Adultery गुजारिश

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koushal
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Adultery गुजारिश

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गुजारिश

प्रस्तावना :-

मोहब्बत, इश्क, प्यार या जो भी नाम दो मैं तो बस इसे एक इबादत समझता हूँ. जिंदगी को लोगो ने अपने अपने शब्दों में ब्यान किया है , चाहे किसी अमीर की नजर हो या गरीब की सोच, एक चीज़ तो है दुनिया में जो हर इन्सान को एक दुसरे से जोडती है , जो इन्सान को अहसास करवाती है की वो इन्सान है, वो प्रेम है .

अक्सर लोग मुझसे पूछते है की ये प्रेम क्या होता है , और मेरे पास जवाब नहीं होता क्योंकि प्रेम की कोई परिभाषा है ही नहीं मीरा ने जो प्याला विष का पिया वो प्रेम है, कान्हा का जो इंतजार किया गोपियों ने वो इंतज़ार प्रेम है, श्याम की बंसी से जो टीस उठी किसी राधा के मन में बस वो प्रेम है . परन्तु ये उस दौर की बाते है जो बीत गया आज का दौर कुछ और है, अब प्रेम कुछ और है .

“वो अक्सर पूछती थी मुझसे , की कभी मेरी याद भी आती है , मैं बस इतना कह देता था की तू इस दिल से जाये तो तेरी याद आये. ”

और ये यादें भी कमबख्त कौन सा अपनी होती है , ये वो दुश्मन होती है जो अपना ही कलेजा चीरती है . खैर, ये तो बाते है और बातो का क्या असली मजा तो बस दिलरुबा की उस कातिल नजर का हैं जो ज़ख्म भी नहीं देती और क़त्ल कर जाती है . इश्क का एक अहसास ही सौ जन्मो के सुख से ज्यादा महत्वपूर्ण है , बारिश की पहली बूँद का असर कभी रेगिस्तान की तपती रेत से पूछिए, सावन में बरसते मेह में कभी भीग कर तो देखिये जनाब, या कभी उस खास की गलियों के वो चक्कर जो बस इस उम्मीद में की किसी जंगले किसी चौखट पर उसका दीदार हो जाये, मोल तो उस कसक का है जो दिल में तब उठती है जब वो संगदिल मुस्कुराते हुए पास से गुजर जाये.

मेरी हमेशा से कोशिश रही है की एक प्रेम कहानी लिख सकू तो स्वागत है आप सब का , उम्मीद है साथ बना रहे.

तुझे चुपचाप आने की जरुरत नहीं मेरी जान, तेरे आने की आहट मेरी धड़कने महसूस कर लेती है .



“बेपरवाह दिलबर दे दिल विच बेपरवाह दिलबर दे दिल विच तरस जरा एक दिल सी ओह तकड़ी डा ओह भी चक गठड़ी विच पाया. ”

इकतारा बजाते हुए वो बाबा गीत गा रहा रहा था , आसपास मजमा लगा था , लोग बाबा के साथ झूम रहे थे, मैं थोडा दूर पेड़ के तने से पीठ टिकाये देख रहा था . बाबा के इकतारे की तान उस बोझिल रात में दूर दूर तक गूँज रही थी , कशिश इतनी की सीधा दिल को टक्कर मारती थी ,

बाबा को बस मैं ही था जो बाबा कहता था वर्ना दुनिया उसे कभी पागाल, कभी चिश्ती न जाने क्या क्या कहती थी पर उसे भला क्या परवाह थी , आने जाने वालो को कभी कभी पत्थर मार देता था वो, कभी किसी को गालिया देता था पर कोई रात ऐसी नहीं थी जब वो गीत न गाता हो , मजार पर आने वाले लोग सब भूल कर बैठ जाते जब तक वो गाता, कोई कुछ दे जाता वो खा लेता.

वो कौन था , कहाँ से आया कोई नहीं जानता था जिसने भी उसे देखा था बस यही देखा था , ये रात भी ऐसी ही थी धीरे धीरे सब चले गए रह गए हम दोनों , वो अपनी जगह से मुझे देखता मैं अपनी जगह से .

