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ड्योढ़ी के फाटक पर जैसे ही घोड़े के टापों की ध्वनि सुनाई दी, माधुरी ने खिड़की खोलकर नीचे झाँका । उसके पति आज शीघ्र लौट आये थे। वह झट कमरे के बिखरे सामान को ढंग से सजाकर उसके स्वागत के लिये नीचे प्रा गई।
सूर्यास्त हो चुका था और अंधेरा धीरे-धीरे फैल रहा था । माधुरी ने अपनी दासी गंगा को लैम्प जलाने को कहा और स्वयं नीचे आँगन में आ खड़ी हुई । वासुदेव ने अपने कंधे से बन्दूक उतारकर नौकर के हाथ में दी और सामने खड़ी माधुरी को देखकर मुस्कराने लगा। दोनों एक दूसरे का हाथ थामे ऊपर आ गये। ___बाहर अभी पूर्ण अँधेरा न छाया था । कमरे में लैम्प जलते देखकर वासुदेव ने पूछा, "अभी से उजाला कर दिया ?"
"हूँ'आप जो शीघ्र आ गये आज,"-माधुरी ने मुस्कराते हुए चंचलता से उत्तर दिया।
"और यदि मैं दोपहर को ही लौट आता तो?"
"आप नहीं होते तो घर में अँधेरा-अँधेरा सा लगता है, अकेले में खाने को दौड़ता है।"
"अकेले क्यों ?.."गंगा है, और नौकर-चाकर हैं.. और सबसे बढ़ कर प्रकृति का साथ !" ___“
सब हैं.. किन्तु अापके बिना..,"-माधुरी ने पति की बात बीच ही में काट दी और उसका बड़ा कोट उतरवाने लगी।
वासुदेव कोट उतारकर पलंग पर लेट गया । माधुरी उसके पास जा बैठी और उसके बिखरे हुए बालों को उंगलियों से संवारते बोली
"आज दिन कैसा रहा ?"
"बहुत बुरा एक चिड़िया भी हाथ नहीं लगी।"
"चलो अच्छा हुआ. "पाप सिर न चढ़ा।"
"पाप ! पाप-पुण्य की सीमायें इतनी छोटी से तो नहीं पलसा जीवन में।" -
"तो कैसे चलता है ?" माधुरी ने वासुदेव के गले में डाह डालते हए चंचलता से पूछा ।
वासूदेव ने मौन किन्तु, अर्थपूर्ण दृष्टि से उसकी उन्मादित आँखों में झांका और उसकी बाँहें हटाकर पलंग से उठ बैठा । माधुरी ने फिर धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और विनमा बोली, "क्या हुमा ?"
"कुछ नहीं स्नान का प्रबन्ध करो.. पानी रखवा दो।"
माधुरी ने उसका हाथ छोड़ दिया और मूर्ति सी बनी मौन उसे देखने लगी । वासुदेव मुस्कराते हुए कपड़े बदलने भीतर कमरे में चला गया।
उसके चले जाने पर भी कुछ क्षण तो वह यहीं खड़ी एकटक शून्य में देखती रही और फिर सहसा गंगा को स्नान का पानी रखने के लिये पुकारकर स्वयं उसके कपड़े तैयार करने लगी। न जाने क्यों वह कभी कभार अपने प्रति उसकी यह उपेक्षा देखकर काप सी जाती।
उनके ब्याह को लगभग तीन वर्ष हो चुके थे और बह अभी तक भली प्रकार उसके मन की थाह न पा सकी थी। घर में और कोई भी न था जिससे वह दो घड़ी मन की बात कह लेती, दिन-रात मन को दबाये पड़ी रहती थी उसमें किस बात का अभाव था ? वह युवती थी, सुन्दर थी, शिक्षित थी. 'कुलीन परिवार से आई थी और उसके पिता के यहाँ... धन की कमी भी न थी. "शिष्ट समाज के सब नियमों से वह भली भांति परिचित थी. फिर क्या था जो उन्हें उससे यूं खिंचा-खिंचा रखता ? यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में कोलाहल मचा देते, किन्तु कोई उपाय...? वह सोच-सोचकर थक जाती और उसे कुछ न सूझना, कुछ समझ में न आता।
