Romance कुमकुम complete

Post Reply
User avatar
rajsharma
Super member
Posts: 15829
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

अन्ततोगत्वा महामाया मंदिर के वार्षिक पूजनोत्सव का दिन आ उपस्थित हुआ। महामाया के मंदिर को विविध मणिमुक्ताओं द्वारा सुसज्जित कर दिया गया। हरित पल्लवों से निर्मित वन्दनवार की पंक्तियों ने शोभा द्विगुणित कर दी। विविध साज-सज्जा से मंदिर का कोना कोना मुखरित हो उठा।

पूजनोत्सव के दिन महापुजारी ने उस पवित्र रत्नाहार को द्रविड़राज से मांगा, क्योंकि महामाया की उपासना के पश्चात् उसकी भी विधिवत उपासना होती थी।

महापुजारी पौत्तालिक के आदेशानुसार द्रविड़राज अन्तर्मकोष्ठ में आये और राजमहिषी से बह रत्नहार मांगा।


राजमहिषी के श्वेत मुख मंडल पर प्रखरतर कालिमा फैल गई । उन्होंने रत्नहार देने में अपनी असमर्थता प्रकट की।

द्रविड़राज को किंचित आश्चर्य हुआ—यह क्यों राजमहिषी...? रत्नहार देने में असमर्थता क्यों प्रकट कर रही हो? क्या कारण है...? जानती हो कि वार्षिक पूजनोत्सव के समय उसकी भी उपासना परमावश्यक है—फिर भी ऐसा कहती हो?...लाओ, देर न करो।'

'मुझे ऐसा प्रतीत होता है...नाथ...!' राजमहिषी आसन्न भय से कम्पित स्वर में बोली—'यदि मैं वह कल्याणकारी रत्नहार अपने से विलग करूंगी तो मेरी मृत्यु निश्चित है। बहुत बड़े अनिष्ट की आशंका मेरे हृदय में जागयक हो उठी है। जाने दीजिए प्राण...! प्राण-प्रतिष्ठा के मंत्रों से भी रत्नहार की उपासना हो सकती है, वैसा ही करें...।'

राजमहिषी कालचक्र के प्रभाव से, अब भी द्रविड़राज को सत्य बात न बता सकीं। राजमहिषी के हठ से बाध्य होकर द्रविड़राज महापुजारी के पास आये और राजमहिषी का कथन अक्षरश: सुना दिया।

महापुजारी पौत्तालिक के शुभ्र ललाट पर दुश्चिन्ता की स्पष्ट रेखायें खिंच उठी—'भवितव्य बलवान है...।' वे स्थिर वाणी में बोले—'तभी तो यह अघटनीय हो रहा है। अच्छा ! प्राण-प्रतिष्ठा के मंत्रों द्वारा ही उस पवित्र रत्नाहार की उपासना हो जाएगी, मगर श्रीसम्राट! वह रत्नहार है तो सुरक्षित न...?'

"निस्सन्देह महापुजारी! राजमहिषी असत्य कभी कह नहीं सकतीं। एक पवित्र देवी पर अविश्वास करना अपने हृदय के साथ अपघात करना होगा...दाम्पत्य में अविश्वास का प्रवेश ही तो अनर्थ की सृष्टि करता है। मैं साम्राज्ञी के वचनों पर अविश्वास करने का स्वप्न में भी विचार नहीं कर सकता। इस विषय में निश्चिंत रहें, महापुजारी जी।

पूजनोत्सव के दिन खूब खुशियां मनाई गईं। महामाया का विधिवत् पूजन हुआ। पूजनोत्सव में पुष्पपुर के सभी गणमान्य नागरिक द्रविड़राज एवं बाल युवराज आदि उपस्थित थे।

तीन वर्ष के युवराज नारिकेल उस समय द्रविड़राज की गोद में बैठे हुए आश्चर्यचकित दृष्टि से चतुर्दिक देख रहे थे।

