर हो रहा था।
पीछा करने की धुन में युवराज ने इस बात का ध्यान न दिया कि उनके मार्ग में ही एक वृक्ष की शाखा बहुत नीचे तक झुकी हुई है।
दूसरे ही क्षण एक करुण चीत्कार के साथ युवराज अश्व पर से नीचे आ रहे। वृक्ष की शाखा उनके मस्तक से इतने प्रबल वेग से टकराई कि रक्त की धारा प्रवाहित हो चली। स्वामिभक्त अश्व दो-चार पग आगे बढ़कर खड़ा हो गया। युवराज कुछ क्षणों तक चेतनाहीन रहे।
परन्तु चेतना आते ही वे पुनः अश्व पर जा चढ़े। मस्तक के घाव का उन्हें कुछ ध्यान ही नहीं रहा-ध्यान रहा तो केवल उस वाराह का, जो इस समय उनकी दुर्दशा का कारण बना।
वाराह अधिक दूर नहीं गया कि युवराज ने पुन: अपने कार्मुक पर तौर चढ़ाया। सर्राता हुआ वह तीर जाकर वाराह की ग्रीवा में घुस गया। ठीक उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के पीछे से एक सांगी प्रबल वेग से आकर उस वाराह के पंजर में जा धंसी।
इन दोनों प्रबल आघातों को सहन न कर सकने के कारण वह दुर्दान्त वाराह भूमि पर लुढ़ककर अंतिम सांस लेने लगा। युवराज को आश्चर्य हुआ, महान आश्चर्य-यह देखकर कि उनके शिकार पर इस प्रकार आक्रमण करने वाला यह दूसरा कौन आ पहुंचा?
युवराज अपने अश्व पर से नीचे उतरे। उसी समय एक सघन वृक्षावलि से निकलकर एक बीस वर्षीय बालक उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ।
युवराज ने ध्यानपूर्वक उस युवक पर दृष्टि डाली। देखा-उसके मुख पर अपूर्व तेज प्रस्फुटित हो रहा है। शरीर नग्न है, केवल कटि-प्रदेश पर एक साधारण-सा वस्त्र है। कटि-प्रदेश में कृपाण लटक रहा है एवं हाथ में एक सांगी। वेशभूषा से वह किरात पुत्र-सा लग रहा था।
'कौन हो तुम....?' युवराज ने पूछा उस वीर युवक से। 'मैं किरात कुमार पर्णिक हूं...।' युवक ने किंचित् हास्य के साथ उत्तर दिया। 'किरातकुमार पर्णिक...?' युवराज ने स्थिर वाणी में दोहराया। उनका हृदय तीव्र गति से क्रोधित हो उठा था, यह सोचकर कि इस धृष्ट युवक ने उनके शिकार पर अपनी सांगी चलाकर उनका घोर अपमान किया है।
'किरातकुमार पर्णिक? तुमने युवराज नारिकेल का अपमान किया है, मेरे शिकार पर अपनी सांगी चलाई है...जानते हो इसका परिणाम...?' युवराज बोले।
'इसका परिणाम...?' पर्णिक के सुंदर मुख पर पुन: हास्य रेखा नृत्य कर उठी--- क्या हो सकता है इसका परिणाम...? आप ही बताने का कष्ट कीजिये...चिर कृतज्ञ रहूंगा...।'
युवराज की देदीप्यमान मुखश्री म्लान पड़ गई, युवक की व्यंगात्मक बातें सुनकर।
उन्हें लगा, जैसे किरातकुमार के वेश में कोई आकाशीय देवता उनकी परीक्षा लेने भूतल पर उतर आया है नहीं तो एक किरातकुमार में इतना साहस कहां?
'मुझे आश्चर्य है...!' पर्णिक दो पग आगे बढ़ आया—'कि युवराज ने अपने राजप्रासाद की सुखमयी गोद त्यागकर इस कंटकाकीर्ण वनस्थली में विचरण करना कैसे स्वीकार कर लिया एवं निरीह वन्य पशुओं पर अपनी अतुलित शक्ति का दुरुपयोग करना किस प्रकार उचित समझा?'