“ओये मुसाफिरा , कब तक उस पेड़ के पास बैठा रहेगा , आ पास मेरे ” बाबा ने चिल्लाते हुए कहा

रोज वो ऐसे ही बुलाता था मुझे पर मैं कभी जाता नहीं था पर उस दिन मैं उसके पास गया .

“बैठ ” उसने चिलम सिल्गाते हुए कहा .

“क्यों बुलाया मुझे ” मैंने कहा

बाबा- कोई किसी को नहीं बुलाता सिवाय उसकी तक़दीर के , तेरे भी नसीब ने आवाज दी तुझे

मैं- सबको ऐसे ही पागल बनाते हो इन फालतू बातो से

बाबा के झुर्रियो भरे चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी उसने चिलम का कश लिया और बोला-”मुसाफिरा , मोहब्बतों का मौसम शुरू होने वाला है ये हवा देख , ये कहती है की एक नयी कहानी शुरू होने वाली है , तू बता तेरा क्या ख्याल है ”

मैं- मेरा क्या ख्याल होगा, और जैसा तूने कहा मुसाफिर, मैं तो मुसाफिर हूँ मुसाफिर के नसीब में मंजिल नहीं होती , होता है सफ़र .......

बाबा- मुसफिरा, ये जो लेख होते है न नसीबो के ये बड़े जालिम होते है , ये तारे देख ये गवाह है , उन कहानियो के जो बनी, न बनी , कुछ लोग कमजोर निकले कुछ जमाना ज़ालिम. पर जब तैनू देखता हु तो एक तीस होती है कलेजे में . अब देख, तू भी तो हर रात यहाँ ही आकर रुकता है . चा पिवेगा

मैं- ना , बस अब निकलूंगा रात बहुत हुई
koushal
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Re: गुजारिश

Post by koushal »

वापसी में मैं बस उसके बारे में सोचता रहा उसकी बाते , लोग शायद ठीक कहते थे की वो पागल है पर मुझे क्या लेना देना था उस से , बात को आई गयी किया मैंने , सुनकर भी क्या हो जाना था हम जैसे लोगो के लिए नहीं थी ये दुनिया.

घर आकर मै खाना खा ही रहा था की मेरा दोस्त करतार आ गया उसने मुझे बताया की गाँव में विडिओ आया है तो मेरी आँखों में चमक आ गयी .

“घरवालो को मालूम हुआ तो गुस्सा करेंगे” मैंने कहा

करतार- किसी को मालूम नहीं होगा, बस एक फिल्म देख कर वापिस आ जायेंगे ,सन्नी देओल की नयी फिल्म लाये है मैंने मालूम कर लिया है

मैं- सच

करतार- हाँ

मैं- ठीक है तू गली में मेरी राह देखना जैसे ही घरवाले सो जायेंगे मैं आता हु.

करीब घंटे भर बाद सब बत्तिया बुझ गयी , मैंने अपना खेस ओढा और धीरे से निकल गया पर करतार नहीं दिखा , धुंध बढ़ने लगी थी मैंने खेस को और कसा और जिस घर में विडियो लाये थे उस तरफ चल पड़ा. पहले से ही उनकी बैठक में बहुत लोग जमा थे पर जैसे तैसे मैं भी बैठ गया और फिल्म देखने लगा.

उन दिनों सनी देओल का बहुत क्रेज था गाँव में , लड़के उसके डायलाग बोलते थे ,फिल्म देखने में बहुत मजा आ रहा था पर ठन्डे फर्श पर बैठने से परेशानी हो रही थी , मेरी निगाहे करतार को देख रही थी पर वो चुतिया न जाने किस तरफ बैठा था .