पूजनोत्सव समाप्त हो जाने पर महापुजारी पौत्तालिक ने महामाया के चरणों में रखा कुंकुम का पात्र उठाकर युवराज के शुभ ललाट पर थोड़ा-सा लगा दिया और हर्ष से चिल्ला उठे—'युवराज नारिकेल की जय।'

तत्पश्चात्ग नगर के सम्पन्न नागरिक, युवराज के लिए अनेकानेक प्रकार की वस्तुएं, मणिमुक्ता-लसित थालों में लाकर भेंट करने लगे।

सभी थालें स्वर्ण-निर्मित थीं। किसी में थी बहुमूल्य रत्नराशि, किसी में थी जगत की यावत सम्पदा को भी लज्जित कर देने वाली मणिमुक्तायें। सभी थालें श्वेत एवं बहुमूल्य वस्त्रों से आच्छादित थीं।

नागरिक गण अपने-अपने उपहार स्वत: लेकर युवराज के समक्ष उपस्थित होते थे। महापुजारी उनके करों से थाल लेकर युवराज के निकट ले जाते और उस पर का वस्त्र हटाकर उनमें की अतुल धनराशि युवराज को दिखाते, तत्पश्चात् युवराज के कोमल करों से स्पर्श कराकर वह थाल भूमि पर रख दिया जाता।

अन्तोगत्वा पुष्पपुर का धनाढ्य नागरिक किंशुक, अपने उपहार का थाल लेकर युवराज के समक्ष उपस्थित हुआ।

महापुजारी ने अपने हाथों से यह थाल लेकर युवराज को उसमें का अतुलित वैभव दिखाने के लिए उस पर से बहुमूल्य वस्त्र हटाया।

'झन्न...!' एकाएक महापुजारी के कांपते हुए करों से छूटकर वह थाल झन्नाटे के साथ भूमि पर गिर पड़ा। सभी व्यक्ति आश्चर्य एवं उद्वेग से उठ खड़े हुए, क्योंकि थाल का गिरना महान अपशकुन का द्योतक था।

महापुजारी की मुद्रा आश्चर्यजनक हो गई। वे खड़े-खड़े कांपने लगे—क्रोध एवं आवेगपूर्ण भंगिमा धारण किये हुए।

अंत में उन्होंने स्वत: झुककर वह बिखरी हुई रत्नराशि पुन: थाल में एकत्रित की और वस्त्र ढककर उसके लिए हुए पार्श्व के प्रकोष्ठ में चले गए। साथ ही द्रविड़राज को भी पीछे आने का संकेत करते गये।
.
द्रविड़राज आश्चर्यचकित एवं आशंकित भाव से महापुजारी के प्रकोष्ठ में आए। 'देख रहे हैं श्रीसनाट...।' महापुजारी उद्दीप्त स्वर में बोले—'आप देख रहे हैं? अंतत: अनर्थ, प्रलय और अनिष्ट की सृष्टि हो ही गई। तभी तो...तभी तो...।'

महापुजारी क्रोध से हाथ मलने लगे। सम्राट ने झुककर उनका पैर पकड़ लिया—'क्या बात है महापुजारी जी...क्या अनर्थ हुआ? क्या अपराध हुआ?'

'अपराध...?' महापुजारी गरज पड़े—'पूछते हैं क्या अपराध हुआ...? देखिये ! नेत्र खोलकर देखिये कि क्या हुआ, क्या होगा?'
महापुजारी ने बढ़कर उस थाल का वस्त्र हटा दिया। द्रविड़राज ने एक थाल में पड़ी हुई अगम रत्नराशि देखी— एकाएक वे भी भय एवं उद्वेग से चौंक पड़े।

उन्होंने कम्पित करों से थाल से एक रत्नहार उठा लिया। 'ओह ! वही रत्नहार...! हमारे कुल का प्रदीप...!' उनके मुख से अस्त-व्यस्त स्वर निकला।

उन्होंने वह रत्नहार मस्तक से लगाकर उसका सम्मान किया। पुन: सावधानी से उसे थाल में रख दिया।