- rajsharma
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Re: कुमकुम
युवराज निश्चल खड़े रहे। केवल एक बार उन्होंने आश्चर्य एवं क्रोधपूर्ण दृष्टि पर्णिक पर डाली। 'क्या युवराज के राजप्रासाद में आमोद-प्रमोद की वस्तुओं का इतना अभाव हो गया है कि उन्हें इस भूखंड में आकर अपने मनोरंजनार्थ वन्य-पशुओं का वध करना पड़ा? क्या युवराज के हृदय में वह अन्यायपूर्ण कार्य न्यायोचित प्रतीत हुआ है?'
'क्या अब पुष्पपुर के युवराज को एक किरातकुमार से न्याय की दीक्षा लेनी पड़ेगी?' 'न्याय पर किसी का एकाधिकार नहीं युवराज...!' निर्भय उत्तर दिया पर्णिक ने।
युवराज क्रोध एवं क्षोभ से कांप उठे—'तुम्हारी बातें अभद्रोचित हैं किरातकुमार! अच्छा हो कि तुम अपने इस सुकुमार मुख से ऐसे अप्रिय वाक्य न निकालो। युवराज की सहनशीलता का सीमोल्लंघन कर रही है तुम्हारी बातें।'
'हम दरिद्र हैं। हमें भोजन के लिए कन्दमूल भी दुर्लभ है। यदि हम अपनी क्षुधा के शमनार्थ ऐसे निकृष्ट मार्ग का अवलम्बन कर, वन्य-पशुओं का वध करे तो वह क्षम्य हो सकता है मगर आप...? आपको क्षुधा लगने पर मणि-मुक्ताओं की थालियां मिल सकती हैं। निद्रा लगने पर पुष्पशैया प्रस्तुत हो सकती है, प्यास लगने पर सुधारस भी मिल सकता है—यदि आप ऐसा घृणित कार्य केवल अपने हेय मनोरंजन की पूर्ति के लिए करें तो वह क्षम्य नहीं हो सकता कभी नहीं हो सकता युवराज...।'
'युवराज नारिकेल तुम्हारी इन अभद्र एवं धृष्ट बातों का उत्तर कृपाण से देना चाहते हैं सावधान !' युवराज ने कटिप्रदेश से लटकती हुई अपनी कृपाण खींच ली।
'मैं प्रसन्न हूं...युवराज को विदित हो कि पर्णिक की माता ने उसे मरना सिखाया है, जीना नहीं...।'
दोनों विकट प्रतिद्वन्द्रियों के कृपाण झन्न से एक-दूसरे से जा टकराये। नीरव वनस्थली कृपाणों की भयावनी झंकार से झंकृत हो उठी-झन्न! ! ! पास के वृक्षों पर बैठे हुए पक्षिगण पंख फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। वायु के प्रबल वेग से कांपकर एकाएक पत्तियां निश्चल हो गयीं। दानवाकार मेघों के लुट जाने से भुवनभास्कर का देदीप्यमान मुखमंडल चमचमा उठा और वे प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा उन दोनों समवयस्क युवकों का वह अद्भुत द्वन्द्व देखने लगे।
स्वर्णिम किरणों के पड़ने से दोनों के स्वेदाच्छन्न मुख अतीव प्रभावशाली दृष्टिगोचर हो रहे थे।
'परिहास नहीं है...पर्णिक पर विजय पाना, परिहास नहीं युवराज।' पर्णिक का कृपाण तीव्र वेग से युवराज पर प्रहार करने को लपका। युवराज ने पैंतरा बदला, जरा-सा झुके और विद्युत जैसी चपलता के साथ उन्होंने पर्णिक का बार विफल कर दिया।
"अब तुम बचना किरात युवक !' युवराज ने अपने कृपाण का भरपूर दांव पर्णिक पर चलाया, मगर आश्चर्य कि वह वीर किरात पुत्र उस अचूक लक्ष्य से परे जा रहा, केवल उसके मणिबंध पर जरा-सी खरोंच आ गई।
"तुम अद्भुत हो किरातकुमार!' युवराज आश्चर्यचकित हो उठे—'नहीं तो तुम्हारे मणिबंध पर लगा हुआ वह तनिक-सा घाव तुम्हारे वक्ष पर होता!' विकराल रूप धारण किये हुए युवराज ने पणिक के वार का प्रत्युत्तर दिया—मुझे आश्चर्य है—घोर आश्चर्य है कि इस बन्य-प्रदेश में रहते हुए, कितना अच्छा शस्त्र संचालन तुमने किस प्रकार सीखा!'
