काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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adeswal
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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"सामने जंगल में हिरन का शिकार करने ।" राजेन्द्र ने दूर जंगल की ओर संकेत करते हुए उत्तर दिया। ___हूँ..." वह नाक चढ़ाते बोली, “वास्तविकता को छोड़कर कल्पना के स्वर्ण-मृग के पीछे भागते फिरते हैं ।"

"चलो, इसी बहाने हमारा मिलन तो हो जाता है।"

"ऐसा मिलन भी क्या जो मन को एक धड़ का सा लगा रहे..., हर आहट में एक घबराहट छिपी हो।"

"ठीक है माधुरी! किन्तु, बिल्कुल आजाद जीवन में भी कोई आनन्द नहीं"हल्का-हल्का उर ही तो प्रसन्नता को बढ़ाता है।"

"छोड़िये इस वाद-विवाद को मैं तो थककर चूर हो गई,"--- उसने घोड़े को बिल्कुल पास लाते हुए कहा ।

'अभी तो प्रारम्भ ही है और तुम थक गई..."आगे चलकर क्या होगा?" ,

- "प्रारम्भ तो जीवन की दौड़ का है. मैं घोड़ा दौड़ाने की बात कर

"मोह ! मैं समझा तुम प्रेम से थक गई हो. 'अच्छा, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"

"किसकी ?"

"तुम्हारे पतिदेव की।" राजेन्द्र ने 'पति' के शब्द को चबाकर बोलते हुए कहा । उसे यूअनुभव हुआ कि यह शब्द माधुरी को काँटे के समान लगा हो । कुछ देर दोनों चुप रहे और फिर राजेन्द्र बोला- .
"तुम्हारे शिकारी-पति पर बड़ा तरस आता है।"

"क्यों ?"

"स्वयं शिकार के पीछे चला गया है और अपना 'धन' यहाँ छोड़ गया है।"

"आप पर भरोसा जो है।"

"हाँ ! जानती हो, क्या आदेश दे गया है ?"

"क्या?"

"मेरी माधुरी अकेले में डर न जाये "उसके साथ रहना।"

. "इसीलिए आप मुझे अकेला छोड़कर भाग जाना चाहते थे।" ..

"चाहता तो नहीं किन्तु होगा ऐसा ही।"

"तो शाप मुझे छोड़ जायेंगे ?"

"माधुरी ! न जाने क्यों, कुछ ऐसे ही विचार पाते हैं..." ....

क्या ?"

"कि मैं कोई महा पाप कर रहा हूँ.."जो मित्र मुझ पर इतना विश्वास करता है उसी का विश्वासघात कर रहा हूँ... उसी के यहाँ चोरी कर रहा हूँ।" ... माधुरी ने उसकी बात सुनी और तीव्र दृष्टि से उसे देखा । वह आगे कुछ और कहना चाहता था, किन्तु माधुरी घोड़े को पगडंडी पर डालकर आगे बढ़ गई । कुछ देर चुपचाप खड़ा वह उसे जाते हुए देखता रहा और जब वह पेड़ों में प्रोझल हो गई, तो धीमी चाल से उसने भी घोड़ा पगडंडी पर डाल दिया।

वातावरण में एक चीख ग*जी । घोड़े पर बैठा राजेन्द्र सिर से पाँव तक कीप गया और तेजी से उसी ओर बढ़ा जिधर माधुरी गई थी । उसको चीख अभी तक उसके कानों में गज रही थी । न जाने अचानक उसे क्या हो गया था।

कुछ दूर उसने माधुरी के घोड़े को खड़े हुए देखा ! माधुरी नीचे धरती पर बेसुध पड़ी थी। सोच ही रहा था कि उसके गिरने का क्या कारण हो सकता है कि उसकी दृष्टि थोड़ी दूर पर एक पेड़ के तने पर पड़ी, जहाँ एक लम्बा साँप रेंगता हुआ ऊपर चढ़ रहा था।..