'देखा आपने...!' महापुजारी ने अपने प्रज्जवलित नेत्र द्रविड़राज के प्रभाहीन मुख पर स्थिर कर दिये, 'कह दीजिए! अब भी कह दीजिये कि रत्नहार सुरक्षित है। अब भी कह दीजिये कि इस रत्नहार का प्रखरतर अपमान नहीं हुआ है—कह दीजिये श्रीसम्राट कि...।'

द्रविड़राज निस्तब्ध एवं निश्चेष्ट खड़े रहे। उनका शरीर कांप रहा था, परन्तु नेत्र निश्चल थे। जीवन में आज प्रथम बार उन्हें राजमहिषी पर अविश्वास करने का अवसर मिला था। द्रविड़राज के शासनकाल में यह पहली घटना थी कि एक धर्मपत्नी ने अपने पति से असत्य भाषण किया था। न्यायप्रिय द्रविड़राज क्रोध से दांत पीस रहे थे। नगर सेठ किंशुक को बुलाया गया। वह कांपता हुआ आया। उसने पूछने पर बताया—'यह रत्नहार मेरी पुत्री ने उद्यान में पाया था। मैं नहीं जानता था कि यह सम्राट केही राजप्रकोष्ठ का है और चुराकर लाया गया है। मैंने निर्णय किया कि यह बहमुल्य रत्नहार सम्राट के कोष में ही शोभावृद्धि पा सकता है। यही विचार कर यह तुच्छ भेंट लाया था, मुझे क्षमा करें श्रीसम्राट...!'
User avatar
rajsharma
Super member
Posts: 15829
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

महापुजारी ने किंशुक को बहार जाने का सकेत किया 'श्रीसम्राट !

'...' द्रविड़राज ने स्थिर दृष्टि से महापुजारी के मुख की और देखा ।

'इस पवित्र रतनहार का अफमान हुआ है, इसकी व्यवस्था करनी होगी, अन्यथा जानते है ? प्रलय हो जायेगा शांतिपाठ परमावश्यक है... महापुजारी रुके, पुन: बोले- साथ ही यदि आपका न्याय है तो राजमिहषी ने असत्य ने असत्य भाषण कर जो गुरुतर अपराध किया है उसके- उसके लिए दंड की व्यवस्था करनी ही होगी, श्रीसम्राट ...।

द्रविड़राज धड़ाम से भूमि पर गिर पड़े।
--
प्रात:काल राजमहिषी की जब निद्रा भंग हुई तो उनके शरीर में अत्यधिक पीड़ा थी। उनका हृदय न जाने किस भावी संकट की आशंका से कपित हो रहा था। इस समय वे गर्भवती थीं। गर्भावस्था के सात मास व्यतीत हो चुके थे।

यही कारण था कि हर समय उनके प्रकोष्ठ में कई परिचारिकायें उपस्थित रहती थीं।

परन्त राजमहिषी को महान आश्चर्य हुआ. यह देखकर कि इस समय एक भी परिचारिका उपस्थित नहीं है और प्रकोष्ठ का द्वार बाहर से बंद किया हुआ है।

राजमहिषी उठकर द्वार के पास आई और उन्होंने उसे खोलने का व्यर्थ प्रयत्न किया। उन्हें आश्चर्य हुआ एवं क्रोध भी! किसकी धृष्टता हो सकती है यह?

उन्होंने पार्श्व की छोटी-सी खिड़की खोलकर बाहर की ओर झांका। देखा, बर्हिद्वार पर सशस्त्र परिचारिकाओं का पहरा है।

राजमहिषी के पुकारने पर एक परिचारिका खिड़की के पास आई और झुककर अभिवादन करने के पश्चात् बोली—'मुझे दुख है कि राजमहिषी को प्रकोष्ठ से बाहर आने की अनुमति नहीं '......!

