Horror ख़ौफ़

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rajsharma
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Re: Horror ख़ौफ़

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उस आदमी का कद छः फीट से भी अधिक था, जो एक खेत के किनारे पेट के बल लेटा हुआ किसी चौपाए पशु की भांति पानी पी रहा था। बरसात का मौसम होने के कारण खेत पानी से लबालब भरा हुआ था, जिसके बीच से गुजरती हुई एक कच्ची सड़क शंकरगढ़ की छोटी-छोटी बस्तियों से होते हुए दक्षिण के घने और रहस्यमयी जंगल में गुम हो गयी थी। आदमी उसी सड़क पर था।
सड़क की चौड़ाई इतनी पर्याप्त थी कि किचड़ न होने की स्थिति में वहां से शाही सवारी अपने लश्कर के साथ बिना किसी कठिनाई के गुजर सकती थी, किन्तु आज ये संभव नहीं था क्योंकि पिछले दिन हुए बारिश के कारण जगह-जगह की मिट्टी किचड़ में तब्दील हो चुकी थी और आकाश में तैरते बादल के टुकड़े कभी भी धरा पर अथाह जल उड़ेल सकते थे। पहियों के किचड़ में धंस जाने की फजीहत से बचने के लिए घोड़ागाड़ी को सड़क पर न उतारना ही तर्कसंगत था।
सड़क पर लेटकर पशु की शैली में पानी पी रहे आदमी की बड़ी-बड़ी आंखें इस कदर लाल थीं कि उनमें लहू के कतरों के तैरने का आभास होता था। उसकी नाक लम्बी थी। दाढ़ी के बाल छाती तक लम्बे और मुछें काली तथा घनी थीं, जिन्हें रक्तरंजित देखकर अनुमान होता था कि उसने थोड़ी देर पहले ही किसी जानवर को कच्चा चबाया था; संभवतः चूहे या खरगोश को। और अब प्यास बुझाने के लिए यहां लेटा हुआ था। चेहरा स्याह और होंठ रक्तिम थे। जिस्म पर धूल-धूसरित काला लबादा था। अगर वह भयानक आदमी हंसता तो उसे निःसंदेह नरपिशाच समझ लिया जाता।
“मनुष्य जैसा दिखने वाला यह पशु कौन है?”
वातावरण में किसी नारी स्वर के गूंजते ही उस विकृत पुरुष ने गिरगिट की मानिंद आवाज की दिशा में गर्दन उठायी।
थोड़ी ही दूर पर एक खूबसूरत युवती अपनी दो सखियों और चार अंगरक्षक सैनिकों के साथ खड़ी थी। युवती; जो संभवत: इस क्षेत्र की राजकुमारी की हैसियत रखती थी, आज के खुशनुमा मौसम का लुफ्त उठाने हेतु पैदल ही गंतव्य के लिए निकली थी।
आदमी ने ज्यों ही राजकुमारी की दिशा में देखा, उसका विकृत स्वरूप राजकुमारी को नजर आ गया। खून पुते दाढ़ी के काले बाल, डरावनी आंखें और खेत में भरा पानी पीने का उसका ढंग देख राजकुमारी के बदन में सनसनी भर गयी।
“ये अभयानन्द है राजकुमारी माया।” एक अंगरक्षक ने माया के कान में फुसफुसाते हुए कहा- “स्टेट के लोग इसे पागल कहते हैं। ये वहशी भी है। इसके बारे में प्रचलित है कि यह भूख लगने पर चूहे, खरगोश और बिल्ली जैसे छोटे जानवरों को पकड़कर उन्हें कच्चा चबा जाता है।”
उस विकृत पुरुष का परिचय पाकर माया के चेहरे पर उसके लिए घृणा नजर आने लगी।
“मार्ग से हट।” एक सैनिक ने अभयानन्द को लक्ष्य करके घृणित स्वर में कहा, क्योंकि उसके लेटे होने के कारण उसका छः फुट का कद आधे से भी अधिक मार्ग को अवरुध्द किया हुआ था।
अभयानन्द एक ही झटके में जमीन से उठकर खड़ा हो गया। उसकी आंखें इस
कदर माया के चेहरे पर ठहर गयीं मानो उसे माया के अलावा कोई और नजर ही न आ रहा हो। माया को देखने के उसके अंदाज पर सैनिकों का क्रोध उबल पड़ा।
“दृष्टि नीचे रख नीच। क्या जानता नहीं कि ये शंकरगढ़ स्टेट की राजकुमारी माया हैं?”
