Romance जलन

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rajan
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Romance जलन

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जलन

लेखक कुशवाहा कांत


"चलिए, भोजन कर लीजिए!"

"भोजन की इच्छा नहीं है।" -मैंने कहा।

"इच्छा क्यों नहीं है? भला इस तरह भी कोई क्रोध करता है? दादी ने जरा-सी बात कह दी, बस आप रूठ बैठे।

"मैं नहीं खाऊंगा।" -मैंने पूर्ववत् हठ किया।

उसके मुंह से एक सर्द आवाज निकली। बोली, “मत खाइए, मैं भी नहीं खाऊंगी।"

*...तुम...तुम भी...?" मैंने आश्चर्य और हैरानी से उस चौदह वर्ष की बालिका के मुंह की ओर देखा। यह भी कितनी नादान है कि बात-बात में जिद! आखिर इसे मुझमें इतनी ममता क्यों है? यह क्यों मेरे लिए इतना परेशान रहती है? अभी चार ही दिन हए, मेरे एक गरीब रिश्तेदार की यह लडकी मेरे घर आई है -और इन चार दिनों में ही मेरी सारी फिक्र अपने ऊपर ले ली है। नाम है उसका 'तोरणवती', मगर लोग उसे तुरन ही कहकर पुकारते हैं। अब तक तो मेरे रूठ जाने पर कोई मनाने वाला न था, मैं दो-एक दिन बिन खाए ही रह जाता था, मगर तुरन के आ जाने से मुझे रोज खाना पडता है। वह ऐसी हठ लड की है कि...

यौवन-रश्मि द्वारा प्रोद्भासित उसके भोले चेहरे की ओर मैंने देखा। वह उदास और गीली आंखें लिये खडी थी। मैंने कहा- “मेरे लिए इतना अफसोस क्यों करती हो तुरन, चलो मैं खाए लेता हूं।"

मैं उन अभागे व्यक्तियों में से हं, जिनके साथ नियति ने गहरा मजाक किया है। अपनी श्रीमती जी ऐसी मिली कि मुझे घर से पूरी उदासीनता हो गईं। प्रेम की दो बातें कभी मेरे कानों में न पड में अभागा लेखक, केवल अपना शरीर लिये कुर्सी पर बैठा-बैठा लिखा करता था-परंतु तुरन के आते ही मेरा उजड संसार हरा-भरा हो गया। दिल के बिखरे हुए टुकड एकत्रित होकर तुरन की ओर आकर्षित हो गए। हृदय को स्वच्छ प्रेम पाकर शांति मिली।

तुरन को मेरा काम करने में आनंद आता था। वह मेरा कमरा नित्य साफ कर दिया करती थी। मेरी धोतियों पर साबुन मल देती थी।--मैं हर्षातिरेक से विभोर हो उठता था।

तुरन के हर काम से यही प्रकट होता था कि वह भी मेरी और आकर्षित है। कभी-कभी मैं उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर 'सामुद्रिक' देखता, तो कितना आनंद आता!

उस दिन अपने कमरे में बैठा हुआ, मैं लिखने में निमग्न था। तुरन दरवाजे के सामने आई। उसने मुझे देखा नहीं और अपने सिर से धोती हटाकर कुर्ती पहनने लगी। मेरी दृष्टि उधर जा पड। देखा- जी भर के देखा। पराए की खूबसूरती देखना पाप है, मगर वह तो मेरे लिए पराई थी नहीं।

रात को मैंने उससे कहा- "तुरन, तुम्हारे चले जाने पर घर सूना हो जाएगा। वह हंस पड। बोली- "मेरे जैसी कितनी ही दासियां आपके घर रोज आती-जाती है।"
rajan
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दूसरे दिन रात में दादी, फिर एकाएक मुझ पर बिगड उठी। घर में मेरी और तुरन की घनिष्ठता के बारे में चर्चा हो गई थी, इसी कारण दादी अक्सर मुझसे बिगडा करती थी। उस दिन बड ग्लानि हुई। तुरन मेरे लिए पान लाई थी, मगर बिना पान खाए ही मैं अपने कमरे में चला आया और आधी रात तक विविध विचारों में झुलता रहा। आखिर तुरन मेरे लिए ही तो बिगड जाती है- उफ!
"उठिए ! ज्यादा सोने से तबीयत खराब हो जाएगी...।"