“ठण्ड लग रही है ” मेरे पास बैठी औरत ने कहा

मैं उसका चेहरा तो नहीं देख पाया क्योंकि घूँघट था पर फिर भी बोला- हाँ काकी



“ले कम्बल में आ जा ” उसने कम्बल मेरी तरफ किया तो मैं सरक गया. अब ठीक लग रहा था , मैं उस से सटकर बैठा था तो मेरे पैर उसकी जांघ से रगड़ खाने लगे, सर्दी में बड़ा अच्छा लग रहा था , थोड़ी देर बीती फिर उसका हाथ मेरी जांघ पर आ गया . वो मेरी जांघ को सहलाने लगी ,

मेरा ध्यान फिल्म से हट कर कही और पहुँच गया था , बदन में ऐसी हरकत कभी पहले नहीं हुई थी , नवम्बर की ठण्ड में मैंने पसीने को रेंगता महसूस किया अपने तन पर तभी उस औरत का हाथ मेरे लिंग पर आ टिका, वो और कुछ करती की तभी बिजली चली गयी .

आस पास बैठे लोग जिनको फिल्म में मजा आ रहा था , निराश हो गए बिजली वालो को कोसने लगे, मैं भी उठने लगा ही था की वो फुसफुसाई

“बैठा रह ”

चूँकि हम पीछे ही पीछे बैठे थे और अँधेरा था , वो धीरे से बोली- मेरे पीछे आना

इस से पहले की कोई मोमबती, लैंप जलाता वो उठ कर बाहर को चल पड़ी , धडकते दिल से मैं उसके पीछे आया, गली में धुंध थी पर उसकी पाजेब की आवाज आ रही थी मैं कुछ कदम चला ही था की बिजली आ गयी . सब जगह रौशनी हो गयी .

पर मुझे अब फिल्म कहा देखनी थी , मैंने जैसे ही गली पार की एक चीख जैसे मेरे कान के पर्दों को हिला गयी और मेरी ही नहीं बल्कि औरो ने भी सुन ली होगी, मैंने अपने पीछे और लोगो को भी भागते देखा , गलियारे में एक लाश पड़ी थी , गाँव के लाला महिपाल के मुनीम की लाश , ...................
koushal
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Re: गुजारिश

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#2

रात अचानक से बहुत भारी हो गयी , ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था , छोटे मोटे झगडे मारपीट तो खैर चलती रहती थी पर ऐसे कभी किसी की लाश नहीं मिली थी, धीरे धीरे करके पूरा गाँव ही जमा हो गया था. एक दो लोगो ने मुनीम की लाश को देखा कोई जख्म नहीं, कोई मारपीट नहीं तो फिर ये मरा कैसे.

“लगता है हार्ट अटैक हो गया होगा ” किसी ने कहा

मुनीम की उम्र कोई ६५ के आस पास होगी तो ऐसा हो सकता था पर न जाने क्यों मुझे लग रहा था की उसे किसी ने मारा है . इस बखेड़े में एक बात छुट गयी थी की वो औरत कौन थी . और अब तो इतनी भीड़ हो गयी थी की कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल था .

अनुमान , हाँ पर इतना जरुर था की वो हो न हो मेरे ही मोहल्ले की थी की क्योंकि जिस गली में वो मुड़ी थी उधर हमारे ही घर थे . बाकि बची रात मैंने उस औरत के बारे में सोच सोच कर काटी की कौन हो सकती है वो , खैर सुबह मुझे करतार (कट्टु )मिला

मैं- साले कल कहाँ मरवा रहा था मैंने कितना ढूंढा तुझे

कट्टु- यार भाई, वो कल बापू साथ सो गया था तो मैं निकल नहीं पाया

मैं कट्टु को उस औरत के बारे में बताना चाहता था पर न जाने क्यों मैंने खुद को रोक लिया और हम बाते करते हुए जोहड़ की तरफ चल पड़े.

मैं- तुझे क्या लगता है मुनीम को हार्ट अटैक आया या किसी ने मारा उसे .

कट्टु- जो भी हुआ ठीक ही हुआ , साला मर गया लोगो के बही खाते में बहुत बढ़ा कर हिसाब लिखता था वो .

मैं- पुलिस को सुचना देनी चाहिए थी , वो तहकीकात करती

कट्टु- आजतक कभी पुलिस आई है क्या गाँव में , पंच लोग ही पुलिस बने फिरते है . वैसे माँ बता रही थी की तू आजकल मजार पर बहुत जाने लगा है . क्या करता है तू उधर ,

मैं- कुछ नहीं यार बस वैसे ही .

