Romance संयोग का सुहाग

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Rohit Kapoor
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Romance संयोग का सुहाग

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संयोग का सुहाग

वर्मा परिवार पर तो जैसे गाज गिर गई हो - और क्यों न हो? बस कुछ ही घंटों में, हंसी ख़ुशी का माहौल जैसे मातम में बदल गया। विवाह के पंडाल में उपस्थित लोगों के चेहरों पर क्रोध, हास्य, अविश्वास और दुःख का मिला-जुला भाव स्पष्ट देखा जा सकता था।

हुआ कुछ यूँ कि मेरठ में रहने वाले वर्मा परिवार की बड़ी बेटी मीनाक्षी की शादी, मुरादाबाद के एक डिग्री कॉलेज में, प्रोफेसर के पद पर कार्यरत एक लड़के से कर दी गई थी। सगाई वाले दिन, वर्मा जी ने अपनी हैसियत से कहीं आगे बढ़-चढ़ कर होने वाले वर को एक मारुती स्विफ़्ट कार और सोने के पांच सिक्के दिए थे। दहेज़ को ले कर दोनों परिवारों में न जाने क्या कुछ तय हुआ था, लेकिन लड़के वाले सगाई के इस नज़राने से बहुत खुश होते हुए तो नजर नहीं आ रहे थे। मज़ेदार बात तो यह है कि सगाई के दौरान उन्होंने मीनाक्षी को एक जोड़ी सोने के कंगन, और एक मामूली सी अँगूठी ही दी थी।

सगाई समारोह से उठते हुए दूल्हे के परिवार वालों ने आख़िरकार बोल ही दिया कि अगर उन्हें कुछ नगदी मिल जाती तो काफी बेहतर होता। साथ ही साथ उन्होंने इस बात पर अपनी नाराज़गी भी दिखाई कि वर्मा जी ने सगाई समारोह में वर के साथ आए हुए मेहमानों को भेंट स्वरूप बस कपड़ों की जोड़ी ही दी। इस बात पर वर्मा जी ने कहा कि कुछ समय दें, जिससे वो नगदी का बंदोबस्त कर सकें। वर्मा जी के इस निवेदन पर वर पक्ष बिना किसी हील हुज्जत के चल तो दिए, लेकिन रहे वो सभी असंतुष्ट ही। धन का लालच एक बलवान वस्तु होता है। मानवता पर वह हमेशा ही भारी पड़ता है।

खैर, आज तो मीनाक्षी का विवाह होना था और वर्मा जी के घर ख़ुशियों का माहौल था। उन्होंने वाकई अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च कर डाला था अपनी प्यारी बेटी की शादी में। प्रोफेसर साहब की बारात देर रात करीब ग्यारह बजे उनकी चौखट पर जब आई, तब किसी को अंदाजा भी नहीं था कि पल भर में क्या से क्या हो जाएगा। बारात के शोर शराबे में वर्मा जी के समधी ने दस लाख रुपए दहेज़ में मांग लिए, और यह धमकी भी दे डाली कि दूल्हे के स्वागत में यदि लक्ष्मी का चढ़ावा न चढ़ा तो यह शादी तो नहीं होगी।

वर्मा जी ने उनको समझाने का भरसक प्रयास किया - कहा कि हाल फिलहाल दो लाख रुपए की व्यवस्था हो पाई है। उसको स्वीकार करें, और विवाह संपन्न हो जाने दें। बाकी की रकम धीरे धीरे वो भर देंगे, यह वायदा भी किया। लेकिन दहेज़ लोभियों ने उनकी एक न सुनी। मीनाक्षी के पिता ने अपने सीमित संसाधनों का हवाला देते हुए वर के पिता को मनाने की हज़ार प्रयत्न किए… यहाँ तक कि उनके पैर पर अपनी पगड़ी तक रख दी, परन्तु दहेज़ लोभियों ने उसे ठोकर मार दी। बस बात ही बात में अनुनय विनय, कहा-सुनी में बदल गया।

