Thriller इंसाफ

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koushal
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Re: Thriller इंसाफ

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मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
वहां मेरा दोस्त (!) इन्स्पेक्टर देवेन्द्र सिंह यादव बिराजता था । वो फ्लाइंग स्कवायड के उस स्पैशल दस्ते से सम्बद्ध था जो राजथानी में हुए केवल कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिये सक्रिय होता था । इस लिहाज से श्यामला के कत्ल की उसे पूरी वाकफियत होना लाजमी था ।
मैं उसके आफिस में पहुंचा । मुझे देखते ही उसकी बाछें खिल गयी, होंठ मुस्कराहट में एक कान से दूसरे कान तक खिंच गये ।
मुझे सख्त हैरानी हुई ।
मुझे देखते ही आदतन त्योरी चढ़ा लेने वाला इन्स्पेक्टर यादव यूं पेश आ रहा था जैसे सीधे कमिश्नर की कुर्सी हासिल हो गयी हो ।
“शर्मा !” - वो चहकता सा बोला - “आ बैठ ।”
“नमस्ते ।”
“अरे होती है नमस्ते । पहले बैठ तो सही !”
“इन्स्पेक्टर साहब, क्या बात है ?”
“बैठ । बैठ । होती है मालूम बात । बैठ ।”
मैं एक विजिटर्स चेयर पर ढ़ेर हुआ ।
उसने मेज के दराज से मिठाई का डिब्बा निकाला - उस पर ‘कलेवा’ लिखा होने की वजह से मैंने पहचाना कि वो मिठाई का डिब्बा था - और उसे खोल कर मेरे सामने रखा ।
भीतर जो मिठाई थी वो मेरी पहचानी हुई थी । वो अंजीर की बर्फी थी जो बारह सौ रुपये किलो आती थी ।
“ले ।” - वो दमकता सा बोला - “मुंह मीठा कर ।”
“किस खुशी में ?” - मैंने पूछा ।
“काफी भी मंगवाता हूं पहले मुंह मीठा कर ।”
“अरे, हाकिम साहब” - बर्फी की एक टुकड़ी उठाता मैं बोला - “किस खुशी में ?”
“लड़का हुआ है ?”
“अरे ! हुआ आखिर ?”
“हां । आखिर भोलेनाथ की कृपा हुई ।”
“कब ?”
“कल । शिवेन्द्र सिंह यादव सन आफ देवेन्द्र सिंह यादव, इन्स्पेक्टर दिल्ली पुलिस ।”
“नाम रख भी लिया ?”
“अरे, नाम तो तब से रखा हुआ था जबकि शादी हुई थी लेकिन क्या करूं, हर बार लड़की हो जाती थी ।”
इन्स्पेक्टर साहब की छ: बेटियां थीं । आखिर बेटे की कामना पूर्ण हुई थी ।
“बधाई ! बधाई ! भाभी साहिबा को भी । सारे परिवार को ।”
“कबूल ।”
“जच्चा बच्चा स्वस्थ हैं ?”
“हां । बिल्कुल ।”
“किस पर गया है छोटा इंस्पेक्टर ?”
“अरे, डीसीपी लगेगा सीधा । देखना ।”
“किस पर गया है ?”
“पता नहीं ।”
“पता नहीं ?”
“अभी मैंने शक्ल कहां देखी है !” - वो हंसा - “अभी तो बस...”
मैं हकबकाया ।
“मजाक कर रहे हो ?” - फिर बोला ।
“हां ।”
“अब बोलो तो सही, किस पर गया है ?”
उसने बड़े फरमाइशी अन्दाज से अपनी मूंछ पर हाथ फेरा और फिर हंसा ।
“ये नहीं ठीक हुआ ।”
उसकी हंसी को ब्रेक लगी । वो हड़बड़ाया - “क्या बोला ?”
“बीवी पर जाता तो ज्यादा खूबसूरत होता ।”
“अबे, मैं बद्सूरत हूं ?”
“नहीं । मैंने कहा । ज्यादा... ज्यादा खूबसूरत होता ।”
“अरे, अभी तो एक दिन का है । अभी तो रोज रंग बदलेगा ।
“वो तो है !”