कट्टु- तुझे मालूम है न की अपने गाँव वाले उधर कम ही जाते है

मैं- यार अब इसमें क्या है , सब तो जाते है

कट्टु- चल छोड़, सुन मैं आज शहर जा रहा हूँ तू भी चल

मैं- ना रे

कट्टु- चल न , बस अड्डे होकर आयेंगे कोई नयी किताब आई होगी तो देख लेंगे .

मैं- फिर कभी

कट्टु- ठीक है मैं तो जाऊंगा ही सुन तेरी साइकिल ले जाऊ

मैं- ठीक है .

करतार के जान के बाद भी मैं बहुत देर तक जोहड़ पर बैठा रहा , घुटनों तक पैर पानी में दिए मैं बस उस औरत के बारे में सोचने लगा, काश वो मुनीम की लाश नहीं मिलती तो मेरे नसीब में एक चूत मिल गयी थी .

न जाने क्यों मेरे अन्दर एक तन्हाई थी, एक अजीब सी बेताबी ,एक उदासी मैं बस इन दिनों अकेला रहना चाहता था .

शायद इसका एक कारण चढ़ती जवानी भी हो सकती थी , जब इस उम्र में हार्मोन बदलते है , पर बस ऐसा ही था , एक बार फिर उस शाम मैं मजार के पास पहुँच गया था , पर आज वो बाबा इकतारा नहीं बजा रहा था , लोगो ने इंतज़ार किया पर उसका मूड नहीं हुआ . धीरे धीरे करके लोग जाने लगे. मैं उसी पेड़ के निचे बैठा था कम्बल ओढ़े.



“ओये मुसाफिरा ओथे क्यों बैठा है आज पास जरा ” बाबा ने आवाज दी .

मैं उसके पास गया .

मैं- आज इकतारा नहीं बजाया

बाबा- उसकी मर्जी, जब उसका मन हो बजे

मैं- आओ चा पीते है

बाबा- ठीक है .

मैंने चाय वाले को आवाज दी .

बाबा- कुछ परेशां लगता है मुसफिरा

मैं- मालूम नहीं , आजकल मेरा मन नहीं लगता कही भी ,

बाबा- होता है , भरोसा रख उस रब्ब पर . तेरे लिए भी कुछ लिखा होगा उसने .

मैंने बाबा को चाय का कप दिया और खुद भी चुस्की ली, बरसती ठण्ड में जैसे रूह को करार आ गया.

मैं- जानते हो बाबा मैं रोज यहाँ आकर क्यों बैठता हूँ .

बाबा- जानता हु मुसाफिरा भला मुझसे क्या छिपा है .

“तुमने देखा होगा उन्हें, वो आते थे न यहाँ ” मैंने कहा

बाबा- ठण्ड बढ़ रही है मुसफिरा घर जा .

मैं- तुम जानते थे न उन्हें

बाबा- सब जानते थे उन्हें, वो जो पेड़ हैं न जिसके निचे तो घंटो बैठता है तेरी माँ ने लगाया था . बड़ा शौक था उसे , कहती थी मैं रहू न रहू ये पेड़ जरुर रहेगा. बड़ी नेक थी वो.



अपनी माँ के बारे में सुन कर मेरी आँखों से आंसू गिर गए.

“ना मुसाफिरा न , इनको संभाल कर रख बड़े अनमोल है ये , रात गहरी हो रही है तू जा ” बाबा ने कहा

मैं- मुझे बताओ न मेरे माँ-बाप के बारे में बाबा

बाबा ने इकतारा उठाया और बजाने ;लगा. आंसू उसकी सफ़ेद दाढ़ी में कही खो गए.

ठण्ड बहुत बढ़ गयी थी , खेत पर पहुँच कर मैंने अलाव जलाया तो कुछ राहत मिली , मैंने पानी की मोटर चलाई और खेत में पहुँच गया ,, आज बिजली पूरी रात आने वाली थी , सरसों में पानी लगाना था . जैसे ही पानी आया मेरे पैर सुन्न से हो गए. ऐसा नहीं था की खेतो पर काम करने वाले नहीं थे, लोग काम करते भी थे पर न जाने क्यों मुझे इस मिटटी से बड़ा लगाव था .

