Horror ख़ौफ़

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rajsharma
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Re: Horror ख़ौफ़

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रात्रि का तीसरा प्रहर था।
उस कक्ष में दीपक का पीला प्रकाश व्याप्त था, जिसमें महाराज और कुलगुरू के साथ-साथ न्यायाधीश महोदय भी उपस्थित थे।
कुलगुरु ने अपने सम्मुख एक पुरातन ग्रन्थ खोल रखा था। उनके नेत्र उस ग्रन्थ के जिस भोजपत्र पर ठहरे हुये थे, उस पर एक नरभेड़िये का चित्र बना हुआ था और नीचे संस्कृत में कोई लेख लिखा हुआ था।
“अभयानन्द के साथ क्या हुआ है आचार्य दिव्यपाणी?” खामोशी लम्बी होती देखकर महाराज ने मुंह खोला।
“एक घातक व्याधि के चपेट में है वह।” कुलगुरु ने संस्कृत के लेख पर दृष्टि जमाये हुए ही कहा।
“वह कैसी व्याधि है कुलगुरु महोदय?”
न्यायाधीश के प्रश्न को नजरअंदाज करके कुलगुरु कक्ष में टहलने लगे। उनकी शारीरिक भाषा से परिलक्षित हो रहा था कि संस्कृत के उस पुरातन लेख ने उन्हें व्यथित कर दिया था।
“क्या अभयानन्द ब्राह्मण था महाराज?” लम्बे अन्तराल के बाद उन्होंने महाराज को लक्ष्य करके पूछा।
“ज्ञात नहीं कुलगुरु। हमें इस विषय में कोई ज्ञान नहीं है। अभयानन्द कुछ वर्षों पूर्व शंकरगढ़ में नजर आया था, और तब से ही आम जनों ने उसके विषय ये धारणा बना ली थी कि वह पशुओं को जीवित खा जाने वाला कोई वहशी मनुष्य है। अभयानन्द के प्रति उनकी धारणा आज भी यही है। आपको उसकी जाति के विषय में जानने की आवश्यकता क्यों पड़ी?”
“क्योंकि वह जिस व्याधि से ग्रस्त है, उससे कोई ब्राह्मण ही ग्रस्त हो सकता है।”
“कृपया आशय स्पष्ट करें।”
“क्या आपने कारागार में घटी घटनाओं पर चिन्तन नहीं किया?”
“अवश्य किया, किन्तु निष्कर्ष के रूप में केवल यही समझ पाया कि अभयानन्द शापित हो रहा है।”
“अर्थात आपने एक महाविनाश की क्षमता बहुत कम आंकी है।”
महाराज तुरन्त कुछ न बोल सके। कुलगुरु की पहेलीनुमा बातों से वे झुंझलाने लगे थे। जबकि कुलगुरु ने कुछ क्षणों तक खामोश भूमिका बांधने के बाद कहना प्रारंभ किया-
“सनातन संस्कृति में वर्णित वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण को चारों वर्णों में श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्म के सामीप्य का भागी होने के कारण उसे ब्रह्मतत्व का विवेचक माना जाता है। उसे समाज की आध्यात्मिक चेतना का केंद्र कहा जाता है। उसे राजा के नीतियों की समीक्षा करने का अधिकार दिया गया है। किन्तु उपर्युक्त अधिकार और अलंकरणों के उपलक्ष्य में उस पर कर्तव्यों का बोझ भी डाला गया है और उन कर्तव्यों से विमुख होने जाने की दशा में उसके लिए भयावह दंड का विधान भी है। दंड के उन्हीं विधानों में से एक है- ‘वृक राक्षस योनि’।”
