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वारिस (थ्रिलर)


Chapter 1
कोकोनट ग्रोव गणपतिपुले के समुद्रतट पर स्थित एक हॉलीडे रिजॉर्ट था जिसे कि उस प्रकार के कारोबार के स्थापित मानकों के लिहाज से मामूली ही कहा जा सकता था लेकिन क्योंकि वो मुम्बई से कोई पौने चार सौ किलोमीटर दूर एक कदरन शान्त, छोटे लेकिन ऐतिहासिक महत्व के इलाके में था और आसपास वैसा हॉलीडे रिजॉर्ट या रत्नागिरि में था या फिर जयगढ में था । इसलिये उसके मौजूदा मुकाम पर मामूली होते हुए भी उसकी अहमियत थी । वो हॉलीडे रिजॉर्ट ऐन समुद्रतट पर अर्धवृत्त में बने कॉटेजों का एक समूह था जहां आसपास मौजूद शिवाजी महाराज के वक्त के बने कई किलों को देखने वाले सैलानी तो आते ही थे, मुम्बई की अतिव्यस्त और तेज रफ्तार जिन्दगी से उकताये और उससे निजात पाने के ततन्नाई लोग भी आते थे जिसकी वजह से वो डेढ दर्जन कॉटेजों वाला हॉलीडे रिजॉर्ट अमूमन फुल रहता था । उसके सड़क की ओर वाले रुख पर एक वैकेन्सी/नो वैकेन्सी वाला निओन साइन बोर्ड लगा हुआ था जिसका अमूमन ‘नो वैकेन्सी’ वाला हिस्सा ही रोशन दिखाई देता था ।

उस रिजॉर्ट के मालिक का नाम बालाजी देवसरे था जिसकी पचपन साला जिन्दगी की हालिया केस हिस्ट्री ऐसी थी कि उसके सालीसिटर्स की राय में मुम्बई से इतनी दूर वैसी जगह पर उसे तनहा नहीं छोड़ा जा सकता था क्योंकि वो अपनी इकलौती बेटी सुनन्दा की दुर्घटनावश हुई मौत के बाद से दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुका था । सालीसिटर्स की फर्म का नाम आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स था, जिसके ‘एण्ड एसोसियेट्स’ वाले हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाला युवा, ट्रेनी, वकीलों में से एक मुकेश माथुर था जिसको फर्म के सीनियर पार्टनर नकुल बिहारी आनन्द उर्फ बड़े आनन्द साहब की हिदायत थी - हिदायत क्या थी, नादिरशाही हुक्म था - कि वो उनके आत्मघाती प्रवृति वाले क्लायन्ट को कभी अकेला न छोड़े और इस हिदायत पर मुकम्मल अमल के लिये उसका भी क्लायन्ट के साथ हॉलीडे रिजॉर्ट में रहना जरूरी था ।

आम हालात में मुकेश माथुर उसे कोई बुरी पेशकश न मानता जिसमें कि नौकरी की कम और तफरीह की ज्यादा गुंजाइश थी लेकिन हालात उसके लिये आम इसलिये नहीं थे क्योंकि छ: महीने पहले उसने मोहिनी माथुर उर्फ टीना टर्नर नाम की एक परीचेहरा हसीना से शादी की थी जो कि कभी ब्रांडो की बुलबुलों में से एक थी और जिससे उसकी मुलाकात अपनी पिछली असाइनमेंट के दौरान गोवा में पणजी से पचास किलोमीर्टर दूर स्थित फिगारो आइलैंड पर हुई थी जहां कि बुलबुल ब्रांडो नामक धनकुबेर का आलीशान मैंशन था और जहां कि सालाना रीयूनियन ग्रैंड पार्टी के सिलसिले में उसकी कई बुलबलें इकट्ठी हुई थीं और जिस पार्टी का समापन दो बुलबुलों के कत्ल से हुआ था । अब उसकी बीवी पांच मास से गर्भवती थी और मुम्बई में उसकी मां के हवाले थी । मुकेश माथुर का खयाल था कि ऐसे वक्त पर उसे मुम्बई में अपनी बीवी के करीब होना चाहिए था - या बीवी को भी वहां उसके साथ होना चाहिये था - लेकिन उसके हिटलर बॉस बड़े आनन्द साहब के हुक्म के तहत दोनों ही बातें नामुमकिन थीं लिहाजा नवविवाहिता बीवी के वियोग का सताया भावी पिता युवा एडवोकेट मुकेश माथुर उस शान्त रिजॉर्ट और खूबसूरत समुद्रतट का वो आनन्द नहीं उठा पा रहा था जो कि हालात आम होते तो वो यकीशनन उठाता ।\

