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Romance लव स्टोरी

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rajsharma
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Romance लव स्टोरी

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लव स्टोरी / राजवंश

“दो हजार से...शो...” राज ने सामने वाले खिलाड़ी की आंखों में देखते हुए कहा।

“दो हैं किधर?” सामने बैठा खिलाड़ी आंख मारकर मुस्कराया।

“अभी मंगवाए देता हूं...मरा क्यों जाता है?”

“उस्ताद यह जुआ है...जुए में तो बाप-बेटे भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते...इसमें उधार का धंधा नहीं चलता।”

“बड़ा अधीर है यार!” राज मुस्कराया, “दस हजार जीतकर भी तेरा पेट नहीं भरा।”

“भिखारी की झोली है...जितनी भरो थोड़ी है....”

इस वाक्य पर इर्द-गिर्द बैठे सभी व्यक्तियों ने ठहाका लगाया। राज भी हंसने लगा। अनिल ने भी जेब से बटुआ निकालते हुए कहा, “ले मेरे राजकुमार! अपने पास तो हजार में से पांच सौ ही बच रहे हैं....”

पांच सौ के नोट अनिल ने राज के सामने ऐसे फेंक दिए जैसे अपनी ही जेब में रखे हों। राज ने स्वयं अपना पर्स खोला और बोला, “ले सात सौ मेरे पर्स में से भी निकल आए।”

“साढ़े तीन सौ इधर भी हैं...” कुमुद ने मेज पर कुछ नोट डाल दिए।

“तो क्या साढ़े चार सौ मेरे पास नहीं निकलेंगे अपने राजकुमार के लिए,” धर्मचन्द ने अपनी जेब में हाथ डालकर सौ-सौ के पांच नोट मेज पर रखकर ढेर में से दस-दस के पांच नोट उठा लिए।

राज ने असावधानी से सब नोट इकट्ठे किए और सामने डालता हुआ फकीरचन्द से बोला, “ले बे फकीरे...साले दो हजार के लिए भरोसा नहीं कर रहा था...अरे, मेरे इतने मित्र हैं तो मुझे क्या चिन्ता...शो कर दे अब...”

फकीरचन्द ने ठहाका लगाकर, अपनी जांघ खुजाई और बोला‒
“शो कराने के बाद तुम सब धन उठा लेना राजकुमार। यह खेल का नियम होता है...एक-दूसरे के सामने डटे हुए खेल में नम्र व्यवहार नहीं चलता...खेल के बाद हारे हुए और जीते हुए एक-दूसरे के गले में बांहें डालकर चलते हैं...तू तो वैसे भी अपना यार...मित्र है...शो करा कर हार भी जाए तो पूरे पैसा उठा लेना।”

“तो शो कर दे ना...” राज सिगरेट होंठों से लगाता हुआ बोला, “देर क्यों कर रहा है?”

इसी समय अनिल ने जेब से लाइटर निकालकर राज की सिगरेट सुलगाई और फकीरचन्द ने पत्ते मेज पर डालते हुए कहा‒
“...लो तीन बादशाह...”

राज ने एक लम्बी सांस ली...मुस्कराकर बोला, “जीत गया तू...इधर सबसे बड़ा गुलाम है...सत्ता और अट्ठा है...”

फकीरचन्द ने ठहाका लगाया और नोट अपनी ओर समेट लिए। राज के चेहरे पर हल्का-सा भी किसी चिंता या खेद का चिन्ह न था। उसने सिगरेट का कश खींचा और मुस्कराकर उधर देखने लगा जिधर संध्या खड़ी हुई मुस्करा रही थी। उसकी मुस्कराहट में भी एक शिकायत थी। राज सिगरेट होंठों से निकालकर मसलता हुआ बोला, “अच्छा यारो...तुम खेल जारी रखो...मैं जरा अपनी रूठी हुई तकदीर को मना लूं...”

“मनाओ यार! अवश्य मनाओ...” अनिल ठंडी सांस लेकर बोला, “ऐसी सुन्दर तकदीर किसको मिलती है?”