'यह मेरी माताजी की कृपा है, युवराज ! उन्होंने ही मुझे शस्त्र संचालन की शिक्षा दी है...।' 'धन्य है तुम्हारी माताजी...!' 'केवल मेरी ही माता नहीं, अवनी की माता, संसार के प्रत्येक प्राणी की माता होने योग्य हैं वे...आप अप्रतिम होते जा रहे हैं युवराज...! युद्ध में शिथिलता प्राणघातक हो सकती है।'
पर्णिक को आश्चर्य हुआ यह देखकर कि युवराज की शस्त्र-संचालन गति धीमी पड़ती जा रही है और बहुत सम्भव था कि पर्णिक का कृपाण उन पर संघातिक आक्रमण कर बैठता...कि सहसा पर्णिक की दृष्टि युवराज के मस्तक के घाव पर जा पड़ी।
इस समय भी उस घाव से रक्तस्राव हो रहा था। युवराज की शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी। क्रमश: उन पर अचैतन्यता के लक्षण स्पष्ट दीख पड़ने लगे और कुछ ही क्षणों के पश्चात् वे अर्धमूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। पर्णिक ने दौड़कर उन्हें उठाया— 'युवराज...!' और अब पर्णिक ने युवराज के मस्तक का वह भयंकर घाव देखा।
युवराज के नेत्र धीरे से खुले। मुंह से क्षीण स्वर निकला-'मेरी चिंता न करो, पर्णिक...तुम्हारी माता प्रतीक्षा कर रही होंगी। अब मैं ठीक हूं।'
'मुझे आशा है कि श्रीयुवराज मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे।' पर्णिक ने कहा।
युवराज ने स्वीकृति में केवल अपना मस्तक हिला दिया। 'पर्णिक ! मुझे सहारा देकर घोड़े पर बैठा दो...और तब तुम जा सकते हो...।' युवराज बोले।
'क्या अब पुष्पपुर के युवराज को एक किरातकुमार से न्याय की दीक्षा लेनी पड़ेगी?' 'न्याय पर किसी का एकाधिकार नहीं युवराज...!' निर्भय उत्तर दिया पर्णिक ने।
युवराज क्रोध एवं क्षोभ से कांप उठे—'तुम्हारी बातें अभद्रोचित हैं किरातकुमार! अच्छा हो कि तुम अपने इस सुकुमार मुख से ऐसे अप्रिय वाक्य न निकालो। युवराज की सहनशीलता का सीमोल्लंघन कर रही है तुम्हारी बातें।'
'हम दरिद्र हैं। हमें भोजन के लिए कन्दमूल भी दुर्लभ है। यदि हम अपनी क्षुधा के शमनार्थ ऐसे निकृष्ट मार्ग का अवलम्बन कर, वन्य-पशुओं का वध करे तो वह क्षम्य हो सकता है मगर आप...? आपको क्षुधा लगने पर मणि-मुक्ताओं की थालियां मिल सकती हैं। निद्रा लगने पर पुष्पशैया प्रस्तुत हो सकती है, प्यास लगने पर सुधारस भी मिल सकता है—यदि आप ऐसा घृणित कार्य केवल अपने हेय मनोरंजन की पूर्ति के लिए करें तो वह क्षम्य नहीं हो सकता कभी नहीं हो सकता युवराज...।'
'युवराज नारिकेल तुम्हारी इन अभद्र एवं धृष्ट बातों का उत्तर कृपाण से देना चाहते हैं सावधान !' युवराज ने कटिप्रदेश से लटकती हुई अपनी कृपाण खींच ली।
'मैं प्रसन्न हूं...युवराज को विदित हो कि पर्णिक की माता ने उसे मरना सिखाया है, जीना नहीं...।'