अभयानन्द पर चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ। आंखों में वासना की धधकती लपटें लिए हुए वह सम्मोहित चाल से माया की ओर बढ़ने लगा।
“ठहर जा।”
अभयानन्द के इरादे भांप कर माया के चारों अंगरक्षक उसे भाले की नोक दिखाते हुए आक्रमण की मुद्रा में आ गये। माया भी रोमांचित हो उठी। जीवित पशुओं को खाने वाले उस देव सरीखे प्राणी को अनवरत आगे बढ़ता देख वह घृणित स्वर में चिल्लाई- “इस पशु को भगाओ यहां से।”
एक सैनिक अभयानन्द को डराने के ध्येय से आगे बढ़ा, किन्तु उसके भाले की नोक उसे स्पर्श कर पाती इससे पहले ही अभयानन्द ने भाले को थाम लिया। सैनिक को प्रतिक्रिया का अवसर न देते हुए उसने दाहिने पैर का शक्तिशाली प्रहार उसकी छाती पर जड़ दिया। अगले ही क्षण उस विकृत पुरुष की शारीरिक शक्ति का नमूना सबके सम्मुख था। प्रहार को उद्यत हुआ वह सैनिक हवा में हैरतअंगेज ऊंचाई तक उछलकर लहराते हुए पानी से भरे खेत में जा गिरा था।
शेष तीनों सैनिक, माया और उसकी दोनों सखियां स्तब्ध रह गयीं। माया के बदन में भय की तरंगे दौड़ गयीं। उसे लगा कि उस दानव से मुकाबला करने के लिए केवल चार सैनिक पर्याप्त नहीं थे।
माया के इस संदेह को विश्वास में बदलते देर नहीं लगी, क्योंकि उस पर प्रहार करने हेतु एक साथ आगे बढ़े तीनों सैनिकों का भी वही हाल हुआ, जो पहले का हुआ था। उनमें से एक तो चट्टान से सिर टकराकर अपनी चेतना से ही हाथ धो बैठा।
“इ...इसके...इ...इरादे नेक नहीं हैं राजकुमारी जी।” माया की दोनों सखियां खौफ से हकला उठीं।
माया ने मुंह की खाए सैनिकों की ओर देखा। एक होश गंवा कर लुढ़का पड़ा था और शेष दो काफी दूर जाकर गिरे थे, तथापि उठकर दौड़े चले आ रहे थे। पहला प्रहार करने वाला भी किचड़ से लथपथ होकर पानी में दौड़ लगा रहा था। फिर भी इतना तय था कि वे अभयानन्द को माया का स्पर्श करने से नहीं रोक सकते थे, क्योंकि अब तक वह माया के बेहद करीब आ चुका था; इतने करीब कि हाथ बढ़ाकर उसे छू सकता था।
“दूर रह जानवर!”