इतनी देर रात हो जाने के कारण कन्या पक्ष के लोगों की संख्या कम थी; लेकिन अपने आतिथेय के ऐसे अपमान को देख कर कुछ जोशीले लड़की-वालों ने दूल्हे और बारातियों के साथ मार-पीट कर डाली। किसी समझदार ने पास के पुलिस चौकी में खबर कर दी थी, इसलिए बात बहुत आगे बढ़ने से पहले ही पुलिस आ गई और दोनों पक्षों के कुछ समझदार लोगों को बुला कर समझौता कराने की कोशिश भी की। लेकिन दूल्हा और उसके परिजन बिलकुल नहीं माने। पुलिस ने भी हार कर दूल्हे और उसके समस्त परिजनों पर आईपीसी और दहेज़ एक्ट की विभिन्न धाराओं तहद रिपोर्ट दर्ज कर ली।

लेकिन इन सब बातों से वर्मा जी को भला क्या दिलासा मिलता?

वो बेचारे सीधे सादे सज्जन पुरुष थे। परिवार में कुल जमा चार सदस्य थे - वो स्वयं, उनकी धर्म-पत्नी, उनकी बड़ी संतान - पुत्री मीनाक्षी और छोटी संतान - पुत्र आदेश। वो एक सरकारी बैंक में काम करते थे, और कोई बहुत ऊंचा ओहदा नहीं था उनका। वो खुद तो आदर्शवादी थे और बाकी लोगों को भी अपने जैसा ही समझते थे। उन्होंने जब अपना विवाह किया, तो अपने पिता की उम्मीद के विपरीत दहेज़ का एक पैसा भी लेने से साफ़ मना कर दिया था। उनका मानना था कि दहेज़ प्रथा जैसी सामाजिक बुराईयां, युवकों में शिक्षा और रोजगार मुहैया होने से दूर होती जाएँगी। इसी आदर्शवाद के चलते, उन्होंने धन संचयन करने में कोई ख़ास प्रयत्न नहीं किया। अपना घर बनवाया, मीनाक्षी को ऍम. ए. तक की शिक्षा दिलाई, और आदेश को इंजीनियरिंग की। उनको लगता था कि बेटी का विवाह धूमधाम से कर देंगे, इसलिए बस उतना ही धन संचय कर सके। लेकिन जैसे जैसे उनकी अपनी बेटी मीनाक्षी के लिए एक लायक वर की तलाश आगे बढ़ने लगी, उनके आँखों पर बंधी आदर्शवाद की पट्टी मानों उनकी आँखों की ही किरकिरी बन गई। एक तो अपनी पढ़ी-लिखी बेटी के लिए कोई योग्य वर मिलना जैसे कोयले की खदान से हीरा ढूंढने जैसा काम साबित हो गया था, और दूसरी तरफ योग्य वरों की धन की लालसा ने उनको बेबस कर दिया। ऊपर से आदेश की पढ़ाई में खर्चा हो ही रहा था। लिहाज़ा, जब तक वो उसकी जिम्मेदारी से मुक्त हुए, मीनाक्षी तीस की हो चली।
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कोई पाँच छः वर्ष की ढुँढ़ाई के बाद, बड़ी मुश्किल से एक पढ़ा लिखा, और नौकरी में नियुक्त वर मिला था। लेकिन उसको बाँध कर रखने की आर्थिक क्षमता उनके अंदर नहीं थी। वर्मा जी अपनी प्यारी बिटिया के हाथ पीले न हो पाने की पीड़ा से तड़प उठे। कुछ रिश्तेदारों ने उन्हें ढांढस बंधाया - कुछ ने भगवान के हवाले से और कुछ ने पुलिस और न्यायपालिका के हवाले से। कुछ लोग आपस में खुसुर पुसुर भी कर रहे थे कि कुछ तो सम्हाल कर, सहेज कर रख लेते - जब लड़की पैदा करी है, तो खर्च तो करना ही पड़ेगा। लेकिन वर्मा जी और उनके परिवार वालों के लिए इन बातों का इस समय कोई अर्थ नहीं था। मीनाक्षी और श्रीमती वर्मा जी का रो रो कर बुरा हाल बन गया था। मीनाक्षी को इस बात का दुःख नहीं था कि उसकी शादी नहीं हो पाएगी… उसको दुःख इस बात का था कि उसके कारण उसके पिता का ऐसा सामाजिक अपमान हो गया था।