“वृक राक्षस योनि?” महाराज और न्यायाधीश के होंठों से समवेत स्वर में निकला- “हमने तो कभी इस योनि के विषय में नहीं सुना।”
“जो ब्राह्मण समाज को शिक्षित करने के स्थान पर शास्त्रों के प्रतिकूल नीतियाँ बनाकर उसे दिग्भ्रमित करने लगता है, अशिक्षित और निर्धन जनों को धर्म का भय दिखाकर उनका शोषण करने लगता है, राजाओं की चाटुकारिता को धनोपार्जन का पर्याय बना लेता है, मांस-मदिरा के सेवन को अपनी जीवनशैली में समाहित कर लेता है और सदाचार-संयम से विमुख होकर भोग-विलास में लिप्त हो जाता है, वह ब्राह्मण मरणोपरांत वृक राक्षस योनि में जन्म लेता है। वृक राक्षस अर्थात भेड़िया-राक्षस। ये आधा मनुष्य और आधा वृक होते हैं। इन्हें ही नरभेड़िया, भेड़िया-मानव या भड़मानस की संज्ञा दी गयी है। गन्दगी का सेवन करना और पशुओं का रक्त पीना ही इनकी नियति होती है। पूनम की चाँदनी के शीतल प्रकाश के नेत्रों से टकराते ही इनके भीतर छिपा पिशाच बाहर आने को तत्पर हो उठता है। काया-परिवर्तन की उस अवस्था में ये सौ मृत्युओं से भी भीषण कष्ट भोगते हैं। सौ मृत्युओं के समान वह भयानक कष्ट ही इनके पापों का दंड होता है। पूर्णिमा की रात कठोर यातना झेल कर भी ये अगली पूर्णिमा की यातना झेलने के लिए जीवित रहते हैं। ऐसे होते हैं वृक-राक्षस।”
“तो क्या इन्हें ही ब्रह्मराक्षस कहते हैं?” न्यायाधीश ने पूछा।
“क्योंकि इस योनि में ब्राह्मण ही जन्म लेते हैं, इसलिए ‘ब्रह्मराक्षस’ को ‘वृकराक्षस’ का पर्याय मान लिया गया है। अभयानन्द उसी योनि में जा रहा है। जो इस बात का द्योतक है कि वह नि:संदेह कोई ब्राह्मण है।”
“किन्तु आपने कहा कि दुराचारी ब्राह्मणों को ये योनि मरणोपरांत प्राप्त होती है। अभयानन्द तो अभी जीवित है। उसे ये योनि कैसे प्राप्त हो रही है?”
कुलगुरु ने महाराज और न्यायाधीश की ओर देखा। उनकी आँखों में इस बार भय था।
“कारण भयभीत करने वाला है महाराज। अभयानन्द ने ‘श्मशानेश्वर सिद्धी’ नाम की एक दुर्लभ सिद्धी प्राप्त कर ली है। श्मशानेश्वर एक पारलौकिक शक्ति है, जो मरघट में भटकने वाली अतृप्त आत्माओं का स्वामी है। श्मशानेश्वर को सिद्ध करने वाला साधक अपनी आत्मा को उसे समर्पित कर देता है और प्रत्युत्तर में उसे अपने शरीर में निवास हेतु आमंत्रित करता है। साधक की आत्मा का मूल्य चुकाने के लिए श्मशानेश्वर उसके शरीर में प्रविष्ट हो जाता है।”
“किन्तु साधक ऐसा करता क्यों है? वह अपनी आत्मा को मरघट में भटकने के लिये छोड़ कर श्मशानेश्वर को क्यों धारण करता है?”
