Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

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rajsharma
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

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"कुछ कहा दीदी आपने?" अर्जुन ने मुड़ते हुए पूछा

"हा भाई देख तो कितना ठंडा मौसम है. कितनी प्यारी हवा चल रही है. और ये आसमान कितना
दिलकश है. नीचे कमरे मे तो घुटन सी लगती है." माधुरी ने थोड़ा बहकी हुई सी आवाज़ मे
कहा. लेकिन अर्जुन को इसका ज़रा एहसास नही था कि उसकी दीदी को क्या हुआ है. वो भी हाँ में हाँ
मिला के बोला, "सही कहा दीदी. आज तो मैं अपना गद्दा उपर ही लगाउन्गा. नींद भी जल्दी खुल जाएगी."

बातें करते करते दोनो ने एक चादर पर मिर्चे इकट्ठी करी और गाँठ लगा के नीचे चलने लगे.

"मैं भी पूछती हू अलका से उपर सोने के लिए. तू हम दोनो के गद्दे भी उठा लाएगा क्या भाई?" माधुरी
ने ये बात जब कही तो उसमे हल्की विवशता भी थी.

"क्यो नही. 2 क्या मैं तो 4 गद्दे भी ले आउन्गा. आप ताई जी को बोल देना बस." ऐसे ही वो दोनो नीचे
आ गये.

"मा आज मैं उपर सो रहा हू. एक चद्दर दे दो एक्सट्रा. गद्दा और तकिया मेरे कमरे से ले लूँगा मैं.
बिछाने की चद्दर भी. उपर थोड़ा मौसम ठंडा है तो ओढ़ने के लिए सूती चद्दर दे दो." अर्जुन
ने अपनी मा रेखा को प्यार से कहा तो वो भी मुस्कुराते हुए अपने कमरे मे चली गई अपने बेटे के
लिए चद्दर लेने.

वहाँ ललिता जी को भी माधुरी ने मना लिया उपर सोने के लिए लेकिन अलका ने मना
कर दिया था. वो आज ऋतु के कमरे मे सोने गई थी और कोमल चल दी माधुरी के साथ उपर.

कुछ देर मे अर्जुन भी पहुँच गया सर पे 3 गद्दे लादे हुए और कांख मे तकिये -चद्दर दबाए.
वो छत पे जाते ही बैठ गया और माधुरी और कोमल लग गई बिस्तर लगाने.

छत काफ़ी खुली थी और आसपास घर भी ज़्यादा नही थे. अभी इतना गरम मौसम भी नही था
के और लोग भी अपनी छत पर सोने लगते. बस यही तीन थे. अर्जुन इसलिए क्योंकि उसका मन था,
माधुरी को भी ख़ूले आकाश के नीचे सोने का दिल था, कोमल बस अपनी बेहन के साथ गप्पे मारने
के लिए उपर आ गई सोने.

गद्दे कुछ इस तरह बिछाए थे की एक तरफ अर्जुन, उसके साथ मे माधुरी और सबसे आख़िर मे कोमल.
वैसे भी सबसे ज़्यादा डर माधुरी को ही लगता था तो वो बीच मे सोने का बोल आ बैठी अपनी जगह
कोमल और अर्जुन भी ये जानते थे. दोनो लगे हँसने.

"हंस लो तुम दोनो. जब कोई बंदर आएगा तो सबसे पहले किनारे वाले को ही पकड़ेगा." वो बुरा मूह बनाती
हुई दोनो से बोली.

"हा हा.. बीच मे तो जैसे काँटे लगे है जो बंदर नही आ सकते." कोमल ने थोड़ा चिड़ाया अपनी बेहन
को. ये दोनो बहने पक्की सहेलियाँ भी थी. और वैसे इस शहर मे बंदारो का भी बड़ा दखल था. लेकिन
ज़्यादातर वो आबादी से दूर ही रहते थे.

अर्जुन ने अपने सर के नीचे तकिया लगाया और पसर गया गद्दे पे. चद्दर नही ली थी उसने. दोनो लड़किया
हो गई शुरू बातें करना. उन्हे पता था अर्जुन जल्दी ही सो जाता है.