राज सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल कर उठ गया। संध्या ने उसे अपनी ओर आते देखा तो क्रोधित मुद्रा में कंधों को झटककर आगे बढ़ गई। राज ने कंधे को सिकोड़कर ढीला छोड़ते हुए पैकेट से दूसरा सिगरेट निकाला और उसे होंठों में दबा लिया। फकीरचन्द ने झट उठकर लाइटर जलाया और इसी समय उसकी झोली से कुछ पत्ते सरककर नीचे गिर गए। राज ने चौंककर पत्तों की ओर देखा... दहला, दुक्की और चौका था। अचानक राज के नथुने क्रोध से फूल गए और आंखें अंगारे उगलने लगीं। फकीरचन्द ने घबराकर पत्तों की ओर देखा...और उसी क्षण लड़खड़ा कर कुर्सी समेत पीछे उलट गया। राज का उठा हाथ जोर से उसके गाल पर पड़ा।

“बेईमान...कमीने...निर्लज्ज...” राज बड़बड़ाया।

“क्या हुआ प्रिंस?” अनिल तेजी से राज की ओर बढ़ा।

“क्या बात हो गई?” धर्मचन्द ने घबराकर कहा।

राज दोनों हाथ मेज पर टेक कर उछला और दूसरी ओर कूद गया। उसने फकीरचन्द को कमीज के गिरेबान से पकड़कर ऊपर उठाया और एक हाथ से तड़ातड़ उसके गालों पर चांटे जड़ता हुआ बोला, “लहू पी जाऊँगा तेरा...मुझे कपटी, कमीने, बेईमानों से घृणा है...”

“मार लो यार! मार लो...” फकीरचन्द अपने होंठ का लहू पोंछकर मुस्कराया, “दोस्त दोस्त के हाथों ही पिटता है।”

“चलो छोड़ो प्रिंस!” अनिल राज के कंधे पर हाथ रखकर बोला, “दोस्त ही तो है...क्षमा कर दो...।”
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी / राजवंश

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“जाने दो राज!” धर्मचन्द ने राज के कोट का कालर ठीेक करते हुए कहा, “तुम्हारा क्या बिगड़ गया दस-पांच हजार में...?”

कुमुद आगे बढ़कर राज की बो का कोण ठीक करने लगा। राज ने नई सिगरेट निकालकर होंठों से लगा ली और अनिल ने सिगरेट सुलगा दी। कुमुद ने फकीरचन्द से कहा, “अब खड़ा-खड़ा क्या देख रहा है भोन्दू...क्षमा मांग प्रिंस से...”

“मेरा कौन-सा मान घटता है क्षमा मांगने से...” फकीरचन्द रूमाल से होंठ का लहू पोंछकर मुस्कराया, “कोई दूसरा आंख उठाकर भी देखता तो उसकी आंखें फोड़ देता...किन्तु यह तो अपना यार है...और मार ले...” उसने राज की ओर देखा और बोला, “मारेगा, प्रिंस?”

“क्षमा कर दिया...” राज ने सिगरेट का कश खींचकर असावधानी से कहा, “किन्तु याद रखना, यदि अब ऐसी बेईमानी की तो गर्दन तोड़ दूंगा।”

“अब इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी प्रिंस! आज तो यदि मैं यह दस हजार न बना लेता तो नय्या ही डूब जाती मेरी। तुम तो जानते ही हो मैं कोई बहुत बड़ा आदमी नहीं हूं...छोटी-मोटी कपड़े की दुकान चलाता हूं...जिन थोक माल बेचने वालों से हिसाब-किताब है उनका दस हजार चढ़ गया था। दुकान कुर्क होने वाली थी। जुआ तो यूं ही हंसी-हंसी में खेल लिया...वरना मांगता भी तुम्हीं से...”

“देखा प्रिंस...” अनिल मुस्कराया, “कितना भरोसा है इस तुम्हारी मित्रता पर...अब तो गले लगा लो...”

राज ने मुस्कराकर फकीरचन्द को गले लगा लिया और उसका गाल सहलाता हुआ बोला, “बहुत चोट लग गई है मेरे लाल के...”

सब हंस पड़े और फकीरचन्द भी खिलखिलाकर राज से लिपट गया।

अचानक संगीत की मधुर तरंगें वातावरण में फैल गईं और राज चौंककर हॉल की ओर देखने लगा। फिर उन लोगों से हटकर वह हॉल की ओर बढ़ गया...शेष मित्र फिर मेज़ के गिर्द बैठ गए।

राज हॉल में आया तो सामने ही संध्या उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी। राज उसके समीप पहुंचा तो संध्या ने मुंह मोड़ लिया। राज ने गर्दन झटकी और आगे बढ़ गया। एक गोल मेज़ से आवाज आई, “हैलो...प्रिंस...”

