नीला स्कार्फ़
अपेक्षाओं का बोझ
रूममेट
कॉन्फ़्रेंस रूम में गहन विचार-विमर्श के बीच असीमा का फ़ोन इतनी तेज़ बजा कि सभी चौंक गए।
“फ़ोन साइलेंट पर क्यों नहीं है? मीटिंग में तहज़ीब का थोड़ा तो ख़्याल रखा करो असीमा।” अकबर ने सबके सामने असीमा को डाँट पिला दी। लेकिन असीमा का पूरा ध्यान फ़ोन पर था।
गाड़ी में बैठते ही अकबर ने पूछा, “खोई-खोई क्यों हो? सबके सामने डाँट दिया इसलिए?”
“नहीं अकबर। मुझे एक फ़ोन करने दो पहले।”
फ़ोन मिलाते ही लिली की चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी, “मियाँ-बीवी किसके लिए ताजमहल बना रहे हैं दुबई में कि मुंबई आने की भी फ़ुर्सत नहीं होती?”
“कहो तो तुम्हारे लिए भी एक बनवा दें! अपने लिए ऐसा कोई शाहजहाँ तो ढूँढ़ लो जो तुम्हारा ताजमहल फंड करे!”
“ढूँढ़ लिया। दो महीने बाद शादी है पटना में। आओगी या नहीं, उसका हिसाब बाद में। पहले ख़ास बात सुनो। नेशनल जिओग्रैफिक पर मेरी डॉक्युमेंट्री आ रही है आज रात। दुबई में चालीस मिनट बाद बीम करेगी। अब जहाँ भी हो, जल्दी घर पहुँचो और टीवी खोलकर बैठ जाओ। बाक़ी बातें बाद में”, इतनी सूचना देकर लिली ने फ़ोन काट दिया।
“अकबर, मुझे कितनी देर में घर पहुँचा सकते हो?”
“क्या हो गया, तबीयत दुरुस्त तो है?”
“लिली की फ़िल्म आ रही है। मैं एक मिनट भी मिस नहीं करना चाहती।”
फ़िल्म शुरू होने से ठीक पाँच मिनट पहले दोनों घर पहुँचे। नन्ही अलीज़ा को गोद में लेकर असीमा टीवी के सामने बैठ गई। लेकिन फ़िल्म देखने में मन लगा नहीं। अलीज़ा गोद में ही सो गई थी और असीमा के भीतर कई साल पुरानी यादों ने आँखें खोलना शुरू कर दिया था।
अलीज़ा को सोफ़े पर ही लिटाकर असीमा ने अपना लैपटॉप खींच लिया। इसके डी ड्राइव में एक फोल्डर था जो सालों से नहीं खुला था। असीमा के भीतर जाने क्यों उस फोल्डर को खोलने की बेचैनी-सी हो रही थी।
नौ साल पहले की तस्वीरें थीं उसमें। और थीं वो सारी कविताएँ और कॉन्सेप्ट नोट्स जो लिली रात-रात भर उसके लैपटॉप पर बैठकर लिखा करती। मुंबई से यादों की जो थाती सहेजकर असीमा दुबई आई थी, वो सबकुछ इसी फोल्डर में था।
पहली बार लिली से मिलना भी कितना अजीब-सा था!
“मेरा नाम असीमा है, असीमा कॉन्ट्रैक्टर। नाम से हिंदू लगती हूँ, लेकिन हूँ मुस्लिम। पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ती हूँ और रोज़े रखती हूँ। क्या किसी को मेरे यहाँ रहने से कोई परेशानी है?”
असीमा ने ऐसे अपना परिचय दिया था पहली बार। मुंबई के अंधेरी के चारबंगला इलाक़े की कोठी के एक कमरे में चार लड़कियों को पेइंग गेस्ट बनाकर रखने की जगह थी। तीन तो पहले से थीं। कमरे में वो चौथी रूममेट बनने के लिए घुसी थी।
दो मिनट तक असीमा के सवाल पर सब चुप्पी साधे बैठे रहे, अपने-अपने बिस्तरों पर, अपनी-अपनी दुनिया में। बीच वाले बिस्तर पर बैठी लड़की ने चुप्पी तोड़ी।
“मैं नफ़ीज़ा डीसूज़ा हूँ, न-फ़ी-ज़ा, नफीसा नहीं। डीसूज़ा हूँ तो ज़ाहिर है, क्रिश्चियन हूँ। खिड़की के बग़ल वाले बिस्तर पर जो मैडम बैठी हैं, उनका नाम है लिली पांडे। अब लिली जी पांडे कैसे हैं, ये तो उन्हीं से पूछिए। दरवाज़े के बग़ल वाले बिस्तर पर बैठी हैं विशाखा पटेल। नैरोबी से मुंबई आई हैं भरतनाट्यम सीखने। इनके धर्म, जाति का हमें पता नहीं। कभी ये फ़ोन पर गुजराती बोलती मिलती हैं, कभी मलयालम। बॉयफ़्रेंड जर्मन है। हममें से किसी को तो एक-दूसरे से परेशानी नहीं। न नाम, न सरनेम और न जाति-धर्म से। आप अपनी बात बताएँ असीमा जी।”
नफ़ीज़ा के इस तल्ख़ जवाब से असीमा थोड़ी देर सकते में खड़ी रही। फिर अपना सूटकेस लुढ़काती हुई कमरे के अंदर आ गई और विशाखा की ओर देखकर पूछा, “मेरा बिस्तर कौन-सा होगा?”