"कोमल, यार देख क्या ज़िंदगी है हमारी. कॉलेज के बाद तो बस घर के अंदर ही क़ैद है.. ना कही आना
ना कही जाना." माधुरी ने अपना दुखड़ा रोया.

"सही कहा दीदी. सुबह उठो और घर की सफाई करो. फिर कपड़े धोने.. कभी दोपहर को खाना बनाना तो
कभी रात को. ज़्यादा से ज़्यादा महीने मे 2-3 फिल्म टीवी पे देख लेते है. या संगीत सुन लिया." कोमल ने भी
हाँ में हाँ मिलाई.

बेचारी दोनो जवानी की मारी संस्कारो की वजह से वो बातें नही कर पाती थी जो शायद स्कूल की हर
लड़की आजकल अपनी सहेली से कर लेती है. ऐसे ही बतलाते एक घंटा बीत गया और उन्हे अर्जुन के सोने
की खबर लगी.

"देखो इसको. कितनी जल्दी नींद पकड़ता है. आसपास का कोई होश ही नहीं रहता ज़रा भी" माधुरी ने
कोमल को अर्जुन की तरफ इशारा किया.

"टाइम भी 12 हो चुका है दीदी. इसकी क्या ग़लती. हमें तो 6 बजे उठना होता है और ये 5 बजे से पहले
ही घर से निकल जाता है कसरत के लिए. और मुझे यहा ठंड लग रही है. मैं चली नीचे. आज मा
के कमरे मे सोउंगी." इतना बोलकर कोमल सिर्फ़ तकिया उठा निकल गई वहाँ से.

चल ठीक है मैं भी लगी सोने." इतना बोल माधुरी ने भी अपने शरीर पे चद्दर
कर ली. ये वाली चद्दर डबल साइज़ थी. क्योंकि वो माधुरी और कोमल दोनो के लिए ही थी.

5 मिनिट बाद ही माधुरी फिर उठी और अपने हाथ पीछे ले जाकर अपनी ब्रा के हुक्क खोल दिए जो पता
नही कब से उसके यौवन कलश को कसे हुए थी.

"अब चैन आया. हाए." इतना बोल वो घुस गई अपनी चद्दर मे.

मुश्किल से ही एक घंटा बीता होगा के अर्जुन की चद्दर जो उसके पैरो मे रखी थी वो हवा से थोड़ी दूर
खिसक गई. वो नींद में ही हाथ चलाने लगा. जैसे ही उसकी पकड़ मे चद्दर आई उसने अपने उपर खींच
लिया उसको. ये चद्दर थी जो माधुरी ने ओढ़ रखी थी. लेकिन ज़्यादा बड़ी थी तो अर्जुन भी अंदर घुस गया
ठंड थोड़ी ज़्यादा थी लेकिन जब दोनो के शरीर साथ चिपक गये तो दोनो के ही बदन हल्के गरम हो गये.

कुछ ही पल बाद माधुरी ने अपना एक पैर अर्जुन के पैर के उपर डाल दिया और अपना चेहरा दुबका लिया उसकी
बाहो के अंदर. ये सब बाहर की हल्की ठंड और दोनो के एक ही चद्दर के अंदर होने की वजह से ही हुआ था.
अन्यथा दोनो ही गहरी नींद मे थे. और अब तो और भी सकूँ था. तकरीबन 3-3:30 पर अर्जुन की नींद हल्की
से टूट गई. उसने माधुरी दीदी को अपने जिस्म से चिपका हुआ देखा तो आँखे खुल गई.

