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Romance अभिशाप (लांछन )

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Romance अभिशाप (लांछन )

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Romance अभिशाप (लांछन )


कंधों पर फैले भीगे बाल, होंठों पर चंचल मुस्कुराहट और आंखों में किसी के प्यार की चमक लिए डॉली बाथरूम से निकली तो एकाएक वहां खड़ी ज्योति से टकरा गई और झेंपकर बोली-‘सॉरी! लेकिन तू यहां क्या कर रही थी?’


‘प्रतीक्षा कर रही थी तेरी! जानती है-पूरे पैंतीस मिनट बाद बाहर निकली है।’


‘तो! कौन-सा आकाश टूट पड़ा?’


‘आकाश मुझ पर नहीं-उस बेचारे पर टूटा है।’


‘बेचारा! यह बेचारा कौन है?’


‘आहा!’ ज्योति ने डॉली के गाल पर हल्की-सी चिकोटी भरी और बोली- ‘पूछ तो यों रही है-मानो कुछ जानती न हो। पूरा आधा घंटा बीत गया उसे यहां आए हुए।’



‘अच्छा! कोई पापा से मिलने आया है?’


‘पापा से नहीं-तुमसे। नाम तो मैं नहीं जानती किंतु शक्ल-सूरत...। बिलकुल राजकुमार लगता है।’


‘होगा कोई।’ डॉली ने अपने बालों को झटका देकर असावधानी से कहा- ‘तू उसके पास बैठ, मैं आती हूं।’


‘अरे वाह! मिलने आया है तुझसे-और पास बैठूं मैं।’


‘तू जाती है कि नहीं।’ इतना कहकर डॉली ने ज्योति के कान की ओर हाथ बढ़ाया तो ज्योति खिलखिलाते हुए ड्राइंगरूम की ओर चली गई।


ज्योति के चले जाने पर डॉली ने कमरे में आकर जल्दी-जल्दी स्वयं को तैयार किया और ड्राइंगरूम में पहुंची-किंतु अंदर पांव रखते ही एक भयानक विस्फोट के साथ पूरा-पूरा अतीत उसके सामने बिखर गया।

सामने राज बैठा था।


राज, जिसे वह प्यार से राजू कहती थी।


राज उसे देखकर उठ गया और हाथ जोड़कर बोला- ‘नमस्ते डॉली जी!’


डॉली उसके अभिवादन का उत्तर न दे पाई। होंठ कांपकर रह गए। तभी वहां बैठी ज्योति ने उठकर उससे कहा- ‘अच्छा बाबा! मैं तो चली।’


‘ब-बैठ न ज्योति!’


‘न बाबा! बहुत देर हो गई। कल की पार्टी का प्रबंध भी करना है।’ इतना कहकर ज्योति वहां से चली गई।


डॉली अब भी बाहर की ओर देख रही थी। कदाचित राज की ओर देखने एवं उससे कुछ कहने का साहस उसमें न था। तभी वह चौंकी। राज उससे कह रहा था- ‘लगता है-मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’


‘नहीं!’ डॉली धीरे से बोली- ‘ऐसी कोई बात नहीं।’


‘तो फिर ये मौन-ऐसी बेरुखी?’


‘सोच रही थी कुछ।’


‘वह क्या?’

‘अपने अतीत के विषय में?’

‘और शायद यह भी कि एक ही राह पर चलने वाले दो मुसाफिर फिर अलग-अलग दिशाओं में क्यों चले जाते हैं-है न?’


‘जो राह छूट गई थी-उसके विषय में मैंने कभी नहीं सोचा।’


राज को यह सुनकर आघात-सा लगा। डॉली की ओर से उसे ऐसे उत्तर की आशा न थी। दीर्घ निःश्वास लेकर वह बोला- ‘किन्तु मैंने सोचा है। प्रत्येक सुबह-प्रत्येक शाम, मुझे उस राह की भी याद आई है और तुम्हारी भी। सोचकर यह भी नहीं लगा कि तुम बेवफा थीं और यह भी नहीं लगा कि तुमने मुझे धोखा दिया था।’


‘तो और क्या लगा?’ डॉली ने पूछा। और-यह वह प्रश्न था जिसने उसकी आत्मा को कई बार झंझोड़ा था।


राज बैठकर बोला- ‘लगा था-तकदीर ने धोखा दिया है। यदि ऐसा न होता तो मुझे अपने बेटे की तरह चाहने वाले अंकल आलोक नाथ मेरी प्रार्थना को यों अस्वीकार न करते। कभी न कहते कि तुम हमारी डॉली के योग्य नहीं। जानती हो-ऐसा क्यों हुआ?’