“असीमित शक्ति की लालसा साधक को ऐसा करने को विवश करती है। जो ब्राह्मण दुराचारी होते हैं, उन्हें ये विदित होता है कि मरणोपरांत वे ब्रह्मराक्षस बनेंगे और प्रत्येक पूर्णिमा को सौ मृत्युओं का कष्ट भोगेंगे। इसलिए इस कष्ट से बचने के लिये वे प्राकृतिक मृत्यु का वरण नहीं करना चाहते हैं। वे अपनी आत्मा को श्मशानेश्वर को समर्पित कर देते हैं, ताकि उनकी आत्मा श्मशानेश्वर की दास हो जाने के पश्चात ब्रह्मराक्षस योनि में पुनर्जन्म न ले सके। अर्थात वे श्मशानेश्वर को अपना ईश्वर चुन लेते हैं। मनुष्य के आत्मोत्सर्जन अथवा प्राणोत्सर्जन के पश्चात उसके अवचेतन मस्तिष्क में तीन दिन तक उसकी चेतनाएं और वासनाएं सुप्तावस्था में उपस्थित रहती हैं, और यदि इन तीन दिनों में कोई भटकती आत्मा उसकी जड़ काया कर प्रवेश जाती है, तो आत्मा की ऊर्जा से वे वासनाएं और चेतनाएं फिर से जाग जाती हैं, यही अवस्था मृत काया के प्रेतबाधित हो जाने की अवस्था कहलाती है। ऐसी अवस्था न आ सके, इसी हेतु शास्त्रोपयुक्त नीती से दाह-संस्कार करके मृत काया को नष्ट कर दिया जाता है। साधक की आत्मा को दास बना लेने के बाद श्मशानेश्वर धीरे-धीरे उसकी काया में प्रतिस्थापित होने लगता है। प्रतिस्थापन की यह प्रक्रिया तीन दिनों में पूर्ण होती है। इस दौरान साधक मरणासन्न अवस्था में निश्चल पड़ा रहता है। तीसरे दिन का अंत होते ही साधक की चेतनाएं और वासनाएं विलुप्त होने से पूर्व ही श्मशानेश्वर की असीम शक्ति प्राप्त करके पुन: जागृत हो उठती हैं।”
“हे जगद्जननी! इसका तात्पर्य तो ये हुआ कि अभयानन्द की काया पर श्मशानेश्वर के आधिपत्य की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है।” महाराज की वाणी भी भयभीत हो उठी- “किन्तु उसे ये सिद्धी कैसे प्राप्त हुई?”
“श्मशानेश्वर जब किसी साधक की काया को धारण करता है, तो वह तब तक उस साधक की काया को नहीं छोड़ता, जब तक कि कोई दूसरा साधक अनुष्ठान के जरिये उसे अपनी आत्मा सौंपकर अपनी काया में प्रविष्ट होने का आमंत्रण न दे दे।”
“अर्थात अभयानन्द से पूर्व श्मशानेश्वर किसी अन्य साधक की काया में निवास कर रहा था?”
“सत्य अनुमान लगाया आपने राजन। अभयानन्द ने उसी साधक के सानिध्य में रहकर यह सिद्धी प्राप्त की है।”
“ओह!” न्यायाधीश ने इस परिचर्चा में लम्बे अंतराल के बाद मुंह खोला- “कुलगुरु के कथनों से यह निष्कर्ष निकल रहा है कि इस क्षण अभयानन्द की स्वयं की आत्मा मरघट में विचर रही है और उसकी काया में धीरे-धीरे श्मशानेश्वर का प्रवेश हो रहा है।”
“और प्रवेश की यह प्रक्रिया तीन दिनों में सम्पूर्ण हो जायेगी।”
“किन्तु कुलगुरु हमारे राज्य में ऐसा कौन था, जिसकी काया में श्मशानेश्वर निवास कर रहा था?”
