'कारण आप अभी तक नहीं जान सके, नाथ...!' राजमहिषी ने द्रविड़राज के विशाल वक्ष पर अपना मस्तक टेक दिया—' प्रसन्नता क्यों न हो...? नीरस हृदय प्रदेश में अनिर्वचनीय आनंद क्यों न नृत्य करे...? जबकि अपनी सुषमा बिखरने के लिए विधाता ने एक मानव का सृजन किया है। अंधकारमयी रात्रि का गर्व-खर्व करने के लिए एक परमोज्वल शिशु इस अवनीतल पर अवतरित होने वाला है। राज दंपत्ति की शून्य गोद भरने के लिए महामाया की माया अपना चमत्कार दिखाने वाली है...।'
'सत्य कहती हो राजमहिषी...!' आश्चर्यपूर्ण हर्षोल्लास से सम्राट उछल पड़े—'क्या तुम सत्य कहती हो, प्रिये? क्या वास्तव में हमारे नष्टप्राय एवं अंधकारपूर्ण संसार को अपनी प्रतिभा से प्रोज्वल करने के लिए कोई दैवी शक्ति आ रही है, क्या सत्य ही हमारी सूनी गोद, कुछ ही दिनों में किसी सुकुमार शिशु के मधुर क्रन्दन से गुंजरित होने वाली है ? सत्य कहना राजमहिषी।'
"ऐसी शुभ बात भी कोई असत्य कहता है, सम्राट देव...?' राजमहिषी ने लज्जा से अपना उज्ज्वल मुख सम्राट की गोद में छिपा लिया।
इस समय राजदम्पती को संतान के आगमन से जो आह्लाद हुआ वह वर्णनातीत था। वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात् उनकी गोद भरने वाली थी, उनके दुखपूर्ण जीवन की समाप्ति होने वाली थी—तो क्यों न वे हर्ष से चीत्कार कर उठते।।
ज्यों-ज्यों प्रसव के दिन सन्निकट आने लगे, त्यों-त्यों द्रविड़राज की प्रसन्नता में वृद्धि होती गई।
और अंत में एक दिन राज प्रासाद एक नवजात शिशु के क्रन्दन से मुखरित हो उठा।
दिवस एवं रात्रि की श्वेत एवं श्यामल अप्सरायें आकर यावत जगत पर अपनी सुषमा बिखेरती रहीं। समय का चक्र द्रुत गति से घूमता रहा।
पलक मारते दो वर्ष व्यतीत हो गये। तृतीय वर्ष में पदार्पण करते ही युवराज का नामकरण संस्कार हुआ। महापूजारी पौत्तालिक युवराज की मंगलकामना के लिए महामाया से प्रार्थना करते थे और महामाया के चरणों पर चढ़ाया हुआ कुंकुम (रोली) लाकर युवराज के मस्तक पर लगाते,ताकि युवराज पर किसी भाबी विपत्ति की आशंका न रहे। यह नित्य का, प्रतिदिन का कार्य था। प्रात:काल होते ही राजमंदिर का घंटा घोष करने लगता। द्रविड़राज युवराज को गोद में लेकर महामाया के मंदिर में उपस्थित होते। राजकिन्नरी नृत्य करती हुई महामाया की आरती उतारती। महापुजारी पौत्तालिक विधिवत पूजन करते एवं महामाया के चरणों पर स्वर्णपात्र में भरा हुआ कुंकुम अर्पित करते।
पूजन समाप्त हो चुकने पर वहीं कुंकुम बाल युवराज के मस्तक पर लगा दिया जाता। भोले युवराज की देदीप्यमान मुखश्री कुंकुम की लालिमा से और भी प्रोद्भासित हो उठती थी।
इसी तरह मास-पर-मास व्यतीत होते चले गए। एक दिन, जबकि द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के शयन प्रकोष्ठ में विश्राम कर रहे थे। तो राजमहिषी से यह सुनकर कि कुछ ही मास पश्चात् उन्हें एक दूसरी संतान की प्राप्ति होने वाली है तो उनके हर्ष का पारावार न रहा।
'कितने सौभाग्य का विषय है प्रिय!' द्रविड़राज कहने लगे—'जहां हम एक संतान के लिए लालायित रहते थे, वहां अब दूसरी संतान हमें प्रसन्नता प्रदान करने आ रही है...।'
'परन्तु इस बार न जाने क्यों मेरा हृदय अत्यंत उद्विग्न रहता है, प्राण...पता नहीं क्या होने वाला
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"किसी प्रकार की दुश्चिन्ता में न पड़ो, साम्राज्ञी...!'द्रविडराज ने अपने कण्ठ में पड़ा हआ बहुमूल्य रत्न हार निकालकर राजमहिषी के गले में पहना दिया—'यह लो! प्राचीनकाल से आता हुआ परम पवित्र कल्याणकारी रत्न तुम्हारी रक्षा करेगा। यह हमारे प्राचीन महापुरुषों द्वारा प्रदत्त रत्नहार है—इसकी अवहेलना,इसका अपमान न करना नहीं तो अनिष्ट की संभावना है...इसका अपमान करने पर राजदण्ड का भागी होना पड़ेगा।'
Romance कुमकुम complete
- rajsharma
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Re: Romance कुमकुम
दुसरे दिन जिस समय महामाया का पूजनोत्सव समाप्त हुआ तो महापुजारी ने द्रविड़राज के कण्ठ-प्रदेश में वह पवित्र रत्नहार न देखकर पूछा-'श्रीसम्राट! आज वह पवित्र रत्नाहार आपके कंठ-प्रदेश में नहीं है। क्या आपने उसे कहीं रख दिया है...?'
