लव स्टोरी / राजवंश
“दो हजार से...शो...” राज ने सामने वाले खिलाड़ी की आंखों में देखते हुए कहा।
“दो हैं किधर?” सामने बैठा खिलाड़ी आंख मारकर मुस्कराया।
“अभी मंगवाए देता हूं...मरा क्यों जाता है?”
“उस्ताद यह जुआ है...जुए में तो बाप-बेटे भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते...इसमें उधार का धंधा नहीं चलता।”
“बड़ा अधीर है यार!” राज मुस्कराया, “दस हजार जीतकर भी तेरा पेट नहीं भरा।”
“भिखारी की झोली है...जितनी भरो थोड़ी है....”
इस वाक्य पर इर्द-गिर्द बैठे सभी व्यक्तियों ने ठहाका लगाया। राज भी हंसने लगा। अनिल ने भी जेब से बटुआ निकालते हुए कहा, “ले मेरे राजकुमार! अपने पास तो हजार में से पांच सौ ही बच रहे हैं....”
पांच सौ के नोट अनिल ने राज के सामने ऐसे फेंक दिए जैसे अपनी ही जेब में रखे हों। राज ने स्वयं अपना पर्स खोला और बोला, “ले सात सौ मेरे पर्स में से भी निकल आए।”
“साढ़े तीन सौ इधर भी हैं...” कुमुद ने मेज पर कुछ नोट डाल दिए।
“तो क्या साढ़े चार सौ मेरे पास नहीं निकलेंगे अपने राजकुमार के लिए,” धर्मचन्द ने अपनी जेब में हाथ डालकर सौ-सौ के पांच नोट मेज पर रखकर ढेर में से दस-दस के पांच नोट उठा लिए।
राज ने असावधानी से सब नोट इकट्ठे किए और सामने डालता हुआ फकीरचन्द से बोला, “ले बे फकीरे...साले दो हजार के लिए भरोसा नहीं कर रहा था...अरे, मेरे इतने मित्र हैं तो मुझे क्या चिन्ता...शो कर दे अब...”
फकीरचन्द ने ठहाका लगाकर, अपनी जांघ खुजाई और बोला‒
“शो कराने के बाद तुम सब धन उठा लेना राजकुमार। यह खेल का नियम होता है...एक-दूसरे के सामने डटे हुए खेल में नम्र व्यवहार नहीं चलता...खेल के बाद हारे हुए और जीते हुए एक-दूसरे के गले में बांहें डालकर चलते हैं...तू तो वैसे भी अपना यार...मित्र है...शो करा कर हार भी जाए तो पूरे पैसा उठा लेना।”
“तो शो कर दे ना...” राज सिगरेट होंठों से लगाता हुआ बोला, “देर क्यों कर रहा है?”
इसी समय अनिल ने जेब से लाइटर निकालकर राज की सिगरेट सुलगाई और फकीरचन्द ने पत्ते मेज पर डालते हुए कहा‒
“...लो तीन बादशाह...”
राज ने एक लम्बी सांस ली...मुस्कराकर बोला, “जीत गया तू...इधर सबसे बड़ा गुलाम है...सत्ता और अट्ठा है...”
फकीरचन्द ने ठहाका लगाया और नोट अपनी ओर समेट लिए। राज के चेहरे पर हल्का-सा भी किसी चिंता या खेद का चिन्ह न था। उसने सिगरेट का कश खींचा और मुस्कराकर उधर देखने लगा जिधर संध्या खड़ी हुई मुस्करा रही थी। उसकी मुस्कराहट में भी एक शिकायत थी। राज सिगरेट होंठों से निकालकर मसलता हुआ बोला, “अच्छा यारो...तुम खेल जारी रखो...मैं जरा अपनी रूठी हुई तकदीर को मना लूं...”
“मनाओ यार! अवश्य मनाओ...” अनिल ठंडी सांस लेकर बोला, “ऐसी सुन्दर तकदीर किसको मिलती है?”
राज सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल कर उठ गया। संध्या ने उसे अपनी ओर आते देखा तो क्रोधित मुद्रा में कंधों को झटककर आगे बढ़ गई। राज ने कंधे को सिकोड़कर ढीला छोड़ते हुए पैकेट से दूसरा सिगरेट निकाला और उसे होंठों में दबा लिया। फकीरचन्द ने झट उठकर लाइटर जलाया और इसी समय उसकी झोली से कुछ पत्ते सरककर नीचे गिर गए। राज ने चौंककर पत्तों की ओर देखा... दहला, दुक्की और चौका था। अचानक राज के नथुने क्रोध से फूल गए और आंखें अंगारे उगलने लगीं। फकीरचन्द ने घबराकर पत्तों की ओर देखा...और उसी क्षण लड़खड़ा कर कुर्सी समेत पीछे उलट गया। राज का उठा हाथ जोर से उसके गाल पर पड़ा।
“बेईमान...कमीने...निर्लज्ज...” राज बड़बड़ाया।
“क्या हुआ प्रिंस?” अनिल तेजी से राज की ओर बढ़ा।
“क्या बात हो गई?” धर्मचन्द ने घबराकर कहा।
राज दोनों हाथ मेज पर टेक कर उछला और दूसरी ओर कूद गया। उसने फकीरचन्द को कमीज के गिरेबान से पकड़कर ऊपर उठाया और एक हाथ से तड़ातड़ उसके गालों पर चांटे जड़ता हुआ बोला, “लहू पी जाऊँगा तेरा...मुझे कपटी, कमीने, बेईमानों से घृणा है...”
“मार लो यार! मार लो...” फकीरचन्द अपने होंठ का लहू पोंछकर मुस्कराया, “दोस्त दोस्त के हाथों ही पिटता है।”
“चलो छोड़ो प्रिंस!” अनिल राज के कंधे पर हाथ रखकर बोला, “दोस्त ही तो है...क्षमा कर दो...।”