“स्पष्ट उत्तर तो हमें भी नहीं ज्ञात है राजन, किन्तु एक बार हमें हमारे शिष्यों से यह समाचार प्राप्त हुआ था कि दक्षिण के जंगल में रहने वाले कापालिकों का सरदार अघोरा, श्मशानेश्वर का धारक था।”
“किन्तु हमें तो राज्य में अघोरा के किसी उत्पात की शिकायत नहीं प्राप्त नहीं हुई थी।”
“श्मशानेश्वर की शक्तियों का कोई धारक किस प्रकार प्रयोग करेगा, यह उसकी वासना पर निर्भर करता है। संभव है कि अघोरा की वासनाओं के मार्ग में शंकरगढ़ बाधक न रहा हो, इसलिए हमें अघोरा की अमानवीय शक्तियों का सामना नहीं करना पड़ा, किन्तु अभयानन्द के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। उसकी मुख्य वासना राजकुमारी माया हैं और साथ ही साथ राज्य के सैनिकों ने उसके साथ जो दुर्व्यवहार किया था, वह उसका भी प्रतिशोध लेना चाहेगा। इसीलिए वह श्मशानेश्वर के रूप में शंकरगढ़ पर विनाश बनकर टूट पड़ेगा। संभव है कि वह भेड़िया-मानव का रूप चुने, क्योंकि जीवित अवस्था में वह एक रक्तपिपासु और हिंसक मनुष्य था।” कहने के बाद कुलगुरु ने न्यायाधीश की ओर देखा- “शायद मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है न्यायप्रमुख कि आपको अभयानन्द के लिए
क्या दंड-प्रस्ताव प्रारित करना है।”
“श्मशानेश्वर उसकी काया में पूर्णतया प्रतिस्थापित हो सके, इससे पूर्व ही हमें उसकी काया नष्ट करनी होगी।”
“हमें आपसे इसी बुद्धिमत्ता की आशा थी न्यायप्रमुख।”
कुलगुरु ने मुस्कुराते हुए कहा।
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बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़

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Re: Horror ख़ौफ़

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उसी रात सम्पूर्ण शंकरगढ़ में यह राजाज्ञा प्रसारित कर दी गयी कि अभयानन्द को प्राचीन पीपल से बांधकर ज़िंदा जलाया जाएगा। मजबूत कलेजे वाले नागरिकों से यह आग्रह किया गया था कि वे बड़ी तादात में उपस्थित होकर इस लोमहर्षक घटना के साक्षी बने, ताकि वे आने वाली पीढ़ी को बता सकें कि किस प्रकार एक वहशी अपराधी को भयानक और ऐतिहासिक मृत्युदंड दिया गया था।
शंकरगढ़ के इतिहास में अभयानन्द पहला ऐसा अपराधी था, जिसे दंडस्वरूप अग्नि को जीवित सौंपा जाने वाला था। राज्य में दहशत का वातावरण न बनने पाये इसलिए यह प्रसारित नहीं किया गया था कि अभयानन्द के शरीर में महापिशाच अपना घर बना रहा है, किन्तु ये हिदायत अवश्य दी गयी थी कि जब उसे पीपल की ओर ले जाया जा रहा हो तो उस क्षण कमजोर दिल वाले पुरुष, गर्भवती महिलाएं और बच्चे उसके सम्मुख न आयें।
उस रात शंकरगढ़ के आबोहवा में दहशत घुल गया था।
‘अभयानन्द का जीवित दाह-संस्कार किया जाने वाला है।’
जिस किसी ने भी सुना, उसके रोंगटे खड़े हो गये। उसमें इतना भी साहस नहीं शेष रहा कि वह बुराई के विनाश की इस ऐतिहासिक घटना का साक्षी बनने के लिए पीपल के पेड़ तक जा सके।
कुल जमा पचास-साठ नागरिक ही ऐसे थे, जो इस लोमहर्षक घटना को आंखों से देखने का साहस जुटा पाए थे। वे बन्दीगृह की इमारत के बाहर मशाल लिये हुए खड़े थे। उनकी संख्या की दोगुनी संख्या में वहां सैनिक उपस्थित थे। कुलगुरु आचार्य दिव्यपाणी, महाराज उदयभान सिंह और राज्य के समस्त पदाधिकारी भी वहां मौजूद थे।