स्वयं ही उसके हाथ दीदी के मांसल पिछवाड़े पे पहुँच गये. उस एहसास से एक मज़े की लहर दौड़ गई अर्जुन
के दिल के अंदर तक. एकदम गुदाज़ और नरम पिछवाड़ा था माधुरी का. और साइज़ भी इतना बड़ा जैसे कोई छोटा
मटका. धीरे धीरे अर्जुन अपनी दीदी के पुष्ट उभार सहला रहा था और उसका लिंग पाजामे मे सर उठा रहा था.
हिम्मत कर के उसने अपना हाथ दीदी के पेट पे रख दिया जहाँ से सूट अस्त-व्यस्त था. मखमली रेशम थी वो
जगह. अपनी उंगलियों से वो हर इंच को सहलाने लगा और उसका हाथ खुद बा खुद उपर जाने लगा.

ये थोड़ा खुला हुआ पुराना सलवार कमीज़ था जो सोने के टाइम आरामदायक रहता है. बड़े आराम से अर्जुन का
हाथ वहाँ तक पहुच गया जहा एक और कपड़ा था. ये थी उसकी दीदी की ब्रा, लेकिन ये भी उसकी उंगलियों को रोक
ना सकी क्योंकि वो तो पहले से ही खुली हुई थी. अब जहा अर्जुन का हाथ लगा उसके शरीर का तापमान बुखार
जैसे हो गया. सुडोल, मुलायम और उन्नत वक्ष की शुरुआत पे उसका हाथ पहुच गया था.

माधुरी नींद की भी बहुत पक्की थी. सारा दिन जो बेचारी इतना काम करती थी कि 7 घंटे निश्चिंत सोती थी.

अर्जुन ने इस बाद का फायेदा उठाते हुए कमीज़ के अंदर से ही अपना पूरा हाथ उस स्तन पे रख दिया. और यही
उसके लिंग ने एक जोरदार ठुमका लगाया और जा चिपका कपड़े के उपर से ही माधुरी की योनि से. धीरे धीरे
अर्जुन ने अपने हाथ को हरकत देनी शुरू करी.कभी वो सिर्फ़ सहलाता तो कभी थोड़ा दबाता. दीदी का स्तन इतना
बड़ा था कि जितना उसके हाथ मे था उतना ही हाथ की दोनो तरफ था. तभी उसका हाथ लगा एक छोटे से बटन
पे. जो हल्का कठोर था और काले चने जितना था. अर्जुन ने उसको अपने अंगूठे और एक उंगली से पकड़ कर
सहलाना शुरू किया तो वो धीरे धीरे सख़्त होने लगा. और उसको महसूस हुआ जैसे दीदी का पूरा स्तन
और कठोर हो रहा हो. मज़े की इंतिहा मे उसकी कमर भी हल्की चलने लगी. कमीज़ कमर से काफ़ी उपर आ चुका
था. अर्जुन ने हिम्मत से उसको और उपर किया तो एक तरफ का वक्ष 2/3 बाहर आ गया, चुचक के साथ.
काम के नशे मे उसने अपने होंठ लगा दिए माधुरी के चुचक से ओर लगा उसे होंठो से चुबलने.
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही

Post by rajsharma »

कभी आराम से तो कभी थोड़ा अंदर खींच के. कमर अभी भी घर्षणकर रही थी दीदी की योनि पे. इस नशे मे उसने
एक बार तो जितना मूह मे आ सकता था उतना स्तन पकड़ लिया मूह से लेकिन यही उसका दाँत थोड़ा चुभ गया उस
मुलायम स्तन पे और माधुरी की नींद खुल गई. अर्जुन तो लगा रहा सब कुछ भूलकर अपनी बेहन के निप्पल
चूसने मे. बिना दीदी की परवाह किए. माधुरी को एक बार तो हैरानी हुई लेकिन फिर वो भी चुपचाप लेती
रही मज़े.

"देखु तो सही ये और क्या करता है." माधुरी ने खुद पे काबू किया और अर्जुन को करने दिया अपना काम
उसकी योनि भी गीली हो चुकी थी लेकिन अर्जुन को अभी इस सब का ज्ञान नही था. होता तो वो कब का चढ़
चुका होता अपनी बड़ी दीदी के उपर.

