Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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Re: Horror अनहोनी ( एक प्रेत गाथा )

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इस तरह समीर राय ने हवेली से बुरे लोगों को निकाल बाहर किया और वे सारे लोग अन्धेरों में कहीं गुम हो गये। उन्होंने रोशन गढ़ी को वाकई छोड़ दिया। समीर राय को वह उस इलाके में फिर कहीं नजर नहीं आये यह हवेली में एक खुशगवार परिवर्तन था। उन लोगों के जाने के बाद हवेली में उन लोगों के जुर्म की दास्तानें सुनाई देने लगी। जो लोग अब तक खौफ की वजह से चुप थे.....उन्होंने नई-नई कहानियां सुनाई। बहरहाल, रोशनगढ़ी के वासी अब निश्चित व खुश थे।समीर राय ने अपनी जागीर का काम -काज बड़ी कुशलता के साथ सम्भाल लिया था दिन....महीने.....साल, बीत गये थे। नफीसा बेगम को अब समीर राय की शादी की फिक्र हुई। आस-पास लड़कियों की कमी नहीं थी। खुद नफीसा के भाइयों की लड़कियों की कमी नहीं थी। खुद नफीसा के भाइयों की लड़किया थोक के हिसाब से मौजूद थी। हर तरह की, हर रंग की और हर स्तर की लड़कियां उपलब्ध थीं। बोल-बोल कर कान खा जाने वाली और खामोश रहकर उकता देने वाली लडकियां । हर मिजाज और हर तरह कल लड़कियां सामने थीं....और नफीसा बेगम के बस एक इशारे की देर थी कि उनमे से कोई भी उसकी बहू बन सकती थी।लेकिन वह इशारा किसे करती। इशारा तो ऊपर से होना था। समीर राय को करना था और समीर राय को अपने खानदान की लड़कियों से कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे तो अब वैसे भी लड़कियों से कोई दिलचस्पी नहीं थी ।नफीसा बेगम के इशारों पर मामों की लड़कियों ने हवेली में आना-जाना शुरू कर दिया था। लड़कियां तो खैर पहले भी आती थी और अपनी फूफी से मिलकर चली जाती थी। अब उन्होंने एक खास सोच के साथ आना शुरू कर दिया था। अब वे नफीसा फूफी से मिलकर वापिस नहीं जाती थीं, बल्कि समीर राय के कमरे का चक्कर भा लगाता था ।इन ढेर सारी लड़कियों में एक लड़की उन सब में नुमायां थी। वह सबसे बड़े मामू की बेटी थी। उसका नाम मायरा था। अच्छी खूबसरत लड़की थी। पढ़ी-लिखी थी। उठने-बैठने का सलीका था। दुबली-पतली व खुशमिजाज थी। यह मामू अरशद की सबसे छोटी बेटी थी। नफीसा बेगम की इस मायरा पर ही नजर थी, लेकिन समीर राय अपनी मां की पसन्द व ख्वाहिश से बेखबर था ।समीर राय को तो अपने ही गमों से फुर्सत नही थी कि वो किसी को नजर उठाकर देखता। नमीरा उसके दिल में बैठी हुई थी। वह नमीरा को अभी तक नहीं भूला था। वह उसे शायद भूला ही नहीं सकता था। उसके दिल पर बड़ी सख्त चोट लगी थी और यह जख्म अब शायद जिन्दगी भर भरने वाला। नहीं था। नमीरा के साथ उसे अपनी बच्ची भी याद आती थी। नमीरा की मौत की तो तस्दीक हो गई थी..... लेकिन अपनी बेटी के बारे में वह आशावान था। उसे जाने यह आशा क्यों थी कि उसकी बेटी एक दिन उसे जरूर मिलेगी ।समीर राय ने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसने मुम्बई जाना भी छोड़ दिया था। म्यूजिक भी अब अतीत की बात हो गई थी। वह अपनी मां को अब अकेला नहीं छोड़ सकता था और न नफीसा बेगम उसकी बिना रह सकती थी। यह दूसरी बात थी कभी-कभी मुम्बई से समीर राय के 'म्यूजिक' के दीवारे दोस्त आते रहते थे और तब हवेली में रौनक हो जाती थी। हवेली के बाग में संगीत की महफिल जमती और गाने वाले व बजाने वाले रात गये तक धमाल करते ।इन महफिलों में समीर राय खनदान की लड़कियों को कदापि आमंत्रित नहीं करता था, बस वह होता और उसकी मित्र-मण्डली होती ।समीर राय को मछली के शिकार से भी दिलचस्पी थी। वह एकान्तप्रिय था। शायद इसलिए यह शौक भी पाल लिया था। वह पानी में डोर डाले अपनी कल्पनाओं की दुनिया में गुम हो जाता था....मछली फंसे या न फंसे उसे इसकी परवाह न थी।फिर एक दिन एक अजीब घटना घटी।मायरा की बड़ी बहन सादिया की ‘मेंहदी की रस्म थी। ऐसे समारोह में लड़कियों का इकट्ठा होना जरूरी था और साथ ही बन-सवंर कर आना थी जरूरी था। नफीसा बेगम, समीर राय को अपने साथ बांधकर ले गई। समीर राय अपनी मां के कहने पर चला तो गया, लेकिन एक कोने में बैठा रहा। मेंहदी की रस्म के बाद जब लड़कियों ने एक-दूसरे को उबटन लगाना शुरू किया तो इस खेल में लड़के भी शामिल हो गये और तभी किसी लड़की ने शीशा छेड़ा-“समीर भाई के कोई उबटन लगाये तो जानें........।"