राजेन्द्र शीघ्रता से नीचे उतरा और माधुरी का सिर हाथों में थाम कर उसे पुकारने लगा। जब पुकारने पर वह सुध में न आई तो उसने उसे बांहों में उठा लिया। इस विचार से कि कहीं वह सांप के काटे से बेसुध न हो गई हो, उसने उसे अपने आगे घोड़े पर डाला और सरपट घोड़ा दौड़ाता पर की ओर मुड़ा। माधुरी का घोड़ा भी उसके पीछे पीछे भागता चला पाया।

घर पहुँचने पर भी वह सुध में न आई । राजेन्द्र ने उसे गंगा की सहायता से नीचे उतारा और उसके कमरे में लाकर पलंग पर लिटा दिया। गंगा को उसने पानी लाने के लिये भेजा और स्वयं उसकी बाहों को टटोलकर साँप काटे का निशान देखने लगा ! साड़ी का घेरा खिसका कर उसने पाँव और पिंडलियों को भी छूकर ध्यानपूर्वक देखा, किन्तु उसे साँप काटे का कोई चिन्ह दिखाई न दिया। उसके शरीर को निहारते हुए उसे कुछ संकोच हुआ ! उसके सिर को दोनों हाथों से झंझोड़ते हुए अपना मुंह उसके कान के पास ले जाते हुए उसने फिर पुकारा, "माधुरी .""माधुरी!"

एकाएक माधुरी के हाथ उठे और उसके गले में पड़ गये। उसकी आँखें अभी तक बन्द थीं। राजेन्द्र घबरा सा गया और हड़बडाकर उसकी ओर देखने लगा। माधुरी ने बाहों की जकड़ और कड़ी कर ली और आँखें खोलकर मुस्कराने लगी।

"तो क्या तुम...?"

"बेसुध थी. "पापके शरीर के स्पर्श से सुध में प्रा गई।"

"झूठ "तुम मुझे बनाती रहीं।"

"यदि ऐसा न करती तो आपका हृदय कैसे पिघलता और इतनी दूर से मुझे उठाकर कौन लाता ?"."

"तो तुम मेरी परीक्षा ले रही थी ?"

"प्रेम में कुछ ऐसी ही परीक्षाएं आती रहती हैं।" . .

"मैं तो समझा था कि तुम्हें साँप..."
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"मैं तो समझा था कि तुम्हें साँप..."

"काट जाता तो अच्छा था यह हर दिन का झगड़ा तो मिट जाता।"

"कैसा झगड़ा?"

"आपकी चिन्ता "उनका क्रोध और अपने मन की पीड़ा न जाने इसका अन्त क्या होगा ?"

"हाँ, न जाने ..

शब्द अभी राजेन्द्र के मुह में ही थे कि द्वार पर आहट हुई और वह झट अलग हो गये । माधुरी फिर प्रांखें मूंदकर बेसुध हो गई । राजेन्द्र ने मुड़कर देखा, गंगा पानी का गिलास लिये भीतर आ रही थी।

राजेन्द्र ने गंगा के हाथ से गिलास ले लिया और माधुरी के मुख पर पानी के छींटे मारने लगा। माधुरी ने धीरे-धीरे आँखें खोल दी।

और गंगा की ओर यू देखने लगी, जैसे उसे पहचानने का प्रयत्न कर रही हो। राजेन्द्र ने पानी का गिलास गंगा को लौटा दिया और गर्म चाय
का प्याला लाने को कहा । - __गंगा जब बाहर चली गई तो माधुरी तकिये का सहारा लेकर बैठ गई। पानी के छींटों से उसके मुख पर ताजगी आ गई थी और उसके मुस्कराते हुए होंट तो यू लग रहे थे मानो पोस में नहाकर कोई अध खिली कली खुल रही हो । माधुरी ने उसे तौलिया देने का संकेत किया। उसी समय राजेन्द्र की दृष्टि खिड़की से नीचे ड्योढ़ी में पड़ी । वासुदेव भी लौट आया था और घोड़ा बांध रहा था। क्षण भर के लिये यह भौंचक सा स्थिर उसे खड़ा देखता रहा। माधुरी ने पूछा -- . ..."क्या है ?" . .