अपने पति का मन लुभाने के लिये वह नये-नये ढंग सोचती, किन्तु सब व्यर्थ । उनके मध्य खाई बढ़ती ही जाली । उसने उसे पाटने के लाख प्रयत्न किये पर सब व्यर्थ । यह उसके बस की बात न थी, और अब तो विवश होकर उसने प्रयत्न करना भी छोड़ दिया था। वह उस तिनके के समान थी, जो नदी को तरंगों के आश्रय पर हो-इधर लहर उठी तो इधर, उधर तरंग उठी तो उधर । यह भी विचित्र जीवन थान प्रेम था न घृणा--न हर्ष था, न विषाद । हल्की सी लगन भी थी और खिंचाव भी-इनके साथ-साथ निरन्तर एक पीड़ा भी थी, मानो कोई सपने में पत्थर से सिर फोड़ ले और उस चोट में तनिक सुख अनुभव करे।
स्नानघर की चिटखनी खुलने का शब्द हुआ । वह चौंककर से भली और मेज पर रखी चाय को ट्रे को देखने लगी, जो न जाने गंगा कब वहाँ रख गई थी । वासुदेव के पाँव की आहट हुई और माधुरी ट्रे पर झुककर चाय बनाने लगी। वह मौन और मलिन थी। वासुदेव ने कनखियों से उसे देखा और मुस्कराते हुए सामने आ बैठा। माधुरी ने चाय का प्याला बढ़ाया।
"यह माथे पर बल क्यों डाल रखे हैं ?" वासुदेव ने प्याला थामते हुए नम्रतापूर्वक पूछा।
"आपको क्या ?" उसने असावधानी से गर्दन झटकाते हुए उत्तर दिया और अपने लिये चाय का प्याला बनाने लगी।
"हमें नहीं तो और किसे ?"
"मैं क्या जानू ! आप तो शिकार करना जानते हैं केवल. घायल की गत को क्या जाने !"
"मधु"
"किसी को घायल करने में मुझे क्या चैन मिल सकता है ?"
"मैं क्या जानू ?"
"तो सुन लो ! जितनी पीड़ा उसकी तड़प में होती है उससे अधिक पीड़ा स्वयं मुझे व्याकुल कर जाती है।"
"तो फिर छोड़ दीजिये शिकार खेलना ।"
"नहीं"'यह मेरे बस की बात नहीं।"
वासुदेव चाय पीकर चुप हो गया। माधुरी ने अधिक वाद-विवाद उचित न समझा और चुपचाप बैठी चाय पीती रही।
वासुदेव चाय पीकर अपने कमरे में चला गया। वह कुछ देर बैठी सोचती रही और फिर कपड़े बदलने लगी। वह सोचने लगी''यह तो उनकी प्रकृति है."उसे इतना गम्भीर न होना चाहिये या व्यर्थ वह बुरा मान जायेंगे "उसने अपने अन्तर को टटोला अपने पति से उसे उत्तम प्रेम था। ___
सहसा मन में किसी तरंग ने अंगड़ाई ली और वह वासुदेव के कमरे में पहुँची। वह खड़ा अल्मारी में से कोई पुस्तक टटोल रहा था। माधुरी दबे पांव उसके पीछे जा खड़ी हुई और जब बड़ी देर तक उसने मुड़कर न देखा तो माधुरी ने रुमाल की नोक बनाई और उसके कान को छुआ। * वह एकाएक कैंपकंपा गया और कान को झटककर पीछे मुड़कर माधुरी को देखने लगा। माधुरी अनायास हंसने लगी। - इस समय वह कुछ विशेष सुन्दर दिखाई दे रही थी। हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साडी "संवरे हुए केशनिखरा हुआ प्राभामय मुख...
