Thriller बहुरुपिया शिकारी

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koushal
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Re: Thriller बहुरुपिया शिकारी

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“और ये, गलत, नतीजा निकाला कि आइटम...उनकी जुबान में...मेरे कब्जे में थी इसलिये मेरे पर चढ़ दौड़े !”
“अब तो जाहिर है ऐसा ही हुआ । शर्मा, नाहक तूने उन्हें निकल जाने दिया ।”
“फिर, वहीं पहुंच गए !”
“चल, छोड़ । आइटम की बात कर । आइटम, आइटम बहुत हो गया, आइटम आखिर थी क्या ?”
“थी क्या । बहुवचन में बोले हर बार वो लोग । जरुर अनपढ़ थे, मुंह से ‘आइटम’ निकलता था, जेहन में ‘आइटम्स’ होता था ।”
“अरे, थी क्या ?”
“तारीख बदलने से पहले जान जाओगे ?”
“क्या मतलब है तेरा ? कहीं तू जान तो नहीं चुका ?”
“अरे नहीं ! जान चुका होता तो तुम से छुपा के रखता ! मजाल होती मेरी !”
“हां ।”
“यादव साहब, आनेस्ट” - मैंने अपने गले की घंटी को छुआ - “उस बाबत मैं कुछ नहीं जान चुका ।”
“तो फिर ये क्यों बोला तारीख बदलने से पहले मैं जान जाऊंगा ?”
“सब जान जायेंगे । मुझे यूं समझो कि इलहाम हो रहा है कि ये केस बस वाइंड अप हुआ कि हुआ ।”
“अरे, गोली तो नहीं दे रहा ?”
“नहीं । मेरी मजाल...”
“ढ़ंक के रख अपनी मजाल को । शर्मा, मैं बहुत बुरा आदमी हूं...”
“खामखाह अपने मुंह मियां मिट्ठू न बनो । इतने बुरे नहीं हो । तुमसे कहीं बुरे मौजूद हैं दिल्ली शहर में । फिर छ: बेटियों का बाप चाह कर भी इतना बुरा नहीं हो सकता । कहो कि मैंने गलत कहा !”
“सही गलत समझ में आये तो कुछ कहूं न !”
“अब पोजीशन क्या है ?”
“किसकी ?”
“केस की ? तोशनीवाल के साथ हुई नयी वारदात के कांटेक्स्ट में केस की ?”
“अरे, ये पूछ न कि मेरी...मेरी पोजीशन क्या है !”
“क्या है ?”
“जम के क्लास ले रहा है तोशनीवाल मेरी । मेरे को निकम्मा पुलिस वाला करार दे रहा है । इलजाम लगा रहा है कि पहले ऐन मेरी नाक के नीचे उसकी बीवी का खून हो गया, अब यहां उसका होते होते बचा । बाल बाल बचा । बड़े थियेट्रिकल अंदाज में कह रहा था कि उसकी खातिर प्रिंस शहीद हो गया, खुद मरके उसे जिंदगी दे गया ।”
“इतना कुछ कह रहा है तो बात कर सकता है न !”
“जाहिर है । क्यों ?”
“करते हैं । भीतर चलो ।”
हमने भीतर कदम रखा ।
डाक्टर शुक्ला भीतर मौजूद था और अपने मरीज का मुआयना कर रहा था ।
हम उसके फारिग होने का इंतजार करने लगे ।
“दि प्रॉग्रेस इस वैरी सैटिस्फैक्ट्री, मिस्टर तोशनीवाल ।” - आखिर उससे परे हटता डाक्टर शुक्ला बोला - “यू विल बी आल राइट इन नो टाइम ।”
“थैंक्यू ।” - तोशनीवाल क्षीण स्वर में बोला ।
“हम इनसे” - मैं बोला - “दो मिनट बात कर सकते हैं ?”
“ठीक है ।” – डाक्टर बोला – “दो मिनट ।”
हम तोशनीवाल के सिरहाने पहुंचे ।
“क्या हुआ, जनाब ?” – मैं सहानुभूतिपूर्ण स्वर में उससे सम्बोधित हुआ ।
“अब क्या फायदा बताने का क्या हुआ !” - तोशनीवाल क्षीण किंतु खिन्न स्वर में बोला - “त्रेहन की दीदादिलेरी की इन्तहा हुई, ये हुआ । चाय में जहर से बच गया तो जहर वाली चॉकलेट भेज दीं । मालूम जो था उसे मैं चॉकलेट पसंद करता था । मैंने खाने के लिये एक चॉकलेट निकाली तो प्रिंस गुर्राने लगा, चॉकलेट की मांग करने लगा । मैंने वही चॉकलेट उसे खिला दी और अपने लिये नयी निकाल ली । तभी प्रिंस यूं कांपने लगा जैसे कोई जूड़ी के बुखार में कांपता है, फिर गिर पड़ा और तड़पने लगा । मुंह से झाग निकलने लगी, आंखें उलटने लगीं । मेरे प्राण कांप गये । मैंने चॉकलेट परे फेंकी और नर्स के लिये घंटी बजाने लगा । लगातार बजती घंटी की वजह से नर्स दौड़ी आयी, पीछे पीछे दो आर्डरली आये । फिर डाक्टर शुक्ला आये । गॉड ! गॉड !” - उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी ली - “प्रिंस की जान चली गयी ताकि मेरी जान बच जाती । गॉड ! गॉड !”