मुकेश माथुर के पिता भी एडवोकेट थे और अपनी जिन्दगी में आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स से ही सम्बद्ध थे । वस्तुत: साढे तीन साल पहले उनकी मौत के बाद उन्हीं की जगह उसे दी गयी थी जबकि, बकौल बड़े आनन्द साहब, अपने पिता के मुकाबले में वो अभी एक चौथाई वकील भी नहीं बन पाया था, अभी वकीलों की उस महान फर्म में उसका ट्रैक रिकार्ड बस ‘ऐवरेज’ था ।

विनोद पाटिल वो शख्स था जो तीन जुलाई की शाम को वहां पहुंचा था और उसने आकर उस शान्त हॉलीडे रिजॉर्ट के ठहरे पानी में जैसे पत्थर फेंका था । वो कोई तीस साल का लम्बा ऊंचा, गोरा चिट्टा युवक था जो कि डेनिम की एक घिसी हुई जींस और काले रंग की चैक की कमीज पहने वहां पहुंचा था । सुनन्दा की जिन्दगी में वो उसका पति था - यानी कि रिजॉर्ट के मालिक बालाजी देवसरे का दामाद था - और वो ही सुनन्दा की असामयिक मौत की वजह बना था । मुम्बई में एक कार एक्सीडेंट को उसने यूं अंजाम दिया था कि एक्सीडेंट में खुद उसको तो मामूली खरोंचें ही आयी थीं जो कि चार दिन में ठीक हो गयी थीं लेकिन सुनन्दा की जिसमें ठौर मौत हो गयी थी । अपनी इकलौती बेटी की मौत ने बालाजी देवसरे को ऐसा झकझोरा था कि दो बार वो आत्महत्या की नाकाम कोशिश कर चुका था और अभी तीसरी बार फिर कर सकता था इसलिये अब मुकेश माथुर उसका बड़े आनन्द साहब की इस सख्त हिदायत के साथ जोड़ीदार बना हुआ था कि देवसरे आत्महत्या की कोई नयी कोशिश हरगिज न करने पाये ।
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विनोद पाटिल ने कुछ क्षण अपलक कोकोनट ग्रोव हॉलीडे रिजॉर्ट का मुआयना किया जहां कि तब पहली बार उसके पांव पड़ रहे थे और पिर उस कॉटेज की ओर बढा जिसमें रिजॉर्ट का ऑफिस था और रिजॉर्ट के मैनेजर माधव घिमिरे का आवास था ।

घिमिरे उस वक्त कम्प्यूटर पर रिर्जार्ट के एकाउन्ट्स चैक कर रहा था जबकि पाटिल ने शीशे का दरवाजा ठेल कर भीतर कदम रखा । घिमिरे ने कम्प्यूटर स्क्रीन पर से निगाह हटाई, अपने रीडिंग ग्लासिज उतार कर की-बोर्ड के करीब रखे और फिर प्रश्नसूचक नेत्रों से आगन्तुक की तरफ देखा ।

“विनोद पाटिल ।” - वो बोला - “मुम्बई से रिजर्वेशन के लिये ई-मेल भेजी थी । कूरियर से दो हजार रुपया एडवांस भी भेजा था ।”

“जी हां, जी हां ।” - तत्काल घिमिरे व्यवसायसुलभ तत्पर स्वर में बोला - “सात नम्बर कॉटेज आपके लिये रिजर्व है । पहले देखना चाहेंगे ।”

“क्या जरूरत है ?” - पाटिल लापरवाही से बोला - “ठीक ही होगा ।”

“ठीक ही है । ये एक्सक्लूसिव रिजॉर्ट है इसलिये....”