दोनों विकट प्रतिद्वन्द्रियों के कृपाण झन्न से एक-दूसरे से जा टकराये। नीरव वनस्थली कृपाणों की भयावनी झंकार से झंकृत हो उठी-झन्न! ! ! पास के वृक्षों पर बैठे हुए पक्षिगण पंख फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। वायु के प्रबल वेग से कांपकर एकाएक पत्तियां निश्चल हो गयीं। दानवाकार मेघों के लुट जाने से भुवनभास्कर का देदीप्यमान मुखमंडल चमचमा उठा और वे प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा उन दोनों समवयस्क युवकों का वह अद्भुत द्वन्द्व देखने लगे।
स्वर्णिम किरणों के पड़ने से दोनों के स्वेदाच्छन्न मुख अतीव प्रभावशाली दृष्टिगोचर हो रहे थे।
'परिहास नहीं है...पर्णिक पर विजय पाना, परिहास नहीं युवराज।' पर्णिक का कृपाण तीव्र वेग से युवराज पर प्रहार करने को लपका। युवराज ने पैंतरा बदला, जरा-सा झुके और विद्युत जैसी चपलता के साथ उन्होंने पर्णिक का बार विफल कर दिया।
"अब तुम बचना किरात युवक !' युवराज ने अपने कृपाण का भरपूर दांव पर्णिक पर चलाया, मगर आश्चर्य कि वह वीर किरात पुत्र उस अचूक लक्ष्य से परे जा रहा, केवल उसके मणिबंध पर जरा-सी खरोंच आ गई।
"तुम अद्भुत हो किरातकुमार!' युवराज आश्चर्यचकित हो उठे—'नहीं तो तुम्हारे मणिबंध पर लगा हुआ वह तनिक-सा घाव तुम्हारे वक्ष पर होता!' विकराल रूप धारण किये हुए युवराज ने पणिक के वार का प्रत्युत्तर दिया—मुझे आश्चर्य है—घोर आश्चर्य है कि इस बन्य-प्रदेश में रहते हुए, कितना अच्छा शस्त्र संचालन तुमने किस प्रकार सीखा!'
'यह मेरी माताजी की कृपा है, युवराज ! उन्होंने ही मुझे शस्त्र संचालन की शिक्षा दी है...।' 'धन्य है तुम्हारी माताजी...!' 'केवल मेरी ही माता नहीं, अवनी की माता, संसार के प्रत्येक प्राणी की माता होने योग्य हैं वे...आप अप्रतिम होते जा रहे हैं युवराज...! युद्ध में शिथिलता प्राणघातक हो सकती है।'
पर्णिक को आश्चर्य हुआ यह देखकर कि युवराज की शस्त्र-संचालन गति धीमी पड़ती जा रही है और बहुत सम्भव था कि पर्णिक का कृपाण उन पर संघातिक आक्रमण कर बैठता...कि सहसा पर्णिक की दृष्टि युवराज के मस्तक के घाव पर जा पड़ी।
इस समय भी उस घाव से रक्तस्राव हो रहा था। युवराज की शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी। क्रमश: उन पर अचैतन्यता के लक्षण स्पष्ट दीख पड़ने लगे और कुछ ही क्षणों के पश्चात् वे अर्धमूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। पर्णिक ने दौड़कर उन्हें उठाया— 'युवराज...!' और अब पर्णिक ने युवराज के मस्तक का वह भयंकर घाव देखा।
युवराज के नेत्र धीरे से खुले। मुंह से क्षीण स्वर निकला-'मेरी चिंता न करो, पर्णिक...तुम्हारी माता प्रतीक्षा कर रही होंगी। अब मैं ठीक हूं।'
'मुझे आशा है कि श्रीयुवराज मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे।' पर्णिक ने कहा।
युवराज ने स्वीकृति में केवल अपना मस्तक हिला दिया। 'पर्णिक ! मुझे सहारा देकर घोड़े पर बैठा दो...और तब तुम जा सकते हो...।' युवराज बोले।
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Re: कुमकुम
पर्णिक ने सहारा देकर युवराज को उठाया। बोला—'मस्तक का घाव भयानक है युवराज। कहिए तो इसको धोकर बूटी बांध दूं...?'