डॉली खामोशी से चेहरा झुकाए रही।

राज कहता रहा- ‘मेरी निर्धनता के कारण। मेरी गरीबी ने लूटा मुझे। मेरी गरीबी ने खून किया मेरे प्यार का। अन्यथा मेरी वह राह आज भी मेरी होती। मेरी डॉली आज भी मेरी बांहों में होती।’

‘जो बीत चुका है-उसे दुहराने से क्या लाभ?’

‘लाभ है।’ राज फिर उठा और बोला- ‘मुझे आत्म-संतोष मिला ये बताकर कि न तो तुम बेवफा थीं और न ही मैं बेवफा था। बेवफा थी तो तकदीर, मेरी उम्मीदें।’

‘बस करो। राजू! बस करो।’ डॉली ने बेचैनी से कहा। स्वर में अथाह पीड़ा थी। मानो पुराना जख्म फिर से हरा हो गया हो।

राज से उसकी यह पीड़ा छुपी न रही। बोला- ‘स-सॉरी डॉली! मैं तो यह सब कहना ही न चाहता था। पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या लाभ? जिन राहों ने सदा-सदा के लिए साथ छोड़ दिया, उनकी ओर देखने से भी क्या लाभ। किन्तु हृदय न माना। न चाहते हुए भी तुमसे बहुत कुछ कह बैठा। न चाहते हुए भी तुमसे मिलने चला आया हूं। बड़ा विचित्र होता है यह हृदय भी-बहुत दुःख होता है प्यार करने वालों को। और सबसे बड़ी विचित्रता तो यह है कि उन दुखों को यह स्वयं भी झेलता है। काश-विधाता ने मनुष्य को हृदय न दिया होता।’

‘तो फिर।’ डॉली के होंठों से निकल गया- ‘जीवन कैसे जिया जाता?’
कैसे कैसे परिवार Running......बदनसीब रण्डी Running......बड़े घरों की बहू बेटियों की करतूत Running...... मेरी भाभी माँ Running......घरेलू चुते और मोटे लंड Running......बारूद का ढेर ......Najayaz complete......Shikari Ki Bimari complete......दो कतरे आंसू complete......अभिशाप (लांछन )......क्रेजी ज़िंदगी(थ्रिलर)......गंदी गंदी कहानियाँ......हादसे की एक रात(थ्रिलर)......कौन जीता कौन हारा(थ्रिलर)......सीक्रेट एजेंट (थ्रिलर).....वारिस (थ्रिलर).....कत्ल की पहेली (थ्रिलर).....अलफांसे की शादी (थ्रिलर)........विश्‍वासघात (थ्रिलर)...... मेरे हाथ मेरे हथियार (थ्रिलर)......नाइट क्लब (थ्रिलर)......एक खून और (थ्रिलर)......नज़मा का कामुक सफर......यादगार यात्रा बहन के साथ......नक़ली नाक (थ्रिलर) ......जहन्नुम की अप्सरा (थ्रिलर) ......फरीदी और लियोनार्ड (थ्रिलर) ......औरत फ़रोश का हत्यारा (थ्रिलर) ......दिलेर मुजरिम (थ्रिलर) ......विक्षिप्त हत्यारा (थ्रिलर) ......माँ का मायका ......नसीब मेरा दुश्मन (थ्रिलर)......विधवा का पति (थ्रिलर) ..........नीला स्कार्फ़ (रोमांस)
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‘पत्थर बनकर।’ दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ राज बोला- ‘पत्थरों की भांति, जिनके लिए न तो पीड़ाओं का कोई अर्थ होता है और न ही मुस्कुराहटों का। जिनके सीने में होता है कभी न टूटने वाला मौन और सब कुछ सहने की शक्ति।’

‘राजू!’ डॉली तड़पकर रह गई। राज की पीड़ा उनके अस्तित्व में तूफान बनकर चीख उठी।

राज ने वॉल क्लॉक में समय देखा और गहरी सांस लेकर बोला- ‘चलता हूं डॉली! बहुत राहत मिली तुम्हें देखकर। वर्ष भर की तड़प एक ही पल में मिट गई। शुक्रिया तुम्हारे प्यार का। और हां! एक बात और-यह राजू अब पहले जैसा नहीं रहा। आज पास मेरे सब कुछ है। बंगला-गाड़ी, नौकर-चाकर और लाखों की दौलत। कोई कमी नहीं मेरे जीवन में। कमी है तो सिर्फ तुम्हारी-तुम्हारे प्यार की। और-और ये वो कमी है जो कभी पूरी न होगी। काश! मेरे पास दौलत न होती-तुम्हारा प्यार होता-सिर्फ तुम्हारा प्यार।’ कहते ही राज ने बेचैनी से होंठ काट लिए।