और मायरा को जाने क्या सूझी....उसने यह चैलेंज कबूल कर दिया और हाथ में 'उबटन' लेकर एक तरफ खामोश बैठे समीर राय की तरफ बढ़ी |समीर राय ने जब मायरा को अपनी तरफ आते देखा तो उसने उसका इरादा फौरन भांप लिया। वह एकमद शालीन लहजे में बोला-"देखो, मायरा! मुझे उबटन न लगाना।"\

मायरा तो चैलेंज कबूल करके आई थी, वह समीर राय के अनुराध पर भवा वापिस कैसे जा सकती थी। उसने हाथ बढ़ाकर समीर राय के चेहरे पर उबटन मलना चाही समीर राय ने फौरन उसकी कलाई थाम ली ।मायरा ने अपनी कलाई छुड़ानी चाही तो कट-कट करके उसके हाथ की चूड़ियां मोल गई। एक-दो चूड़ियां मोलकर मायरा की जाजुम कलाई में घुस गई। समीर राय के हाथ में भी चूड़ियां चुभीं। मायरा की कलाई पर गहरा जख्म लगा। भल–भल करके खून बहने लगा दोनों की नजरें मिली। समीर राय शर्मिन्दा था, जबकि मायरा के चेहरे पर जख्मी होने के बावजूद शोखी थी। मैंने मना किया था ना......।" समीर राय ने शिकायतपूर्ण लहजे में जैसे हमदर्दी जतलाई-"जख्म आ गया ना.....।"

मायरा ने कोई जवाब नहीं दिया। बस एक लम्हा गहरी नजरों से उसे देखा और फिर पलटकर लड़कियों में गुम हो गई। तभी लड़कियों ने एकदम शोर मचाया।"मायरा हार गई...मायरा हार गई...।"

समीर राय के कान खड़े हुए। मायरा हार गई। इसका मतलब था कि इन लड़कियों ने आपस में जरूर शर्त लगाई थी। उसे बड़ा दुख हुआ कि अगर वह जरा-सा उबटन लगवा लेता तो उसका कया बिगड़ जाता । यह तो मायरा पर जुल्म हुआ था और उसने तो किसी पर जुल्म करना सीखा ही नहीं था ।वह फौरन उठा।