युवराज ने क्षण-भर सोचा, पुन: स्वीकारात्मक रूप से सिर हिला दिया। पर्णिक पास के झरने से पानी ले आया, युवराज को अपनी गोद में लिटाकर उनके मस्तक का घाव धोया, उस पर कोई जंगली बूटी पीसकर लेप कर देने के पश्चात्, युवराज के मुकुटबंध से कपड़ा फाड़कर सर पर पट्टी बांध दी।
'धन्यवाद!' युवराज ने कहा और पर्णिक के कंधे का सहारा लेकर उठ खड़े हुए। पर्णिक ने उन्हें बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया, तत्पश्चात् आगे बढ़कर मृत वाराह को उठा लिया और युवराज को अभिवादन कर जाने लगा। 'किरातकुमार...!' युवराज ने पुकारा।
और चार पग आगे बढ़े हुए पर्णिक को पुन: लौटना पड़ा। पूछा-'क्या श्रीयुवराज ने मुझे पुकारा है?' 'हां, मैं चाहता हूं कि हमारी इस प्रतिद्वंद्विता का आज ही अंत हो जाए, कम-से-कम तब तक जब तक कि हम लोगों के बलाबल का पूर्ण निर्णय न हो जाये, हम लोग प्रतिद्वन्द्वी ही रहेंगे। यदि महामाया की कृपा रही तो जल्द ही हम दोनों कहीं-न-कहीं पुन: मिलेंगे...।'
'अवश्य मिलेंगे श्रीयुवराज...! मेरे हृदय में इस प्रतिद्वन्द्विता की अग्नि सदैव प्रज्जवलित रहेगी और मुझे विश्वास है कि बहुत जल्द हम पुन: मिलेंगे और तब हमारे बलाबल का निर्णय हो जायेगा...।' पर्णिक ने कहा।
युवराज बोले-'जैसी महामाया की इच्छा। अब तुम जा सकते हो....।' पर्णिक बढ़ चला, आगे की ओर। युवराज उसकी ओर तब तक देखते रहे, जब तक कि उसकी छाया सघन वृक्षाबलि के श्यामल आंचल में जाकर विलीन न हो गई।
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पर्णिक ने अपनी पीठ का वाराह भूमि पर रखकर माता की ओर दृष्टिपात किया, जो इस समय झोंपड़े के द्वार पर बैठी हुई उसी की प्रतीक्षा कर रही थीं।
सामान्य किरात-स्त्रियों के समान उनकी मुखाकृति पर मूढ़ता एवं दीनता नहीं थी। साधारण वस्त्र धारण किये रहने पर भी उनके मुखमंडल पर अपूर्व तेज की रेखा विद्यमान थी। 'इतनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं, कहां थे वत्स...?' पूछा पर्णिक की माता ने। 'क्या कहूं माताजी, यहां से कई योजन दूर चला गया था। एक प्रतिद्वंद्वी से भेंट हो गई...।' पर्णिक ने श्रम की श्वास खींची।
'क्या पराजित होकर आ रहे हो...? अपनी माता के श्वेतांचल पर कलंक-कालिमा लगा आये हो....?'
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'नहीं माताजी! आपका पुत्र क्या कभी पराजित हुआ है? फिर आज ही कैसे पराजित हो जाता...? मगर आपका मुख अप्रतिभ क्यों है, माताजी...?'