इसके पश्चात् वह एक पल भी नहीं रुका और सुस्त कदमों से बाहर चला गया।

डॉली उसे सम्मोहित-सी देखती रही। राज का एक-एक शब्द उसके मस्तिष्क में पटाखों की भांति शोर कर रहा था और एक अनजानी पीड़ा थी, जो उसे बार-बार व्याकुल कर रही थी।

एकाएक किसी गाड़ी के इंजन की आवाज सुनकर वह चौंकी। खिड़की के समीप पहुंचकर देखा-राज की गाड़ी गेट से निकल रही थी। कुछ क्षणों उपरांत गाड़ी उसकी नजरों से ओझल हो गई, किन्तु वह वहीं खड़ी रही। तभी किसी की खिलखिलाहट भरी हंसी ने उसकी विचार मुद्रा तोड़ दी। चेहरा घुमाकर देखा-यह ज्योति थी जो पीछे खड़ी उससे पूछ रही थी-
‘क्यों-हो गया न मिलन?’

‘तू कहां थी?’ डॉली ने पूछा।

‘बराबर वाले कमरे में। तूने मुझसे अपने मेहमान के विषय में कुछ भी नहीं बताया था न-इसलिए रुक गई।’

डॉली बैठकर बोली- ‘तो यूं कह न कि जासूसी कर रही थी?’

‘न बाबा-मेरी इतनी हिम्मत कहां कि तेरी जासूसी कर सकूं।

‘यह राज था।’

‘राज कौन?’

‘कॉलेज में साथ पढ़ा था।’

‘बस?’ ज्योति ने मुस्कुराकर पूछा और डॉली के समीप बैठ गई।

‘हम दोनों अच्छे दोस्त थे।’

‘और फिर हुआ यह कि तुम्हारी दोस्ती एक दिन प्यार में बदल गई?’

‘हां।’

‘तुम दोनों घरवालों की नजरों से छुपकर किसी पार्क अथवा पिकनिक स्पाट पर मिलने गए?’

‘हम लोग महारानी गार्डन में मिलते थे।’

‘जगह अच्छी है-बहुत मजा आता होगा। लेकिन-तुम दोनों के बीच प्रोफेसर आनंद कहां से आ गए?’

‘मैंने राजू से मिलना छोड़ दिया था।’

‘राजू-अर्थात राज?’

‘हां।’ डॉली ने गंभीरता से उत्तर दिया और मूर्तिमान-सी खिड़की से बाहर देखने लगी।

ज्योति ने अगला प्रश्न किया- ‘राजू से मिलना क्यों छोड़ा?’

‘राजू पापा को पसंद न था।’

‘वह क्यों?’

‘धरती-आकाश जैसा अंतर था उसकी और हमारी हैसियत में। यूं कहो कि उसके और मेरे बीच चांदी की दीवार थी। मेरे अंदर इतना साहस न था कि पापा से विद्रोह करके उस दीवार को तोड़ पाती। अतः पापा के कहने पर मुझे उससे संबंध तोड़ना पड़ा।’

‘इसका मतलब है।’ ज्योति उठकर बोली- ‘तूने अपने प्यार को एक नाटक और राजू के हृदय को एक खिलौना समझा। जब तक चाहा-अपना मनोरंजन किया और जब उससे दिल भर गया तो उसे तोड़कर फेंक दिया-क्यों?’

डॉली तड़पकर रह गई। उठकर उसने ज्योति के कंधे पर हाथ रखा और बोली- ‘मुझे गलत न समझ ज्योति। मैंने उससे वास्तव में प्रेम किया था। बहुत चाहा था उसे। किन्तु तू जानती है न कि जीवन में प्यार ही सब कुछ नहीं होता। सिर्फ प्यार की बातें और इधर-उधर घूमना-वादे करने-कसमें खानें-इस सबसे तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती। जीने के लिए दौलत भी बहुत जरूरी होती है। दौलत न हो तो प्यार के वादे भी झूठे लगते हैं। प्यार थोथा एवं कल्पना जान पड़ता है। पापा ने मुझे यही शिक्षा दी थी। मैंने उनकी शिक्षा पर भी ध्यान दिया और अपना भविष्य भी देखा। इसके पश्चात् यही निर्णय लिया कि मुझे अपने प्यार को भूल जाना चाहिए।’

‘और-तू भूल गई?’

