Thriller वारिस (थ्रिलर)

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Masoom
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एक कोने में कैप्सूल के खोल पडे थे । वो तीन खोल थे जिनमें से दो सफेद थे और एक लाल था । वैसे लाल सफेद कैप्सूल उस नींद की दवा के थे जिसे कि वो देवसरे के कभीकभार के इस्तेमाल के लिये अपने कब्जे में रखता था, लेकिन फिर उसनें महसूस किया कि वो साइज में कदरन छोटे थे ।
उसने एक लाल और एक सफेद खोल उठा कर उन्हें एक दूसरे से जोड़ा तो तसदीक हो गयी कि वो देवसरे वाले कैप्सूलों से छोटा था ।
एक सफेद खोल अभी और बाकी था जिसका लाल वाला हिस्सा उसे कहीं न मिला । जरूर वो किसी के जूते के तले के साथ चिपक कर वहां से चला गया था ।
बहरहाल ये अब सुनिश्चित था कि दो कैप्सूल वहां खोले गये थे, उनके भीतर की दवा निकाली गयी थी और खाली खोलों को चुपचाप मेज के नीचे फेंक दिया गया था ।
वो उठ कर सीधा हुआ, उसने जेब से निकाल कर एक बीस का नोट टेबल पर रखा, उसके ऊपर टार्च रखी, बूथ से बाहर निकाला और कैसीनो में पहुंचा ।
कैसीनो में तब पहले जैसी भीड़ नहीं थी लेकिन वो खाली भी नहीं था । ताश के रसिया वहां से रुख्सत हो चुके थे लेकिन रॉलेट टेबल के गिर्द अभी भी चन्द लोग मौजूद थे जिनमें से कुछ दांव लगाने वाले थे तो कुछ दर्शक थे । वहां क्रूपियर के पहलू में आरलोटो भी मौजूद था जो कि उसे देख कर मुस्कराया ।
उस मुस्कराहट से ही मुकेश को अहसास हो गया कि रिजॉर्ट में हुए वाकये की उसे खबर नहीं थी, बाहर बैठे उसके बॉस ने भी उसे कत्ल की बाबत कुछ नहीं बताया था ।
“कैसा चल रहा है ?” - मुकेश ने निरर्थक सा प्रश्न किया ।
“बढिया ।” - उसने, प्रत्याशित, जवाब दिया ।
“तुम्हारा बॉस यहां नहीं आता ?”
“आता है । क्यों नहीं आता ? आखिर बॉस है । मालिक है ।”
“आज आया था ?”
“हां ।”
“कब ?”
“कोई पौने ग्यारह बजे ।”
“तब मिस्टर देवसरे अभी यहीं थे या जा चुके थे ?”
“जा चुके थे । बॉस इधर पौने ग्यारह बजे आया था । मेरे को पक्की तब मिस्टर देवसरे इधर नहीं थे ।”
“टाइम कैसे याद रहा ? पिछली बार तो तुम अपने आपको इतना बिजी बता रहे थे कि टाइम को वाच करके नहीं रख सके थे ?”
“मिस्टर देवसरे के इधर से जाने के टेम को वाच करके नहीं रख सका था । बॉस के इधर आने का टेम मेरे को और वजह से याद है । वो क्या है कि साढे दस बजे इधर एक भीड़ू आया था । मैं बोले तो ही वाज लोडिड विद मनी । साथ में एक फिल्म स्टार का माफिक पटाखा बाई था जिसको इम्प्रैस करने का वास्ते बहुत रोकड़ा चमका रहा था । इधर पहुंचते ही पूरा ट्रे भर के लार्ज वैल्यूज का टोकन लिया और रॉलेट पर बड़े बड़े दांव लगाने लगा । पहले तो वो काफी रोकड़ा लूज किया पण एकाएक वो जीतने लगा, उसका चूज किया हर नम्बर लगने लगा ।”
“जजमेंट की बात है ।”
“व्हील की तरफ तो ठीक से देखता नहीं था, ऐसीच कोई सा नम्बर लगा देता था ।”
“फिर तो इत्तफाक की बात है ।”
“इधर लिमिट का गेम होता है । जब वो जितने लगा तो लिमिट से ऊपर दांव लगाने की जिद करने लगा । मैं बोला लिमिट का गेम था, नहीं होना सकता । वो नशे में गलाटा करने लगा । तभी बॉस इधर आया । बॉस उस भीड़ के इधर पहुंचने के पन्द्रह मिनट बाद आया था इस वास्ते मैं सेफली बोला कि वो पौने ग्यारह बजे इधर आया था ।”
“आई सी ।”
“तब तक वो नब्बे हजार रुपये जीत चुका था । बॉस को जब ये पता चला था तो उसके होश उड़ गये थे ।”
“मुझे तुम्हारे कैसीनो के दस्तूर मालूम नहीं । किसी का नब्बे हजार रुपया जीत जाना होश उड़ाने वाली बात होती है ?”
“ऐसा पन्द्रह मिनट में हो जाये तो होती है । ऊपर से उसका विनिंग फेज अभी चल रहा था । और ऊपर से वो लिमिट से ऊंचे दांव लगाना चहता था ।”
“आखिरकार क्या हुआ ?”
“नो लिमिट गेम को बॉस भी नक्की बोला । न बोलता तो क्या पता वो अकेला आदमी ही आज कैसीनो लूट के ले जाता ।”
“आखिरकार क्या हुआ था ?”
“वो नाराज हो गया था, उसने अपने टोकन कैश कराये थे और कैसीनो को कोसता इधर से नक्की कर गया था ।”
“महाडिक को नब्बे हजार की चोट देकर ।”
“ये तो मामूली चोट थी । पिछले हफ्ते दिनेश पारेख आया था तो वो बैंकरप्ट ही कर गया था ।”
“अच्छा ! वो कितना जीता था ?”
“ग्यारह लाख ।”
“क्या ! लिमिट के गेम में इतनी बड़ी जीत की गुंजायश होती है ?”
“नहीं होती लेकिन वो स्पेशल गैस्ट थे । उसने जब नो लिमिट गेम की मांग की थी तो उसको रिस्पैक्ट देने के लिये बॉस को उसकी मांग कबूल करनी पड़ी थी ।”
“तुम कहते हो गैस्ट की नब्बे हजार की जीत ने बॉस के होश उड़ा दिये थे, ग्यारह लाख गये तो कुछ न हुआ ?”
“बॉस से ही पूछ लो ।”
“क्या मतलब ?”
“ही जस्ट गाट इन ।”
मुकेश ने घूम कर देखा तो महाडिक को अपनी तरफ बढते पाया ।
महाडिक करीब पहुंचा, उसने नेत्र सिकोड़ कर मुकेश को देखा और फिर बोला - “क्या बात है ? नींद नहीं आयी ?”
“कार लेने आया था ।” - मुकेश लापरवाही से बोला - “थोड़ी देर को भीतर चला आया ।”
“कार ?”
“मिस्टर देवसरे की ।”
“वो यहां थी ?”
“हां । वो क्या है कि मीनू उन्हें उनकी कार पर रिजॉर्ट में छोड़ कर आयी थी और कार यहां वापिस ले आयी थी ताकि वो मेरे काम आ पाती लेकिन पार्किंग की भीड़ में मुझे पता नहीं लगा था कि कार जा के वापिस लौट आयी थी । अब पता लगा तो मुझे कार का लावारिस यहां खड़ा रहना मुनासिब न लगा इसलिये लेने आ गया ?”
“बस, यही वजह है तुम्हारे वापिस लौटने की ?”
“और क्या वजह होगी ?”
“तुम बताओ । सवाल मैंने पूछा है ।”
“और कोई वजह नहीं ।”
“हूं ।”
“अब एक सवाल मैं पूछूं ?”
“पूछो ।”
“दिनेश पारेख कौन है ?”
“कौन है क्या मतलब ?”
“क्या करता है ? तुम उसे कैसे जानते हो ?”
“वही करता है जो मैं करता हूं । मेरा हमपेशा है इसलिये जानता हूं ।”
“हमपेशा ? वो भी ऐसी ही क्लब चलाता है ?”
