Fantasy मोहिनी

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Vivanjoshi
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Re: Fantasy मोहिनी

Post by Vivanjoshi »

शानदार , अपडेट थोड़ा बड़ा दीजिये
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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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“मैं हरि आनंद को चाहता हूँ, उसे मेरे हवाले कर दो। मैं फिर तुमसे कहता हूँ, बात अधिक न बढ़ाओ।”

“मैं उसे तेरे हवाले नहीं कर सकता। वह काली माई की शरण में है।”

“फिर तुम मुझे उसका पता बताओ, मैं स्वयं उससे मिल लूँगा।”

“मैं तुझे नरक का पता बता सकता हूँ पापी।” पुजारी ने कहा।

तुलसी आनंद के तेवर अचानक खराब हो गए। मोहिनी बाहर थी और मैं जानता था तुलसी आनंद की एक आवाज मेरी तिक्का-बोटी करा सकती थी। तुलसी आनंद केवल एक मंत्र में मुझे भस्म कर सकता था लेकिन वह किसी तंत्र-मंत्र के फेर में नहीं पड़ा। अब तुलसी आनंद किसी भी क्षण मेरे लिये खतरा बन सकता था। अचानक मुझे प्रेमलाल का ध्यान आया। मैंने दिल ही दिल में उनका नाम लेकर कहा–
“महाराज! इस समय मुझे आपकी महान शक्ति की अत्यधिक आवश्यकता है। तुलसी आनंद को काबू में करो। इससे कहो कि मुझे हरि आनंद का पता बता दे दे।”

उधर तुलसी आनंद क्रोध में पागल हो रहा था। उसकी लाल अंगार आँखों में मेरे लिये नफरत उमड़ रही थी। वह कुछ कहना चाहता था लेकिन न कह सका। अचानक उसके तेवर बदलने लगे। चेहरे पर उलझन के भाव पैदा हुए। उसने इस तरह बार-बार सिर झटका जैसे किसी बात से इनकार कर रहा हो। देर तक उसकी यही स्थिति रही। फिर वह बड़ी मद्धिम आवाज से रहस्यमय स्वर में बोला–
“तुमने मुझे विवश कर दिया है। आओ वह नीचे है। देवी के चरणों के नीचे तहखाने में। मेरे साथ आओ।”

एकाएक उसके इस तरह बदल जाने और नरम स्वर में बात करने पर मुझे आश्चर्य हुआ। मैं खामोशी से उसके साथ हो लिया। उसके चेहरे से मालूम होता था जैसे वह अनिच्छा से मेरे साथ चल रहा है। आँखें बोझिल, बोझिल कदम। धीरे-धीरे मालूम पड़ता जैसे वह सम्मोहन की सी स्थिति में है। उसके दिलो-दिमाग पर किसी और का राज है। यह रहस्यमय शक्ति निश्चय की प्रेमलाल की थी जो उसने मुझे माला के साथ दान की थी। अब मैं बरसों की कोशिश और कशमकश के बाद अपनी डॉली के हत्यारे के पास जा रहा था। मेरी क्या स्थिति होगी, कल्पना कीजिए। चेहरा सुर्ख हो गया था, बल्कि तमतमा रहा था। खून तेजी से रगों में दौड़ रहा था। हरि आनन्द का गन्दा अस्तित्व अब किसी भी क्षण मेरे हाथों से कुचला जाने वाला था।