“बाद में देखेंगे ।”
“ठीक ।”
उसने घंटी बजा कर एक सिपाही को बुलाया और उसे काफी लाने को बोला ।
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

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मुझे संतोष था कि अपने मौजूदा मिजाज के हवाले वो मेरे से हुज्जत से, बेरुखी से पेश नहीं आने वाला था वर्ना कलपा हो - जो कि पुलिस की नौकरी में क्या बड़ी बात थी - तो जले पर नमक छिड़कने को राजी नहीं होता था ।
काफी सर्व हुई ।
“कैसे आया ?” - उसने पूछा ।
“अंजीर की मिठाई खाने आया ।” - मैं बोला ।
“अरे, वो तो तू जम जम खा, डिब्बा साथ ले जा, वैसे कैसे आया ?”
मैंने बताया ।
“उस केस में कुछ नहीं रखा, शर्मा ।” - मेरे खामोश होते ही वो बोला - “बिल्कुल ओपन एण्ड शट केस है । टाइम ही जाया करेगा अपना ।”
“मोटी फीस एडवांस में मिली है, मैं टाइम जाया करना अफोर्ड कर सकता हूं ।”
“फिर तो मर्जी तेरी ।”
“तो पुलिस को गारन्टी है कि सार्थक बराल कातिल है, उसने अपनी बीवी श्यामला का कत्ल किया है ?”
“सौ फीसदी ।”
“बेटी बेवक्त मौत मर गयी, बाप चैस टूर्नामेंट कराता है !”
“अरे, मरने वाले के साथ कोई नहीं मर जाता, दुनियादारी के काम नहीं रुकते । वो कहते नहीं हैं कि शो मस्ट गो आन !”
“हां, कहते तो हैं !”
“फिर लड़की अभी कल तो नहीं मरी ! तीन हफ्ते होने को आ रहे हैं उसे मरे । फिर चैस टूर्नामेंट की तैयारियां तो उसकी लाइफ में ही शुरू हो गयी थीं । कैसे उन्हें इस बिना पर रोका जा सकता था कि आर्गेनाइजर की बेटी मर गयी थी ! फिर वो अकेला ही तो नहीं टूर्नामेंट कंडक्ट करने वाला ! उसकी क्लब है, रूलिंग पार्टी का एक नेता है, एक होटल है, एक बैंक है, और भी हैं कई ईवेंट पार्टनर ।”
“तुम्हें तो टूर्नामेंट की काफी जानकारी है !”
“इत्तफाकन है । जब असल टूर्नामेंट शुरू होगा तो मेरा भी वहां आना जाना होगा ।”
“महकमे की तरफ से ?”
“अपनी तरफ से । मेरा एक भतीजा पार्टीसिपेट कर रहा है, उसकी खातिर ।”
“कमाल है ! मैं तो समझता था कि आज की नौजवान पीढ़ी शतरंज का नाम भी नहीं जानती थी !”
“गलत समझता था । दिमाग का खेल है । नौजवान पीढ़ी में दिमाग की कोई कमी नहीं । शतरंज के मामले में नौजवान पीडी ने ही सारी दुनिया में नाम रौशन किया है हिन्दोस्तान का । विश्वनाथ आनन्द को ही देख लो । आज सारी दुनिया...”
“ठीक ! ठीक ! बतौर कातिल वो किसी और का नाम ले रहा है...”
“अब ले रहा है । पहले मुंह में दही जमी हुई थी !
“लिहाजा तुमने उसकी बात की तरफ कोई तवज्जो न दी ! 0
“दी । बराबर दी । एक्ट भी किया ।”
“क्या किया ?”
“फौरन माधव धीमरे को यहां तलब किया ।
“क्या नतीजा निकला ?”
“यही कि मुलजिम का दिमाग हिल गया था । लम्बी गिरफ्तारी का उसके दिमाग पर असर हुआ था और वो पागलों की तरह प्रलाप करने लगा था । कुछ भी वाही तबाही बकने लगा था । माधव धीमरे को खिलाफ उसने वाही तबाही ही बकी थी ।”
“माधव धीमरे कातिल नहीं हो सकता ?”