“हैलो...” राज ने आवाज की ओर बिना देखे उत्तर दिया।

फिर एक-एक करके कई मेज़ों से हैलो-हैलो की आवाज़ें उभरीं...और राज बिना ध्यान दिए सबको उत्तर देता एक खिड़की के पास जाकर रुक गया।

संगीत की तरंगें धीरे-धीरे बह रही थीं और हॉल में ट्यूबलाइट का चांदनी-जैसा प्रकाश छिटका हुआ था। खिड़की के पास ही रात की रानी के महकते हुए पौधे चुपचाप गुमसुम खड़े थे...राज ने सिगरेट का अंतिम कश खींचकर सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक दी। उसी समय पीछे से संध्या ने उसके कंधे पर हाथ रखा। राज बिना उसे देखे कठोर स्वर में बोला, “क्यों आई हो मेरे पास?”

“इधर देखो तो बताऊं...”

राज धीरे-से संध्या की ओर मुड़ा। संध्या ने उसकी आंखों में देखकर हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कहा, “चैन नहीं पड़ता तुम्हें रूठे देखकर...”

“फिर स्वयं क्यों रूठ जाती हो?”

“इस आशा पर कि शायद तुम कभी स्वयं ही मना लो।”

“यह जानते हुए भी कि...”

“कि तुम किसी को नहीं मनाते...” संध्या आंखें मींचकर खोलती हुई मुस्कराई।

“कठोर हृदय हो ना...आज तक तुम्हें ही सब मनाते चले आए हैं...तुमने कभी किसी को नहीं मनाया...तुम क्या जानो किसी को मनाने में कितना आनन्द आता है...”

“अच्छा...” राज ने संध्या की आंखों में देखकर कहा, “तो एक बार फिर रूठ कर देखो...मैं देखूंगा कि कितना आनन्द आता है मनाने में...”

“नहीं...” संध्या राज के कंधे से सिर लगाकर बोली, “अब मैं तुमसे कभी नहीं रूठूंगी...डरती हूं, किसी दिन तुम रूठे ही रह गए तो मैं कहीं की न रहूंगी...”

“सच...!” राज की मुस्कराहट गहरी हो गई।

“काश! तुम्हें मेरे प्यार पर विश्वास आ सके...”

“यदि विश्वास न होता तो इतने फूलों में से मैं तुम्हें न चुनता...” राज धीरे-से बोला, “आओ यह काठ के फर्श का हृदय तुम्हारे चांदी के से पैरों तले धड़कने को व्याकुल है...”

“या एक राजकुमार के कोमल चरणों को चूमने के लिए...”

राज ने संध्या की कमर में हाथ डाल दिया और दोनों वहीं से साज की ध्वनि पर नृत्य करते हुए काठ के फर्श की ओर बढ़ने लगे...एक मेज़ पर बैठे हुए जोड़े ने उन्हें देखा और स्त्री ने एक ठंडी सांस ली।

“हाय! कितने खोए-खोए हैं एक-दूसरे में....”

“काश! कभी तुम भी इसी भाव से मुझे देखतीं।”

“हां! तुम्हें...तुममें और राज में कौन-सी बात एक है?”

“तो फिर तुमने मुझे किसलिए चुना था?”

“इसलिए कि राज ने संध्या को चुन लिया था।” स्त्री हंस पड़ी।

पुरुष ने बुरा-सा मुंह बनाकर शराब का गिलास होंठों से लगा लिया और चुस्कियां लेने लगा। एक दूसरी मेज पर बैठे हुए जोड़े में से स्त्री ने कहा, “हाय...राजकुमार है...बिल्कुल राजकुमार...”

“करोड़पति है ना....” पुरुष बुरा-सा मुंह बनाकर बोला, “तुम स्त्रियों को हर वह व्यक्ति राजकुमार दिखाई देता है जो पैसा पानी के समान बहाए...”

“और तुम पुरुष हर ऐसे व्यक्ति से इसलिए जल उठते हो कि किसी बात में उससे होड़ नहीं ले सकते...”