रास्ते में मुझे बसन्ती दासी मिली। उसने तुलसी आनंद के साथ मुझे देखकर दाँतों में उंगली दबाई। मैं विजयदायी मुस्कान के साथ उसके बराबर से गुजर गया। तुलसी आनन्द मुझे मेहराबी दरवाजे के दूसरी ओर ले गया जहाँ काली की आदमकद मूर्ति खड़ी थी। मूर्ति के पुश्त में एक दरवाजा था। हम दोनों उस दरवाजे से अन्दर प्रविष्ट हो गए। यहाँ काली के अनेक रूपों की असंख्य छोटी-बड़ी मूर्तियाँ थीं जो कदाचित बेची जाती थी। तुलसी आनंद मूर्तियों के मध्य से गुजरता हुआ एक अलमारी के निकट रुका जो दीवार में धँसी थी। एक बार फिर तुलसी आनन्द कुछ संकुचित हुआ। धोती से चाबियों का गुच्छा निकाला। फिर उसने आलमारी का ताला खोलकर उसका एक पट अंदर धकेला तो मैं अचम्भित रह गया। बलखाती सीढ़ियाँ नीचे दूर तक चली गयी थीं। वह सीढ़ियाँ देखकर और अन्दर का निरीक्षण करते हुए मुझे यूँ आभास हुआ कि अगर मैं अंदर चला गया और तुलसी आनंद ने दरवाजा बंद कर दिया तो मैं वहाँ घुट-घुट मर जाऊँगा। हल्की रोशनी की किरणें नीचे से सीढ़ियों पर पड़ रही थी और पानी की शर-शर आवाज आ रही थी। तुलसी आनंद ने मुझे वहाँ तक पहुँचा कर उलझे हुए स्वर में कहा–
“हरि आनंद नीचे मौजूद है। परन्तु महाशय! इस पवित्र स्थान पर तुम कोई दंगा-फसाद नहीं करोगे, समझे ? देवी की शक्ति महान है, वह अपने पुजारियों को कष्ट देना सहन नहीं करेगी। जाओ, उसे यहाँ से निकाल कर ले जाओ।”

मैंने तुलसी आनंद के कटे वाक्य तौलने के लिये एक दृष्टि उसके सुते हुए चेहरे पर डाली। मुझे एहसास हो गया कि वह कोई शरारत नहीं करेगा। फिर मैं जीने से उतरने लगा। पीछे से दरवाजा बन्द होने की आवाज सुनाई दी तो मैं चौंका लेकिन कोई ध्यान दिये बिना आगे बढ़ गया। उस समय किसी चीज की परवाह किए बिना मैं आगे बढ़ता रहा। सीढ़ियाँ पार करके मैं नीचे पहुँचा तो वहाँ भी बहुत सी मूर्तियाँ पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र की सिद्धि का सामान, मुर्दों की खोपड़ियाँ और न जाने क्या-क्या अला-बला पड़ी थीं। परन्तु सम्पूर्ण वातावरण डरावना और रहस्यमय था।

परन्तु मैं तो न जाने किन-किन भयानक परिस्थितियों से गुजर चुका था। मेरे लिये वह चीजें भय का प्रतीक नहीं थी। कोई नया व्यक्ति होता तो सीढ़ियों पर ही उसके होश गायब हो गए होते। यहाँ दो बड़े कमरे थे। मैंने पहला कमरा देखा जो बिलकुल खाली था और वीरानी का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। मैं दूसरे कमरे में प्रविष्ट हुआ तो आँखों में खून उतर आया। वहाँ हरि आनंद किसी जवान पुजारिन के साथ बातों में खोया था। दिल में तो आया कि अचानक उसके सिर पर चढ़ जाऊँ और नरखरा दबा दूँ या पीछे से छुरा घोंप दूँ। मगर मारने से पहले मैं उसे जलील करके दिल का गुब्बार निकालना चाहता था। मैं खामोशी से कमरे की एक दीवार से चिपक गया। मेरे सामने अनगिनत मूर्तियाँ थीं।

मैंने बड़े धैर्य से ठोस स्वर में कहा– “आखिरकार मैं आ ही गया।”

हरि आनंद यह सुनकर यूँ उछला जैसे किसी बिच्छु ने अन्धेरे में उसे डंक मार दिया हो। एक क्षण के लिये उसके चेहरे की रंगत जर्द पड़ गयी फिर संभलकर बोला– “कुँवर राज ठाकुर! त... तुम यहाँ ?”

