Incest लंड के कारनामे - फॅमिली सागा

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josef
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Re: Incest लंड के कारनामे - फॅमिली सागा

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गाँव में पहुँच कर मुझे एक अलग तरह की हवा की खुशबू आ रही थी, हो भी क्यों न, आस-पास के खेतो से आती मिटटी की खुशबू और पेड़ो और पोधो पर लगे फल-फुल तरह-२ की खुशबू बिखेरकर मौसम को बड़ा मजेदार बना रहे थे.
दादाजी का घर गाँव के बीचो-बीच था, और काफी बड़ा था, उनके बड़े से घर में 3 कमरे नीचे और दो ऊपर थे, घर के पीछे वाला हिस्सा गाये और मुर्गियों के लिए रखा हुआ था.
दरवाजा खडकाने के थोड़ी ही देर बाद एक चालीस साल की औरत ने दरवाजा खोला
दादाजी : "आओ बेटा...ये दुलारी है , घर और गायों की देखभाल के लिए.. और दुलारी ये है मेरा पोता और पोती..मेरे दिल्ली वाले बड़े बेटे के बच्चे.."
दुलारी : "हाय..दैया...कितने बड़े हो गए है...पांच साल पहले देखा था इन्हें...लालाजी तुम भी न, पहले बता तो देते की बच्चे भी आ रहे है, कमरा साफ़ करवा देती..अब कैसे करेंगे..कहाँ सोयेंगे ये दोनों..."
दादाजी : "अरी , तू फिकर मत मर, आज ये मेरे कमरे में सो जायेंगे, तो इनके कमरे सुबह साफ़ कर देना..चल अब खाना लगा , बड़ी भूख लगी है.."
हम सभी अन्दर आये, दादाजी का कमरा काफी बड़ा था, बीच में एक बड़ा सा लकड़ी का बेड था और कोने में काफी जगह थी, जहाँ आराम से सोया जा सकता था...
हमने खाना खाया.
दादाजी : "अरी दुलारी..रूपा कहा है..सो गयी क्या.."
दुलारी : " हा लालाजी..कहो तो उठा दू.."
दादाजी : "नहीं रहने दे..ये बच्चे मिलने को उतावले हो रहे थे बस.."
दादाजी मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिए..
मैं भी दादाजी की बात सुनकर , ऋतू की तरफ देखकर, मुस्कुराने लगा.
मैंने नीचे बिस्तर लगा लिया, काफी थक गया था..ऋतू भी मेरे पास आकर सो गयी, पर थके होने की वजह से सिर्फ एक दो किस करी और लिपट कर सो गए.
*****
सुबह मेरी नींद 6 बजे खुल गयी..ऋतू मेरे पास नहीं थी..मैंने ऊपर पलंग पर देखा, वो दादाजी के साथ लिपट कर सो रही थी..और वो भी पूरी नंगी..
यानी रात को मेरे सोने के बाद उसकी चूत में खुजली हुई होगी..और वो दादाजी से चुदकर सो गयी होगी.
मेरी नींद तो खुल ही चुकी थी, मैंने सोचा की सुबह-२ गाँव की सेर करी जाए, और ये सोचकर मैं बाहर निकल गया.
हमारे दादाजी का काफी बड़ा आम का बगीचा है, और आम का सीजन अभी चल ही रहा है, इसलिए काफी ज्यादा आम लगे हुए थे.
मैं बगीचे में टहलने लगा.
मैंने देखा एक लड़की बगीचे के आम इकठ्ठा कर रही है..
मैं : "ऐ..क्या कर रही है तू.."
और जैसे ही वो मेरी तरफ पलती, मैं आँख झपकाना भूल गया..इतनी सुन्दर लड़की, हमारे गाँव में हो सकती है, मैंने कल्पना भी नहीं की थी..
मैं : "ऐ...आम चुरा रही है क्या.."
लड़की : "तू कोन होता है पूछने वाला.."
मैं : "मैं यहाँ के मालिक का पोता हु..अशोक नाम है मेरा."
लड़की (ख़ुशी से..) : अरे आशु साब...आप..मैंने तो आपको पहचाना ही नहीं...अम्मा ने बताया तो था सुबह की आप और ऋतू दीदी भी आये है, लालाजी के साथ, ...कैसे हो आप...मुझे भूल गए क्या..मैं रूपा..वो दुलारी काकी की बेटी..."
मैं : "अरे रूपा तू...कितनी सुन्दर हो गयी है तू अब..."