बड़ी मुश्किल से इस घर में शादी की ख़ुशियों का संयोग बना था। अब वहाँ मातम का माहौल था। कुछ देर पहले तक डीजे की आवाज़ पर लोग थिरक रहे थे, अब वहीं मरघट जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था। भले, सज्जन लोगों के कन्धों पर सामाजिक लज्जा का एक भारी बोझ होता है। वो उस बेताल सरीके लज्जा के बोझ को अपनी उम्र भर अपने कन्धों पर लादे लादे फिरते रहते हैं। वर्मा खानदान को इस बात का भय काटे खा रहा था कि अब उनकी लड़की का विवाह कैसे होगा। स्वयं मीनाक्षी इस समय विवाह नहीं, बल्कि आत्महत्या की सोच रही थी। उसके कारण उसके पापा को कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है… वो अपने पापा से अब आँखें कैसे मिला सकेगी? कैसे वो उनसे सामान्य रूप से हंस बोल सकेगी? इससे अच्छा था कि वो मर जाए। कम से कम पापा का बोझ तो कम होगा। लेकिन वो अगर आत्महत्या कर लेगी तो लोग उसके पापा को और ताने मारेंगे। और माँ तो अपने जीते जी मर जाएगी। नहीं नहीं - यह समय ऐसी मूर्खता का नहीं है। लज्जा और अपमान का यह विष उसको भी पीना ही पड़ेगा।

यह साल तो खुशियों का होने वाला था - आदेश की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई थी, और उसने छः महीने पहले ही नौकरी ज्वाइन करी थी। अगर मीनाक्षी की शादी हो जाती तो यह साल बस ख़ुशियों से भरा हुआ रहता। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है! सवेरे करीब पाँच बजे खबर आई कि पुलिस ने दहेज़ लोभियों से कार तो छुड़वा ली है, लेकिन सोने के वो पाँच सिक्के अभी तक बरामद नहीं हो सके।


आदेश और उसके इंजीनियरिंग के दोस्त इस समय घर की पहली मंज़िल पर बने उसके कमरे में बैठे हुए बीयर पी रहे थे, और वर पक्ष के लोगों को जम कर कोस रहे थे।

“मादर**, बीस हज़ार रुपए महीने का कमा कर वह भो**वाला अपने को क्या समझता है? इस तरह के गाँ* लोग यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं! सोचो! लालची, भिखमंगा भो**वाला!” आदेश ने ताव में आ कर कहा।

“सही कह रहा है भाई! साले को हवालात में नंगा कर के, उल्टा लटका कर उसकी गाँ* तोड़ देनी चाहिए पुलिस को!” नीरज ने सहमति जताई और सजा देने का तरीका भी बताया।

“भो**वाले की कोई बहन होती तो मालूम पड़ता! सही में ऐसे लालचियों का सही इलाज करना चाहिए। साले बहन** की डिग्री फाड़ के फेंक देनी चाहिए और गाँ* पर लात मार कर नौकरी से बे-इज़्ज़त कर के निकाल देना चाहिए।” संदीप ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये।

“साला, बीस हज़ार कमा कर खुद को मुरादाबाद का बादशाह समझने लगा है। हमारी दीदी निठल्ली बैठी है क्या! वो भी तो पढ़ा रही हैं। ऐसा तो नहीं है की बेकार बैठी हुई हैं। दस पंद्रह हज़ार रुपये महीने के घर तो लाती ही हैं!” नीरज बोला।

