Thriller विश्वासघात
शनिवार : शाम
वह कैन्टीन इरविन हस्पताल के कम्पाउंड के भीतर मुख्य इमारत के पहलू में बनी एक एकमंजिला इमारत में थी जिसकी एक खिड़की के पास की टेबल पर बैठा रंगीला चाय चुसक रहा था और अपने दो साथियों के वहां पहुंचने का इन्तजार कर रहा था। खिड़की में से उसे हस्पताल के आगे से गुजरता जवाहरलाल नेहरू मार्ग, उससे आगे का पार्क, फिर आसिफ अली रोड और फिर आसिफ अली रोड की शानदार बहुमंजिला इमारतें दिखाई दे रही थीं।
उसके साथियों को तब तक वहां पहुंच जाना चाहिए था लेकिन उनके न पहुंचा होने से उसे कोई शिकायत नहीं थी। इन्तजार का रिश्ता वक्त की बरबादी से होता था और वक्त की उन दिनों उसे कोई कमी नहीं थी। एक महीना पहले तक वह अमरीकी दूतावास में ड्राइवर था लेकिन अब उसकी वह नौकरी छूट चुकी थी। उसे नौकरी से निकाला जा चुका था। दूतावास से बीयर के डिब्बे चुराता वह रंगे हाथों पकड़ा गया था और उसे फौरन, खड़े पैर, डिसमिस कर दिया गया था।
निहायत मामूली, वक्ती लालच में पड़कर वह अपनी लगी लगाई नौकरी से हाथ धो बैठा था।
वह एक लगभग अट्ठाइस साल का, बलिष्ठ शरीर वाला, मुश्किल से मैट्रिक पास युवक था। उसके नयन-नक्श बड़े स्थूल थे और सिर के बाल घने और घुंघराले थे। दूतावास की ड्राइवर की नौकरी में तनखाह और ओवरटाइम मिलाकर उसे हर मास हजार रुपये से ऊपर मिलते थे; जिससे उसका और उसकी बीवी कोमल का गुजारा बाखूबी चल जाता था। ऊपर से शानदार वर्दी मिलती थी और कई ड्यूटी-फ्री चीजों की खरीद की सुविधा भी उसे उपलब्ध थी। उसकी अक्ल ही मारी गई थी जो उसने बीयर के चार डिब्बों जैसी हकीर चीज का लालच किया था।
बहरहाल अब वह बेरोजगार था। देर सबेर ड्राइवर की नौकरी तो उसे मिल ही जाती लेकिन दूतावास की नौकरी जैसी ठाठ की नौकरी मिलने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था।
अपने जिन दो दोस्तों का वह इन्तजार कर रहा था, आज की तारीख में वे भी उसी की तरह बेकार थे और उनके सहयोग से वह एक ऐसी हरकत को अन्जाम देने के ख्वाब देख रहा था; जिसकी कामयाबी उन्हें मालामाल कर सकती थी और रुपये-पैसे की हाय-हाय से उन्हें हमेशा के लिए निजात दिलवा सकती थी।
इस सिलसिले में अपने दोस्तों के खयालात वह पहले ही भांप चुका था। उसे पूरा विश्वास था कि वे उसका साथ देने से इनकार नहीं करने वाले थे।
आज वह उन्हें समझाने वाला था कि असल में उन लोगों ने क्या करना था और जो कुछ उन्होंने करना था, उसमें कितना माल था और कितना जोखिम था।
तभी उसके दोनों साथियों ने रेस्टोरेन्ट में कदम रखा।
वे दोनों उससे उम्र में छोटे थे और उसी की तरह बेरोजगार थे। फर्क सिर्फ इतना था कि वह नौकरी से निकाल दिया जाने की वजह से बेरोजगार था और उन दोनों को कभी कोई पक्की, पायेदार नौकरी हासिल हुई ही नहीं थी।
उनमें से एक का नाम राजन था।
राजन लगभग छब्बीस साल का निहायत खूबसूरत नौजवान था। बचपन से ही उसे खुशफहमी थी कि वह फिल्म स्टार बन सकता था, इसलिए उसने किसी काम धन्धे के काबिल खुद को बनाने की कभी कोई कोशिश ही नहीं की थी। बीस साल की उम्र में वह अपने बाप का काफी नावां-पत्ता हथियाकर घर से भाग गया था और फिल्म स्टार बनने के लालच में मुम्बई पहुंच गया था। पूरे दो साल उसने मुम्बई में लगातार धक्के खाए थे लेकिन वह फिल्म स्टार तो क्या, एक्स्ट्रा भी नहीं बन सका था। फिर जेब का माल पानी जब मुकम्मल खत्म हो गया था तो उसे अपना घर ही वह इकलौती जगह दिखाई दी थी जहां कि उसे पनाह हासिल हो सकती थी।
पिटा-सा मुंह लेकर वह दिल्ली वापिस लौट आया था।