“नहीं हो सकता । कातिल गिरफ्तार है, शर्मा, उसका पिछला रिकार्ड उसके खिलाफ खड़ा है जो कि अपनी कहानी खुद कहता है ।”
“कैसा रिकार्ड ? क्या कहता है ?”
“फसादी लड़का है । पंगेबाजी का पुराना आदी है । कई बार चौकी-थाने का मुंह दिखाने वाली हरकतें कर चुका है ।”
“मसलन ?”
“तीन बार रैश ड्राइविंग में थामा जा चुका है । दो बार रोड रेज में उसकी शिरकत उसे ओवरनाइट लॉक-अप में बन्द करा चुकी है । एक बार चोरी का इलजाम आ चुका है ।”
“चोरी का भी ?”
“हां । जब रोज़वुड क्लब में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी करता था तो एक बार एक मेम्बर ने अपना एक बैग उसे सौंपा था जो कि वो वापिसी में कलेक्ट करता । वापिसी का वक्त आया था तो उसने दावा किया था कि बैग की आउटर पॉकेट में एक लिफाफा था जिसमें दस हजार रुपये थे और जो लिफाफा जब बैग उसकी हिफाजत में था तो रिसैप्शनिस्ट ने - सार्थक बराल ने - निकाल लिया था । सार्थक ने उस बात से सरासर इंकार किया था और मेम्बर को झूठा करार देने तक से गुरेज नहीं किया था । बड़ी दिलेरी से क्लेम किया था कि रुपयों के बारे में मेम्बर गलतबयानी कर रहा था; या तो रकम का कोई वजूद ही नहीं था, या वो उसे कहीं और रख कर भूल गया था और समझ रहा था कि बैग की आउटर पॉकेट में रखी थी । क्लब ने स्टाफ की हिमायत की थी और वो सन्देहलाभ पा गया था ।”
“छोटी मोटी चोरी में और कत्ल में फर्क होता है । ट्रैफिक वायलेशन दिल्ली में आम बात है, छोटे बड़े सब का शगल है, रोड रेज भी रोजमर्रा की बात है ।”
“क्या कहने ! बोलने भी लगे उसके हक में !”
“मैंने महज एक नजरिया पेश किया है ।”
“अरे, कैजुअल बात हो तो कोई बात है, रिपीट ऑफेंडर कैसे किसी नजरिये से कवर किया जा सकता है ! शर्मा, ऐसी छोटी मोटी हरकतें ही मजबूती पकड़ती जाती हैं और फिर बड़े कारनामों को अंजाम देने की दिलेरी आती जाती है ।”
मैंने जबरन सहमति में सिर हिलाया ।
“फिर ड्रग्स के साथ पकड़ा जा चुका है । उसे तुम छोटी मोटी हरकत मानते हो ?”
“बतौर यूजर । एक ग्राम गांजा के साथ ।”
“उसके वकील ने कलाकारिता दिखाई । पुलिस के करप्ट किरदार को कैश किया । पकड़ी गयी मिकदार में हेराफेरी की गयी । मैं इस बारे में और कुछ नहीं कहना चाहता क्योंकि खुद मैं भी पुलिस वाला हूं । ज्यादा बोलूंगा तो खुद पर ही कीचड़ उछालूंगा ।”
“शहर में उसके लिये हमदर्दी की लहर है । हर कोई उसे बेकसूर ठहरा रहा है और उसकी गिरफ्तारी को पुलिसिया जुल्म करार दे रहा है । उसके लिये जुलूस निकाले जा रहे हैं, धरना प्रदर्शन किये जा रहे हैं, ‘साथक को इंसाफ दो’ के नारे लगाये जा रहे हैं, उसके डिफेंस के लिये चन्दा इकट्ठा किया जा रहा है, इस बाबत क्या कहते हो ?”