“उससे अधिक। डिग्री कॉलेज के लिए अप्लाई तो किया ही है! अगर हो गया, तो उस लं* के बाल जितना या उससे थोड़ा ही कम सैलरी मिलेगी उसको!” आदेश ने नीरज की बात का समर्थन किया।

“फिर भी साला इतना लालच है! भिखारी कहीं का! भो**वाला!” संदीप ने कहा।

“अरे, सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का पेट चीर रहा था भो**वाला!” अनुराग बोला।

“सोने के अंडे देने वाली है मेरी दीदी… पेट तो वो मादर** वो मेरे बाप का चीर रहा था। सही में, मन हो रहा है कि साले का खून कर दूँ!” आदेश बोला। ताव में आकर उसकी साँसें चढ़ने उतरने लगीं थीं।

“छोड़ न यार! इन सब बातों से क्या होगा?” समीर बहुत देर की चुप्पी के बाद बोला।

“तो क्या कहूँ? मादर** ने साला सारा मूड ऑफ कर दिया।”

“आई अंडरस्टैंड यार।”

“तू भी पी न भाई! सोचा था यारों के साथ अपनी बहन की शादी की ख़ुशी का जश्न मनाऊँगा। लेकिन देखो।” कहते कहते आदेश की आँखों से आँसू गिरने लगे। समीर ने आदेश के कंधे पर हाथ रख कर उसको ढाढ़स बंधाया। सभी दोस्तों में कुछ देर तक चुप्पी रही।

“अब क्या होगा?” कुछ देर बाद संदीप के मुँह से अनायास ही निकल गया।

“पता नहीं यार। पापा पिछले पाँच साल से दीदी के लिए रिश्ता ढूंढ रहे हैं। कुल मिला कर तीन ही ढंग के मिले अभी तक। एक लड़का रेलवे में जॉब करता था। उसको दस लाख और गाड़ी चाहिए थी। एक बढ़िया मेरिटोरियस लड़का मिला था - उस समय ऍम टेक की पढ़ाई कर रहा था। उसकी माँ की तबियत ठीक नहीं रहती थी, इसलिए उसके घरवाले उसकी शादी करना चाहते थे। उन लोगों ने पाँच लाख माँगा था। तब मेरी ही पढ़ाई चल रही थी, और पापा उसमें से कुछ निकाल नहीं पाए। अब सुना है कि वो जीई में काम कर रहा है। एक जो तीसरा है, वह इंजीनियर था। उसकी डिमांड हमारी औकात से कहीं अधिक थी। वो बीस लाख मांग रहा था। भो** वालों ने शादियों का व्यापार खोल दिया है मानो!”

“और चौथा ये?”

“हाँ! चौथा ये.. श्री श्री एक हज़ार एक भो**चो* भिखमंगा साहेब!”

“सारे ही भिखमंगे हैं भाई इनमें तो!”

“हाँ.. लेकिन मेरे बाप की बेइज़्ज़ती तो इस भो** वाले ने करी है। बाकियों ने नहीं!”

“यार! अपन लोग भी तो इंजीनियर हैं! हमको मालूम है कि एक इंजीनियर का रहन-सहन कैसा होता है। सब पता है कि वो कैसे रहते हैं। बाहर से लोग सोचते हैं कि उनको बहुत सारे पैसे मिलते हैं, लेकिन इंजीनियर लोग बचाते कितना है, यह तो हम सभी जानते हैं!”
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“इसीलिए तो भाई! इसीलिए तो साले हाथ में कटोरा लिए लड़की के बाप से भीख मांगते हैं!” आदेश के स्वर में लाचारी, गुस्सा और घृणा साफ़ सुनाई दे रही थी। सब दोस्त आदेश की बात सुन कर बहुत देर तक चुप बैठे रहे। आदेश ख़ामोशी से रो रहा था - मर्द अपना दर्द दिखाए भी तो कैसे? समीर ने सांत्वना देते हुए आदेश का हाथ पकड़ लिया।

