Thriller बहुरुपिया शिकारी

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koushal
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Re: Thriller बहुरुपिया शिकारी

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“ठीक से बांधी नहीं होगी !”
“बहुत मुमकिन है ।”
“नाव कौन चुराता ? क्यों चुराता ?”
“वही तो !”
“नौका विहार के पैसे बचाने के लिये कोई नाव चुराता तो कितने पैसे बचाता !”
“सौ रुपये । नाववाला कहता था कि उधर सभी नाव वाले दरिया में तफरीह के तमन्नाई मनचलों से एक घंटे का सौ रुपया चार्ज करते थे ।”
“कोई सौ रुपये बचाने के लिये नाव घुसता तो उसे उसकी खेना भी तो खुद पड़ता ! ये तफरीह हुई या मजदूरी हुई !”
“तू ठीक कह रहा है । अभी एक बात और सुन ।”
“अभी और भी ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“नाववाला कहता है कि उसने उन दो जनों को - पहले वाले दो जनों को - वहां से जाते फिर देखा था लेकिन तब उसे एक जना मोटा लगा था जब कि न केयरटेकर मोटा था और न उसका जोड़ीदार जिसका कि उसने हुलिया बयान किया था ।”
“क्या मतलब हुआ इसका ?”
“सिवाय इसके क्या हो सकता है कि उसे मुगालता लगा, अंधेरे में वहम हुआ, एक पतला मोटा लगने लगा ।”
“ठीक ! बहरहाल वो दो जने तफरीह के लिये आये और तफरीह करके लौट गये ?”
“जाहिर है ।”
“बीस मिनट की तफरीह ! बस इतने के लिए वो महरौली से वहां पहुंचे ?
“मूड की बात है । मिजाज की बात है ।”
“अब क्या होगा ?”
“भई, होली एंजेल्स के डॉक्टर ही बताएंगे ।”
“अरे तोशनीवाल का नहीं, डिप्टी का !”
“जवाबतलबी तो होगी बराबर उससे ! काबू में करेंगे, देखेंगे क्या कहता है उस रात घाट की हाजिरी की बाबत ! फिर कोई फैसला करेंगे ।”
“ठीक ।”
“अब तेरा क्या इरादा है ?”
“इजाजत दो तो आता हूं....”
“आ ।”
“मिलता हूं ।”
सम्बंधविछेद हो गया ।
फिर मैंने मेल की तरफ तवज्जो दी ।
विशु जी, दानी ! मेरा नेपाल में बसा दोस्त !
मैं लैपटॉप के हवाले हुआ ।
विशु ने सुजित त्रेहन की बाबत मेरी इंक्वायरी का जवाब भेजा था ।
जवाब मेरी आशा के अनुरूप था ।
मैंने लैपटॉप को प्रिंटर से जोड़ा और मेल की, उसके साथ के अटैचमेंट की, कापियां निकाली ।
********************************
मैं वसंत लोक और आगे होली एंजेल्स हस्पताल पहुंचा ।
यादव मुझे लॉबी में ही दिखाई दे गया । उस घड़ी उसके साथ उसका सब-इंस्पेक्टर गिरीश तोमर भी था ।
“क्या पोजीशन है ?” - अभिवादन के बाद मैंने यादव से पूछा ।
“पोजीशन अभी पूरी तरह से क्लियर नहीं है ।” - यादव गम्भीरता से बोला - “अभी उसको अटेंड करता बड़ा डॉक्टर - शुक्ला नाम है - मिला था, बोलता था थोड़ी देर में कोई छोटा मोटा बयान देने के काबिल हो जायेगा । अब उसी घड़ी के इंतजार में हूं ।”
“आई सी ।”
दस मिनट खामोशी से गुजरे ।
उस वक्त सिग्रेट मुझे बहुत याद आया क्योंकि वो हस्पताल था, वहां धूम्रपान की पाबन्दी थी, ऐसा ना होता तो शायद मेरी उसकी तरफ तवज्जो न गयी होती ।
एक नर्स यादव के पास पहुंची ।