‘नहीं।’ निःश्वास लेकर डॉली बोली- ‘नहीं भूल पाई उसे। लाख प्रयास करके भी नहीं। राजू मुझे हर पल याद आता रहा। कई बार वह सपनों में आता और मुझसे एक ही प्रश्न पूछता। पूछता कि क्या मेरा प्यार, प्यार न था-क्या मेरा हृदय, हृदय न था? आखिर-आखिर क्यों ठुकराया तुमने मेरे प्यार को? क्यों टुकड़े-टुकड़े किया मेरा हृदय? उसने मुझे कई बार बेवफा कहा और मैं रो पड़ी। उसने मुझे चीख-चीखकर धोखेबाज कहा और मैं कुछ भी न कह सकी।’ यह सब बातें कहते-कहते डॉली का कंठ भर आया।

‘खैर!’ ज्योति बोली- ‘मैं यह तो नहीं कहूंगी कि तूने अच्छा किया अथवा बुरा। किन्तु एक सलाह अवश्य दूंगी। तुझे उसे भूल जाना चाहिए। एक सप्ताह बाद तेरा विवाह है। यदि तूने विवाह के पश्चात् भी राजू को याद रखा तो तू कभी आनंद से न जुड़ पाएगी। और वैसे भी-अपने सपनों को तो तूने स्वयं जलाया है। अब उनकी राख को कुरेदने से क्या लाभ? व्यर्थ ही हाथ जलाएगी पगली! बहुत पीड़ा होगी उस गर्म राख को कुरेदने से। चलती हूं।’

इतना कहकर ज्योति ने डॉली का कंधा थपथपाया और चली गई।

डॉली उसके जाते ही खिड़की के समीप आ गई। उसकी आंखों में अब आंसुओं की मोटी-मोटी बूंदें झिलमिला रही थीं।

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राज की उंगलियों में सिगरेट सुलग रही थी। अपने कार्यालय में रिवॉल्विंग चेचर की पुश्त से सटा वह सामने वाली दीवार पर लगी एक पेंटिंग को देख रहा था।

एकाएक द्वार खुला और अधेड़ आयु के एक व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया। राज के होंठों पर गर्वपूर्ण मुस्कुराहट फैल गई। उसने सिगरेट ऐश ट्रे में कुचल दी और चौंकने का अभिनय करते हुए उठकर बोला- ‘नमस्ते अंकल! आईए-आईए ना।’

ये आलोक नाथ थे जो द्वार के निकट खड़े राज को यों देख रहे थे-मानो संसार के किसी बड़े आश्चर्य को देख रहे हों। राज उन्हें यों विचार मग्न देखकर फिर बोला- ‘अंकल! लगता है-आप मुझे भूल गए हैं। मैं राजू हूं-राजू यानी राज। बैंक चपरासी श्रीमान राजारामजी का बेटा।’

‘ओह!’ आलोक नाथ के होंठों से निकला। किन्तु आंखों में फैले आश्चर्य के भाव कम न हुए।

‘आप शायद यह देखकर हैरान हैं कि एक चपरासी का बेटा, जो किसी समय कॉलेज की फीस भी नहीं दे पाता था-एकाएक ‘सुषमा फिल्म कंपनी’ का मालिक कैसे बन गया।’

आलोक नाथ कुछ भी न कह सके।

राज उनके समीप आया और फिर बोला- ‘बात आश्चर्यजनक तो है अंकल! किन्तु अनहोनी नहीं। अनहोनी इसलिए नहीं-क्योंकि भाग्य बदलते देर नहीं लगती। सब कुछ विधाता के हाथ में होता है। विधाता चाहता है तो राजा को एक ही पल में रंक और रंक को राजा बना देता है। असल में मेरे एक चाचा जी थे-वेणी प्रसाद। उनका हमारे परिवार से खून का रिश्ता न था। किन्तु जो रिश्ता था-वह खून के रिश्ते से भी बढ़कर था। इस शहर में वे वर्षों हमारे साथ रहे। उनका अपनों के नाम पर तो कोई था नहीं-अतः वे हमारे परिवार को ही अपना परिवार मानते थे। मुझसे विशेष मोह था उन्हें। बचपन में मैं उन्हीं के पास सोता था और उन्हीं के हाथ से खाना खाता था। फिर एक दिन पिताजी से उनका किसी बात पर झगड़ा हो गया और वे गुजरात चले गए। गुजरात में उनके मामा हीरों का व्यवसाय करते थे। समय का ऐसा चक्र चला कि मामा का देहांत हो गया और उनकी करोड़ों की संपत्ति उन्हें मिल गई। फिर एक दिन वेणी प्रसाद भी दुनिया से चले गए और मरने से पूर्व अपनी कुल चल-अचल संपत्ति मेरे नाम लिख गए। यूं समझिए कि विधाता ने मुझे छप्पर फाड़कर दिया और रंक से राजा बना दिया। लेकिन-लेकिन आप खड़े क्यों हैं? बैठिए न।’

आलोक नाथ बैठ गए।

राज ने बैठकर चपरासी से कोल्डड्रिंक लाने के लिए कहा और इसके उपरांत आलोक नाथ के चेहरे पर नजरें जमाते हुए वह बोला- ‘मैनेजर सक्सेना ने मुझसे आपके विषय में बताया था। यह जानकार खुशी हुई कि आप...।’

‘अब मेरा वैसा कोई इरादा नहीं।’

‘क्या मतलब?’

