Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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Re: Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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यह एक हरा-भरा हरियाली वाला इलाका था।

'देवकाय हूरा बरहा को कन्धे से लगाये, अपने खास अंदाल में चला जा रहा था। उसके कन्धे से लटकी घन्टी टन-टन बोल रही थी। वह न दौड़ रहा था ना तेज चल रहा था, इसके बावजूद धती उसके पैरों से तेजी से खिसक रही थी।

शीघ्र ही 'वृक्ष-द्वार आ गया यह इस मायावी बस्ती की आखिरी सीमा थी यह एक बहुत विशाल चौड़े तने का पेड़ था। इसी में एक दरवाजा बना हुआ था। यह ऐसी खुली जगह थी कि हूरा जैसा देवकाय शख्स भी आसानी से इस तने में प्रवेश पा सकती था। हूरा पेड़ के निकट पहुंचकर रूका। उसने अपने कन्धे पर लटकी जंजीर उतारी। उसमें लगी घन्टी तेजी से बजी। हूरा ने जंजीर घुमाकर जोर से तने पर मारी और कड़कदार आवाजा में बोला-"मैं हूं हूरा..... ।''

ओ हूरा....तुझे कौन नही जानता। आ जा, अन्दर आ जा..... ।'अन्दर से आवाज आई, लेकिन बोलने वाला दिखाई नहीं दिया ।हूरा थोड़ा-सा सिर झुकाकर तने में दाखिल हुआ। अन्दर अन्धेरा था, लेकिन हूरा को मालूम था कि अन्दर किसतरह का रास्ता हैं। यह एक ढलवां रास्ता था। वो रेत पर तेजी से नीचे अतरता चला गया |कुछ ही क्षणों बाद वे अन्धेरे से निकल रोशनी में आ गया। तेजी से रेत पर दौड़ने लगा। जैसे कोई तेज रफ्तार ऊंट। उसके पीछे रेत का बादल उठता जा रहा थ। फिर देखते ही देखते इस रेत के बादल में गुम हो गया ।उधर......... देवांग, दरिया के किनारे, एक पेड़ के नीचे खड़ा हूरा का प्रतीक्षक था। उसे परमान का सन्देश मिल चुका था और परमान ने दिशा-निर्देश उसे भेजे थे,

उसे अब उन्हीं के अनुसार अमल करना था |हूरा ने पहुंचने में देर न लगाई थी।वो ने दौड़ रहा था, ना तेज-तेज चल रहा था। इसके बावजूद धरती उसके पैरों के नीचे से खिसक रही थी। वो कुछी क्षणों में देवांग के सामने आ खड़ा हुआ ।मासूम बरहा अभी तक बेसुध थी और और हूरा के कन्धे से लगी हुई थी। हूरा ने उसे कन्धे से हटाकर अपने दोनों हाथों में सम्भाला और अपने हाथ आगे करते हुए बोला-"मैं हूं हूरा! देवांग, तेरे लिए परमान की अमानत लाया हूं। इसे वसूल कर........।

"देवांग ने बरहा को उसके हाथों से लेकर अपने कन्धे से लगा लिया और बोला-"हूरा, मैं तुझे जानता हूं। मैंने परमान की अमानत वसूल की। मुझे परमान का पैगाम मिल चुका हैं। अब तू लौट जा.... | अब मैं जानूं और मेरा काम.... ।'"

"ठीक हैं देवांग....मैं जाता हूं।"यह कहते हुए हूरा ने कन्धे से जंजीर उतरी और पीतल की घन्टी को जोर से जमीन पर मारा और साथ ही नारा उछाला-"मैं हूं हूरा..... । घन्टी के जमीन से लगते ही, वहां से रेत का बादल-सा उठा और हूरा उसमें गुम हो गया ।हूरा के जाने के बाद देवांग दरिया में उतर गया और पूरी सावधानी के साथ दरिया के दूसरे किनारे की तरफ बढ़ने लगा।
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शाम होने को थी ।समीर राय बैड पर लेटा ‘गजलों का कैसेट सुन रहा था। उसकी आंखे बन्द थी।सहसा उसे अहसास हुआ जैसे उसके सिरहाने कोई खड़ा हैं। समीर राय ने आंखे खोली तो अपने सामने मायरा को खड़े देखा। उसे अपने सामने पा वह फौरन उठकर बैठ गया |मायरा का यहां उसके मरे में आना कोई आश्चर्यजनक बात न थी। वह हवेली में आती रहती थी और जब भी आती थी....समीर राय से मिले बिना न जाती। समीर राय भी उससे बड़ी शालीनता से पेश आता था।