“डाक्टर शुक्ला ने बोला है” - वो यादव से सम्बोधित हुई - “आप पेशेंट से मिल सकते हैं ।”
यादव ने राहत की सांस लेते सहमति में सिर हिलाया ।
नर्स ने हमें उसी फ्लोर पर आपरेशन थियेटर के बाजू में स्थित रिकवरी रूम में पहुंचाया जहां कि कई तरह की नलकियों ट्यूबों के बीच शिव मंगल तोशनीवाल पीठ के बल बैड पर पड़ा था । डाक्टर शुक्ला भी उस घड़ी वहां मौजूद था ।
आहट पा कर तोशनीवाल ने आखें खोली, फिर पुतलियां व्याकुल भाव से कटोरियों में फिरीं ।
“दो मिनट ।”- डाक्टर चेतावनी भरे स्वर में बोला ।
सहमति में सिर हिलाता यादव बैड के सिरहाने पहुंचा ।
“क्या हुआ था ?” - वो सहानुभूतिपूर्ण स्वर में तोशनीवाल से सम्बोधित था ।
“प - पता नहीं ।” - तोशनीवाल क्षीण स्वर में बोला - “मैं और शिशिर सुबह ब्रेकफास्ट टेबल पर थे । चाय का घूंट भरा तो....तो ...ब्लैक आउट । बस इतना ही याद है। अभी होश आया तो यहां...यहां था ।”
“शिशिर ? आपका बेटा जो आपके साथ ब्रेकफास्ट में शामिल था, वो...वो...”
“मा... मालूम नहीं । मुझे कुछ मालूम नहीं । गॉड ! गॉड ! कोई पता करके दो ।”
“पेशेंट इज गैटिंग एक्साइटेड ।” - डाक्टर जल्दी से बोला - “खत्म कीजिये ।”
मैंने देखा तोशनीवाल ने आंखें बंद कर ली थीं - जैसे यूं जाहिर कर रहा हो कि वो ही वार्तालाप जारी नहीं रखना चाहता था ।
“फिर कब बात कर सकते हैं ?” - यादव डाक्टर से पूछ रहा था ।
“शाम को पता करना ।” - डाक्टर बोला ।
“कितने बजे ?”
“चार बजे ।”
“ओके । थैंक्यू ।”
हम बाहर निकले और वापिस लॉबी में पहुंचे ।
वहां शिशिर और देवीलाल मौजूद थे ।
यानी लड़का सही सलामत था, बाप की तरह जहर का शिकार नहीं हुआ था ।
यानी सुजित त्रेहन को मकतूला श्यामली का दावा कुबूल हुआ था कि शिशिर उसका बेटा था और इसी वजह से आखिरी धमकी सिर्फ तोशनीवाल के लिये थी ।
“तुम्हारी चाय में जहर नहीं था ?” - फिर भी मैंने पूछा ।
“तब कुछ नहीं मालूम था मेरे को ।” - शिशिर परेशानहाल लहजे से बोला - “चाय मैंने पी ही नहीं थी ।”
“वजह ?”
“नौबत ही नहीं आयी थी । मैंने कप उठाया ही था, होंठों की तरफ बढ़ाया ही था कि डैड का एक घूंट चाय पीते ही फौरन बुरा हाल होता देखा था । चाय छोड़ कर मैं उन्हें सम्भालने में लग गया था ।”
“ओह ।”
“वैसे बाद में पुलिस के बताये मुझे मालूम हुआ था कि मेरी चाय में जहर नहीं था ।”
“आई सी ।”
“इन लोगों ने एम्बुलेंस बहुत जल्दी भेजी” - देवीलाल बोला - “वर्ना...” - गमगीन भाव से सिर हिलाता वो खामोश हो गया ।
“कितनी जल्दी ?” - मैंने पूछा ।
“बहुत ही जल्दी । साहब ने होश खोया नहीं कि एम्बुलेंस पहुंच गयी ।”
“हूं ।”
मैं रिसैप्शन पर पहुंचा ।
koushal
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Re: Thriller बहुरुपिया शिकारी

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“एम्बुलेंस के लिये काल कहां रिसीव की जाती है ?” - काउंटर के पीछे मौजूद युवती से मैंने सवाल किया ।
उसने संदिग्ध भाव से मेरी तरफ देखा ।
“क्यों पूछ रहे हैं ?” - फिर बोली ।
“जवाब दो, भई !”