विशाखा ने इशारे से नफ़ीज़ा के ठीक बग़ल वाले बिस्तर की ओर इशारा कर दिया। असीमा चुपचाप बिस्तर पर अपना सामान खोल-खोलकर रखती गई और बग़लवाली अलमारी में घुसाती रही।
इस बीच विशाखा फ़ोन से चिपकी रही, लिली ने अख़बार में सुडोकू खेलना जारी रखा और नफ़ीज़ा ने अपने कानों में वापस सीडी प्लेयर के इयरप्लग्स लगा लिए। इतवार का दिन था। किसी को कोई जल्दी नहीं थी।
जल्दी का आलम तो अगले दिन सुबह सात बजे देखने को मिला। विशाखा को क्लास के लिए देर हो रही थी, लिली को शूट पर जाना था और नफ़ीज़ा को दफ़्तर। दस मिनट पहले भी कोई बिस्तर छोड़ने को तैयार नहीं होता, लेकिन बाथरूम के लिए दस मिनट की बहस सबको मंज़ूर थी। बस असीमा ही अपने कोने में बैठी थी, आज की मशक़्क़त के लिए पूरी तरह तैयार। अख़बार पकड़े कल की बासी ख़बरें पढ़ती हुई।
“कहाँ है ऑफ़िस तुम्हारा? कहीं काम करती हो या काम की तलाश में निकलोगी आज से?” पहला सवाल नफ़ीज़ा ने दागा।
“नौकरी करती हूँ। पेशे से आर्किटेक्ट हूँ, कर्माकर आर्किटेक्ट्स के साथ। वर्ली में है ऑफ़िस। बस निकलूँगी थोड़ी देर में।”
“आर्किटेक्ट हो। नाम भी असीमा कॉन्ट्रैक्टर है। कहीं हफ़ीज़ कॉन्ट्रैक्टर तुम्हारे रिश्तेदार तो नहीं लगते?”
अपने बालों को जूड़े मे लपेटते हुए, मुँह में हेयरपिन दबाए ये सवाल लिली ने आईने में देखते हुए असीमा की परछाईं से पूछा था, बड़ी संजीदगी के साथ।
कल से पहली बार असीमा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दिखाई दी थी, आईने के रास्ते ही सही।
“काश ऐसा होता! मुझे यहाँ तक पहुँचने के लिए इतनी मारा-मारी तो नहीं करनी पड़ती।” असीमा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
असीमा का इतना कहना था कि लगा जैसे कमरे का माहौल अचानक हल्का हो गया हो। लगा जैसे चारों का रूममेट बनकर रहना अब मुमकिन हो सकेगा। अपना ये कमज़ोर-सा छोर सबके सामने रखकर असीमा ने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था।
“चलो, चलो नाश्ता कर लो सब लोग। दूध-कॉर्नफ्लेक्स है आज। असीमा, तुम खा सकोगी न ये?” मकान मालकिन कविता दीदी कमरे में सबको बुलाने आईं।
“मेरे रोज़े चल रहे हैं। अब मैं रात को ही खाना खाऊँगी।”
“हाँ, हाँ तुमने बताया था कल। भई असीमा तो रोज़े रखेगी और नमाज़ पढ़ेगी। तुममें से किसी को कोई परेशानी तो नहीं है ना?”
“दीदी, रोज़-रोज़ के आपके बेसुरे भजनों से परेशानी नहीं होती तो किसी के नमाज़ पढ़ने से क्या होगी?” जवाब विशाखा ने दिया था। “अब चलो यार, वर्ना आज देर हुई तो गुरुजी मुझे बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह क्लास से लौटा देंगे।”
सब एक-एक कर घर से निकलते गए। विशाखा मलाड की ओर भरतनाट्यम की कुछ और मुद्राएँ सीखने, लिली आरे कॉलोनी की ओर क्रिएटिव आर्ट्स टेलीफिल्म्स के डेली सोप का प्रोडक्शन संभालने और नफ़ीज़ा जेके ट्रेडिंग के रिसेप्शन पर बैठने।
शाम को कमरे से कबाब की ख़ुशबू आ रही थी, दीदी के किचन में पकौड़ियाँ तली जा रही थीं और असीमा अपने बिस्तर पर बैठी पुराने अख़बार पर प्लेट रखकर फल काट रही थी।