' साम्राज्ञी कांप उठी, क्रोध से।

'और न ही हमें राजमहिषी के समक्ष कोई वस्तु उपस्थित करने की आज्ञा है...।'

'किसकी आज्ञा है यह?' गरज पड़ी राजमहिषी।

'स्वयं श्रीसम्राट की...।' परिचारिका ने संयत स्वर में कहा और पुन: अभिवादन कर लौट गई।

राजमहिषी दुःखातिरेक से व्यग्र होकर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
'कैसे कर सकूँगा यह सब महापुजारी जी। जिसे हृदय दिया है, उसे राजदण्ड कैसे दे सकूँगा..?' अपने प्रकोष्ठ में बैठे हुए द्रविड़राज शोकमग्न हो रहे थे।

उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होकर भूमि का सिंचन कर रही थी। 'हे विधाता...! राजमहिषी ने यह सब क्या किया...? कैसा अनर्थ उपस्थित कर दिया उन्होंने?'

'दण्ड देना होगा, श्रीसम्राट।' महापुजारी बोले- यदि आप अपने न्याय को अटल रखना चाहते हैं तो ऐसा करना ही होगा।'

'नहीं कर सकता मैं ऐसा, महापुजारी जी! आपके चरणों पर मस्तक रखकर कहता हूं कि यह कार्य करने में सर्वथा असमर्थ हूं में। क्षमा प्रदान कीजिये...।' द्रविड़राज रो पड़े—'राजमहिषी का न्याय में आपके ऊपर छोड़ता हूं। आप ही उनका न्याय कीजिये...आप ही विचारिये-जिस मुख से मैंने 'प्रिय' जैसा शब्द उनके लिए प्रयोग किया है, उसी मुख से कठोर वाक्य कैसे निकाल सकता
User avatar
rajsharma
Super member
Posts: 15829
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

'आप भूल रहे हैं...भूल रहे हैं आप, श्रीसम्राट...! अपनी दुर्बलता के वशीभूत होकर आप अपनी सारी प्रजा को यह दिखा देना चाहते हैं कि आपका हृदय कितना क्षुद्र एवं दुर्बल है। आप अपनी सारी प्रजा पर यह प्रकट कर देना चाहते हैं कि जिस न्याय का पालन आप प्रजा से चाहते हैं, स्वयं आप उसका पालन करने में असमर्थ हैं। आज आप सब पर यह प्रकट कर देना चाहते हैं कि द्रविड़राज का न्याय 'न्याय नहीं प्रवंचना मात्र रहा है। आज आप सबको यह बता देना चाहते हैं कि द्रविड़ वंश की सारी न्यायप्रियता पर आपने प्रखरतर कालिमा पोत दी है...।'

महापुजारी दो पग आगे बढ़ आये—'क्या अपनी आंखों से आप यह देख सकते हैं, श्रीसम्राट ! प्राणों की बलि देकर न्याय का पालन करने वाले द्रविड़राज, क्या आप एक छोटी-सी दुविधा में पड़कर न्याय की हत्या कर देंगे...? क्या आप...?'

'......' द्रविड़राज स्थिर खड़े रहे। केवल एक बार उन्होंने अपनी अनामिका में पड़ी हुई मुक्ताजड़ित मुद्रिका पर दृष्टि निक्षेप की। 'भूल जाइए श्रीसम्राट.....। मोहमाया को भूल जाइये, यावत् जगत को दिखा दीजिये कि द्रविड़राज का न्याय अटल है, अचल है...हिमराज की भांति!'

'ऐसा ही होगा महापुजारी जी...!' सम्राट ने अपना हृदय संयत कर लिया। अंतराल में उठते हुए भयानक उद्वेग का उनकी न्यायशीलता से शमन कर दिया।

'द्रविड़राज का न्याय अटल है और अटल रहेगा। न्याय के लिए हृदय का बलिदान, पत्नी का बलिदान, सबका बलिदान करने को प्रस्तुत हूं मैं!'