‘मैंने ठेके लेने का विचार त्याग दिया है।’

‘ऐसा क्यों अंकल? क्या आप ये सोचते हैं कि इस ठेके से आपको कोई लाभ न होगा?’

‘लाभ तो होगा-किन्तु मैं बीती बातों को दिमाग से न निकाल पाऊंगा। मुझे आज भी वो दिन याद है, जब तुमने मेरे सामने डॉली से शादी करने की बात रखी थी।’ आलोक नाथ मन की बात कह गए।

‘और आपने मेरी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था।’ राज ने कहा- ‘आपने साफ-साफ लफ्जों में कह दिया कि तुम डॉली के योग्य नहीं। इसके अतिरिक्त आपने मुझसे यह भी बता दिया था कि मेरी हैसियत क्या है। किन्तु विश्वास कीजिए-इसमें आपका कोई दोष न था। आपने तो मेरे सामने एक सच्चाई रखी थी। आपके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति होता तो वह भी मेरी मांग को ठुकरा देता। वास्तव में यह दोष तो मेरा था। मुझे डॉली के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए था। मुझे यह देखना चाहिए था कि मेरी औकात क्या है-मेरी हैसियत क्या है। सच पूछिए तो आपसे मिलने के पश्चात् मुझे अपनी बात पर बेहद पश्चाताप हुआ था। कई बार यह भी सोचा था कि आपसे क्षमा मांग लूं, किन्तु साहस न जुटा सका था।’

‘क्या-क्या तुम सच कह रहे हो राज बेटे!’ कांपती आवाज में आलोक नाथ बोले- ‘क्या तुम्हें मुझसे वास्तव में कोई शिकायत नहीं?’

‘विश्वास कीजिए अंकल! मुझे वास्तव में आपसे कोई शिकायत नहीं। और वैसे भी-आप तो मेरे पिता समान हैं-श्रद्धेय हैं। आपसे कैसी शिकायत?’ तभी चपरासी कोल्डड्रिंक ले आया।

राज बोला- ‘लीजिए, कोल्डड्रिंक लीजिए अंकल!’

बोतल अपनी ओर सरकाकर आलोक नाथ बोले- ‘मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें समझने में भूल की।’


‘कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है। भूल जाइए सब और अब सिर्फ एक वचन दीजिए।’


‘वह क्या?’


‘आप इस कंपनी को अपनी समझेंगे और इसके लिए काम करेंगे।’


‘अवश्य राज! अवश्य।’


राज कोल्डड्रिंक के घूंट भरने लगा। कुछ क्षणोपरांत वह बोला- ‘सुना है-ठीक एक सप्ताह बाद डॉली की शादी है?’

‘हां।’ आलोक नाथ धीरे से बोले। मानो कहते हुए भय लगा हो। फिर एक पल रुककर उन्होंने कहा- ‘किन्तु मुझे अफसोस है कि...।’

‘अंकल! आज जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे मैं समझ रहा हूं। किन्तु आप इस संबंध में कुछ न सोचें। डॉली का विवाह हो रहा है-इस समाचार से मुझे दुःख नहीं बल्कि प्रसन्नता हुई है। मैं तो केवल यह कहना चाह रहा था कि अभी तो आप शादी के कारण व्यस्त रहेंगे।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। मैं अपना काम कल से ही आरंभ कर दूंगा।’

‘यह तो और भी अच्छी बात है।’ इतना कहकर राज ने इंटरकॉम का रिसीवर उठाया, अपने मैनेजर सक्सेना से कहा- ‘सक्सेना जी! आप आलोक नाथ जी को आधे पेमेंट का चैक आज ही दे दें।’

‘लेकिन सर!’

‘मिस्टर सक्सेना! जो कहा है, वही कीजिए। और हां-इस बात का भी ध्यान रखिए कि इन्हें भविष्य में भी कोई परेशानी न हो।’

‘ओ-के- सर!’ दूसरी ओर से सक्सेना की आवाज आई।

राज ने रिसीवर रख दिया।

बोतल हाथ में लिए आलोक नाथ उसे यों देख रहे थे-मानो उन्हें अनजाने में कोई फरिश्ता मिल गया हो।

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ज्योति ने ज्यों ही केक काटा-पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मेहमानों ने उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दी। किन्तु उन मेहमानों में डॉली न थी। वह तो इस भीड़ से अलग, गैलरी में खड़ी मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही थी।

एकाएक किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा। डॉली चौंकी गई। मुड़कर देखा, यह उसका मंगेतर प्रोफेसर आनंद था जो उससे कह रहा था- ‘सॉरी डॉली! आने में थोड़ी देर हो गई।’

‘कब आए?’