बरसती ओस में भीगते हुए मैं पानी की लाइन बदलते हुए दूर अपनी झोपडी के पास जलते अलाव को देख रहा था , हौले से जलती आंच इस अँधेरी रात में बड़ी खूबसूरत लग रही थी . मैं पानी की लाइन बदल कर कस्सी उठाये अलाव की तरफ बढ़ ही रहा था की “छन छन ” की तेज आवाज ने मेरा ध्यान खींच लिया .

पाजेब की आवाज थी ये इतना समझ गया था , पर इस समय इस उजाड़ में कौन औरत आएगी,

“कोई है क्या ” मैंने आवाज दी .

कोई जवाब नहीं आया . आई तो बस पाजेब की आवाज .
koushal
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Re: गुजारिश

Post by koushal »

#3

“कौन है , सामने आओ ” इस बार मैं जोर से चीख पड़ा पर कोई जवाब नहीं आया, ऐसा कभी नहीं हुआ था , अक्सर जानवर तो आ निकलते थे इस ओर , रात को औरते भी आती थी पर ऐसा नहीं होता था , कोई था तो जवाब देना चाहिए न , मैंने दो चार बार और आवाज दी पर वही हाल.

“माँ चुदा अपनी ” मेरे मुह से गाली निकली मैंने कस्सी को मिटटी के डोले पर रखा और झोपड़े की तरफ चल पड़ा, ठंड से पैर सुन्न पड़ गए थे , मैं अलाव के पास बैठ कर हाथ पाँव सेंकने लगा. गजब की राहत मिली, जलती लकड़ी जब टूटती तो वो कड कड की आवाज बड़ी मीठी लगती थी.

कुछ देर मैं अलाव के पास बैठा रहा, पर ये रात यूँ ही नहीं गुजर जानी थी , वो कहते है न की जब किसी कहानी की शुरुआत होती है तो बस अचानक से हो जाती है ये रात भी कुछ ऐसी ही थी . मैं वापिस लाइन पर जा ही रहा था की बिजली चली गयी ,

“इसे भी अभी जाना था ” बिजली के बहाने मैंने खुद को कोसा

लालटेन जलाई ही थी की मेरे कान के परदे बुरी तरह से हिल गए, चीख थी वो किसी औरत की , इस बियाबान, उजाड़ में पहले पायल की आवाज अब ये चीख,एक पल को तो खौफ से लालटेन गिर ही गयी जैसे हाथ से

“कौन है सामने क्यों नहीं आता ” लाठी उठाते हुए चिलाया मैं

वो चीख मेरे खेत के पास रस्ते की तरफ से आ रही थी , मैं दौड़कर उस तरह गया पर रास्ता पूरी तरह से शांत था, बेशक हवा सरसरा रही थी पर फिर भी ख़ामोशी थी. कोई और मुझे ऐसे बीच रस्ते पर लालटेन लिए देखता तो घबरा जाता इतनी रात को पर फ़िलहाल मेरी हालत ही अजीब थी .

कुछ दूर और आगे तक आगे जाके देखा मैंने कोई नहीं था , क्या सच में कोई नहीं था , हाँ मुझे तो बेशक ऐसे ही लगा था , बस एक पल के लिए ही क्योंकि अँधेरे से भागते हुए की मुझसे टकरा गया था . मेरे सीने से आ लगा था कोई .

“बचा लो मुझे , ” सुबकते हुए उसने कहा

मैंने उसे खुद से अलग किया, लालटेन ऊँची की अँधेरी रात में उसे जो लालटेन की लौ में देखा, बस देखता ही रह गया . वो सांवला चेहरा पसीने से भीगा , माथे पर चमकता वो टीका , जैसे सर्दी में डूबता सूरज वैसी लालिमा थी उस चेहरे में, बस ठगा सा रह गया मैं .

“बचा लो मुझे ” उसने कहा मुझसे

मैं- किस से , कौन हो तुम और इतनी रात को यहाँ कैसे

एक साँस में तमाम सवाल पूछ डाले मैंने .