“हां । लेकिन बड़े स्केल पर । बड़ी जगह पर । उसका कैसीनो यहां से चार गुणा बड़ा है अलबत्ता बार यहां जितना ही बड़ा है । उसके गोवा में भी दो कैसीनो हैं । ही इज ए बिग आपरेटर ।”
“हू नाओ वांट्स टु बिकम बिगर आपरेटर ।”
“क्या बोला ?”
“वो ये जगह खरीदने का तमन्नाई था जो जाहिर है कि जितने कैसीनो उसके पास हैं उनमें एक का इजाफा हो जायेगा । नहीं ?”
महाडिक तिलमिलाया ।
“पारेख से पूछना ।” - वो उखड़े स्वर में बोला ।
फिर उसने जानबूझ कर मुकेश की तरफ से पीठ फेर ली ।
***
मुकेश की नींद खुली ।
उसकी घड़ी पर निगाह पड़ी तो उसके छक्के छूट गये ।
साढे दस बज चुके थे ।
वो झपट कर बिस्तर में से निकला और कॉटेज के दूसरे हिस्से में पहुंचा जहां कि टेलीफोन था । उसने टेलीफोन पर नकुल बिहारी आनन्द के लिये अर्जेन्ट पी.पी. कॉल बुक कराई और लौट कर बाथरूम में दाखिल हुआ ।
बीस मिनट में वो शिट शेव शावर से निवृत हुआ । फिर उसने ‘सत्कार’ में फोन करके ब्रेकफास्ट मंगाया ।
वो चाय का आखिरी घूंट पी रहा था जब ट्रककॉल लगी ।
“मैं माथुर बोल रहा हूं ।” - अपने बॉस की सैक्रेट्री को लाइन पर पाकर वो बोला - “प्लीज पुट मी टु बिग बॉस ।”
“मिस्टर माथुर, आपकी तो ग्यारह बजे कॉल आनी थी । इस वक्त तो सवा ग्यराह बजने को हैं ।”
“मैं जिस फोन से बोल रहा हूं, उसमें एस.टी.डी. की सुविधा नहीं है । कॉल बुक करानी पड़ी जो कि अभी लगी ।”
“आपको किसी एस.टी.डी. वाले फोन पर जा के खुद कॉल लगानी चाहिये थी ।”
“हनी, ये वो बातें हैं जो तुम्हारे बॉस को कहनी शोभा देती हैं, तुम अपना काम करो ।”
“डोंट यू हनी मी ।”
“अरी चुड़ैल, बात करा ।”
“क... क्या ! क्या कहा ?”
“मैंने कुछ नहीं कहा । कोई बीच में बोला ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“हो रहा है । गौर से सुनो, मुझे भी कोई शैतान कहता लग रहा है ।”
“क्रॉस टॉक हो रही है ?”
“हां । नाओ डोंट गैट क्रॉस विद मी एण्ड लेट मी टाक टु दि बॉस ।”
“होल्ड आन ।”
“थैंक्यू ।”
फिर उसके कान में नकुल बिहारी आनन्द की आवाज पड़ी ।
“माथुर ?”
“गुड मार्निंग, सर ।”
“मैं ग्यारह बजे से तुम्हारी कॉल का इन्तजार कर रहा हूं ।”
“सर, कॉल शोलापुर से होकर आ रही है न इसलिये लेट हो गयी ।”
“क्या ?”
“सर, ट्रंक आपरेटर कहती थी कि इस रूट की तमाम ट्रंक लाइन्स डाउन हैं इसलिये आल्टरनेट रूट वाया शोलापुर बनाना पड़ा था और इसलिये आवाज आप तक पहुंचने में देर हो गयी ।”
“आई डोंट अन्डरस्टैण्ड...”
“इस उम्र में ऐसा हो जाता है, सर ।”
“किस उम्र में ? कैसा हो जाता है ?”
“समझदानी सिकुड़ जाती है इसलिये कोई बात समझ में न आना आम हो जाता है ।”
“माथुर ! ये तुम्हीं बोल रहे हो न ?”
“मैं तो सर गुड मार्निंग कहने के बाद से चुप हूं और इन्तजार कर रहा हूं गुड मार्निंग कुबूल होने का ।”
“तुम्हारा मतलब है फिर क्रॉस टाक हो रही है ?”
“ऐसा ही जान पड़ता है, सर । लाइन वाया शोलापुर लगी है इसलिये इस बात की और भी ज्यादा गुंजायश है ।”
“यू नैवर माइन्ड दैट एण्ड लैट्स कम टु दि प्वायान्ट ।”
“यस, सर ।”
“मैंने एक्सप्रैस के लेट सिटी एडीशन में पढा है कि मिस्टर देवसरे का मर्डर हो गया है ।”
“ठीक पढा है, सर ।”
“लेकिन मर्डर ! सुसाइड नहीं, मर्डर !”
“उनका दांव नहीं लगा, सर, पहले ही कोई अपना काम कर गया ।”
“मैंने पढा है कि उन्हें शूट किया गया है ?”
“जी हां ।”
“किसने किया ?”
“अभी पता नहीं चल सका ।”
“यानी कि मडर्रर पकड़ा नहीं गया ?”
“अभी नहीं, सर ।”
“ऐसा क्योंकर हो पाया ? जब तुम मिस्टर देवसरे के साथ थे तो...”
“कत्ल के वक्त मैं उनके साथ नहीं था ।”
“क्यों ? क्यों साथ नहीं थे ? उधर काम क्या था तुम्हारा ?”
“गोली और मकतूल के बीच खड़ा होना ।”
“क्या ?”
“सर, अगर मैं उनके साथ नहीं था तो उसमें वजह मैं नहीं, वो खुद थे । वो मुझे धोखा देकर खिसक गये, जैसा कि उन्हें नहीं करना चाहिये था ।”
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“क्यों किया उन्होंने ऐसा ?”
“शरारतन किया । मसखरी मारी । बचपना दिखाया । बेवजह मेरी पोजीशन खराब की । मेरे शर्मिन्दा होने का सामान किया ।”
“माथुर, अपना रोना रोना बन्द करो ।”
“यस, सर ।”
“और कुबूल करो कि एक निहायत मामूली काम को तुम ठीक से अंजाम न दे सके । तुम हमारे क्लायन्ट के साथ होते...”
“तो मैं भी मरा पड़ा होता । तो पुलिस ने एक ही जगह दो लाशें बरामद की होतीं ।”
“यू आर एब्सोल्यूटली रांग । तो मडर्रर की गोली चलाने की मजाल न हुई होती ।”
“क्यों न हुई होती ? मेरे पास तोप थी अपनी और क्लायान्ट की हिफाजत के लिये ?”
“तोप ? तोप की क्या स्टोरी है ? वहां गन के साथ साथ तोप भी चली थी ?”
“नो, सर ।”
“तो तोप का जिक्र क्यों किया ?”
“मैंने कहा था कि होती तो चलती ।”
“एण्ड अनदर थिंग । अखबार में फर्म का नाम फिर गलत छपा है । पिछली बार गोवा वाले केस में भी ऐसा ही हुआ था । आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स में से एक आनन्द ड्रॉप कर दिया गया था ।”
“जरूर इस बार दो आनन्द ड्राप कर दिये होंगे ।”
“नहीं । इस बार एक आनन्द ऐड कर दिया गया है, फालतू लगा दिया गया है, फर्म के नाम को आनन्द आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स बना दिया गया है ।”
“सर, ये तो खुशी की बात है कि आनन्द ही आनन्द हो गया है ।”
“नो । दैट इज ए ग्रेव मिस्टेक । अखबार में फर्म का नाम छपे तो करैक्ट छपना चाहिये ।”
“अरे कमीने ! एक आदमी जान से चला गया और तेरे को फर्म के नाम की पड़ी है ।”
“माथुर, ये मुझे क्या सुनायी दे रहा है ?”
“सर, क्रॉस टाक हो रही है ।”
“फिर ?”
“फिर ।”
“ऐज बिफोर ?”
“ऐज बिफोर ।”
“ओह माई गॉड, इस क्रॉस टाक से कैसे पीछा छूटेगा ?”
“सर, जो बात पीछा न छोड़े उसे नजअन्दाज करना चाहिये । कोई बीच में बोलता है तो बोलने दीजिये । आप उसकी तरफ ध्यान मत दीजिये । वो भी तो ध्यान नहीं दे रहा ।”
“क्या मतलब ?”