'राजमहिषी को पुन: संतान की प्राप्ति होने वाली है—मैंने उनकी मंगल कामनार्थ वह पूजनीय रत्नहार उन्हें दे दिया है और उनसे कह दिया है कि रत्नहार की तनिक भी उपेक्षा न की जाए...।' द्रविड़राज ने कहा।
-- -- व्योम के दुकूल पर से एक प्रकाशमान स्वर्गगोला क्रमश: ऊपर उठकर संसार पर अपनी तेजमयी प्रतिभा एवं प्रखर प्रकाश बिखेरने लगा।
दिवस के शुभ प्रकाश में पुष्पपुर राजप्रासाद की चित्र-विचित्रत दीवारें कल्लौल करती-सी प्रतीत होने लगीं। महामाया के मंदिर का उच्चतम शिखर जो विविध कलाकारों द्वारा स्वर्ण एवं मणिमुक्ताओं से निर्मित था—भुवनभास्कर की प्रौद्भासित मुख-राशि का संयोग पाकर चमक उठा
—झकाझक। हिमराज के हिमाच्छादित शिखर उष्णता से पिघल-पिघलकर कल-कल निनाद करते हुए छोटे छोटे नदी-नालों में परिवर्तित होने लगे।
राजमहिषी त्रिधारा ने पलंग पर अपने कुल का वह पवित्र रत्नहार उतारकर रख दिया था और स्वयं कदाचित स्नान करने चली गई थी। वहां कोई न था।
उछलता-कूदता हुआ एक वानर न जाने कहां से राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में जा पहुंचा। रत्नहार की अद्भुत प्रौञ्चलता ने उसका मन अपनी और आकर्षित किया।
उसने आगे बढ़कर अपने खुरदरे हाथों द्वारा वह परम पवित्र रत्नहार उठा लिया। एक क्षण तक वह उसकी ओर अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। पुन: उसने उसे अपने रोमपूर्ण कंठ में पहन लिया और अंतप्रकोष्ठ से बाहर आकर इतस्तत: वृक्षों पर उछलने-कूदने लगा।
नियति का चक्र सदैव परिचालित होता रहता है। भवितव्य होकर ही रहता है। द्रविड़राज के ऊपर जो भावी संकट आने वाला था, उसका यह संकेत था।
वृक्षों पर इतस्तत: क्रीड़ा करता हुआ वानर राज-प्रकोष्ठ से बहुत दूर निकल गया। एक सघन वृक्षलतादिपूर्ण उद्यान में पहुंचकर वह रुका। उसने गले का रत्नहार उतारकर हाथ में ले लिया और उसे उछाल-उछालकर कौतुक करने लगा। वृक्ष की एक मोटी शाखा पर बैठकर क्रीड़ा करता हुआ वह क्या जानता था कि जिस वस्तु को वह इतना तुच्छ समझ रहा है, वह है एक परम पवित्र रत्नहार, जिसकी एक-एक मणि, जिसकी एक-एक मुक्ता, प्रबल मंत्रों द्वारा अभिमन्त्रित की गई है और जिसका तनिक-सा अपमान प्रलय की सृष्टि कर सकता है।
'राजमहिषी को पुन: संतान की प्राप्ति होने वाली है—मैंने उनकी मंगल कामनार्थ वह पूजनीय रत्नहार उन्हें दे दिया है और उनसे कह दिया है कि रत्नहार की तनिक भी उपेक्षा न की जाए...।' द्रविड़राज ने कहा।
-- -- व्योम के दुकूल पर से एक प्रकाशमान स्वर्गगोला क्रमश: ऊपर उठकर संसार पर अपनी तेजमयी प्रतिभा एवं प्रखर प्रकाश बिखेरने लगा।
दिवस के शुभ प्रकाश में पुष्पपुर राजप्रासाद की चित्र-विचित्रत दीवारें कल्लौल करती-सी प्रतीत होने लगीं। महामाया के मंदिर का उच्चतम शिखर जो विविध कलाकारों द्वारा स्वर्ण एवं मणिमुक्ताओं से निर्मित था—भुवनभास्कर की प्रौद्भासित मुख-राशि का संयोग पाकर चमक उठा
—झकाझक। हिमराज के हिमाच्छादित शिखर उष्णता से पिघल-पिघलकर कल-कल निनाद करते हुए छोटे छोटे नदी-नालों में परिवर्तित होने लगे।
राजमहिषी त्रिधारा ने पलंग पर अपने कुल का वह पवित्र रत्नहार उतारकर रख दिया था और स्वयं कदाचित स्नान करने चली गई थी। वहां कोई न था।