मेरी बात सुनकर वो शर्मा कर रह गयी.. और मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए उसके हुस्न का रसपान करना शुरू कर दिया.
उसने लाल रंग का घाघरा और सफ़ेद रंग का टॉप पहना हुआ था, कमर वाला हिस्सा अन्दर की और, बाकी ऊपर से छाती और नीचे से गांड दोनों बाहर की और निकले हुए थे.
उसके होंठो के ऊपर एक मोटा सा तिल था, जिसके बारे मैं ये सोचकर की इसे चूसने में कितना मजा आएगा, मेरा मुंह भर आया..
रूपा : "क्या देख रहे हो साब...मुझे माफ़ कर दो...मैंने आपको उल्टा सीधा बोल दिया...वैसे मैं ये आम इकठ्ठा कर रही थी.. रोज रात को जो आम नीचे गिरते हैं, वो वहां कोठरी में जमा कर देती हु, और शाम को मण्डी वाले आकर ले जाते हैं...लालाजी के पास सारा हिस्साब रोज पहुंचा देती हु मैं...आप पूछ लेना उनसे..
मैं : "अरे नहीं...मैं भी शायद तुम्हे गलत समझ बैठा था..वैसे तुमसे मिलकर अच्छा लगा."
रूपा : "चलो फिर इसी बात पर आम पार्टी हो जाए...आपको याद है न की हम पहले कितने आम खाया करते थे."
मैं याद करने लगा, रूपा और मैं, आम इकठ्ठा करके, उन्हें खाते थे और फिर पास के तालाब में जाकर नहाते थे..बड़े मजे के दिन थे वो भी.
मैं : "हाँ याद है रूपा...चल शुरू करते हैं.."
रूपा ने पास की चारपाई पर पके हुए आम का ढेर लगा दिया और हम दोनों पानी से धोकर, आम खाने लगे..जो जितने ज्यादा आम खायेगा, वही जीतेगा, यही होता था पहले तो..
मैं आम खाता जा रहा था और मेरी नजर रूपा के पके हुए आमो पर थी...यानी उसके मोटे-ताजे मुम्मो पर..जिन पर आम का रस गिरकर अपना गीलापन छोड़ रहा था..मन तो कर रहा था की इसी चारपाई पर उसे लिटा दू और उसके आम चूस लू..
पर वो अल्हड सी लड़की मेरी कामुक नजरो से बेखबर, आम चूसने में लगी हुई थी, मानो ये आम चुसो प्रतियोगता जीतकर वो गोल्ड मेडल लेना चाहती हो.. और आखिर में वो जीत ही गयी..
रूपा : "हुररेईsssssssssssssssss........................... मैं जीत गयी..."
मैं मुस्कुरा कर रह गया.
मेरी नजर अभी भी उसके आम रस से सने हुए टॉप पर थी..
उसने मेरी नजरो का पीछा किया और कपडे पर आम गिरा देखकर वो बोली : "हाय दैय्या...मर गयी...अम्मा मारेगी आज भी..कल भी डांट पड़ी थी, कह रही थी की इतनी बड़ी हो गयी है, पर आम खाने की अक्ल अभी तक नहीं आई."
मैं : "चलो फिर, तालाब में जाकर साफ़ कर लो इसे.."
रूपा : "हाँ चलो...जल्दी चलो."
वो उठ कर तालाब की तरफ भागने लगी.. मैं भी उसके पीछे की और चल दिया.
तालाब हमारे बगीचे के साथ ही है, उसके दूसरी तरफ घना जंगल शुरू हो जाता है.
josef
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Re: Incest लंड के कारनामे - फॅमिली सागा

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तालाब में पहुँचते ही रूपा ने बिना किसी झिझक के अपना टॉप उतार दिया..नीचे उसने ब्रा तो नहीं पर कपडे की बनियान सी पहनी हुई थी..जिसमे उसके दोनों खरबूजे समा पाने में असमर्थ से थे. वो अपने टॉप को पानी में धोने बैठ गयी, घाघरे को उसने ऊपर तक उठा कर लपेट लिया और नीचे बैठ कर उसे धोने लगी, उसकी कसी हुई पिंडलिया , जिनपर एक भी बाल नहीं था, पानी में भीग कर चमकने लगी.
रूपा ने अपने टॉप को सुखाने के लिए पेड़ के ऊपर टांग दिया.