“उसे भी तो क्रॉस टाक सता रही होगी, वो तो शिकायत नहीं कर रहा ।”
“मे बी यू आर राइट । लेकिन माथुर, वाट इज दिस, तीन मिनट की ट्रंककॉल में इतना वक्त तो फिजूल की बातों में जाया हो गया ।”
“सर, मुझे मालूम था कि ऐसा होगा इसलिये मैंने पहले ही कॉल छ: मिनट की बुक कराई है ।”
“माथुर, यू आर वेस्टिंग मनी ।”
साले, तेरे बाप ने पैसा देना है ? कॉल मैंने बुक कराई है और फोन देवसरे का है ।
“माथुर ?”
“यस, सर ।”
“ऐसा क्यों होता है कि जहां भी मैं तुम्हें भेजता हूं वहां मर्डर हो जाता है ।”
“इत्तफाक से होता है, सर । मर्डर वहां भी तो होते हैं जहां आप मुझे नहीं भेजते ।”
“और मर्डर भी किस का ? खुद हमारे क्लायन्ट का । पहले फिगारो आइलैंड पर मिसेज नाडकर्णी का हुआ, अब मिस्टर देवसरे का हो गया । ऐसे तो आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स का ऊंचा नाम....”
“इतना ऊंचा उठ जाये कि सातवें आसमान पर पहुंच जाये, सारे के सारे आनन्द जा के भगवान की गोद में बैठ जायें ।”
“क्या बोला ? जरा ऊंचा बोलो, भई, मुझे सुनाई नहीं दे रहा है ।”
“सर, कान में सुरमा डालने से ये शिकायत दूर हो जाती है ।”
“सुरमा ! कान में ! सुरमा तो आंख में डाला जाता है ।”
“आजकल कौन डालता है आंख में सुरमा ! आपने देखा कभी किसी को आंख में सुरमा डालते ?”
“नहीं ।”
“सो देयर यू आर ।”
“वेयर आई एम ?”
“इन दि एग्जीक्यूटिव ऑफिस ऑफ आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स, सर ।”
“माथुर, यू आर वेस्टिंग टाइम ।”
“आई कैन नाट डेयर, सर । टाइम इज मनी । पर्टिकुलरली आन ए ट्रंककॉल ।”
“दैन लिसन टु मी ।”
“यस, सर । शूट ।”
“शूट ! शूट हूम ?”
“सर, दैट्स ए फिगर आफ स्पीच । आई मीन, प्लीज स्पीक, आई एम लिसनिंग विद फुल अटेंशन ।”
“बीईंग जूनियर मोस्ट पार्टनर, दैट्स एक्सपैक्टिड आफ यू ।”
“यस, सर ।”
“अभी सुबह मुझे पसारी ने बताया है कि कुछ दिन पहले हमारे क्लायन्ट ने उससे अपनी वसीयत तैयार करवई थी जिसमें उसने अपनी आधी सम्पति का वारिस तुम्हें बनाया है । माथुर, ऐसा क्योंकर हुआ ? क्योंकर तुम उसे इसके लिये तैयार कर पाये ?”
“सर, मैंने कुछ नहीं किया ।”
“फर्म के किसी क्लायन्ट को उसकी वसीयत मे अपना नाम जोड़ने के लिये - वो भी इतना प्रामीनेंटली - उकसाना ग्रेव प्रोफेशनल मिसकंडकट है...”
अबे सुन तो सही, मेरे बाप ।
“....विच इज अनपार्डनेबल इन दि फर्म आफ आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स ।”
“सर, मुझे तो उस वसीयत की खबर तक नहीं थी । कल रात को इधर के इनवैस्टिगेटिंग आफिसर ने मिस्टर पसारी के घर पर फोन लगाया था तो वसीयत की और उसके प्रोविजंस की बात उजागर हुई थी ।”
“दैट इज वाट यू से ।”
“आफकोर्स दैट इज वाट आई से । आपको अपने सबार्डीनेट की बात पर एतबार लाना चाहिये ।”
आगे से आवाज न आयी ।
“मिस्टर देवसरे मेरे से बेजार थे, उन्होंने तो मुझे वापिस बुला लिये जाने तक की बात की थी । ऐसा आदमी क्यों भला मुझे अपनी वसीयत में बैनीफिशियरी बनायेगा ? और वो भी थोड़ी बहुत नहीं, आधी जायदाद का !”
“तुम बताओ, क्यों बनायेगा ?”
“कोई वजह नहीं ।”
“फिर भी उसने ऐसा किया ।”
“हैरानी है । पता नहीं मेरे में उसे क्या भा गया जो...”
“कुछ नहीं भा गया । भा जाने लायक क्या है तुम्हारे में ?”
“सर...”
“कौन मानेगा कि उसने अपनी मर्जी से ऐसा किया । इस बात को जो भी सुनेगा, यही नतीजा निकालेगा कि किसी फ्रॉड के तहत उससे ऐसा कराया गया था ।”
“लेकिन सर...”
“अभी और सुनो । कल उसने पसारी को फोन करके बोला था कि वो अपनी वसीयत तब्दील करना चाहता था । तुम हर वक्त उसके साथ रहते थे इसलिये जरूर तुम्हें उसकी उस कॉल की खबर होगी ।”
“मुझे नहीं थी ।”
“नहीं थी तो ये भी तुम्हारे लिये डिस्क्रेडिट है ।”
“इस मामले में मैं फांसी पर टांग दिये जाने के काबिल शख्स हूं, आप आगे बढिये ।”
“कहां अगे बढूं ? मैं क्या मार्निंग वाक पर निकला हुआ हूं ?”
“ओफ्फोह ! अपनी बात कहिये ।”
“बात थ्योरिटिकल है ।”
गोली लगे कम्बख्त को । कुर्सी पर बैठा बैठा मर जाये । अगली सांस न आये ।
“आप कहिये तो सही ।”
“थ्योरी ये है कि जब तुम्हे्ं पता चला कि हमारा क्लायन्ट अपनी वसीयत तब्दील करने जा रहा था तो उसके ऐसा कर पाने से पहले ही तुम्हीं ने उसका काम तमाम कर दिया ताकि उसकी जायदाद का आधा हिस्सा तुम्हारे हाथों से न निकल जाता ।”
हे भगवान ! ये मेरा एम्पलायर है या शैतान ! मेरा वैलविशर है या दुश्मन !
“आपको मेरे से ये उम्मीद है ?”
“माथुर, मैंने पहले ही बोला है कि बात थ्योरिटिकल है । मैंने अपनी सोच बयान नहीं की है, मैंने तुम्हें ये बताया है कि लोग क्या सोचेंगे ।”
“भाड़ में जायें लोग और आप भी उनके साथ ही चले जाइये ।”
“क्या ? क्या कहा ?”
“मैंने कुछ नहीं कहा, सर । शायद फिर कोई बीच में कुछ बोला ।”
“फिर क्रास टाक ? “
“यस, सर ।”
“कुछ साफ भी तो नहीं सुनाई देता कभी कभी ।”
“मेरे इधर भी ऐसा ही है, सर । जो कमीना बीच में बोल रहा है, वो लगता है कि जानबूझ कर साफ नहीं बोलता ।”
“मुझे तो कुछ और ही शक हो रहा है ।”
“मुझे भी हो रहा है लकिन उस बाबत ट्रंककॉल पर बात करना मुनासिब नहीं होगा ।”
“मे बी यू आर राइट ।”
“मिस्टर देवसरे ने बताया था कि वो वसीयत में क्या तब्दीली करना चाहते थे ?”
“नहीं ।”
“तो फिर आपको कैसे मालूम है कि उनका मुझे वसीयत से बेदख्ल करने का इरादा था ।”
“और क्या इरादा होगा ?”
“और इरादा मेरा हिस्सा बढाने का हो सकता था, हिस्सा अभी आधा है, उसे पौना या पूरा ही करने का हो सकता था ।”
“माथुर, यू आर टाकिंग नानसेंस ।”
“सर, मैं....”
“एण्ड यू आर अज्यूमिंग फैक्ट्स नाट इन एवीडेंस ।”
“मेरी ऐसी हिम्मत कहां ? मेरे मे ऐसी काबलियत कहां ?”
“काबलियत वाली तुम्हारी बात से मैं सहमत हूं । मुझे खुशी है कि तुमने अपने आपको इतना करैक्टली असैस किया है ।”
“मुझे आपकी खुशी से खुशी है । अब बताइये मेरे लिये क्या हुक्म है ?”