“पता नहीं यार, दीदी की शादी अब भी हो पाएगी या नहीं!” अंततः आदेश ने ही चुप्पी तोड़ी, “पापा ने कितने साल तो ढूँढा उनके लिए मैच। ले दे कर इस कंगले से ही मैच मिला और अब वो भी…”

“हमारी बिरादरी में लोग वैसे भी बहुत गाँ* हैं। वैसे ही सालों के रेट्स इतने अधिक हैं। जैसे ही यह बात बाहर पहुँचेगी कि दीदी की शादी टूट गई है, वैसे ही कोई ढंग का रिश्ता मिलना लगभग इम्पॉसिबल हो जायेगा। तीस की हो गई है... कैसे होगी उसकी शादी!”

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सभी लोग बात कर ही रहे थे कि दरवाज़े पर एक आहट सी हुई। आदेश के पिता जी अंदर आए। बस कुछ घंटों पहले ही वो कितने खुश दिख रहे थे। उनका चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था। और अब, जैसे उनकी उम्र में दस साल जुड़ गए हों! उनको कमरे में आते देख आदेश सकते में आ गया।

“पापा? सॉरी पापा!”

“सॉरी मत बोलो बेटा। आई कैन अंडरस्टैंड! मैं पीता होता, तो मैं भी तुम्हारे साथ शामिल हो जाता। लेकिन इस समय मुझे मेरे बेटे की ज़रुरत है। यह सदमा बर्दाश्त करने की ताकत मुझ अकेले में नहीं है!” कहते हुए वर्मा जी फफक फफक कर रो पड़े। आदेश ने उनको गले से लगा लिया, और ख़ुद भी रोने लग गया। समीर ने दोनों को ही सांत्वना देते हुए गले से लगा लिया।

कुछ देर रोने बिलखने के बाद, जब हृदय की पीड़ा कुछ कम हुई, तो सभी फिर से साथ में बैठ गए। कुछ देर तक सभा में चुप्पी पसरी रही।

“आखिर क्या कमी होती है एक लड़की में, कि लड़की वाले दहेज़ देने पर मजबूर हो जाते हैं!” संदीप के मुँह से निकल गया।

“यही कमी होती है बेटा, कि वो लड़की होती है।” वर्मा जी एक लंबी सी साँस लेते हुए बोले, “बेटा अब तो मुझे लगता है कि बिना दहेज़ के कोई भी शादी हो ही नहीं सकती। दहेज़ लेना देना इतनी आम बात हो गई है! मैं सोचता था कि अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर, उनको अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दूँगा, तो उसके आगे की डगर वो खुद ही तलाश लेंगे। बस गलती यहाँ हो गई कि यही उम्मीद मैंने बाकी लोगों के बच्चों से भी लगा ली।”

एक पिता की लाचारी इस समय बोल रही थी, और सभी लड़के सुन रहे थे। वर्मा जी जैसे एक शून्य में देख रहे थे, और बोले जा रहे थे, “आप अपने आस पास देख लें, लोग बेटी को कितना पढ़ाते हैं? लोग बेटे को तो पढ़ाते हैं, लेकिन बेटियों को पढ़ाने में ढील दे देते हैं कि लड़कियों को बहुत पढ़ा लिखा कर क्या करना है? उसकी तो बस एक अच्छे से घर में शादी कर देनी है। जहाँ पर वो होपफुली सुखी रहेगी। अगर लड़का नहीं पड़ेगा तो फिर क्या करेगा? इसलिए लोग लड़के को पढ़ाने पर ज़ोर तो देते हैं, पर लड़कियों को नहीं। और जब लड़कियों के लिए दहेज़ भी तो उठाना है, तो बिना वजह के खर्च क्यों करने?”