उसकी हरकतों से पता चल रहा था की वो शरीर से तो जवान हो चुकी है पर दिमाग से वो अभी तक अल्हड सी, नासमझ है..इसलिए मेरे सामने ही उसने बिना किसी झिझक के अपना टॉप उतार दिया,
उसके गले से झांकते हुए मोटे-ताजे फलो को देखकर मैं उनकी नरमी का अंदाजा लगाने में व्यस्त था..मैंने सोच लिया की आज इसके साथ मजे ले ही लिए जाए, जितना लेट करूँगा, नुक्सान मेरा ही होगा..मैंने कुछ सोचकर अपने कपडे उतारने शुरू कर दिए..
रूपा : "लगता है आपको पुराने दिन याद आ गए, जब हम सभी यहीं नहाया करते थे...है न साब..."
मैं : "हाँ..और आज इतने सालो के बाद मैं फिर से नहा कर अपनी यादो को ताजा करना चाहता हु.."
मैंने एक-एक करके सारे कपडे उतार दिए..और अंत में अपना अंडरवीयर भी...
मैंने तिरछी नजरो से रूपा की तरफ देखा..वो पहले तो मुझे नंगा होते देखकर मुस्कुराती रही...पर जब मैंने अपना अंडरवीयर उतारा तो उसकी साँसे रुक सी गयी...उसे शायद उम्मीद नहीं थी की मैं पूरा नंगा होकर नहाऊंगा, जैसे मैं पहले नहाता था.. पानी के अन्दर जाकर मैंने तेरना शुरू कर दिया...और फिर वापिस आकर मैंने अन्दर से ही रूपा से कहा..
"अरे रूपा, तू नहीं आ रही क्या...चल न..आ जा.."
अब वो बेचारी धरम संकट में थी, उसने पहले तो बड़े चाव से बोल दिया था नहाने के लिए, पर मुझे नंगा नहाते देखकर, वो दुविधा में थी की वो ऐसे ही आये या नंगी होकर..
रूपा : "नहीं..आप नहा लो साब...मैं अभी नहीं..."
मैं : "अरे शर्माती क्यों है तू...यहाँ मेरे अलावा कौन है...चल जल्दी से आ जा..बड़ा मजा आ रहा है यहाँ..." कोई और चारा न देख उसने झिझकते हुए अपने कपडे उतारने शुरू किये..घाघरा उतारकर उसने एक कोने में रख दिया..और फिर अपनी बनियान भी उतार डाली..और आखिर में अपनी चड्डी भी..
भगवान् कसम...ऐसी लड़की मैंने आज तक नहीं देखी थी...इतनी सुन्दर, जवानी कूट-2 कर भरी हुई थी उसमे... वो पानी के अन्दर आई...और मेरे पास आकर खड़ी हो गयी.
रूपा : "साब...देखो अम्मा को मत बताना...उन्होंने पहले भी मुझे कई बार बिना कपडे के..और दुसरो के साथ नहाने को मना किया है..."
मैं : "तो फिर मेरे साथ क्यों नहा रही है अब.."
रूपा : "आपकी बात और है..मुझे तो ये सब अच्छा लगता है..और जब आपने शर्म नहीं की तो फिर मैं क्यों शरमाऊँ.."
मैंने उसके मुंह पर पानी फेंकना शुरू कर दिया. वो भी किलकारी मारकर मेरे साथ पानी में खेलने लगी..
मैंने उसे इधर उधर से छुना शुरू कर दिया..जिसका उसने कोई विरोध नहीं किया...और मैंने हिम्मत करके उसके पीछे से जाकर, उसे पकड़ लिया, मेरा तना हुआ लंड उसकी जांघो के बीच से होता हुआ आगे की तरफ निकल आया.. उसके मुंह से एक सिसकारी सी निकल गयी..
मैं : "अब बोल....अब कहाँ जायेगी..."
वो मेरे हाथो से छुटने का असफल प्रयास कर रही थी...पर हर झटके से मेरे हाथ फिसल कर कभी उसकी चूत के ऊपर तो कभी उसके उभारों से टकरा जाते...जिसकी वजह से उसकी लड़ने की शक्ति कमजोर सी पड़ जाती..
मैंने हिम्मत करके उसके एक चुचे को अपने हाथो में पकड़ा और मसल दिया. रूपा की चीख निकल गयी..वो मुड़ी और मैंने उसके होंठो पर एक जोरदार किस्स करते हुए उसकी चूत के अन्दर हाथ डालने की कोशिश करने लगा...
रूपा ने मुझे धक्का दिया और मैं तालाब के किनारे की दलदल वाली मिटटी के ऊपर पीठ के बल गिर गया..