"ओह! गजल सुनी जा रही हैं.....।" मारया मुस्कुराकर बोली-"इस गाने वाले की मेरे पास भी दो दो कैसेट्स है।

"अच्छा.....।'' समीर राय ने उसे प्रशसापूर्ण नजरों से देखा ओर रिमोट से ‘डक' की आवाज धीमी कर दी।

यह आप हर वक्त अपने कमरे में ही क्यों सिमटे रहते है....?" मायरा ने उसे निहारते हुए पूछा। मुझे तन्हाई पसन्द हैं...।"

समीर राय बुझी-बुझी मुस्कान के साथ बोला।

"तन्हाई पसन्दी....आहिस्ता-आस्तिा इन्सानों से दूर लो जाती हैं....।'' वह बोली ।

“मैं इन्सानों से दूर ही रहना चाहता हूं....।" समीर खुलकर मुस्कुराया।

"इन्सानों से इस बेजारी की वजह.....?"

"पता नहीं.....।" समीर राय बहस में उलझना नहीं चाहता था...सो उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया। आइये, बाहर चलें...........।"

मायरा क्षणिक विलम्ब बाद बोली।"बाहर, कहां.....?"

"हवेली से बाहर। अपनी जीप निकालिये और मुझे मेरे गांव तक छोड़ आइये..... ।' शोख मीठे स्वर में अनुरोध भी था और अपनत्वपूर्ण आदेश भी।"

ओह,तो यह प्राब्लम है। ठीक हैं, मैं चलता हूं.... ।'" समीर राय ने सामने से एक ऊंट आता हुआ देखा। उसने अपनी जीप की रफ्तार धीमी कर दी। फिर जब वह ऊंट जीप के पास से गुजरने लगा तो समीर उसे ऊंट पर बैठी औरत को देखकर चौंक पड़ा।
वह नमीरा थी।

वे दो ऊंट थे। दोनों सड़क के किनारे आगे-पीछे चल रहे थे। सड़क छोटी थी, इसीलिए इन्हें देखकर समीरा राय ने अपनी जीप की रफ्तार कम कर ली थी। यूं जब पहला ऊंट उसकी गाड़ी के सामने से गुजरा तो उसने कयामत ढाह दी। ऊंट की काठी में जो औरत बैठी थी....वह शत-प्रतिश नमीरा थी। उसकी अपनी बीवी नमीरा। हालांकि उसका लिबास देहाती था और उसने कोहनियों तक चूड़िया पहनी हुई थी ।समीर राय ने नमीरा को देखते ही ब्रेक लगायें.....लेकिन तब तक नमीरा का ऊंट आगे बढ़ चुका था। अब दूसरा ऊंट उसके सामने से गुजर रहा था। इस ऊंट पर एक मर्द सवार था, जिसकी दाढ़ी और सिर के बाल बेतहाश बढ़े हुए थे। उसका शरीर एक सफेद चादर से ढका हुआ था। उसकी रंगत सांवली थी और आंखों में जैसे एक खास चमक थी ।यह शख्स भी समीर राय को कुछ जाना-पहचाना लगा ।वह शख्स वाकई जाना-पहचाना था। समीर राय को यह मलंग-फकीर नुमा शख्स अपने पूर्वजों के कब्रिस्तान के रास्ते में मिला था और इसने कहा था-"मूर्ख, कब्रिस्तान क्यों जाना है...खाली कब्रों में क्या रखा है। जाना हैं तो रेगिस्तान में जा.........।"वह इस तरह की बात कहकर फिर पेड़ों के झुण्ड में गायब हो गया था।