“जाकर पता करो कि ये सब कौन लोग कर रहे हैं ! ये सब करने वाले दिल्ली में बसे नेपाली हैं जो अपने नेपाली भाई के बचाव के लिये हाय तौबा मचा रहे हैं । चन्द दूसरे लोग उनमें शामिल हो जाते हैं क्योंकि अन्धे के पीछे अन्धा लगने की दिल्ली में रवायत है । परदेस में बसी किसी बाहरी कम्युनिटी का ऐसे किसी मसले में एकजुट हो जाना क्या बड़ी बात है ? ऐसे लोगों के लिये पुलिस हमेशा ही गलत है और उनकी दुश्मन है ।”
“शायद तुम ठीक कह रहे हो ।”
“बंगलादेशियो को देखो । कहीं भी झुग्गी डाल के बैठ जाते हैं । शिकायत होती है, कमेटी का डिमोलिशन स्क्वायड आता है, पुलिस आती है तो इकट्ठे होकर हाय तौबा मचाने लगते हैं; क्या औरतें, क्या मर्द, क्या बच्चे, छाती कूटते जुल्म की दुहाई देने लगते हैं । पुलिस पर ईंट पत्थर बरसाने लगते हैं । क्यों ? क्योंकि सरकारी जमीन पर काबिज होना उनका मौलिक अधिकार है, किसी भी सम्पन्न, सम्भ्रान्त इलाके में जाकर सड़ांध फैलाने लगने का वोट की राजनीति करने वाले नेताओं से उन्हें लाइसेंस हासिल है ।”
“ठीक ।”
“कोई उनसे सवाल नहीं कर सकता कि जहां झुग्गियां खड़ी कर ली थीं, वो जमीन क्या उनके बाप की थी ?”
“ठीक ।”
“पुरानी दिल्ली में जा, जमना पार ईस्ट दिल्ली में जा और किसी बंगलादेशी रिक्शावाले को छेड़के देख, किसी गार्बेज कलेक्टर से पंगा लेकर देख, और फिर देख कैसे मक्खियों की तरह भिनभिनाते सैकड़ों, बल्कि हजारों, उसके जोड़ीदार तेरे गिर्द इकट्ठे होते हैं और मरने मारने को उतारू होते हैं !”
“छोड़ो ये बद्मजा किस्सा, यादव साहब !”
koushal
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Re: Thriller इंसाफ

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“बहरहाल मैं ये कह रहा था कि सार्थक को लेकर शहर में जो कुछ हो रहा है, वो उसके नेपाली बिरादरीभाई कर रहे हैं, वो अपने अभियान को ‘निर्भया को इंसाफ दो’, ‘जेसिका को इंसाफ दो’ का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं जो कि हरगिज कामयाब नहीं होने वाली । दिल्ली के बाशिन्दे जज्बाती हैं लेकिन मूर्ख नहीं । वो शिकारी और शिकार में फर्क समझते हैं । निर्भया वहशी भेड़ियों की वहशत का शिकार थी, जेसिका लाल रसूख वाले बाप के दम खम पर ऐंठे हुए नौजवान की नाजायज ऐंठ का शिकार थी इसलिये संवेदनशील दिल्ली वाली की अन्तरात्मा को उन दो हाहाकारी वारदातों ने झकझोरा था और हमदर्दी की ऐसी लहर उमड़ी थी कि उसके सैलाब में वहशियों की वहशत और ऐंठे हुए की ऐंठ बह गयी थी । सार्थक के साथ ये सब कैसे होगा ? वो तो शिकारी है । हमदर्दी शिकार के साथ होती है, शिकारी के साथ नहीं ।”
“फिर भी हो रही है ।”
“गलत हो रही है नाजायज हो रही है, नेपाली तबका अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहा है । सार्थक कत्ल करके छुट्टा घूम रहा होता और लहर ‘श्यामला को इंसाफ दो’ की होती तो कोई बात भी थी ।”
“ठीक कह रहे हो । ये दस हजार रुपयों की चोरी वाली बात कब की है ?”
“डेढ़ साल पहले की ।”
“यानी कि तब का वाकया है जब कि वो शादीशुदा था ?”
“हां । शादी दो साल पहले हुई बताई जाती है ।”
“ससुरे ने कुछ किया होगा ?”
“क्या पता किया हो ! क्या पता मामला उसी ने रफादफा करवाया हो, लोकल थाने का केस था इसलिये इस मामले में मुझे ठीक से कुछ मालूम नहीं है ।”
“केस दर्ज हुआ था ?”