तरन ने मेरे कमरे में आकर कहा। रात की ग्लानि से नौ बज जाने पर भी मैं उठा नहीं था। उठता भी नहीं, मगर तुरन ने मुझे जबरदस्ती उठाया। स्नान कर बाहर बैठक में चला आया। कुछ खाया भी नहीं। दोपहर को भी नहीं खाया। सारा दिन भूखा ही बैठक में बैठा रहा।

*आज दोपहर को खाने नहीं आए. मेरा तबीयत बडी बेचैन रही...।" शाम को आने पर तुरन ने कहा। पता लगाने पर मालूम हुआ कि तुरन ने भी एक दाना मुंह में नहीं रखा है।

दादी और मेरी श्रीमती जी बराबर उससे जला करती। दिन में उसे सैकड झिड कियां सहनी पडती थीं, फिर भी वह प्रसन्न थी। न जने क्यों?

उस दिन दादी ने शायद कुछ भला-बुरा कहा था, अत: शाम को वह आकर मुझसे बोली *अब मुझसे पान न मांगा कीजिएगा। दादी को आपके प्रति मेरा यह आकर्षण अच्छा नहीं लगता।"

मैंने हृदय पर बन रखकर सब सुना। किस मुंह से तुरन को बताता कि मैं पहले पान छूता तक नहीं था-आजकल केवल उसके प्रेम के वशीभूत होकर पान खाने लगा हूं।

प्रात:काल ही तुरन ने मुझसे अपने घर एक पत्र लिख देने का अनुरोध किया! मैंने लिख दिया। कबूतरों का शौक मेरे छोटे भाई को है। उसके दो कबूतर हमारे सामने आकर बैठ गए और आपस में प्रेम-प्रदर्शन करने लगे। हम दोनों अपलक दृष्टि से उनका वह कल्लोल देख रहे थे। कितने खुश थे वे दोनों जीव! काश, हम भी इन्हीं की तरह खुश हो सकते!

उस दिन ज्योंही मैं दोपहर में घर आया, तुरन झाडू लिए मेरे कमरे में आ पहुंची और बुहारने लगी। मैं कपड उतारकर जहां का तहां खडा रहा। वह बोली- आप कपड उतार चुके हो तो बाहर आ जाएं- नहीं कोई देख लेगा तो..." मैं कमरे से बाहर निकल आया। भोजन करने के बाद उसने कहा, “पान रखा है ले लीजिएगा।"

मुझे बडी मानसिक व्यथा हुई। मैंने कहा- "पान-बान नहीं खाऊंगा।" उसने फीकी हंसी हंसते हुए कहा- “मैंने नहीं लगाया है। चन्दो बीबी ने लगाया है।" चंद्रकुमारी मेरी बहन का नाम है, मगर उसे सब चन्दो ही कहते हैं।

बैठक से जब घर में आया तो देखा, तुरन मुंह लटकाए छत पर खड़ा है। पूछा- "क्या बात है तुरन?"
rajan
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"मैं अब जल्दी ही चली जाऊंगी। पोस्टकार्ड का दाम ले लीजिए न। आपने मेरे घर पर चिट्टी जो लिखी थी...।" कहते-कहते उसने मेरी हथेली पर एक इकन्नी रख दी। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। दो मिनट तक हम अपनी सुध भूल चुके थे।, फिर मैंने कहा- "मुझे इकन्नी से खरीदने की कोशिश न करो तुरन! तुमने तो मुझे बैदाम ही खरीद लिया है।"

“अब आपसे अधिक प्रेम नहीं बढऊंगी, नहीं तो यहां से जाने पर जी बेचैन रहेगा...।" उसने कहा।

संदूक से एक 'जम्फर और एक बॉडी' निकालकर उनके हाथों में पकड ते हुए करूण स्वर में बोला- “यह लो मेरी भेंट।"

और उसके कुछ कहने के पूर्व ही मैं वेदनाच्छन हृदय लिये कमरे के बाहर हो गया।

जमींदारी के काम कुछ ऐसा झंझट आ पड कि पिता के जी कहने से मुझे दूसरे दिन इलाहाबाद जाने की तैयारी करनी पड। हाईकोर्ट में कोई तारीख थी। छटपटाकर रह गया। मैं जानता था कि तुरन अब जल्दी ही जाने वाली है।

कल में इलाहाबाद चला जाऊंगा और चार-पांच दिन के पहले न लौट सकूँगा। इस बीच तो मेरे हृदय की प्रतिमा अपने घर लौट जाएगी।