वासुदेव को वह दिन याद आ गया जब वह पहले-पहल दुल्हिन बन के उसके घर आई थी "तब भी वह इतनी ही प्यारी थी। उसने मुस्कराते हुए सिर से पांव तक निहारा और हाथ में पकड़ी पुस्तक बंद करके अल्मारी में रखने लगा।
___ माधुरी ने हाथ में पकड़ा हुमा गुलाब का फूल उसकी ओर बढ़ाया और उसे जूड़े में लगाने का संकेत किया । वासुदेव ने फूल टाँकने को उसके कंधे पर हाथ रखा और दूसरे हाथसे उस का मुंह पलटा । फिर उसके जूड़े में फूल लगा दिया। माधुरी ने मुस्कराकर अपना मुह उसके वक्ष पर रख दिया और बोली
"चलियेगा...?" "कहाँ ?" "झील के किनारे "तनिक घूमने को।" "अब तो अंधेरा हो रहा है।" "तो क्या हुअा, आकाश पर चांद भी तो है..."
वासुदेव निरुत्तर हो गया। दोनों छिटकी हुई दूधिया चाँदनी में, झील के किनारे टहल रहे थे । झील का स्थिर जल चाँदनी में शीशे की चादर प्रतीत हो रहा था। उनके जीवन के कितने दिन और कितनी रातें इस झील के साथ सम्बन्धित थीं, किन्तु उसे ऐसा प्रतीत होता था मानों वह समय स्वप्न में ही व्यतीत हो गया हो । वह अाज भी वैसी ही अतृप्त थी, जैसी वह प्रथम दिन थी। उसके मन में आज भी आकांक्षाओं की ज्वाला धधक रही थी और वह निरन्तर अपनी भावनाओं का गला घोंट रही थी।
“यह झील'''यह छोटा सा मकान''यह हरा-भरा गाँव नगर की हलचल से दूर एक एकान्त स्वर्ग का कोना''यह सब कुछ होते हुए भी वह एक नरक की अग्नि में जल रही है। मन की बात मुह तक नहीं ला सकती। उसने अपना सर्वस्व पति पर न्योछावर कर दिया, और एक वह है कि उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ, प्रेम से परे, जाने किस संसार । में विचरता है, क्यों क्यों ?"
चलते-चलते वह एक गये और हरी-हरी दूब पर कुछ देर के लिये बैठ गये । यू तो चे पति-पत्नी थे, किन्तु अपरिचित से ! दोनों एक दूसरे से कुछ कहना चाहते पर कह न पाते । बैठे रहे, बैठे रहे और जब बहत देर तक माधुरी के मुख से कोई शब्द न निकला तो वासुदेव ने मौन तोड़ा
"आज इतनी चुप क्यों हो?" "मेश बोलना आप को अच्छा जो नहीं लगता..." "ऐसी बात तो नहीं । जो मन में हो उसे कह देना ही भला!" "तो एक बात पूछ ?" "पूछो।" "हमारे व्याह को कितना समय हो गया ?" "लगभग तीन वर्ष ।"
"किन्तु, मुझे तो यू लगता है, मानो मैं माही ही नहीं गई।" "माधुरी...!" वासुदेव जैसे भाग गया हो कि वह किस प्राशय से
"कहा न मैंने, प्रेम एक ऐसी भावना है, जिस में प्रप्ति का होना, उसकी दीर्घ आयु का प्रतीक है।" .. "किन्तु, दुनिया बालों का मुह कैसे बंद किया जा सकता है ?