“आई अन्डरस्टैण्ड । बालाजी देवसरे मालिक हैं न इसके ?”

“जी हां ।”

“सुना है वो भी यहीं रहते हैं ।”

“ठीक सुना है ।”

“इस वक्त हैं यहां ?”

“मेरे खयाल से हैं । दिन में फिशिंग के लिये गये थे लेकिन शायद लौट आये हुए हैं ।”

“हूं ।”

घिमिरे ने उसके सामने रजिस्ट्रेशन कार्ड रखा ।

पाटिल ने कार्ड पर अपना नाम और मुम्बई का एक पता दर्ज कर दिया ।

घिमिरे ने की-बोर्ड पर से एक चाबी उतारी और बोला - “आइये ।”

पाटिल उसके साथ हो लिया ।

कॉटेज एक ब्लाक में चार चार की सूरत में बने हुए थे । हर कॉटेज की उसके पहलू में या पिछवाड़े में अपनी कार पार्किंग भी और सामने लॉन से पार एक बाजू में जनरल पार्किंग भी थी । दूसरे बाजू में सत्कार नामक एक रेस्टोरेंट था ।

पाटिल ने अर्धवृत्त में बने तमाम कॉटेजों पर निगाह डाली और फिर बोला - “प्रोप्राइटर साहब का कॉटेज कौन सा है ?”

घिमिरे ने एक कॉटेज की ओर संकेत किया ।

पाटिल ने नोट किया कि उसमें प्रवेश द्वार दो थे ।

“दो दरवाजे किस लिये ?” - उसने सवाल किया ।

“दरअसल वो आपस में जुड़े दो कॉटेज हैं ।” - घिमिरे बोला - “भीतर दोनों के बीच में भी एक दरवाजा है जिसे खोल दिया जाये तो दोनों को एक कॉटेज की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है । कोई बड़ा परिवार या बड़ा ग्रुप आ जाये तो यूं उन्हें सहूलियत होती है ।”

“आई सी । तो आजकल दो कॉटेज एक की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं ! बड़ी फैमिली तो है नहीं उनकी -फैमिली ही नहीं है - जरूर कोई खास मेहमान आ गये होंगे !”

“ऐसी कोई बात नहीं ।”

“तो ?”

“एक कॉटेज में मिस्टर मिकेश माथुर हैं ।”

“वो कौन हए ?”

“मिस्टर देवसरे के एडवोकेट हैं ।

“पक्के यहीं रहते हैं ?”

“पक्के तो नहीं रहते लेकिन आजकल ऐसा ही है ।”

“वजह ?”

घिमिरे ने वजह बयान करने की कोशिश न की ।

“दोनों दरवाजों में से मिस्टर देवसरे का दरवाजा कौन सा है ?”

“दायां ।” - घिमिरे बोला - “लेकिन बायें से भी दाखिल हुआ जा सकता है ।”

“क्योंकि दोनों के बीच में कम्यूनीकेशन डोर है ?”

“हां ।”

“जो कि खुला रहता है ?”

“अमूमन ।”
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“वजह ?”

“मिस्टर पाटिल, आप इस बाबत कुछ ज्यादा ही सवाल कर रहे हैं !”