उसने मायरा को फौरन तलाश किया। वह अभी तक अपनी कलाई पकड़े खड़ी थी......और खून बह रहा था। समीर ने पहले तो अपनी जेब से रूमाल निकालकर उसकी कलाई पर बांधा, फिर मुस्कुराकर बोला-"मायरा हार नहीं सकती। लाओ, लगाओ मुझे उबटन....।"

यह सुनकर मायरा खिल उठी। उसने फौरन समीर राय के चेहरे पर थोड़ा उबटन मल दिया। लड़कियों ने फिर शोर मचाया

"मायरा जीत गई....मायरा जीत गई....।"समीर राय की फितरत में चूंकि किसी को देख देना शामिल ही नहीं था। इसलिये यही सोचकर कि उसने मायरा का दिल दुखाया हैं, उसे पर जुल्म किया है, उससे उबटन लगवा लिया था,

लेकिन मायरा ने इस वाकया को किसी और नजर से लिया और उसकी सहेलियों ने उसकी इस 'जीत' को कुछ का कुछ रंग दे दिया ।समीर राय अब मायरा के ख्वाबों में बस गया......उसके ख्वाबों का शहजादा हो गया |नफीसा बेगम को जब इस घटना का पता चला तो वह बहुत खुश हुई। वह मायरा को अपनी बहू बनाने का सपना देखने लगी। यूं भी मायरा उसकी पहली पसंन्द थी। वह अगर अपनी बहू बनाने का ख्वाब देख रही थी तो कोई बुरा नहीं कर रही थी ।
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बुरा तो इन्तका की आग मे सुलगता राजा सलीम कर रहा था।दो प्रयासों के बावजूद वह समीर राय को ठिकाने नहीं लगा सका था। अपनी नाकामी का बदला उसने बाबू 'करन्ट' को मारकर ले लिया था...लेकिन इन्तकाम की आग अभी तक नहीं बुझी थी। वह समीर राय की मौत का ख्वाहिश मन्द था और इस काम को अब उसने खुद ही करने का इरादा कर दिया था। उसने समीर राय का इर्द-गिर्द अपने 'खबरी' फैलाये हुए थे, जो उस तक समीर राय की गतिविधियों की पल-पल की खबर उसे पहुंचा रहे थे। आज राजा सलीम को मालूम हुआ था कि समीर राय अपने बड़े मामू अरशद के गांव आया हुआ हैं और उस गांव का रास्ता कंगनपुर के करीब से गुजरता था।

राजा सलीम ने अपने साथ चन्द खास आदमी लिये थे और उस रास्ते की तरफ चल दिया था, जहां समीर राय की नाकाबन्दी करके उसे ऊपर पहुंचाया जा सकता था ।मेहन्दी की रस्म के बाद....समीर राय ने अपनी मां को वापिस चलने का इशारा किया तो मामू अरशद की सारी लड़कियां पीछे पड़ गई। उन्होंने नफीसा बेगम से रात को रूकरने की जिद्द की। रात को गीत गाये जाने थे और जब मामू-मामी ने नफीसा के साथ समीर को भी रोकना चाहा तो समीर ने यही उचित समझा कि मां को छोड़ दे और खुद यहां से निकल ले ।नफीसा बेगम हालांकि रूकना नहीं चाहती थी, लेकिन सबकी जिद्द के आगे वह बेबस हो गई। तय यह हुआ कि सुबह को मामू खुद नफीसा बेगम को रोशनगढ़ी छोड आएंगे। इसके बाद समीर राय जीव में रोशनगढ़ी की तरफ रवाना हो गया। उसके साथ दो मुलाजिम थे......जो जीप में पीछे बैठे थे। गाड़ी वह खुद चला रहा था। वे दोनों मुलाजिम हथियारबन्द थे और हथियारबन्द बॉडीगार्ड समीर राय के साथ नफीसा बेगम के हुक्म पर ही रहते थे।समीर राय अधपक्की सड़क पर अपनी जीप को दौड़ाये चला जा रहा था....इस बात से बेखकर कि दुश्मन उसकी घात में बैठा है |