अब अर्जुन ने स्तन से मूह हटाया और अपने हाथ से उन्हे हल्का दबाते हुए दबा कर घिसने लगा अपने लिंग को
दीदी की गरम योनि पर. थोड़ी ज्या दा ही खुमारी मे उसने अपना हाथ दीदी के बड़े कूल्हे पे रख कर उन्हे अपने
से और ज़ोर से चिपका लिया. अब तो माधुरी को अपनी फूली हुई योनि की दरार के बीच मे अर्जुन का गरम लिंग
महसूस होने लगा था. उसकी भी साँसें भारी हो चली थी.

"अगर नीचे कच्छी ना पहनी होती तो इसने तो सलवार समेत अंदर डाल देना थे ये डंडा मेरे." मज़े मे
सोचते हुए माधुरी ने भी अपनी हल्की सी टाँग चौड़ी कर दी थी. जिसका एहसास तो अर्जुन को ना हुआ लेकिन
अब वो अच्छे से रगड़ रहा था अपना हथियार अपनी दीदी क काम-बिंदु पर. और फिर अर्जुन के शरीर ने झटका
खाया और उसका पूरा पाजामा खुद के वीर्य से खराब हो गया. और यही पे माधुरी की भी कच्छी गीली हो
कर उसके जिस्म से चिपक चुकी थी.

अर्जुन वहाँ से उठा और दूसरी मंज़िल पे अपने कमरे मे आ गया. पाजामा बदला तो टाइम देखा. 5:15. मतलब
उसका ये कार्यक्रम 2 घंटे से चल रहा था. रन्निंग शूस पहन बिना कुछ बोले वो निकल गया दौड़ लगाने.
और रोमांचक अनुभव के बाद माधुरी डूब गई गहरी नींद मे.
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(^%$^-1rs((7)
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अपडेट 7
दीदी का कॉलेज


आज अर्जुन का दिल नही किया ज़्यादा दौड़ लगाने का. वो 3 किमी तक दौड़ लगाने के बाद अगले सेक्टर मे बने एक
पार्क मे बैठ गया एक पेड़ के नीचे. यहा बड़ा सकूँन सा था क्योंकि इस जगह अभी ज़्यादा घर नही बने थे.
और हर तरफ अच्छी ख़ासी हरियाली और खाली सड़क थी. हल्के पीले और सफेद फूल हर तरफ बिखरे थे.
सड़क के

तो दोनो तरफ एक चौड़ी पट्टी सी बनी हुई थी इन फूलो से और ऐसा ही हाल था कुछ पार्क के अंदर.

जाती हुई सर्दिया, एकदम शांत वातावरण और दूर दूर तक कोई नही था वहाँ. अर्जुन भी कुछ पल के लिए खो
सा गया था इस आलोकिक दृश्य मे लेकिन फिर भी उस के दिल की किसी कोने मे एक बेचैनी भी थी.

"आज जो भी हुआ वो नही होना चाहिए था. माधुरी दीदी मेरे बारे मे क्या सोचेंगी? और कही उन्हे पता
लग गया और उन्होने घर पे किसी को बता दियो तो?" खुद से उलझा हुआ वो मॅन मे ये सब सोच रहा था.

"आगे से ध्यान दूँगा के मैं हर हाल मे खुद को नियंत्रण मे रखू. और अगर दीदी ने गुस्सा किया तो पूरी
कोशिश करूँगा के उन्हे मना लू के वो मुझे माफ़ कर दे. लेकिन कितना हसीन चेहरा है ना माधुरी दीदी का
इतना खूबसूरत भी कोई कैसे हो सकता है?", जैसे ही उसका ध्यान फिर से भटकने लगा, अर्जुन अपनी जगह से
खड़ा हुआ और चल दिया वापिस घर की तरफ. 6 बजे वो घर के बाहर वाले आँगन मे खड़ा था जहा उसके दादा
जी ज़मीन पर दरी पर बैठ कर अख़बार पढ़ रहे थे.

"आ गया मेरा शेर? लगता है आज कुछ ज़्यादा ही थक गया है. 2 दिन का अंतराल हो गया था बेटा तेरे नियम
मे.", कहते हुए रामेश्वर जी ने उसको अपने पास ही नीचे बिठाया और अर्जुन वही बैठ के अपने जूते खोलने लगा.