उसकी आंखें भर आयी ।
“दैट विल बी एनफ ।” - हमारे पीछे से डाक्टर शुक्ला बोला ।
यादव ने सहमति में सिर हिलाया ।
मैंने चॉकलेट बाक्स का मुआयना किया । उस पर स्टिकर लगा था:
मारबल डिपार्टमेंट स्टोर, वसंत कुंज ।
Chapter 5
मैं वसंत कुंज पहुंचा ।
मारवल डिपार्टमेंट स्टोर से वहां हर कोई वाकिफ था ।
वो कोई बहुत बड़ा स्टोर नहीं था । वहां कनफेक्शनरी और मैडीसिंस का अलग काउंटर था । मैं वहां पहुंचा ।
एक अधेड़ व्यक्ति काउंटर की परली तरफ से मेरे सामने पहुंचा ।
“चॉकलेट्स ।” - मैं बोला - “ब्लैक पैशन । एक किलो का बाक्स ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और ऐन वैसा बाक्स पेश किया जैसा मैं हस्पताल में देख कर आया था ।
“कीमत ?” - मैं बोला ।
“पंद्रह सौ रुपये ।”- सेल्समैन बोला ।
“इतनी महंगी चॉकलेट हर कोई तो नहीं खरीदता होगा !”
“खरीदते हैं । लेकिन किलो का बाक्स हर कोई नहीं खरीदता ।”
“हाल में किलो का बाक्स कब बेचा ?”
“आप क्यों पूछ रहे हैं ?”
“जवाब दो । मैं डिटेक्टिव हूं ।”
उसके चेहरे पर संदेह के भाव आये ।
मैंने उसे अपने आई-कार्ड की झलक दिखाई ।
मुझे कई बार तजुर्बा हो चुका था कि उस एक्शन से ही आम लोग बाग मुतमईन हो जाते थे और सहज ही समझ लेते थे कि मैं पुलिस के महकमे से था । उसके चेहरे से भी तत्काल संदेह के भाव छंटे और सम्मान के भाव आये ।
“कल शाम को ।” - वो बोला ।
“शाम को किस वक्त ?”
“सूरज डूबने के बाद । अंधेरा हो जाने के बाद । काफी बाद ।”
“टाइम बोलो, भई ।”
“कस्टमर की आमद का टाइम क्लॉक करके कौन रखता है !”
“ठीक ! लेकिन जब वो कस्टमर - खास कस्टमर, खास, कम डिमांड वाली आइटम का कस्टमर - तुम्हें याद आ गया है तो टाइम का कोई तो अंदाजा तुम्हें होना चाहिये या नहीं ?”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“वो अंदाजा ही बोलो ।”
उसके माथे पर बल पड़े, कई क्षण वो खामोश रहा ।
“सात से आठ ।” - फिर बोला ।
“जिस कस्टमर ने ब्लैक पैशन का एक किलो का डिब्बा खरीदा, वो कल शाम सात और आठ के बीच यहां था ?”
“हां । यही बोला मैंने ।”
“सुना मैंने । मर्द या औरत ?”
“मर्द ।”
“कैसा ?”
“कैसा क्या मतलब ?”
“देखने में कैसा था ? हुलिया, कद काठ, शक्ल सूरत बयान करो ।”
“ठिगना था । चेहरे पर तरह तरह के खरोंचों के निशान थे । एक बांह में कोई नुक्स था ।”
“कैसा नुक्स ?”
“टेढ़ी थी । मुड़ी हुई थी । दूसरी बांह से छोटी थी ।”
“छोटी कौन सी थी ? दायीं या बायीं ?”
“दायीं ।”
“और ?”
“लंगड़ा के चलता था ।”
“पहले कभी उस शख्स को देखा ?”
“नहीं पहले कभी नहीं देखा था, लेकिन...”
“लेकिन क्या ?”
“उसका कदकाठ एक और शख्स से मिलता था जो कि अक्सर यहां आता है । कोई फर्क था तो बस ये था कि उसके चेहरे पर खरोंचों के निशान नहीं थे, कैसे भी निशान नहीं थे । उसकी बांह में, चाल में भी कोई नुक्स नहीं था ।”
“वो कौन हुआ ?”
“नाम नहीं मालूम ।”
“आखिरी बार स्टोर में कब देखा था ?”
“दो दिन पहले ।”
“ठीक से याद है ?”
“हां । वजह है ठीक से याद होने की । तब वो सीधा इसी काउंटर पर पहुंचा था और सिंगल आइटम खरीद कर चला गया था ।”
“सिंगल आइटम क्या ?”
“चूहे मारने की दवा । कल शाम वाले - नुचे हुए चेहरे, लंगड़ी टांग और टेढ़ी बांह वाले - ग्राहक की तरफ मेरी खास तवज्जो इसलिये भी गयी थी कि उसने भी वही दवा खरीदी थी ।”
“रैट पायजन ?”
“हां ।”
“स्ट्रिकनिन ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“मुझे बात को तरीके से समझने दो । कल शाम सात और आठ बजे के करीब यहां पहुंचे खास, शक्ल सूरत वाले जिस ग्राहक ने ब्लैक पैशन चॉकलेट का एक किलो का पैक खरीदा था, उसी ने तभी, चूहे मारने की दवा भी खरीदी थी ?”