राजा सलीम ने समीर राय पर इस हमले की मन्सूवाबन्दी बड़ी होशियारी से की थी। उसने अपने कई गुर्गे, आमों के पेड़ों पर बैठा दिये थे....जहां से सड़क साफ नजर आती थी। राजा सलीम खुद बाग में, जीप में बैठा था। घने पेड़ों के कारण बाग में अन्धेरा था। सड़क से आने वाला अन्दाजा नहीं लगा सकता था कि कोई अन्दर उसे निशाने पर लिए हुए है।राजा सलीम के पास दूरबीन लगी, टेलीस्कोपिक राइफल थी और उसने अपने आदमियों को सख्त हिदायत कर दी थी कि जब तक वह गोली ने चलाए......कोई गोली नहीं चलाएगा ।सलीम खुद एक माहिर शिकारी था। उसका निशाना बहुत अच्छा था शाम के साये गहरे होते जा रहे थे। वे काफी देर से समीर राय का इन्तजार कर रहे थे। एक मोटरसाइकिल सवार यहां से दो किलोमीटर दूर तैनात था.जिसे समीर राय के गुजरते ही शार्ट-कट से आकर उन्हें सूचित करना था कि शिकार आ रहा है |राजा सलीम को मोटरसाइकिल सवार की इन्तजार बड़ी बेचैनी से थी। उसे यकीन था कि समीर राय आज उसके हाथों बचकर नहीं निकलेगा। उसने अपनी समझ में बड़ी शानदार योजना बना रखी थी।उसके दो बन्दे, पेड़ों पर उसके दाये-बाये बैठे थे, और एक बन्दा उसके पीछे भी था, जबकि वह खुद जीप में इस तरह बैठा था कि मोटरसाइकिल सवार का सिगनल मिलते ही राइफल खुली जीप के शीशे पर रखे और दनादन फायरिंग शुरू कर दे। इसके साथ ही घात लगाये बैठे बन्दे भी फायरिंग में शामिल हो जाएं। समीर राय पर गोलियां की ऐसी बारिश कर दी जाये कि जिन्दा बच निकलने की लेशमात्र भी सम्भावना न रहे राजा सलीम अपनी प्लालिंग से सन्तुष्ट व खुश था, जबकि सबका राजा और इस सृष्टि का मालिक, अपनी मन्सूबेबन्दी में व्यस्त था।

अचानक दूर से मोटरसाकिल की आवाज सुनाई दी।पेड़ों पर बैठे हमलावरों ने अपनी राइफलें सीधी कर ली। राजा सलीम भी मुस्तैद हो गया। वह कोई और मोटरसाइकिल वाला भी हो सकता था...लेकिन हमले के लिए तैयार होना जरूरी था। क्योंकि मोटरसाइकिल वाले के बाग में पहुंचने के बाद समीर राय की जीप के नमुदार होने में ज्यादा देर नहीं लगनी थी।मोटरसाइकिल के सामने आने से पहले ही, एक भारी आम डाल पर से टूटकर, राजा सलीम के पीछे बैठे बन्दे की राइफल की नाल पर गिरा। नाल नीचे को झुकी....लबलबी पर उंगली अचानक दबी...गोली चली और सीधी राजा सलीम की खोपड़ी में गली....जो जीप से समीर राय के लिए मौत का फरिश्ता, खुद मौत का शिकार हो गया था। एक ही गोली ने उसके सिर के चीथड़े उड़ा दिये थे। उसका कहना सच साबित हो गया था......वाकई एक ही गोली बन्दे की जान लेने के लिए काफी होती है।और अब ऊपर वाले को किसी को बचाना होता हैं तो उसे कोई नहीं मार सकता |समीर राय को उस वक्त कुछ पता नही चला कि सड़क के निकट, बाग में उसके लिए क्या जाल बिछाया गया था और उस जाल में खुद जाल बिछाने वाला ही फंस गया था ।वह तो पूरे इत्मीनान के साथ बाग के पास से गुजरकर अपने रोशनगढ़ी पहुंच गया था ।उसे अगले दिन राजा सलीम की मौत का पता चला। गोली चलाने वाला फरार था और यह बात किसी की समझ नहीं आ रही थी कि राजा सलीम के ही एक वफादार ने उसे गोली क्यों चलाई।राजा सलीम की मौत एक पहेली बनकर रह गई।