माया ने उसे दुत्कारते हुए स्वयं पीछे हटने की कोशिश की, किन्तु अभयानन्द ने हाथ बढ़ाकर उसकी कलाई पकड़ ली। माया को लगा जैसे कलाई की हड्डियां चटक रही हों। स्वयं को छुड़ाने के उसके सारे प्रयत्न असफल रहे। उसकी दोनों सखियां भय के कारण सूखे पत्ते की तरह कांप उठीं।
“सुन्दर! अति सुन्दर!” विकृत पुरुष ने पहली दफा मुंह खोला और माया के अंग-प्रत्यंग पर कामुक दृष्टि डालते हुए इस कदर जीभ लपलपाया, जैसे सदियों से नारी-जिस्म का भूखा हो- “भैरवी बनने की सभी योग्यताओं पर खरी उतरने वाली एक अपूर्व सुन्दरी है तू। तुझ जैसे अक्षत यौवना की ही तो तलाश थी मुझे। तू बनेगी मेरी भैरवी...बोल बनेगी न...?”
“नराधम!” माया ने दांत पीसते हुए लात का एक भीषण प्रहार अभयानन्द की जांघ पर किया। प्रहार तेज था। अभयानन्द का संतुलन बिगड़ा और माया की कलाई पर उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी। फलस्वरूप माया ने एक साधारण झटके के साथ अपनी कलाई छुड़ा ली।
“अपने दुस्साहस से आज तूने शंकरगढ़ के लोगों के बीच फैले इस अफवाह को सही साबित कर दिया है कि तू कोई पागल नहीं बल्कि मार्ग से भटका हुआ एक वहशी तांत्रिक है, जो दक्षिण के भयानक जंगल में रहने वाले कापालिकों के साथ शैतान की साधना करता है।” क्रोध और घबराहट के सम्मिलित प्रभाव के कारण माया बुरी तरह हांफ रही थी- “तुझे शायद भान भी नहीं है कि आज सरेराह तूने किसकी कलाई पर हाथ डाला है। तू कल का सूर्योदय नहीं देख पाएगा नीच।”
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
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Re: Horror ख़ौफ़

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अब तक तीनों सैनिक भी समीप पहुँच चुके थे। अभयानन्द का ध्यान माया पर पाकर, एक सैनिक ने भाले की नोक को निर्दयतापूर्वक उसकी पिंडली में चुभो दिया। अभयानन्द दर्द से कराह उठा। सैनिकों ने उसे विचलित होता देख संभलने का मौक़ा नहीं दिया। संयुक्त प्रयासों से उसे धरातल पर गिराने के बाद प्रत्येक ने भाले की नोक को उसकी छाती पर टिका दिया और माया की ओर देखने लगे, ये जानने के लिए कि अब उसके साथ क्या किया जाए। अभयानन्द के नेत्र अब भी माया पर ठहरे हुए थे। उसके चेहरे पर शिकन का कोई भाव नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह माया को ये जताना चाहता हो कि उसके सैनिकों की सफलता केवल तब तक के लिए है जब तक उसके नेत्र उस पर ठहरे हुए हैं।
अभयानन्द पर सैनिकों का नियंत्रण देख माया और उसकी सखियों ने चैन की सांस ली।
“इसका क्या करें राजकुमारी?” एक सैनिक ने पूछा।
“हमें द्विज की कक्षा के लिए विलम्ब हो रहा है। तुम तीनों में से एक अचेत सैनिक को लेकर राजमहल जाओ और शेष दो हमारे साथ चलो।” माया ने एक घृणित दृष्टि अभयानन्द पर डाली और आगे कहा- “इस नराधम को यहीं छोड़ दो। हम इसकी शिकायत पिता श्री से करेंगे।”