तुरन ने जब मेरे इलाहाबाद जाने की बात सुनी तो वह व्याकुल हो उठी। उसने दिन भर कुछ खाया नहीं। मेरा वक्त भी बडी बेचैनी से कटा। रात को मुझे तुरन के कमरे से सिसकने की आवाज सुनाई पड_f में धीरे-धीरे उस ओर बढTऔर उसकी कोठरी के दरवाजे पर आकर खड हो गया। भीतर तुरन सिसक-सिसक कर रो रही थी।

___धीरे से दरवाजा खोलकर मैं भीतर आ गया था। मुझे देखते ही उसने जल्दी से आंखें पोंछ ली।

"दिल छोटा न करो तुरन।" "चले जाइए आप, नहीं कोई देख लेगा तो...।"

"देखने दो तुरन!*- कहता हुआ मैं उसकी चारपाई पर जाकर बैठ गया। मेरी आंखें गीली हो रही थीं। मैंने कहा- “क्या इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें अपने हृदय में स्थान दिया था, तुरन? मैं कल इलाहबाद चला जाऊंगा और तुम मेरे लौटने के पहले ही यहां से चली जाओगी।, फिर शायद ही हम तुम मिल सके...।"

तुरन हांफ रही थी-आप चले जाइए। मुझे रोने दें- जी भर के रो लेने दें।"

"तुरन ! मैं एक कहानी सुनाने आया हूं।"

"कहानी?" उसने आश्चर्य से कहा।

"हां, आज मैं तुम्हें एक प्यासे आदमी की कहानी कहूंगा, जो जिंदगी भर प्रेम की जलन में झुलसता रहा। मेरी ही तरह उसके दिल में भी जलन थी, सुनोगी?"

"सुनाइए..." उसने उत्सुकता से कहा। मैं कहने लगा और तुरन दत्त-चित्त होकर सुनने लगी।

एक दुनिया उन्हें गरीब कहती है। भर पेट खाना और नींद भर सोना उनके लिए हराम है। रूखे सूखे टुकड पर गुजर कर, निर्जन गांव में रहते हुए वे अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। उनकी मुखाकृति से विवशता और पहनावे से गरीबी टपकती है। जन्म से मृत्युपर्यन्त उनका जीव तूफान में पड हुई नाव की तरह डगमगाता रहता है।, फिर भी ईश्वर की इच्छा पर भरोसा करते हुए जो कुछ मिल गया, उसी पर वे संतोष करते है।

शहर काशगर से दूर एक छोटी सी बस्ती है, जिसमें खानाबदोश कबायली रहा करते है। बस्ती से कुछ दूर हटकर एक मनोहर तालाब है। चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं। बड-बड। घनों वृक्षों की सघन छाया के नीचे बैठकर, राही अपनी थकावट दूर करते हैं। इस समय अस्त प्राय सूर्य की किरणें तालाब के पानी में स्वर्ण-रेखा सी चमक रही है, जिससे पानी में पांव लटकाकर बैठी हुई उस युवती के मुख की यौवन-रश्मि अद्भुत समा उपस्थित कर रही है। मैला कुचैला पाजामा और पुरानी कुर्ती पहने रहने पर भी उसकी खूबसूरती छन-छन कर बाहर आ रही है। पंद्रह वर्ष कोमल कलिका, सुडौल शरीर, चांद-सा मुखड, बड-बड़ी आंखें, गुलाबी अधरोष्ठ! कहने का मतलब की सिर से पैर तक वह लाजवाब है।

पत्ते खडके और तालाब के ऊपर एक सुंदर नवयुवक खड दिखाई पड । बाइस साल की उम्न और भीगती हुई मूंछे, सचमुच वह सुंदर लग रहा था। नवयुवक थोडी देर तक आबद्ध दृष्टि से पानी के साथ कल्लोल करती हुई उस युवती की ओर देखता रहा। धीरे-धीरे वह सौढ से नीचे उतरने लगा और उसके पीछे आकर खडा हो गया।

"मेहरून्निसा!" उसने कांपते स्वर में पुकारा।

युवती ने मानो सुना ही नहीं। वह तन्मय सी अस्त प्राय होकर सूर्य की ओर देखती हुई जीवन की क्षणभंगुरता का अनुमान लगा रही थी शायद!