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परमान अपनी सिंहाराननुमा भव्य कुर्सी पर विराजमान था ।यह भी एक चार दरवाजों वाला बड़ा कमरा था, जिसमें दीवार से दीवार तक सुर्ख कालीन बिछा हुआ था। इस कमरे के एक कोने में ऊंचा स्टेज था। इस स्टेज पर सीढ़ियों तक कालीन बिछा हुआ था। स्टेज पर एक तरफ दो साजिंदे बैठे हुए थे। एक के हाथ में बीन थी और दूसरे के गले में ढोल ।और बीन की आवाज व ढोल की थाप पर तबूत नाच रही थी। कमरे के चारों दरवाजे बन्द थे तबूह के बदन में जैसे बिजलियां भरी हुई थी। वह स्टेज पर बिजली की मानिन्द ही कौंध रही थी। उसका सांवल, खूबसूरत बदन थिरक रहा था। उसकी आंखों में हीरे की-सी चमक थी। उसके शरीर की थिरकन इतनी तीव्र थी कि उस पर नजर जमाना कठिन हो रहा था ।यह नाच लगभग एक घण्टे तक जारी रहा।नाच समाप्त होने पर तबूह स्टेज से उतरी और परमान के सामने झुक गई। तबूह तेरा कोई जवाब नहीं....." परमान ने खुश होकर कहा-"जब तू नाच रही होती हैं तो हमारे अन्दर की दुनिया में एक भूचाल ला देती है। बोल, क्या मांगती हैं......,"

"मुझे कुछ नहीं चाहिये, परमान। तेरे ये मीठे बोल ही मेरे लिए काफी हैं.... ।' तबूह सीधी होते हुए बोली। तभी......अचानक कमरे का एक दरवाजा खुला और नैनी तेजी से अन्दर दाखिल हुई। परमान व तबूह, दोनों चकित से उसे देखने लगे।

इसे क्या हुआ....?" परमान के लहजे में खिन्नता थी। उसे नैनी का यूं आना नागवार गुजरा था।

पूछती हूं...।“ तबूह जल्दी से एक काली चादर अपने बदन पर डालती हुई नैनी की तरफ बढ़ी। क्या हुआ.......?" उसने नैनी को बीच ही में रोक लिया था।"

रनतारों ने दरसी को परेशान का रखा है। वो बाहर खड़ी है। परमान से मिलना चाहती हैं........।" नैनी ने समस्या बताई ।"

अच्छा, तुम यहीं ठहरों.... | मैं परमान से इजाजत लेती हूं.....!" तबूह ने कहा और पलटकर परमान की तरफ आई-'परमान! दरसी आई है। उसको फौरन बुलाएं.....मामला संगीन हैं...... ।' तबूह ने जैसे सिफारिश की।
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"अच्छा.... बुला ओं........ ।'" परमान ने इजाजत दे दी।

कुछ क्षणों बाद ही प्रौढ़ी दरसी परमान के सामने थी। सिर झुकाये खड़ी थी। परमान के बोलने की प्रतीक्षक ।"हां.....बोलों। क्या मसला हैं.....?" परमान ने पूछा।