सैनिकों ने एक-दूसरे की ओर देखा। प्रत्येक ने एक दूसरे की आँखों में यही सवाल पाया कि भाला हटाने के बाद अभयानन्द पलटवार तो नहीं करेगा? आपस में कुछ क्षणों तक मूक वार्तालाप करने के पश्चात सैनिकों ने धीरे-धीरे भाला हटाया।
अभयानन्द की ओर से कोई हरकत नहीं हुई। वह पूर्व की भांति धरातल पर पड़ा रहा। माया के निर्देशानुसार एक सैनिक अचेत पड़े सैनिक की ओर बढ़ा।
“किन्तु राजकुमारी जी यदि इसने हमारे एक सैनिक को अकेले पाकर.....।”
“भाला मुझे दो।” माया ने उस सैनिक की आशंका भांप कर उसकी बात समाप्त होने से पहले ही कहा।
सैनिक ने भाला उसकी ओर बढ़ा दिया। इसके बाद माया ने जो कुछ किया उसकी अपेक्षा उसके जैसी एक कोमलांगी स्त्री से कभी नहीं की जा सकती थी। उसने भाले को उठने का प्रयत्न कर रहे अभयानन्द की दूसरी पिंडली में चुभो दिया।
“आह!” थोड़ी देर पहले जिसने एक शक्तिशाली दानव जैसा व्यवहार किया था, वही अभयानन्द गहरी पीड़ा से डकार उठा। भाले की नोक उसके खून से सन गयी।
“निर्भय रहो। अब यह अपने पांव पर नहीं खड़ा हो पायेगा।”
आशंकित सैनिक अब आश्वस्त नजर आने लगे।
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Re: Horror ख़ौफ़

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उसका नाम द्विज था।
अवस्था पच्चीस वर्ष थी। कद मध्यम, रंगत हल्की सांवली थी। ज्ञान की आभा से उसका मुखमंडल तेजस्वी नजर आता था। तीखे नैन-नक्श और सांवले वर्ण के कारण उसके व्यक्तिव से गंभीरता परिलक्षित होती थी। वह शंकरगढ़ के पहाड़ों के बीच स्थित देवी-मंदिर के पुजारी द्वारा बचपन में गोद लिया गया था और राजकीय अनुदान से चलने वाली पाठशाला में गणित का शिक्षक था। मंदिर ही उसका निवास स्थान था। शिक्षण-कार्य से निवृत्त होने के पश्चात वह शेष दिनचर्या पितातुल्य पुजारी की सेवा-सुश्रुषा में व्यतीत करता था। साथ ही मंदिर में
संरक्षित, संस्कृत में लिखे गये गणित के दुर्लभ ग्रंथों के अध्ययन से अपने ज्ञान को भी विस्तार करता था।
उसकी विद्वता की गूंज राजदरबार तक थी और प्रतिष्ठा इस कदर बढ़ी-चढ़ी थी कि स्वयं राजा उदयभान गणित में विशेष रूचि रखने वाली राजकुमारी माया को ज्ञानार्जन हेतु उसके पास देवी-मंदिर में भेजते थे। अध्ययन के पश्चात संध्या आरती में शामिल होने के बाद राजमहल को लौटना, यही माया का नित्य कर्म था।
सवितानारायण अपनी सुनहरी किरणों को समेटकर पहाड़ों के पीछे जा रहे थे।
उन किरणों से पर्वतों के शिखर चमक उठे थे। द्विज ने मंदिर के गर्भ गृह से थोड़ी दूर पर बने अहाते में अपना आसन लगाया हुआ था। उसके सम्मुख बैठी माया किसी गणना में व्यस्त थी। अंगरक्षक सैनिक मंदिर के प्रांगण में टहल रहे थे, जबकि दोनों सखियाँ प्रांगण में फुदक रहे खरगोशों के पीछे दौड़ लगा रही थीं। पुजारी, मंदिर के सेवकों के साथ संध्या आरती की तैयारियों में जुटे हुए थे।
“तुम्हारे गणना की विधि गलत है माया।” द्विज ने माया के लिखे हुए समीकरणों पर दृष्टिपात करते हुए कहा।