“मायरा, तुमने देखा......?" वह आश्चर्यचकित लहजे में बोला था।

"क्या...?" मायरा ने पूछा।

"वह पहला ऊंट....उस पर नमीरा सवार हैं.....।" वह बेताब-सा बोला ।

मैंने नहीं देखा। मैंने इन्हें आम से ऊंट सवार समझकर तवज्जों नहीं दी, लकिन यह कैसे हो कसता हैं । वह नमीरा भाभी कैसे हो कसती है। वह तो मर चुकी है.......।" मायरा ने पीछे मुड़कर देखते हुए कहा ।सड़क इतनी छोटी थी कि गाड़ी बैक करने में वक्त लगता, इसलिए समीर राय जीप से कूद गया और उन ऊंटों के पीछे दौड़ती हुए चीखा-“रूको.....मेरी बात सुनो........।"
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Sexi Rebel
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समीर राय को अपने पीछे आते देखकर उस ऊल-जलूल शख्स ने जिसका नाम आघड़नाथ था, ने अपने मुंह से एक अजीबो-गरीब आवाज निकाली। इस आवाज के साथ ही दोनों ऊंटों ने रफ्तार पकड़ ली ।समीर राय ने जब ऊंटो के दौड़ते हुए देखा तो वह फौरन रूक गया, फिर जल्दी से वापिस पलटा और उछलकर अपनी जीप में आ बैठा। कोशिश कर गाड़ी की व स्पीड बढ़ा दी।आगे एक मोड़ था। वे दोनों ऊंट अब उस मोड़ की वजह से नजर नहीं आ रहे थे। इस सड़क के दोनों तरफ बाग थे |जब जीप सड़क को मोड़ काटकर सीधी सड़क पर पहुंची तो वे दोनों ऊंटे गायब हो चुके थे। सड़क दूर तक सुनसान पड़ी थी। समीर राय ने मावरा की तरफ देखा।

मायरा आश्चर्यचकित थी।“कहां गये.....वह दोनों ऊंट.....इतनी जल्दी तो वें गायब नहीं हो सकते। कहीं वे इन पेड़ों में तो गुम नहीं हो गये......?"

"मायरा तुम सड़क के इस तरफ नजर रखो......मैं इधर देखता हूं..... ।" समीर राय दो-ढाई किलोमीटर तक जीप को लौटा ले । गया....लेकिन उन्हें वे ऊंट कहीं नजर न आये । वे आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गये थे। निराश होकर समीर राय फिर जीप बैक की और मायरा के गांव की तरफ बढ़ लिया ।उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या था। उसने पहले ऊंटे पर नमीरा को साफ-साफ देखा था। वह देहाती वेशभूषा में थी, पर वह थी नमीरा ही। वह मलंग-सा शख्स भी उसे याद था...जो पिछले ऊंट पर सवार था ।क्या यह सब उसका भ्रम था? उसने जो कुछ देखा था, क्या नजर का फरेब था? आखिर वे दोनों ऊंट इतनी तेजी से गायब कहां हो गये? वह इन्हीं ख्यालों में उलझा रहा.....खामोश बैठा सोचता रहा। यहा तक कि वे अपनी मजिल पर पहुंच गयें नमीरा की सूरत समीर राय को तड़पा गई थी।

बड़ी मुश्किल से तो उसको करार आया था...लेकिन वह एक झलक दिखाकर......इन कुछ क्षणों में ही उसका करार छीन ले गई थी। वह बेचैन हो गया था ।नमीरा की मौत पर करार इसलिए भी देर से आया था कि नमीरा का विधिवत् कफन-दफन नहीं हो सका था। रोशन राय ने उसकी लाश रौली के जरिये जाने कहां फिकंवा दी थी। सांप के हमले के बाद रोशन राय ने नमीरा वे उसकी बच्ची की सारी कहानी सच-सच सुना दी थी। फिर उसने रौनी से नमीरा की लाश ढूंढ लाने को भी कहा था। रौनी ने उसे सागर तट पर तलाश किया था और ढूंढता-ढूंढता वह उस स्थान पर भी पहुंचा था, जहां नमीरा को रेत में दफनाया गया था, लेकिन उन्हें वहां नमीरा की लाश न मिली थी।रौनी को लाश मिलती भी कैसे? लाश तो उसी दिन और उसी वक्त देवकाय हूरा निकाल ले गया था।हूरा ने नमीरा की लाश दरिया किनारे ले जाकर एक खास जगह रख दी थी। खुद वहां से चला आया था। उसे इस बात से कोई मतलब भी नहीं था कि उसे इस लाश को वहां रखने को क्यों कहा गया है। उसे तो जो हुक्म दिया था....उसने वह काम अंजाम दे डाला था और इतने भर से ही उसका काम खत्म हो गया था ।दरिया किनारे......वहां निकट ही श्मशान घाट था। एक ऊंची जगह बनी झोंपड़ी में ओघड़नाथ मौजूद था। वह आसन लगाय.....आंखे बन्द किये.....ध्यान में मग्न था, जबकि उसकी झोंपड़ी के बाहर बैठे तीन साधू चरस भरी चिलम पीने में मगन थे।जैसे ही लाश नदी किनारे पहुंची........ओघड़नाथ की आंखें फौरन खुल गई। उसने मारे खुशी के नारा लगाया-"आ गई.....आ गई...लाश आ गई..सो पूजा का सामान होगा.....जय काली...उसकी आवाज सुनकर तीनों चरस पीते साधू अन्दर घुस आए।

"क्या हुआ, महाराज......?"

