लज़्ज़त का एहसास (मिसेस नादिरा )
मैरा नाम नादिरा खालिद है. मेरी उमर 38 साल है और में शादी-शुदा और दो बेटियों की माँ हूँ. मेरी बड़ी बेटी 12 साल की है जबके छोटी की उमर 10 साल है. दोनो लाहौर के एक मशहूर बोर्डिंग स्कूल में ज़ैर-ए-तालीम हैं. मै अपने शौहर खालिद के साथ इस्लामाबाद में रहती हूँ. मेरे पाँच भाई और तीन बहनें हैं. अपनी बहनो में मेरा नंबर तीसरा है.
में अपनी तारीफ करना पसंद नही करती मगर ये भी कुछ गलत नही है के दुनिया हमेशा से मुझे एक दिल-आवाइज़ और हसीन औरत समझती आई है. हम चारों ही बहनें अच्छी शकल-ओ-सूरत की हैं. मेरी बड़ी बहनें नीलोफर और खादीजा और छोटी बहन शहनाज़ भी बड़ी खुश-शकल और जाज़िब-ए-नज़र औरतें हैं. अपनी बहनो की तरह 12/13 साल की उमर से ही मुझे खानदान की जनानियाँ खूबसूरत कहने लगी थीं . जब बड़ी बूढ़ियाँ हंसते हुए हल्की आवाज़ में बातें करती हैं तो लड़कियाँ समझ जाती हैं के किस का ताज़किरा हो रहा है और किस वजह से हो रहा है. मेरा तो घराना भी काफ़ी मॉडर्न और रोशन-ख़याल था इस लिए ऐसी बातें मेरे कानो तक आसानी से पुहँच जाया करती थीं .
कुदरत ने हर औरत को दूसरी से मुख्तलीफ़ ही पैदा किया है मगर सग़ी बहनों में किसी हद तक मुशाबिहत होना कोई अजीब बात नही है. मेरे चेहरे और क़द-ओ-क़ामत को देख कर आसानी से कहा जा सकता है के में बाजी नीलोफर और बाजी खादीजा की सग़ी बहन हूँ. अपनी छोटी बहन शहनाज़ से अलबाता में इतना ज़ियादा नही मिलती क्योंके उस के नाक़ूश भी थोड़े मुख्तलीफ़ हैं और क़द भी हमारे मुक़ाबले में काफ़ी छोटा है.
में अपने लड़कपन और जवानी में कोई बहुत रोमॅंटिक मिज़ाज की लड़की नही थी. शायद मेरी तबीयत ही कुछ ज़ियादा आशिक़ाना नही है. उस वक़्त मुझे मिल्स एंड बून के रूमानी नॉवेल पढने का शोक़् ज़रूर था मगर में दूसरी लड़कियों की तरह ऐसे नॉवेल्स पढ़ कर कभी ख्वाबों की दुनिया में गुम नही हुई. मैंने कभी नही सोचा के सफ़ेद घोड़े पर सवार कोई शहज़ादा कहीं से आए गा और मुझे अपने साथ परियों के देश ले जाएगा जहाँ में सारी ज़िंदगी ऐश करूँगी.
मुझे लड़कों में दिलचस्पी थी लेकिन सिरफ़ देखने की हद तक और सिरफ़ इतनी ही जितनी किसी भी नोजवान लड़की को हो सकती है. हाँ में ये ज़रूर सोचा करती थी के मेरी शादी कब होगी और किस से हो गी.
उस ज़माने में कई सर-फ़िरों ने मुझ पर डोरे डालने की कोशिश की मगर मैंने उनकी तरफ कोई ध्यान नही दिया. कुछ ये भी था के कभी किसी ने मुझ से इतना क़रीब होने की कोशिश ही नही की के मुझे हाँ या ना की सूरत में कोई रद-ए-अमल ज़ाहिर करना पड़ता. जब मेरी आम सी शकल-ओ-सूरत वाली सहेलियों को लड़के खत लिख लिख कर भेजते तो मुझे हैरत होती के मेरे साथ कभी ऐसा क्यों नही होता. मै उन से कहीं ज़ियादा खूबसूरत और लंबी चौड़ी थी मगर फिर भी किसी ने कभी खुल कर मुझ से इज़हार-ए-मुहब्बत नही किया. इस में शायद मेरी अपनी शख्सियत का क़सूर भी रहा हो गा जो खूबसूरत होने के बावजूद ना तो कभी किसी ने मुझे अपनी लैला बनाने की कोशिश की और ना ही कभी कोई मेरा मजनू बना. ज़िंदगी किसी ऐसे हादसे के बगैर ही गुज़रती रही.
जवानी के शुरू के दिनों में हर लड़की की तरह मुझे भी सेक्स के बारे में बड़ा ताजससूस था और में जानना चाहती थी के ये आख़िर है किया बला जिस की वजह से सारी दुनिया पागल हुई फिरती है. मेंसस शुरू होने के बाद में अपने बदन में होने वाली वाज़ेह तब्दीलियों पर गौर किया करती थी. मुझे अपना बदन अंदर से भी और बाहर से भी बड़ा मुख्तलीफ़ महसूस होने लगा था. जब में बाथरूम में नहाती तो मेरे हाथ खुद-बा-खुद अपने मम्मों और चूत पर तेज़ तेज़ हरकत करने लगते थे. तब मुझे बड़ी अजीब क़िसम की लज़्ज़त का एहसास होता था और जब ये लज़्ज़त बहुत ज़ियादा बढ़ने लगती तो में घबरा जाती थी. मेरी चूत के बिल्कुल ऊपर का हिस्सा और मम्मों के निप्पल ख़ास तौर पर बड़े हस्सास मक़ामात बन गए थे और उन्हे हाथ लगाने से मुझे हमेशा कुछ होने लगता था.