“तो जाओ ना, हाथ थाम लो उसका...”

“जब भी संध्या ने छोड़ा अवश्य थामने का प्रयत्न करूंगी...”

राज और संध्या साज पर झूमते-झूमते नाचने वालों की भीड़ में सम्मिलित हो चुके थे...संध्या ने राज के कंधे से सिर लगाकर आंखें बन्द कर लीं...उसके पांव स्वयं ही साज की धीमी गति पर सर के साथ उठ रहे थे।

“क्या सोच रही हो...?” राज ने धीरे-से पूछा।

“कुछ नहीं...एक स्वप्न देख रही हूं...” संध्या गुनगुनाई।

“क्या? मैं भी तो सुनूं...”

“हमारा ब्याह हो गया है और हम यहां से दूर स्विटजरलैण्ड के सुन्दर वातावरण में ‘हनीमून’ मना रहे हैं...”

“यह कोई स्वप्न है...यह तो अर्थ है पगली...हमारे प्यार के स्वप्न का...”

“जो शायद कभी साकार न हो सके...”

“हत्...अब दिन ही कितने रह गए हैं इस स्वप्न को साकार होने में...केवल दो महीने बाद परीक्षा है...परीक्षा समाप्त होते ही सफलता की पार्टी में हमारी सगाई की घोषणा हो जाएगी और कुछ समय बाद ब्याह...”

“तुम्हें परीक्षा में अपनी सफलता का इतना विश्वास है?”

“विश्वास मेरा नहीं...मुझे पढ़ाने वालों का है...वे लोग कहते हैं कि जो शब्द मेरी दृष्टि से एक बार गुजर जाए उसे मैं कभी नहीं भूलता...कहो तो पाठ्य-पुस्तक का कोई भी पाठ दोहराऊं...”


संध्या मुस्कराई, फिर ठंडी सांस लेकर बोली, “फिर भी पांच-छः महीने तो लगेंगे ही...”

“पांच-छः महीने तो पलक झपकने में ही बीत जाएंगे...”

“और इस पलक झपकने में तुम इस योग्य हो जाओगे कि हम स्विटजरलैंड तो क्या काश्मीर भी न जा सकेंगे...”

“क्यों? ऐसा क्यों सोचती हो तुम?”

“तुमने यह जुए की लत जो डाल ली है...दस-बारह हजार से कम हारकर तो कभी उठे नहीं...और फिर हर दिन खेलते हो...”

“पचास करोड़ में से लाख-दो लाख निकल भी गए तो क्या अन्तर पड़ेगा...?”

“तुम यह क्यों भूल जाते हो कि पचास करोड़ तुम्हारे अधिकार में नहीं हैं...इस धनराशि का संरक्षक तुम्हारा बड़ा भाई और तुम्हारी बहन है...और इसमें उनका भाग भी तो सम्मिलित है...”

“जय भैया....” राज ठंडी सांस भरकर मुस्कराया, “वे तो मेरे भी संरक्षक हैं...डैडी ने प्राण त्यागते समय मेरा हाथ भैया के हाथ में थमाकर कहा था...जय! यह तुम्हारा छोटा भाई ही नहीं...आज से तुम्हारा बेटा भी है...इसका भविष्य अब तुम्हारे हाथ में है...मैं इसे तुम्हारे आश्रय में छोड़े जा रहा हूं...इसका दुख मेरी आत्मा को दुःख पहुंचाएगा...आज डैडी को स्वर्गवासी हुए दस वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु, भैया ने कभी मुझे पिता का अभाव अनुभव होने नहीं दिया...”

“और भाभी ने भी...?”

“भाभी पराया खून है...उसने मुझे मां का स्नेह न दिया तो क्या हुआ...वह मुझे उठते-बैठते हर समय टोकती है...पर मैं उसकी ओर कभी देखता ही नहीं...मेरा सब कुछ जय भैया ही हैं...”
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Re: लव स्टोरी / राजवंश

Post by rajsharma »

“और जय भैया तुम्हारी भाभी के पति भी हैं। राज, भाभी तुम्हारे भैया के जितनी निकट रहती हैं उतनी निकटता तुम्हें प्राप्त नहीं...” उठते-बैठते तुम्हें-टोकने वाली क्या जय भैया के कान तुम्हारे विरुद्ध न भरती होगी...पत्नी वह जादू होती है जो अपना प्रभाव धीरे-धीरे दिखाती है...”