“वो लोग मेरे पीछे है ” उसने घबराई आवाज में कहा

मैं- कौन लोग.

“बब्बन के लोग ” उसने जवाब दिया

बब्बन इस इलाके का एक बदमाश था .

मैं- मेरे साथ आ.

मैंने लालटेन बुझा दी और उसे अपने साथ झोपडी पर ले आया .

मैं- बैठ जा, भरोसा रख महफूज़ है तू.

मैंने उसे कम्बल दिया - ओढ़ ले जाड़ा बहुत है .

अलाव की रौशनी में बड़ी प्यारी लग रही थी वो ,

मैं- इतनी रात को कहाँ घूम रही थी तू , जानती है न सुरक्षित नहीं है इस इलाके में भटकना

वो- मेरे बापू जमींदारा के खेतो पर काम करते है , आज उनकी तबियत थोड़ी ख़राब थी और बिजली कभी सरा था तो मज़बूरी में मुझे ही पानी देने आना पड़ा, मैं अपने काम में लगी थी की तभी ये गुंडे उस तरफ आये, खेत के पास बैठ कर दारू पी रहेथे की उनकी नजर मुझ पर पड़ी , मैं इस तरफ भाग आई .

मैं- कौन सी आफत आ जानी थी एक दिन बाद पानी लगा देते

वो- हमारे खेत होते तो कर भी लेते, जमींदार की गुलामी करते है कर्जे के बोझ से दबे पड़े है न

मैंने उसकी बात में छिपी मज़बूरी को महसूस किया .

“चाय पीयेगी ” पूछा मैंने

वो- न

मैं- अरे पी ले, राहत मिलेगी तुझे, वैसे अच्छी चाय बनाता हु .

उसने सर हिला दिया , मैंने अलाव की एक लकड़ी ली और चूल्हा सुलगा दिया. कुछ देर बाद हम चुसकिया ले रहे थे .

बरसती ओस के बीच एक मंद पड़ चुके अलाव के पास बैठे हम दोनों चाय की चुसकिया भर रहे थे , ना वो कुछ बोल रही थी न मैं. कभी वो मुझे देखती कभी मैं उसे देखता . इसी देखा देखि में न जाने कब मेरी आँख लग गयी .

“उठ उठ, अरे उठ न ”

मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कट्टु मुझे जक्झोर रहा है

मैं- क्या हुआ बे

वो- भाई उठ जल्दी

मैं हडबडा गया , अपनी हालत पर गौर किया तो पाया मैं अलाव के पास पड़ा था, मेरे बदन पर कम्बल था जो मैंने उस लड़की को दिया था , वो लड़की उसका ख्याल आया तो फट से मेरे होश काबू आ गए, मैं झोपडी से बाहर आया उसे देखा पर सिर्फ मैं था और कट्टु,

“कहाँ गयी ” मैंने अपने आप से कहा .

कट्टु- कुछ कहा भाई तूने,और ये तू जमीं पर क्यों सोया था ,

मैं- कुछ नहीं

कट्टु- बापू ने तुझे अभी बुलाया है

मैं- किसलिए

कट्टु- मालूम नहीं

मैं- चल फिर

मैं और करतार घर पहुँच गए.

कट्टु का बाप विक्रम मेरा चाचा लगता था रिश्ते में , और सच कहूँ तो बाप से बढ़कर था मेरे लिए, सब्जी का बड़ा व्यापर था उसका

मैं- बुलाया चाचा आपने

विक्रम- आओ बेटे, वो जो हमने अंगूर बेचे थे न पिछले सीजन में शराब वालो को उसके पैसे आ गए है ,

चाचा ने बक्से से गद्दिया निकाली और मेरे पास रख दी .