"रुक बेटा मैं बस तुलसी मे जल अर्पण कर दूँ फिर देती हू तुझे दूध. इतने तू अपनी साँसे दुरुस्त कर." कौशल्या
देवी हाथ मे तांबे का लौटा लिए बगीचे मे जाते हुए ये बात कहती गई.

रामेश्वर जी और कौशल्या देवी अपने नियम के बड़े पक्के थे. 5:30 बजे तक दोनो नहा धो कर पूजा पाठ से भी
फारिग हो जाते थे. आज सोमवार था तो कौशल्या जी की पूजा थोड़ी ज़्यादा लंबी चली थी.

वो वापिस आई तो देखा उनका पोता सिर्फ़ अपने पाजामे मे बैठा था और पसीना सूखा रहा था. उनके पतिदेव एक
कटोरी मे सरसों का तेल डाल रहे थे पास मे रखी शीशी से.

"चल अपने पंजे यहा कर.", बोलकर रामेश्वर जी ने अर्जुन का बाया पंजा एक हाथ से पकड़ लिया और दूसरे हाथ
से उसके तलवे और उंगलियो पर तेल मसलने लगे.

मैं खुद कर लूँगा बाबा. आप रहने दे", अर्जुन बोला लेकिन पंडित जी तो लगे रहे और इतने दोनो पंजो को मलते
रहे जीतने उनकी बीवी दूध ना ले आई एक लौटा भर के.

"तेरे हाथ देखे है कभी? कितने नाज़ुक है. इनसे तू कैसे रगड़ सकता है अपने पंजे? और मेरे हाथ देख ज़रा"
बोलते हुए पंडित जी ने जैसा ही अपना हाथ रखा अर्जुन की हथेली पे तो अर्जुन भी हैरान हो गया. उनके हाथ
पत्थर जैसे सख़्त थे और उंगलिया भी मोटी थी. और जब उसने अपने ही हाथ को देखा तो वो तो बिल्कुल एक आम
नरम हाथ था. लंबाई ज़रूर अपने दादा के हाथ से एक इंच ज़्यादा थी लेकिन दादा जी का हाथ उसको इतना भारी लग
रहा था जैसे कोई 2 किल्लो का बट्टा हो.

"बड़े ही भारी और सख़्त हाथ है दादा जी आपके. ऐसे कैसे?"

"इन्होने किया ही क्या है सारी ज़िंदगी सिवाए चोर मुजरिमो की ठुकाइ करने के और कसरत करने के. ये तो अब
थोड़ा पूजा पाठ करने लगे. और अभी भी तो बगीचे मे क़ास्सी- खुरपि चलाने से नही हट ते." तंजिया लहजे
मे कौशल्या देवी ने कहा अर्जुन को दूध का गिलास देते हुए. और वही पंडित जी मुस्कुराए जा रहे थे.

ऐसी मीठी नोक-झोंक इन दोनो मे उमर के इस पड़ाव मे भी बनी हुई थी. जिसे अर्जुन रोज ही देखता था और
मुस्कुराता था. आज भी वो जब ऐसा कर रहा था तो उसकी दादी जी उठ खड़ी हुई वहाँ से शरम और हल्के
गुस्से से पंडित जी को देखते हुए. और एक बार फिर दोनो दादा पोता हंस दिए.

दूध ख़तम कर अर्जुन ने फूल-पौधो को पानी दिया बाहर ही लगे रब्बर के पाइप से. फिर आँगन मे रस्सी
पे लटके अपने तौलिए को ले घुस गया वही बने बाथरूम मे. 20 मिनिट बाद दूसरी मंज़िल पे अपने कमरे मे
वो कपड़े पहन चुका था. समय देखा तो 7:30 और उसने अपने भैया संजीव को उठाया. ये रोज का ही काम था.
भैया को उठा के वो पिछली सीढ़ियो से नीचे आया और सीधा अपनी मा रेखा जी से मिला. अपनी के पाव छुए
और मा ने भी उसके माथे को चूम वही बिता लिए उसको रसोई मे. और अपने हाथ से एक प्लेट लगाई और
गरमा गरम परान्ठे मक्खन और लस्सी के साथ दिए.