युवक ने पुनः पुकारा- "मेहर!" मेहर चौंक पड, उसने वक्र दृष्टि से युवक की ओर देखा।

"तुम तो ऐसे रूठ गईं हो जैसे...।" कहता हुआ युवक मेहर के पास आकर बैठ गया।

“जहूर! तुमसे हजार बार, लाख बार कह चुकी हूं कि तुम मुझे फिजूल छेड | न करो, लेकिन तुम मानते नहीं। मुझे सताने में तुम्हें मिलता क्या है ?" मेहर ने कम्पित स्वर में कहा। उसके चेहरे पर क्रोध की लालिमा अब भी स्पष्ट थी, परंतु उस कृत्रिम क्रोध के आवरण में छिपी हुई मुस्कराहट, जिसमें हृदय यंत्रों के तारों को झंकृत कर देने की पर्याप्त शक्ति थी,
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जहूर से छिपी न रही। वह मेहर की प्रतिदिन की झिडकियां को सहन करने का आदी हो गया था। उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बोला- "मेहर ! तुम नाहक ही गुस्सा करती हो। इसमें मेरा क्या कसूर है? तुम्हीं बताओ? जिस वक्त तुम मेरी नजरों से दूर हो जाती हो, उस वक्त मुझे चारों तरफ अंधेरा ही-अधेरा दिखाई पड़ता है। दिल में मेरे दहशत-सी छा जाती है। मैं रजील नहीं है मेहर! तुम्हारी मुहब्बत ने मुझे दीवाना बना दिया है! मैं तुम्हारे लिए तबाह हो रहा हूं, लेकिन तुम्हें मेरी कुछ भी फिक्र नहीं। बोलो मेहर! वह दिन कब आएगा, जब हाँ हम-तुम एक हो सकेंगे?"

जहर की बातें सुनकर मेहर के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट खो गई। उसने जैसे लापरवाही से उत्तर दिया- वह दिन आज ही..."

__ *आज ही समझ लूं? या खुदा, यह क्या सच है, मेहर?" कहते हुए जहर ने मेहर के गले में हाथ डाल दिया और मेहर ने उसे इतने जोरों का धक्का दिया कि सम्हलने के पूर्व ही पानी में जा गिरा। मेहर सक्रोध बोली
बदमाश कहीं के बराबर तुम मुझे तंग किया करते हो। आज में जाकर सारी दास्तान अब्बा से कह दूंगी। कह दूंगी कि तुम मुझे अकेली देखकर हमेशा शरारत करते हो। तुम दुश्मन के बेटे हो। तुम्हारे कबीले और हमारे कबीले में बराबर जंग व दुश्मनी चली आ रही है। तुम इतनी दूर अपने कबीले को छोड़कर सिर्फ मेरे लिए यहां आते हो, क्या तुम्हें अपनी जान की परवाह नहीं।

"सच्ची मुहब्बत जान की परवाह नहीं करता मेहर!" जहर कहने लगा, जो अब तक तालाब से बाहर निकल आया था और सीढियों पर खड। अपने कपड निचोड रहा था- "मैं जानता हूं कि शुरू से ही तुम्हारा कबीला हमारे कबीले से दुश्मनी रखता आ रहा है, यह भी जानता हूँ कि मेरा दुश्मन के नजदीक आना खतरे से खाली नहीं, फिर भी में मजबूर हूं, अपने दिल से, मजबूर हूं तुम्हारी भोली सूरत से, मेहर! काश, तुम मेरे दिल की तड पन देख सकती।"

"तुम बहुत मुंहफट हो।" मेहर ने कहा और उसके मदभरे नयन शोखी से नाच उठे।

जहर कहता गया, "मेहर! जहाँ तक मुझे यकीन है, तुम्हारे दिल में भी मेरे लिए उतनी ही मुहब्बत है, जितनी मेरे दिल में, लेकिन नाहक ही तड पाने के लिए तुम अपनी आदत से बाज नहीं आती। माना कि हम लोगों के अब्बा जान अलग-अलग कबीलों के सरदार हैं और दोनों कबीले एक दूसरे के जानी दुश्मन हैं, लेकिन इससे हमारी मुहब्बत में तो कोई फर्क नहीं पड़ता ।"

"मगर हमारी-तुम्हारी मुहब्बत निभ ही कैसे सकती है, जहूर ! तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हूँ मैं कि तुम अभी अपने कबीले में लौट जाओ, वरना अगर मेरे कबीले का कोई आदमी तुम्हें देख लेगा तो तुम्हारी जान खतरे में पड़ जाएगी।" मैहर ने कहा।।

जहर कहने लगा- "मुझपर खतरा नहीं आ सकता, मेहर! मेरे साथ मेरा वफादार घोड़े है। वह देखो, पेड की आड में खडा है। उसी की जीन में मेरी तलवार भी लटक रही है, जो वक्त पड़ने पर दुश्मन के ताजे खून से अपनी प्यास बुझा सकती है।"