उसकी माता कुछ न बोली। एक बार उसने सामने की ओर दृष्टि डाली। किरातों के सहस्रों झोंपड़े एक पंक्ति में लग बने हुए थे। कितने ही किरात बालक इधर-उधर अमोद-प्रमोद में तल्लीन थे।
उसकी माता ने एक दीर्घ श्वास ली—उस श्वास में निहित था हार्दिक वेदना पर प्रखर प्रतिरूप।
युवराज ने क्षण-भर सोचा, पुन: स्वीकारात्मक रूप से सिर हिला दिया। पर्णिक पास के झरने से पानी ले आया, युवराज को अपनी गोद में लिटाकर उनके मस्तक का घाव धोया, उस पर कोई जंगली बूटी पीसकर लेप कर देने के पश्चात्, युवराज के मुकुटबंध से कपड़ा फाड़कर सर पर पट्टी बांध दी।
'धन्यवाद!' युवराज ने कहा और पर्णिक के कंधे का सहारा लेकर उठ खड़े हुए। पर्णिक ने उन्हें बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया, तत्पश्चात् आगे बढ़कर मृत वाराह को उठा लिया और युवराज को अभिवादन कर जाने लगा। 'किरातकुमार...!' युवराज ने पुकारा।
और चार पग आगे बढ़े हुए पर्णिक को पुन: लौटना पड़ा। पूछा-'क्या श्रीयुवराज ने मुझे पुकारा है?' 'हां, मैं चाहता हूं कि हमारी इस प्रतिद्वंद्विता का आज ही अंत हो जाए, कम-से-कम तब तक जब तक कि हम लोगों के बलाबल का पूर्ण निर्णय न हो जाये, हम लोग प्रतिद्वन्द्वी ही रहेंगे। यदि महामाया की कृपा रही तो जल्द ही हम दोनों कहीं-न-कहीं पुन: मिलेंगे...।'
'अवश्य मिलेंगे श्रीयुवराज...! मेरे हृदय में इस प्रतिद्वन्द्विता की अग्नि सदैव प्रज्जवलित रहेगी और मुझे विश्वास है कि बहुत जल्द हम पुन: मिलेंगे और तब हमारे बलाबल का निर्णय हो जायेगा...।' पर्णिक ने कहा।
युवराज बोले-'जैसी महामाया की इच्छा। अब तुम जा सकते हो....।' पर्णिक बढ़ चला, आगे की ओर। युवराज उसकी ओर तब तक देखते रहे, जब तक कि उसकी छाया सघन वृक्षाबलि के श्यामल आंचल में जाकर विलीन न हो गई।
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पर्णिक ने अपनी पीठ का वाराह भूमि पर रखकर माता की ओर दृष्टिपात किया, जो इस समय झोंपड़े के द्वार पर बैठी हुई उसी की प्रतीक्षा कर रही थीं।
सामान्य किरात-स्त्रियों के समान उनकी मुखाकृति पर मूढ़ता एवं दीनता नहीं थी। साधारण वस्त्र धारण किये रहने पर भी उनके मुखमंडल पर अपूर्व तेज की रेखा विद्यमान थी। 'इतनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं, कहां थे वत्स...?' पूछा पर्णिक की माता ने। 'क्या कहूं माताजी, यहां से कई योजन दूर चला गया था। एक प्रतिद्वंद्वी से भेंट हो गई...।' पर्णिक ने श्रम की श्वास खींची।
'क्या पराजित होकर आ रहे हो...? अपनी माता के श्वेतांचल पर कलंक-कालिमा लगा आये हो....?'
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'नहीं माताजी! आपका पुत्र क्या कभी पराजित हुआ है? फिर आज ही कैसे पराजित हो जाता...? मगर आपका मुख अप्रतिभ क्यों है, माताजी...?'