अर्जुन रोज सुबह अपनी मा के पास ही बैठ खार नाश्ता करता था. यही वो समय होता था जब वो अपनी मा से
बातें करता था. ललिता जी भी अपने पतिदेव के लिए खाना लगा रही थी और कोमल अपने ताऊ जी और भैया
का टिफिन लगा रही थी.

"इतना बड़ा हो गया है और आज भी अपनी मा के पल्लू मे घुसा रहता हा." ये आवाज़ थी ऋतु की जो हाथ मे
चाय का कप लिए अंदर आई. एक सफेद टॉप और हल्का नीला पाजामा पहना था उसने. एकदम किसी सफेद गुलाब सी
दिखती थी वो.

"हा तो ये तो है हाई मेरा छोटा सा मुन्ना." मा ने ये कहते हुए स्नेह से एक बार अर्जुन के सर पे हाथ फिराया
और वापिस लग गई रोटी बेलने मे. और अर्जुन ने भी शोखी से बोला, "दीदी आपको जलन होती है क्या मा के
मुझे इतना प्यार करने से?"

"6 फुट का लंबा पेड़ जैसा हो गया है और मा अभी भी इसको मुन्ना बोलती है. वैसे बात तो सही है दिमाग़
तो नीरा ही जड़ है." हँसती हुई वो निकल गई बाहर और इन दोनो की ये हँसी ठिठोले देख ललिता जी और
रेखा दोनो मुस्कुराने लगी. लेकिन अर्जुन का ध्यान तो बाहर जाती हुई ऋतु की तरफ जम्म गया था. उसका
पाजामा जो फँसा हुआ था नितंबों की दरार मे. किसी हिरनी के जैसे पल भर मे आँखों से ओझल हो गई
तो अर्जुन भी कुछ सोचता खड़ा हो गया था अपनी जगह से.

"ताई जी अलका दीदी कहाँ है? वो आज उनके कॉलेज जाना है ना तो मैं ही लेके जाउन्गा उनको." ये बोलते हुए
उसने अपनी ताई जी पर निगाह डाली.

"जा बुला ले उसको. वो राजकुमारी तो अपने कमरे में ही है एक घंटे से. पता नही कितना शृंगार करेगी."


" टक - टक ", अर्जुन ने अलका/माधुरी दीदी के कमरे का दरवाजा बाहर से ही बजाया.

"कौन है?"

"दीदी, तयार हो गई हो तो चलो फिर कॉलेज. बाद मे मुझे भी ताऊ जी के साथ मार्केट जाना है." अर्जुन
बाहर से ही चिल्लाया.
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Post by rajsharma »

"आ गई बाबा. और वैसे भी दरवाजा खुला ही है. चल अंदर आजा मैं इतने अपनी प्रॅक्टिकल फाइल्स ले लू."
बोलते हुए अलका खुद को आईने के सामने निहार रही थी और तभी अर्जुन भी अंदर आ गया. जहा उसका स्वागत
इस मनमोहक दृश्य ने किया. 5'9" लंबी अलका ने एक नीला पंजाबी सूट और सफेद पाजामी पहनी हुई थी. कमीज़
पूरी तरह से उसके शरीर से चिपका हुआ था. जहा उसके वक्ष पूरा सर उठाए थे वही कमीज़ के निचले
हिस्से पे उसके बाहर को निकले कूल्हे अलग ही कहर बरपा रहे थे. अर्जुन की तो साँस ही अटक गई ये देख
कर. उसका ध्यान जब टूटा जब उसकी बेहन ने अपनी कमर तक आती चोटी को सही किया और दुपट्टा लेते हुए
बोली, "क्या हुआ तुझे? तेरी सेहत तो ठीक है जो चुपचाप खड़ा है?"

