Romance फिर बाजी पाजेब

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rajan
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Romance फिर बाजी पाजेब

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फिर बाजी पाजेब

Lekhak समीर

सेठ दौलतराम ने टेलीफोन की घंटी सुनी और रिसीवर कान से लगाकर बोले
"यस...दौलत बिल्डर्स ।"

“सेठजी, मैं एस्टेट एजेंट कृपाशंकर बोल रहा हूं।"

"फरमाइए कृपाशंकरजी।"

"सेठजी ! आपने 'वरसोवा' में एक बंगले का सौदा मेरे सुपुर्द किया था न ?"

"हां...हां....क्या हुआ ?"

"वह लोग किसी तरह भी पचास लाख से नीचे आने को तैयार नहीं हैं। मैंने पार्टी की ओर से पैंतीस लाख तक लगा दिए हैं।"

"कृपाशंकर जी..अगर हो सके तो दस-पांच लाख कम करा लीजिए वर्ना पचास लाख ही में सौदा कर लीजिए।

"मगर मेरे ख्याल में तो पचास लाख बहुत हैं, सेठजी।"
-
"नहीं कृपाशंकरजी, पचास लाख में वह महंगा नहीं-क्योंकि वह जगह एयरपोर्ट से काफी दूर है-वहां पन्द्रह-बीस माले तक की इमारत खड़ी की जा सकती है।"

"ओह इस प्वायंट पर तो मैंने गौर ही नहीं किया था।"

"परवाह मत कीजिए-आप एस्टेट एजेंट हैं बिल्डर तो नहीं न ?"

"आप ठीक कह रहे हैं।"

"मैं प्रेम के हाथ पांच लाख रूपए का चैक भिजवा रहा हूं...आप फौरन एडवांस देकर सौदा पक्का कर लीजिए...अभी किसी बिल्डर की नजरें उस बंगले तक नहीं पायीं।"

"ओके...सेठ साहब !"

सेठ दौलतराम ने रिसीवर रख दिया। इन्टरकॉम का बटन दबाकर उन्होंने रिसीवर फिर कान से लगा लिया।

दूसरी ओर से आवाज आई-"हुक्म सेठजी।"

"जरा मेरे पास आइए।"

फिर सेठ दौलतराम ने चैकबुक निकाली और पांच लाख की रकम भरकर साइन कर दिए। कुछ ही देर बाद इजाजत लेकर प्रेम अंदर दाखिल होकर शिष्टता से खड़ा हो गया। कृपाशंकर ने चैक उसकी ओर बढ़ाकर कहा-"जल्दी से जल्दी यह चैक कृपाशंकरजी को दे आइए, पर्सनली।"

प्रेम ने चैक लिया...उसे देखा और पूछा-"तो क्या उस बंगले का सौदा पक्का हो गया ?"

"आज हो जाएगा।"

"कितने में ?"

"शायद पचाल लाख में ही।"

"लेकिन सर ! यह रकम तो बहुत है...लगता है कृपाशंकर जी बीच में कुछ गोलमाल कर रहे हैं।"

सेठ दौलतराम ने घूरकर प्रेम को देखा और बोले-“मिस्टर प्रेम, आप न एस्टेट एजेंट हैं न बिल्डर...आप सिर्फ के असिस्टैंट मैनेजर हैं।"

"यस सर !"

"किस जमीन या इमारत की क्या कीमत हो सकती है, यह आप हमसे ज्यादा नहीं समझ सकते...यूं भी कृपाशंकरजी बहुत पुराने एस्टेट एजेंट हैं-हमें उन पर पूरा भरोसा है।"

"यस सर !"

"एक बात और।

"फरमाइए।"

"आपके अंदर मीन-मेख निकालने की आदत बहुत बुरी है...आप इसे छोड़ दीजिए और अपने काम से काम रखिए।"
.
“यस सर, आई एम सॉरी सर !"

"जाइए ! कृपाशंकर आपकी राह देख रहे होंगे।"

प्रेम बाहर निकल आया-उसके माथे पर बल और आंखों में गुस्सा था...उसे देखते ही एक बाबू ने अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ कहा-"लगता है, मालिक ने आज फिर डोज दे दिया है।"

"बड़े बाबू ! ऐसे 'डोज' से तो मेरा हाज्मा बढ़ता है...यूं भी प्रेम को जीवन भर असिस्टैंट मैनेजर की कुर्सी पर तो लड़ना नहीं है।"

"अच्छा !"