“नहीं । तभी तो बोला क्या पता मामला ससुरे ने रफादफा करवाया हो । मेम्बर ने पुलिस को बुलाया था लेकिन मामला एफआईआर दर्ज होने की स्टेज तक नहीं पहुंचा था ।”
“ससुरा तो लड़के को नापसंद करता बताया जाता है !”
“शादी ससुरे की रजामन्दी से नहीं हुई थी न !”
“तो ?”
“तो क्या ! छोकरे को नापसन्द करता था न, अपनी औलाद को, अपने खून को तो नापसन्द नहीं करता था ! बेटी के उसकी रजामन्दी के बगैर शादी कर लेने पर बाप ने बेटी को डिसओन तो नहीं कर दिया था न !”
“ओह !”
“अभी छोकरा क्या उस बड़े वकील की फीस भरने की हैसियत रखता है जिसका कि तुमने जिक्र किया ? तुम भी कोई चिकनफीड पर तो काम करते नहीं ! आखिर नामी पीडी हो । वो तुम्हारी फीस भर सकता है ?”
मैंने इंकार में सिर हिलाया ।
“मेरे से पूछो तो छोकरे के लिये वकील - सब - ससुरे ने ही सैट किया होगा !”
“अपनी बेटी के कातिल के लिये ?”
“क्या पता उसे छोकरे की बेगुनाही पर यकीन आ भी चुका हो !”
“ऐसा !”
“अरे, सौ बार बोला तो झूठ भी सच हो जाता है ! इतने दिनों से ‘सार्थक को इंसाफ दो’ का ढोल पीटा जा रहा है, आवाज ससुरे के कानों तक नहीं पहुंची होगी ! उसे लगने लगा होगा कि छोकरा बेगुनाह था ।”
“छोकरे की खुशकिस्मती । अगर ऐसा है तो वो उसकी जमानत क्यों नहीं करवाता ?”
यादव को जवाब न सूझा ।
“दौलतमन्द आदमी है, बिल्डर है, कॉलोनाइजर है, बीस लाख की नकद जमानत जमा करवाना उसके लिये क्या बड़ी बात है ! वो बड़ा और रसूख वाला आदमी है, बतौर जमानती वो कोर्ट में पेश हो तो क्या पता जज नकद जमानत वाली शर्त ही वापिस ले ले !”
“बात तो ठीक है तुम्हारी !”
“ठीक है तो क्या कहते हो ससुरे के मिजाज के बारे में ?”
“भई, अब क्या कहूं ! सिवा इसके कि छोकरे के लिये उसके मिजाज की बाबत मेरा खयाल गलत हो सकता है ! हो सकता है अपनी बेटी की जिन्दगी में वो बेटी की गुस्ताख हरकत के बावजूद उससे थोड़ा भीगता हो, पसीजता हो लेकिन उसकी मौत के बाद...”
उसने अनमने भाव से इंकार में गर्दन हिलाई ।
“तो मानते हो लड़के का सपोर्टर ससुरा नहीं हो सकता ?”
“हां, यार, अब मानता हूं । तुम वकील से पूछो उसे किसने रिटेन किया है ?”
“वो कहता है ‘सार्थक को इंसाफ दो’ कमेटी ने ।”
“तो फिर यही बात होगी ! यानी बेगाने मुल्क में नेपाली नेपाली के काम आ रहे हैं ।”
“ठीक ! माधव धीमरे की बाबत कुछ और बताओ ।”
“क्या और बताऊं ?”
“सुना है वो भी नेपाली है !”
“ठीक सुना है ।”
“और ?”
“पढ़ा लिखा, स्मार्ट नौजवान है । उम्र पैंतीस के पेटे में है । मकतूला के भाई शरद परमार का दोस्त है इसलिये पिता अमरनाथ परमार की भी कृपादृष्टि प्राप्त है उसे । शरद अमरनाथ परमार का बड़ा लड़का है, मालूम ही होगा !”
“नहीं, नहीं मालूम था । ये मालूम है कि उसकी तीन औलाद हैं - सबसे छोटी श्यामला मरहूम, सबसे बड़ा शरद, बीच में एक लड़की और लेकिन उसका नाम नहीं मालूम ।”
“शेफाली । उम्र पच्चीस साल । उम्र के लिहाज से तीनों में चार-चार साल का वक्फा है ।”
“परमार फैमिली में कोई शतरंज का खिलाड़ी है ?”