"कुछ नहीं.. देख रहा था अभी वासुदेव नहीं लौटा।" "किसी हिरन का पीछा कर रहे होंगे।"

राजेन्द्र उसके पास बैठ गया और स्वयं तौलिये से उसका मुख पौंछने लगा ।.माधुरी ने पलकें बन्द कर ली और उसके स्पर्श का आनन्द उठाने
लगी।

राजेन्द्र के कान वासुदेव के पाँव की चाप पर लगे हुए थे। सांस रोककर वह कांपते हुए हाथों से उसके गाल पोंछ रहा था। उसी समय धीरे-धीरे पीछे से वासुदेव भीतर आया और द्वार पर लगे हुए पर्दे के पीछे छिप गया । राजेन्द्र ने उसे भीतर माते हुए देख लिया था, किन्तु माधुरी पर उसे प्रकट न होने दिया ।

उसके मुख पर दृष्टि टिकाये तौलिये से वह उसका मुंह सुखा रहा था कि सहसा काँपकर रह गया । माधुरी ने उसकी कम्पन को अनुभव किया और झट उसकी कलाई थामते हुए पूछा----
"क्या हुमा ?"

"अनजाने में तुम्हारे माथे की बिंदिया पौंछ डाली।"

"तो क्या हुग्रा?"

"यह तुम्हारे सुहाग का चिह्न था।" . .. . ...

"सुहाग ! तुम इसे सुहाग कहते हो? मुझ से पूछो 'निरन्तर तीन वर्षों से यह सुहाग भीगी रातों में अंगारों पर जलता है'चाँदनी में सिर पटककर तड़पता है, तारों की छाया में मन मसोसकर लोटता है... ऐसे सुहाग का तो मिट जाना ही अच्छा है ...राजी...! सच पूछो यह माँग अब भी खाली है."यह माथा इस चाह में है कि इस पर सुहाग का चिह्न हो "यह अंग-अंग एक सहारे का इच्छुक है "क्या तुम सहारा न दोगे "क्या तुम स्वयं अपने हाथों से यह बिदिया न लगाओगे' 'यह माँग न भरोगे?"

राजेन्द्र सुनता रहा और वह कहती रही पागल सी होकर वह अपने आप को भूले जा रही थी। राजेन्द्र ने देखा पर्दा हिल रहा था। उसने माधुरी के मुंह पर हाथ रखकर उसका बोलना बंद कर दिया और उसे दोनों हाथों से पकड़कर ठीक प्रकार से बिठाते हुए बोला, "देखो ! गंगा चाय लाई है "दो बूंट पी लो "अभी ठीक हो जाअोगी।" ..

मंगा को देखकर माधुरी ने शरीर को ढीला छोड़ दिया। राजेन्द्र गंगा को उसे चाय देने का संकेत करके बाहर चला गया । माधुरी विस्मय से उसे देखने लगी।
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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पर्दा अभी तक हिल रहा था। वासुदेव पीठ किये गोल कमरे की ओर जा रहा था। राजेन्द्र ने उसे मुड़ते हुए देख लिया था । कुछ क्षण तक वह बाहर निकल कर खड़ा सोचता रहा और फिर उसके पीछे-पीछे गोल कमरे की ओर चला गया। वह माधरी के प्यार की भाँकी दिखाकर उसके मन की प्रतिक्रिया देखना चाहता था। ____ कमरे में प्राह्ट हुई और वासुदेव ने तेजी से मुड़कर देखा । नौखट का सहारा लिये राजेन्द्र उसकी ओर देख रहा था। वासुदेव के मुख पर हल्का सा दुख और क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने मुंह फेरकर भरे हुए स्वर में रुकते-रुकते पूछा, "गंगा कह रही थी 'माधुरी को सौंप ने काट खाया है ?"

"उसे तो नहीं काट खाया. किन्तु तुम्हारे मन में अवश्य डंक लगा

"राजी!" वह तमतमाकर चिल्लाया और मुड़कर उसे देखने लगा। राजेन्द्र शान्त खड़ा मुस्करा रहा था। मित्र को क्रोध में देखकर वह बोला ___"मैं न कहता था कि जो मुझसे मांगा है उसे देख न सकोगे 'अब भी मुझे जाने दो और मुझे यह विचित्र नाटक खेलने पर विवशन करो।"

"नहीं राजी ! ऐसी बात नहीं."मन ही तो ठहरा, लाख संभालने पर भी भर पाता है-अब ऐसा न होगा।"

थोड़ी देर दोनों एक दूसरे को देखते रहे और फिर वासुदेव ने पूछा, - "अब वह कैसी है ?"