“ऐसी कोई बात नहीं ।” - पाटिल लापरवाही से बोला - “आपको ऐसा लगता है तो... तो लीजिये, मैं खामोश हो जाता हूं ।”

देवसरे के कॉटेज के जालीदार दरवाजे के पीछे से मुकेश माथुर वो तमाम नजारा कर रहा था अलबत्ता उस घड़ी उसे मालूम नहीं था कि बाहर मैनेजर के साथ मौजूद शख्स देवसरे का दामाद विनोद पाटिल था । देवसरे उस वक्त उसके पीछे ड्राइंगरूम में मौजूद था । उसका उस रोज का फिशिंग का साथी मेहर करनानी भी वहां मौजूद था । दोनों उस घड़ी जिन एण्ड टॉनिक का आनन्द ले रहे थे ।

देवसरे अपनी उम्र के लिहाज से एक तन्दुरुस्त शख्स था जिसे प्रत्यक्षतः कोई अलामत, कोई बीमारी नहीं थी । वो जिस्मानी तौर से नहीं, जेहनी तौर से बीमार था इसलिये उस पर वो पाबन्दियां लागू नहीं होती थीं जो कि किसी जिस्मानी तौर पर बीमार शख्स पर होना लाजमी होता था । लिहाजा वो शाम की चाय की जगह जिन एण्ड टॉनिक भी एनजाय कर सकता था ।

देवसरे एक कामयाब व्यवसायी था और अपनी व्यवसायिक प्रवृत्ति की वजह की वजह से ही मिजाज का कठोर, बेगरज, बेएतबार और कदरन बेरहम था । उसकी जिन्दगी की कभी कोई कमजोर कड़ी थी तो वो उसकी बिन मां की बेटी सुनन्दा थी जिसकी मां बन के उसने परवरिश की थी । लेकिन फिर भी पता नहीं कहां कसर रह गयी थी कि जब वो मुम्बई में एलफिंसटन कॉलेज में पढती थी तो विनोद पाटिल नामक एक नाकाम थियेटर एक्टर से दिल लगा बैठी थी और वो दिल की लगी उसकी मर्जी के खिलाफ कोर्ट मैरेज की वजह बनी थी । देवसरे वो झटका किसी तरह झेल ही चुका था जबकि उसे अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा झटका लगा ।

सुनन्दा एक रोड एक्सीडेंट में - जो कि सरासर उसके नामुराद खाविंद का लापरवाही से हुआ था - जान से हाथ धो बैठी ।

वो ही एक झटका था जो देवसरे बर्दाश्त न कर सका, जिसने उसके मुकम्मल वजूद को तिनका तिनका करके बिखरा दिया । तब उसे फौरन नर्सिंग होम में भरती न कराया गया होता तो शायद वो दीवारों से सिर टकरा टकरा के मर जाता । नार्सिंग होम में वो एक मनोचिकित्सक की देखरेख में रखा गया कुछ दिनों बाद जिसने उसकी हालत में सुधार की बड़ी तसल्लीबखश रिपोर्ट दाखिलदफ्तर की ।

जल्दी ही उस तसल्लीबख्श रिपोर्ट का खोखलापन उजागार हो गया ।

देवसरे ने अपने नर्सिंग होम के आठवीं मंजिल के कमरे की बालकनी से बाहर कूद जाने की कोशिश की ।

ऐन वक्त पर नर्स वहां न पहुंच गयी और उसने बला की फुर्ती दिखाते हुए पीछे से उसकी कमीज न जकड़ ली होती तो देवसरे अपनी जन्नतनशीन बेटी के रुबरु उसका हालचाल पूछ रहा होता ।

फौरन उसे ग्राउन्ड फ्लोर के एक कमरे में शिफ्ट किया गया जहां तीन दिन वो ठीक रहा फिर एक रात नर्सिंग स्टेशन से सिडेटिव की गोलियों से तीन चौथाई भरी एक शीशी चुराने में और तमाम गोलियां निगल जाने में कामयाब हो गया । तब भी किसी तरीके से उसकी वो हरकत नाइट डयूटी पर तैनात हाउस सर्जन की जानकारी में आ गयी और तत्काल स्टोमक पम्प से उसका पेट खाली करके उसे बचा लिया गया ।