"क्या कहते हैं वह ?" "यह कि तुम्हारे पति तुमसे प्रेम नहीं करते।" वासुदेव बेचैन होकर उठ बैठा ।
"लोग यह भी कहते हैं कि तुम निःसन्तान ही रहोगी,"-माधुरी ने अपनी बात चालू रखी।
वासुदेव ने तीखी दृष्टि से उसे देखा।
"एक ने तो यहाँ तक कह दिया.","--माधुरी ने कुछ रुककर कहा । इतना कहते-कहते उसकी आवाज कुछ रुंध गई।
"T..?" माथे पर से पसीना पोछते हुए वासुदेव ने पूछा।
कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे पति","-कहते-कहते उसके होंट थरथराने लगे मानो वह अपने पति का कोई भयानक रहस्य प्रगट करने वाली हो। वासुदेव चौकस होकर उसकी आवाज को कम्पन का भान करने लगा। माधुरी ने रुकते-रुकते बात पूरी की, "तुम्हारे पति किसी और से पार करते हों।"
माधुरी ने वाक्य पूरा किया और वासुदेव के प्राण लौट आये। घबराहट दूर हुई। सिर को हाथ से दबाते हुए ग्रांखें नीचे किये बोला, "तुम क्या सोचती हो?"
"कभी-कभी इसे सच समझने लगती हूँ।"
"नदी किनारे लाकर आपने अतृप्त मारना चाहा । 'प्रोह !"वासुदेव ने अखें ऊपर उठाई।
"वरना यह उपेक्षा यह मौन "सुना है आपने यह विवाह भी घर बालों के विवश करने पर किया ।"
यह तुमसे किसने कहा?" वासुदेव ने पाश्चर्य प्रगट करते हुए
____ "आपकी बड़ी बहन ने कहती थीं कि कदाचित् यही कारण मुझसे
आपके रूखे व्यवहार का है।"
"माधुरी! कुछ ऐसी विवशताएँ भी होती हैं, जिन्हें जबान तक नहीं लाया जा सकता।"
"वह कौन सी ऐसी बात है जो कि आप मुझ से नहीं कह सकते ?" "समय आने पर कह दूंगा,"-वह यह कहकर उठा और झील के किनारे टहलने लगा। माधुरी भी उसके साथ-साथ पांच से पाँव मिलाकर बढ़ने लगी। वह सोचने लगी- उसके पति का मन भी इस झील के समान गहरा है कि यत्न करने पर भी वह उसकी थाह नहीं पा सकती। ___ बासुदेव अपने में खोया धीरे-धीरे बढ़ता रहा । उसे पता भी न चला कि माधुरी कब पीछे रह गई और वापस लौट गई । माधुरी की बातों ने आज उसे असाधारण बेचैन कर दिया था।
एकाएक उसे कुछ बिचार पाया और बह रुक गया। उसने मुड़कर देखा माधुरी वहाँ न थी। फैली हुई चाँदनी में दूर तक उसने दृष्टि दौड़ाई पर वह कहीं न थी। न जाने कब वह उससे अलग होकर लौट गई। ____ जब वह लौटा तो माधुरी अपने शयन-गृह में पलंग पर नौंधी लेटी सिसकियाँ ले-लेकर रो रही थी। वासुदेव ने उसे देखा और असावधानी से अपना कोट उतारते हुए गंगा को पुकारा । माधुरी उसका स्वर सुनकर और सिमटकर गठरी सी बन गई। उसके रोने का धीमा स्वर निरन्तर सुनाई पड़ रहा था। गंगा भीतर आई, तो वासुदेव ने उसे खाना लगाने को कहा । गंगा लौट गई, और वह माधुरी के समीप या ठहरा। वह रो रही थी। वासुदेव दुविधा में पड़ गया, उसे कैसे और क्योंकर चुप कराये ? फिर धीरे-धीरे अपने हाथों से उसकी पीठ सहलाने लगा और बोला, "माधुरी ! उठो, और खाना खा लो।"