“तुम्हारे लिये हुक्म ? “
“जिस शख्स की निगाहबीनी के लिये मुझे तैनात किया था वो दुनिया छोड़ गया । लिहाजा आप इजाजत दें तो मैं वापिस लौट आऊं ?”
“यू विल डु नो सच थिंग ।”
“सर, अब यहां मेरी मौजूदगी बेमानी है । ऊपर से मेरी बीवी प्रेग्नेंट है....”
“तुम्हें बाप बनने की इतनी जल्दी नहीं होनी चाहिये थी ।”
सत्यानाश हो तेरा । आज ही पाकिस्तान से वार छिड़ जाये और पहला बम तेरे ऑफिस में फूटे ।
“तुम अभी वहीं रहोगे और मालूम करने की कोशिश करोगे कि हमारे क्लायन्ट का कत्ल अगर तुमने नहीं किया तो किसने किया ?”
“मैं ! मैं करूंगा ?”
“वहां मीडिया के लोग भी जरूर पहुंचेगा । ताकीद रहे कि तुम प्रेस को कोई बयान दोगे तो ये बात तुम सुनिश्चित करोगे कि अखबारों में फर्म का नाम ठीक छपे । नो आनन्द शुड बी डिलीटिड । नो आनन्द शुड भी ऐडिड ।”
“सर, आप फिक्र न करें, मैं प्रेस को बहुत ठीक से समझा दूंगा कि निरोध की तरह आनन्द भी तीन तीन की पैकिंग में आते हैं ।”
“क्या, माथुर, तुम ये क्या....”
“युअर सिक्स मिनट्स आर अप, सर ।” - बीच में आपरेटर की आवाज आयी ।
“ओके । माथुर, फालो इंस्ट्रक्शंस एण्ड रिपोर्ट रेगुलरली । दैट्स एन आर्डर ।”
“यस, सर ।”
“नाओ गैट ऑफ दि लाइन । आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स की कोई लाइन सुबह सवेरे ही इतनी देर बिजी....”
लाइन कट गयी ।
मुकेश ने टेलीफोन क्रेडल पर पटका और कॉटेज से बाहर निकला । उसने कम्पाउन्ड में कदम डाला और उधर बढा जिधर देवसरे की एस्टीम खड़ी थी ।
“मिस्टर माथुर ?”
वो ठिठका, उसने घूमकर आवाज की दिशा में देखा तो पाया उसे मिसेज वाडिया पुकार रही थी ।
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मिसेज वाडिया कोई साठ साल की पारसी महिला थी जो कि पिछले दो हफ्ते से उस रिजॉर्ट में थी । उसका तकरीबन टाइम बीच पर आराम फरमाते, नावल पढते या आसपास तांकझांक करते गुजरता था । ऐसा कभी नहीं हुआ था कि कोई खिड़की खुली हो तो वो भीतर न झांके, कोई गुफ्तगू हो रही हो तो वो सुनने की कोशिश न करे, किसी से कोई मिलने आया हो तो उसकी बाबत जानने की कोशिश न करे ।
“यस, मैडम ।” - वो बोला ।
“फार वन मिनट इधर आना सकता ?”
“आता है, मैडम ।”
वो उसके कॉटेज की तरफ बढा । वो करीब पहुंचा तो मिसेज वाडिया घूम कर भीतर कॉटेज में दाखिल हो गयी । मजबूरन उसे भी कॉटेज के भीतर जाना पड़ा ।
“प्लीज सिट डाउन ।” - वो बोली ।
“थैंक्यू, मैडम ।”
मिसेज वाडिया ने बाईफोकल्स में से उसका मुआयना किया और फिर बोली - “ढीकरा, तुम मरने वाले के बहुत क्लोज था इसलिये मेरे को फीलिंग आया कि मेरे को तुमसे बात करना मांगता था ।”
“किस बारे में ?”
“पहले मेरे को मालूम नहीं था कि मिस्टर देवसरे मालिक था इस रिजॉर्ट का - मालूम होता तो मैं उससे डिस्काउन्ट के लिये बात करता - ये तो बिल्कुल ही नहीं मालूम था कि वो ब्लैक पर्ल क्लब का भी मालिक था ।”
“अब कैसे मालूम हुआ ?”
“सुनने को मिला । बहुत लोग बात करता था इधर । जब से मर्डर हुआ है, हर कोई उसी का बात ही तो करता है ।”
“आई सी ।”
“वैरी रोमांटिक, वैरी कलरफुल पर्सन, दिस मिस्टर देवसरे । नो ?”
“आई डोंट अन्डरस्टैंड, मैडम ।”
“कल रात को एक ढीकरी के साथ आया । स्मार्ट लिटल गर्ल । हाफ हिज एज । कोई बोला उधर ब्लैक पर्ल में सिंगर होना सकता । कैसे आजकल को छोकरी लोग अपना फादर का एज का पर्सन का साथ....”
“मैडम” - मुकेश तीखे स्वर में बोला - “आप बिल्कुल गलत समझ रही हैं । मिस्टर देवसरे ऐसे आदमी नहीं थे । अब जबकि वो इस दुनिया में नहीं हैं, उनके बारे में ऐसी बातें करना जुल्म है ।”
“मैं जो देखा वो बोला ।”
“नहीं, वो नहीं बोला । आपने देखे का जो मतलब निकाला वो बोला । इसलिये जो बोला वो गलत बोला, नाजायत बोला । वो लड़की - मीनू सावन्त - उन्हें सिर्फ क्लब से यहां पहुंचाने आयी थी । मिस्टर देवसरे बहुत कैरेक्टर वाले आदमी थे और आजकल भारी फिजीकल और मेंटल टेंशन के दौर से गुजर रहे थे । आप उनकी पर्सनल ट्रेजेडी से वाकिफ होती तो ऐसा हरगिज न कहतीं ।”
“हिज ओनली डाटर । एक्सीडेंट में गया । मेरे को मालूम ।”
“आपने यही बताने के लिये मुझे बुलाया ?”
“नहीं, ढीकरा । वो डिफ्रेंट बात है ।”
“वो क्या बात है ?”
“दिस मिस्टर घिमिरे । इधर का मैनेजर । नाइस मैन । मेरे को पसन्द । वैरी पोलाइट, वैरी हैल्पफुल, वैरी डीसेंट पर्सन । मैं इमेजिन नहीं कर सकता कि वो मर्डरर होगा पण क्या पता चलता है आज का सिनफुल वर्ल्ड में ?”
“मिस्टर घिमिरे की क्या खास बात है ?”
“बात तो है, ढीकरा, अब पता नहीं खास है या नहीं ।”
“कैसी भी क्या बात है ? कुछ कहिये तो सही ।”
“मैं कल रात उसको मिस्टर देवसरे के कॉटेज में जाता देखा । दैट इज विद माई ओन आइज ।”
मुकेश ने अवाक वृद्धा की तरफ देखा ।
“कब - देखा ?” - फिर उसने सस्पेंसभरे स्वर में पूछा - “क्या टाइम था उस वक्त ?”
“इलैवन ओ क्लाक से कोई फिफ्टीन मिनट्स पहले का टेम था ।”
“आपने मिस्टर घिमिरे को कॉटेज के दायें, मिस्टर देवसरे वाले विंग में दाखिल होते देखा था ?”
“नो । मैं इतना टांग झांग नहीं करना मांगता ।”
“तांक झांक ।”
“स्नूपिंग नहीं करना मांगता । स्नूपिंग इज ए बैड हैबिट, यू नो !”
मुझे तो मालूम है, अम्मा, लेकिन तुझे नहीं मालूम ।
“तो क्या देखा था ?”
“डोर की ओर बढते देखा था ।”
“लेकिन भीतर दाखिल होते नहीं देखा था ?”
“नो ।”
“आखिरकार दरवाजे के कितने करीब देखा था ।”
“ही वाज क्लोजर बाई थ्री स्टैप्स । आर फोर । मे बी फाईव । इससे ज्यास्ती नक्को ।”
“लेकिन भीतर जाते नहीं देखा था ?” - मुकेश ने फिर जिद की ।
“ढीकरा, इतनी नाइट में जब वो इधर जा रहा था तो और किस वास्ते जा रहा था ? और क्या था उधर ?”