"हाँ.. हा मुझे क्या होना है? बिल्कुल फिट खड़ा हू आपके सामने. लेकिन आप तो दीदी एकदम अप्सरा लग रही हो"
आज पहली बार उसके मूह से अपनी किसी बेहन के लिए तारीफ के शब्द निकले थे और उसको खुद नही पता था
के उसने क्या कहा है. अलका थी ही इतनी हसीन. पतली कमर, पहाड़ जैसी छातियाँ, उभरे गोलाकार नितंब,
लाल सुर्ख होंठ, कमर तक लंबे भूरे बाल और बड़ी बड़ी भूरी आँखें. यू तो अर्जुन की चारो ही
बहने नायाब हुस्न से भरी हुई थी लेकिन एक अलका ही थी जो सब पे भारी थी.

"चल चल जल्दी यहा से. कॉलेज को लेट हो रहे है. बाद मे कर लेना तारीफ मेरी." थोड़ा रोब से बोलते हुए
उसने अपने फाइल उठाई तो अर्जुन सहम सा गया और बाहर की तरफ चल दिया. वही अलका भी मूह नीचे कर मंद
मंद मुस्कुरा रही थी इस अपने छोटे भाई पे.

"दीदी आप ध्यान से बैठना. कही गड्ढा वॅड्डा आया तो गिर जाओ." अर्जुन जो स्कूटर स्टार्ट कर चुका था अपनी
बेहन अलका से बोला जब वो बैठने लगी. ये लंबी सीट वाला एल एम एल स्कूटर था, जिसपे अलका अपने दोनो पैर एक
ही तरफ कर बैठ चुकी थी. उसने एक हाथ मे अपनी फाइल्स और छोटा सा पर्स पकड़ा हुआ था. और दूसरा हाथ
अर्जुन के दाएँ कंधे पे था. दुपट्टा अब उसके सर के उपर से आता हुआ सीने को ढके हुए था. शायद ये भी
एक संस्कार का ही हिस्सा था कि घर की कोई भी लड़की बिना सर ढके घर से बाहर नही निकलती थी.

"बस तू स्कूटर चलाने पे ध्यान दे भाई. मैं गिरी तो तुझे भी ले गिरूंगी." खिल खिलाती हुई अलका बोली और
वो दोनो निकल दिए विमन कॉलेज की तरफ. ये कोई 4-5 किमी था घर से और शहर के सुरक्षित हिस्से मे था.
इस कॉलेज का आस पास के कही शहरो मे नाम था क्योंकि यहा लगभग सभी विषय उपलब्ध थे. और पुलिस
चेक पोस्ट भी थे कॉलेज मे दाखिल होने वाले सभी रास्तो पर, बेलगाम मजनुओ की खैर खबर लेने के लिए.
कॉलेज से थोड़ी दूर पहले ही सड़क कुछ ज़्यादा ही टूटी हुई थी. शायद कुछ निर्माण चल रहा था वहाँ तो
स्कूटर ने हल्के से झटके खाए. अलका ने अपने एक हाथ से अर्जुन की कमर को कस कर पकड़ लिया. अब उसका एक साइड
को पूरा स्तन अर्जुन की पीठ से चिपका हुआ तो और वो तो मज़े में ही आ गया अपनी बेहन के इस तरह चिपकने
से.

"ध्यान से चला छोटे यहा थोड़ी ज़्यादा ही सड़क खराब है." बोलते हुए अलका ने खुद को और आगे कर लिया
बार बार छोटे गड्ढे के आने से अब उसकी पीठ पे अलका दीदी के लगभग दोनो ही नारियल घिस रहे थे.

ना चाहते हुए भी अर्जुन के शरीर मे कंपन्न होने लगी थी. ऐसे ही मज़े के दौर से होते हुए वो कब कॉलेज
के गेट के सामने पहुँच गये पता ही नही चला. और जब अर्जुन ने ब्रेक लगाई तब जाकर अलका का ध्यान
टूटा. वो अभी तक अपने छोटे भाई की पीठ से चिपकी हुई थी.