“क्यों पूछ रहे हैं ?”
मैंने आवाज देकर यादव को करीब बुलाया ।
“ये पुलिस इंस्पेक्टर हैं ।” - मैं सख्ती से बोला - “ये पूछ रहे हैं ।”
“क्या बात है ?” - यादव बोला ।
“मैं पूछ रहा हूं एम्बुलेंस के लिये काल कहां रिसीव की जाती है, जवाब नहीं देती ।”
“स्विच बोर्ड पर ।” - युवती जल्दी से बोली - “आपरेटर रिसीव करती है ।”
“स्विच बोर्ड कहां है ?”
उसने रिसैप्शन के पिछवाड़े में ही एक बंद दरवाजे की तरफ इशारा किया ।
मैं उस दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
यादव तनिक हिचकिचाता मेरे पीछे हो लिया । स्विच बोर्ड के पीछे मौजूद युवती वर्दी देख कर सकपकाई ।
“नाम बोलो ?” - मैं बोला ।
“शांता ।” - उसने बिना हुज्जत जवाब दिया ।
“कब से ड्यूटी पर हो ?”
“सुबह सात बजे से ।”
“वसंत कुंज से, शिव मंगल तोशनीवाल के रैजीडेंस से, एम्बुलेंस के लिये काल तुमने रिसीव की थी ?”
“हां ।”
“कितने बजे !”
“आठ बज कर नौ मिनट पर ।”
“ठीक से याद है ?”
“एम्बुलेंस काल का रिकार्ड रखना पड़ता है ।”
“गुड । ये भी मालूम है एम्बुलेंस कब रवाना हुई ?”
“हां । काल आते ही रवाना हो गयी थी । काल के बड़ी हद दो मिनट बाद ।”
“काल करने वाला कौन था ?”
“नाम नहीं मालूम । उसने बताया नहीं । लेकिन कोई औरत थी जो बहुत घबराई बौखलाई बोल रही थी ।”
“ओके । थैंक यू ।”
हम वहां से बाहर निकले ।
“किस फिराक में है ?” - यादव बोला ।
“किसी तरह केस हल हो, बस इसी फिराक में हूं । ये तुम्हारे भी फायदे की बात होगी...”
“अरे, इस घड़ी किस फिराक में है ?”
“साथ चलो, मालूम पड़ जायेगा ।”
“मैं यहां से नहीं जा सकता । डाक्टर शुक्ला ने चार बजे के लिये बोला लेकिन तोशनीवाल उससे पहले, कहीं पहले, फिर बातचीत के काबिल हो सकता है । मुझे रुकना पड़ेगा ।”
“ठीक है फिर । बाई दि वे, डिप्टी के बारे में फोन पर जो बोला था, उसकी बाबत मीडिया को कोई बयान दिया ?”
“अभी नहीं । क्यों ?”
“होल्ड करके रखना । ज्यादा देर नहीं तो शाम तक होल्ड करके रखना ।”
“क्यों ?”
“नाववाले के बयान में झोल निकल सकता है ।”
“कैसा झोल ?”
“देखना । शाम तक की तो बात है !”
“तू तो ऐसे कह रहा है जैसे शाम तक केस हल करके दिखा देगा ! सब कुछ वाइंड अप करके दिखा देगा !”
“देखना ।”
“क्या देखना देखना भजता है ! तेरे खयाल से डिप्टी का कहीं कोई दखल नहीं ?”