"अरे जाओं.......जल्दी को...ठिकाने पर पहुंच.....'शव-पूजा' का सामान आ गया। आज रात 'शव-पूजा होगी.....।" ओघड़नाथ ने उन्हें जैसे खुशखबरी सुनाई थी ।चरस का नशा तो उन पर पहले ही सवार था....एक औरत की लाश की खबर न उनके नशे को दोगुना कर दिया। वे फौरन ही लाश की तरफ रवाना हो गये। लाश नहीं किनारे एक खास जगह पर मौजूद थी।एक नौजवार व बला की खूबसूरत औरत की लाश देखकर ओघड़नाथ के चेलों के होठों पर मुस्कुराहट आ गई। तीनों मारे खुशी के झूम उठे ।एक चेले ने, जो इन तीनों में कद्दावर व मनहूस सूरत था...नमीरा की लाश को अपने हाथों मे उठाया और वे तेज-तेज चलते वापिस झोंपड़ी में आ गये। ओघड़नाथ के इस चेले ने नमीरा की लाश उसके कदमों में रख दी । ओघड़नाथ ने आंखे खोलकर लाश का जायजा लिया ।वह भी एक खूबसूरज नौजवार औरत की लाश देखकर खिल उठा। उसने एक नारा-मस्ताना उगला-"जय काल...तेरा वार कभी न जाये खाली...ओ दिल वाली..... ।' ओघड़नाथ के तीनों चेले पूजा की तैयारी मे लग गये।

आज की रात एक खास रात थी। अमावस की रात। यह रात ‘शव-पूजा के लिए उपयुक्त भी थी व शुभ भी और संयोग से आज की रात एक शव भी उनके हाथ लग गया था।