रूपा मेरे सामने पूरी नंगी खड़ी थी, उसकी छाती तेज सांस लेने की वजह से ऊपर नीचे हो रही थी.
रूपा : "साब...बड़े बदमाश हो गए हो तुम तो...मुझे सब मालुम है की तुम क्या कर रहे थे...इतनी भी नासमझ नहीं है ये रूपा.."
मैं : "क्यों, तुझे अच्छा नहीं लगा क्या..."
रूपा : "मुझे अच्छा नहीं लगा...!! ये सब के लिए तो मैं ना जाने कब से तड़प रही थी...मेरी सहेली है एक, कम्मो, वो सब बताती है मुझे, और करने को भी उकसाती है... वो तो अम्मा ने मेरे ऊपर ना जाने कितने पहरे लगा रखे हैं...वर्ना गाँव का हर इंसान, बुड्डे से लेकर जवान तक, मेरे पीछे घूमते हैं...मेरी भी इतनी इच्छा होती है, मजे करने की, पर गाँव छोटा है साब, अम्मा का मैं ही सहारा हु, बदनाम होकर हम दोनों कहाँ जायेंगे..बस इसलिए अपने आप पर काबू रखा हुआ है...पर आज नहीं रुक सकती मैं..आज नहीं... और ये कहते हुए उसने मेरे ऊपर छलांग लगा दी. मेरा सर सिर्फ तालाब के पानी के किनारे पर होने की वजह से बाहर था, बाकी का हिस्सा दलदल वाले पानी के अन्दर था..वो मेरे ऊपर आई और मेरे होंठो के ऊपर झुककर उन्हें चूसने लगी... उसके मुंह से अभी भी आम की खुशबू आ रही थी...मैंने उसके दोनों आम को पकड़ा और उन्हें मसलते हुए, मुंह के जरिये उनकी खुशबू लेता हुआ, उसके नर्म और मुलायम होंठो को चूसने लगा.
"ओह्ह्ह ह्ह्ह् साब्ब ..........अह्ह्हह्ह्ह्हह्ह ......पहली बार आज मेरी छाती को किसी ने छुआ है....चूस डालो इन्हें आज...आम की तरह चुसो मेरी छातियों को...खा जाओ....ना.....अह्ह्हह्ह्ह्ह......"
मेरे मुंह पर उसकी ठोस चूचीयाँ किसी गेंद की भाँती दबाव डाल रही थी...उसके दोनों निप्पल बड़े ही टेस्टी थे...मुझे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था की पहले ही दिन मुझे रूपा के रूप का खजाना लुटने को मिल गया...मैं भी अपना मुंह खोलकर पुरे मजे लेकर, उसे चूसने और चाटने में लगा हुआ था. मैंने पलटकर उसे नीचे कर दिया...दलदली मिटटी के ऊपर आते ही उसने मेरी कमर के चारो तरफ अपनी नंगी टाँगे लपेट दी... मैंने उसके दोनों हाथ नीचे दबाकर उसकी गर्दन को चुसना शुरू कर दिया..वो मेरे नीचे पानी के अन्दर मछली की तरह तड़प रही थी...
मेरा लंड उसकी चूत के ऊपर ठोकरे मार रहा था...और वो भी अपनी चूत ऊपर करके मेरे लंड को निगलने के लिए उत्साहित सी हो रही थी... मैंने उसकी चूत के ऊपर अपना लंड टिकाया ..वो थोड़ी देर के लिए मचलना भूल गयी...पर जैसे ही मैंने उसके अन्दर थोडा लंड का दबाव डाला..वो फिर से मचलने लगी...
"अह्ह्ह्हह्ह्ह्हह्ह ...बाबु .....आराम से....जरा....कोरी है अभी मेरी चूत.....अह्ह्ह्ह"
पर मैं नहीं रुका..मैंने अपना लंड निकाला और एक तेज शोट मारा, अब मेरा लंड उसकी झिल्ली को फाड़ता हुआ अन्दर तक चला गया... मेरे लंड पर गर्म खून का एहसास होते ही मुझे पता चल गया की उसकी चूत फट चुकी है..मैं मन ही मन गिनती करने लगा की मैंने आज तक कितनी कुंवारी छुते फाड़ी है...पर ये वक़्त इन सब हिसाब किताब का नहीं था...