"और क्या...यह कृपाशंकर से मोल-भाव...मालिक और कन्स्ट्रक्शन का तजुर्बा मिल रहा है...यही शिक्षा और मूल लाभ है जो आगे चलकर काम आएगा....फिर एक दिन 'दौलत बिल्डर्स' के सामने ही प्रेम बिल्डर्स का बोर्ड नजर आएगा।"

"बड़ी ऊंची उड़ान भर रहे हैं।"

"पंखों से ज्यादा इरादों की दृढ़ता की जरूरत होती है ऊंची उड़ान के लिए, बड़े बाबू ।'

"तब तो आप शायद हमें नहीं भूलेंगे।"

"आप हमें मत भूलिए, हम आपको नहीं भूलेंगे।"

"बस, आप हुक्म करते रहिए।"
rajan
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फिर प्रेम बाहर निकल गया और क्लर्क रजिस्टर पर झुक गया। अचानक स्टाफ के लोगों को खड़ा होते देखकर क्लर्क घबरा गया-सेठ दौलतराम मैनेजर बिशनलाल से कह रहे थे-"हम जरा ‘साइट पर जा रहे हैं.हमारे पीछे कोई ट्रंककाल आए तो ख्याल रखिएगा।"
.
"यस सर !"

"और हां, आज वरसोवा वाले बंगले का सौदा पक्का हो जाएगा। उसके बारे में हमें आपसे 'डिसकस' करना है कि वहां बिल्डिंग मुनासिब रहेगी या फाइव स्टार होटल और साइड में शॉपिंग काम्पलैक्स ?"

"यस सर !"

दौलतराम बाहर आकर कार के पास रूके-ड्राइवर कैलाश ने पिछला दरवाजा खोला, दौलतराम बैठ गए...थोड़ी देर बाद कार सड़क पर दौड़ रही थी।

कार एक ‘साइट' पर रूक गई जहां चारों ओर 'हिल व्यू' था। एक ओर समुद्र की खाड़ी भी थी जिसका जल साफ-सुथरा था यह जगह ऊंचाई पर भी थी...दौलतराम ने कृपाशंकर के मुनीम से पूछा-"यह जमीन अभी तक बेकार क्यों है ?"

"हुजूर ! लोग कहते हैं यहां प्रेत आत्माओं की छाया है।"

"क्या बकवास है...आप कौन-सी शताब्दी में सांस ले रहे हैं ?"

"सरकार ! मैं तो लोगों की जुबानी सुनी बता रहा हूं। कहते हैं, यहां किसी राजा का महल था....उसे अपनी सगी बेटी पसंद आ गई...उसने जिस दिन अपनी बेटी से शादी की...उसी दिन जमीन फटकर महल उसमें समा गया...चिड़िया का बच्चा तक नहीं बचा...तभी से आत्माएं यहां मंडलाती हैं।"

"आत्माएं-! यह अच्छी लोकेशन है-फाइव स्टार होटल पर्यटकों के लिए बन सकता है।"

"जी हुजूर !"

"किसकी जमीन है ?"

“एक खबती की...चाय का होटल चलाता है।"

"कृपाशंकर से कहिए. इस जमीन का सौदा कर लें।"

"जी....सरकार |"

दौलतराम फिर कार में सवाए हो गए....कार चल पड़ी।

एक जगह अचानक दौलतराम ने कैलाश से कहा-"ठहरो...कार रोको।" कैलाश ने जल्दी से कार एक साइड में लेकर रोक ली। दौलतराम ने समुद्र के किनारे से कुछ आगे बने एक बहुत पुराने बंगले की तरफ इशारा करके कैलाश से कहा

"ड्राइवर ! उधर ले चलो।"

"मालिक !" कैलाश ने शिष्टता से कहा-"उधर न ही जाएं तो बेहतर है।"

"क्यों ?"

"आप शायद उस बंगले के बारे में सोच रहे हैं?"

"हां-तो क्या हुआ ?"

"मालिक ! वह बंगला आप नहीं खरीद पाएंगे।"

"क्या बकवास कर रहे हो ? क्या वह दो-चार अरब का है ?"

"यह बात नहीं मालिक-वह बंगला आजादी के लिए लड़ने वाले एक बहुत बड़े देश भक्त और समाज सेवक नेता का है जिसे वह किसी कीमत पर नहीं बेचेंगे।"

"क्यों ?"

"क्योंकि देवी दयाल जी ने यह बंगला कौम के गरीब बच्चों के लिए 'वक्फ' कर रखा है।"

"क्या अनाथ आश्रम बनाना चाहते हैं ?"