____ "तुम बेवकूफ हो, हट जाओ मेरे रास्ते से। मैं अभी जाकर अब्बा से तुम्हारी शिकायत जरूर करूंगी।" कहती हई मेहर सीढियां चढने लगी। तालाब के ऊपर आकर उसने एक नजर जहूर के तंदुरुस्त घोड़े और जीन से लटकती हुई तलवार पर डाली और तेजी से अपने कबीले की ओर चल पड। जहूर एकटक उसकी ओर देखता रहा। उस समय पहाड दृश्य बड ही मनोरम और हृदयग्राही मालम पड़ रहा था। हरे-हरे पहाड के पश्चिम में अस्त होते सूर्य की सुनहरी किरणें अब भी पृथ्वी पर कहीं-कहीं खेल रही थीं। आती हुई संध्याकालीन दृश्यावली हृदय में एक विचित्र कौतुहल पैदा कर रही थी। जहूर यह सब निनिमेष दृष्टि से देख रहा था। अपनी हृदय देवी की मनोहर अंतिम परछाई, जो घने वृक्षों के बीच में अभी-अभी लुप्त हुई थी।

बड़ा अब्दल्ला अपनी झोंपडके द्वार पर बैठा तम्बाक पी रहा था। आय भार से दबी हुई उसकी सफेद दाढी , हवा के झोंके से धीरे-धीरे हिल रही थी। पेड के नीचे बंधा एक सफेद घोड़े हिनहिना रहा था। साठ वर्ष का बुड्डा अब्दुल्ला, अपने कबीले का सरदार था। कबीले का एक-एक आदमी- क्या वृद्ध, क्या युवा- उसके सामने जबान हिलाने का साहस नहीं कर सकता था। जवानी बीत जाने पर भी उसकी मुखाकृति पर इतना तेज था कि सहसा आंख मिलाना कठिन था।

उस युग में मुसलमानों के गिरोह (कबीले) जंगलों और पहाड में अपने गांव बसाकर रहा करते थे। खानाबदोशों में उनकी गिनती थी। एक-एक गिरोह का एक सरदार हुआ करता था। ये कबीले अक्सर एक-दूसरे से लड करते थे। यही उनकी दुनिया थी। बूढ अब्दुल्ला भी एक कबीले का सरदार था। वह जितना ही बड़ा था, उतना ही साहसी भी था। उसके सिथिल हाथ-पांव में अभी भी युवा रक्त दौड रहा था। जमाना देखी हुई आंखों से अभी तक तेज टपकता था। मेहरून्निसा उसकी बेटी थी।

___ मेहर को अस्त-व्यस्त दौडती हुई आती देख बुड्डा चौंक पड । चारपाई से उठ खड हो गया और अपनी धंसी, परंतु विशाल आंखों के ऊपर हथेली की आड देकर देखने लगा कि आखिर मेहर के इस तरह भागते हुए आने का कारण क्या है? मेहर हांफती हुई आकर खड हो गईं। उसके धूल-धूसरित खूबसूरत चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं।

"क्या बात है मेहर?" -बुडु ने प्रश्न सूचक स्वर में पूछा।

*अब्बा! मेरे अच्छे अब्बा!" मैहर कहने लगी, उसकी सांसे अभी तक जोरों से चल रही थी, *मैं परेशान हो गईं हूं उससे। वह मुझे बहुत तंग करता है। जब कभी मुझे अकेली देखता है, अपनी आदत से बाज नहीं आता- शैतान कहीं का!

“कौन करता है तुझे परेशान?" -बुद्ध की आंखों में बेचैनी मिश्रित उत्सुकता फैल गईं।

"वह जी-जान से मेरे पीछे पड है। उसकी हरकतें बेहद गंदी होती हैं। वह मेरे कंधे पर हाथ रख देता है- कहता है तुम बहुत खूबसूरत हो। मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं, मगर मेरी समझ में नहीं आता कि यह मुहब्बत क्या बला है। आखिर यह मुहब्बत है क्या बला? तुम तो बुजुर्ग हो, बाबा ! जानते ही होंगे?"

"बड नादान है तू, पगली कहीं की।" बुड्डा खिलखिलाकर हंस पड , मगर मेहर को यह हंसी पसंद न आई। बोली, “तुम उसे मना कर देना कि वह मुझसे छेडखानी न किया करे। वह दुश्मन का बेटा है।"

"दुश्मन का बेटा ? यानी किसी दुश्मन ने तुझे तंग किया है ?"