उस दूसरी वारदात के बाद नर्सिग होम वालों ने हाथ खड़े कर दिये तो उसे उसे मानसिक विकारों के स्पैशलिटी हस्पताल ट्रॉमा सेन्टर में शिफ्ट किया गया जहां की दो महीने की मेडिकल और साईकियाट्रिक देखभाल के बाद वो नार्मल हुआ । तब डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि वो किसी ऐसे कारोबार में मन लगाये जो कि आमदनी का जरिया हो न हो, मसरुफियत और मनबहलाव का जरिया बराबर हो ।

नतीजतन वो उस हॉलीडे रिजॉर्ट में पहुंच गया जो कि उसकी बेटी की मौत से पहले से उसकी मिल्कियत था । डॉक्टरों ने भले ही उसकी ‘कम्पलीट रिकवरी’ को सर्टिफाई कर दिया था लेकिन उसके सालीसिटर्स और वैलविशर्स आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेटस को फिर भी अन्देशा था कि अभी वो फिर आत्महत्या की कोशिश कर सकता था । वो ऐसी कोशिश न कर पाये, इसी बात को सुनिश्चित करने के लिये मुकेश माथुर को उसके साथ अटैच किया गया था क्योंकि, बकौल, बड़े आनन्द साहब, उसकी वकालत अभी बहुत कमजोर थी लेकिन एक उम्रदराज शख्स की निगाहबीनी करने का काम तो वह कर ही सकता था या वो भी नहीं कर सकता था ।

गोली लगे कम्बख्त को - मुकेश माथुर दांत पीसता सोचता रहा था - जो वकालत और चौकीदारी में कोई फर्क ही नहीं समझना चाहता था, जिसको इस बात भी लिहाज नहीं हुआ था कि उसकी शादी हुए सिर्फ छः महीने हुए थे और उसकी बीवी और चार महीनों पहला बच्चा जनने वाली थी ।

बहरहाल उस रिजॉर्ट ने, वहां के खूबसूरत बीच ने और आसपास उपलब्ध मनोनंजन के साधनों ने देवसरे पर अपना अच्छा असर दिखाया था; वो टेनिस खेलने में, फिशिंग में और नजदीकी ब्लैक पर्ल में काडर्स खेलने या रौलेट व्हील पर दांव लगाने में मशगूल रहता था और साफ जाहिर होता था कि अपनी बेटी के साथ हुई ट्रेजेडी को वो धीरे धीरे भूलता जा रहा था । इसका ये भी सबूत था कि अब वो माथुर के हमेशा ‘अपनी पूंछ से बन्धे रहने’ से एतराज करने लगा था और ऐसी किसी तवज्जो को गैरजरूरी बाताने लगा था । और तो और वो लोगों के सामने मुकेश माथुर को ‘मेल नर्स’ या ‘शरीकेहयात’ कह कर हलकान करने लगा था । जवाब में अभी कल ही मुकेश माथुर ने बड़ी संजीदगी से उसे समझाया था कि उसकी सोहबत को दरकिनार करने का अख्तियार उसे नहीं था, अगर वो उससे इतना ही बेजार था तो उस बाबत बड़े आनन्द साहब से बात करनी चाहिये थी जो कि उसके दोस्त और मोहसिन थे और माथुर के बॉस थे । उसने ये तक कहा था कि अगर देवसरे उसे वाहियात, नाकाबिलेबर्दाश्त असाइनमेंट से निजात दिला पाता तो वो जाती तौर पर उसका अहसानमन्द होता । जवाब में अगली सुबह ही देवसरे ने नकुल बिहारी आनन्द से बात करने की पेशकश की थी लेकिन पता नहीं कि उसने ऐसा किया था या नहीं ।

बहरहाल अब खुद वो भी अपनी रिपोर्ट पेश कर सकता था कि देवसरे अब बिल्कुल ठीक था और उसे किसी कि मुतवातर निगाहबीनी की जरुरत नहीं थी ।

उस रमणीय बीच रिजॉर्ट से जल्दी निजात पाने की एक वजह और भी थी ।

उस वजह का नाम रिंकी शर्मा था ।
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रिंकी शर्मा कोई तेईस चौबीस साल की भूरी आंखों और सुनहरी बालों वाली खूबसूरत लड़की थी और ‘सत्कार’ की मैनेजर थी ।