“अगर हमारे देश में दहेज़ प्रथा न होती, तो आज लड़कियों को कोई भी हीन भावना से नहीं देखता। सब लोग लड़कियों को वैसे ही पढ़ाते, अपने जैसे लड़कों को पढ़ाते हैं। लड़कियाँ किसी भी स्तर पर लड़कों से पीछे न रह पातीं। लड़की के माँ बाप इस दहेज़ नामक जानवर से डरे हुए रहते हैं।”

वर्मा जी लगातार बोले जा रहे थे और सभी चुपचाप, स्तब्ध हो कर सुन रहे थे।

“चाहे दस हज़ार रुपया महीने की सैलरी हो, लेकिन लाखों की बातें करते हैं। सुन्दर बीवी चाहिए, इतने सारे पैसे दहेज़ में चाहिए! कैसी निराली किस्मत है! न लड़के का स्वभाव देखो, न उसका व्यवहार! वाह रे कलयुग! सच में, इस समय नौकरी में होना ही एक गुण है! और एकलौता गुण है। आजकल लड़कों को लोग बैंक डिपाजिट समझते हैं। लड़के की नौकरी लगी, तो डिपाजिट भुनाने का टाइम हो जाता है। लड़की वाले भी कुछ भी जाँच परख नहीं करते, कि क्या वह लड़का हमारी बेटी को खुश रख पाएगा या नहीं! बस पैसा दे दो और लड़के को ख़रीद लो!”

“मैं सोचता था कि जैसे जैसे हमारे समाज में शिक्षा और रोज़गार बढ़ेगा, दहेज़ की कुप्रथा ख़तम हो जाएगी! लेकिन हो उसके विपरीत रहा है। इस तरह की बातें आदर्शवादी बातें हमारे जैसे मिडिल क्लास फैमिली वाले करते तो हैं, लेकिन हमारी कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। दहेज़ मांगने का जो काम है वह अनपढ़ लोग नहीं, बल्कि यही पढ़े लिखे लोग अधिक करते हैं। जैसे ही टीचर, इंजीनियर या सरकारी पदों पर लड़के की नौकरी लगती है, वैसे ही उसका रेट लग जाता है - फलां का लड़का दहेज़ में दस लाख पाया है, तो मैं भी दस से कम नहीं लूँगा!”

“सही भी है! महँगाई है, और जब बिना कुछ किये इतना पैसा फ्री में मिल जाए, तो कौन मना करेगा? साथ ही साथ एक नौकरानी, घर का सब सामान, सब कुछ तो फ्री में आ जाता है!”

बहुत देर तक सभा में चुप्पी सधी रही। बियर पीने की सबकी इच्छा मर चुकी थी। आदेश के लगभग सभी दोस्त अब वहां से चले जाना चाहते थे। इतने भारी माहौल में कोई बैठे भी कैसे?

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“अंकल, एक बात बोलूँ? आप प्लीज बुरा मत मानिएगा।” समीर ने बहुत देर के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी।

“बुरा मानने को कुछ बचा नहीं है बेटे! बोलो!”

“अंकल जी... आदेश दोस्त... अगर आप लोग अलाऊ करें, तो मैं... तो मैं आपकी बेटी से शादी करना चाहूँगा!”

“क्या?” वर्मा जी, और आदेश दोनों एक साथ ही बोल पड़े!

समीर ने बस सर हिला कर हामी भरी।

वर्मा जी किंकर्त्तव्यविमूढ़ कुछ देर तक समीर को देखते रहे; यही दशा कमोवेश उसके सभी दोस्तों की भी थी। सभी मुँह बाए समीर को देख रहे थे मानो अचानक ही उसके सर पर सींग निकल आये हों। सबसे अधिक चकराया हुआ था आदेश - उसको कुछ सूझ नहीं रहा था कि वो क्या कहे!