द्विज की टिप्पणी पर माया का कलम ठहर गया। उसने द्विज की ओर देखा। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे उसे माया की ओर से इतनी गंभीर चूक की आशा नहीं थी।
“मैंने तुम्हें कल ही द्वितीय कोटी के रैखिक अवकल समीकरणों के हल की प्रक्रिया सिखाई थी, किन्तु तुम्हारे द्वारा की गयी इस गंभीर चूक से अभ्यास की कमी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। क्या तुम्हें ये भी स्मरण नहीं रहा कि इस श्रेणी के समीकरणों को हल करने के लिए हम सर्वप्रथम दिए हुए समीकरण की तुलना मानक रूप से कराते हैं, तत्पश्चात द्वितीय और प्रथम कोटी के अवकलजों का गुणांक ज्ञात करते हैं?” द्विज ने नाराज भाव से कहा और माया का पत्रक अपनी ओर खींच लिया।
“ऐसा नहीं है द्विज।” माया ने सफाई दी। उसके और द्विज की आयु में बहुत कम अंतर था, इसलिए माया ‘आप’ संबोधन लगाकर उसे उसके नाम से ही पुकारती थी। उसने आगे कहा- “आपके दिए हुए कल के प्रश्नों पर हमने पर्याप्त अभ्यास किया है। बस ध्यान की कमी के कारण यहाँ छोटी सी चूक हो गयी। मैं गुणांकों का आंकलन किये बिना ही पूरक फलन का मान ज्ञात करने लगी थी।”
“एकाग्रता अर्जित करो माया। ये अध्याय प्रारम्भ करने से पूर्व ही हमने तुम्हें चेतावनी दी थी कि ये गणित की एक ऐसी शाखा है, जो कालांतर में प्रवर्धित होकर चिकित्सा शास्त्र में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन करेगी। इक्कीसवीं सदीं तक ये अवकल समीकरण मानव-शरीर की कई जैविक क्रियाओं को प्रदर्शित करने का पर्याय बन जायेंगे।”
“हम क्षमाप्रार्थी हैं द्विज।” माया ने अपराध बोध से ग्रस्त होकर कहा- “हम पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से प्रारम्भ करते हैं।”
माया ने एक नया पत्रक लिया और कलम को दवात में डुबोकर उसी प्रश्न को फिर से हल करने की तैयारी करने लगी।
“क्या तुम परेशान हो माया?” द्विज ने आँखों में संदेह लिए हुए माया को देखा।
“ज..जी...?” द्विज द्वारा उसके आन्तरिक भावों को भांप लिए जाने के कारण वह हकला उठी।
“हाँ! क्योंकि तुमने कलम का विपरीत सिरा दवात में डुबोया है, वह सिरा नहीं, जो पत्रक पर शब्द उगलता है।”
माया की जिह्वा खुद-ब-खुद दांतों तले दब गयी। उसकी मनोदशा अब पूरी तरह द्विज के सम्मुख उजागर हो चुकी थी। ये सत्य था कि वर्तमान क्षणों में उसका मस्तिष्क पूर्णतया अभयानन्द के विचारों में खोया हुआ था। उसके नेत्रों के सामने अभयानन्द का भयानक मुखमंडल तैर रहा था। और कानों में उसका ये वक्तव्य गूँज रहा था-
‘भैरवी बनने की सभी योग्यताओं पर खरी उतरने वाली एक अपूर्व सुन्दरी है तू। तुझ जैसी अक्षत यौवना की ही तो तलाश थी मुझे। तू बनेगी मेरी भैरवी...बोल बनेगी न...?’
“क्या समस्या है माया?” द्विज ने पूछा।
“क..कुछ नहीं...।” माया ने वास्तविकता को छुपाने का प्रयत्न किया- “बस थोड़ी सी तबीयत खराब है। इसलिए हम अपना चित्त एकाग्र नहीं रख पा रहे हैं।”
द्विज ने प्रांगण पर एक दृष्टि डाली। वहां पर माया के केवल दो अंगरक्षक थे।
“आज तुम्हारे साथ केवल दो अंगरक्षक क्यों?”