“हाँ मैं! और गौर से देख लो, मेरे साथ मोहिनी भी नहीं है।”

“तुम क्या चाहते हो ?” उसने घबराहट में प्रश्न किया।


“खूब! तुम यह भी नहीं जानते भोले बादशाह। सुनो। मैं अपनी प्यारी मोहिनी को तुम्हारा खून पिलाना चाहता हूँ। उसे तुम्हारा खून पीने की बड़ी आरजू है।” मैंने व्यंग्य कसा।

“तुमने वचन भंग किया, मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ।”

“मैं तुमसे सफाई नहीं माँग रहा हूँ। डॉली मर चुकी है मगर उसकी आत्मा व्याकुल है। मैं उसे शांत करने के लिये यहाँ आया हूँ।”

“राज! मुझसे गलती हो गयी है। क्या तुम मुझे क्षमा नहीं कर सकते ? जो होना था, वह हो गया। मैं तुम्हारे बहुत काम आ सकता हूँ।”

“कमीने, बस कर!” मैंने अचानक गरजते हुए कहा। “अधिक बातें न बना। सावधान हो जा, आज तेरी मौत तेरे सिर पर खड़ी है। मैं तेरे खून से अपने हाथ रंगने आया हूँ। स्वयं को मेरे हवाले कर दे और मन्दिर से बाहर चल।”
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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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हरि आनंद का चेहरा फक हो गया। उस पर मुर्दानी छाई हुई थी। मैं पहले दिल की भड़ास निकालना चाहता था। मैंने मुँह बनाकर कहा।

“बुजदिल, हरामजादे! तूने बड़ी कमीनगी का सबूत दिया है। अब सीधी तरह मेरे साथ चल।”

“मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। मैं देवी की शरण में हूँ।” हरि आनंद ने झिझकते-झिझकते कहा।

“तो फिर मुझे यही तेरा काम तमाम करना होगा।” मैं खतरनाक इरादे से आगे बढ़ने लगा।

हरि आनंद भयभीत अन्दाज में पीछे की तरफ खिसक रहा था। पुजारिन भी काँप रही थी। वह वहाँ से भाग गयी परन्तु इससे पहले कि मैं हरि आनंद के निकट पहुँचता तहखाने की दीवारों की तरफ से एक भर्राई हुई मधुर नारी की आवाज गूँजी–
“कुँवर राज ठाकुर, रुक जा! यह मेरा पवित्र स्थान है। यहाँ खून खराबा नहीं होता। मेरे सेवक तुलसी आनंद ने भी तुमसे यही कहा था। शायद तुम भूल गए।”

“देवी! देवी, अपने सेवक की रक्षा कर।।” हरि आनंद बड़ी मूर्ति के चरण पकड़कर गिड़गिड़ाया। फिर दंडवत करने लगा।

मैंने मूर्ति की तरफ दृष्टि उठायी। पत्थर की मूर्ति की आँखें खून उबलती नजर आयी। बिल्कुल जिन्दा इन्सान की तरह। अचानक घण्टियाँ बजने लगी। और ऐसा शोर हुआ कि मेरा सिर चकरा गया। मैं एक क्षण के लिये स्तब्ध रह गया। मैंने स्वयं पर काबू पाने की कोशिश की तो ऐसा लगा जैसे सारी मूर्तियाँ हरकत में आ गयी हों। जैसे वह सब एक साथ बोलने लगी हों। परन्तु मैंने सिर झटककर यह विचार मस्तिष्क से निकालने चाहे। मैं आगे बढ़ा। हरि आनंद पहलू बचाकर निकल गया। उसी समय वह आवाज पुन: गूँजी–
“प्रेमलाल ने जो शक्ति तुम्हें दान की है, वह उसने मेरी सेवा करने के बाद प्राप्त की है। पार्वती मेरा ही दूसरा रूप है, इस कारण मैं तुम्हें क्षमा करती हूँ। परन्तु तुम तुरन्त इस स्थान से चले जाओ। अगर तुम यहाँ से नहीं गए तो तुम्हें ऐसा कष्ट दूँगी कि सारा जीवन व्याकुल रहोगे। जाओ, इस पवित्र स्थान से निकल जाओ।”