"जी नहीं-इस बंगले में वह एक ऐसा स्कूल बनाना चाहते हैं जिसमें गरीब बच्चों को न केवल मुफ्त शिक्षा दे सकें बल्कि किताबें इत्यादि और दोपहर के भोजन का भी प्रबंध कर सकें।

"खूब ! करते क्या हैं ?"

"देश की महान हस्तियों के ऊपर पुस्तकें लिखते हैं...उनकी पुस्तकें सरल और लोकप्रिय हैं-चंद पुस्तकें शिक्षा विभाग ने भी कोर्स लगा ली हैं।"
.
"फिर भी अभी तक स्कूल नहीं बना सके।"

"मालिक ! स्कूल तो चल रहा है.मगर बंगले के फर्श पर कमरों में दरियां बिछाकर, क्योंकि उनकी पुस्तकें बिकती हैं, मगर फिल्मी पत्रिकाओं या उपन्यासों की तरह नहीं जिनमें अधिक रोमांस और सैक्स होता है।"

.
.
"इस पर भी स्कूल बनाने का इरादा नहीं छोड़ा।"
.

"जी नहीं...उन्हें विश्वास है कि एक दिन इन्कलाब जरूर आएगा...लोगों को अपने बच्चों को फिजूल नॉवलों को छोड़कर अच्छी चरित्र निर्माण करने वाली पुस्तकें पढ़ने पर मजबूर करना पड़ेगा...क्योंकि देश और कौम का हित इसी में है।"

"खूब...बंगले में कौन-कौन रहता है ?"

"देवी दयालजी, उनकी पत्नी विद्या देवी और एक छोटी आठ-नौ साल की बेटी।"

"हूं ! गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ाकर वह कौन-सा तीर मारेंगे?

“यह तो देवी दयाल जी ही जानें।"

"तो यह बंगला हम नहीं खरीद सकते ?"

"शायद नहीं।"

"कैलाशनाथ ! फिर तो हम यह बंगला खरीदकर ही रहेंगे।"

अचानक एक छ:-सात साल की लड़की 'बस' से उतर कर बंगले की ओर बढ़ने लगी।

दौलतराम ने पूछा-"यह लड़की कौन है ?"

"मालिक ! यही देवीदयाल जी की बेटी है।"

"जरा इसे बुलाओ।"

"मालिक..!"

"अरे-बुलाओ तो सही....हम इसे 'किडनैप' नहीं कर रहे।"
rajan
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कैलाश ने सुनीता को पुकारा-'सुनो बेटी।"

सुनीता चौंककर ठिठकी....फिर ध्यान से अजनबी नजरों से देखने लगी तो कैलाश ने कहा-"इधर आओ बेटी ।"

सुनीता कार के पास आ गई। दौलतराम ने स्नेहमयी मुस्कराहट के साथ पूछा-"कौन-सी क्लास में पढ़ती हो बेटी ?"

"जी फिफ्थ स्टैंडर्ड में।"

"बहुत खूब, क्या तुम्हारे घर में क्लासें फिफ्थ तक नहीं ?"

"हमारे घर में 'कोचिंग' होती है...बाबूजी इन्हीं पैसों से अपने विद्यार्थियों को परीक्षा में बिठाते हैं।"

"बड़ी सयानी बच्ची हो तुम...क्या नाम है ?"

"जी-सुनीता।"

..
"बड़ा प्यारा नाम है। सेठ ने एक नोट निकालकर कहा-"लो ! हमारी ओर से चाकलेट खरीदकर खा लेना।"

"थॅंक यू अंकल ! बाबूजी और मां का कहना है...अजनबियों से कुछ नहीं लेना चाहिए।"

"बेटी ! हमने तुमसे इतनी बातें की फिर अजनबी कैसे रह गए ?"


"अजनबी नहीं तो आइए हमारे घर-मां बहुत अच्छी चाय बनाती हैं।"

"जरूर ! अगर तुम कहती हो तो हम तुम्हारी मां के हाथ की चाय जरूर पियेंगे इतनी अच्छी बच्ची के माता-पिता तो और भी अच्छे होंगे।"

"मेरे बाबूजी और मां बहुत अच्छे हैं।"

कैलाश ने झट उतरकर पिछला दरवाला खोल दिया और शिष्टता से खड़ा हो गया। जब दौलतराम खड़ा हो गये तो सुनीता ने कैलाश से कहा-"ड्राइवर अंकल आप भी आइए न।"

"बेटी ! ड्राइवर को गाड़ी के पास ही रहने दो...कीमती गाड़ी है, किसी ने खुरच भी डाल दी तो सूरत बिगड़ जाएगी।

"जी...!"