"चलो दीदी आप जाओ, मैं यही बाहर आपका इंतजार करता हू." अर्जुन ने कॉलेज की दीवार क साथ स्कूटर का
स्टॅंड लगाते हुए कहा.

"बड़ा आया इंतजार करने वाला. सीधी तरह चल मेरे साथ अंदर और हा मेरी सहेलियाँ भी होंगी वहाँ तो
थोड़ा अच्छे बच्चे जैसा व्यहवहाँर करना." बोलकर उसने अर्जुन का हाथ पकड़ा और ले गई उसको खींचते हुए
कॉलेज के अंदर. वैसे तो ये महिला महाविद्याल य था लेकिन यहा पे पढ़ने वाली लड़कियों के संबंधी भी
अंदर आ जा सकते थे. बिल्डिंग के प्रवेश द्वार पे ही अलका ने सुरक्षाकर्मी को अर्जुन की एंट्री करवाई अपने
भाई के नाम से और वो दोनो चल दिए अंदर.

अर्जुन तो आज पहली ही बार किसी कॉलेज मे आया था. एक बार
पहले वो कॉलेज तक आया ज़रूर था लेकिन बाहर से ऋतु को लेकर चला गया था. आज जब वो यहा अंदर
आया तो हैरान ही रह गया. हर तरफ सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ थी और यहा कोई 10 बिल्डिंग थी जो एक
दूसरे से थोड़ी दूर दूर थी. सभी अलग अलग विषय के हिसाब से थी. और चहल पहल भी सिर्फ़ 2 बिल्डिंग्स
में ही थी. एक तो जहा वो अभी आए थे. और एक उनसे कुछ ही दूरी पे थी. जहा हर तरफ हसीनाओं के झुंड
खड़े थे.

"चल पहले अकाउंट्स डिपार्टमेंट का काम निपटा लेते है." अलका की आवाज़ से अर्जुन का ध्यान वापिस अपनी बड़ी
बेहन पर आया जो अभी तक उसका हाथ थामे थी. यहा खुली रोशनी मे खड़ी वो पूरे कॉलेज की लड़कियो
को पानी भरने पे मजबूर किए थी. अर्जुन को खुद पे गर्व महसूस हो रहा था जब उसने आसपास देखा के
कई जोड़े आँखों के उन्ही दोनो को देख रहे है. अलका उनकी परवाह किए बिना अर्जुन को लेकर चल दी वही पास
मे बने गलियारे मे जहा हर दरवाजे के बाहर एक तख़्ती लगी थी. 3 कमरो के बाद आया "अकाउंट्स एंड अड्मिशन"
का कमरा. वहाँ कुछ ज़्यादा भीड़ नही थी क्योनि कॉलेज 8 बजे शुरू हो जाता था और आज ज़्यादातर स्टूडेंट्स का
अवकाश था. अलका का खिड़की पे 6 नंबर था. उन्हे यहा 10-15 मिनिट तो लगने ही थे. अर्जुन ने ये देख बात
शुरुआत की.

"दीदी अपनी फाइल आप मुझे पकड़ा दीजिए.", उसने अपना हाथ फाइल्स पर रखते हुआ कहा

अलका ने शून्य भाव से देखते हुए अपनी फाइल उसको थमा दी. और अर्जुन भी समझ गया के कुछ तो हुआ है.
अलका ने उसके मन को भाँप लिया और उसके करीब आकर धीमे से कान मे बोली, "यहा तू मुझे दीदी मत बोल.
सिर्फ़ अलका बोल या कुछ भी."

अर्जुन तो अपनी दीदी की साँसों की गर्मी से सुन्न हो गया था जो सीधा उसके कान
की लौ पर महसूस हुई. वो कुछ ना बोला और सिर्फ़ अलका को उपर से नीचे एक बार देखा और फिर यहा वहाँ देखने
लगा. अलका अपने भाई की इस अदा पर मुस्कुरा उठी और उसने भी अपना ध्यान सामने की तरफ कर दिया.
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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