राज ध्यानपूर्वक संध्या की ओर देखते हुए धीरे-से बोला, “क्या पत्नी ब्याह से पहले ही होने वाले पति के गिर्द दीवार खींचना आरम्भ कर देती है?”

“क्या कह रहे हो राज?”

“मैं भैया को देवता मानता हूं....और देवताओं के पांव कभी नहीं डगमगाते...”

उसी समय एकाएक एक छनाके के साथ संगीत थम गया और राज ने संध्या का हाथ छोड़ दिया। दोनों भीड़ से बाहर निकल आए...राज आगे-आगे और संध्या उसके पीछे...राज के चेहरे पर थकान-सी झलक रही थी।
*****************************************
टेलीफोन की घंटी बजी और जय ने ऐनक ठीक करते हुए रजिस्टर पर उंगली दौड़ानी आरम्भ कर दी...उसके सामने मेज पर रजिस्टरों और फाइलों का ढेर था...उंगलियों में बुझा हुआ सिगार दबा था और टेबल-लैम्प के प्रकाश में वह रजिस्टर चैक कर रहा था। टेलीफोन की घंटी निरन्तर बज रही थी। जय धीरे-से बड़बड़ाया, “उफ्...फोह...क्या कष्ट है...” उसने ऊंचे स्वर में पुकारा, “अरे भाई राधा...जरा देखना तो....”

“आ रही हूं...” राधा की आवाज आई।

जय की दृष्टि निरन्तर रजिस्टर पर जमी रही। घंटी थोड़े-थोड़े समय बाद बजती रही...इतने में पांव की आहट आई और राधा प्रवेश करते हुए बोली, “टेलीफोन आपकी मेज पर है और आप बुलाते मुझे हैं दूसरे कमरे में से...दो बज रहे हैं...कब तक सिर खपाते रहेंगे यहां बैठकर...अपने स्वास्थ्य का भी कुछ ध्यान करें...”

“ऊं...हूं...कर रहा हूं” जय वैसे ही रजिस्टर में डूबा हुआ बोला।


राधा ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और बोली, “कौन है?”

“भाभी...मैं हूं....भैया कहां हैं?”

“यहीं हैं...”

“क्या कर रहे हैं?”

“अपने स्वास्थ्य का ध्यान कर रहे हैं...तुम कहां हो? अब तुम रात दो-दो बजे तक बाहर रहने लगे हो?”

“ओह, भाभी...मैं इस समय बड़ी उलझन में हूं...भैया से कहना तुरन्त सात हजार रुपये शामू के हाथ भिजवा दें...”

“खूब...केवल सात हजार रुपये...?” राधा व्यंग्यात्मक स्वर में बोली।

“शीघ्र भिजवा दो...” राज ने गम्भीर स्वर में कहा।

राधा ने चोंगे पर हाथ रखकर कहा, “सुना आपने...? आपके लाडले ने सात हजार रुपये मंगवाए हैं...तुरन्त...क्लब में...?”

“चाबी दराज में है...आलमारी खोलकर निकाल लो...मुझे डिस्टर्ब न करो...”

जय ने उत्तर देकर बुझे हुए सिगार का कश लिया और होंठों से इस प्रकार हवा निकाली जैसे धुआं निकल रहा हो...राधा ने मुस्कराकर कहा, “सिगार बुझा हुआ है...”

जय ने चौंककर सिगार की ओर देखा और फिर मुस्कराकर तिपाई पर रखा लाईटर उठाकर बोला‒
“मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है...तुम मुझे टोकती न रही तो मैं किसी दिन चाय की प्याली के स्थान पर स्याही की दवात उठाकर मुंह से लगा लूंगा...”

“जानती हूं....किन्तु इतनी व्यस्तता भी अच्छी नहीं कि अपने लाड़ले से इतना भी न पूछें कि उसने यह सात हजार रुपये क्यों मंगाए हैं...”

“अरे हां...क्यों मंगवाए हैं...अभी कल ही तो उसने मुझसे दो हजार लिए थे..”

“दो हजार नहीं तीन हजार...और कल नहीं आज शाम को...”