उछलता-कूदता हुआ एक वानर न जाने कहां से राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में जा पहुंचा। रत्नहार की अद्भुत प्रौञ्चलता ने उसका मन अपनी और आकर्षित किया।
उसने आगे बढ़कर अपने खुरदरे हाथों द्वारा वह परम पवित्र रत्नहार उठा लिया। एक क्षण तक वह उसकी ओर अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। पुन: उसने उसे अपने रोमपूर्ण कंठ में पहन लिया और अंतप्रकोष्ठ से बाहर आकर इतस्तत: वृक्षों पर उछलने-कूदने लगा।
नियति का चक्र सदैव परिचालित होता रहता है। भवितव्य होकर ही रहता है। द्रविड़राज के ऊपर जो भावी संकट आने वाला था, उसका यह संकेत था।
वृक्षों पर इतस्तत: क्रीड़ा करता हुआ वानर राज-प्रकोष्ठ से बहुत दूर निकल गया। एक सघन वृक्षलतादिपूर्ण उद्यान में पहुंचकर वह रुका। उसने गले का रत्नहार उतारकर हाथ में ले लिया और उसे उछाल-उछालकर कौतुक करने लगा। वृक्ष की एक मोटी शाखा पर बैठकर क्रीड़ा करता हुआ वह क्या जानता था कि जिस वस्तु को वह इतना तुच्छ समझ रहा है, वह है एक परम पवित्र रत्नहार, जिसकी एक-एक मणि, जिसकी एक-एक मुक्ता, प्रबल मंत्रों द्वारा अभिमन्त्रित की गई है और जिसका तनिक-सा अपमान प्रलय की सृष्टि कर सकता है।
- shaziya
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Re: Romance कुमकुम
Excellent update , waiting for next update
- rajsharma
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- Joined: 10 Oct 2014 07:07
Re: Romance कुमकुम
इतिहास का वह स्वर्णिम युग था,जबकि मनुष्यों में इतनी शक्ति, इतनी श्रद्धा एवं इतना विश्वास था कि वे मंत्रों के प्रभाव से अप्राप्य वस्तुओं को भी प्राप्त कर लेते थे।
क्रीड़ा करते-करते वह रत्नहार बानर के हाथों से छूटकर भूमि पर आ रहा। उसी समय उसकी दृष्टि उद्यान में लगे हुए नाना प्रकार के पौधों पर पड़ी, जिन पर गंधयुक्त पुष्प प्रस्फुटित होकर अपनी मधुर गंधराशि पवन को प्रदान कर रहे थे।
दूसरी ओर अगणित फलों के वृक्ष, फलों के भार से भूमि का चुम्बन कर रहे थे। वानर भूल गया उस पवित्र रत्नहार को। उसका मन उन सुंदर पुष्पों एवं सुस्वादु फलों के लिए मचल उठा।
वह वृक्ष से नीचे उतर आया और उद्यान के पुष्पों एवं फलों को तोड़ने लगा। कुछ उदरस्थ करता हुआ नष्ट करता।
जिस समय राजमहिषी त्रिधारा ने विधिवत् स्नान करके अपने शयन-कक्ष में प्रवेश किया, उस समय यह देखकर कि वह परम पवित्र रत्नाहार शैया पर नहीं है, उनका हृदय प्रबल वेग से कम्पायमान हो उठा।
न जाने किस भावी आशंका से उनकी दाहिनी बांह फड़क उठी। उनके नेत्रों के समक्ष घोर अंधकार आच्छादित हो उठा।
बहुत खोज करने पर भी जब वह रत्नहार न मिला तो राजमहिषी की चिंता बढ़ चली।
उन्होंने प्रासाद के प्रत्येक भाग को राई-रत्ती ढूंढा,पर वह कहीं न मिला। नियति का क्रूर एवं भयानक चक्र पुष्पपुर के राजप्रकोष्ठ पर आकर स्थिर हो गया था, तभी तो इतनी अघटित घटनायें हो रही थीं। नियति अपने विकराल करों द्वारा द्रविड़राज के लिए एक वीरान संसार का सृजन कर चुकी थी
—तो यह रत्नहार मिलता ही क्योंकर !