रात बाहर बजे 'शव-पूज प्रारम्भ हुआ। लाश की पूजा ।


तीनों चेले एक अर्द्ध-दायरे की शक्ल में लाश के पैरों की तरफ बैठे गये। ओघड़नाथ स्वयं सिरहाने की तरफ था। उसके सामने आग जल रही थी। वह इस आग में श्मशान घाट से जमा की गइ अधजली लकड़ी के टुकडे.....कुछ पढ़-पढ़कर झोंक रहा था और वे तीनों चेले बारी-बारी से लाश पर पानी के छींटे मारते जाते थे और साथ ही समवेश स्वर में समझ में न आने वाले शब्द बोलते जाते थे"शिव शिना की भू–भूला भू..... ।" यह शव शिना में प्राण फूंकने का प्रतिष्ठान था। अजीबो-गरीब हास्यास्पद मंत्र उच्चारण.....ऊल-जलूल हरकतें...ओघड़नाथ के पल-पल रंग बदलते चेहरे व भाव-भंगिमायें....श्मशान का सन्नाटा.....और यह चण्डाल-चौकड़ी। बड़ा ही भयानक मंजर था और फिर.......लगभग दो बजे अंततः लाश में हरकत पैदा हुई। अविश्वसनीय चमत्कार। एक अनहोनी। पहले नमीरा के पांव का अंगूठा हिला। उसके बाद हाथ हिला और फिर....फिर लाश ने अपनी आंखे अचानक खोल दी।आंखे खुली देखकर ओघड़नाथ ने अपना अमल तेज कर दिया। वह जल्दी-जल्दी लकड़ी के टुकड़े अपने सामने जलती आग में झोंकने लगा। उसके मंत्र-उच्चारण में भी बड़ी तेजी आ गई थी-“शिव शिना की भू–भला भू........ ।' एक घन्टा और यह अनुष्ठान इसी तरह जारी रहा इन चारों शैतानों ने खौफजदा होने की बजाय एक नारा मस्ताना लगाया-"जय काली....तेरा बार ने जाये खाली...जो दिल वाली....जल्दी से कर इस लाश को खाली।"उस शैतान के चेलों के ख्याल के अनुसार नमीरा की लाश में काल की रूह प्रवेश कर गई थी और वह उनके इस अमल के मुताबिक और अनुष्ठान के फलस्वरूप लाश की सफाई कर रही थी |सफाई से उनका क्या मतलब था...यह वही समझते थे।कोई आधे घन्टे तक वह लाश बार-बार उठकर बैठती रही, फिर एक वक्त आया कि वह आराम से लेट गई। उसके मुंह से धुआं-सा निकला। मानों लाश की सफाई की कार्यवाही पूरी हो गई थी। काली उस लाश को छोड़कर जा चुकी थी और अब ये वे क्षण थे, जब लाश में अपनी पसन्द की रूह प्रवेश करा दी जाए और यह काम चार बजे से पहले-पहले हो जाना चाहिये था।यही शुभ मुहूर्त था।ओघड़नाथ नमीरा की लाश को देखते ही तय कर चुका था कि शव-पूजा के बाद इसमें किसी आत्मा को प्रवेश दिलायेगा |वह थी शान्ति..... शान्ति उसके मन की रानी थी। वह हाल ही में स्वर्ग सिधारी थी। वह इस श्मशान घाट में इसी झोंपड़ी में और ओघड़नाथ के साथ रहती थी।
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एक रात उसे तेज बुखार हुआ था...दूसरे दिन वह चल बसी थी। ओघड़नाथ अकेला रह गया था ।वो एक लाश की तलाश में था और यह उसकी खुशकिस्मती थी कि हासिल लाश एक जवान ओर अत्यधिक सुन्दर नारी की थी। उसका 'शव-पूजा' वे सफाई का अनुष्ठान सफलतापूर्वक पूर्ण हुआ था और अब वे क्षण आ गये थे,जब 'खाली' शरीर में किसी की रूह को प्रवेश कराया जाना था।ओघड़नाथ ने अविलम्ब इसका अमल शुरू कर दिया |जब यह प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो कहीं दूर से चीखों-पुकार की आवाजें आने लगीं। यूं महसूस होने लगा जैसे झोंपड़ी के आसपा सैंकड़ों बदरूहों ने चीखो-पुकार मचा रखी हो |ओघड़नाथ ने अपने हाथ में चाकू उठा लिया। पैट्रोमैक्स की रोशनी में चाकू की तेज धार चमक रही थी। उसने हाथ आगे करके चाकू की नोंक को आग पर रख दिया और जल्दी-जल्दी कोई मंत्र पढ़ने लगा।फिर उसने चाकू की आग से हटाया.....सीधा । किया...रूहों के चीखो-पुकार की आवाजें बदस्तूर आ रही थी।ओघड़नाथ ने झोंपड़ी के प्रवेशद्वार की तरफ देखते हुए चाकू को रिवाल्वर की तरह तान लिया और बड़े ही अर्थपूर्ण अंदाल में बोला-"चल, आ जा..... ।" उसके चले, आ जा कहते ही हल्की पीले रंग का एक साया-सा अन्दर दाखिल हुआ। वहा धुआं-धुआं सा था....लेकिन इस धुएं की एक शक्ल-सी थी। गौर से देखने पर वह एक मानवाकृति-सी नजर आती थी। इस आकृति के अन्दर आते ही ओघड़नाथ ने चाकू की नोंक से नमीरा के अंगूठे की तरफ इशारा करके कहा-"चल..घुस जा..बोल जय काली...तेरा वार कभी न जाये खाली.... । इसके साथ ही एक नारी स्वर उभरा-"जय काल.... ।

''चल, शाबाश.....जल्दी कर.... ।' ओघड़नाथ ने बेचैन, लेकिन प्यार भरी आवाज में कहा ।वह आकृति नमीरा के पैरों के पास जाकर रूक गई।ओघड़नाथ अपने चाकू से बराबर उस धुएं को लाश में प्रवेश कर जाने का इशारा कर रहा था। वह बड़बड़ता भी जा रहा था-"जल्दी कर....जल्दी कर.... । वह आकृति सुक्ष्म होने लगी और छोटा होते-होते आखिर लुप्त हो गई। यही लगा था जैसे वह सारा धुआं अंगूठे के जरिये नमीरा के शरीर में प्रवेश कर गया हो।यह प्रक्रिया पूर्ण होते ही ओघड़नाथ ने वह चाकू बेग के साथ जमीन में गाड़ दिया और बोला-हां, शान्ति! तूने बसेरा कर लिया ?"