“हो सकता है । कोई दखल बराबर हो सकता है । लेकिन उस दखल की बाबत पहले डिप्टी का वर्शन सुन लेने में क्या हर्ज है ?”
“तू उसकी हिमायत कर रहा ।”
“खामखाह ! मामा लगता है वो मेरा ?”
“तेरे किसी अहसान के तले दबा जान पड़ता है । तभी तो तेरी एक टेलीफोन काल पर सिद्धार्थ एन्क्लेव दौड़ा चला आया ।”
“मुलाहजे में । जो दोतरफा काम करता है, कभी उसकी एक टेलीफोन काल पर मुझे भी कहीं दौड़ा चला जाना पड़ सकता है ।”
“उसका वर्शन मुझे हफ्ता सुनने को न मिला तो...”
“अरे, मेरे बाप, मैं शाम तक बोला कि नहीं बोला ?”
“बोला । ठीक है । शाम तक ।”
“थैंक यू ।”
मैं वहां से रुखसत हुआ और सीधा भगवानदास रोड अपने फ्लैट पर पहुंचा । क्योंकि अब मुझे लग रहा था कि आइंदा मुझे हथियारबंद होना चाहिये था । दरवाजा खोल कर फ्लैट में कदम रखते ही जैसे भूचाल आ गया और फ्लोर से ऊपर की सारी मंजिलें मेरे ऊपर आ कर गिरीं ।
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koushal
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मुझे होश आया तो मैंने खुद को हवाओं के हिंडोले में झूलता पाया । मैं फर्श पर ढ़ेर था लेकिन मेरा सिर यूं घूम रहा था कि मुझे लगता था कि मैं हवा में उड़ रहा था । बड़ी शिद्दत से मैं खुद पर काबू पाने की कोशिश करने लगा ।
इतना अब मेरी समझ में आ रहा था कि कोई मेरे फ्लैट में पहले से मौजूद था, मेरे एकाएक वहां पहुंच जाने पर जिसने खुलते दरवाजे की ओट से मेरे पर हमला कर दिया था ।
मैंने जबरन आंखें खोलीं और व्याकुल भाव से चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
“होश में आ रिया है, जंटलमैन ।” - कोई मेरे सिर के करीब से बोला ।
दूसरे पहलू से कोई हंसा, फिर बोला - “तगड़ा हो जा ।”
बड़ी मेहनत से मैं उठ कर बैठ पाया तो मुझे अपनी तरफ तनी गन की नाल दिखाई दी ।
गन !
मैंने आंखें मिचमिचा कर फिर देखा ।
बत्तीस कैलीबर की रिवाल्वर ।
गनवाला टिपकिल ओल्ड दिल्ली फेस - ठिगना, मोटा, काईयां, खतरनाक ।
“कौन हो, भई ?” - मैं बोला - “क्या चाहते हो ?”
गन वाला हंसा, उसने नाल से मेरी कनपटी को टहोका ।
“खुद चाहते हो या किसी और के जमूरे हो ?”
“अबे, बिरजे !” - बायें पहलू वाला बोला - “जमूरा बोल रिया है ये तेरे को ।”
“साला, ढ़क्कन !” - गन वाला गुस्से से बोला - “नाम क्यों लेता है !”
“वो तो चलो गलती हुई मेरे से लेकिन आगे किसी को नाम बोलने के वास्ते ये बचेगा तो तब न !”
“बस कर । काबू रख जुबान पर । मेरे को बात करने दे इससे । हां, भई, पहलवान” - उसने गन से फिर मेरी कनपटी ठकठकाई - “टांग बहुत लम्बी है न तेरी ! कहीं भी जा फंसती है ! छोटी करनी पड़ेगी । काट के गेरनी पड़ेगी । नहीं ?”
मैं खामोश रहा ।
“अभी क्या नाम सुना ?”