समीर और आदेश इंजीनियरिंग के चार साल तक रूम-मेट्स रहे थे। दोनों एक दूसरे के परिवारों से मिल भी चुके थे। आखिरी बार जब समीर ने मीनाक्षी को देखा होगा, तो वो करीब दो ढाई साल पहले की बात रही होगी! आदेश को मालूम था कि समीर एक अच्छा लड़का है - मेहनती है - पढ़ने में भी, और शारीरिक तौर पर भी। उसको किसी भी तरह का ऐब नहीं था। कैंपस से ही दोनों को नौकरियाँ मिली थीं - समीर ने एक सरकारी कंपनी ज्वाइन करी थी। हाँलाकि उसकी सैलरी आदेश की सैलरी से बस थोड़ी सी ही कम थी - लेकिन समीर को कंपनी की तरफ से दो कमरे का मकान, असीमित मेडिकल सुरक्षा, और कई अन्य सुख सुविधाएँ कंपनी की ही तरफ से मिली हुई थीं, वो भी बिना किसी अतिरिक्त खर्च के। इस हिसाब से समीर आदेश से कोई दो गुणा से भी अधिक बचा लेता था।

यह सब बातें सोचते हुए आदेश को सूझा कि वो वाकई अपने दोस्त को अपनी दीदी के लिए एक उपयुक्त वर के विभिन्न पैमानों पर आंक रहा था।

“अबे क्या बोल रहा है यार? दीदी है वो तेरी!” वास्तविकता का ध्यान आते ही आदेश बोला।

“नहीं। मेरी मेरी दीदी नहीं, तुम्हारी दीदी है।”

फिर वो वर्मा जी की तरफ मुखातिब हो कर बोला, “अंकल जी, मैंने आदेश के मुँह से मीनाक्षी (मीनाक्षी का नाम लेते हुए समीर थोड़ा सा ठिठका) के बारे में बहुत सी बातें सुनी हैं। मुझे यकीन है कि मेरे लिए जो आइडियल मैच होता है, उन सभी पैरामीटर्स में मीनाक्षी बिलकुल ठीक बैठती है।”

“लेकिन बेटा, तुम उससे तो काफी छोटे हो।”

“क्या उम्र की बंदिश सिर्फ लड़कियों पर लगती है? जैसी कि दहेज़ की? बताइए?” समीर ने ब्रह्मास्त्र मारा।

“नहीं नहीं!” वर्मा जी इस अप्रत्याशित हमले से घबरा गए, “मेरी मीनाक्षी आदेश से आठ साल बड़ी है बेटे। तुम इतने दयालु हो, इसलिए मैं तुमसे कोई बात छुपाऊंगा नहीं! लेकिन तुमसे भी तो उतनी तो बड़ी होगी ही?”

“जी!” समीर ने इस तथ्य को कोई महत्त्व नहीं दिया।

“पापा, ये मुझसे एक साल छोटा है।”

वर्मा जी ने इस नए तथ्य को कुछ देर मन के तराजू में तौला, और फिर जाने दिया। उन्होंने दूसरी लय पकड़ी; ऐसी लय, जिसमें समीर को ऐसा न लगे कि उनको इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति है, “और फिर तुम्हारे माँ पिताजी से भी तो पूछना पड़ेगा।”

“मतलब आप मेरे प्रपोजल को कंसीडर कर रहे हैं?”

समीर की बात में दम तो बहुत था। जब इस तरह का प्रस्ताव आता है, तब किसी भी तरह की तार्किकता, एक बाप की विवशता के सामने बेकार साबित हो जाती है। वर्मा जी को मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। वो खुश होना चाहते थे, लेकिन अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं कर सकते थे। ऐसा करना असामयिक होता। अब वो बस यही चाहते थे कि उनकी प्यारी बिटिया की शादी शीघ्र नहीं, बल्कि अति-शीघ्र हो जाए।

“एक बार आपस में बात कर लो। अपने माता पिता से भी बात कर लो! एक ही दिन में इतने सारे सदमे बर्दाश्त करने की ताकत नहीं है मुझमें।” उन्होंने कहा, और कमरे से बाहर निकल गए।

उनके जाते ही आदेश ने समीर की शर्ट की कालर पकड़ कर कहा,

“क्यों बे? तू ये क्या कह दिया?”