“कहां से किया था आपने ये नजारा ?”
मिसेज वाडिया ने एक खिड़की की तरफ इशारा किया ।
मुकेश उस खिड़की पर पहुंचा । उसने नोट किया कि वो खिड़की ऐसी पोजीशन में थी कि उसमें से देवसरे के कॉटेज की राहदारी तो दिखाई देती थी लेकिन कॉटेज का प्रवेशद्वार नहीं दिखाई देता था । इसका मतलब था कि उस औरत ने तांक झांक में अपने तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी, घिमिरे को ऐन दरवाजे पर पहुंचते उसने नहीं देखा था तो इसलिये कि वो देख सकती ही नहीं थी ।
लेकिन एक बात उसकी सच थी ।
अगर घिमिरे कॉटेज में जाने का तमन्नाई नहीं था तो कॉटेज की राहदारी में भी क्यों था ?
“कोई मेरे को बोला” - मिसेज वाडिया कह रही थी - “कि तुम मिस्टर देवसरे का फ्रेंड ही नहीं एडवोकेट भी है । अब मैं तुमसे ये एडवाइस मांगता है कि मेरे को ये बात पुलिस को बोलना सकता या नहीं बोलना सकता ?”
“मैडम, इस बाबत मैं आपको कोई सलाह देने की पोजीशन में नहीं हूं क्योंकि मैं खुद मर्डर सस्पैक्ट हूं ।”
“इज दैट सो ?” - वो नेत्र फैलाती बोली ।
“सो यू लैट युअर कांशस बी युअर गाइड ।”
“इज दैट युअर कनसिडर्ड, एडवोकेट लाइक, ओपीनियन ?”
“यस, मैडम । मेरी राय में आप बिना कोई जल्दबाजी किये शान्ति से इस बात पर विचार कीजिये और फिर अपने विवेक से काम लीजिये ।”
“हूं ।”
“जब आप मिस्टर घिमिरे को नाइस मैन बोलती हैं तो....”
“ही श्योर इज ए नाइस मैन । उच्च दराज का....”
“जी !”
“आफ हाई इन्टैग्रिटी ।”
“ओह ! ऊंचे दर्जे का । जब ये मानती हैं तो, मैडम क्यों सोचती हैं कि मिस्टर घिमिरे कातिल होंगे ?”
“पण ढीकरा...”
“सोचिये । विचारिये । और फिर कोई फैसला कीजिये । ताकि बाद में आपको कोई गिला न हो कि आपने जो किया जल्दबाजी में किया । और अब मुझे इजाजत दीजिये ।”
मिसेज वाडिया का सिर मशीन की तरह सहमति में हिला ।
***
मुकेश थाने पहुंचा ।
इन्स्पेक्टर सदा अठवले वहां अपने ऑफिस में मौजूद था ।
“आओ, भई ।” - वो बोला - “सब लोग थाने में हाजिरी भर गये, एक तुम्हारी ही कसर रह गयी थी ।”
“मुझे ऐसा कोई हुक्म नहीं हुआ था ।” - मुकेश बोला ।
“हुक्म तो उन्हें भी नहीं हुआ था लेकिन पढे लिखें लोग हैं न, इसलिये हर कोई खुद ही अपने आपको पाक साफ साबित करना चाहता था ।”
“लिहाजा मैं इत्तफाक से यहां न आ गया होता तो ये मरे पर इलजाम होता कि एक मैंने ही ऐसी कोई कोशिश नहीं की थी ?”
“बैठो ।”
“शुक्रिया ।”
“चाय पियोगे ?”
“नहीं, शुक्रिया । मैं अभी हैवी ब्रेकफास्ट करके आया हूं ।”
“एक्सपेंस एकाउन्ट में ?”
मुकेश हंसा
“सारी रात मैं तुम्हारी बाबत सोचता रहा कि क्यों मकतूल ने तुम्हें अपना बैनीफिशियेरी बनाया ?”
“कुछ सूझा ?”
“नहीं सूझा । सिवाय उस बात के जिसे कि वो लड़का विनोद पाटिल भी हवा दे रहा था ।”
“कि मैंने मकतूल को ठग लिया ?”
“मैंने तुम्हारी फर्म की बाबत दरयाफ्त किया है । बहुत रुतबे और इखलाक वाली फर्म बतायी जाती है वो । इसलिये यकीन नहीं आता कि उसका कोई पार्टनर ऐसी हरकत कर सकता है ।”
“नहीं कर सकता । नहीं की ।”
“भई, शक करना मेरा काम है, मैं शक किये बिना नहीं रह सकता ।”
“शक से काम चलता है पुलिस का ?”
“मुकम्मल काम तो नहीं चलता लेकिन पहला कदम रखने की जगह तो मिलती है ।”
“ये भी ठीक है । तो अब आप मेरे पीछे पड़ेंगे ।”
“वो तो पहले ही पड़ा हुआ हूं लेकिन सिर्फ तुम्हारे नहीं । सबके ।”
“अभी तक कुछ हाथ लगा ?”
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Masoom
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“हासिल जानकारी में इजाफा तो हुआ है । मसलन विनोद पाटिल की बाबत पता लगा है कि वो एक नाकाम थियेटर एक्टर है फिल्म और टी.वी. के फील्ड में भी उसकी कोई दाल नहीं गली है इसलिये, दो टूक कहा जाये तो, कड़का है । पैसे का जरूरतमन्द वो किसी और वजह से भी हो सकता है जिसकी कि हमें अभी खबर नहीं है । बहरहाल मकतूल से चार पैसे झटकने की कोशिश ही उसे यहां लायी थी लेकिन कोशिश कामयाब नहीं हुई थी ।”
“हुई तो सही । अब वो रिजॉर्ट के एक चौथाई हिस्से का मालिक है ।”
“रोकड़ा हासिल करने की कोशिश की बात कर रहा था मैं ।”
“एक ही बात है । पट्ठा फल खाने आया था, पेड़ ही मिल गया ।”
“तुम्हें इस बात से हैरानी नहीं हुई कि वो सिन्धी भाई, मेहर करनानी एक प्राइवेट डिटेक्टिव निकला ?”
“बहुत हैरानी हुई, जनाब । मैंने तो हमेशा उसे मौज मारने आया सैलानी समझा था । उसने कभी भनक नहीं लगने दी थी किसी को कि वो यहां अपने धन्धे में लगा हुआ था ।”
“मुझे मालूम हुआ है कि रिजॉर्ट में मकतूल की करनानी से काफी गहरी छनती थी ।”
“था तो सही ऐसा ।”
“दोनों पहले से वाकिफ थे ?”
“नहीं । रिजॉर्ट की ही वाकफियत थी वो । मुझे नहीं लगता कि मिस्टर देवसरे ने यहां से पहले कभी उसकी सूरत भी देखी थी ।”
“हूं ।”
“अपनी गुमशुदा वारिस की कहानी पर उसने कोई और रोशनी डाली ?”
“कुछ उसने डाली है कुछ हमने भी बाजरिया मुम्बई पुलिस जानकारी निकाली है और बात कुछ कुछ पल्ले पड़ी है ।”
“क्या ?”
“मूलरूप से उसका क्लायन्ट आनन्द बोध पंडित नाम का एक रुतबे और रसूख वाला आदमी था । लेकिन अभी कोई तीन महीने पहले उसकी मौत हो गयी थी तो उसके वकीलों ने करनानी को निर्देश दिया था कि क्लायन्ट की मौत की रू में वो अपने काम से हाथ न खींचे और उसे बदस्तूर जारी रखे ।”
“काम क्या ? वारिस की तलाश ?”
“हां । जो कि आनन्द बोध पंडित की तनुप्रिया नाम की इकलौती बेटी है ।”
“जो कि गायब है ?”
“एक अरसे से । आनन्द बोध पंडित बीमार रहता था, उसका और कोई वारिस नहीं इसलिये उसे बड़ी शिद्दत से अपनी गुमशुदा बेटी की तलाश थी । इसलिये उसने करनानी के सामने दस लाख के बोनस का चारा लहराया था ताकि वो दिलोजान से इस काम को अंजाम देता और अपनी कोई कोशिश न उठा रखता ।”
“आई सी । और क्या तफ्तीश की अभी तक आपने ?”
“किसलिये जानना चाहते हो ?”