मैंने फिर जवाब न दिया तो उसने नाल से मेरी कनपटी सेंकी ।
मैं पीड़ा से बिलबिलाया ।
बड़ी मुश्किल से टिकी मेरी खोपड़ी फिर घूमने लग गयी ।
“अबे, जवाब दे रिया है कि नहीं दे रिया ?”
“नहीं सुना ।” - मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया ।
“सुना नहीं या भूल गया ?”
“भूल गया । याददाश्त बचपन से खराब है मेरी ।”
“आज ठीक हो जायेगी हमेशा के लिये तेरे बचपन की अलामत । अभी बस निपट लें तेरे से ।”
“अरे, ये तो बोलो कौन हो ? किसके आदमी हो ? क्यों मेरे पीछे पड़े हो ?”
“अबे, बिरजे.. .सारी, उस्ताद.. .ये तो सवाल पर सवाल कर रिया है । तू इसको जवाब देने को बोला, ये सवाल कर रिया है । कहे तो जुबान लम्बी कर दूं खींच के इसकी !”
“शागिर्द ठीक कह रिया है ।” - गनवाला बोला - “सवाल न कर,पहलवान, जवाब दे । वो आइटम कहां हैं जो तूने सेफ से निकाली ?”
“कौन सी आइटम ? कौन सी सेफ ?”
“सब मालूम तेरे को । कल सिद्धार्थ एन्क्लेव में क्या कर रिया था ? सेफ खुलवा रिया था । सेफ खुलवा ली थी । फिर आइटम की खबर क्यों नहीं तेरे को ? जो सेफ में थी पर गायब हो गयी ! तेरे सिवाय खुली सेफ के करीब कोई नहीं था । अभी बोल रिया है कि नहीं बोल रिया कि आइटम कहां है ?”
“तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही है...”
“उस्ताद, पुड़िया दे रिया है ।” - शागिर्द बोला ।
“चुप रह जरा ।” - उस्ताद - बिरजे - बोला - “हां तो पहलवान, क्या जवाब है तेरा ?”
मेरे पास कोई जवाब होता तो मैं देता न !
“मैं तीन तक गिनूंगा । तब भी आइटम की बाबत मुंह न खोला तो नाल मुंह में घुसेड़ के गन खाली कर दूंगा । एक !”
उसकी उंगली ट्रीगर पर कसी ।
“दो !”
अंगूठे से उसने गन का कुत्ता खींच। ।
“ती...”
आगे ‘न’ उसके मुंह से न निकल पाया ।
एक खुला उस्तरा हवा में सनसनाता हुआ आया और उसके गन वाले हाथ से टकराया । गन उसके हाथ से निकल गयी और वो दूसरे हाथ से अपनी घायल, खून का फव्वारा बनी, कलाई को थाम कर चीखता चिल्लाता यूं नाचने फुदकने लगा जैसे दहकते कोयलों पर पांव पड़ रहे हों । मैंने फर्श पर लुढकी पड़ी गन को नाल से थाम के उठाया और अपने काबू में किया ।
तब मैंने दरवाजे की तरफ देखा ।
वहां इमरान डिप्टी खड़ा था और उस घड़ी पांव की ठोकर से अपने पीछे दरवाजा बंद कर रहा था ।
“जनाब, करम हुआ काली कमली वाले का” - वो बोला - “जो मैं ऐन टाइम पर पहुंचा वर्ना इस नामाकूल ने तो आपका तिया पांच एक कर ही डाला था ।”
“कैसे पहुंच गये, इमरान भाई ?” - मैं मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“जनाब, बोला तो था विष्णु कसाना की बाबत बोलने आऊंगा ।”
“ओह !”
“सालों से कोताही हुई कि भीतर से लॉक न किया दरवाजा वर्ना मेरे को खबर ही न लगती भीतर क्या हो रहा था, मैं ये सोच के लौट गया होता कि आप घर पर नहीं थे ।”
“घर पर तो मैं सच में ही नहीं था । बस, थोड़ी देर पहले लौटा था और ये दोनों पहले ही भीतर घुसे बैठे थे ।”
“ओह ! अब इनका क्या करेंगे ?”