“मंझली लड़की शेफाली है न !”
“मकतूला ? श्यामला ?”
“न, भई । वो तो सुना है रिलैक्स करने और खूबसूरत दिखने के अलावा कुछ भी नहीं करती थी ।”
“पिता ? भाई ?”
“न ।”
“तो माधव धीमरे कातिल नहीं हो सकता ?”
“हां । उसके पास कत्ल के वक्त के आसपास की बड़ी मजबूत एलीबाई है । मजबूत बोला मैंने, सार्थक की एलीबाई जैसी झोलझाल नहीं जो कि हाथ के हाथ ही फर्जी, गढ़ी हुई साबित हो गयी थी ।”
“क्या एलीबाई है ?”
“शरद परमार के साथ ड्रिंकिंग सैशन में था ।”
“कहां ? क्लब में ?”
“नहीं । लेकिन सैनिक फार्म के इलाके में ही । वहां ‘रॉक्स’ करके एक बार है, प्रोप्राइटर का नाम रॉक डिसिल्वा है ।”
“फारेनर है ?”
“नहीं, गोवानी है ।”
“क्लब से कोई रिश्ता ?”
“वहां का केटरिंग कांट्रेक्टर है ।”
“आई सी । कोई और सस्पैक्ट ?”
उसने इंकार में सिर हिलाया ।
“प्राइम सस्पैस्ट न सही कोई दूर दराज का ही सही जिसे कि सार्थक की गिरफ्तारी की वजह से पुलिस ने नजरअंदाज कर दिया हो !”
“ऐसा तो है एक ।”
“कौन ?”
“सार्थक का बड़ा भाई शिखर बराल ।”
“कैसे ?”
“उसने सार्थक को एलीबाई देने की कोशिश की थी जो कि चली नहीं थी । चल जाती तो वो उसके लिये भी एलीबाई होती ।”
“मतलब ?”
“समझो । एलीबाई दोतरफा काम करती है । जब रमेश कहता है फलां वारदात के वक्त सुरेश उसके साथ था तो वो सुरेश को ही एलीबाई नहीं देता, खुद को भी एलीबाई देता है । जब सुरेश उसके साथ था तो वो सुरेश के साथ था । समझे ?”
“हां ।”
“एक कत्ल के दो कातिल नहीं हो सकते वर्ना शिखर भी अन्दर होता ।”
“ठीक । सार्थक माधव धीमरे का कर्जाई था । मालूम ?”
“अच्छा !”
“अस्सी हजार का देनदार था ।”
“मुझे नहीं मालूम था । कभी जिक्र ही न आया इस बात का । क्यों था कजाई ?”
“जुए की लत की वजह से । रेस खेलता था ।”
“इस बात की तो हमें खबर है लेकिन कर्ज ले के रेस खेलता था, ये नहीं मालूम था । कहीं कर्जे की वापिसी तो वजह नहीं बनी कत्ल की ?”
“कैसे होगा ? वो वजह तब बनती जब कत्ल सार्थक का हुआ होता ।”
“उस पर कर्जे की वापिसी का दबाव हो, उसने रकम बीवी से हासिल करने की कोशिश की हो, वही कोशिश तकरार की वजह बन गयी हो और नौबत कत्ल की आ गयी हो !”
“हो सकता है लेकिन फिर ये इरादतन किया गया कत्ल तो न हुआ, डेलीब्रेट मर्डर तो न हुआ !”
“तो वो कहे ऐसा । दावा करे ऐसा । कबूल करे ऐसा हुआ होना । ताकि कत्ल को हादसा करार दिये जाने की बाबत सोचा जाये । छोड़े अपने बेगुनाह होने की रट !”
“माधव धीमरे क्लब का एम्प्लाई है ?”
“मुझे मालूम नहीं । तवज्जो नहीं दी मैंने इस बाबत । लेकिन शरद का दोस्त भला और कैसे बना होगा !”
“रहता कहां है मालूम है ?”
“हां, मालूम है । पता है...”
उसने मुझे एक कागज पर पता लिख कर दिया ।
“अमरनाथ परमार की रिहायश भी सुना है सैनिक फार्म्स में ही है ?”