चिन्ता न करो'"साँप डसना केवल एक बहाना था-"

"तो...?"

प्रेम का नाटक...".-राजेन्द्र ने धीरे से कहा और उसकी पीठ ठोंकते हुए अपने कमरे में चला गया। वासुदेव अवाक् मूर्ति बना वहीं
खड़ा रहा ।

आकाश घटाटोप हो रहा था। हवा बंद थी, पत्ता तक न हिलता था और सर्वत्र एक सन्नाटा था। राजेन्द्र की आँखों में नींद न थी। उसकी सांस घुटी जा रही थी और वह बेचैनी से रह-रहकर करवटें बदल रहा था। - काली भयानक रात किसी पाने वाले तूफान की प्रतीक थी। उसकी आँखों के सामने वासुदेव का मुख फिर गया "वह कितना दुखी था." वह पर्दे के पीछे छिपा अपनी पत्नी को दूसरे से प्यार करते देखता रहा और हिला नहीं. विष के बूंट पी गया कितना धैर्य है उसमें वह उसके स्थान पर होता तो अवश्य सामने आकर कुछ कर बैठता "वह अनोखा पति था, जो जान-बूझकर अपने आप को कुएँ मैं धकेल रहा था । ""यह कैसी आत्महत्या है उसी समय उसे वासुदेव के यह शब्द याद आये, 'राजी! तुम्हारा मुझ पर यह बड़ा भारी उपकार होगा. मैं नहीं चाहता कि वह किसी और के साथ भाग जाये और लोग मेरी हँसी उड़ायें ... मेरा अपमान करें'''इससे तो अच्छा होगा कि वह तुम्हारी हो रहे ""मुझे प्रसन्नता ही होगी। यह विचार आते ही यह तड़प गया." प्राज वह बेबस था और इसीलिये अपनी पत्नी से डरता था वरना जो व्यक्ति एक मस्त घोहे को वश में ला सकता है, वह क्या पत्नी पर अधि कार नहीं पा सकता"परन्तु नहीं, यह कैसा विचार है "वह सच कहता है, प्रेम एक ढोंग है जिसका आधार केवल वासना पर है वह उसकी वासना-पूर्ति नहीं कर सकता, वरना ऐसे पवित्र-हृदय व्यक्ति को माधुरी कभी धोखा न दे सकती। इन विचारों से उसे उलझन होने लगी । तकिये के नीचे से उसने सिग्रेट की डिबिया निकाली और सुलगाकर पीने लगा। उसने खिड़की का पर्दा हटा दिया।

एकाएक उसे यू लगा जैसे कोई द्वार पर खड़ा उसे भीतर धकेलने का प्रयत्न कर रहा हो । पहले तो उसने कोई ध्यान न दिया, किन्तु फिर जब किसी ने किवाड़ खटखटाया तो वह उठकर खड़ा हो गया। दबे स्वर में किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा । यह माधुरी की आवाज थी जो उसे किवाड़ खोलने के लिये कह रही थी। - राजेन्द्र ने बत्ती जलानी चाही, किन्तु फिर कुछ सोचकर रुक गया। कुछ देर खड़ा सुनता रहा और फिर उसने चिटखनी खोल दी । किवाड़ खुला और माधुरी भीतर आई। इससे पूर्व कि राजेन्द्र उस पर कोई प्रश्न करता, उसने तेजी से मुड़ते हुए किवाड़ बन्द कर दिया। कमरे में फिर मौन सा छा गया और दोनों घबराये से एक दूसरे को देखने लगे।

"क्यों, कुशल तो हो?" राजेन्द्र ने साश्चर्य पूछा।

"जी""यूही चली आई।"

"यू ही चली आई ?" राजेन्द्र ने उसका उत्त र दोहराया।

"जी ! आप ही ने तो कहा था, प्रेम में कभी बड़े साहस से काम लेना पड़ता है।"

'किन्तु, इतनी अधीरता से नहीं।" ___

"अधीरता..? तड़-तड़पकर जल मरने को तुम धैर्य कहते हो "यही ना..?"