____ तुम ठीक समझे अब्बा! रोज-ब-रोज उसकी शरारत बढ़ती जा रही है। जब मैं तालाब पर जाती है, वह तुम्हारे आदमियों की नजर बचाकर वहां पहुंच जाता है। मैं तो उससे आजिज आ गई हूं।" -मेहर ने कहा। .
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"वह कौन है? कौन है वह शख्स? कौन है वह दुश्मन? जिसकी मौत उसे वहां खींच लाती है। कौन है वह मर्द का बच्चा जिसको मेरी तलवार का जरा भी भय नहीं। बता तो कौन है वो?" बूढ अब्दुल्ला के शरीर में एकबारगी खून लहरा उठा। उसकी दृष्टि खूटी से लटकती हुई अपन तलवार पर जा पड और उसकी उंगलियां तलवार की मूठ पकड़ने के लिए व्यग्र हो उठीं।

"वह जहूर है अब्बा !

दुनिया में मेरा सबसे बड दुश्मन, जुम्मन! दगाबाज, बदजात कहीं का। उसकी ऐसी मजाल कि तुझसे मुहब्बत करे।" बुद्ध ने कहा। क्रोध से उसके होंठ फडक रहे थे। उसका सारा शरीर आवेश से कांप रहा था। “छोरी !” बुड्डा गरजा। “मेरी बोतल ला।"

"बोतल?" मेहर ने आशंकित होकर कहा। बुढे का रंग-ढंग देखकर वह डर सी गईं। उसे जहूर का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। उफ् ! बुद्दा शराब पीकर न जाने क्या गजब ढाना चाहता है। कहीं जहूर और उसके बाप पर कोई आफत न आ जाए? - सुनती है या नहीं ? " बुड्डा उबल पड I "मेरी बोतल.. ! मेरी तलवार! दौडती जा और दौड ती आ...और हाँ सुन, वहीं बोतल लाना, जो कल आई है,,पगली कहीं की। इस तरह देख रही है, मेरे मुंह की ओर? मेरे चेहरे पर कौन-सी लिखावट पढ़ रही है बोल?"

"अब्बा!"

"खुदा का कहर! तू मुझे बातों में भुलाना चाहती है। जा, जल्दी जा। जा मेरी पेटी भी लाती आना और घोड़े- की जीन भी। आज कहर मचा दूंगा, कहर। जा.."

मैं नहीं जाती अब्बा!" -मेहर ने तुनक कर कहा।

"नहीं जाती?" एकाएक गुस्से से बड़े का सारा शरीर कांप उठा। वह दो कदम आगे बढ़। आया और मेहर के सामने आकर खडा हो गया। उसकी चौडी हथेली हवा में उठी और चट्ट से मेहर के रक्तगाल पर पड। दर्द से मेहर चीख उठी। उसकी देदीप्यमान मुखाकृति म्लान पड गईं।
*अब भी जाती है या नहीं-काटकर रख दंगा।"

मेहर की आंखों में आंसू छलछला आए। आज तक उसके अब्बा ने उसके प्रति एक भी बदज बान नहीं निकाली थी, तमाचा मारना तो दूर रहा। वह धीरे-धीरे अंदर गई और थोडी ही देर बाद, एक हाथ में बोतल और दूसरे हाथ में तलवार लेकर लौट आई।

"जब करेगी तो अधुरा काम। पेटी और जीन क्यों नहीं लाई? खुदा का कहर ! तुझे जाने कब अक्ल आएगी?"

___ "हाथ तो दो ही थे, अब्बा चार चीजें कैसे लाती।” कहते-कहते मेहर की आंखों से आंसू की दो बूंदें टपककर जमीन पर आ गिरी।

"यह क्या आंस निकल आए? बड पगली है. बेटी मेरी। तलवार लगती तो कैसे बर्दाश्त करती?" मेहर की आंखों में आंसू देखकर बुड्डा पिघल गया- अच्छा यहाँ सुन। सुन, भीतर ना जा। मत जा, मैं कहता हूं ना।"

मेहर रुक गईं। बुट्टा मेहर के सामने आकर खडा हो गया। बोला, जरा-सी बात पर रूठ जाती है? मैं बुढा हो गया है न! ला तेरी आंख पोंछ दूं। उफ रे, परवरदिगार। ये आंसू हैं या मोती की लडि यां। फिजूल इन मोतियों को क्यों बर्बाद करती है। नादान कहीं की, कहां चली?"
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