उसने कागज मेरे से वापिस लिया और उस पर एक और पता लिख कर लौटाया ।
“तुम्हारा इरादा इन लोगों से मिलने का जान पड़ता है !”
“है तो सही ।”
“मिलना बेशक लेकिन मेरे केस में फच्चर डालने की कोशिश मत करना । ताकीद है, शर्मा, अपनी फीस को जस्टीफाई करने के लिये मेरे केस का हुलिया बिगाड़ने की कोशिश मत करना ।”
“लेकिन जायज कोशिश...”
“ये फैसला मैं करूंगा कि कोशिश जायज है कि नाजायज । कुछ नया जान पाओ तो उसके साथ यहां आना । फिर हम दोनों डिसकस करेंगे और फैसला करेंगे कि क्या जायज है क्या नाजायज है । ताकीद है, मेरे पास उस छोकरे के खिलाफ ओपन एण्ड शट केस है । क्या है ?”
“ओपन एण्ड शट केस है ।”
“याद रहे ।”
“याद तो रहेगा हाकिम का हुक्म लेकिन तुम्हें भी तो याद रहना चाहिये कि गुजश्ता वक्त में कई बार मैंने तुम्हारे ओपन एण्ड शट केस की बुनियाद हिलाई है ।”
“इस बार भी हिलाना । इजाजत है । लेकिन पहले मशवरा मेरे साथ ।”
“ओके ।” - मैं उठ खड़ा हुआ - “बेटे का बाप बनने की लम्बी अभिलाषा की आखिर पूर्ति की फिर से बधाई ।”
“शुक्रिया ।”
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हासिल जानकारी के मुताबिक सार्थक की मां अहिल्या बराल अपने बड़े बेटे शिखर के पास देवली में रहती थी और वो जगह सैनिक फार्म्स से कोई ज्यादा दूर नहीं थी ।
देवली दिल्ली का पुराना गांव था जिसके पहलू में अब इसी नाम की नयी कॉलोनी बस रही थी । उस नये बसते इलाके में अहिल्या बराल का आवास था जो कि एक नया बना छोटा सा इन्डीपेंडेंट हाउस था ।
मैंने उसे अपना परिचय दिया तो मालूम हुआ कि बाजरिया एडवोकेट विवेक महाजन मेरी खबर उस तक पहुंच चुकी थी और वो सन्तुष्ट थी कि वकील साहब - और अब जासूस साहब - के हाथों में उसके छोटे बेटे का भविष्य सुरक्षित था ।
“लिहाजा” - मैं बोला - “आपके खयाल से सार्थक बेगुनाह है ।”
“मेरे यकीन से” - वृद्धा दृढ़ता से बोली - “सार्थक बेगुनाह है । दुनिया की कोई ताकत मेरे इस यकीन को नहीं हिला सकती । सार्थक अपनी पत्नी का खून नहीं कर सकता । वो बेगुनाह है ।”
“गुस्ताखी माफ, ये मां की ममता बोल रही है या एक नीरक्षीरविवेकी उम्रदराज महिला का बैटर जजमैंट ?”
उसने जवाब न दिया, उसके चेहरे पर उत्कंठा के भाव उभरे ।
“ये घर” - मैंने जुदा सवाल किया - “किराये का है ?”
“नहीं । सार्थक ने इसका इंतजाम किया था... समझो मां के लिये ।”
“कैसे ?”
“बाजरिया अमरनाथ परमार । उसने परमार साहब से कोई डील किया था जिसके नतीजे के तौर पर ये घर हमें हासिल हुआ था ।”
“क्या डील किया था ?”
“ये तो मुझे मालूम नहीं !”
“पूछा तो होगा ?”
“नहीं, नहीं पूछा था ।”
“आपका कोई अन्दाजा तो होगा कि क्या डील किया होगा ! परमार साहब बिल्डर हैं, कॉलोनाइजर हैं, परचेज किया होगा उनसे ?”
“हो सकता है, क्योंकि एक दिन यहां परमार साहब का फोन आया था और उन्होंने कहा था कि वो इस प्रापर्टी को वापिस खरीदना चाहते थे ।”
“अच्छा !”