अभयानन्द को बाहर लाया जा चुका था। उसका शरीर अब भी पहले की तरह ही जड़ अवस्था में था। शारीरिक परिवर्तन बस इतना ही हुआ था कि उसके जबड़े के दोनों किनारों के दांत नुकीले होकर बाहर निकल आये थे, हाथ-पैर के नख बढ़ने लगे थे और शरीर पर भेड़िये के खाल की पतली परत चढ़नी प्रारंभ हो गयी थी।
‘महाराज ने सर्वथा उचित निर्णय लिया है।’
‘जगद्जननी ने हमारी विनती सुन ली।’
‘इस पिशाच को जला देना ही राज्य के हित में है।’
कुलगुरु के आदेश पर अभयानन्द का शरीर एक काले कपडे में ठीक उसी प्रकार लपेट दिया गया जिस प्रकार किसी शव को कफ़न में लपेटा जाता है।
अभयानन्द ने कोई प्रतिकार नहीं किया।
धूपबत्ती का एक मोटा बण्डल जलाकर वातावरण को सुगन्धित किया गया। कुलगुरु ने कमण्डल का जल अंजुली में लेकर गीता के श्लोक का उच्चारण किया-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
(अर्थ- जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होती है।)
तत्पश्चात उन्होंने जल को काले कपड़े में लिपटे अभयानन्द पर छिड़क दिया।
इस बार अभयानन्द की ओर से प्रतिक्रिया हुई। वह यूं फड़फड़ाया मानो उसका दम घुट रहा हो।
“श्मशानेश्वर क्रोधित हो रहा है। इसे धातु की जंजीरों में जकड़ो। शीघ्रता करो।”
पहले से तैयार सैनिक आदेश का पालन करने में जुट गये।
“अभयानन्द की काल-कोठरी का शुद्धिकरण कर दो।” कुलगुरु शिष्यों की ओर मुड़े- “वहां उपस्थित उसके दूषित औरा को नष्ट करने के लिए ये आवश्यक है।”
उपरोक्त कार्य हेतु नियुक्त किये गये शिष्य वहां से प्रस्थान कर गये।
“इसे प्राचीन पीपल तक घसीटते हुए लाया जाय। इसे जीवित नहीं, मृत समझो। अभयानन्द तो उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो गया था, जिस क्षण उसने अघोरा के शरीर में निवास करने वाले श्मशानेश्वर का आह्वान किया था और उसे अपने शरीर में आमंत्रित किया था। इससे पूर्व कि श्मशानेश्वर, अभयानन्द के शरीर में पूर्णतया प्रतिस्थापित हो जाए, हमें उसके शरीर को नष्ट करना होगा। जला देना होगा। बोलो हर हर....”
“महादेव।”
वातावरण असंख्य जयघोष से कम्पित हो उठा।
शिकंजों में जकड़ा अभयानन्द बुरी तरह छटपटा रहा था। सैनिक उसे घसीटते हुए गंतव्य की ओर ले जाने लगे।
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Re: Horror ख़ौफ़

Post by rajsharma »

द्विज के साँसों की गति उग्र थी। वह देवी-मंदिर के अहाते में था। पुजारी बाबा राज्य में हुई मुनादी को सुनकर अभयानन्द के ‘दाह-संस्कार’ में गये हुए थे। द्विज अस्वस्थ्य होने का बहाना करके पुजारी बाबा के साथ नहीं गया था। गर्भगृह में दीप जल रहा था।
द्विज दूर नजर आ रहे मशालों की लौ के उस समूह को देख रहा था, जो राज्य
के बाहर स्थित पुरातन पीपल की ओर बढ़ रहा था।
“वे ले जा रहे हैं। वे अभयानन्द को ले जा रहे हैं।” द्विज व्यग्र भाव से बड़बड़ाया- “उफ़! ये क्या कर दिया मैंने। ईश्वर मुझे कभी क्षमा नहीं करेगा। अभयानन्द के साथ जो अमानवीय घटना घटित होने वाली है, उसका निमित्त मैं ही हूँ। मैं पाप का भागी हूँ। यशप्राप्ति की लालसा और माया की आसक्ति में मुझे ये स्मरण ही नहीं रहा कि...।”