“अरे हां, आज शाम को...पूछो, पूछो उसे अब क्या आवश्यकता पड़ गई है?”

“यह भी कोई पूछने की बात है?” राधा व्यंग्य से बोली, “अब वह क्लब जाने लगा है...और क्लब में इतनी धनराशि कोका-कोला में घोलकर नहीं पी जाती...जुआ भी होता है वहां...”

“नहीं...राज जुआ नहीं खेलता...”

“पूछ लेती हूं...” राधा ने चोंगे से हाथ हटाकर पूछा, “राज तुम्हारे भैया पूछ रहे हैं, शाम ही को तुम्हें तीन हजार रुपये दिए थे...इतनी जल्दी सात हजार की क्यों आवश्यकता पड़ गई है?”

“भैया पूछ रहे हैं या तुम?” राज ने उधर से पूछा।

“यदि मैं भी पूछ लूं तो कोई अपराध नहीं...”

“क्या अब मुझे अपने खर्च का हिसाब भी देना होगा?”

“खर्च सीमा से अत्यधिक बढ़ जाए तो उसका हिसाब मांगना ही पड़ता है...धन कोई जल का सोता नहीं होता जिसे खर्च करते रहो और वह बढ़ता रहे...”

“आप टेलीफोन जय भैया को दीजिए...” राज ने कठोर स्वर में कहा।

राधा ने एक झटके से रिसीवर जय की ओर बढ़ा दिया। जय राधा को आश्चर्य से देखता हुआ कह रहा था, “यह तुमने क्या किया? बच्चा ही तो है...बेचारे के मन को ठेस पहुंची होगी...”

“हां...ठीक है...मैं आप दोनों भाइयों के बीच में बोलने वाली होती कौन हूं?” राधा क्रोध में बोली, “आप उसकी ठेस का ध्यान करते रहिए ताकि किसी दिन वह आपको इतनी बड़ी ठेस पहुंचाए कि आप संभल न सकें...आपके चौबीस घंटों में से बीस घंटे काम करते बीतते हैं और उसके बीस घंटे मनोरंजन में...पिछले एक महीने से दस हजार रुपये उड़ा चुका है...जरा खाता उठाकर देखिए तो उसे कितना दे चुके हैं...जब धन का यह कुआं खाली हो जाए तो आप मुझे और अपने बच्चे को किसी अनाथालय में भरती करा दीजिएगा...”

यह कहकर राधा झट कमरे से बाहर निकल आई। जय अवाक् टेलीफोन का रिसीवर हाथ में उठाए उस द्वार की ओर देखता रहा जिधर से राधा बाहर गई थी। फिर उसने रिसीवर कान से लगाया और बोला, “राज...?”
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Re: लव स्टोरी / राजवंश

Post by rajsharma »

“भैया मैंने भाभी की सब बातें सुन लीं...!”

“तुम्हें रुपये किस काम के लिए चाहिए?”

“आप भी वही प्रश्न कर रहे हैं?”

“तुम्हारा बड़ा भाई भी हूं...संरक्षक भी हूं...उत्तर दो...क्यों चाहिए ये पैसे इस समय?”

“भाभी का विचार ठीक है...”

“तुम जुआ खेलने लगे हो?”

“हर बड़ा आदमी खेलता है...”

“हर बड़ा आदमी वह विष भी पीता है जिसे शराब कहते हैं...”

“मुझे रुपया चाहिए...अभी, इसी समय...”

“रुपया नहीं मिलेगा तुम्हें...” जय ने गम्भीरता से कहा।

बिना राज का उत्तर सुने जय ने टेलीफोन रख दिया। सिगार बुझ चुका था। उसने राख वाले सिरे से सिगार दांतों में दबाया और दूसरी ओर से उसे सुलगाने लगा। उसकी आंखों से गहरा क्रोध झलक रहा था।


राज ने पूरे बल से रिसीवर मेज पर दे मारा। रिसीवर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। रिसेप्शन-गर्ल घबरा कर राज की ओर देखने लगी। राज ने टूटे हुए रिसीवर पर दृष्टि डाली और अत्यन्त क्रोध में भरा हुआ बोला, “यह हानि मेरे नाम में लिख लो...”