उस रहस्यमय आवाज ने मुझे जकड़ सा लिया। आश्चर्यचकित होकर मैं मूर्तियों की तरफ देख रहा था। उनमें से एक बड़ी मूर्ति की आँखों में चमक नजर आ रही थी। उसकी पुतलियों में हरकत हुई और उसके होंठ हिलने लगे। मैंने आँखें मल कर दोबारा देखा। हरि आनंद अब मूर्ति के सामने हाथ बाँधे खड़ा था। उसके होंठ तेजी से हिल रहे थे। मैंने इस तिलस्म की कोई परवाह न की। डॉली के हत्यारे को इतनी सरलता से क्षमा नहीं किया जा सकता था। उसे इस आलम में देखकर मेरी इन्तकाम की आग और भी भड़क उठी।

मैंने गरजदार आवाज में कहा– “हरी आनंद, कोई अन्तिम इच्छा प्रकट करनी हो तो कर ले! आज तुझे मेरे हाथों से कोई शक्ति नहीं बचा सकती। मैं तेरा खून पिये बगैर यहाँ से नहीं जाऊँगा।”

मैंने सोचा मुझे अब देर नहीं करनी चाहिए। हरि आनंद किसी सूरत में दोबारा मेरे हाथ नहीं आयेगा। हालाँकि दिल यह चाहता था कि मैं बहादुर लोगों की तरह से पराजित करूँ। किन्तु वह घिघिया रहा था और मूर्ति के आगे याचना कर रहा था। इस बार उसके सीने पर चढ़ जाने के इरादे से मैं आगे बढ़ा तो वही मधुर आवाज थरथराती हुई कमरे में गूँजी।

“कुँवर राज! रुक जाओ, रुक जाओ। मेरी आज्ञा है, तुम जहाँ हो वहीं खड़े रहो।”

मैंने जिस जालिम इन्सान को इतने दिनों तक जिंदा रहने दिया हो। अब उसे इन आवाजों के फरेब में आकर कैसे छोड़ सकता था। जब डॉली का चेहरा मेरी कल्पना में उभरा और उसकी खून से सनी लाश याद आयी तो मैं और उत्तेजित हो गया। मैंने उस रहस्यमय आवाज की कोई परवाह नहीं की। हरी आनंद की हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। मैं फिर आगे बढ़ा किन्तु उस समय घण्टों की रहस्यमय आवाजें तेज हो गयीं। इतनी तेज की साधारण आदमी चकरा कर ही गिर जाए। मैंने जमीन पर मजबूती से कदम जमाए और लपककर हरि आनंद पर टूट पड़ने का इरादा कर रहा था कि उसी क्षण कमरे में रोशनी हुई और एक तरफ आग के शोले लपकते नजर आए। कमरे की तमाम दीवारों पर आग की लपटें थीं। मैं विवशतावश बीच में खड़ा हो गया। आग के इन शोलों में कोई तुरन्त निर्णय लेना कठिन था। मुझे मालूम था कि बाहर से दरवाजा बन्द है। कोई और रास्ता भी नहीं तो यह षड्यंत्र था। यह विचार आते ही मैंने समझ लिया कि मेरा अन्तिम समय आ गया है। मैं फिर उनके चक्कर में आ गया हूँ और इस बार आजादी मुश्किल है। इसलिए कि मोहिनी भी मौजूद नहीं है। रही प्रेमलाल की शक्ति तो काली के मन्दिर में उसकी औकात ही क्या है। मैंने यह सोचकर हरि आनंद पर छलांग लगा दी कि मरने से पहले उसका काम तमाम कर जाऊँ। वह पहलू बचाकर कमरे में इधर-उधर भागने लगा। मैंने आग के शोलों की परवाह न करते हुए एक बार फिर हरी आनंद को पकड़ना चाहा। वह चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहा था। उस वक्त मेरे हाथ में उसकी धोती आ गयी। मैंने धोती का सिरा पकड़कर उसे अपनी तरफ खींचा। वह फिर भागने लगा तो मैंने उसे आग की तरफ धकेल दिया। मेरे लिये आश्चर्य की बात यह थी कि वह आग में झुलसने की बजाय साफ निकल आया। उसे कोई अवसर दिए बिना मैंने फिर एक कोशिश की। वह एक बड़ी मूर्ति की पुश्त में छिपने लगा। वहाँ भी आग लगी हुई थी। मैंने मूर्ति की साइड से उसे पकड़ने का इरादा किया लेकिन काली की वह मूर्ति जो बायीं ओर एक चबूतरे पर स्थापित थी, तेजी से मेरे ऊपर आ गिरी। मैंने बचने की कोशिश की लेकिन बच न सका।