“व...वह...!” माया को सूझा ही नहीं कि क्या उत्तर दे।
“मुझे बताओ माया कि क्या बात है? इससे पूर्व मैंने तुम्हें इतना व्यग्र कभी नहीं देखा कि गणना के दौरान मूर्खतापूर्ण भूल कर दो अथवा दवात में कलम का दूसरा सिरा डुबो दो।”
द्विज के वार्तालाप की शैली परिवर्तित हो चुकी थी। अब उसकी शैली से शिक्षक की नहीं बल्कि एक मित्र की भाषा झलक रही थी।
“आज हमें मार्ग में वही अर्द्धविक्षिप्त प्राणी मिला था, जिसके विषय में राज्य
के लोग कहते हैं कि वह एक वहशी कापालिक है।”
‘कौन..? अभयानन्द?” रोमांच की अधिकता के कारण द्विज के भी रोंगटे खड़े हो गये।
“हाँ!”
“तो क्या उसने तुम्हारा मार्ग रोका था?”
“हाँ! और कलाई पर भी हाथ डाला था।”
द्विज की आँखों में खून उतर आया। उसके नथूने फूलने-पिचकने लगे। उसे स्वयं नहीं ज्ञात हुआ कि माया के साथ हुई अभद्रता पर उसे क्यों क्रोध आ रहा है।
“क्या...क्या कहा उसने?”
“उसके कहने का मंतव्य था कि मुझ जैसी अक्षत-यौवना को अपनी भैरवी बनाकर वह उन तंत्र-साधानाओं को पूर्ण करेगा, जिनमें साधक के साथ किसी भैरवी का होना अनिवार्य होता है।”
द्विज की साँसों की गति तीव्र हो उठी। एकाग्रता को बनाए रखने के लिए वह जिन विचारों को नियंत्रित करने का उपदेश माया को दे रहा था, उन्हीं विचारों पर से उसका स्वयं का लगाम छूट गया। उसे स्मरण ही नहीं रहा कि इस क्षण वह माया के सम्मुख उसके शिक्षक की भूमिका में है।
“उस पशु का इतना दुस्साहस?” द्विज दांत पीस उठा।
द्विज का नया रूप देखकर माया भी सहम गयी।
“आप क्रोधित न हों द्विज। हमने पिता श्री से उसकी शिकायत करने का निर्णय ले लिया है। जब वह एक राजकुमारी को सरेराह अपमानित कर सकता है तो राज्य की सामान्य लड़कियाँ भी उससे सुरक्षित नहीं होंगी।”
द्विज ने कुछ नहीं कहा। उसने कुछ क्षणों तक खुद को फिर से सामान्य रूप में लाने की चेष्टा की अंतत: इस कृत्य में असफल होकर आसन से उठ खडा हुआ।
“आज की कक्षा मैं यहीं पर समाप्त करता हूँ माया। आरती का प्रसाद लेने के बाद राजमहल को लौट जाना।”
माया स्तब्ध रह गयी। आज उसे अपने शिक्षक का नया रूप देखने को मिला था।
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Re: Horror ख़ौफ़

Post by rajsharma »

“एक...दो..तीन..चार........अट्ठारह, उन्नीस....।” बिरजू ने अपनी बकरियों को गिना। संख्या के उन्नीस पर ठहरते ही वह परेशान हो उठा।
“एक बकरी कहाँ गयी?”
बिरजू ने बकरियों को कई दफे गिना, किन्तु संख्या उन्नीस आगे न खिसक सकी।
उसने इधर-उधर देखा। घास के उस विशाल मैदान में दूर-दूर तक कोई पशु-पक्षी नहीं नजर आ रहे थे। दिवाकर प्रस्थान कर चुके थे और अब अंधेरा बड़े तीव्र वेग से धरती की ओर बढ़ा चला आ रहा था। बिरजू ने दूर पर्वत पर नजर आ रहे देवी-मंदिर की ओर देखा और असहाय भाव से प्रार्थना की- “हे माँ जगदम्बा! मेरी एक बकरी कहाँ गयी? अब तो शाम भी घिर रही है। मैं कहाँ ढूढूंगा उसे?”