'श्रीसम्राट की जय हो...!' महापुजारी ने आशीर्वाद दिया।

द्रविड़राज गुनगुनाते रहे—'न्याय अटल है और अटल रहेगा...।'

'अटल कैसे रहेगा, श्रीसम्राट!' महामंत्री करबद्ध खड़े होकर द्रविड़राज से बोले—'श्रीसम्राट के न्याय का विरोध करने के लिए इस समय सारी प्रजा प्रस्तुत है। राजमहिषी को दण्ड न दिया जाए,
-
यही प्रजा की आकांक्षा है...।'

'प्रजा की यह आकांक्षा प्रलयंकारी है महामंत्री...!' गरजे द्रविड़राज—'इससे द्रविड़राज के शुभ न्याय पर कलंक की कालिमा लगती है। प्रजा की यह आकांक्षा सफलीभूत नहीं हो सकती। राजमहिषी को न्यायदण्ड भोगना ही पड़ेगा।

'अपने हृदय की ओर देखिए, श्रीसम्राट! टुकड़े-टुकड़े तो हो गया है आपका संतप्त हृदय! इन दो दिनों में ही आपकी मुखश्री प्रभावहीन होकर एकदम म्लान पड़ गई है, फिर भी आप राजमहिषी को दण्ड देंगे? अपनी सबसे प्रिय वस्तु का बलिदान करेंगे?'

'केवल प्रियतमा का बलिदान ही नहीं, प्राणों का भी बलिदान कर दूंगा न्याय के लिए, महामंत्री जी! न्याय ही तो शासनकर्ता का भूषण है। जिस न्याय का प्रतिपालन शासनकर्ता अपनी असहाय प्रजा से चाहता है। उसी न्याय पर आरूढ़ होकर स्वयं उसे भी अग्रसर होना चाहिये। यही उसका कर्तव्य है। यह नहीं कि प्रजा के दंड के लिए तो नित्य नये-नये नियम बनें और शासनकर्ता के लिए सदैव यावत् जगत की सम्पदा उसके चतुर्दिक नृत्य करती रहे, यह कहां का न्याय है?' द्रविडराज एक ही सांस में सब कुछ कह गये।

'आपको राजमहिषी की गर्भावस्था पर ध्यान देना चाहिये, श्रीसम्राट।'

'व्यर्थ है...! न्याय के प्रतिपालन में किसी भी अवस्था पर ध्यान देना अन्याय होगा।'

'श्रीसम्राट, मुझे प्राणदान दें...न्याय तो यही है...।'
User avatar
rajsharma
Super member
Posts: 15829
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

'यह अन्याय है।' द्रविड़राज का सारा शरीर क्रोध से प्रकम्पित हो उठा—'अन्याय है यह? आज आप मुझे न्याय की दीक्षा देने आये हैं? जो अब तक न्याय का पोषक एवं उपासक रहा है, उसे आप न्याय का मार्ग दिखाने का साहस करते हैं, महामंत्री जी...?' क्रोध से इंकार उठे सम्राट ___—'कहां थे न्याय के पृष्ठ-पोपक अब तक, जबकि मैं स्वर्ण सिंहासन पर आसीन होकर न्याय दण्ड हाथों में लेकर, अभागी प्रजा के अपराधों का न्याय किया करता था? कहां थे आप जब कि मैं एक साधारण अपराधी को भी न्याय की रक्षार्थ कठोरतम दण्ड देता था? कहाँ थे आप, जबकि मेरे अटल न्याय के कारण कितने ही अपराधी मृत्यु दण्ड पाते थे, कितने ही देश-निर्वासन सहन करते थे। कहां थे आप जब मैं अपने न्यायासन पर बैठकर प्रजा का न्याय करता था। आपका न्यायपूर्ण हृदय कहां था तब?"

