आशा
(सामाजिक उपन्यास)
Chapter 1
आशा ने एक खोजपूर्ण दृष्टि अपने सामने रखे शीशे पर प्रतिबिम्बित अपने चेहरे पर डाली और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाती हुई अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करने लगी ।
“हाय मैं मर जावां ।”
आशा ने चौंक कर अपने पीछे देखा ।
किचन के द्वार पर सरला खड़ी थी । उसके एक हाथ में चाय के दो कप थे और दूसरे में केतली थी और वह आंखें फाड़ फाड़कर आशा को देख रही थी ।
सरला ने कई बार लगातार अपनी पलकें फड़फड़ाई और फिर अपने निचले होंठ को दांतों के नीचे दबाकर बोली - “हाय मैं मर जावां ।”
“क्या बक रही है, बदमाश !” - आशा झुंझलाये स्वर से बोली - “सवेरे सवेरे क्यों मौत आ रही है तुझे ।”
सरला ने कप मेज पर रख दिये और उनमें चाय उढेंलती हुई बोली - “मुझे क्या, आज तो लगता है बम्बई के सैकड़ों लोगों की होलसेल में मौत आने वाली है । खुद तुम्हारे सिन्हा साहब का अपने बाप की तरह दफ्तर में ही हार्टफेल हो जाने वाला है ।”
सिन्हा साहब फेमससिने बिल्डिंग, महालक्ष्मी में स्थित एक फिल्म डिस्ट्रब्यूशन कम्पनी के मालिक थे और आशा उनकी सेक्रेट्री थी ।
“तू कहना क्या चाहती है ?”
सरला कई क्षण भयानक सी आशा के चांद से चेहरे की घूरती रही और फिर गहरे प्रशंसात्मक स्वर में बोली - “खसमां खानिये, यह लाल साड़ी मत पहना कर ।”
“क्यों ?”
“क्यों ?”- सरला भड़ककर बोली - “पूछती है क्यों ? जैसे तुझे मालूम ही नहीं है क्यों ? मोइये, ऐसे सौ सौ सूरजों की तरह जगमगाती हुई घर से बाहर निकलेगी तो कोई उठाकर ले जायेगा ।”
“उठाकर ले जायेगा !” - आशा मेज के सामने रखी स्टील की कुर्सी पर बैठ गई और चाय का एक कप अपनी ओर सरकाती हुई बोली - “कोई मजाक है ? कोई हाथ तो लगाकर दिखाये । किसकी मां ने सवा सेर सौंठ खाई है जो मुझे...”
“बस कर, बस कर । पहलवान तेरा बाप था, तू नहीं है । साडे अमरतसर में भी एक तेरे ही जैसी लड़की मेरी सहेली थी और वह भी तेरी ही तरह...”
“सरला, प्लीज” - आशा उसकी बात काटकर याचनापूर्ण स्वर से बोली - “सवेरे, सवेरे अगर तुमने मुझे अपने अमृतसर का कोई किस्सा सुना दिया तो सारा दिन मुझे बुरे ख्याल आते रहेंगे ।”
“अच्छा, अमरतसर का किस्सा नहीं सुनाती” - सरला धम्म से आशा के सामने की कुर्मी पर बैठती हुई बोली - “लेकिन मेरी एक बात लिख ले आशा ।”
“क्या ?”
“आज जरूर कुछ होकर रहेगा ?”
“क्या होकर रहेगा ?”
“आज सिन्हा साहब तुम पर हजार जानों से कुर्बान हो जायेंगे ।”
“यह तुम्हारी किसी नई फिल्म डायलाग है ?” - आशा ने मुस्कराकर पूछा ।
“फिल्म की ऐसी की तैसी । मैं हकीकत बयान कर रही हूं ।”
“अच्छी बात है, सिन्हा साहब मुझ पर कुर्बान हो जायेंगे, फिर क्या होगा ?”
“फिर वे मुझे एक बड़ी रंगीन शाम का निमंत्रण दे डालेंगे ।”
“वह तो उन्होंने पहले से ही दिया हुआ है ।”
“अच्छा ! तो यह बात है ।”
“क्या बात है ?”
“इसीलिये आज तू इतना बन ठनकर दफ्तर जा रही है ।”
“मैं तो रोज ही ऐसे जाती हूं ।”
“नहीं ।”- सरला चाय की एक चुस्की लेकर बोली - “आज कुछ खास बात है । रोज तो तू दफ्तर में काम करने जाती है, लेकिन आज तो तू ऐश करने जा रही है ।”
“मैं ऐश करने नहीं जा रही हूं ।” - आशा तनिक गम्भीर स्वर से बोली - “मैं तो एक ड्यूटी भुगताने जा रही हूं ।”
“क्या मतलब ?”