"परमान अब मुझसे बरहा की हिफाजत नहीं हो पा रही.....।'' दरसी ने क्षमा चाहते लहजे में कहा ।

"क्यों? क्या वह सरकशी (विद्रोह) पर उतर आई हैं?" परमान ने पूछा।

"वह बेचारी क्या सरकशी पर उतरेगी। सरकशी पर तो 'वो' उतरा हुआ है.......।" दरसी ने साहस जुटाकर कहा।"

रनतारों की बात करती है......।'' परमान ने बात समझने की कोशिश की।

"हां, परमान! तून सही जाना....

'"गलती हमारी हैं कि हमने बरहा को....वक्त से पहले....उसके नाम से जोड़ दिया और दूसरी गलत यह हुई कि उसे बता भी दिया कि बरहा तेरी है। रतत्तारों हमारा बेटा हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह हमारी बस्ती की परम्पराओं से बगावत पर उतारू हो जाये। दरसी.....तू फिक्र न कर। हम कल ही बरहा का कोई इन्तजाम कर देंगे। वैसे भी वह अब पांच साल की हो गई है। उसके लिये अब इस बस्ती में रहना दुश्वार हैं....।" परमान ने सोचपूर्ण लहजे में कहा था ।

परमान के बोल सुन दरसी ने सुकून की सांस ली। वह बोली-"परमान! तू बड़ा इन्साफ वाला है.....।"फिर वह उसके सामने आधे कद तक झुकी और वापिस दरवाजे की तरफ चली गई।
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सूरज की पहली किरण उजागर होते ही रहस्यमयी शक्तियों वाले परमान ने हब्शी हूरा को तलब कर दिया ।यह 'बुतों वाला कमरा था और परमान इस वक्त सुर्ख ईटों के फर्श पर काली चमकली खाल पर आसन जमायें बैठा था ।एक दरवाजा खुलते ही देवकाय हूरा नमुदार हुआ। वह झुमता हुआ परमान की तरफ बढ़ा। परमान उसे बड़ी दिलचस्पी से अपनी तरफ आते देख रहा था। निकट आकर हूरा, उसके सम्मान में थोड़ा झुका और फिर सीधा तनते हुए बोला-"परमान, हुक्म कर.... ।'"

"पूरा.......तू कैसा हैं.....?'' कोई हुक्म देने की बजाय परमान ने उसका कुशलक्षेम पूछा ।

"मैं तुझे एक अहम् काम सौंप रहा हूं। तेरी थोड़ी-सी लापरवाही भी तुझे मुश्किल में डाल सकती हैं......।" परमान ने जैसे भूमिका बांधी।

"परमान...तेरी तरफ से कोई कोताही नहीं होगी....तू निश्चित रह...।" हूरा ने विश्वास दिलाया।