'.........' महामंत्री निस्तब्ध खड़े थे नीचा सिर किये हुए द्रविड़राज के सम्मुख। 'आज जबकि स्वयं राजमहिषी ने एक असत्य बात कहकर गुरुतर अपराध किया है और मैं स्वयं अपनी पत्नी को राजदण्ड देने जा रहा हूं-तो आप आये हैं मुझे न्याय की याद दिलाने, आप आये हैं मुझे अन्याय और न्याय का अंतर बताने। असत्य बोलना कितना बड़ा अपराध है बहे भी अपने ही पति से...। भूल गये महामंत्री! इसी अपराध में कितनों के ही प्राण उनके शरीर से विलग कर दिये हैं—फिर भी आप ऐसा कहते हैं? जाइए महामंत्री जी, न्याय की व्यवस्था की कीजिये। द्रविड़राज ने जिस प्रकार आज तक अपनी प्रजा का न्याय किया है, उसी प्रकार राजमहिषी का भी न्याय करेंगे। न्याय की सीमा में राजा-प्रजा सभी समान हैं। न्याय अटल है और अटल रहना ही चाहिये। आज मैं अपने स्वार्थ हेतु प्रजा के नेत्रों में निकृष्ट बनना नहीं चाहता। प्रजा भी देख ले कि स्वयं द्रविड़राज की प्राण-प्रिय राजमहिषी त्रिधारा भी, द्रविड़राज के अटल न्याय का सीमोल्लंघन करने का साहस नहीं कर सकती। आज सारी प्रजा नेत्र खोलकर देखे कि द्रविड़राज का जो न्यायदण्ड समस्त प्रजा के लिए है, वहीं राजमहिषी के लिए भी है...।'

"परन्तु श्रीसम्राट...!'

'शांत रहिये, महामंत्री...! द्रविड़राज आगे एक शब्द भी सुनने के आकांक्षी नहीं। आप जा सकते हैं।'

महामंत्री चले गए और द्रविड़राज चिंतातिरेक से चेतनाहीन होकर भूमि पर लुढ़क गए।
-- ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आज वह अशुभ दिन था, जब सारी प्रजा की आकांक्षा के विरुद्ध राजमहिषी त्रिधारा को असत्य कहने के महान अपराध में दण्डाज्ञा सुनाई जाने वाली थी।

राजसभा में तिल रखने तक का स्थान नहीं था। महापुजारी उच्च आसन पर आसीन थे। उनके कुछ नीचे द्रविड़राज का सिंहासन था। महामंत्री खड़े हुए अभियोग की व्यवस्था में व्यस्त थे। नगर के सभी छोटे-बड़े नागरिक यथोचित आसीन थे। राजसभा में मृत्यु जैसी निस्तब्धता छाई हुई थी।

सभी के नेत्र द्रविड़राज के शुष्क एवं प्रभावहीन मुखमंडल पर केंद्रित थे। द्रविड़राज शून्य दृष्टि से सामने की ओर देख रहे थे। कभी-कभी उनके नेत्रों के कोरों पर बहुत रोकने पर भी अश्रु कण झलक उठते थे।

दक्षिण की और झिलमिलाती एक श्वेत यविनका पड़ी थी, उसकी ओट में बन्दिनी राजमहिषी त्रिधारा अपनी एक परिचारिका के साथ उपस्थित थी।

'श्रीसम्राट राजमहिषी से यह पूछना चाहते हैं कि राजमहिषी ने वह पवित्र रत्नाहार कहां रखा है?' महामंत्री की संयत वाणी राजसभा में गूंज उठी।

चारों ओर निस्तब्धता व्याप्त थी। केवल यवनिका की ओट से राजमहिषी की परिचारिका ने उत्तर दिया—'राजमहिषी का कहना है कि वह रत्नहार यत्नपूर्वक मणिमंजूषा में सुरक्षित है...।'

पुन: शांति को साम्राज्य छा गया। द्रविड़राज ने एक बार क्रोध से दांत पीसे, राजमहिषी का पुन: असत्य भाषण सुनकर। 'क्या राजमहिषी यह रत्नहार पहचान सकती हैं...?' महामंत्री ने वह पवित्र रत्नाहार लेकर उस श्वेत यवनिका की ओर बढ़ा दिया।

परिचारिका ने अपना हाथ यवनिका से थोड़ा बाहर निकालकर बह रत्नहार ले लिया।
User avatar
rajsharma
Super member
Posts: 15829
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

वह पवित्र रत्नहार देखते ही राजमहिषी पर जैसे अकस्मात् वज्रपात हुआ। उनके नेत्रों के समक्ष घनीभूत अंधकार छा गया। अपनी इस दुर्दशा का कारण आज उनकी समझ में आया। वे महान पश्चाताप से दग्ध हो उठीं।

महामंत्री का स्वर पुन: सुनाई पड़ा—'श्रीसम्राट पुन: पूछते हैं कि राजमहिषी उस रत्नहार को पहचान सकीं या नहीं?