‘ठीक दस मिनट पहले। केक मेरे सामने ही काटा गया है। तुम्हें हॉल में न पाकर यहां चला आया। आओ-अब चलें।’

‘कहां?’

‘हॉल में-वहां सब लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ज्योति तो तुम्हारे विषय में रेणु और तारिका से भी पूछ रही थी।’

‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं।’

‘क्यों?’

‘सर में भारीपन है। शोर-शराबा बुरा लगता है।’

‘तो आओ-बाहर चलते हैं। थोड़ी देर इधर-उधर घूमेंगे तो ठीक हो जाएगा।’

‘ज्योति क्या सोचेगी?’

‘लौटने पर मैं उससे कह दूंगा कि तुम्हारी तबीयत ठीक न थी। मुझे यकीन है-वह बुरा न मानेगी। आओ।’ कहते हुए आनंद ने उसका हाथ थाम लिया।

डॉली इंकार न कर सकी और आनंद के साथ चलकर बाहर आ गई। किन्तु बाहर निकलते ही चौंकी। कोठी के सामने राज की गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी के समीप खड़ा वह द्वार की ओर ही देख रहा था। नीला सूट, काले जूते और वैसी ही मैचिंग टाई में वह किसी राजकुमार से कम न लगता था।

उसे देखकर डॉली के बढ़ते कदम रुक गए। आनंद ने उसे यों रुकते देखकर पूछा- ‘क्या हुआ?’

‘आनंद!’ डॉली ने कनखियों से राज को देखा और आनंद से बोली- ‘हमारा यों पार्टी से जाना ठीक नहीं।’

‘किन्तु तुम्हारी तबीयत।’

‘तुम ऐसा करो-ज्योति से कह दो कि डॉली की तबीयत एकाएक बिगड़ गई है और हम लोग निकट के किसी क्लीनिक तक जा रहे हैं।’

‘ठीक है-मैं कहकर आता हूं।’ इतना कहकर आनंद कोठी में चला गया। डॉली यही चाहती थी। आनंद के चले जाने पर वह राज के समीप आई और बोली- ‘तुम यहां?’

‘देखने आया था तुम्हें। विश्वास था तुम पार्टी में जरूर आओगी।’

‘राज!’

‘राजू न कहोगी?’

‘यह अधिकार मैं खो चुकी हूं।’

‘केवल अपनी ओर से।’ राज ने सिगरेट सुलगाई और बोला- ‘मेरी ओर से नहीं। मुझ पर और मेरे जीवन पर तुम्हारा आज भी उतना ही अधिकार है, जितना पहले था।’

‘नहीं-नहीं राज!’ डॉली बोली- ‘अब अधिकार की बात न कहो। तुम जानते हो-मनुष्य लाख प्रयास करके भी बीते हुए समय को नहीं लौटा पाता। अच्छा होगा कि मुझे भूल जाओ।’


‘एक शर्त पर।’

‘वह क्या?’

‘वह यह कि तुम मुझे भूल जाओगी।’

डॉली कोई उत्तर न दे सकी। राज उसके चेहरे पर फैले एक-एक भाव को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। डॉली को यों मौन देखकर उसने पूछा- ‘कर पाओगी ऐसा?’

‘यह संभव नहीं।’

‘तो फिर मुझसे भी मत कहो कि भूल जाओ। प्यार तो दोनों ने किया है। फिर उसकी सजा केवल मुझे ही क्यों?’

‘सोचती थी-तुम्हारे लिए यह सरल होगा।’

‘नहीं डॉली! यह सरल नहीं। यदि सरल होता तो तुम्हारी स्मृतियां मुझे फिर यहां आने पर विवश न करतीं। तुम्हारी स्मृतियों ने मुझे कितनी पीड़ा दी है, यह तुम न जान पाओगी। यदि तुम्हें भूलना आसान होता तो मैंने तुम्हारी याद में इतने आंसू न पिए होते।’

‘राजू-राजू मुझे दुःख है कि...।’

‘मत दुखी करो अपने आपको। मैंने पहले ही कहा है कि तुम बेवफा न थीं।’

‘किन्तु आज तो...।’

‘नहीं डॉली! मैं तुम्हें आज भी बेवफा नहीं कहूंगा। यह जानकर भी नहीं कि तुम प्रोफेसर आनंद से विवाह कर रही हो। जानती हो क्यों? क्योंकि यह विवाह तुम्हारी नहीं-तुम्हारे पापा की इच्छा से हो रहा है। तुम्हारी आत्मा का इस संबंध से कोई लगाव नहीं। और जब आत्मा ही किसी रिश्ते को स्वीकार न कर रही हो तो इसमें बेवफाई कैसी?’