शेष उन्नीस बकरियां, जिनमें मेमने भी थे, घास चरना छोड़कर बिरजू के इर्द-गिर्द खड़ी हो गयी थीं। ऐसा लग रहा था जैसे उन मासूम जीवों को भी अपने एक साथी के बिछड़ने का आभास हो चुका था।
बिरजू ने बकरियों पर नजर दौड़ाई। उसे काले चकत्तों वाली एक विशेष बकरी
नहीं नजर आयी।
“ओह! झुण्ड से बिछड़ने वाली तो लाली है।”
लाली के गायब होने की पुष्टि होते ही बिरजू ने असहाय भाव से एक बार फिर मंदिर की ओर देखा। शायद किसी दैवीय चमत्कार की आस उसके मन में जाग रही थी। दरअसल लाली उसकी उस बेटी का नाम था, जो छ: महीने पहले किसी घातक बीमारी के कारण चल बसी थी। लाली का जन्म ठीक उसी दिन हुआ था, इसलिए बिरजू ने उसे अपनी बेटी का नया जन्म मानते हुए उसका नाम लाली रख दिया था। वह उस बकरी पर भी उतना ही प्यार लुटाता था, जितना अपनी बेटी पर लुटाया करता था। लाली को बकरियों की भीड़ में खोने से बचाने के लिए बिरजू उसकी पूंछ में लाल फीता बांधता था। ये वही फीता था, जिससे उसकी बेटी अपने बालों को बांधती थी। बकरियों के झुण्ड में लाल फीता नजर न आता देख बिरजू हताश होने लगा।
“लाली को ढूंढ रहे हो बिरजू?”
अपने पीछे नया स्वर सुनते ही बिरजू चौंक पड़ा। वह पलटा।
वहां जो आदमी खड़ा था, उसे देखकर उसकी रूह कांपती थी। वह रोज सुबह भगवती से प्रार्थना करता था कि दिन भर उस इंसान से उसका सामना न हो। उस इंसान को देखते ही बकरियाँ अप्रत्याशित ढंग से मिमियाते हुए इधर-उधर भागने लगीं। मानो उसकी मौजूदगी मात्र से भयभीत हो उठीं हों।
उस इंसान का नाम अभयानन्द था, जिसकी पिंडलियों से बह रहे खून के कारण उसका पैर पंजों तक रंग गया था। उसकी चाल में हल्की सी लड़खड़ाहट और होठों पर पैशाचिक मुस्कान थी। किसी टीले की ओट से अचानक निकलकर वह बिरजू को यूं घूर रहा था, मानो उसका लहू पीने की नियत रखता हो। बिरजू तो पहले ही अभयानन्द से खौफ खाता था, उसका ये रूप देखते ही उसका प्राण सूख गया।
“ह..ह..हाँ!” उसने हकलाते हुए उत्तर दिया।
“हमने लाली को उस टीले के पीछे देखा है।”
अभयानन्द ने दूर नजर आ रहे एक टीले की ओर संकेत किया।
बिरजू ने उसकी बताई हुई दिशा में देखा और भांप गया कि वह झूठ बोल रहा था, क्योंकि जिस टीले की ओर वह संकेत कर रहा था, उस ओर बिरजू बकरियों को लेकर कभी नहीं जाता था। उसने तेजी से घिर रहे अँधेरे का बहाना बनाते हुए कहा- “अँधेरा...अँधेरा घिर रहा है। मैं लाली को बाद में ढूंढ लूंगा।”
कहने के बाद वह तेजी से मुड़ा। बकरियों में भी भगदड़ मची हुई थी, किन्तु बिरजू को अब बकरियों से ज्यादा खुद की चिंता सतने लगी थी। वह जल्दी से जल्दी उस मनहूस इंसान से पीछा छुड़ा लेना चाहता था। कदम आगे बढ़ा ही रहा था कि अचानक कंधे पर अभयानन्द का पंजा महसूस कर वह सहम गया। उसने बगैर पलटे हुए ही निगाहें घुमाकर कंधे पर मौजूद पिशाच का पंजा देखा। अभयानन्द के लम्बे नाखूनों पर ताजा खून लगा हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे उसने किसी जानवर को अपने नाखूनों से चीर-फाड़ दिया था।