“मकतूल हमारा क्लायन्ट था, हमारी दिली ख्वाहिश है कि उसका कातिल जल्द-अज-जल्द पकड़ा जाये और अपने किये की सजा पाये इसलिये ।”
“तुम क्लब में दोबारा क्यों गये थे ? वो भी रात के दो बजे ।”
“पता चल गया ?”
“वाचमैन ने बताया । उसी ने बताया कि कल क्लब की पॉप सिंगर मीनू सावन्त ने मकतूल को क्लब से रिजॉर्ट में वापिस पहुंचाया था और फिर कार लाकर क्लब की पार्किंग में खड़ी कर दी थी ।”
“वाचमैन ने जब ये बताया तो ये नहीं बताया कि मैं कार ही वापिस लाने के लिये वहां पहुंचा था ।”
“बताया था । लेकिन इतनी रात गये ? कार का क्या क्लब की पिर्किंग में डाकू पड़ रहे थे ? जमा ऐसा भी तो नहीं कि तुम वहां गये और कार लेकर लौट आये । तुम तो भीतर भी गये थे और काफी देर भीतर ठहरे थे ।”
“काफी देर नहीं, थोड़ी सी देर । एक ड्रिंक की तलाश में मैं भीतर गया था लेकिन भीतर जा के मालूम हुआ था कि बार बन्द हो गया था ।”
“हूं ।”
“और कुछ बताइये ।”
“कत्ल के वक्त के आसपास विनोद पाटिल, रिंकी शर्मा और मेहर करनानी रिजॉर्ट के परिसर में थे । पाटिल के पास कत्ल का उद्देश्य है और तब उसे कत्ल करने का मौका भी हासिल था क्योंकि मकतूल अकेला था, क्योंकि तुम उसके साथ नहीं थे । करनानी के पास कत्ल का उद्देश्य नहीं दिखाई देता लेकिन मौका उसे बराबर हासिल था ।”
“कैसे भला ? रिंकी शर्मा उसके साथ थी ।”
“हर वक्त नहीं । जब वो अपने कॉटेज में स्विमिंग कास्ट्यूम पहनने गयी थी तब पांच छ: मिनट तक वो करनानी के साथ नहीं थी ।”
“कास्ट्यूम उसने भी तो पहना था ।”
“मर्द ऐसे कामों में औरतों जितना वक्त नहीं लगाते, करनानी के लिये वो बड़ी हद दो मिनट का काम था । बाकी बचे टाइम में वो मकतूल के कॉटेज में जाकर अपनी कारगुजारी को अंजाम दे सकता था ।”
“माधव घिमिरे के बारे में क्या कहते हो, बतौर मैनेजर वो तो तकरीबन हर वक्त ही रिजॉर्ट में होता है ?”
“घिमिरे के बारे में पहले एक बात तुम बताओ । कहते हैं वो मकतूल का बहुत वफादार था ?”
“था तो सही । तभी तो मकतूल ने उसे रिजॉर्ट का मैनेजर बनाया और मुनाफे में पच्चीस फीसदी के हिस्से से नवाजा ।”
“मकतूल रिजॉर्ट का गिरवी रख देता तो वो हिस्सा तो चला गया होता ।”
“मिस्टर देवसरे ने उसे आश्वासन दिया था कि वो किसी और तसल्लीबख्श तरीके से यूं होने वाले उसके नुकसान की भरपाई कर देंगे ।”
“घिमिरे ही तो कहता है ऐसा । फर्ज करो कि ये बात गढी हुई है, उसे असल में मकतूल का ऐसा कोई आश्वासन नहीं था, और फिर बोलो की उसके पास कत्ल का उद्देश्य हुआ या नहीं हुआ ?”
“फिर तो हुआ ।”
“अभी वो कहता है कि एकाउन्ट चौकस करने में लगा हुआ था । क्या पता वो एकाउन्ट चौकस कर रहा था या मैनीपुलेट कर रहा था ।”
“आपका इशारा गबन की तरफ है ?”
“भई, आर्थिक गड़बड़झालों को ही लीपापोती की जरूरत होती है ।”
“घिमिरे ऐसा आदमी नहीं ।”
“माथे पर किसी के नहीं लिखा होता कि वो कैसा आदमी है । बाज लोग वैसे होते नहीं तो बावक्तेजरूरत बन जाते हैं ।”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
उस घड़ी उसका दिल चाहा कि वो घिमिरे की बाबत मिसेज वाडिया से हासिल जानकारी इन्स्पेक्टर को कराये लेकिन फिर उसने फिलहाल खामोश रहना ही जरूरी समझा । उसके उस फैसले की बड़ी वजह यही थी कि उसका दिल गवाही नहीं दे रहा था कि घिमिरे कातिल था । इसी वजह से उसने मिसेज वाडिया को भी गोलमोल तरीके से ये राय दी थी कि वो फिलहाल उस बात का जिक्र पुलिस से करने से गुरेज करे ।
“अब इसी मूड में” - वो फिर बोला - “अनन्त महाडिक के बारे में भी कुछ कह डालिये ।”
“क्या कह डालूं ?”
“कल उसने इस बात से पुरजोर इन्कार किया था कि साढे ग्यारह बजे वो रिजॉर्ट के परिसर में था । मैं अपनी जाती हैसियत में गवाह हूं कि उसकी कार क्लब की पार्किंग में मौजूद नहीं थी । अब कहीं तो वो था । कहां था के जवाब में उसने बोल दिया था कि वो बात अहम नहीं थी । मेरी निगाह में आपका इमेज एक सख्त हाकिम का है । हैरानी है कि आपको उसका वो टालू जवाब कुबूल हो गया ।”
“नहीं कुबूल हो गया ? इस बाबत उससे दोबारा - सख्ती से - दरयाफ्त किया गया था ।”
“दैट्स गुड । तो क्या जवाब मिला था ?”
“वो कहता है कि ग्यारह बजे के बाद से वो मीनू सावन्त के साथ था । दोनों लांग ड्राइव का आनन्द लेने निकले हुए थे । मीनू सावन्त इस बात की तसदीक करती है ।”
“वो लड़की महाडिक से फुल फिट है, महाडिक उसे जो कहने को कहेगा वो कहेगी ।”
“मुझे पूरा पूरा अहसास है इस बात का । जमा वो एलीबाई दोतरफा काम करने वाली है । जब वो कहती है कि कत्ल के वक्त के आसपास महाडिक उसके साथ था तो ये कहने की जरूरत नहीं रहती कि तब वो कहां थी । उसकी एलीबाई की बिना पर अगर मैं महाडिक को बेगुनाह मानूंगा तो उसे तो बेगुनाह मुझे मानना ही पड़ेगा ।”
“ठीक ।”
“पिछली रात की महाडिक की आवाजाही सबसे ज्यादा है । अपनी क्लब में ही वो कभी था, कभी नहीं था, कभी था, कभी फिर नहीं था । अपने इतने बिजी शिड्यूल में वो माशूक के साथ ड्राइव के लिये भी निकला हुआ था । मेरा साबसे ज्यादा एफर्ट इसी आदमी को चैक करने में सर्फ हो रहा है ।”
“आई सी । इन्स्पेक्टर साहब, आपने अभी ‘कत्ल के वक्त’ का हवाला दिया । कत्ल के वक्त से क्या मुराद है आपकी ?”
“क्या मतलब ?”
“कल आपने सोच जाहिर की थी कि कत्ल ग्यारह और साढे ग्यारह के बीच में हुआ था । जबकि आपके मैडीकल एग्जामिनर ने वक्त का कहीं बड़ा वक्फा - सवा दस से पौने बारह के बीच का - मुकरर्र किया था । क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपने कत्ल के वक्त को इतना क्लोज कैसे पिनप्वायन्ट किया है ?”
“मामूली बात है । मकातूल के टी.वी. पर खबरें देखने के शिड्यूल की बाबत रिजॉर्ट में हर कोई जानता है । कत्ल से पहले मकतूल टी.वी. पर खबरें देख रहा था और जिस वक्त वो ऐसा कर रहा था, वो वक्त ग्यारह बजे की खबरों का था । मकतूल ग्यारह बजे की खबरें देख रहा था तो इसका मतलब है कि टी.वी. पर खबरें लगाने के लिये ग्यारह बजे वो जिन्दा था । खबरें साढे ग्यारह तक आती हैं अगर वो तब तक भी जिन्दा होता तो खबरें खत्म हो जाने के बाद उसने टी.वी. बन्द कर दिया होता । टी.वी. बन्द नहीं था, इसका मतलब है कि वो उन खबरों प्रसारण के दौरान मरा यानी कि ग्यारह और साढे ग्यारह बजे के बीच मरा ।”
“वैरी गुड । ग्रेट डिडक्टिव रीजनिंग । सर, यू आर नो लैस दैन शरलाक होम्ज ।”
वो हंसा ।
“अब मेरे लिये क्या हुक्म है ?”