हो......कर लिया....... ।” नमीरा के होंठे हिले, लेकिन यह नमीरा की आवाज न थी। कोई अजनबी आवाज थी।

"चल, फिर उठकर बैठे जा.....।" ओघड़नाथ ने हर्षित स्वर में कहा ।यह सुनते ही नमीरा उठकर बैठे गई।अब वह नमीरा न रही, शान्ति हो गई थी। शरीर नमीरा का और रूह शान्ति की। देख शान्ति! मैंने तुझे वापिस बुला लिया.... | "ओघड़नाथ ने बड़े गर्व के साथ कहा।

"हां, ओघड़....मैं परेशान थी.....भटक रही थी....तेरी जुदाई मुझसे सही नहीं जा रही थी...... ." शान्ति ने खड़े होते हुए कहा।

"महराज........अब हमें क्या आज्ञा चाही।

हां, तुम लोग जाआ.... | मोज...मेला करों....मैं कुछ देर में तुम्हारी झोंपड़ी मे आता हूं...... ।'

“जो आज्ञा, महाराज..... " यह कहकर वे तीनों झोंपड़ी से निकल गये |उनके जाते ही ओघड़नाथ ने शान्ति का हाथ थाम लिया-"मेरी शान्ति..... ।'' वह हसरत भरे लहजे में बोला था-"आ मेरे गले गल जा।"शान्ति उसके गले लग गई।इस तरह नमीरा जी उठी।
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समीर राय ने अगर अपनी नमीरा को देखा था तो गलत नहीं देखा था। वह उसकी नजर का धोखा नहीं था। वह वाकई नमीरा थी।

नमीरा को देखकर समीर राय तड़प उठा था। वह मायरा के गांव में ज्यादा नहीं रूका था। मायरा को छोड़कर फौरन लौट आया था। मायरा ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की थी। वह समझ गयी थी कि इस वक्त उसे रोकना व्यर्थ है। नमीरा की झलक पाकर उसे चुप लग गई थी, वह सारे रास्ते खामोशी से ड्राइविंग करता रहा था।

वह इस बात पर हैरान था कि वे दोनों ऊंट अचानक गायब कैसे हो गये?

पर वे ऊंट गायब नहीं हुए थे। यह सब ओघड़नाथ की कारस्तानी थी। जिस तरह समीर राय ने नमीरा और ओघड़नाथ को पहचान लिया था...उसी तरह ओघड़नाथ ने भी समीर राय को एक नजर में पहचान लिया था।

समीर राय को ऊंट के पीछे भागते देखकर ओघड़नाथ घबरा गया था। पहले तो उसने अपने मुंह से एक अजीब-सी आवाज निकालकर ऊंट को दौड़ाया...

फिर जब उसने देखा कि समीर राय गाड़ी में बैठकर पीछे आ रहा है तो उसने मोड़ मुड़ते ही ऊंटों को रोका व उन्हें सड़क से उतार कर पेड़ों में ले गया।

फिर उसने फौरन ही जाने कैसा मंत्र-पाठ किया.फिर "शिन शिला की भू–भला भू" के उच्चारण के साथ ही मुड़कर सड़क पर फूंक दिया।

हालांकि दोनों ऊंट सड़क के किनारे ही पेड़ों में खड़े थे..जो सड़क के साथ नजर आ रहे थे..लेकिन ओघड़नाथ क्योंकि नजरबन्दी का अमल कर चुका था, इसलिए वे दोनों ऊंट समीर राय को और मायरा को नजर नहीं आ सके।

यूं काफी आगे तक जाकर देखने के बाद भी समीर राय को निराशा ही हाथ लगी थी। ओघड़नाथ ने जब देखा कि समीर राय निराश वापिस लौट गया है तो उसने नमीरा उर्फ शान्ति से कहा
“शान्ति, मेरी प्रिया! घुघट निकाल ले री...।"

"क्यों, क्या हुआ?" शान्ति परेशान होकर बोली।

"तेरी मनमोहिनी सूरत देखकर तेरा पति रूक गया था। मैं अगर अमल न करता तो वह तुझे...अभी ले उड़ा था।"

"ओघड़, तू खामखां ही डर गया था। अरे, उसे जरा मेरे पास तो आने देता...यह जानकर कि मैं शान्ति हूं..अपने ओघड़ की शान्ति–तो वो तो जाता न मुंह लटका के...

___ "हां.ऐसा हो सकता था..लेकिन मैंने खतरा मोल लेना उचित न समझा। चल, अब अपने ऊंट को हांककर सड़क पर ले आ। अब वह बहुत दूर जा चुका है...।"

दोनों ऊंट सड़क पर आ गये और फिर पहले की तरह मस्त गति से अपना सफर तय करने लगे।
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