मैंने नीचे की और देखा, मेरे लंड के आस पास का पानी लाल रंग का हो चूका था, उसकी चूत से निकलता खून बाहर आने लगा था... वो अपनी आँखे बंद किये मेरे अगले धक्के का इन्तजार कर रही थी..और जब मैंने अगला धक्का मारा तो मेरा पूरा लंड उसकी चूत के अन्दर तक जाकर गड़ सा गया...और फिर मैंने उसे बाहर खींचा और फिर अन्दर...इसी तरह से लगभग 10 -15 धक्को के बाद मेरा लंड पानी की वजह से, बड़े आराम से उसकी चूत के अन्दर बाहर निकलने लगा...
अब वो भी मजे ले लेकर मुझसे चुदवा रही थी..
"अह्ह्ह्हह्ह ओह्ह्ह्हह्ह आशु साब.....मजा आ गया.....मम्म.....कम्मो ठीक कहती थी....इतना मजा आता है चुदाई में......अब तो रोज मजे लुंगी....अह्ह्हह्ह .....अह्ह्हह्ह.......और जोर से मारो....मेरी कुंवारी चूत को....अह्ह्ह्ह......ओह्ह्ह्ह साब........" और पहली बार चुदने की वजह से वो ज्यादा उत्तेजित होकर जल्दी ही झड़ने लगी...
मैंने अपना लंड आखिरी वक़्त में बाहर निकाल लिया... मैं उसकी चूत में झड़कर कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था... और मैंने अपने लंड को पकड़कर उसके चेहरे को भिगोना शुरू कर दिया...जिसे उसने मंद मंद मुस्कुराकर, अपने पर गिरते हुए महसूस किया...
पानी में थोड़ी देर तक पड़े रहने के बाद मैं साफ़ होकर बाहर आया और वहीँ एक चट्टान पर बैठ गया..वो भी मेरे पीछे आई, उसकी चाल में एक अजीब सी मादकता आ चुकी थी..वो भी मेरी गोद में आकर बैठ गयी.
मैं : "तुम्हे बुरा तो नहीं लगा न...हम इतने सालो के बाद आज मिले हैं , और पहले ही दिन मैंने..."
रूपा ने मेरे होंठो पर ऊँगली रख दी..
रूपा : " देखो साब...बचपन में हमने बच्चो वाले खेल खेले..और आज जवानी में हमने जवानों वाले खेले..तो इसमें बुरा मानने वाली क्या बात है...मुझे तो आपका शुक्रिया करना चाहिए..इतने मजे आते है इस खेल में, मुझे आज एहसास हुआ..अब आप देखना, जब तक यहाँ हो, मैं कैसे मजे देती हु आपको..."
मैं उसकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया..
उसके बाद हमने कपडे पहने और वापिस घर की तरफ चल दिए...
*****
josef
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घर मे आते ही दुलारी काकी ने जब रूपा को मेरे साथ देखा और हम दोनो के भीगे कपड़े देखे तो सब समझ गयी,
दुलारी : "अरी करमजलि, तू पागल है क्या.., अपने साथ आशु बाबू को भी नहला लाई तालाब मे..कुछ तो ख़याल किया कर..मैने कितनी बार कहा है की......"
तभी मैं बीच में बोल पड़ा : " अरे काकी ...तुम इसे क्यो डांट रही हो..मैने ही इसे कहा था नहाने को..ये तो मना कर रही थी..चलो अब ये सब छोड़ो, मुझे बहुत जोरो से भूख लगी है, नाश्ते मे क्या बनाया है.."
दुलारी : "आप बैठो, मैं बनाती हू, आज आपको आलू प्याज के परोंठे खिलाउंगी , दही के साथ.."
तभी दादाजी और ऋतु भी आ गये.
दादाजी : "अरी दुलारी..तूने अभी तक नाश्ता नही बनाया..टाइम देख कितना हो गया है..और हा..इसके बाद मेरे साथ खेतो मे भी चलना, वहाँ जो माल की कटाई हुई है, उसका हिसाब देखना है मुझे."
दुलारी : "ठीक है लालाजी..आप नाश्ता करो, फिर चलते हैं.."
हम सबने नाश्ता किया. मैं बीच-2 में रूपा को देखे जा रहा था और मेरी इस हरकत को ऋतु नोट कर रही थी .
ऋतु (मेरे कान मे फुसफुसते हुए) : "भाई..क्या बात है..रूपा की जवानी पर बड़ी गंदी नज़र है आपकी..."
मैं भी धीरे से उसके कान मे बोला : "इसकी जवानी तो आज सुबह ही मेरे लंड पर कुर्बान हो चुकी है...अब तो अगले मेच की तेयारी है.."