“हमने कहा कि तुम्हारी लाली उस टीले के पीछे है।” इस बार उसका लहजा भयानक था।
बिरजू ने महसूस किया कि उसके न चाहते हुए भी पिशाच उसे वहां जरूर ले जाएगा। टीले के पीछे लाली के होने का उसका दावा तो बस बहाना था, वास्तव में वह उसे उस टीले के पीछे ही ले जाना चाहता था। अभयानन्द का रहस्यमय उद्देश्य भांप कर बिरजू किसी छोटे बच्चे की भांति भयभीत हो उठा। मन ही मन भगवती का स्मरण करते हुए उसकी ओर मुड़ा। और फिर उसकी रही-सही हिम्मत भी जवाब दे गयी।
अभयानन्द की डरावनी आँखों में लहू के कतरे तैर रहे थे।
“अपनी लाली को ढूंढें बिना ही यहाँ से चले जाओगे बिरजू?”
“म..मुझे..मुझे जाने दो..जाने दो मुझे.. ।” बिरजू लगभग रो पड़ा- “मैंने..मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? मेरी...मेरी बीबी मेरा रास्ता देख रही होगी। म..मैं..मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। अब मैं बकरियां चराने इस ओर नहीं आऊँगा। मैं...मैं समझ गया हूँ कि यहाँ तुम रहते हो।”
अभयानन्द भयानक अंदाज में मुस्कुराता रहा। उसने बिरजू के कंधे से पंजा हटाकर उसकी कलाई थाम ली।
“नहीं..छोड़ दो मुझे...छोड़ दो मुझे। मैं तो गरीब आदमी हूँ..। मैं यहाँ केवल बकरियां चराने आया था। छोड़ दो मुझे...छोड़ दो मुझे..।”
बिरजू घिघिया उठा। उसकी चीत्कार से आकाश का कलेजा काँप गया। बकरियां मालिक की दुर्दशा देखने के लिए अब वहां नहीं थीं। वे बहुत दूर भाग चुकी थीं। उन्हें घर का रास्ता मालूम था, इसलिए वे उसी दिशा में भागी जा रही थीं।
अभयानन्द, बिरजू को घसीटते हुए टीले की ओर ले जाने लगा। बिरजू ने अपनी कलाई छुड़ाने का प्रयत्न किया, किन्तु मरियल सा बिरजू इस काम में सफल न हो सका। जब तक अभयानन्द उसे लेकर टीले के पीछे पहुंचा, तब तक चीखते-चीखते उसका गला बैठ चुका था।
अभयानन्द ने झूठ नहीं कहा था। उस टीले के पीछे लाली थी, किन्तु जीवित अवस्था में नहीं थी। उसे किसी के द्वारा चीर-फाड़ दिया गया था। जमीन पर जगह-जगह उसके गोश्त बिखरे हुए थे। उसकी पूंछ पर बंधा लाल फीता सही-सलामत तो था, किन्तु खून से लथपथ हो चुका था।
“ला..ली..!”
अभयानन्द ने बिरजू की कलाई छोड़ दी। वह लाली के जिस्म के टुकड़ों की ओर दौड़ा।
“लाली....!”
लाली खामोश हो चुकी थी। हमेशा-हमेशा के लिए। शैतान ने उसके गोश्त से अपनी भूख मिटा ली थी।
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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