उसकी माता कुछ न बोली। एक बार उसने सामने की ओर दृष्टि डाली। किरातों के सहस्रों झोंपड़े एक पंक्ति में लग बने हुए थे। कितने ही किरात बालक इधर-उधर अमोद-प्रमोद में तल्लीन थे।
उसकी माता ने एक दीर्घ श्वास ली—उस श्वास में निहित था हार्दिक वेदना पर प्रखर प्रतिरूप।
- rajsharma
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Re: कुमकुम
संध्या का आगमन जैसे उलझनयुक्त एक गूढ़ समस्या है। दिन का देदीप्यमान प्रकाश थक-थककर अपनी सहज वेदना का भार वहन करता हुआ रात्रि की भयानक कालिमा के अंचल में अपना गोरा-सा मुख छिपा लेता है। दिवस की श्वेत परी रक्तरंजित प्रदेश का आलिंगन करती हुई अनंत की ओर बढ़ जाती है।
पुष्पपुर नगरी का पद-प्रक्षालन कर बहती हुई कालिंदी सरिता का निर्मल वक्षस्थल एवं श्वेत सुकामल झागा से युक्त सुमधुर कलकल निनाद, थमने-थमने-सा हो जाता।
उसकी हाहाकारमयी वेगवती तीन धारायें अबाध गति से अग्रसर होना छोड़कर स्थिर हो जाती हैं—एकदम निश्बल !
तट पर बैठी हई बकुल-राशि उड़कर ऊपर वृक्ष की मोटी शाखाओं पर जा बैठती है। संध्याकाल की उदासीन मलीनता घनघोर अंधकार में डूबने-डूबने-सी लगती है।
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रात्रि का भयानक मुख हाहाकार करता हुआ यावत जगत को अपना ग्रास बना लेता है। पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने निर्मित महामाया के सुविशाल राजमंदिर से घंटे का 'टन टन' स्वर सुनाई पड़ने लगता है,परन्तु निमिष मात्र में ही क्षितिज के पास से शीतलता की वर्षा करता हआ एक प्रकाशमान रजतगोला, धीरे-धीरे आकाशमंडल को प्रदीप्त करता हुआ अपनी सुधामयी ज्योत्स्ना पुष्पपुर नगरी पर बिखेर देता है।
निर्मल चन्द्र ज्योत्स्ना में वैभवशाली पुष्पपुर चमक उठा है—चमाचम!
पुष्पपुर राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में बैठे हुए जम्बू द्वीप के अधीश्वर द्रविड़राज युगपाणि किसी प्रगाढ़ चिंता में तल्लीन हैं।
उनके तेजमान प्रतिभा-सम्पन्न नेत्रों के समक्ष, किसी बीभत्स घटना के अतीत चित्र अंकित हो रहे थे और परम तेजस्वी द्रविड़राज उन्हीं कष्टदायक विचारों में निमगन होकर दीर्घ श्वास लेकर रहे हैं
चालीस वर्ष पार कर चुकने पर भी उनके अवयव अपूर्व बलशाली एवं मुखश्नी दमकती हुई दृष्टिगोचर हो रही थी, परन्तु अपने इस लम्बे जीवन में उन्होंने क्या-क्या दुख, क्या-क्या कष्ट एवं क्या-क्या अबहेलनाएं नहीं सहन की थी?
दैवी चक्र आरंभ से ही उनके प्रतिकूल चलता आ रहा था, परन्तु उन्होंने अतुलित धैर्य के साथ सब कुछ सहन किया था। शत्रुओं पर विजय पाई थी, प्रजा की रक्षा की थी, अतीव उत्साह के साथ।
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न्याय!
द्रविड़राज युगपाणि का न्याय अटल था। उनके मुख से निकले हुए हर वाक्य न्याय के प्रतीक होते थे। उनके किसी कार्य ने, उनके किसी वाक्य ने, उनके किसी आचरण ने न्याय का उल्लंघन नहीं किया था।
द्रविड़राज युगपाणि चिंताग्रस्त होकर बैठे रहे। प्रकोष्ठ के प्रांगण से उदय होते हुए चन्द्र की एक रजत रेखा आकर नृत्य कर रही थीं।
सुचित्रित काले पत्थरों पर चारुचन्द्रिका का वह कल्लोल ऐसा मनोहर था मानो स्वर्ग की दिव्य ज्योति आकर वहां पर अठखेलियां कर रही हो।
प्रकोष्ठ के बहिप्रांत में हाथीदांत के निर्मित चरणपादुका का खट-खट शब्द सुनाई पड़ा। दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने आकर निवेदन किया श्री महापुजारी जी पधारे हैं।'
द्रविड़राज के मस्तक पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। ऐसे समय में महापुजारी जी ने आने का क्यों कष्ट किया...? उन्होंने सोचा, दूसरे ही क्षण संकेत से स्वीकृति दे दी।
पुष्पपुर नगरी का पद-प्रक्षालन कर बहती हुई कालिंदी सरिता का निर्मल वक्षस्थल एवं श्वेत सुकामल झागा से युक्त सुमधुर कलकल निनाद, थमने-थमने-सा हो जाता।
उसकी हाहाकारमयी वेगवती तीन धारायें अबाध गति से अग्रसर होना छोड़कर स्थिर हो जाती हैं—एकदम निश्बल !