“तुझको बुरा लगा क्या?”

समीर की बात पर आदेश सोच में पड़ गया - सच में, अगर यही रिश्ता वो लाता, और अगर समीर उसकी दीदी के उम्र के आस पास होता, तो क्या उसको ऐसा महसूस होता? समीर हर तरह से लायक वर है, कोई भी लड़की खुद को लकी मानेगी समीर से शादी कर के। तो उसकी दीदी क्यों नहीं? समीर की कालर से उसकी पकड़ ढीली पड़ गई।

“यार तू क्या सच में दीदी से शादी करेगा?”
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“तुझे क्या लगा कि मैं मज़ाक कर रहा हूँ?”

“नहीं, ऐसा तो नहीं लगा.. लेकिन तूने सोचा हुआ है? कहीं हम पर तरस खा कर तो...?”

“यार ये क्या बात कर दी तूने? तरस कैसा? और अगर तुमने मेरी शादी मीनाक्षी से करवा दी, तो यह तो मुझ पर एहसान होगा। मेरी ऐसी हैसियत नहीं, कि मैं तुम लोगो पर तरस खा सकूँ!”

समीर की बात इतनी गहरी थी कि आदेश भीतर तक ख़ुशी से काँप गया - उसने लपक कर अपने जिगरी दोस्त को गले से लगा लिया।

“दोस्त, आई होप, कि दीदी भी तुम्हारे प्रपोजल तो मान ले! अगर ऐसा हुआ तो आज बहुत ख़ुशी का दिन होगा। दिल ख़ुश कर दीत्ता तूने मेरे यार!”

उसके साथ साथ बाकी के दोस्त भी दोनों से ख़ुशी के मारे लिपट गए।

“अबे बस! बहुत इमोशनल हो गया आज! साला, अब ये सारी बीयर पीनी पड़ेगी हमको! और समीर, तुझे तो ये स्पेशल - प्रीमियम वाली पीनी पड़ेगी!”

“हा हा! हाँ ज़रूर!”

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वहाँ से जाने के बाद वर्मा जी पहले पंद्रह मिनट तक, किसी से बिना कुछ कहे टहल कदमी करते रहे; लेकिन फिर उससे ज्यादा उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने समीर के प्रपोज़ल का ज़िक्र अपनी धर्मपत्नी से किया। उन बेचारी की हालत भी वर्मा जी के जैसी थी - जैसे कैसे भी लड़की की शादी हो जाए, उसका घर बस जाए - अब इससे अधिक उन दोनों को ही कुछ भी नहीं चाहिए था। अंत में उन्होंने अपने पति से कहा कि अगर होने वाले समधियों से बात हो जाती तो बढ़िया रहता। बात ठीक थी; तो इस बार दोनों ही लोग वापस ऊपर के कमरे में पहुँचे और समीर से बोले,

“बेटे, तुम्हारे घर में बात हो जाती तो?”

“जी बिलकुल! मैंने आपसे बात करने के बाद घर में बात किया है। माई पेरेंट्स आर एक्साईटेड! वो भी आपसे बात करना चाहते हैं। रुकिए, मैं आपकी बात करवा देता हूँ।”

समीर ने अपने घर पर कॉल लगा कर वर्मा जी को मोबाइल थमा दिया। यह बात अब कम से कम एक घंटा चलनी थी।


“समीर, आज तू यहीं रुक जा! पापा ने कहा है कि दीदी से तुम्हारी बात करवाने को।”

“अगर शी इस नॉट कम्फ़र्टेबल, तो रहने दो।”

“नहीं यार! वो बात नहीं है। ऐसा न हो की शादी हो जाए, और तुम दोनों एकदम अजनबी जैसे रहो! इसलिए। हा हा। और भाई लोगो, तुम लोग भी रुक जाओ एक दो दिन! अपने भाई की शादी हो जाएगी लगता है। और तुम लोगों के बिना मज़ा तो बिलकुल भी नहीं आएगा।”



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