“सोचते हैं । अभी जरा निगाह रखना इन पर ।”
“निगाह ही निगाह है, जवाब ।” - डिप्टी लापरवाही से बोला - “ये कोई हरकत तो करे ! इस बार कलाई की जगह गला कटा होगा ।”
“बढिया !”
मैं भीतर बैडरूम में और आगे वार्डरोब पर पहुंचा ।
मेरी लाइसेंसशुदा स्मिथ एण्ड वैसन ब्रांड गन जहां होनी चाहिये थी, वहां मौजूद थी । लगता था उनकी तलाशी अभी भीतर बैडरूम तक नहीं पहुंची थी - पहले ही मेरी आमद की सूरत में विघ्न आ गया था - या उस पर उनकी निगाह नहीं पड़ी थी ।
मैंने उस्ताद की गन को एक शापिंग बैग के हवाले किया और अपनी गन हाथ में ले ली ।
मैं वापिस ड्राईंगरूम में लौटा ।
जहां शागिर्द दो रूमाल जोड़ कर उस्ताद की घायल कलाई पर पट्टी कसने की कोशिश कर रहा था ।
वहां मैंने पहला काम ये किया कि मोबाइल निकाल कर दोनों की क्लोजअप में तसवीरें खींच लीं ।
“ये क्या करते हो ?” - उस्ताद ने तत्काल विरोध किया ।
“ऐतराज है तेरे को ?” - मैं उसकी तरफ अपनी गन तानता हिंसक भाव से बोला ।
“ल - लेकिन...”
“कर एतराज ! फिर मैं तेरे को खींचता हूं । तेरे शागिर्द को भी । सालो, गन लेकर सेंधमारों की तरह घर में घुस आये, यहां मरे पड़े होगे तो कौन सवाल करेगा तुम्हारी बाबत मेरे से !”
दोनों के शरीर में स्पष्ट झुरझुरी दौड़ी ।
koushal
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“अब इनका क्या करेंगे ?” - डिप्टी ने अपना सवाल दोहराया ।
“मुश्किल सवाल है ।” - मैं बोला - “पुलिस को बुलाया तो इसकी घायल कलाई की जवाबदारी करनी होगी ।”
“मेरा इशारा इसी बात की तरफ था ।”
“सोचते हैं कुछ । पहले अपना औजार काबू में करो ।”
डिप्टी ने आगे बढ़ कर फर्श पर गिरा पड़ा अपना उस्तरा उठाया और उसके फल को उस्ताद की जैकेट के कंधे से रगड़ कर अच्छी तरह से साफ किया । फिर उसने उसे दोहरा करके अपनी जेब के हवाले किया ।
मैं उन दोनों के सामने जा खड़ा हुआ ।
“बिरजे !” - मैं बोला - “खून करने को आमादा बिरजे ! अब तेरा क्या होगा रे, बिरजे !”
उसने अपने सूख आये होंठों पर जुबान फेरी ।
“पूरा नाम बोल । जोड़ीदार का भी ।”
वो परे देखने लगा ।
“कलाई कटी है । जल्दी कोई डाक्टरी इमदाद न हासिल हुई तो ब्लीडिंग से ही मर जायेगा ।”
वो भयभीत दिखाई देने लगा ।
“किसने भेजा ?”
उसने जवाब न दिया ।
“सवाल करते वक्त जिन तरीकों को तू मेरे पर आजमा रहा था, वो मेरे को भी आजमाने आते हैं । देख !”