..............' यवनिका की ओट से परिचारिका का स्वर आया—'राजमहिषी ने इस पवित्र रत्नहार को पहचान लिया है।'

द्रविडराज की भंगिमा उद्दीप्त हो उठी। उन्होंने झककर महामंत्री के कान में जाने क्या कहा। महामंत्री उच्च स्वर में बोले—'श्रीसम्राट दृढ़ स्वर में आज्ञा देते हैं कि साम्राज्ञी शीघ्र बतायें कि उन्होंने स्वयं श्रीसम्राट से असत्य कहकर उन्हें अंधकार में रखने का दुस्साहस क्यों किया?'

'राजमहिषी लज्जित हैं इसके लिए...।' परिचारिका ने उत्तर दिया। '

उन्हें दण्ड का भागी होना पड़ेगा।'

'राजमहिषी को सहर्ष स्वीकार है।'

महामंत्री बैठ गए। द्रविड़राज ललाट पर उंगली रखकर न जाने क्या विचार करने लगे। राजसभा में सूचीभेद्य शांति थी। एक शब्द भी सुनाई नहीं पड़ रहा था।

महापुजारी पौत्तालिक स्थिर आसनासीन थे। सभी सभासद कम्पित हृदय से उन वाक्यों की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिन पर राजमहिषी का भविष्य अवलम्बित था।

एकाएक द्रविड़राज अपना स्वर्णासन त्याग उठ खड़े हुए। सभासदों का हृदय अज्ञात आशंका से धड़क उठा, तीव्र वेग से।

द्रविड़राज ने मन-ही-मन महापुजारी को प्रणाम किया, पुन: संयत वाणी में बोले—'राजमहिषी को आजन्म निर्वासन की दण्डाज्ञा की जाती है।'

'श्रीसम्राट....।' एकाएक सभी सभासद आवेग से उठ खड़े हुए।

'यथास्थान आसीन हों, आप लोग...।' द्रविड़राज का कठोर गर्जन सुनाई पड़ा—'राजाज्ञा का दृढ़ता से पालन होगा।'

'राजमहिषी को राजदण्ड स्वीकार है। परिचारिका का स्वर कर्णगोचर हुआ। यवनिका की ओट से राजमहिषी के सिसकने का अस्फुट स्वर सुनाई पड़ा—'राजमहिषी श्रीयुवराज से मिलना चाहती हैं।'

'नहीं।' द्रविड़राज बोले-'एक कलुषित आत्मा को एक पवित्र आत्मा से साक्षात् करने की आज्ञा नहीं दी जा सकती। निर्वासन की आज्ञा का तुरंत पालन होना चाहिये?'

यवनिका की ओट में खड़ी राजमहिषी निधारा ने अपने नेत्र पोंछे और उस पवित्र रत्नहार को माथे से लगाकर अपने कंठ प्रदेश में डाल लिया।

दो किरात आगे बढ़कर राजमहिषी के साथ हो लिए। आज तक जो ऐश्वर्य की सुखमयी गोद में जीवन व्यतीत करती आ रही थी, वह अपने पति से अटल न्याय की रक्षार्थ आजन्म निर्वासन का दण्ड सहन करने के लिए सहर्ष प्रस्तुत हो गई।

द्रविड़राज चेतनाहीन होकर सिंहासन पर लुढ़क पड़े। महामंत्री घबराकर सिंहासन की ओर दौड़ पड़े।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Post Reply