“मैं क्या करू इनका ” मैंने कहा

विक्रम- तुम्हारे ही है बेटे,

मैं- आजतक आप ही सँभालते हो न सब , रखो आप

विक्रम- अब तुम बड़े हो रहे हो बेटे, तुम्हे मालूम होना चाहिए तुम्हारी विरासत के बारे में

मैं- मुझे नहीं जरुरत

मैंने कहा और खड़ा हुआ जाने को

विक्रम- तुम्हारी काकी कह रही थी की तुम आजकल खाना कम खाते हो , कई बार तो आते भी नहीं कोई परेशानी है क्या

मैं- ऐसी कोई बात नहीं दरअसल मैं थोडा इधर उधर हो ता हूँ तू बाहर खा लेता हूँ .

मैं वहां से घर आ गया पर चैन नहीं था आँखों में बस उस लड़की की सूरत थी , बार बार जेहन में वो ही आ रही थी

कान में बस ये शब्द गूँज रहे थे “मौसम बदल रहा है ”
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Re: गुजारिश

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#4

तीन चार दिन गुजर गए थे मैं बस अपने आप में गुम था , आधी आधी रात मैं उस पेड़ के निचे बैठा रहता था जिसे मेरी माँ ने लगाया था .` अपने खाली घर में मैं हमेशा से ही मेरे माँ-बाप की निशानिया तलाशता था पर इस घर में कुछ नहीं था सिवाय मेरे. ऐसा नहीं था की वो मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ कर गए थे, बैंक में लाखो रूपये , न जाने कितने बीघा जमीन , फलो के बाग़ जिनसे हर साल खूब पैसे आते थे , पर परिवार के नाम पर बस ये खाली मकान था या फिर विक्रम काका जो मेरे पिता के बचपन के दोस्त थे.

उसके आलावा मेरे सगे चाचा-ताऊ जिन्होंने शायद मेरे पैदा होने से पहले ही नाता तोड़ लिया था . मैं उन्हें जानता था पहचानता था पर बस दूर से ही कभी रस्ते में मुलाकात हुई भी तो उन्होंने देखा-अन्धेखा कर दिया. कहने को तो फर्क नहीं पड़ता था पर असल में फर्क पडता था इस बड़े से घर में मैं अकेला, कभी करतार मेरे पास सो जाता कभी नहीं .

कितने मौसम मैंने अकेलेपन में , तन्हाई में काट दिए, हर होली, दिवाली पर जब मैं अडोस-पड़ोस के लोगो को अपने परिवारों के साथ खुशिया मानते देखता मैं किसी कोने में बैठ कर रोता. पर शायद यही नियति थी मुझ बदनसीब की.

उस दोपहर मैं अपने खेत की मुंडेर पर बैठा था की लाला महिपाल की गाड़ी उधर से गुजरी , उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वो मेरे पास आया .

“तो क्या सोचा तुमने देव ” लाला ने कहा

मैं- कुछ नहीं , मेरा जवाब तुम्हे पता है लाला

लाला- देखो देव, तुम भी जानते हो इतनी बड़ी जायदाद तुम्हारे बस की नहीं है संभालनी ये नहर के पास वाली जमीन, मेरी जमीन के साथ लगती है , मेरे काम आ जाएगी , और फिर मैं तुम्हे बढ़िया कीमत दे रहा हूँ

मैं- लालाजी, मेरे पास मेरे बाप की बस यही निशानी है मैं कह चूका हूँ

लाला- देखो देव, मुझे बार बार कहने की आदत नहीं है जो मुझे पसंद होता है वो मैं हासिल कर ही लेता हूँ ,

मैं- कोशिश कर लो लाला,

लाला ने अपना चश्मा उतार कर मुझे देखा और फिर वापिस मुड गया .

मैं भी घर की तरफ चल दिया की रस्ते में मुझे करतार मिल गया .

कट्टु- भाई सुन जबसे तूने दाखिला लिया है एक बार भी कालेज नहीं गया है तू , कल तुझे जरुर चलना होगा

मैं- ठीक है . कल चलता हूँ , तूने वो टेलर से मालूम किया क्या मेरे नए कपडे सिल दिए

कट्टु- हफ्ते भर पहले ही मैं ले आया था और तुझे बता भी दिया था , वैसे आजकल न जाने तेरा ध्यान कहाँ रहता है .

मैं- कुछ नहीं यार ,तू घर चल मैं आता हु

कट्टु- कहाँ जा रहा है

मैं- बस आता हूँ थोड़ी देर में .