दौलतराम सुनीता के साथ चलकर बंगले तक आए...बंगले का फाटक खुला हुआ था..अंदर से बच्चों की आवाजें आ रही थीं...दौलतराम ने इधर-उधर देखकर कहा-"तुम्हारे बगंले का कम्पाउंड तो बहुत हरा-भरा है।"

-
"जी.बाबूजी, मां और मैं सुबह-शाम देखभाल करते हैं, क्यारियों और लॉन की।"

"कोई माली क्यों नहीं रख लेते ?"

"इसलिए कि बाबूजी की माली हालत अच्छी नहीं

जब वह लोग बरामदे तक आए, उसी समय अंदर से लगभग तीस-चालीस बच्चे बाहर निकले जिन्होंने फटे-पुराने कपड़े पहन रखे थे-सूरतों से भी गरीब नजर आ रहे थे...वह सब गुजर गए तो सामने देवीदयाल नजर आए-खादी का कुर्ता, धोती और सिर पर गांधी टोपी...आंखों पर ऐनक।

उन्होंने सेठ दौलतराम को ऊपर से नीचे तक देखा और धीरे से आगे आए। दौलतराम ने बड़े आदर और नम्रता से हाथ जोड़कर कहा

"नमस्ते !"

"नमस्ते।" देवीदयाल ने भी हाथ जोड़कर कहा-“फरमाइए ! मेरे योग्य कोई सेवा ?"

"शर्मिंदा मत कीजिए देवीदयालजी...इतने महान व्यक्ति की सेवा तो मुझे करनी चाहिए...आपका नाम और महानता के बारे में तो बहुत कुछ सुना था-मगर कभी दर्शन नहीं हुए थे-इधर से गुजर रहा था...अकेले में पुराना बंगला देखकर ड्राइवर से पूछा, यहां कौन रहत है ? तो ड्राइवर ने बताया।"

दौलतराम ने सुनीता के सिर पर हाथ फेरकर कहा-"इतने में यह बच्ची आ गई। इस बच्ची को देखकर, इससे बातें करके ऐसा लगा जैसे कभी इस बच्ची से गहरा सम्बन्ध रहा है...मैंने चाकलेट की पेशकश की तो कहने लगी, पहले हमारे घर चाय पी लीजिए-मां बहुत अच्छी चाय बनाती हैं इतने प्यार से कहा कि हमसे रहा नहीं गया।"

देवीदयाल ने कहा-"धन्य भाग्य हैं हमारे...मेहमान तो भगवान का दूसरा रूप होता है।"

"नहीं देवीदयालजी, मुझे मेहमान नहीं, अपना दास समझें।
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rajan
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"आइए पधारिए।“ और सुनीता से बोले-"मां से चाय के लिए कह दी।"

सुनीता चली गई और देवीदयाल, सेठ दौलतराम को 'बैठक' में ले गए आए जहां एक चौकी पर दरी और चादर बिछी हुई थी-एक पुरानी गोलमेज बीच में पड़ी थी जिसके गिर्द कुछ सरकियों के मूढ़े रखे थे । एक तरफ दीवार पर खासी बड़ी महात्मा गांधी की पेंटिंग, लगी थी...एक तरफ सुभाषचन्द्र बोस, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल की तस्वीरें लगी थीं। देवीदयाल ने एक मूढ़े की तरफ इशारा करके कहा-“बिराजिए।"

दौलतराम ने बैठते हुए चारों ओर देखा और बोले
"भई वाह ! यह लगता है असल स्वतंत्रता सेनानी का घर।"

"असल स्वंतत्रता सेनानी तो मेरे पिताजी थे-सुभाषचन्द्र बोस की फौज के पैदल सिपाही थे-मैं तो उस समय बहुत छोटा था जब दुर्भाग्य से भाई-भाई के बीच बंटवारा हो गया मैं तो अपने पिताजी के आदर्शों को आगे बढ़ा रहा हूं।"

"बड़ी खुशी होती है आप जैसे धर्मात्मा लोगों से मिलकर...अभी मैंने उन गरीब फटे-पुराने कपड़े पहने लड़कों को यहां से निकलते देखा है जो यहां से पढ़कर निकले हैं।"

"वह गरीब और नंग-धडंग बच्चे ही देश का भविष्य हैं-पिताजी कहते थे कि जहालत ही गरीबी की मां है...बच्चा पढ़ने-लिखने ही से आपने आपका समझता है और उसे जीने का ढंग आता है

"वाह ! कितने महान विचार हैं आप लोगों के।"

इतने में लगभग दस बरस का लडका एक थाली में चाय के दो गिलास लेकर आया तो देवीदयाल
ने कहा
"अरे बेटा अशोक...तुम अभी तक घर नहीं गए ?"