“हां ।”
“क्या हां । चॉकलेट्स के साथ साथ रैट प्वायजन भी बेचते हो ?”
koushal
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“वो कैमिस्ट शाप की आइटम है । कैमिस्ट शाप दायें बाजू है लेकिन ये काउंटर सांझा है । कल शाम वाला डिफार्म्ड कस्टमर जब यहां आया था, तब कैमिस्ट शाप का सेल्समैन बाई चांस यहां नहीं था । तब ब्लैकपैशन के किलो के पैक के बाद मैंने ही उसे रैट प्वायजन का पैकेट निकाल कर दिया था ।”
“ले के आओ ।”
“क्या ?”
“पैकेट ।”
“वो तो वो ले गया !”
“अरे, वो नहीं, वैसा पैकेट । है या नहीं ?”
“है ।”
“तो ले के आओ न, भई ।”
उसने पैकेट ला कर काउंटर पर रखा ।
वो ऐन वैसा पैकेट था जैसा पिछली रात देवीलाल के कमरे की अलमारी के टॉप शैल्फ पर से बरामद हुआ था ।
“इस पर” - मैं बोला - “रैट प्वायजन के नीचे स्ट्रिकनिन लिखा तो है !”
“हां, लिखा है । मैंने ध्यान नहीं दिया था ।”
“ये घातक जहर है !”
“साहब, जहर की बाबत मुझे मालूम है लेकिन मैं नाम से बेखबर था । मुश्किल स्पैलिंग्स वाला वर्ड है न, मेरे से प्रोनाउन्स नहीं होता ।”
“जब मालूम है ये जहर है तो ये भी तो मालूम होना चाहिये कि इसका कोई बेजा इस्तेमाल हो सकता है !”
“मालूम है । इसीलिये सावधानी बरतते हैं !”
“क्या ? क्या सावधानी बरतते हो ?”
“कस्टमर से कैशमीमो पर साइन कराते हैं और नाम और मोबाइल नम्बर लिखवाते हैं ?”
“कल लिखवाया था ?”
“हां । बिल्कुल !”
“दो दिन पहले भी ?”
वो परे देखने लगा ।
“जवाब दो ।”
“वो... वो क्या है कि.. .दो दिन पहले वाला नोन कस्टमर था, अक्सर यहां आता था ।”
“इसलिये उसे रूटीन से बरी कर दिया ! उससे परचेज पर साइन न कराये ! नाम, मोबाइल नम्बर लिखवाया !”
“ये. . .रूटीन हमारी खुद की है, कोई सरकारी फरमान नहीं है । जिस ग्राहक को हम पहचानते हैं, उसके लिये रूटीन को हम नजरअंदाज कर सकते हैं ।”
“दिस इज हाईली इररैगुलर...”
“खामखाह ! जब ऐसा कोई सरकारी नियम या हुक्म है ही नहीं...”
“ठीक ! ठीक ! कल शाम वाले कस्टमर के बारे में क्या कहते हो ? वो तो नोन कस्टमर नहीं था.. .या था ?”
“नहीं था । इसीलिये उससे कैशमीमो पर साइन कराये गये थे और नाम और मोबाइल नम्बर लिखवाया गया था ।”
“गुड ! यहां बिल कैसे बनाते हो ? कम्प्यूटर से या बिलबुक पर ।”
“दोनों तरह से । कल प्रिंटर डाउन था इसलिये बिल बिलबुक पर बनाया था ।”
“बिलबुक ले के आओ । मुझे कार्बन कापी दिखाओ ।”
उसने वो काम किया ।
फिर बिलबुक को एक जगह से खोल कर मेरे सामने रखा ।
कार्बन कापी पर कस्टमर का नाम उसके हस्ताक्षरों के नीचे कैपीटल लैटर्स में विष्णु कसाना दर्ज था ।
मैं मोबाइल निकाल कर उस पेज की तसवीर खींचने लगा ।
“फोटोकापी मिल सकती है ।” - सेल्समैन बोला - “फोटोकापियर यहीं है ।”
“फिर क्या वात है ! शुक्रिया पहले कुबूल करो ।”
वो कापी बना कर लाया ।
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koushal
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बाहर आ कर मैंने यादव का मोबाइल बजाया ।
कोई जवाब न मिला ।
फोन स्विच्ड ऑफ तो नहीं था, शायद म्यूट पर था, घंटी की उसे खबर नहीं लगी थी ।
मैंने उसके मातहत सब-इंस्पेक्टर गिरीश तोमर को काल लगाई ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“राज शर्मा बोल रहा हूं ।” - मै बोला - “कहां हो ? अपने इंस्पेक्टर साहब के साथ तो नहीं थे ?”
“ओखला में हूं ।” - जवाब मिला ।
“वहां कैसे पहुंच गये ?”
“जमना से विष्णु कसाना की लाश बरामद हुई है । बैराज के एक गेट में अटकी मिली ।”
“अरे ! कब ?”
“अभी दो घंटे पहले ।”
“कैसे मरा ?”
“पता लगेगा । लेकिन लाश की हालत से ये अभी मालूम है कि कब मरा !”
“अच्छा ! कब मरा ?”
“चार-पांच दिन हो गये जान पड़ते हैं ।”
“कैसे हो सकता है ! अभी परसों रात तो वो साक्षात तोशनीवाल फार्म पर मौजूद था, जहां उसने मालिक की बेटी की लाश बरामद की थी !”