राज यह सब एक ही सांस में कह गया और फिर डॉली को ध्यान से देखने लगा।

डॉली के चेहरे पर विचारों का तूफान फैला था। वह कुछ कहना ही चाहती थी कि एकाएक कोठी से निकलते आनंद को देखकर यों चेहरा घुमा लिया-मानो राज को जानती ही न हो।

फिर भी निखल ने उससे कहा- ‘कल सायं ठीक छह बजे मैं रोशनी बाग में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।’ इसके उपरांत वह गाड़ी में बैठा और फिर उसकी गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई।

तभी आनंद आ गया।

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कैसे कैसे परिवार Running......बदनसीब रण्डी Running......बड़े घरों की बहू बेटियों की करतूत Running...... मेरी भाभी माँ Running......घरेलू चुते और मोटे लंड Running......बारूद का ढेर ......Najayaz complete......Shikari Ki Bimari complete......दो कतरे आंसू complete......अभिशाप (लांछन )......क्रेजी ज़िंदगी(थ्रिलर)......गंदी गंदी कहानियाँ......हादसे की एक रात(थ्रिलर)......कौन जीता कौन हारा(थ्रिलर)......सीक्रेट एजेंट (थ्रिलर).....वारिस (थ्रिलर).....कत्ल की पहेली (थ्रिलर).....अलफांसे की शादी (थ्रिलर)........विश्‍वासघात (थ्रिलर)...... मेरे हाथ मेरे हथियार (थ्रिलर)......नाइट क्लब (थ्रिलर)......एक खून और (थ्रिलर)......नज़मा का कामुक सफर......यादगार यात्रा बहन के साथ......नक़ली नाक (थ्रिलर) ......जहन्नुम की अप्सरा (थ्रिलर) ......फरीदी और लियोनार्ड (थ्रिलर) ......औरत फ़रोश का हत्यारा (थ्रिलर) ......दिलेर मुजरिम (थ्रिलर) ......विक्षिप्त हत्यारा (थ्रिलर) ......माँ का मायका ......नसीब मेरा दुश्मन (थ्रिलर)......विधवा का पति (थ्रिलर) ..........नीला स्कार्फ़ (रोमांस)
Masoom
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Re: Romance अभिशाप (लांछन )

Post by Masoom »

‘मिस सुषमा!’ राज ने अपने गिलास से शराब का अंतिम घूंट भरा और निकट खड़ी लड़की से कहा- ‘प्यार, वफा-वादे और कसमें-इन सब बातों पर हम यकीन नहीं करते। हमने प्यार को घृणा में बदलते देखा है। वफा को जफा में बदलते देखा है और कसमों को कच्चे धागों की तरह टूटते देखा है। इसलिए भूल जाओ इन शब्दों को। मत कहो कि तुम हमसे प्यार करती हो।’

सुषमा का चेहरा उतर गया। राज की ओर से उसे ऐसे उत्तर की आशा न थी। फिर भी उसने कुछ न कहा और राज के लिए दूसरा गिलास तैयार करने लगी।

‘वैसे।’ राज फिर बोला- ‘इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम तुम्हें नापसंद कर रहे हैं। तुम सुंदर हो-तुम्हारे अंदर वह सब है जो किसी भी पुरुष को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुम एक प्रतिभाशाली लड़की हो।’

‘थैंक्यू सर! आपने मेरे अंदर कुछ तो देखा।’ इतना कहकर सुषमा ने गिलास राज की ओर बढ़ा दिया और एकाएक कुछ सोचकर बोली- ‘वैसे, एक बात पूछूं सर?’

‘वह क्या?’

‘आपने वास्तव में कभी किसी से प्यार नहीं किया?’

‘किया था।’

‘शायद मंजिल न मिली होगी।’

‘हां।’

‘बेवफा कौन था-वह अथवा आप?’

‘वह।’

‘आपकी प्रेमिका?’

‘हां।’ राज ने घृणा से कहा- ‘उसे प्यार की नहीं-दौलत की जरूरत थी। उसे प्रेमी के रूप में एक ऐसे साथी की जरूरत थी, जो उसे हर रोज चांदी के सिक्कों में तोलता। जिसके पास आलीशान बंगला होता, नौकर होते, कार होती। मेरी प्रेमिका के लिए प्यार का कोई महत्व न था, उसके लिए महत्व था सिर्फ दौलत का। और इसीलिए उसने मुझे ठुकरा दिया। तोड़ डालीं सब कसमें, झुठला दिए वादे। खून कर दिया मेरे प्यार का।’

‘और।’ सुषमा उसके समीप बैठ गई और बोली- ‘यह सब इसलिए हुआ-क्योंकि उस समय आपके पास दौलत न थी?’