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रात्रि में जिस समय द्रविड़राज युगपाणि शयन-कक्ष में आये तो उन्हें यह देखकर महान दुख एवं आश्चर्य हुआ कि राजमहिषी त्रिधारा का हृदय अत्यधिक व्यग्न एवं चंचल है।
'राजमहिषी...। प्रिये...।' द्रविड़राज ने राजमहिषी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया—'मैं अवलोकन कर रहा हूं कि तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री इस समय प्रभाहीन हो रही है...ऐसा क्यों...?'
द्रविड़राज ने राजमहिषी के नेत्रों की ओर अनिमेष दृष्टि से देखते हुए कहा—'और...यह क्या?'
अकस्मात् द्रविड़राज की दृष्टि महिषी के कंठ-प्रदेश पर जा पड़ी। वह पवित्र रत्नहार न देखकर उनके आश्चर्य का पारावार न रहा।
'रत्नहार क्या हुआ...? क्या कहीं निकालकर रख दिया है तुमने?'
साम्राज्ञी का सारा शरीर भय एवं आवेग से कम्पित हो उठा—'हां प्राण! आज हृदय कुछ अधिक व्यग्र था। अत: मैंने रत्नहार उतारकर यत्नपूर्वक मणि मंजूषा में रख दिया है...।'
आज तक साम्राज्ञी ने कभी असत्य नहीं कहा था, परन्तु नियति के कुचक्र ने उन्हें ऐसा कहने को बाध्य कर दिया।
उन्हें अभी आशा थी कि कदाचित् वह रत्नहार कहीं मिल जायेगा। 'देखना प्रिये! वह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित परम प्रभावशाली मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित रत्नहार है। उसका तनिक भी अपमान अनादर न हो। उसे महान प्रयत्नपूर्वक रखना, नहीं तो अनिष्टकारी घटनायें घटित होते देर न लगेगी।'
सम्राट कुछ क्षण तक रुके। पुन: बोले-पूर्व पुरुषों के कथनानुसार वे क्रूर ग्रह मेरे भाग्याकाश पर उभर आये हैं...जिनके कुप्रभाव से मेरा संसार विनष्ट होने वाला है—ऐसा राज्य के प्रधान ज्योतिषाचार्य का कथन है। इसीलिए मैं तुम्हें सावधान रहने का आदेश दे रहा हूं।'
बेचारे द्रविड़राज को क्या मालूम था कि उन क्रूर ग्रहों ने अपना प्रलयंकारी कार्य प्रारंभ कर दिया है।
दिन बीतते गये...द्रविड़राज ने जब-जब राजमहिषी से उस पवित्र रत्नहार की बात पूछी, तब तब राजमहिषी ने कहा कि वह मणि मंजूषा में सुरक्षित है।
क्रीड़ा करते-करते वह रत्नहार बानर के हाथों से छूटकर भूमि पर आ रहा। उसी समय उसकी दृष्टि उद्यान में लगे हुए नाना प्रकार के पौधों पर पड़ी, जिन पर गंधयुक्त पुष्प प्रस्फुटित होकर अपनी मधुर गंधराशि पवन को प्रदान कर रहे थे।
दूसरी ओर अगणित फलों के वृक्ष, फलों के भार से भूमि का चुम्बन कर रहे थे। वानर भूल गया उस पवित्र रत्नहार को। उसका मन उन सुंदर पुष्पों एवं सुस्वादु फलों के लिए मचल उठा।
वह वृक्ष से नीचे उतर आया और उद्यान के पुष्पों एवं फलों को तोड़ने लगा। कुछ उदरस्थ करता हुआ नष्ट करता।