ऋतु ने हेरत भारी नज़रों से मुझे देखा..मानो उसे मुझपर विश्वास ही ना हो..पर मेरी आँखों मे मेरी बात की सच्चाई देखकर उसे भी विश्वास हो गया क्योंकि वो जानती थी की मैं सब कुछ कर सकता हूँ..
तभी ऋतु मेरे कान मे फुसफुसाई : "भाई..वो देखो दादाजी को..कैसे दुलारी काकी को देखे जा रहे है..मुझे लगता है उनकी भी गंदी नज़र है काकी पर.." और सच मे, दादाजी की वासना से भरी हुई नज़रे दुलारी को सबके सामने चोदने मे लगी हुई थी..वो जब खाना खाने के लिए मुँह खोलते तो ऐसा लगता मानो दुलारी का मुम्मा खा रहे हो..
उनकी नज़र सामने ज़मीन पर बैठी हुई दुलारी की मस्त और चोडी गांड़ पर थी, जिसे देखकर मेरा भी लंड एक बार फिर से हुंकारने लगा.
मैं : "दादाजी..आप कहो तो हम भी चले क्या आपके साथ खेतो मे.."
दादाजी : "हां हां क्यों नही..चलो तुम भी..तुम्हे अपने खेतों का हिसाब भी दिखाता हूँ, देखना कोई गड़बड़ तो नही चल रही ना.."
दुलारी : "अरे लालाजी..मेरे रहते कोई गड़बड़ हुई है आज तक, पिछले दस सालो से मैं तुम्हारे हर हिसाब-किताब पर नज़र रखती हू..पड़ी लिखी इतनी नही हू, पर ये सब समझती हू.."
और ये बात सच भी थी..दुलारी काकी शायद 8th तक पड़ी लिखी थी..पर फिर भी सारे खेतो और बगीचो का हिसाब किताब वो बेख़ुबी रखती थी..
हम सबने नाश्ता किया और उसके बाद दादाजी के ट्रेक्टर में बैठकर खेतो की तरफ चल दिए..रूपा घर पर ही रुकी, दोपहर का खाना बनाने के लिए.
मैं दादाजी के साथ आगे बैठा था और ऋतु और दुलारी काकी पीछे ट्रॉली मे थी.
मैने मौका देखकर दादाजी के कान मे कहा : "दादाजी..आप दुलारी काकी को बड़े प्यार से देख रहे थे..चाहते क्या हो आख़िर.."!!
दादाजी (मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखते हुए) : "बेटा..अब जब तुम लोगो की वजह से मेरा शेर जाग ही चुका है तो इसे हर कोई अपना ही शिकार लगता है...और मेरे घर मे तो एक नही दो-दो शिकार है.."
उनका इशारा दुलारी के साथ-2 रूपा की तरफ भी था.
मैं : "अरे दादाजी...मैने तो दूसरे का शिकार कर भी लिया...आप क्यो इतना सोचने मे टाइम वेस्ट कर रहे हैं..दबोच लो साली को..मना थोड़े ही करेगी वो.."
मैने रूपा को चोद दिया, ये सुनकर दादाजी मुझे हेरत से देखने लगे..उन्हे भी शायद ऋतु की तरह मुझपर विश्वास नही हो रहा था..
दादाजी : "अच्छा जी..बड़ा ही तेज है तू इन कामो मे..वैसे सोच तो मैं भी रहा हू...आज देखता हू..खेतो मे..अगर मान गयी तो साली की चूत वहीं फाड़ दूँगा मैं.."
मैं : "अरे नही दादाजी..आप भी ना ठेठ गाँव वाले की तरह हो..ये औरते प्यार की भूखी होती है..इन्हे भी चुदाई मे मज़ा आता है..इन्हे आराम से, दिखा कर..ललचा कर..प्यार दिखा कर अपने काबू मे लाओ..फिर देखना, कितने मज़े देती है ये.."
दादाजी : "तू ठीक कहता है आशु..चल ठीक है..तू ही बता फिर मैं कैसे और क्या करूँ की ये दुलारी आज मेरे उपर बिछ सी जाए.."
मैने कुछ सोचकर उन्हे प्लान समझाया..वो मेरा प्लान सुनकर खुश हो गये..होते भी क्यो ना, मैं अब इस तरह के प्लान बनाने मे एक्सपर्ट जो हो चुका था...