‘हां।’ गिलास से एक घूंट भरकर राज बोला- ‘क्योंकि मैं निर्धन था। किन्तु उसके इस व्यवहार ने-उसकी बेवफाई ने मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दी। उसने मुझसे बताया कि प्यार के किस्से सिर्फ किताबों में अच्छे लगते हैं। अन्यथा-हकीकत की दुनिया में कोई किसी से प्यार नहीं करता। धरती के इस छोर से लेकर उस छोर तक कहीं प्यार का महत्व नहीं। महत्व है तो सिर्फ दौलत का?’

सुषमा मौन रही।

नशे की अधिकता के कारण राज ने उसे अपनी ओर खींच लिया और बोला- ‘और जानती हो-ठीक एक वर्ष पश्चात्, तब मैं उससे एक अमीर व्यक्ति के रूप में मिला तो क्या हुआ? उसकी आंखें भर आईं मुझे देखकर-उसे पश्चाताप हुआ बीते समय पर! प्यार उमड़ आया उसके हृदय में मेरे लिए!’ कहकर राज हंस पड़ा।


सुषमा ने गिलास उसके होंठों से लगाकर कहा- ‘लीजिए-इसे खाली कीजिए और सब कुछ भूल जाइए।’

राज ने गिलास खाली कर दिया।

तभी इंटरकॉम बजा।

सुषमा ने रिसीवर उठाकर राज को दिया तो वह बोला- ‘यस।’

‘सर! मिस्टर पंकज आए हैं।’

‘ठीक है-भेज दो।’ कहकर राज ने रिसीवर रखा और सुषमा से बोला- ‘सुषमा! यह सब उठाओ और अपने केबिन में बैठो।’

‘किन्तु सर!’

‘एक जरूरी मीटिंग है।’

‘ठीक है सर!’

फिर सुषमा चली गई और राज एक सिगरेट सुलगाकर उसके हल्के-हल्के कश खींचने लगा। ठीक उसी समय द्वार खोलकर किसी ने शिष्टता से कहा- ‘श्रीमान! क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’

‘यस-कम इन।’

आगंतुक ने अंदर प्रवेश किया। आयु 40 वर्ष के आस-पास, खिचड़ी बाल और आंखों में संसार भर की निराशा। राज के सम्मुख आते ही वह बोला- ‘पंकज-पंकज शर्मा!’

‘बैठिए।’

पंकज शर्मा बैठ गया।

राज ने उससे पूछा- ‘क्या करते हैं?’

‘सर! मैं राइटर हूं। अखबार में आपकी कंपनी का विज्ञापन देखकर आया हूं।’

‘क्या-क्या लिखा है आज तक?’

‘बहुत कुछ लिखा है सर! सैकड़ों कहानियां, उपन्यास और यहां तक कि कविताएं भी।’

‘क्या मिला इतना सब लिखकर?’

‘सिर्फ निराशा और ठोकरें। बहुत कोशिश की सर! बहुत से लोगों से मिला। किन्तु उन्होंने मुझे छापना तो दूर मुझसे बात तक न की।’

‘इसमें लोगों का नहीं-आपका दोष था। आप जमाने के साथ नहीं चले। आपने केवल वह लिखा, जो आप चाहते थे। आपने वह नहीं लिखा जो लोग चाहते थे। ये ही बातें आपकी असफलता का कारण रहीं। आप राइटर होकर भी जिंदगी की यह सच्चाई नहीं समझे कि जो लोग जमाने के साथ नहीं चलते-जमाना उन्हें ठोकर मार देता है।’

‘मैं-मैं समझा नहीं सर!’

‘मिस्टर पंकज! आप कल आइए। मैं आपको सब कुछ समझा दूंगा। किन्तु यह सोचकर आइए कि आपको लिखना है। आपको वह नहीं लिखना है, जो आप चाहते हैं। बल्कि आपको वह लिखना है जो मैं चाहता हूं। मैं आपको आकाश की ऊंचाइयों पर पहुंचाने का वादा तो नहीं करता, किन्तु इतना अवश्य विश्वास दिलाता हूं कि आप भूखे पेट न सोयेंगे। और हां-एक बात और। यदि आप स्वयं को आदर्शवादी मानते हैं-तो अपने आदर्शों को घर छोड़ आइए। क्योंकि मुझे सिर्फ आपकी कलम की जरूरत रहेगी-आपके आदर्शों की नहीं।’

‘ठीक है सर!’ पंकज शर्मा ने कहा और उठ गया।

‘आप आएंगे न कल?’ राज ने पूछा।

‘यस सर! मैं जरूर आऊंगा।’

इतना कहकर पंकज शर्मा चला गया और राज सोफे की पुश्त से सट गया।

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