माधुरी मौन रही भौर औंधी लेटी रोती रही । वासुदेव ने फिर उसे उठने को कहा, परन्तु उसे कोई उत्तर न मिला । इतने में गंगा के आने की आहट हुई, बोली, "सरकार ! उठिये, खाना लगा दिया है।" _ "रहने दो गंगा ! मुझे भूख नहीं है,"-कुछ क्षण रुककर वासुदेव ने कहा और उठकर दूसरे कमरे में चला गया। ___ माधुरी ने वासुदेव को यह कहते सुना । फिर उसके पाँव की आहट भी सुनी, जो कि उसके कमरे को छोड़ जाने की सूचना दे रही थी। उसने सिर उठाया और अपने पति को जाते देखा। वह उसे रोकना चाहती थी पर अब तीर छूट चुका था। जैसे ही उसने दूसरे कमरे के किवाड़ बन्द होने का शब्द सुना, वह फिर ज़ोर-जोर से रोने लगी।
___ गंगा ने उसे यूनिढाल होते देखा तो उसके निकट आ गई। धीरे से वह माधुरी को उठाने का प्रयत्न करने लगी। माधुरी बहुत पीड़ित थी। गंगा का सहारा मिलते ही, उसकी गोद में सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी और प्रशान्त मन का सारा गुवार यू' धोने लगी।
"गंगा!" "हाँ, बीबीजी!" "साहब ने अभी तक नाश्ता नहीं किया क्या ?" "नहीं ! वह तो प्रातः ही चले गये।"
कहाँ...?" माधुरी चकित हो बोली।
"झील के उस पार---कहते थे आज उनका कोई मित्र पा रहा है। वह उसे लेने गए हैं।"
"कल तो उन्होंने इसका कोई संकेत तक भी नहीं किया।"
"कदाचित् भूल गये हों...","-और गंगा कमरे की झाइ-पोंछ में व्यस्त हो गई। माधुरी चुपचाप किसी सोच में डूब गई। यह गुमसुम सी 'खिड़की का किवाड़ खोलकर बैठ गई। सामने ही झील का विस्तृत जल फैला हुआ था। उसकी दृष्टि उसको पार करती उसके दूसरीमोर जा पहुँची, जहाँ छोटा सा रेलवे स्टेशन था। उस गाँव में प्रत्येक पाने वाले को वहीं उतरना पड़ता था। आज उसके पति अपने मित्र को उसी स्टेशन पर लेने गये थे। वहां से इस गाँव में पाने का एक ही मार्ग था--- दह नाव द्वारा।
वह कल पति से बिगड़ गई। अब वह पछताने लगी, 'शायद इसी कारण वह उस अतिथि के विषय में कुछ कह नहीं सके और प्रातः ही चले गये।' माधुरी ने झील के ऊपर उड़ते पक्षियों को देखा। उसकी धमनियों में फिर से लहू दौड़ने लगा और उसने अपनी थकी हुई बोझल आँखों में नवजीवन सा अनुभव किया ! वह तुरन्त उठी और गंगा को पुकारा, "गा ! तुम शीघ्र सफाई कर डालो, मैं नाश्ता बनाती हूँ।"
यह कहकर वह सोईघर में चली गई। आज वह स्वयं अपने हाथों अपने पति और माने बाने अतिथि के लिए नाश्ता बनायेगी। उसे विश्वास था कि जब उसके पति अतिथि के साथ घर पहुंचेंगे, तो वह रात की सब बात भूल जायेंगे और उसका परिचय कराते समय यूकहेंगे-- ____ 'यह है माधुरी, मेरा जीवन, जिसके प्राश्रय पर मैं इस उजाड़ में भी स्वर्ग का प्रानन्द ले रहा हूँ।' वह कल्पना में ऐसे कई चित्र बनाती रही। थोडे-थोड़े समय पश्चात् वह उठकर झील की ओर देखने लगती और उन्हें आता न देखकर निराश सी हो जाती । किसी भय से उसका मन धड़कने भी लग जाता, किन्तु उस भय को वह समझ न पाती। एकाएक गंगा भागती हुई आई और बोली-"वह पा गये"मा गये.."
"किधर !" "नाव पर..."