“यादव साहब से डिसकस करना ।”
“अच्छी राय दी । यही करता हूं ।”
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वस्तुत: मैंने भीकाजी कामा प्लेस का रुख किया ।
जहां या सूरजभान कपुर की कान्फ्रेंस खत्म हो चुकी हो सकती थी या दो घंटे के लिये बाहर गयी उसकी प्राइवेट सैक्रेट्री लौट आई हो सकती थी ।
मैं माथुर ग्रुप आफ इंडस्ट्रीज के आफिस में पहुंचा तो पता लगा दूसरी बात हुई थी - सैक्रेट्री लौट आयी थी ।
मैंने रिसैप्शन पर बिग बॉस से नहीं तो उसकी पीएस से मुलाकात की अपनी दरखास्त दोहराई तो रिसैप्शनिस्ट साफ मेरे पर अहसान करते हुए फोन पर बात करने लगी ।
मैं धीरज से प्रतीक्षा करता रहा ।
और क्या करता ! गर्जमंद जो था !
रिसैप्शनिस्ट ने फोन वापिस क्रेडल पर रखा ।
मेरी भवें उठीं ।
“जाइये ।” - वो बोली ।
“कहां ?”
“साहब की पीएस के आफिस में ।”
“वो कहां है ?”
“मिस्टर शर्मा, आप पहले यहां आ चुके हैं ।”
“याददाश्त अच्छी है तुम्हारी । लेकिन मेरी इतनी अच्छी नहीं है । मसलन मुझे यही याद नहीं रहा था कि आंखों के अलावा भी तुम्हारी कोई चीज बड़ी है...”
उसने काल बैल बजाई ।
फौरन एक चपरासी रिसैप्शन पर पहुंचा जिसे रिसैप्शनिस्ट ने आवश्यक निर्देश दिये, मुझे उसके हवाले किया और मेरी तरफ से पीठ फेर ली ।
चपरासी ने मुझे प्राइवेट सैक्रेट्री के आफिस में पहुंचाया ।
मैं उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठा, मैंने उसका अभिवादन किया ।
“यस, मिस्टर शर्मा” - वो मधुर स्वर में बोली - “कल जिमखाना में साहब से मुलाकात हो गयी थी ?”
“हां । बहुतु ही तसल्लीबख्श मुलाकात हुई थी । बहुत मेहरबान हैं, माथुर साहब ।”
“आज तो मुलाकात नहीं होगी क्योंकि... ”
“लम्बी कान्फ्रेंस में हैं । मालूम हुआ मुझे । लेकिन मेरा मकसद तुम्हारे से भी हल हो सकता है ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये ।
“दूसरी बार आया हूं ।” - मैं बोला - जैसे मेरा यूं कोई क्रेडिट बन सकता हो ।
“अच्छा ! ”
“डेढ़ घंटा पहले आया था तो पता चला था तुम आफिस में नहीं थी ।”
“मैं... मैं जरा.. .ठीक है । करो हल मतलब ।”
“थैंक्यू । शिल्पी तायल... कत्ल की खबर लगी ?”
“हां ।” - उसके लहजे में फौरन उदासी आयी - “लगी तो सही ! कितनी कठिन है जिंदगी राजधानी में !”
“तुम्हारी फ्रेंड थी ?”
उसकी भवें उठी ।
“खुद माथुर साहब ने बताया । लंच इकट्ठे होता था ।”
“ये भी बोला ?”
“बोला तो इसके अलावा भी बहुत कुछ लेकिन वो किस्सा फिर कभी । अभी मैं शिल्पी तायल के घर का पता जानना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“है कोई वजह जो तुम्हें समझाना मुश्किल है ।”
“कोशिश करो ।”
“टाइम जाया होगा ।”
“साहब लम्बी कांफ्रेंस में हैं इसलिये है मेरे पास टाइम ।”
“मेरे पास नहीं है ।”
“मुझे उसका पता कैसे मालूम होगा !”
“वैसे ही जैसे सखी को सखी से और बहुत कुछ मालूम होता है ।”
“आई डोंट अंडरस्टैण्ड ।”
“ट्राई टू । जब उसने ये तक बताया कि कभी उसके एम्पलायर का उससे अफेयर था, ये तक बताया कि कभी उसकी मां भी उसके एम्पलायर की मुलाजिम थी, ये तक बताया कि... ”
“दैट विल बी एनफ ।” - वो जल्दी से बोली ।
मैं खामोश हो गया ।
“कैसे जाना इतना कुछ ?”
“माथुर साहब ने बताया ।”
“कमाल है ! इतना मुंह लगाया कल तुम्हें !”
“हां । वो बिजी न होते तो पता मैं उन्हीं से पूछता ।”
“उन्हें मालूम होता ?”
“तुमसे मालूम करते न !”
वो सकपकाई ।
“मेरी दरख्वास्त पर । मुंहलगा जो ठहरा मैं उनका !”
“हूं ।”
“इतना सोच विचार बेमानी है । मुझे मालूम है वो चितरंजन पार्क के एक किराये के फ्लैट में रहती थी ।”
“ये कैसे मालूम है ?”
“उसी ने बताया था ।”
“यानी मिले थे उससे !”
“हां । अभी कल ही मिला था ।”
“तो पता उसी से पूछा होता !”
“तब जरूरत नहीं थी । तब मालूम नहीं था इतनी जल्दी उस अंजाम को पहुंचेगी जिसको कि पहुंची ।”
“हां ।” - उसने अवसादभरी गहरी सांस ली - “उसका कत्ल हुआ है । कत्ल के बाद पता क्या कोई सीक्रेट रहा होगा ! तुम डिटेक्टिव हो, पुलिस से भी मालूम कर सकते हो ।”
“बिल्कुल ठीक ! लेकिन मुझे उंगली से अंगूठे तक पहुंचने के लिये कोहनी तक वाला रूट पकड़ने की आदत है । जमा, तुम्हारे जैसी प्राइम ब्यूटी से लम्बी लम्बी हांकने की आदत है ।”
उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“क्योंकि मेरा मिजाज लड़कपन से आशिकाना है ।”
“बस करो । नोट करो । सी-460, सैकंड फ्लोर, विपिनचंद्र पाल मार्ग, चितरंजन पार्क ।”
“थैंक्यू । अकेली रहती थी ?”