“परचेज प्राइस से ज्यादा रकम अदा करने को कह रहे थे और साथ ही जो खास बात उन्होंने कही थी, वो ये थी कि मुझे मूव भी नहीं करना पड़ेगा ।”
“मूव भी नहीं करना पड़ेगा ?”
“हां । मैं यहीं रहती रह सकती थी ।”
“कमाल है ! फिर वापिस परचेज क्यों करना चाहते थे ?”
“कहते थे किसी और महिला के हवाले करना चाहते थे ।”
“और महिला कौन ?”
“मालूम नहीं । इस बाबत उन्होंने कुछ नहीं बताया था । न कोई नाम लिया था । लेकिन फिर एक दिन उनका फोन आया था कि उस परचेज का खयाल उन्होंने बदल दिया था क्योंकि वो दूसरी महिला उन्हें अब आगे भरोसे के काबिल नहीं लगी थी ।”
“अब आगे क्या मतलब ? यानी अब तक भरोसा था, आइंदा के लिये नहीं रहा था ।”
“शायद ।”
“और भरोसा कैसा ?”
“मालूम नहीं । मेरे को तो उनकी हर बात गोलमोल ही लगी थी । फिर एक बार बोले कि मुझे ऐसे कोई और मकान अपने नाम करवाना कबूल हो तो मुझे कुछ आर्थिक लाभ भी हो सकता था ।”
“यानी चुपड़ी और दो दो !”
“अब क्या बोलूं !”
“आपने क्या जवाब दिया था ?”
“भई, इतनी महंगाई है, आते पैसे को कौन मना करता है ! मैंने ‘हां’ बोल दिया था ।”
“कमाल की बात है ! अब क्या पोजीशन है ? जो कुछ पिछले दिनों हुआ, उसकी रू में क्या आपको लगता है कि उनकी आफर स्टैण्ड करेगी ?”
“अब कहां करेगी ! शरेआम मेरे बेटे को कातिल करार दे रहे हैं, मां पर मेहरबान होंगे !”
मेरा सिर स्वयमेव इंकार में हिला ।
“मेरे खयाल से तो बदले की भावना से प्रेरित होकर वो मुझे इस घर से बेदखल करने की कोशिश करेंगे ।”
“कर पायेंगे ?”
“क्या पता ? मुझे उस डील की तो खबर नहीं जो कि सार्थक में और उनमें हुआ था । क्या पता सार्थक ने मकान किस्तों में हासिल किया हो और उसकी कई किस्तें चुकानी अभी बाकी हों !”
“आप सार्थक से क्यों नहीं पूछती ?”
“इस वक्त मैं उसकी जान की फिक्र करूं जो सूली पर टंगी है या इन बातों की फिक्र करूं ?”
“ठीक ! परमार साहब ने बताया नहीं कि वो क्यों चाहते थे कि ऐसे और मकान आपके नाम हों ?”
“नहीं । पूछा था तो बोले थे कि वक्त आने पर सब बता दिया जायेगा ।”
“यानी फिर गोलमोल, टालू बात ही की थी ?”
“हां ।”
“आपका बड़ा बेटा क्या काम करता है ?”
“कोई पक्की नौकरी शिखर को हासिल नहीं है । कैजुअल काम मिलते रहते हैं ।”
“आजकल क्या करता है ?”
“सैनिक फार्म्स की शॉपिंग माल में इलैक्ट्रॉनिक एपलायंसिज बनाने वाली एक विदेशी कम्पनी की पब्लिसिटी करता है । ग्राउन्ड फ्लोर पर लॉबी में ही उसका स्टाल है ‘टोक्यो एपलायंसिज’ के नाम से ।”
“इस वक्त वहां होगा ?”
“हां ।”
“ओके । चलता हूं । वक्त देने का शुक्रिया ।”
“सुनो ।” - वृद्धा व्यग्र भाव से बोली - “तुम सार्थक के लिये कुछ करोगे न ?”
“अगर वो बेगुनाह है तो सब कुछ करूंगा ।”
“वो बेगुनाह है ।”
“फिर क्या बात है ! फिर तो समझिये कि सच्चे का बोलबाला । नहीं ?”
“ह - हां ।”
“नमस्ते ।”
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