वह भागकर बरामदे में आ गई और झील को देखने लगी। दूर एक नाव उसी और बढ़ी चली आ रही थी । दूरी के कारण वह पहचान तो नहीं पाई, किन्तु उसको विश्वास था, उसके पति ही हैं और अकेले नहीं, संग में कोई और भी था।
गंगा को रसोईघर में खड़ा करके वह झट अपने कमरे में गई और उसने फिर खिड़की से झांककर देखा, वह नाव निरन्तर बढ़ी चली आ रही थी । भय और प्रसन्नता-दोनों भावनायें उसके मन पर अधिकार किये थीं। उसका हृदय धक-धक करने लगा। दर्पण में उसने अपनी छवि देखी-बिखरे बाल''उलझी सूरत-वह स्वयं अपने पर झंझला उठी। उसने शीघ्र कंघी की, बाल संवारे और अल्मारी से हल्के गुलाबी रंग की साड़ी निकालकर पहनी। एक हाथ में उसी रंग की चूड़ियाँ और जूड़े में गुलाबी रंग का रेशमी रूमाल बाँधकर-बन-सँवरकर तैयार हो गई। यह सब उसने पलक झपकने की सी देर में कर डाला । वह किसी अतिथि पर यह प्रगट न होने देना चाहती थी कि उनके मध्य कोई खिचाव रहता है अथवा उनका दाम्पत्य जीवन किसी विषाद की कड़ी से सदा जकड़ा रहता है। उसने किवाड़ की ओट से नीचे झांका । नाव झील के किनारे लग चुकी थी और वे नीचे उतर चुके थे । चौकीदार नाव में से सामान उतार रहा था। उसके मन की धड़कन तीव्र हो गई। . उसने आगन्तुक को देखने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे देख न पाई । ज्यों ही उसके पति ने अपना घर दिखाने के लिए खिड़की की ओर संकेत किया, वह वहां से हटकर दीवार से लग गई और अधीरता से उनके पाने की प्रतीक्षा करने लगी।
नीचे कुछ शोर हुआ"नौकरों की भाग-दौड़ हुई और गंगा भागी भागी भीतर आई। उसने स्वामी के आने की सूचना दे दी। माधुरी के कान तब से उधर ही लगे थे। वह आने वालों की पद-चाप सुनने लगी। गोल कमरे के बाहर से स्वर सुन पड़ा, "गंगा ! माधुरी कहाँ है ?" वह चौंककर संभली । वह साथ वाले कमरे में पहुँच चुके थे । वह कुछ निर्णय भी न कर पाई थी-वहीं रहे अथवा स्वागत को बाहर जाये कि वासुदेव पर्दा उठाकर भीतर आया। माधुरी को क्षण भर देखता ही रह गया। वह प्रातः ही इन गुलाबी कपड़ों में बड़ी भली और प्यारी लग रही थी। वह मुस्करा उठा और हाथ में पकड़ा फूल उसकी ओर फेंका । माधुरी ने संकोच से दृष्टि झुका ली। वासुदेव ने अपना कोट उसको थमाते हुए
"बाहर कोई अतिथि प्राया है।"
"आपने कल तो नहीं बताया ?"
"तुमने इसका अवसर ही कब दिया ?" .