वो एक खुशमिजाज लड़की थी जो पहले ही दिन से मुकेश से खास मुतासिर दिखाई देने लगी थी । देवसरे की निगाहबीनी की एकरसतापूर्ण और बोर डयूटी में उसे भी उसमें बहुत रस आने लगा था जो कि गलत था, नाजायज था क्योंकि रिंकी को जब पता चलता कि वो शादीशुदा था और बहुत जल्द एक बच्चे का बाप बनने वाला था तो माहौल तल्ख और बदमजा हुए बिना न रहता । लिहाजा अनायास किसी सम्मोहन में जकड़े जाने से पहले उसका वहां से कूच कर जाना ही श्रेयस्कर था ।

“आया !”

देवसरे की तीखी आवाज चाबुक की फटकार की तरह उसके जेहन से टकराई ।

तब तक उसकी निगाह का मरकज, मैनेजर के साथ चलता युवक, सात नम्बर कॉटेज में हो आया था और अब देवसरे के कॉटेज की ओर बढ़ रहा था ।

मुकेश माथुर घूमा, उसने होंठों को जबरन फैलाकर मुस्कराते होने का भ्रम पैदा किया और प्रश्नसूचक नेत्रों से देवसरे की तरफ देखा ।

“सिन्धी भाई की मर्जी है” - देवसरे अपना खाली गिलास उसे दिखाता हुआ बोला - “कि एक एक जिन और टॉनिक और हो जाये ?”

मुकेश ने करनानी की तरफ देखा ।

“इफ यू डोंट माइन्ड ।” - करनानी दान्त निकालता बोला ।

साला ! छाज तो बोले ही बोले, छलनी भी बोले ।

रिजॉर्ट में देवसरे के साथ उसकी आमद से अगले रोज ही मेहर करनानी वहां पहुंच गया था और लगभग फौरन ही उसकी देवसरे से गाढी छनने लगी थी । मुकेश उसके बारे में बस इतना ही जान पाया था कि वो पुलिस के खुफिया विभाग से मैडीकल ग्राउन्ड्स पर वक्त से पहले अवकाश प्राप्त शख्स था और अब - बकौल उसके - किसी माकूल कारोबार की तलाश में था ।

माकूल कारोबार की तलाश वहां उस रिजॉर्ट में ! मछली मारते ! टेनिस खेलते ! पत्ते पीटते ! ड्रिंक करते !

उम्र में वो कोई चालीस साल का था, उसकी निगाह पैनी थी और जिस्म कसरती था । ऐसा शख्स अपने आपको मैडीकल ग्राउन्ड्स पर पुलिस से रिटायर हुआ बताता था । क्या मैडीकल ग्राउन्ड्स मुमकिन थीं ! हट्टा कट्टा तो था । पट्टा रोज दो घण्टे टेनिस खेलता था, स्विमिंग करता था, छ: ड्रिंक्स से कम में उसकी दाढ नहीं गीली होती थी और तन्दूरी मुर्गा यूं चबाता था जैसे मूंगफली खा रहा हो ।

“नो” - वो बोला - “आई डोंट माइन्ड ।”

“थैंक्यू ।” - करनानी बोला ।

मुकेश ने दोनों के खाली गिलास सम्भाले और उन्हें जिन एण्ड टॉनिक के नये जामों से नवाजा ।

तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।

“कम इन ।” - देवसरे बोला ।

आगन्तुक ने भीतर कदम रखा तो उस पर निगाह पड़ते ही देवसरे के नेत्र फैले ।

“पाटिल !” - वो हैरानी से बोला ।

“हल्लो !” - पाटिल वहां मौजूद तीनों सूरतों पर निगाह फिराता बोला - “गुड ईवनिंग ।”

“यहां कैसे पहुंच गये ?” - देवसरे पूर्ववत हैरानी से बोला ।

“बस, पहुंच गया किसी तरह ।”

“वजह ?”