मैंने गन की नाल से उसकी कनपटी ठकठकाई ।
पहले से ही पीड़ा से बिलबिलाते उस्ताद की आंखों से आंसू छलक आये ।
“जवाब दे ।”
उसने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया ।
“मैं सच में जान ले लूंगा, कमीनो । मौके की नजाकत समझो । दोनों को मार दूंगा तो भी मेरे पर कोई हर्फ नहीं आयेगा ।”
“मार दो ।” - वो दृढ़ता से बोला - “जान जाती है तो चली जाये, जुबान नहीं खुलवा पाओगे ।”
“क्या कहने ! मालिक के लिये ऐसी वफादारी ! अमूमन कुत्तों में पायी जाती है ।”
“जो मर्जी कहो, लेकिन ....”
उसने कस के जबड़े भींचे ।
“मैं कोशिश करूं, जनाब ?” - डिप्टी बोला ।
मेरी भवें उठीं ।
डिप्टी ने उस्तरा फिर जेब से निकाल कर हाथ में लिया और बड़े ड्रामाई अंदाज से उसे झटक कर खोला ।
“दूसरी कलाई भी काटता हूं ।” - फिरबोला - “धीरे धीरे । जैसे बकरा जिबह करते हैं । फिर एक कान, फिर दूसरा, फिर नाक ....”
एकाएक उस्ताद त्योराकर फर्श पर ढ़ेर हुआ ।
“बेहोश हो गया है ।” - शागिर्द दहशतनाक लहजे से बोला ।
“मकर मार रहा है ।” – डिप्टी बोला ।
“मेरे खयाल से नहीं ।” - मैं बोला ।
“तो होश में लायें इसे ?”
“मेरे खयाल से ये काम जोड़ीदार बेहतर कर लेगा ।”
“क्या फरमाया, जनाब ?”
“सम्भाल इसे ।” - मैं शागिर्द से बोला ।
“क .. क्या ?” – शागिर्द के मुंह से निकला ।
“और निकल ले ।”
“क्या !” - उसके चेहरे पर गहन अविश्वास के भाव आये ।
“पहली फुरसत में दोनों किसी पीर फकीर की मजार पर पेशानी रगड़ के आना कि मैंने तुम दोनों की जानबख्शी की । अब इससे पहले कि मेरा ख्याल बदल जाये, दफा हो जाओ दोनों यहां से ।”
उसने बेहोश उस्ताद को सहारा दे कर उठाया और उसको सम्भालता लड़खड़ाता बाहर को चल दिया ।
पीछे मैं और डिप्टी अकेले रह गये ।
“ये क्या किया जनाब !”– डिप्टी बोला ।
“तुम्हारी खातिर किया । पुलिस आती तो उस्तरे की जवाबदेही मुश्किल होती ।”
“लेकिन, जनाब, वो नामाकूल, नहंजार आपकी जान लेने पर आमादा था !”
“इमरान भाई, जिसको अल्लाह रक्खे, उसको कौन चक्खे !”
“वो तो बजा फरमाया आपने, जनाब, लेकिन आप कुछ उगलवा भी तो न पाये उनसे ! कुछ कुबुलवा भी तो न पाये !”
“वो फिजूल की कोशिश होती । मुझे दिख रहा था वो जुबान नहीं खोलने वाला था ।”
“दूसरा ?”
“शागिर्द था, उस्ताद से बाहर कैसे जा सकता था ?”
“हूं । लेकिन वो आइन्दा आप से बदला उतारने की कोशिश करेंगे ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । वो किसी के पिट्ठू हैं, केस क्लोज हो जाने के बाद उनकी ऐसी कोई कोशिश बेमानी होगी । और जाती दुश्मनी वो ऐसे शख्स से क्यों दिखायेंगे जिसने उनकी जानबख्शी की !”
“बात तो आपकी ठीक है, जनाब !”
“उन्हें सिद्धार्थ एन्क्लेव वाली उस तिजोरी की खबर थी जो कि तुमने खोली थी । कैसे खबर थी ?”
“आप बताइये ।”
“फ्लैट में घुसे बिना, उसको खंगाले बिना तो नही हो सकती थी !”
“यानी मकतूला के फ्लैट की जो दुरगत मैंने देखी थी, उसके लिये ये दोनों जिम्मेदार थे ?”
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