“नहीं, एक फ्लैटमेट थी । है । चित्रिका मुखर्जी नाम है ।”
“बंगाली !”
“भई, जब मुखर्जी है तो...”
“ठीक । ठीक । तायल के बारे में क्या कहती हो ?”
“क्या कहूं ?”
“शिल्पी कौन जात हुई ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“कोई अंदाजा ?”
“नहीं है । लेकिन फिर एक अंदाजा है भी ।”
“क्या ?”
“शायद बंगाली हो - इसीलिये बंगाली फ्लैटमेट चुनी हो - शायद उसका नाम किसी लम्बे नाम का छोटा एडीशन हो ! जैसे मुखोपाध्याय का मुखर्जी होता है ।”
“चटटोपाध्याय का चटर्जी होता है ! बंद्योपाध्याय का बनर्जी होता है !”
“वही ।”
“लहजे से बंगाली लगती थी ?”
“नहीं, भई, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी । दिल्ली में पुराने बसे बाशिंदों का एक ही लहजा होता है । दिल्ली वाला ।”
“ठीक । ये फ्लैटमेट...चित्रिका मुखर्जी...ये क्या करती है ?”
“नौकरी ही करती है । काल सेंटर की ।”
“वो तो शिफ्ट की जॉब होती है !”
“हां ।”
“फिर तो हो सकता है घर पर हो !”
“हो सकता है । ट्राई करके देखो ।”
“राय का शुक्रिया, मैडम” - मैं उठ खड़ा हुआ - “सहयोग का डबल शुक्रिया ।”
“वैलकम ।”
“वैसे एक बात का अफसोस है ।”
“किस बात का !”
“सखी की सखी का नाम बताया, अपना नाम न बताया ।”
वो हंसी ।
खनकती हंसी । तौबाशिकन हंसी । मेरी खास जानी पहचानी, हंसी तो फंसी वाली हंसी ।
“हिमानी ।” - फिर बोली - “हिमानी पाहूजा ।”
नाम मैंने फ्यूचर प्रास्पैक्ट्स की लिस्ट में दर्ज कर लिया ।
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koushal
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बीस मिनट बाद मैं चितरंजन पार्क पहुंचा सी-460 के सैकण्ड फ्लोर की घंटी बजा रहा था ।
घुटनों से जरा नीचे तक आने वाली टाइट जींस और वूलन स्कीवी पहने एक सांवली रंगत वाली, कटे बालों वाली निहायत दुबली लेकिन बढिया बनी हुई युवती ने दरवाजा खोला ।
“यस ?” - वो सहज भाव से बोली ।
“चित्रिका मुखर्जी ?” - मैंने अदब से पूछा ।
वो सकपकाई, उसने संदिग्ध भाव से मेरी तरफ देखा ।
“हां ।” - फिर बोली ।
“मैं राज शर्मा ।” - मैंने उसे अपने आइ-कार्ड की झलक दिखाई - “डिटेक्टिव ! आप की फ्लैटमेट शिल्पी तायल के.. .सिलसिले में यहां आया ।”
“पुलिस तो आके जा चुकी है !”
“पुलिस डिटेक्टिव नहीं हूं प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव का यहां क्या काम ?”
“बाई चांस है । वो क्या है कि शिल्पी के एम्प्लायर मिस्टर शिव मंगल तोशनीवाल ने मुझे एंगेज किया है ।”
“शिल्पी के मर्डर की तफ्तीश के लिये ?”
“मल्टीपल मर्डर्स की तफ्तीश के लिये । आपको पता चला ही होगा कि उनकी बेटी सुरभि और पत्नी श्यामली का भी मर्डर हुआ है । तीनों कत्ल एक ही जंजीर की कड़ियां हो सकते हैं । यू अंडरस्टैंड माई पॉइंट ?”
“आई थिंक आई डू । प्लीज कम इन ।”
“थैंक्यू ।”
मैंने भीतर सुसज्जित ड्राईंगरूम में कदम रखा तो उसने मेरे पीछे दरवाजा बंद किया ।
“काफी बड़ा फ्लैट है !” - मैं हर तरफ निगाह दौड़ाता बोला ।
“थ्री बैडरूम, ड्राईंग डायनिंग, सर्वेंट रूम ।” - वो बोली ।
“किराया भी बड़ा ही होगा ?”
“ऐसा ही है ।”
“थ्री बैडरूम... यानी कोई तीसरा फ्लैटमेट भी...”
“नहीं । खाली है । लेकिन फर्निश्ड है । गैस्टरूम की तरह यूज होता है ।”
“आई सी । मैडम, इससे पहले मैं अपनी इनवैस्टिगेशन के सिलसिले में आगे बढूं इजाजत हो तो कुछ दुनियादारी की बात करूं ? ऐसी बात करूं जिससे कि मेरी जिज्ञासा शांत हो ?”
“जिज्ञासा ! किसकी बाबत ?”
“आप ही की बाबत ।”
“ठीक है, करो ।”
“खफा तो नहीं होगी न !”