द्विज ने आगे का कथन जान-बूझकर अधूरा छोड़ दिया। चेहरे पर नजर आती व्यग्रता आंसुओं में परिणित होकर आँखों से बहकर गालों पर लुढ़क आयी।
वह कई क्षणों तक आँखें मूंदे हुए आत्ममंथन करता रहा। फिर उसने आँखें खोली। भीड़ के कोलाहल का धीमा स्वर मंदिर तक आ रहा था। द्विज अपने स्थान से उठा और गर्भगृह में प्रविष्ट हो गया। उसने घंटे की ध्वनि उत्पन्न की और हाथ जोड़कर भगवती के सम्मुख नतमस्तक हो गया।
“आप तो अंतर्यामिनी हो माँ। आप तो मेरी व्यग्रता का कारण समझ रही हो। ये ज्ञात होते हुए भी कि अभयानन्द निरीह पशुओं का रक्त पीता था, वह बलिवेदी पर मासूमों इंसानों की बलि चढ़ाता था, मैं उसके लिए क्यों व्यथित हूँ? इस प्रश्न का उत्तर आपके नेत्रों से ओझल नहीं है। उसके दुष्कर्मों का भयावह दंड देख कर मेरे हृदय में करुणा का भाव जागृत हो रहा है। मेरा मार्गदर्शन करो भगवती। मैं किस मार्ग को चुनूं? शंकरगढ़ की प्रजा के हित का मार्ग चुनूं, या फिर अभयानन्द के हित का, जो....।” द्विज ने एक बार फिर अपना कथन अधूरा छोड़ दिया।
वह नतमस्तक होकर सिसकता रहा। दीपक के सुनहरे प्रकाश में भगवती के सुन्दर, तेजोमय और कान्तियुक्त मुखमंडल पर मुस्कान थी। मानो वे द्विज की दुविधा पर मुस्कुरा रही थीं। विधाता के रचे हुए उस प्रारब्ध पर मुस्कुरा रही थीं, जो न केवल शंकरगढ़ में भीषण रक्तपात का कारण बनने वाला था, अपितु द्विज के जीवन में आने वाले एक बड़े परिवर्तन का सूत्रधार भी बनने वाला था।
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Re: Horror ख़ौफ़

Post by rajsharma »

“आज अभयानन्द जिस दशा को प्राप्त होने वाला है, वह बुराई पर अच्छाई के विजय का एक नवीन उदाहरण होगा। एक आततायी के पापों का भीषण दंड होगा। हमें स्मरण है कि ये वही नराधम है, जिसने गरीब बिरजू के लहू से एक पिशाच के चरण धोए, जिसने राजकुमारी माया का मार्ग रोकने का दुस्साहस किया और जिसका सामना करने से तुम लोग सदैव कतराते रहे। ये मृत्यु को प्राप्त हो चुका है। अब इसका शरीर मरघट के एक भयानक पिशाच को पोषण प्रदान कर रहा है। इसलिए इसके शरीर को नष्ट करना अनिवार्य है। जिस प्रकार तुम मोह के बंधनों से मुक्त होकर अपने किसी प्रिय की निष्प्राण काया का दाह-संस्कार करते हो, उसी प्रकार तुम्हें इस पिशाच का भी दाह-संस्कार करना है। तुममें से प्रत्येक के हाथ में मशाल है। मेरा संकेत प्राप्त होते ही उसे नराधम पर उछालना है। इसे इसके दुष्कृत्यों का दंड देना है। यही इसकी नियति है। परमात्मा ने इसका अंत इसी प्रकार होना सुनिश्चित किया है।”
आचार्य दिव्यपाणी प्राचीन पीपल के सम्मुख उपस्थित हुए, लगभग पचास की तादात वाले जनसमूह को संबोधित कर रहे थे। अभयानन्द को पीपल के तने से बाँध दिया गया था। उसके चेहरे से काला कपड़ा हटा दिया गया था, ताकि शंकरगढ़ के लोग खौफ का पर्याय बन चुके अभयानन्द के चेहरे पर भी खौफ देख सकें, किन्तु स्थिति विपरीत थी।