हम सभी खेत में पहुंचे, खेतो के पास एक कमरा था , जिसे दादाजी ने चाबी से खोला, अन्दर दो चारपाई और एक लकड़ी की अलमारी थी, जिसमे ताला लगा था, दुलारी काकी ने अंदर से एक डायरी निकाली और उसमे से हिसाब देखकर दादाजी को समझाने लगी..
दादाजी की नज़रे डायरी से ज़्यादा दुलारी की मदर डेरी पर थी..जिनमे से दूध के कंटेनर ब्लाउज़ फाड़कर बाहर आने को बेताब थे..
दुलारि क़ो भी शायद दादाजी ने "नेक" इरादो का आभास हो गया था...पर दादाजी के नेचर की वजह से वो उनपर कोई शक नही कर पा रही थी....मैने दादाजी को इशारा किया और मैं ऋतु के साथ बाहर की और निकल गया.
मैं : "दादाजी...आप अपना काम करो..मैं ऋतु के साथ पूरे खेत देखकर आता हू..."
दादाजी : "ठीक है बेटा.."
और हम बाहर निकल कर कमरे के दूसरी तरफ आये , और लकड़ी की खिड़की के एक छेद से अंदर की तरफ देखने लगे. .
दादाजी हिसाब समझने के बाद दुलारी से बोले : "दुलारी..तुने तो सच में सारा हिसाब अच्छी तरह से संभाल रखा है... और बेंक में सब पैसे भी सही ढंग से जमा करवा रखे है...मुझे बड़ी ख़ुशी हुई आज...इसलिए मैं तेरी पगार आज से डबल करता हु..."
दुलारी (ख़ुशी से) : " अरे वह लालाजी...बड़ी मेहरबानी है आपकी...वैसे तो मुझे पैसो की ज्यादा जरुरत नहीं है...पर आप तो जानते हो की रूपा जवान हो गयी है..उसकी शादी ब्याह पर भी खर्चा करना है..बस उसी के लिए पैसे जोडती रहती हु..वर्ना सारा खर्चा तो वैसे भी आप ही उठाते है..."
दादाजी : "अरी तू उसकी शादी की फिकर मत कर, बड़ी धूम धाम से उसकी शादी करेंगे...अभी तो उसके खेलने खाने के दिन है..और वैसे भी तू कोनसा अभी सास बनने के लायक है..अभी भी तू किसी भी नयी दुल्हन जैसी लगती है.."
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Re: Incest लंड के कारनामे - फॅमिली सागा

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दादाजी की इतनी खुली बात सुनकर दुलारी को अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ..और उसके गाल शर्म से लाल सुर्ख हो गए..
दुलारी : "अरे लालाजी...आज कैसी बाते कर रहे हो...लगता है शहर की हवा लग गयी है तुम्हे..."
दादाजी : "शहर में क्या-२ होता है..तुझे क्या मालुम पगली..पर हां, मैं इतना जरुर जानता हु की मैंने अपनी जिन्दगी के पिछले 10 साल ऐसे ही बर्बाद कर दिए.. पर बस अब और नहीं...जिन्दगी का क्या भरोसा..आज है, कल नहीं, इसलिए जितने मजे लेने है, आज ही ले लो बस..."
दुलारी , दादाजी की बात सुनकर उनके पास आई और उनके मुंह पर अपने कोमल हाथ रखकर बोली : "शुभ-२ बोलो लाला...आपको तो मेरी भी उम्र लग जाए..ऐसी बात मत करना आज के बाद..वर्ना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.."
दादाजी ने दुलारी की आँखों में पता नहीं क्या देखा, उन्होंने, उसके हाथो पर अपने हाथ रख दिए..और उसकी उँगलियों को चूम लिया... दुलारी के पुरे शरीर में एक करंट सा दौड़ गया...उसने झटके से अपना हाथ पीछे खींच लिया : "लालाजी...ये क्या..."