___ "उसका उत्तर सुनकर राजेन्द्र चुप रहा । उसने अंधेरे में उसकी आँखों में एक विशेष चमक देखी ''गुलाबी रंग की चमक, जो मनो
भावना के बहुत उभरने पर ही उत्पन्न होती है। उसने धीरे से पूछा
"वासुदेव कहाँ है ?"

“सो रहा है 'आनन्द की नींद ।”

"श्रोह !" उखड़े हुए सांस में उसने कहा और माधुरी की अधखुली आँखों में झाँकते हुए उसकी भरी-भरी नर्म बाँहों को हाथों में संभाला जो उसको अपनी लपेट में ले लेने के लिये व्याकुल हो रही थी । वह असमंजस में था कि इस बढ़ते हुए तुफान को किस प्रकार रोके।

- उसने अपने मन की दशा माधुरी पर प्रकट न होने दी और उसके शरीर को अपनी बाँहों में संभालते हुए बोला, "बड़ी गर्मी है. किवाड़ खोल दूं।" ___

"ॐ हूँ!" माधुरी ने उस से अलग हटकर खिड़की भी बन्द कर दी। राजेन्द्र का मन भीतर ही कांप सा गया। वह किवाड़ के साथ लगकर खड़ा हो गया । उसका मन एक विचित्र दुविधा में था। बाढ़ सब बाँध तोड़ चुकी थी। उसे रोकना व्यर्थ था और उसमें डूब जाना निर्लज्जता थी। उसको समझ में कुछ न पा रहा था कि वह क्या करे। माधुरी उसके पलंग पर लेट गई ।

राजेन्द्र ने बाहर का किवाड़ खोलकर अंधेरे में झांककर देखा । दूर दीवार से लगी उसे एक छाया सी चलती हुई दिखाई दी। उसका अनुमान ठीक ही था। वह वासुदेव था, जो माधुरी का पीछा करते हुए उसी ओर पा रहा था।

राजेन्द्र के मन को प्राघात सा लगा। उसने झट किवाड़ बन्द कर दिया और उसके साथ लगकर बाहर की आहट सुनने लगा। वह जानता था कि इतना कुछ कहने पर भी वासुदेव अवश्य उसका पीछा करेगा। पति चाहे कितना ही बेबस और निर्लज्ज अथवा उदार-हृदय क्यों न हो, अपनी आँखों से यह सहन करना सहल नहीं।

"कोई है क्या ?" माधुरी ने उसे किवाड़ से यू लगे देख, धड़ उठा कर पूछा।

"कोई नहीं. केवल भ्रम ।” राजेन्द्र ने होंटों को दबाते हुए उत्तर दिया। __

_वह सांत्वना की साँस लेकर फिर लेट गई। राजेन्द्र उसकी बेकली को ठीक अनुभव कर रहा था। वह धीरे-धीरे उसके पास गया और बिखरे हए बालों को समेटने लगा। उसके कान बाहर ही लगे हुए थे। वह फिर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ और वासुदेव के पैरों की आहट सुनने लगा, जो खिड़की के पास आकर बन्द हो गई थी । उसे विश्वास हो गया कि वह खिड़की के साथ लगकर उनकी बातें सुन रहा है। घबराहट में वह अपने हाथों को उँगलियाँ तोड़ने लगा।


एकाएक उसके शरीर को एक धक्का सा लगा और वह काँप गया । जब सँभला तो उसने माधुरी को पीठ से लगी पाया। उसकी नर्म और भरी हई बाँहें पीछे से उसके वक्ष पर पहुँच गई थीं। राजेन्द्र ने उसे हटाया नहीं और उसके हाथों को अपनी हथेलियों में लेकर खड़ा रहा। उसके नर्म और गर्म शरीर के स्पर्श से उसके अस्थिर मन को एक शान्ति सी मिली।

"राजी !" माधुरी ने लम्बी साँस खींचते हुए धीरे से कहा।

"यूखड़े क्या सोच रहे हो ?"

“सोच रहा हूँ कि नदी बढ़ी आ रही है, मैं प्यासा हूँ''

'बढ़ने का साहस नहीं.

"पाँव रुक-रुक जाते हैं।" ___
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