तट पर बैठी हई बकुल-राशि उड़कर ऊपर वृक्ष की मोटी शाखाओं पर जा बैठती है। संध्याकाल की उदासीन मलीनता घनघोर अंधकार में डूबने-डूबने-सी लगती है।
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रात्रि का भयानक मुख हाहाकार करता हुआ यावत जगत को अपना ग्रास बना लेता है। पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने निर्मित महामाया के सुविशाल राजमंदिर से घंटे का 'टन टन' स्वर सुनाई पड़ने लगता है,परन्तु निमिष मात्र में ही क्षितिज के पास से शीतलता की वर्षा करता हआ एक प्रकाशमान रजतगोला, धीरे-धीरे आकाशमंडल को प्रदीप्त करता हुआ अपनी सुधामयी ज्योत्स्ना पुष्पपुर नगरी पर बिखेर देता है।
निर्मल चन्द्र ज्योत्स्ना में वैभवशाली पुष्पपुर चमक उठा है—चमाचम!
पुष्पपुर राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में बैठे हुए जम्बू द्वीप के अधीश्वर द्रविड़राज युगपाणि किसी प्रगाढ़ चिंता में तल्लीन हैं।
उनके तेजमान प्रतिभा-सम्पन्न नेत्रों के समक्ष, किसी बीभत्स घटना के अतीत चित्र अंकित हो रहे थे और परम तेजस्वी द्रविड़राज उन्हीं कष्टदायक विचारों में निमगन होकर दीर्घ श्वास लेकर रहे हैं
चालीस वर्ष पार कर चुकने पर भी उनके अवयव अपूर्व बलशाली एवं मुखश्नी दमकती हुई दृष्टिगोचर हो रही थी, परन्तु अपने इस लम्बे जीवन में उन्होंने क्या-क्या दुख, क्या-क्या कष्ट एवं क्या-क्या अबहेलनाएं नहीं सहन की थी?
दैवी चक्र आरंभ से ही उनके प्रतिकूल चलता आ रहा था, परन्तु उन्होंने अतुलित धैर्य के साथ सब कुछ सहन किया था। शत्रुओं पर विजय पाई थी, प्रजा की रक्षा की थी, अतीव उत्साह के साथ।
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न्याय!
द्रविड़राज युगपाणि का न्याय अटल था। उनके मुख से निकले हुए हर वाक्य न्याय के प्रतीक होते थे। उनके किसी कार्य ने, उनके किसी वाक्य ने, उनके किसी आचरण ने न्याय का उल्लंघन नहीं किया था।
द्रविड़राज युगपाणि चिंताग्रस्त होकर बैठे रहे। प्रकोष्ठ के प्रांगण से उदय होते हुए चन्द्र की एक रजत रेखा आकर नृत्य कर रही थीं।
सुचित्रित काले पत्थरों पर चारुचन्द्रिका का वह कल्लोल ऐसा मनोहर था मानो स्वर्ग की दिव्य ज्योति आकर वहां पर अठखेलियां कर रही हो।
प्रकोष्ठ के बहिप्रांत में हाथीदांत के निर्मित चरणपादुका का खट-खट शब्द सुनाई पड़ा। दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने आकर निवेदन किया श्री महापुजारी जी पधारे हैं।'
द्रविड़राज के मस्तक पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। ऐसे समय में महापुजारी जी ने आने का क्यों कष्ट किया...? उन्होंने सोचा, दूसरे ही क्षण संकेत से स्वीकृति दे दी।