अशोक ने एक गिलास सेठ दौलतराम की ओर बढ़ाया और दूसरा देवीदयाल की ओर बढ़ाकर बोला-"मास्टरजी, थोड़ा होम वर्क करने लगा

था...मांजी ने कहा कि मैं होम वर्क करा दूंगी...अभी तो मैं भाजी लेने जा रहा हूं।"

अशोक के जाने के बाद देवीदयाल ने कहा-“बड़ा होनहार लड़का है. इसके मस्तक की लकीरें बताती हैं कि विद्या की रोशनी से जरूर बड़ा होकर कुछ बनेगा।"

"मास्टर जी ! आप इतना महान काम कर रहे हैं-इस बंगले को कोचिंग सेंटर से स्कूल में क्यों नहीं बदल लेते ?"

"वही कोशिश कर रहा हूं-कई जगह दरख्वास्तें दी हैं, पिताजी की देशभक्ति सेवा के हवाले भी दिए हैं...मगर ऊची कुर्सियों पर बैठे अधिकारियों में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पंडित नेहरू वाला
आदर्श कहां-जनसेवा का भाव तो रहा नहीं-बिना मुट्ठी गर किए कोई अर्जी चपरासी से लेकर उच्च अधिकारी तक पहुंच ही नहीं पाती....फाइल कर दी जाती है...राम जाने इस देश का भविष्य क्या होगा।

कहते-कहते देवीदयाल के चेहरे और स्वर से गहरा दुःख झलकने लगा-

दौलतराम ने भी अपने चेहरे पर दुःख उत्पन्न करके हमदर्दी जताते हुए कहा
"आप सच कह रहे हैं मास्टरजी ! इस देश की धरती से धर्म-ईमान तो उठ गया है...कभी-कभी तो लगता है कि भगवान भी उन्हीं का साथ दे रहा हे...मगर फिर भी आप जैसे सच्चाई और सेवा भक्ति में लगे कर्मठ व्यक्ति भी नजर आ जाते हैं...जो सिद्ध करते हैं कि मानवता अभी मरी। नहीं.. इसलिए देश की धरती पूर्ण रूप से फटी नहीं, आकाश टूटकर नहीं गिरा।"

फिर उसने जेब से चैकबुक निकाली और एक चेक पर हस्ताक्षर करके चैक देवीदयाल की ओर बढ़ाकर कहा–''यह मेरी ओर से सादर भेंट स्वीकार कीजिए।

"क्या है यह ?"

"ब्लैंक चैक...आपको स्कूल के लिए जितनी रकम की जरूरत हो इसमें भर लें-मैं चाहता हूं कि आपका और आपके पिताजी का सपना जल्दी से जल्दी सच्चाई में बदल जाए।"

"क्षमा कीजिए सेठजी।" देवीदयाल ने हाथ जोड़कर कहा-"मैं अपने पिताजी का सपना खैरात से पूरा नहीं करना चाहता।"

"आप इसे खैरात क्यों समझ रहे हैं ? यह तो एक श्रद्धा, उपहार है...वैसे भी मुझसे इस देश की गरीबी मिटाने में हिस्सा लेने का कुछ अधिकार हैं....क्योंकि मैं स्वयं भी हिन्दुस्तानी ही हूं।"

"नहीं सेठजी, मैं इतना बड़ा उपकार का बोझ अपने कंधों पर नहीं ले सकता–मुझे तो क्षमा फरमाइए।"

"मास्टरजी ! यह तो मैं खुद अपने ऊपर उपकार कर रहा हूं-ऐसा करके मुझे भी तो कुछ पुण्य मिलेगा।"

"नहीं सेठजी...मेरी नजरों में तो यह खैरात ही है-हमारे पुरखों ने हमें खैरात लेना नहीं सिखाया।"

"चलिए...कर्ज समझ कर ले लीजिए..दस लाख, पन्द्रह लाख, जितने चाहें भर लीजिए।"

"इतना बड़ा कर्ज...! नहीं...नहीं.!"