कट्टु से अलग होकर मैं मजार की तरफ चल पड़ा.वैसे तो मैं शाम को ही जाता था पर आज दोपहर को ही चल दिया, न जाने क्यों जबसे मालूम हुआ था की मेरे माँ-बाप इधर आते थे मेरा मन बार बार यही आने को करता था पर शायद आज कोई और बात थी , पर क्या ये खास बात थी .

जब मैं वहां पहुंचा तो कोई नहीं था , वो बाबा भी नहीं . बेशक दोपहर का समय था पर फिर भी ठण्ड गजब थी , शयद इधर पेड़ पौधे ज्यादा होने की वजह से. थोड़ी प्यास से लग रही थी तो मैं नलके के पास जाने ही लगा था की मेरी नजर अन्दर पड़ी.



मैंने उसे देखा ,आँखे बंद किये हाथ में एक माला लिए वो शायद कुछ पढ़ रही थी , ये वो लड़की ही थी जो उस रात खेत पर मिली थी . सर पर चुन्नी , पीला सूट उसके सांवले रंग पर बड़ा खिल रहा था . उसे देखा तो मैं प्यास भूल गया , लगा इबादत में वो थी दुआ मेरी कबूल हो गयी .

बस उसे ही देखता रहा , कुछ देर बाद उसने अपनी आँखे खोली उसने मुझे देखा मैंने उसे देखा.

वो बाहर आई .

मैं- कैसी हो

वो- ठीक हु , तुम

मैं- पहले से बेहतर

उसने मेरे हाथ में प्रसाद दिया .

मैं- उस दिन बिना बताये चली गयी

वो- तुम सो रहे थे मैंने जगाना ठीक नहीं समझा

वो पौधों को पानी देने लगी

मैं- मदद करू

वो- ठीक है

मैंने नलकी पकड़ ली और उसके साथ हो लिया .

मैं- बुरा न मानो तो एक बात कहूँ

वो बेशक

मैं- तुम्हे न जाने कैसा लगेगा पर उस मुलाकात के बाद मेरे जेहन में ये चेहरा ही आता है

वो- भला क्यों

मैं- तुम बताओ

वो- ख्याल तुम्हारे और सवाल मुझसे

मैं- चा पियोगी, ये चायवाला बहुत अच्छी चाय बनाता है

वो- मुझे दूध पसंद है . पर तुम कहते हो तो पी लुंगी वैसे भी ठंडी बढ़ सी गयी है .

मैं दौड़ कर गया और चाय ले आया. हम दिवार के पास बैठ गए.

वो- नाम क्या है तुम्हारा

मैं- देव,

वो- अच्छा नाम है . मैं रूपा

मैं- रूपा, बड़ा सुन्दर नाम है

वो- पर मैं सुन्दर नहीं हूँ

मैं- किसने कहा तुमसे

वो- सब कहते है

मैं- गलत कहते है वो लोग .

वो मुस्कुरा पड़ी. दिल तो चाहता था की ढेरो बाते करू उसके साथ पर शब्द जैसे खत्म हो गए थे कुछ देर बाद वो जाने को उठ खड़ी हुई . दिल उसे रोकना चाहता था

मैं- क्या हम फिर मिल सकते है

वो- तक़दीर में होगा तो जरुर .

मैंने सर हिलाया. वो अपने रस्ते बढ़ गयी कुछ दूर जाकर वो पलटी और बोली- मैं हर सोमवार यहाँ आती हु .

जाते जाते जो इशारा कर गयी थी वो दिल झूम उठा था . मेरी नजर उस पेड़ पर पड़ी लगा की वो भी झूम रहा था . वापसी में भूख सी लग आई तो मैं करतार के घर की तरफ चल पड़ा. दरवाजा खुला था मैं सीधा अन्दर गया तो मुझे आवाजे आई, सरोज काकी की .

मैं उसके कमरे की तरफ बढ़ा , खुली खिड़की के पास से गुजरते हुए मेरी नजर अन्दर गयी और मैंने जो देखा , मेरी तो आंखे ही बाहर आ गयी .
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