Romance अभिशाप (लांछन )
कंधों पर फैले भीगे बाल, होंठों पर चंचल मुस्कुराहट और आंखों में किसी के प्यार की चमक लिए डॉली बाथरूम से निकली तो एकाएक वहां खड़ी ज्योति से टकरा गई और झेंपकर बोली-‘सॉरी! लेकिन तू यहां क्या कर रही थी?’
‘प्रतीक्षा कर रही थी तेरी! जानती है-पूरे पैंतीस मिनट बाद बाहर निकली है।’
‘तो! कौन-सा आकाश टूट पड़ा?’
‘आकाश मुझ पर नहीं-उस बेचारे पर टूटा है।’
‘बेचारा! यह बेचारा कौन है?’
‘आहा!’ ज्योति ने डॉली के गाल पर हल्की-सी चिकोटी भरी और बोली- ‘पूछ तो यों रही है-मानो कुछ जानती न हो। पूरा आधा घंटा बीत गया उसे यहां आए हुए।’
‘अच्छा! कोई पापा से मिलने आया है?’
‘पापा से नहीं-तुमसे। नाम तो मैं नहीं जानती किंतु शक्ल-सूरत...। बिलकुल राजकुमार लगता है।’
‘होगा कोई।’ डॉली ने अपने बालों को झटका देकर असावधानी से कहा- ‘तू उसके पास बैठ, मैं आती हूं।’
‘अरे वाह! मिलने आया है तुझसे-और पास बैठूं मैं।’
‘तू जाती है कि नहीं।’ इतना कहकर डॉली ने ज्योति के कान की ओर हाथ बढ़ाया तो ज्योति खिलखिलाते हुए ड्राइंगरूम की ओर चली गई।
ज्योति के चले जाने पर डॉली ने कमरे में आकर जल्दी-जल्दी स्वयं को तैयार किया और ड्राइंगरूम में पहुंची-किंतु अंदर पांव रखते ही एक भयानक विस्फोट के साथ पूरा-पूरा अतीत उसके सामने बिखर गया।
सामने राज बैठा था।
राज, जिसे वह प्यार से राजू कहती थी।
राज उसे देखकर उठ गया और हाथ जोड़कर बोला- ‘नमस्ते डॉली जी!’
डॉली उसके अभिवादन का उत्तर न दे पाई। होंठ कांपकर रह गए। तभी वहां बैठी ज्योति ने उठकर उससे कहा- ‘अच्छा बाबा! मैं तो चली।’
‘ब-बैठ न ज्योति!’
‘न बाबा! बहुत देर हो गई। कल की पार्टी का प्रबंध भी करना है।’ इतना कहकर ज्योति वहां से चली गई।
डॉली अब भी बाहर की ओर देख रही थी। कदाचित राज की ओर देखने एवं उससे कुछ कहने का साहस उसमें न था। तभी वह चौंकी। राज उससे कह रहा था- ‘लगता है-मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’
‘नहीं!’ डॉली धीरे से बोली- ‘ऐसी कोई बात नहीं।’
‘तो फिर ये मौन-ऐसी बेरुखी?’
‘सोच रही थी कुछ।’
‘वह क्या?’
‘अपने अतीत के विषय में?’
‘और शायद यह भी कि एक ही राह पर चलने वाले दो मुसाफिर फिर अलग-अलग दिशाओं में क्यों चले जाते हैं-है न?’
‘जो राह छूट गई थी-उसके विषय में मैंने कभी नहीं सोचा।’
राज को यह सुनकर आघात-सा लगा। डॉली की ओर से उसे ऐसे उत्तर की आशा न थी। दीर्घ निःश्वास लेकर वह बोला- ‘किन्तु मैंने सोचा है। प्रत्येक सुबह-प्रत्येक शाम, मुझे उस राह की भी याद आई है और तुम्हारी भी। सोचकर यह भी नहीं लगा कि तुम बेवफा थीं और यह भी नहीं लगा कि तुमने मुझे धोखा दिया था।’
‘तो और क्या लगा?’ डॉली ने पूछा। और-यह वह प्रश्न था जिसने उसकी आत्मा को कई बार झंझोड़ा था।
राज बैठकर बोला- ‘लगा था-तकदीर ने धोखा दिया है। यदि ऐसा न होता तो मुझे अपने बेटे की तरह चाहने वाले अंकल आलोक नाथ मेरी प्रार्थना को यों अस्वीकार न करते। कभी न कहते कि तुम हमारी डॉली के योग्य नहीं। जानती हो-ऐसा क्यों हुआ?’
डॉली खामोशी से चेहरा झुकाए रही।
राज कहता रहा- ‘मेरी निर्धनता के कारण। मेरी गरीबी ने लूटा मुझे। मेरी गरीबी ने खून किया मेरे प्यार का। अन्यथा मेरी वह राह आज भी मेरी होती। मेरी डॉली आज भी मेरी बांहों में होती।’
‘जो बीत चुका है-उसे दुहराने से क्या लाभ?’
‘लाभ है।’ राज फिर उठा और बोला- ‘मुझे आत्म-संतोष मिला ये बताकर कि न तो तुम बेवफा थीं और न ही मैं बेवफा था। बेवफा थी तो तकदीर, मेरी उम्मीदें।’
‘बस करो। राजू! बस करो।’ डॉली ने बेचैनी से कहा। स्वर में अथाह पीड़ा थी। मानो पुराना जख्म फिर से हरा हो गया हो।
राज से उसकी यह पीड़ा छुपी न रही। बोला- ‘स-सॉरी डॉली! मैं तो यह सब कहना ही न चाहता था। पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या लाभ? जिन राहों ने सदा-सदा के लिए साथ छोड़ दिया, उनकी ओर देखने से भी क्या लाभ। किन्तु हृदय न माना। न चाहते हुए भी तुमसे बहुत कुछ कह बैठा। न चाहते हुए भी तुमसे मिलने चला आया हूं। बड़ा विचित्र होता है यह हृदय भी-बहुत दुःख होता है प्यार करने वालों को। और सबसे बड़ी विचित्रता तो यह है कि उन दुखों को यह स्वयं भी झेलता है। काश-विधाता ने मनुष्य को हृदय न दिया होता।’
‘तो फिर।’ डॉली के होंठों से निकल गया- ‘जीवन कैसे जिया जाता?’