“कोई हुक्म नहीं । सिवाय इसके कि कहीं खिसक न जाना । और किसी खास बात की भनक लगे तो खबर करना ।”
“जरूर ।”
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ब्लैक पर्ल क्लब के पिछवाड़े में एक प्रीफैब्रिकेटिड, दोमंजिली इमारत थी जिसकी निचली मंजिल पर एक गोदाम, एक गैरज और जनरेटर हाउस और ऊपरली मंजिल पर छ: रिहायशी कमरे थे । इमारत के एक पहलू से पहली मंजिल तक पहुंचती खुली सीढियां थीं जो कि रिहायशी कमरों के सामने के लम्बे गलियारे में जाकर खत्म होती थीं ।
उस गलियारे के सिरे पर क्लब की पॉप सिंगर मीनू सावन्त का कमरा था ।
मुकेश ने कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी तो कोई जवाब न मिला । उसने उसका हैंडल घुमा कर भीतर को धक्का दिया तो पाया कि दरवाजा खुला था ।
“मीनू !” - उसने आवाज लगायी ।
कोई जवाब न मिला ।
हिचकिचाता हुआ वो भीतर दाखिल हुआ । उसने अपने पीछे दरवाजा भिड़काया और एक सरसरी निगाह कमरे में दौड़ाई ।
कमरे में बेतरतीबी का बोलबाला था जो कि पता नहीं वहां रहने वाली की लापरवाही जताता था या उसकी हद से ज्यादा मसरूफियत की तरफ इशारा था । दरवाजा खुला होने का मतलब था कि वो आसपास ही कहीं थी । कमरे की पिछली दीवार में दो बन्द दरवाजे थे । उसने आगे बढ कर एक को खोला तो पाया कि वो बाथरूम था । दूसरा दरवाजा एक छोटी सी किचन का था लेकिन वहां किचन में इस्तेमाल होने वाला कतई कोई साजोसमान नहीं था । वहां गोदरेज की एक अलमारी की मौजूदगी खासतौर से ये जाहिर कर रही थी कि किचन उन दिनों स्टोर की तरह इस्तेमाल होती थी । उसने अलमारी का हैंडल घुमाया तो उसमें ताला लगा पाया । किचन के ग्रेनाइट के प्लेटफार्म के नीचे दराजों वाली कैबिनेट लगी हुई थी जो कि तकरीबन खाली थीं । केवल एक दराज में कुछ दवाईयां और कुछ श्रृंगार प्रसाधन पड़े थे । उसने दवाईयों का मुआयना किया और फिर दोरंगे कैप्सूलों से आधी भरी एक शीशी वहां से उठाई । शीशी पर लगे लेबल पर लिखा था: स्लीपिंग कैप्सूल्स, टु बी यूज्ड अंडर मेडिकल एडवाइस ।
उसने शीशी खोल कर कुछ कैप्सूल अपनी हथेली पर पलटे । कैप्सूल लाल और सफेद रंग के थे औ ऐन उसी साइज के थे जैसे के खोल उस क्लब के बूथ में पड़े मिले थे ।
“ये क्या हो रहा है ?”
उसने चौंक कर गर्दन उठाई ।
चौखट पर मीनू खड़ी थी ।
उसके चेहरे पर गहन अप्रसन्नता के भाव थे और वो अपलक मुकेश को देख रही थी ।
मुकेश हैरान था कि कैसे वो प्रेत की तरह उसके सिर पर आन खड़ी हुई थी, पता नहीं कब उसने बाहर का दरवाजा खोला था और कब वहां पहुंची थी । उसे तो न दरवाजा खुलने की आवाज आयी थी और न उसके कदमों की आहट मिली थी ।
मुकेश उस शाक से उबरा और फिर बोला - “ये नींद के कैप्सूल तुम खाती हो ?”
“ये मेरे सवाल का जवाब नहीं ।”
उसने कैप्सूल वापिस शीशी में डाले, उसका ढक्कन बन्द किया ।
“रास्ते से हटो ।” - वो बोला - “जवाब भी मिलता है ।”
“यूं चोरों की तरह यहां...”
“चोरी की इतना अन्देशा हो तो दरवाजा लाक्ड रखना चाहिये ।”
“मैं थोड़ी देर के लिये नीचे गयी थी...”
“थोड़ी देर में भी कुछ का कुछ हो जाता है ।”
“मिस्टर माथुर, दायें बायें की बातें करके तुम मेरे सवाल को टाल नहीं सकते ।”
“कौन टालना चाहता है ! जवाब देने के लिये ही दरख्वास्त की है कि मुझे इस चूहेदान के दमघोटू माहौल से बाहर निकलने दो ।”
वो एक तरफ हटी ।
मुकेश ने बाहर में कदम रखा । बहार बैड के सामने एक कुर्सी पड़ी थी जिस पर जाकर वो बैठ गया ।
“बैठो ।” - वो बोला ।
“लेकिन...”
“बैठो, तुम्हें कुछ दिखाना है....”
“क्या ?”
“....उसी में तुम्हारे सवाल का भी जवाब है इसलिये बैठो ।”
बड़े अनिश्चित भाव से वो आगे बढी और उसके सामने पलंग पर बैठ गयी ।
मुकेश ने बड़े नाटकीय अन्दाज से बैड को गुलाबी चादर पर उसके करीब कैप्सूलों के तीन खोल रखे और उनकी बगल में कैप्सूलों की शीशी रखी ।
“जवाब मिला ?” - वो बोला ।
मीनू खामोश रही, एकाएक वो बेचैन दिखाई देने लगी ।
“ये खोल मुझे क्लब के उस बूथ में टेबल के नीचे पड़े मिले थे जिसमें कल रात मैं, मिस्टर देवसरे और तुम बैठे थे ऐसे ही कैप्सूल इस शीशी में मौजूद हैं जो कि तुम इस्तेमाल करती हो । जो जवाब तुम्हें चाहिये वो यही है जो कि दो में दो जोड़ने जैसा आसान है ।”
वो फिर भी खामोश रही ।
मुकेश अपलक उसे घूरता रहा ।
“ये कोई दुर्लभ कैप्सूल नहीं हैं ।” - आखिरकार वो हिम्मत करके बोली ।
“कुबूल । लेकिन इनके भीतर की दवा मेरे ड्रिंक में मिलाने का मौका हर किसी को हासिल नहीं था । वेटर ने ये काम किया होता तो वो पहले ही मेरे ड्रिंक में ये दवा मिला कर लाया होता । उस सूरत में कैप्सूलों के खोल बूथ की मेज के नीचे न पड़े होते । मिस्टर देवसरे नींद के ऐसे जो कैप्सूल इस्तेमाल करते हैं वो साइज में इनसे बड़े हैं । जमा उन्हें ऐसी कोई हरकत करने की कोई जरूरत नहीं थी । बाकी या तुम बचती हो या तुम्हारा बॉस महाडिक ।”
“महाडिक !”
“जो ड्रिंक मेरे बूथ में लौटने से पहले मौजूद था उसकी बाबत तुमने कहा था कि वो कर्टसी महाडिक आन दि हाउस था । इसलिये महाडिक । लेकिन मेरा एतबार तुम्हीं पर है ।”
“खामाखाह !”
“ये शीशी तुम्हारी है ।”
“कौन कहता है ?”
“ये तुम्हारे कमरे में से बरामद हुई है ।”
“इसलिये मेरी हो गयी !”
“क्यों नहीं ?”
“तुम्हारी जानकारी के लिये क्लब की मेरे से पहले वाली पॉप सिंगर भी यहीं रहती थी और यहां कई चीजें ऐसी हैं जो कि वो पीछे छोड़ गयी है । मैंने कभी तवज्जो नहीं दी कि वो क्या क्या पीछे छोड़ गयी हुई है ।”
“तुम कहना चाहती हो कि ये शीशी उसकी है ।”
“जब मेरी नहीं है तो उसकी होगी ।”
“बात अच्छी गढ ली तुमने हाथ के हाथ ।”
“तुम पागल हो । मुझे ऐसी कोई बात गढने की क्या जरूरत है ?”