वह मौन रही, और उसका कोट खूटी पर टांगने लगी। वासुदेव बोला, "उसके लिए किसी कष्ट की आवश्यकता नहीं "घर का ही व्यक्ति है ."हाँ, लम्बी यात्रा से आया है, गंगा से कहो उसके नहाने का प्रबन्ध कर दे.''वह मेरे ही कमरे में ठहरेगा,"--यह कह कर वह कपड़े बदलने लगा। माधुरी अतिथि के खाने और आराम का प्रबन्ध करने के लिए बाहर चली गई।
अभी उसने गोल कमरे में पांव रखा ही था कि आने वाले व्यक्ति को देखकर रुक गई। वह उसकी ओर पीठ किये खिड़की से बाहर झील का दृश्य देख रहा था। सिग्रेट के धुएं से कमरे में तम्बाकू की बास भर गई थी। माधुरी दवै पाँव बाहर जाने के लिए बढ़ी। अतिथि ने उसके पाँव की चाप सुनली, किन्तु मुड़कर नहीं देखा और सिग्रेट का धुओं छोड़ते हुए बोला, "वासुदेव ! यह गाँव नहीं स्वर्ग है । यदि मैं पहले जानता कि यह स्थान इतना सुन्दर है तो कभी का तुम्हारे पास मा गया होता।" ___
_ माधुरी ने सोचा कि वह कोई उत्तर दे दे, किन्तु उसके होंट न हिल सके। अतिथि उसे ही वासुदेव समझ रहा था। जब कुछ देर तक उसने कोई उत्तर न दिया तो प्रतिथि शीघ्रता से मुड़ा । दोनों की आंखें मिली और उसकी उंगलियों से जलता हुआ सिग्रेट फर्श पर गिर पड़ा। माधुरी की प्राखें संकोच से झुक गई और वह भाट से बाहर जाने लगी कि वासुदेव दूसरे कमरे से निकाल लाया । माधुरी वहीं खड़ी की खड़ी उसे देखती रही । वासुदेव ने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा और अतिथि से सम्बो धित हो बोला, "राजेन्द्र ! यह है मेरी माधुरी' 'मेरा जीवन जिसके सहारे मैं इस उजाड़ को भी स्वर्ग बनाये बैठा हूँ।"
राजेन्द्र ने धीरे से हाथ जोड़कर अभिवादन किया। माधुरी ने कम्पित होंटों से उसका उत्तर दिया और शीघ्रता से बाहर चली गई। जाते हुए उसने राजेन्द्र के यह शब्द सुने जो वह उसके पति से कह रहा । था-'वासुदेव बड़े भाग्यवान हो जो इतना अच्छा जीवन-साथी मिला है।'
यह बात माधुरी ने पर्दे की प्रोट में खड़े होकर सुनी। जब भीतर मौन छा गया तो उसने अोट में से एक बार ध्यानपूर्वक फिर नये अतिथि को देखा बिल्कुल वही मूरत थी जानी पहचानी सी'"उसने देखा वह भी सिग्रेट का धुआँ छोड़ता हुमा कुछ सोच रहा था "कदानिन् उसी के विषय में । ___बड़ा विचित्र संयोग था "राजेन्द्र, वही राजेन्द्र उसके पति का मित्र था कालेज में वह उसका सहपाठी था। दोनों ने इवाही बी० ए० की परीक्षा दी थी "वह सफल हो गई और राजेन्द्र असफल रहा । दोनों को एक दूसरे से कितना प्रेम था और दोनों ने आजीवन एक दूसरे का जीवन-संगी बनने का प्रण भी किया था किन्तु, परिस्थिति जीवन की योजनाओं को क्षणभर में बदल देती है. 'बड़े-बड़े निर्णय घरे के घरे रह जाते हैं।
राजेन्द्र बी० ए० में असफल होते ही सेना में भरती हो गया। युद्ध का समय था और उसे शीघ्र ही ब्रह्मा की सीमा पर भेज दिया गया । अखि से दूर हुए""प्रण भी ढीला पड़ गया। इसमें उसका क्या दोष था ! जात पात और बिरादरी के नाते घर वालों को यह सम्बन्ध अच्छा न लगा और उन्होंने माधुरी के लिए नये घरानों की खोज प्रारम्भ कर दी। माधुरी को भी विवश होकर माता-पिता की प्राज्ञा के सामने झुकना ही पड़ा।
इन्हीं दिनों उसकी भेंट वासुदेव से कराई गई। यह चुनाव उसकी बहन का था। नाते में वह माधुरी के जीजा का चचेरा भाई था और सेना में अफसर था । वासुदेव जचता हुमा सुन्दर युवक था। उसके पाच रण, स्वभाव और शिष्ट व्यवहार पर माधुरी भी मोहित हो गई और उसने स्वीकृति दे दी।