जिस समय राजमहिषी त्रिधारा ने विधिवत् स्नान करके अपने शयन-कक्ष में प्रवेश किया, उस समय यह देखकर कि वह परम पवित्र रत्नाहार शैया पर नहीं है, उनका हृदय प्रबल वेग से कम्पायमान हो उठा।
न जाने किस भावी आशंका से उनकी दाहिनी बांह फड़क उठी। उनके नेत्रों के समक्ष घोर अंधकार आच्छादित हो उठा।
बहुत खोज करने पर भी जब वह रत्नहार न मिला तो राजमहिषी की चिंता बढ़ चली।
उन्होंने प्रासाद के प्रत्येक भाग को राई-रत्ती ढूंढा,पर वह कहीं न मिला। नियति का क्रूर एवं भयानक चक्र पुष्पपुर के राजप्रकोष्ठ पर आकर स्थिर हो गया था, तभी तो इतनी अघटित घटनायें हो रही थीं। नियति अपने विकराल करों द्वारा द्रविड़राज के लिए एक वीरान संसार का सृजन कर चुकी थी
—तो यह रत्नहार मिलता ही क्योंकर !
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रात्रि में जिस समय द्रविड़राज युगपाणि शयन-कक्ष में आये तो उन्हें यह देखकर महान दुख एवं आश्चर्य हुआ कि राजमहिषी त्रिधारा का हृदय अत्यधिक व्यग्न एवं चंचल है।
'राजमहिषी...। प्रिये...।' द्रविड़राज ने राजमहिषी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया—'मैं अवलोकन कर रहा हूं कि तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री इस समय प्रभाहीन हो रही है...ऐसा क्यों...?'
द्रविड़राज ने राजमहिषी के नेत्रों की ओर अनिमेष दृष्टि से देखते हुए कहा—'और...यह क्या?'
अकस्मात् द्रविड़राज की दृष्टि महिषी के कंठ-प्रदेश पर जा पड़ी। वह पवित्र रत्नहार न देखकर उनके आश्चर्य का पारावार न रहा।
'रत्नहार क्या हुआ...? क्या कहीं निकालकर रख दिया है तुमने?'
साम्राज्ञी का सारा शरीर भय एवं आवेग से कम्पित हो उठा—'हां प्राण! आज हृदय कुछ अधिक व्यग्र था। अत: मैंने रत्नहार उतारकर यत्नपूर्वक मणि मंजूषा में रख दिया है...।'
आज तक साम्राज्ञी ने कभी असत्य नहीं कहा था, परन्तु नियति के कुचक्र ने उन्हें ऐसा कहने को बाध्य कर दिया।
उन्हें अभी आशा थी कि कदाचित् वह रत्नहार कहीं मिल जायेगा। 'देखना प्रिये! वह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित परम प्रभावशाली मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित रत्नहार है। उसका तनिक भी अपमान अनादर न हो। उसे महान प्रयत्नपूर्वक रखना, नहीं तो अनिष्टकारी घटनायें घटित होते देर न लगेगी।'
सम्राट कुछ क्षण तक रुके। पुन: बोले-पूर्व पुरुषों के कथनानुसार वे क्रूर ग्रह मेरे भाग्याकाश पर उभर आये हैं...जिनके कुप्रभाव से मेरा संसार विनष्ट होने वाला है—ऐसा राज्य के प्रधान ज्योतिषाचार्य का कथन है। इसीलिए मैं तुम्हें सावधान रहने का आदेश दे रहा हूं।'
बेचारे द्रविड़राज को क्या मालूम था कि उन क्रूर ग्रहों ने अपना प्रलयंकारी कार्य प्रारंभ कर दिया है।
दिन बीतते गये...द्रविड़राज ने जब-जब राजमहिषी से उस पवित्र रत्नहार की बात पूछी, तब तब राजमहिषी ने कहा कि वह मणि मंजूषा में सुरक्षित है।