“नहीं ।”
“प्रॉमिस ?”
“यस ।”
“आप टोटल इतनी ही हैं ?”
“क्या बोला ?”
“दो बार सामने से गुजरेंगी तो आपकी परछाई मेरे पर पड़ पायेगी ।”
उसकी हंसी छूट गयी ।
“अरे मैं साइज जीरो हूं ।” - फिर हंसी दबाती बोली ।
“यानी कि हैं ही नहीं !”
“लगता है साइज जीरो का मतलब नहीं समझते हो !”
“समझता तो हूं लेकिन...अब मैं क्या कहूं ! जितनी कुल हो, उससे ज्यादा का तो सलमान खान ब्रेकफास्ट करता होगा ।”
वो फिर हंसी ।
“बस करो अब” - इस बार उसने हंसी दबाने की कोशिश न की - “काफी दुनियादार बन चुके । अब मतलब की बात करो... जो कि करने आये हो ।”
“ओके । शिल्पी का रूम कौन सा है ?”
उसने एक बंद दरवाजे की ओर इशारा किया ।
“पुलिस आपकी मौजूदगी में यहां आयी थी ?”
“और कैसे आती ! मेन डोर तोड़ कर ?”
“सारी ! कुछ हाथ लगा ?”
“नहीं । मेरे खयाल से तो वो लोग इस नीयत से आये ही नहीं थे, वो तो लगता था कि उस जगह से महज वाकिफ होने आये थे जहां कि ...वो रहती थी ।”
“फिर भी उसका सामान वगैरह तो टटोला होगा ?”
“हां । खानापूरी तो की !”
“आप से भी पूछताछ की होगी !”
“की थी लेकिन वो भी खानापूरी ही थी । कब से वाकिफ थी ! कब से साथ रह रही थी ! मरने वाली का कोई दुश्मन ! कोई खास दोस्त ! वो वारदात होने से पहले मरने वाली का मूड कैसा था ! क्या डरी हुई थी ! किसी बात से परेशान थी ! नार्मल डेली लाइफ शिड्यूल में कोई सडन चेंज थी ! वगैरह ।”
“आई सी ।”
“खास तौर से मेरे से ये पूछा था कि क्या मुझे मरने वाली के किसी रिश्तेदार, किसी सगे सम्बंधी की कोई खबर थी !”
“थी ?”
“नहीं । लेकिन...”
“लेकिन क्या ?”
“एक दो बार जब वो फोन पर थी तो लगा था जैसे अपनी मां से बात कर रही हो । आउट आफ क्युरियोसिटी मैंने उस बाबत सवाल किया था तो जवाब मिला था, मुझे गलतफहमी हुई थी, उसकी मां तो जिंदा नहीं थी, कबकी मर चुकी थी ।”
“कब से यहां रह रही थी ?”
“पांच साल से ।”
“शुरू से ही आप यहां उसके साथ थीं ?”
“हां ।”
“ये फ्लैट फर्निश्ड मिला था ?”
“नहीं, खुद फर्निश किया था ।”
“सब कुछ बहुत एक्सपेंसिव दिखाई दे रहा है । मोटा खर्चा हुआ होगा !”
“उसी ने किया ।”
“जी !”
“आई डोंट हैव ए बिग सैलरी । मैं लग्जरी अफोर्ड नहीं कर सकती ।”
“वो कर सकती थी ?”
“कर ही सकती थी । तभी तो सारा खर्चा किया !”
“सारा ! आपने कुछ भी शेयर न किया ?”
“कुछ तो शेयर करने को मैं तैयार थी - बाकायदा आफर की थी - लेकिन उसने जनरासिटी दिखाई थी, बड़े दिल वाली बात की थी, कहा था जरूरत नहीं थी ।”
“यहां का किराया भी वो ही भरती थी ?”
“अरे, नहीं, भई । मैंने बोला मैं लग्जरी अफोर्ड नहीं कर सकती थी, ये कब बोला कि बेसिक्स भी अफोर्ड नहीं कर सकती थी !”
“लेकिन वो चाहती तो सारा किराया खुद भर सकती थी ? हैसियत थी उसकी ।”
“हैसियत तो थी बराबर !”
“एक बिजनेस टाइकून की प्राइवेट सेक्रेट्री ही तो थी ! बहुत ज्यादा तनख्वाह भी होगी तो कितनी होगी ?”
“तनख्वाह की बात नहीं थी !”
“अच्छा ! यानी आमदनी का कोई और भी जरिया था ! कोई मेजर इनवेस्टमेंट्स, कोई हैवी इनहैरिटेंस...”
“मेरे खयाल से नहीं । लेकिन जब भी कोई हैवी एक्सपेंडिचर पेश होता था, उसको मीट करने के लिये रिक्वायर्ड सम उसके पास होता था ।”
“इस वाबत कभी सवाल न किया !”
“मैं क्यों करती ! आई एम नाट स्टूपिड । वाई वुड आई लुक दि गिफ्ट हॉर्स इन दि माउथ !”
“वैरी वैल सैड ।”
“मैं उसकी जनरासिटी का सुख पा रही थी, मैं क्यों सवाल करती !”
“ठीक ! जब वो इतनी संपन्न थी, इतनी सेल्फसफीशेंट थी तो फ्लैटमेट किसलिये ?”
“कम्पनी के लिये ।”
“आई सी । पुलिस ने उसके रूम को सील नहीं किया ?”