“कोई बात नहीं प्रिंस...” रिसेप्शन-गर्ल मुस्कराई।

राज क्रोध-भरी मुद्रा में घूमा...उसके सामने ही संध्या खड़ी उसकी आंखों में झांककर मुस्करा रही थी। राज ने झटके से उसे अपने सामने से हटाया और तेज-तेज चलता हुआ मुख्य द्वार की ओर बढ़ा। जिन लोगों ने रिसीवर टूटने की आवाज पर पलटकर देखा था वे आश्चर्य से राज को जाते हुए देख रहे थे। एक मेज पर बैठी हुई लड़की ने प्रशंसनीय दृष्टि से राज को देखते हुए कहा, “वाह! क्या ओज है...क्या तेवर हैं...!”

राज आवेश में आकर बाहर निकल आया। उसके पांव पार्किंग की ओर बढ़ रहे थे। उसके पीछे तेज-तेज चलती हुई संध्या आ रही थी। पार्किंग के निकट पहुंचते-पहुंचते संध्या राज के सामने आ गई, “यह क्या पागलपन है राज?” संध्या हांफती हुई बोली।

“आज यह पागलपन किसी मंजिल पर पहुंचकर ही दम लेगा...” राज मुट्ठियां भींचता हुआ बोला।

“कितने रुपयों की आवश्यकता है तुम्हें?” संध्या ने पर्स खोलते हुए पूछा।

“सात हजार!” अचानक पीछे से अनिल ने उत्तर दिया।

राज चौंककर पीछे मुड़ा। पास ही अनिल, कुमुद, फकीरचन्द और धर्मचन्द खड़े राज को देख रहे थे। संध्या ने उन लोगों की ओर देखा और बोली, “मेरे पर्स में इस समय एक हजार हैं...आप लोग कल तक धीरज रखें...मैं कल यहीं पर सात हजार रुपये ले आऊंगी...”

“और हम लोग अपना ऋण पाकर सन्तुष्ट हो जाएंगे...” अनिल व्यंग्यात्मक मुस्कराहट के साथ बोला, “क्या ब्याज भी चाहिए तुुम लोगों को?”

“हां...हमें ब्याज भी चाहिए...” अनिल गंभीर होकर बोला।

“तो यह ब्याज मैं पेशगी चुकाए देता हूं...” राज होंठ भींचकर बोला।

उसने पूरे बल से अनिल को मारने के लिए हाथ उठाया...किन्तु, वह हाथ अनिल की पकड़ में आ गया। अनिल मुस्कराकर बोला, “बड़े भावुक हो यार! यह तो पूछा होता हमें ब्याज चाहिए किस रूप में...तुम हमारे मित्र हो...हमारा तुम्हारा कोई व्यापारिक लेन-देन नहीं...हम तुम्हें चाहते हैं, तुम्हारी दोस्ती चाहते हैं...और तुम्हारे मित्र इतने गिरे हुए नहीं हैं कि केवल सात हजार रुपयों के लिए अपने परम मित्र को अपमानित करते फिरें...हमें ऐसे पैसे नहीं चाहिए जिनके लिए तुम्हारी मंगेतर को अपने पिता से कहना पड़े कि उसके होने वाले करोड़पति स्वामी के भाई ने उसे सात हजार रुपये देने से इन्कार करके भरी क्लब में अपमान किया है..और वह होने वाले पति का ऋण चुका कर उसका मान वापस लाना चाहती है...फिर भी हमें अपने धन का ब्याज अवश्य चाहिए...और यह ब्याज अपने मित्र के सन्तोष के रूप में चाहिए...”

“अनिल...!” राज ने आश्चर्य से अनिल को देखा।

“तुम बहुत क्रोध में घर जा रहे हो दोस्त! क्रोध किसी भी समस्या का निवारण नहीं करता...तुम अपने भाई के संरक्षण में हो...तुम नहीं जानते कि वह किस प्रकार हिसाब-किताब रखता है...तुम्हें यह भी नहीं ज्ञात कि पिता की मृत्यु के बाद फर्म की आय में कितनी बढ़ोत्तरी हुई है...तुम इससे भी अनभिज्ञ हो कि तुम्हारे पिता अपनी जायदाद के लिए क्या वसीयत कर गए हैं...इसलिए तुम्हें भावुकता से काम नहीं लेना चाहिए....बल्कि नम्रता से इस समस्या को सुलझाना चाहिए...”