अभयानन्द का मुखमंडल भयानक हो उठा था। उसके चेहरे और सिर पर पशुओं की भांति बाल उगने प्रारम्भ हो गये थे। आँखें पूर्णतया भेड़िये की आँखों में तब्दील हो चुकी थीं, किन्तु उन आँखों में भय नहीं बल्कि दहकते अंगारों सी लालिमा थी। वह तने से छूटने का प्रयास कर रहा था, किन्तु शिकंजों की खनखनाहट के स्वर के साथ उसका हर प्रयास विफल सिद्ध हो रहा था।
“हमारे शरीर को नष्ट करना इतना सहज नहीं है मूर्खों!” अभयानन्द चिघाड़ा- “हमने इसे हमारे आराध्य देव श्मशानेश्वर को सौंप दिया है। महान श्मशानेश्वर इसकी रक्षा करेंगे। वे इसे पर्याय बनाकर अपने विकराल स्वरूप में अवतरित होंगे। शंकरगढ़ उनका भयानक शाप झेलेगा। भीषण रक्तपात से इस राज्य की धरती लाल हो उठेगी। यह राज्य इस सीमा तक जनशून्य हो जाएगा कि आने वाली पीढ़ियाँ इसे श्मशानगढ़ के नाम से स्मरण करेंगी।”
अभयानन्द का रूप और उसकी भीषण गर्जना देख प्रत्येक प्राणी ये अटकलें लगा रहा था कि यदि ‘काल’ मानव रूप में कहीं रहता होगा तो वह अभयानन्द जैसा ही दिखता होगा। प्रचंड ज्वाला के साथ लपलपाती मशालों को पीपल की जड़ में रखने भर की देरी थी कि उसके तने से बंधे अभयानन्द के जिस्म का आग की लपटों से घिर जाना निश्चित था, किन्तु किसी में भी इतना साहस नहीं था कि वह मशाल लेकर सबसे पहले आगे बढ़ता। अभयानन्द का खौफ उनके मानस पटल पर पत्थर की लकीर के रूप में अंकित हो गया था। दिव्यपाणी ने एक सैनिक के हाथ से मशाल ले लिया। महाराज समेत राज्य के अन्य पदाधिकारियों
ने भी उनका अनुसरण किया।
“सच्चिदानन्द परमेश्वर तुम्हें इस दूषित काया से मुक्त करें। तुम्हें बोध करायें कि तुमने उस दुर्लभ मानव-योनि का दुरूपयोग किया है, जिसे धारण करने हेतु देवगण भी तरसते हैं। तुमने अपना सम्पूर्ण जीवन वाममार्गी साधना में व्यतीत किया है। तामसी शक्तियों को साधने की लालसा के कारण तुम्हारे विचार भी तामसिक हो चुके हैं। मानवों के कल्याण के लिए तुम्हारा वध अत्यावश्यक है। ॐ शांति:!”
दिव्यपाणी ने अपना मशाल अभयानन्द पर उछाल दिया। उसके होठों से भयमिश्रित चीत्कार निकली, किन्तु किसी को भी उस पर दया नहीं आयी क्योंकि वह दया का पात्र नहीं था। देखते ही देखते अनगिनत मशाल उस पर आकर गिरे और पीपल का तना भयानक आग की चपेट में आ गया।
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लम्बे समय से सिसक रहे द्विज ने कोई ध्वनि सुनकर चेहरा ऊपर उठाया। सामने कुछ नहीं था, सिवाय सुनहरे प्रकाश में चमकती भगवती की प्रतिमा के।
“क्या ये संकेत है?” द्विज ने मानो प्रतिमा से पूछा- “क्या ये संकेत है कि मैं...। हाँ! नि:संदेह ये मेरी दुविधा के अंत का संकेत है।”
बदहवास सा द्विज गर्भगृह से बाहर आया। उसने आकाश की ओर देखा। वहां अब स्याह मेघ अपना आधिपत्य जमा चुके थे। उनके चन्द्रमा पर आच्छादित हो जाने के कारण वातावरण में अमावस सा अंधकार छा गया था। हवाएं तीव्र हो उठी थीं। प्रकृति के रूप में अकस्मात हुए इस परिवर्तन पर द्विज मानो झूम उठा।
“मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। भगवती ने मेरे विरोधाभास का अंत कर दिया।” वह प्रांगण के मुख्य द्वार की ओर दौड़ पड़ा।
यही वह क्षण था, जब गर्भगृह का दीपक पुन: बुझ गया।
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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