“आपसे मिलने के अलावा और क्या हो सकती है ?”

“कैसे जाना कि मैं यहां हूं ?”

“बस, जाना किसी तरह से ।”

“कैसे ?”

“मुम्बई में आपके सालीसिटर्स के ऑफिस से खबर निकाली ।”

“इस जहमत की वजह ?”

“वो तो न होगी जो ऐसे मामलों में अमूमन समझी जाती है ।”

“मतलब ?”

“आपकी मुहब्बत नहीं खींच लायी ।”

“वो तो जाहिर है । असल वजह बयान करो आमद की ।”
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“असल वजह की मद में मेरे पास आपके लिये अच्छी खबर भी है और बुरी खबर भी है । पहले कौन सी सुनेंगे ?”

“ओह, कैन दि थियेट्रिकल्स । ये स्टेज नहीं है । न ही मैं किसी नाकाम एक्टर की नाकाम परफारमेंस देखने का तमन्नाई हूं । सो कम टु दि प्वायन्ट ।”

“ओके । अच्छी खबर ये है कि मैं अभी भी आपका दामाद हूं ।”

“हं हं !” - देवसरे के स्वर में तिरस्कार का स्पष्ट पुट था ।

“ये हकीकत है कि....”

“खुशफहमी मत पालो, बरखुरदार । मैंने तो तुम्हें तब अपना दामाद नहीं माना जब मेरी बेटी जिन्दा थी, अब तो....”

“आपके मानने या न मानने से क्या होता है ?”

“होता है ।”

“चलिये ऐसे ही सही । फिर तो बुरी खबर वाकेई बुरी है आपके लिये ।”

“अब कह भी चुको ।”

“बुरी खबर ये है कि मैं यहां रोकड़ा कलैक्ट करने आया हूं ।”

“रोकड़ा ! कैसा रोकड़ा ?”

“वो रोकड़ा जो इस रिजॉर्ट में मेरे हिस्से का दर्जा रखता है ।”

“तुम्हारा हिस्सा ? माथा फिरेला है ?”

“अभी नहीं । आप एक अहम बात भूल रहे हैं कि आपने अपनी बिटिया रानी को यहां के बिजनेस के एक चौथाई हिस्से का वारिस बनाया था ?”

“तो ? उससे तुम्हें क्या मतलब ?”

“अपनी मौत से पहले सुनन्दा ने एक वसीयत ती थी जिसमें उसने मुझे, अपने पति को, अपना इकलौता वारिस करार दिया था । उस वसीयत के तहत आपके इस रिजॉर्ट में उसके मुकर्रर पच्चीस फीसदी हिस्से का हकदार अब मैं हूं । अब आप रिजॉर्ट की मौजूदा कीमत के एक चौथाई हिस्से के बराबर की रकम मुझे दे सकते हैं या एक चौथाई रिजॉर्ट मुझे सौंप सकते हैं ।”

देवसरे एकाएक बेहद खामोश हो गया । अपने हाथ में थमा नया जाम उसने धीरे से सामने मेज पर रख दिया । उसने कुछ क्षण अपलक पाटिल को घूरा लेकिन उसे विचलित होता न पाया तो वो बोला - “कब की उसने ये वसीयत ?”

“एक्सीडेंट से दस दिन पहले ।”

“मुझे यकीन नहीं ।”

“रजिस्टर्ड विल है ।”

“मुझे यकीन नहीं ।”

“मुझे आपसे ऐसी ही ढिठाई की उम्मीद थी इसलिये यकीन दिलाने का सामान मैं साथ ले आया हूं । ये” - उसने जेब से एक तयशुदा कागज निकाल कर देवसरे के सामने टेबल पर डाला - “वसीयत की जेरोक्स कापी है । मुलाहजा फरमाइये ।”

देवसरे ने मेज पर से कागज उठाने का उपक्रम न किया । उसने मुकेश को इशारा किया ।
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