"जानता हूं। इसीलिए यह काम तुझे सौंप रहा हूं........।" परमान ने कहा।

"हुक्म कर! क्या करना हैं मुझे?" हूरा ने पूछा।

"बरहा को इस बस्ती से लेकर जाना है....। रनतारों बगावत पर आमादा है। वह कहीं बरहा को नुकसान न पहुंचा दे। उसे सब्र नहीं हो रहा। यह ठीक हैं कि बरहा उसकी हैं, लेकिन बरहा को अभी उसके हवाले करने का वक्त नहीं आया। तुझे बरहा को इस बस्ती की आबो-हवा उसे रास नही। उसका हुस्न मन्द पड़ने लगा है। तू उसे यहां से ले जा और देवांग के हवाले कर आ । बस, तेरा इतना ही काम हैं..... ।" परमान ने आदेश सुनाया |तभी दूसरा दरवाजा खुला और तबूह बरहा का हाथ पकड़े कमरे में दाखिल हुई। बहरा इस वक्त सुनहरी तारों से बना एक अजीबो-गरीब लिबास पहने हुए थी। उसका मासूम हुस्न देखने वाला था।बरहा अपना हाथ छुड़ाकर दौड़ती हुई परमान की तरफ बढ़ी और फिर बेतकल्लुफी से उसके घुटने पर बैठे गई। परमान के सिर पर ताज की तरह बैठे सांप ने सिर झुकाकर बरहा को सलामी दी और फिर पूर्ववतः सीधा होकर बैठ गया ।परमान ने बरहा का एक हाथ पकड़कर चूमा और फिर उसे उठाकर अपने सामने खड़ा कर लिया। उसने गौर से बरहा की तरफ देखा और मुंह-ही-मुंह में कुछ बड़बड़ाया। बरहा पर फौरन ही अचेतना-सी व्याप्त होने लगी, फिर यह एकदम परमान के हाथों पर झूल गई हूरा, बरहा की बजाया तबूह को बड़ी दिलचस्पी से देख रहा था। तबूज ने उसकी नजरों की तपिश अपने चेहरे पर महसूस कर ली..... लेकिन उसने हूरा की तरफ आंखें उठाकर न देखा ।वह बदस्तूर बरहा की तरफ ही देखती रही। बेसुध बरहा वैसे भी इस वक्त बहुत प्यारी लग रही थी तबूह ने बरहा के फूल से गाल पर प्यार किया और उसे हूरा की तरफ बढ़ा दिया। हूरा ने बड़ी कोमलता व सावधानी के साथ बरहा को अपने हाथों में ले लिया और फिर यंत्रवत् ही वापसी के लिए मुड़ गया ।तबूह के दिल में एक कसक-सी उठी। हूरा हर । मुलाकात पर उससे यह जरूर पूछा करता था कि-कैसी हो तबूह?.....और आज उसने कोई बात नहीं की थी। तबूज के दिल में एक टीस-सी उठी और वह ऊंचे लम्बे हूरा को दरवाजे की तरफ बढ़ते देखकर उदासी से मुस्कुरा दी और उसके होठों पर अब एक आह उभरी-"बहशी..... ।"

हूरा बरहा को उठाये दरवाजे से निकल गया। उसको निकलने के बाद जब दरवाजा बन्द हो गया तो तबूह परमान की तरफ पलटी ।परमान ने उसका चेहरा गौर से देखा.....उसके चेहरे पर उदासी की झलक देख उसने पूछा-"क्या हुआ तबूह? तू उदास की झलक देख उसने पूछा-"क्या हुआ तबूह? उदास क्यों हो गई है....?

"दिल मे चोर था। तबूह एकदम परेशान हो गई। वह क्या जवाब दे? क्या परमान को बता दे कि हूरा तो हर मुलाकत पर उसकी खैरियत पूछता था.....आज उसने उससे उसका हाल नही पूछा। पर वह साहस न कर सकी। एकदम बात बनाते हुए बोली-"परमान.....बरहा बस्ती से चली गई। क्या यह उदासी की बात नहीं ?"-

"अच्छा, तो तू बरहा के लिए उदास हैं" परमान ने सिर हिलाते हुए कहा-"हां, तबहू बरहा ऐसी ही है कि उससे जुदाई पर उदास हुआ जाए। रनत्तारों बहुत खुशकिस्मत हैं कि उसकी तकदीर में बरहा लिख दी गई है, मगर वे बेसब्रा सब्र करने के लिए तैयार नही। उसे सब्र करना होगा। तबूह, तुम उसे समझाओं....वरना मेरे हाथों सजा पायेगा... |"

"परमान तू फिक्र न करे.....मैं समझाऊंगी उसें। वैसे भी अब बरहा बस्ती से जा चुकी है। अब किसी खतरे की बात नहीं....।"

"हां, तू ठीक कहती हैं....।" यह कहकर परमान उठ गया । और फिर तेज-तेज चलता हुआ उस बुतों वाले कमरे से बाहर निकल गया
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