“जाहिर है कि नहीं किया । करते भी किसलिये ! वो मौकायवारदात तो नहीं ! फिर भी किसी वजह से करते तो सारा फ्लैट सील करते ।”
“ठीक ! अभी दोबारा आयेंगे ?”
“ऐसा कुछ बोल के तो नहीं गये !”
“फिर तो मेरे खयाल से मकतूला के कम में मेरे भी एक निगाह फिरा लेने में कोई हर्ज नहीं होगा !”
“मुझे तो कोई हर्ज दिखाई नहीं देता !”
“तो फिर...इजाजत है ?”
“हां । लेकिन एक बात है ।”
“क्या ?”
“तुम्हारे आने से पहले मैं लैपटॉप पर बहुत इम्पोर्टेन्ट वर्क कर रही थी, मैं तुम्हारे साथ वहां खड़ी नहीं हो सकती ।”
वाह ! चुपड़ी और दो दो । अनुमति और निर्विघ्न ! अबाध !
“मैं किसी चीज के साथ कोई छेड़खानी नहीं करूंगा । बाद में चाहें तो मेरी तलाशी ले लीजियेगा ।”
“जरूरत नहीं । आई कैन सी यू हैव ऐन आनेस्ट फेस ।”
वाह ! वाह ! बहुत तरह की तारीफ आपके खादिम को बहुत बार हासिल हुई लेकिन दिल्ली और आसपास चालीस कोस तक के टॉप के हरामी को आनेस्ट फेस किसी ने पहली बार बोला ।
“थैंक यू ! सो... मे आई ?”
“यस । गो अहैड ।”
मैं निर्देशित रूम के दरवाजे पर पहुंचा और उसे धकेल कर भीतर दाखिल हुआ ।
कनखियों से मैंने देखा कि वो बाजू के कमरे में चली गयी थी जो कि जरूर उसका बैडरूम था ।
मैंने फाइव स्टार होटल के डीलक्स रूम की तरह सुसज्जित कमरे की तरफ तवज्जो दी । मुझे पूरी छूट मिली थी इसलिये मैंने धीरज से हर चीज का मुआयना करना शुरू किया ।
दस मिनट बाद वार्डरोब के एक शैल्फ में मुझे कुछ उम्मीद दिखाई थी ।
जो कि बेमानी भी साबित हो सकती थी ।
उस शैल्फ में रखे सामान को - जो कि ज्यादातर अंडरगारमेंट्स थे - निकाल कर मैंने उसे खाली किया तो पाया कि उसकी भीतरी दीवार पर उसकी पूरी लम्बाई चौड़ाई को कवर करता शाहरुख का एक क्लोजअप पोस्टर लगा हुआ था ।
वार्ड रोब के अंदर !
जनाना साजोसामान से तकरीबन कवर्ड !
किसलिये ?
मकतूला शाहरुख की फैन थी तो उसे बैडरूम में किसी प्रोमिनेंट जगह पर लगाती !
मैंने पोस्टर को टटोला, बोर्ड को कई बार, कई जगह ठकठकाया ।
नतीजा सिफर ।
फिर मुझे अहसास हुआ कि पोस्टर बोर्ड पर पेस्टिड नहीं था, खाली चारों तरफ से सैलोटेप से बोर्ड पर चिपकाया गया हुआ था ।
नाजायज हरकत थी लेकिन मैंने पोस्टर को वहां से हटाने का फैसला किया ।
बैडरूम में एक दीवार के साथ लगा एक फैंसी राइटिंग डैस्क था जहां मुझे डिस्पेंसर में सैलोटेप भी दिखाई दिया और कलमदान में वैसा स्टेशनरी आइटम चाकू भी दिखाई दिया जिसका फल एक ट्रिगर सरकाने से बाहर निकलता था ।
मैंने दोनों चीजें अपने कब्जे में कीं और वार्डरोब पर वापिस लौटा ।
मैंने चाकू का फल एक इंच बाहर निकाला और उसकी तीखी नोक को सावधानी से पोस्टर के चारों किनारों पर फेरा तो सैलोटेप कटता चला गया और पोस्टर दीवार से अलग हो गया ।
आशापूर्ण निगाहों से मैंने पीछे के बोर्ड का मुआयना किया ।
बेकार !
वो बस बोर्ड ही था ।
राइटिंग डैस्क पर एक लांग आर्म टेबल लैम्प पड़ा था जिसकी कनैक्टिंग कॉर्ड भी काफी लम्बी थी । मैंने लैम्प को अपने काबू में किया, कॉर्ड को पूरा फैलाया, लांग आर्म को पूरा खोला तो उसका सीएफएल ट्यूब वाला हैड आराम से वार्डरोब के उस शैल्फ तक पहुंच गया जिसमें से शाहरुख पद्चयुत किया जा चुका था ।
लैम्प की तीखी रोशनी में मैंने शैल्फ के पिछले हिरसे का मुआयना किया तो चारों भुजाओं से कोई दो दो इंच परे एक बेहद वारीक लकीर से बनी आयत के दर्शन हुए । एक निगाह में वो आयत ऐसी लगती थी जैसे किसी ने पेंसिल से बोर्ड पर उकेरी हो ।
पेंसिल से खामखाह ! - मैंने खुद से जिरह की - जरूर कोई भेद था ।
चाकू की तीखी बारीक नोक को मैंने आयत की एक भुजा पर रखा और धीरे धीरे फल पर दबाव डाला ।
नोक बोर्ड में दाखिल होने लगी ।
ढक्कन !