“जरूरत तो बराबर है । जिस किसी ने भी मेरे ड्रिंक में बेहोशी की दवा मिलाई वो या खुद कातिल था या कातिल का सहयोगी था । मैं हर वक्त साये की तरह मिस्टर देवसरे के साथ रहता था इसलिये कातिल जानता था कि मुझे मिस्टर देवसरे से जुदा किये बिना वो मिस्टर देवसरे के कत्ल के अपने नापाक इरादे में कामयाब नहीं हो सकता था । मौजूदा हालात में पुलिस या तुम्हें कातिल समझेगी या तुम्हें मजबूर करेगी बताने के लिये कि तुमने किसके कहने पर मेरे ड्रिंक में बेहोशी की दवा मिलाई ।”
“मिस्टर, ये कहानी तुमने इसलिये गढी है क्योंकि तुम अपराधबोध से ग्रस्त हो ।”
“क्या ?”
“यू आर सफरिंग फ्रॉम गिल्टी कांशस । तुम इस बात से शर्मिन्दा हो कि कल रात तुम्हें बूथ में नींद आ गयी जिसकी वजह से मिस्टर देवसरे का कत्ल हो गया । अब तुम अपने आपको पाक साफ साबित करने के लिये ये कहानी गढ रहे हो कि तुम्हें नींद नहीं आयी थी, तुम्हें इरादतन बेहोश किया गया था ।”
मुकेश भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“तुम साबित कर सकते हो कि कैप्सूलों के खोल तुमने बूथ में से उठाये थे ।”
“और कहां से आये थे मेरे पास ?” - मुकेश के मुंह से निकला ।
“अभी दो मिनट पहले जब यह शीशी तुम्हारे कब्जे में थी तो कितने ही कैप्सूल तुम्हारी हथेली पर थे । तुमने दो को खोला, उनकी दवा हवा में उड़ाई और खाली खोल मुझे दिखाने के लिये, मुझ पर तोहमत लगाने के लिये, पास रख लिये ।”
“खाली खोल तीन हैं, मैंने ऐसा किया होता तो ये चार होते ।”
“एक गिर गया होगा कहीं इधर उधर, शीशी में वापिस चला गया होगा बन्द कैप्सूलों के साथ ।”
“खाली खोल मैंने बूथ में से उठाये थे ।” - मुकेश जिदभरे स्वर में बोला ।
“क्यों उठाये थे ? जब तुम्हें उनका रिश्ता कत्ल से जुड़ता लग रहा था तो क्यों उठाये थे ?”
“यही तो गलती हुई ।”
“मुझे तो लगता है कि न तुम्हें नींद आयी थी और न तुम्हारे ड्रिंक में नींद की दवा थी । तुमने जानबूझ कर सोया होने का बहाना किया था ताकि तुम्हारे किसी जोड़ीदार को मिस्टर देवसरे का कत्ल करने का मौका हासिल हो पाता ।”
मुकेश का निचला जबड़ा लटक गया, वो अवाक उसे देखने लगा ।
“भई वाह !” - फिर वो बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “इसे कहते हैं उलटा चोर कोतवाल को डांटे ।”
उसने लापरवाही से कन्धे उचकाये ।
“यही इकलौता सबूत नहीं है, मैडम जी, जो कातिल को पकड़वा सकता है । देर सबेर कानून के लम्बे हाथ कातिल की और कातिल के जोड़ीदार की गर्दन तक पहुंच के रहेंगे ।”
“कानून की जिस्मानी बनावट ही गलत है । हाथ लम्बे होने से क्या होता है ! बांहें लम्बी होती तो कोई बात भी थी ।”
“तुम मजाक कर रही हो ।”
वो जबरन हंसी ।
“ये खोल बूथ में से उठाना मेरी गलती थी लेकिन ये गलती मैंने इसलिये करना कुबूल किया था क्योंकि उस वक्त भी मेरे जेहन में तुम्हारा ही अक्स था । अब अगर तुमने साबित करके दिखाया होता कि मेरे होश खोने में तुम्हारा कोई हाथ नहीं था तो मुझे अपनी गलती का कोई अफसोस न होता लेकिन तुम तो उल्टे मुझे गुनहगार ठहरा रही हो । अब मुझे अपनी गलती दुरुस्त करनी होगी ।”
“क्या करोगे ?”
“इन्स्पेक्टर अठवले को सब कुछ सच कह सुनाऊंगा ।”
“वो जरूर ही तुम्हारी बात पर यकीन करेगा ।”
“देखेंगे ।”
उसने मेज पर से खोल उठा लिये लेकिन जब कैप्सूलों की शीशी उठाने लगा तो मीनू ने उसे पहले अपने काबू में कर लिया ।
“ये तुम्हारी नहीं है ।” - वो बोली ।
“तुम्हारी भी तो नहीं है । तुमने अभी खुद कहा था ।”
“मेरी नहीं तो तुम्हारी हो गयी ?”
“अजीब लड़की हो ।”
“तुम क्या कम अजीब हो जो बेवजह बात का बतंगड़ बना रहे हो ।”
“बेवजह ?”
“और क्या ! एक बात पर टिक के नहीं रह सकते ! जब कहते हो ये खोल बूथ में से उठा कर तुमने मेरे पर मेहरबानी की तो अब मेहरबानी जारी नहीं रख सकते हो ?”
“अब तुम नया ही पैंतरा बदल रही हो ।”
“जिस पर मेहरबान होते हैं उस पर एतबार लाते हैं या शक करते हैं ? गिरफ्तार करा देने की धमकी देते हैं ?”
“मैंने कब दी धमकी ?”
“अभी बोला नहीं इंस्पेक्टर अठवले के पास जाने की ? फिर वो क्या मुझे यूं ही छोड़ देगा ?”
“तुम मुझे यकीन दिलाओ कि मेरे ड्रिंक में बेहोशी की दवा तुमने नहीं मिलाई थी तो मैं इस बाबत इन्स्पेक्टर से कोई जिक्र नहीं करूंगा ।”
“कैसे यकीन दिलाऊं ? मैं कसमिया कह सकती हूं कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया । आगे यकीन करना या न करना तुम्हारी मर्जी पर मुनहसर है ।”
मुकेश खामोश रहा । अब उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव थे ।
“तुमने इतनी बातें कहीं” - इस बार वो नम्र स्वर में बोली - “एक मेरी भी सुनो ।”
“क्या ?”
“बूथ से इन कैप्सूलों के खोलों की बरामदी ही ये साबित नहीं करती कि किसी ने तुम्हें इरादतन बेहोश किया था ।”
“क्यों नहीं करती ? ऐसा था तो खोल क्यों थे वहां ?”
“उन पर कोई तारीख दर्ज है ? टाइम दर्ज है ?”
“क्या मतलब ?”
“क्या पता वो कब से वहां पड़े थे !”
“कब से कैसे पड़े होंगे ? वहां रोज सफाई नहीं होती ?”
“होती है लेकिन सफाई कर्मचारियों का अलगर्ज और लापरवाह होना क्या बहुत बड़ी बात है ?”
“हूं ।”
“तुम्हारी जानकारी के लिये कल रात तुम्हें जिसने भी देखा था तुम उसे नींद में लगे थे - खुद मिस्टर देवसरे को भी - बेहोश किसी को नहीं लगे थे ।”
“मिस्टर देवसरे ने मेरी तब की हालत खुद देखी थी या उस बाबत किसी से सुना था ।”
“सुना ही होगा क्योंकि वो तो कैसीनों में थे ।”
“किससे ?”
“शायद करनानी से या शायद महाडिक से । मैं अपना सांग नम्बर खत्म करके जब एक मिनट के लिये कैसीनो में गयी थी तो तब वो दोनों वहां थे और मिस्टर देवसरे के करीब थे । लेकिन जब वो मेरे साथ लौट रहे थे तब तो उन्होंने देखा ही था तुम्हें । तभी तो उन्होंने हुक्म दिया था कि तुम्हें जगाया न जाये ।”
“आई सी ।”
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