“अनिल बाबू ठीक कह रहे हैं राज!” ...संध्या ने राज के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी / राजवंश

Post by rajsharma »

“यह तो केवल आरम्भ है...” अनिल मुस्कराकर बोला, “हमने दुनिया देखी है...धन बाप-बेटे को शत्रु बना देता है...इतिहास इस बात का साक्षी है कि...कितने ही ऐसे उदाहरण हैं कि राज और धन के लिए पुत्र ने पिता को बन्दी बना लिया, भाई ने भाई की हत्या कर डाली...पर यह भी ऐतिहासिक वास्तविकता है कि मानव के काम यदि कोई चीज आई है तो वह धन-दौलत ही है...तुम अपने आपको अकेले मत समझो...हम पग-पग पर, प्रत्येक ऊंच-नीच में...हर बात में तुम्हारे संग हैं...हम अपने प्रिय मित्र को मार्ग से भटकने नहीं देंगे....”


और राज ने अनिल का हाथ दृढ़ता से दबा लिया।


जय ने सिगार का एक भरा कश खींचा और सामने फाटक की ओर देखने लगा...फिर उसने अपनी घड़ी देखी। तीन बजकर दस मिनट हुए थे। एकाएक फाटक के पास दो रोशनियां आकर रुकीं। जय संभल गया। कार की खिड़की खुली और उसमें से राज उतरा। फिर कार की खिड़की में एक और चेहरा झलका...जय चौंककर बड़बड़ाया, “संध्या...! राज के साथ...!”


राज ने संध्या का हाथ दबाया और “बाय-बाय” कहकर हाथ हिलाता हुआ पीछे हट गया। संध्या मुस्कराई और हाथ हिलाकर गाड़ी आगे बढ़ाकर ले गई। राज ने घूम कर भीतर प्रवेश किया। सहसा उसकी दृष्टि जय पर पड़ी। जय ने कड़ी दृष्टि से उसे देखा और सिगार का गहरा कश खींचा। राज क्षण-भर के लिए ठिठका और फिर तेज-तेज पग उठाता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया। जय का चेहरा और भी गंभीर हो गया। उसे राज की आंखों में स्पष्ट विद्रोह के चिन्ह दिखाई दिए।


दूसरी सुबह नाश्ते की मेज पर राज चुपचाप हाथ चला रहा था और जय ध्यानपूर्वक उसके मुख के भावों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। राधा ने एक बार राज को देखा और झटके से गर्दन दूसरी ओर फेर ली। जय ने राधा से पूछा‒
“राजा स्कूल के लिए तैयार हो गया?”


“तैयार हो रहा है..मैं देखती हूं...” राधा चाय का अन्तिम घूंट पीकर उठ गई।

राधा के जाने के बाद जय ने राज से पूछा, “तुम्हारी परीक्षा कब आरम्भ हो रही है?”

“एक सप्ताह बाद...” राज ने गंभीर होकर कहा।

“गाड़ी कहां है तुम्हारी?”

“रात जाते समय गेयर टूट गया था...वर्कशाप में छोड़ दी है...बहुत तंग करने लगी है...अब एक नई मर्सिडीज बुक करा रहा हूं...”

“जिस चीज का अत्यधिक प्रयोग किया जाएगा उसका यही परिणाम होगा...”

“क्या का गैरेज में खड़ी रखने के लिए खरीदी जाती हैं?” राज ने झटके से पूछा।

जय ने एक ठंडी सांस भरी और कुर्सी की पीठ से टेक लगाता हुआ बोला, “मेरी गाड़ी तुम ले लो...मैं तुम्हारी गाड़ी से काम चला लूंगा, जब तक वह काम देती है...क्या आवश्यकता है इस फिजूलखर्ची की...”

“कहां फिजूलखर्ची की आवश्यकता है और कहां कंजूसी की...यह मैं भी समझता हूं...बच्चा नहीं रह गया हूं अब...” राज ने झटके से कहा और उठकर तेजी से डाइनिंग-रूम से निकल गया।

राज के हर भाव से विद्रोह झलक रहा था। जय चुपचाप उस द्वार की ओर देखता रहा जहां से राज बाहर गया था। उसके होंठों पर मुस्कराहट फैल गई।
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