दादाजी ने जब उसे घबराकर पीछे होते देखा तो उन्होंने अपराध भाव जैसा चेहरा बनाते हुए, दुलारी से मुंह फेर लिया.. दुलारी को लगा की शायद दादाजी उससे नाराज हो गए हैं..वो उन्हें अपना भगवान् मानती थी शायद इसलिए उनसे ऐसी उम्मीद नहीं की थी उसने.. वो थोड़ी देर तक सोचती रही और फिर कुछ सोचकर अपनी आँखे बंद की और एक गहरी सांस लेकर दादाजी से बोली :
"लालाजी..मैं समझती हुँ...जब से मालकिन गयी है, आपने किसी की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा..पर आपके मन में क्या चल रहा है, ये किसी ने जानने की कोशिश नहीं की.. मेरा पति भी जब छोड़कर भाग गया था तो सिर्फ आपने मुझे सहारा दिया था और गाँव वालो के मुंह भी आपने ही बंद किये थे.. मुझे पता है की अपने शरीर को वो सुख न मिले तो कैसा लगता है...वही हाल आपका भी था लालाजी... पर अब लगता है की आपसे सबर नहीं हो पा रहा है... और मैं पिछले दस सालो से आपकी दासी बनकर रह रही हु...अगर आपकी यही इच्छा है तो मैं आज भी आपको मना नहीं करुँगी...आपको जो करना है, कर लो.."
ये कहते हुए दुलारी घूमकर दादाजी के सामने आ गयी और अपना दुप्पट्टा निकाल कर चारपाई पर फेंक दिया..और उसके दोनों मुम्मे, कुरते में फंसे हुए से, दादाजी की आँखों के सामने उजागर हो गए.
दादाजी : "नहीं दुलारी..तू मुझे गलत समझ रही है, मैं तुझे दासी की तरह नहीं..रानी की तरह रखना चाहता हु...तेरे से ब्याह करना चाहता हु मैं..."
दादाजी की बात सुनकर दुलारी के साथ-२ मेरा और ऋतू का भी मुंह खुला का खुला रह गया..ये बुढ़ापे में दादाजी को शादी की क्या सूझी...!!
दादाजी ने कुछ देर तक चुप रहने के बाद कहा : "पर तू तो जानती है...ये गाँव वाले इस तरह के रिश्ते को नहीं मानेंगे...और तुझे आगे चलकर रूपा का ब्याह भी करना है..."
दुलारी : "मैं जानती हु लालाजी...पर आपने मेरे बारे में इतना सोचा, मेरे लिए वो ही बहुत है...आप नहीं जानते की आपने मुझे कितनी बड़ी ख़ुशी दी है...
आपने ये बात करके मुझे खरीद लिया है...मेरे नीरस से जीवन में आज पहली बार बहार सी आई है...आप फिकर मत करो...कुछ रिश्तो को नाम देने की जरुरत नहीं होती लाला..
आज से और अभी से मेरा तन मन आपका है...आप जो भी कहेंगे मैं किसी नोकर की तरह नहीं, बल्कि आपकी पत्नी की तरह मानूंगी...और बाहर वालो के लिए मैं वही रहूंगी...आपकी दासी.." ये बोलते-२ उसकी आँखों से आंसू बहने लगे थे... और उसने आगे बढकर दादाजी को अपने गले से लगा लिया...दादाजी का कद दुलारी से लगभग २ फूट ज्यादा था...वो उनके कंधे से भी नीचे आ रही थी...दादाजी की धोती से झांकता हुआ उनका हथियार दुलारी के पेट से टकरा रहा था...
दादाजी ने दुलारी के चेहरे को ऊपर किया और उसके होंठो को चूमने लगे...दादाजी के चूमने भर से दुलारी उनके हाथो में पिघलने सी लगी...वो लटक सी गयी उनकी बाहों में... दादाजी ने उसके कुरते के ऊपर से ही उसके दोनों मुम्मो को पकड़ा और उन्हें मसल दिया..
दुलारी : "धीरे दबाओ लाला...पिछले कई सालो से इन्हें किसी ने छुआ भी नहीं है...आराम से..अह्ह्ह्ह.."
पर दादाजी को तो आप जानते ही हैं...उन्होंने जब सोनी की चुदाई की थी तब तो कितने जंगली से हो गए थे, ठीक वैसे ही वो आज हो रहे थे... सोनी की चूत में तो कई लंड जाकर उसे चौडा़ कर चुके थे पर उसके बावजूद दादाजी ने उसकी चूत का जो कबाड़ा किया था..बेचारी लंगडाती हुई गयी थी उनके कमरे से...और शायद उनके लंड को याद करके वो दिल्ली में अभी भी तड़प रही होगी...
आज भी दादाजी के तेवर वैसे ही थे...जो हाल सोनी का हुआ था, वोही आज दुलारी का होने वाला था...ये मुझे और ऋतू को अच्छी तरह से मालुम था... दादाजी ने दुलारी की बातो पर कोई ध्यान नहीं दिया...और उसके कुरते के ऊपर से ही उनके मुम्मे दबाते हुए उन्होंने उसे फाड़ना शुरू कर दिया...
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