वो ढ़क्कन था, वैसे ही बोर्ड का जैसे से वार्डरोब बनी थी और जो इतनी चतुराई से फिट किया गया था कि वार्डरोब के भीतर के अंधेरे में नहीं दिखाई देने वाला था । मुझे भी दिखाई न देता अगरचे कि मुझे उस शैल्फ को टेबल लैंप की तीखी रोशनी से रोशन करना न सूझा होता ।
मैंने और गौर से मुआयना किया तो एक जगह मुझे एक महीन पेच का सिर दिखाई दिया । चाकू की नोक से मैंने उस पेच को खोलना शुरू किया तो जल्दी ही कोई डेढ़ इंच लम्बा वो पेच मेरे हाथ में आ गया । पेच की जगह मैंने दस्तक दी तो दो खुफिया ढ़क्कन बीच में कहीं फिक्स धुरे पर घूम गया । ढ़क्कन का एक सिरा पीछे मौजूद झरोखे के भीतर दाखिल हो गया और दूसरा बाहर निकल आया ।
रिवॉल्विंग डोर की तरह ।
लैंप की रोशनी में मैंने भीतर हाथ डाला ।
भीतर से जो चीजें बरामद हुई, वो थीं:
एक सीडी ।
एक डैथ सर्टिफिकेट ।
एक स्टेटमेंट ।
सर्टिफिकेट और स्टेटमेंट फोटोकॉपी थी, सीडी ओरीजिनल थी या कापी थी, कहना मुहाल था । वैसे जब वाकी दो डाकूमेंट कापी थे तो सीडी का भी कापी होना ही बनता था ।
यानी तीनों के ओरीजिनल कहीं और महफूज थे ।
आइटम ! बहुवचन में !
जिनकी बरामदी की उम्मीद किसी को कहीं से थी और मौजूद वो कहीं और पाई गयी थीं ।
और ओरिजिनल्स अभी किसी तीसरी जगह महफूज थीं ।
अब हर राज उजागर हो रहा था, हर राज पर पड़े पर्दे उड़ रहे थे ।
अब मैं नहीं कह सकता था कि निशां मिलता है कातिल का, मगर कातिल नहीं मिलता ।
राइटिंग टेबल पर लैपटॉप और प्रिंटर मौजूद था ।
मैंने डैथ सर्टिफिकेट और स्टेटमेंट को स्कैन करके उनकी कापी निकाली और वहीं मौजूद एक ब्लैंक डिस्क पर कागजात और सीडी को डुप्लीकेट किया । फिर सीडी से लैपटाप पर ट्रांसफर हुई मूवी को अपने मोबाइल पर ट्रांसफर किया । लैपटॉप पर से मैंने सब कुछ इरेज कर दिया और अपनी मेहनत को अपने कोट की भीतरी जेब से हवाले किया । खुफिया खाने का सामान मैंने यथास्थान पहंचा कर ढ़क्कन को वापिस पोजीशन पर किया, उसमें पेंच डाला और सेलौटेप से शाहरुख की तसवीर पूर्ववत् शैल्फ के पिछले हिस्से पर टेप की । शैल्फ से निकाला सामान भी मैंने यथास्थान पहुंचाया और वार्ड रोब को बंद करके वापिस ड्राईंगरूम में पहुंचा ।
फ्लैटमेट चित्रिका मुखर्जी शायद तब भी अपने ‘इम्पोर्टेन्ट वर्क’ के साथ ही मसरूफ थी ।
“मैडम !” - मैंने आवाज लगाई - “मिस मुखर्जी !”
वो अपने कमरे से बाहर निकली ।
“कुछ मिला ?” - उसने पूछा ।
मायूसी जताते मैंने इंकार में सिर हिलाया ।
“कुछ होता तो पुलिस को ही मिल गया होता !” - वो बोली ।
“वही तो ! बहरहाल सहयोग का शुक्रिया ।”
“वैलकम !”
मैंने अपलक उसे देखा ।
“अब क्या है ?” - वो बोली ।
“वही है ।'।
“क्या ?”
“साइज जीरो । जेहन से निकलता ही नहीं !”
“न निकले । क्या प्राब्लम है ?”
“प्राब्लम तो कोई नहीं लेकिन.. .मैं सोच रहा था.. .सोच रहा था...”
“क्या ?”
“बेसन लगा के तल लूं तो कोई इजाफा होगा साइज में !”
वो जोर से हंसी ।
“साइज जीरो प्लस वन हो जायेगा या नहीं !”
“अरे, मैं मुर्गी हूं जो बेसन लगा के तल लोगे ?”
जवाब में मैंने हंसी में उसका साथ दिया ।
“वैसे” - वो बोली - “आदमी दिलचस्प हो ।”
“जहेनसीब !”
“कभी फिर मिलना ।”
“ये...इनवीटेशन है ?”
“यही समझ लो ।”
“फिर तो खूब पहचान लो राज हूं मैं, जिंसेउल्फत का फकीर हूं मैं ।”
“हा हा । वाह, भई !”
“फिर मिला तो झोली भर के जाऊंगा ।”
“किससे ?”
“जिंसेउल्फत से ।”
“ठीक है । लेकिन अब.. .हा हा.. .जाओ तो सही ! जाओगे तो फिर आओगे न !”
हंसी में उसका साथ देते मैंने रुखसत पायी ।
क्या खूब कहा था किसी गूढ़ज्ञानी ने:
जिंदगी के हरपल में प्यार, हर लम्हे में खुशी; खो दो तो यादें, जी लो तो जिंदगी ।
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