मुझे अपने कन्धे पर एक जबरदस्त चोट का अहसास हुआ। मेरी नजरों के सामने अन्धेरा फैल गया और मैं त्योराकर जमीन पर गिर पड़ा। मेरी चेतना लुप्त होने लगी और मैं डूबने लगा। मुझे महसूस हुआ जैसे मेरी आत्मा मेरे शरीर से जुदा होना चाहती है। परन्तु सख्त जान कुँवर राज यह वार भी सह गया। जब मेरी आँख खुली तो अपने-आपको मृगछाला के बिस्तर पर लेटा पाया। यह जानने के लिये कि मैं कहाँ हूँ। मैंने पहले तो अधखुले नेत्रों से देखा। जब वहाँ कोई नजर नहीं आया तो पूरे नेत्र खोल दिए। अब मैं अपने आपको एक कुटिया में देख रहा था। तुरंत ही यह बात मेरी समझ में नहीं आ सकती थी कि मैं कहाँ हूँ। अगर कोई बात समझ में आती थी तो यह कि मैं उस मंदिर के तहखाने में नहीं हूँ और दूसरी बात यह समझ में आती थी कि मैं जिंदा हूँ। लेकिन बेहोशी के बाद मेरे साथ क्या हालात पेश आये, यह मैं नहीं जानता था।
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Dolly sharma
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Re: Fantasy मोहिनी

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मैं उठकर खड़ा हो गया। कुटी का दरवाजा खुला था। मैंने सीधे बाहर का रूख लिया। देखकर बड़ी हैरत हुई कि यह बियावान जंगल है जहाँ यह कुटिया बनी है। कौन मुझे यहाँ ले आया ? कौन यहाँ रहता होगा ? ऐसे कई प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कुलबुला रहे थे। आनंद मठ आस-पास कहीं भी नजर नहीं आया था। मैंने इन सब प्रश्नों का उत्तर जानने के लिये कल्पना के झरोखे से मोहिनी को देखा तो मोहिनी भी मेरे सिर पर नहीं थी। मोहिनी ने मुझसे वायदा किया था कि मठ के बाहर वह मेरा इन्तजार करेगी। मुझे उस पर क्रोध आ रहा था। मुझे इन परिस्थितियों में छोड़कर यह खुद कहाँ गायब हो गयी। यह जंगल मेरे लिये अनजान था। बिना रास्ता जाने मैं कहीं भी नहीं आ जा सकता था। मुझे रह-रहकर माला का ख्याल सता रहा था। दिन चढ़ आया था पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता था कि मैं चन्द घण्टे ही बेहोश रहा हूँ या चौबीस घण्टे से ऊपर का वक्त बीत चुका है। अभी मैं इन प्रश्नों का जवाब खोज ही रहा था कि मुझे एक साधु नजर आया जो गेरुए वस्त्र पहने था और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ कुटिया की तरफ आ रहा था। मैं विस्मय की हालत में उसे देखता रहा। उसके चेहरे पर एक तेज था और वह एक शांत झील की मानिंद दिखायी पड़ता था। जब वह निकट आ गया तो मैंने उसे दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

“तो होश आ गया बालक ?” उसने पूछा।

“मैं कहाँ हूँ महाराज और आप कौन हैं ?”