"आप अगर इस कर्ज को भी उपकार समझते हैं तो अपना कुछ भी बदले में, अपनी तसल्ली के लिए रहन रख दीजिए।
rajan
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"सेठजी ! मेरे पास रहन रखने को रखा ही क्या हैं

"कुछ मत रखिए तो इस बंगले ही को अपनी आड़ बना लें।"

"बंगला...!"
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"और क्या...पन्द्रह-बीस लाख से कम की मालकियत का तो होगा ही-आपकी भी तसल्ली हो जाएगी।"
"नहीं...!"
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"मास्टर जी-आप मेरा दिल दुखा रहे । हैं. अरे. बंगले की आड़ करके तो आपको तसल्ली हो जानी चाहिए....मेरे मन को बोझ भी हल्का हो जाएगा...पता नहीं कितने पाप हुए हैं मुझसे..उनमें से कुछ न कुछ तो धुल जाएंगे।"
"मगर !"

"चलिए रखिए।" सेठ ने उठते हुए कहा-"आपकी तसल्ली के लिए मैं रहन के कागजात बनवाकर भिजवा दूंगा...सूद-कर्जा एक फीसदी प्रतिवर्ष-जिसकी मैं रसीद देता रहूंगा। सूद अलग से नहीं लूंगा।"

"धन्य हो...।" देवीदयाल ने चैक लेकर कहा-“सचमुच आप बहुत महान हैं वर्ना देखा है कि दौलत वालों के दिल भी पत्थर के हो जाते हैं।"

फिर देवीदयाल सेठ के साथ बाहर निकलकर बोले-"लीजिए-इतना सब कुछ हो गया. मैंने अभी तक आपका परिचय तक नहीं मांगा।"

"मेरा परिचय है...मानवता का दास-वैसे मेरा नाम दौलतराम है...'दौलत बिल्डर्स' के नाम पर छोटा-मोटा धंधा करता हूं।"

"दौलत बिल्डर्स...!" देवीदयाल के मस्तिष्क में छनाका-सा हुआ-तब तक सेठ दौलतराम कार में सवार हो चुके थे जिसे कैलाश फाटक तक ले आया था–कार चली गई...देवीदयाल खड़े ही रह गए।

अचानक पीछे से आवाज आई-“यह आपने क्या किया ?"

देवीदयाल चौंककर मुड़े–“ओह विद्या !"

उनके सामने उनकी पत्नी विद्यादेवी खड़ी थीं जिनकी आंखों में गहरी चिन्ता झलक रही थी...उन्होंने कहा-"दौलत बिल्डर्स का नाम तो इतना मशहूर है कि बच्चे तक जानते हैं। इनका काम ही खाली बंगले, पड़ी जमीनें खरीद-खरीदकर ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें और कीमती फ्लैट बनवाना या फिर फाइव स्टार होटल बनवाना है।"


"मैं भी यही सोच रहा हूं, लेकिन ।'

"लेकिन क्या ?"

"दौलतराम ने तो बगैर किसी शर्त के चैक दिया है।"

"कल वह...इसे रहन रखने के कागजात लेकर आ जाएंगे।

"इसमें भी शायद 'मियाद' तो होगी ही नहीं...और सूद तो वह लेंगे नहीं।"

"आप किनकी बातों पर भरोसा कर रहे हैं। धनवानों की बोली जितनी मीठी होगी, समझ लीजिए उसमें उतना ही जहर छुपा होता है....आखिर यह तो सोचिए कि सेठ दौलतराम को इस सुनसान इलाके की जरूरत ही क्या थी ?"

“मगर बंगला हालिस करने की बात होती तो पहले खरीदने की बात करते-उन्होंने ऐसा तो कुछ कहा नहीं।"

"क्या उन्होंने पहले से मालूम नहीं कर लिया होगा कि आप इस बंगले को दस करोड़ में भी नहीं बेचेंगे। बेचना होता तो आज तक यह बंगला साबुत ही क्यों खड़ा होता।"

"कहती तो तुम ठीक हो।"

"मुझे तो इस आदमी की नीयत पर जरा भी ऐतबार नहीं. इसके स्वर से ही यह बात टपक रही थी।"

"फिर क्या करूं?"

"यह चैक लौटा दीजिए।"

"लेकिन कल उसका आदमी रहन के कागजात लेकर आएगा।"

"आप आज ही जाकर वापस कर आइए।"

"तुम ठीक कहती हो...मैं आज ही चैक वापस करके आऊंगा....दौलतराम के बंगले पर खुद जाकर।"
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