“चलो, अन्दर चलो! धीरज रखो, तुम अपनों के बीच हो! यहाँ तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं।”

वह रहस्यमय साधु मुझे कुटी में ले गया। उसके अन्दर कोई ऐसी शक्ति अवश्य थी जिस कारण मैं उससे आँखें न मिला सकता था और उसकी बातों से मालूम पड़ता था कि वह मुझे अच्छी तरह जानता है।

“उन्होंने तुम्हें जंगल में फेंक दिया था।” साधु ने बताया। “और मुझे तुम्हारी सहायता के लिये आना पड़ा। बालक, तुम इस समय चारों तरफ से विपत्तियों से घिरे हो। मैं चाहता हूँ कि तुम कुछ दिन इसी कुटी में आराम करो। फिर जब हालात सुधर जाएँगे तो मैं स्वयं तुम्हें जाने की आज्ञा दे दूँगा।”

“लेकिन महाराज मेरी पत्नी... मेरी माला।”

“माला इस समय पुलिस स्टेशन में है।”

“पुलिस स्टेशन में ?” मैं चौंक पड़ा। “मैं समझा नहीं।”

“अभी तुम कुछ नहीं समझोगे बालक कि तुमने किन लोगों से टक्कर ली है। आनंद मठ वाले केवल पुजारी या तांत्रिक ही नहीं हैं। उनकी पहुँच बहुत ऊँची है। यह समुदाय हम साधु-सन्तों के नाम पर एक कलंक बनता जा रहा है। लेकिन वे रहस्यमय शक्तियों के स्वामी हैं और इन शक्तियों बलबुते पर वे इस देश को पतन की ओर ले जा रहे हैं।”

“मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ महाराज! आप क्या कहना चाहते हैं ?”

“तो सुनो। अब वह वक्त आ गया है जब तुम्हें सब समझना और सुनना चाहिए। तुम बहुत से काम बड़ी शीघ्रता से करते हो। अपनी भावनाओं पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहता। यह तुम्हारे लिये बड़ा हानिकारक है। उन लोगों ने तुम्हारा कच्चा-चिट्ठा पुलिस को दे दिया है। शायद इसलिए कि उन्हें मालूम हो गया है कि तुम जिन्दा बच निकलोगे। तुम्हारी मौत सामने साधु प्रेमलाल की शक्ति दोबारा दीवार बनकर खड़ी हो गयी थी। उनका विचार होगा कि जंगल के दरिन्दे तुम्हें चाट जाएँगे और अगर तुम वहाँ से भी बच निकले तो पुलिस तुम्हें फाँसी के फंदे तक पहुँचा देगी। तुम्हारे एक जुर्म का सबूत तो पुलिस के पास है ही। तुम कश्मीर पुलिस को धोखा देकर हवालात से भागे थे। उसके अलावा बहुत सी घटनाएँ ऐसी रही हैं जिनसे तुम्हारा सम्बन्ध रहा है और पुलिस के रिकार्ड में तुम्हारा नाम पहले भी कई जगह लिखा गया है। तुम्हारे बारे में पूछताछ करने के लिये पुलिस माला तक पहुँची है। परन्तु माला की तुम चिंता न करो। तुम्हारी मोहिनी उसके साथ है। मोहिनी न भी हो तो प्रेमलाल की शक्ति उसके साथ होगी। चूँकि वह दोनों शक्तियाँ कुछ समय के लिये तुम्हारी सहायता न कर पातीं इसलिए मुझे आना पड़ा।”

“और आप कौन हैं महाराज ?” मैंने असमंजस में पूछा।

“समय आते ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूँ। बड़े भाग्यशाली व्यक्ति हो जो कदम-कदम पर मौत से बचते आ रहे हो और यूँ न समझो कि तुम्हारा हिसाब साफ हो गया। वह बहुत लम्बा है बालक। तुम्हारी मंजिल, तुम्हारा उद्देश्य अभी बहुत दूर है और जब तुम्हारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा तो कोई पर्त तुम्हारे सामने न होगी। तुम हर चीज देख सकोगे।”
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