कालिज के समय में वह माधुरी से प्रेम करता था, हार्दिक प्रेम... वह इन पाँच वर्षों में उसे बिल्कुल भुला भी न सका था और अब अकस्मात् उनकी फिर भेंट हो गई, वह उसकी दशा देखकर तड़प गया
"हृदय में फिर प्रेम ने अंगड़ाई ली।
जब वह गुफा से बाहर निकला तो माधुरी वासुदेव के पास बैठी बातें कर रही थी। वासुदेव के मुख पर दुख झलक रहा था और वह उसके बालों से खेल रहा था। राजेन्द्र दूर से खड़ा उन्हें देखता रहा । यह विचित्र पहेली उसकी बुद्धि में न पा रही थी।
बाहर निरन्तर वर्षा हो रही थी।
"मालिक"
"मालिक...!"
घर भर एक चीख से गूंज उठा । अभी पौ फटी ही थी कि निस्तब्धता को चीरती हुई यह पुकार वासुदेव के कानों में पहुँची । वह हड़बड़ाकर बिस्तर से उठा और बाहर की ओर लपका।
गंगा चिल्लाती हुई उसी की अोर आ रही थी, "कोचवान कोचवान को बचाइये..!"
"क्या हुआ ?"
"घोड़े ने उसे मुंह में ले लिया है।"
वासुदेव ने झट दीवार पर टॅगी चाबुक उतारी और नीचे भागा । घर के शेष व्यक्ति भी जागकर बाहर निकल आये थे । माधुरी द्वार पर खड़ी गंगा से पूछ रही थी। साथ के कमरे से राजेन्द्र निकल पाया और बोला, "क्या हुया ?"
"घोड़े ने कोचबान को दबोच लिया है. "वह गये हैं ... जाइये... देखिए 'कहीं..."
बात माधुरी की जुबान पर ही थी कि राजेन्द्र नीचे भागा। माधुरी और गंगा भी उसके पीछे नीचे उतर गई।
जब वासुदेव नीचे पहुँचा तो घोडा मस्त और बिफरा हुग्रा बिल बिला रहा था। उसके मुंह से झाग निकल रहा था और उसने कोच वान को पेट से पकड़कर मुंह में ले रखा था। वासुदेव ने जोर से घोड़े को ललकारा और आगे बढ़कर उस पर चाबुक बरसाने लगा। कोचवान की चिल्लाहट, घोड़े की हिनहिनाहट और तडातड़ चाबुक की आवाज से वातावरण काँप गया । घोड़े ने अब भी कोचवान को न छोहा । वासुदेव चाबुक लिए उसके और समीप जा पहुँचा । माधुरी और राजेन्द्र ने उसे रोकना चाहा किन्तु वह न रुका । पास पहुँचकर उसने जमीन पर रखी रस्सी उसकी गर्दन में डालकर जोर से भटका दिया और कोचवान का शरीर उसके मुंह से छूट कर धरती पर आ गिरा । घोड़ा टाँगों पर उछल कर ज़ोर से हिनहिनाया और यू लगा मानो अभी वह वासुदेव पर झपटा। माधुरी की डर से चीख निकल गई किन्तु घोड़े को वासुदेव ने बस में कर लिया था। वह अभी तक उस पर चाबुकें बरसा रहा था।
राजेन्द्र और गंगा ने बढ़कर कोचवान को उठा लिया। उसका शरीर लहू से लथपथ हो रहा था। घोड़े के दांत उसके पेट में घुसकर गहरा घाव कर गये थे। चौकीदार और आस-पास के दो-चार और व्यक्ति भी पा गये थे और उन्होने मिलकर घोड़े को रस्सों से बांध दिया।
वासुदेव पसीना-पसीना हो रहा था । अाज जिस क्रोध और आवेश में उसने चाबुक चलाई थीं उसे देखकर सब परा गये थे। घोड़े के मुंह से अभी तक झाग बह रहा था और उसकी आँखों से शनी निकाल रहा था। चाबुकों के चिह्न उसकी पीठ पर चमक रहे थे । वासुदेव ने एक कड़ी दृष्टि उस पर डाली और कोचवान की ओर देखकर चौकीदार से बोला, "इसे तुरन्त नाद में डालकर पार रेलवे डिस्पेन्सरी में ले चलो.. मैं कुछ देर में कपड़े बदलकर पहुँचता हूँ।"
"यह सब हुमा कैसे ?" राजेन्द्र ने पूछा।
"पशु जो ठहरा''क्या भरोसा ? बेचारा घास डालने को गया और यह आपत्ति सिर आ पड़ी।
"कोई नया था ?"
"नहीं, चार बरस से यही कोचवान है, किन्तु पशु का क्या, उसी को दबोच लिया जो दिन-रात सेवा करता है।"
राजेन्द्र चुप हो गया और सब ऊपर चले श्राए । माधुरी ने गंगा को चाय लाने को कहा और स्वयं वासुदेव के कपड़े निकालने लगी। उसके कान उन दोनों की बातों पर लगे हुए थे।
__ "इतने आवेश से चाबुक बरसाने पर घोड़े को बस में कर ही लिया मुझे अब तक विश्वास नहीं आ रहा।" राजेन्द्र ने बैठते हुए वासुदेव से कहा।
"क्यों ?"
"इतना कोमल, गम्भीर और शान्त स्वभाव व्यक्ति एकाएक इतना कठोर कैसे बन गया?"
स्थिति ही ऐसी थी. ऐसे में तो अनचाहे भी स्वयं रुप्रा-रुमा प्रावेश में आ जाता है।
__ गंगा चाय की ट्रे लेकर आ गई और माधुरी उनके लिये चाय बनाने लगी। इस घटना से वातावरण बड़ा गम्भीर हो गया था और सब सहमे हुए से चुपचाप थे।
चाय पीकर वासुदेव झट कोचवान को देखने के लिये डिस्पैन्सरी जाने के लिए तैयार हो गया। उसे डर था कि कहीं पागल घोड़े का विष उसके लह में न मिल जाये । राजेन्द्र ने भी साथ चलने की इच्छा प्रगट को किन्तु, वासुदेव न उसे यह कहकर रोक दिया, "नहीं, तुम घर पर ही रहो, मैं शीघ्र लौटने का प्रयत्न करूँगा।"
काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA
मेरी नशीली चितवन Running.....मेरी कामुकता का सफ़र Running.....गहरी साजिश Running.....काली घटा/ गुलशन नन्दा ..... तब से अब तक और आगे .....Chudasi (चुदासी ) ....पनौती (थ्रिलर) .....आशा (सामाजिक उपन्यास)complete .....लज़्ज़त का एहसास (मिसेस नादिरा ) चुदने को बेताब पड़ोसन .....आशा...(एक ड्रीमलेडी ).....Tu Hi Tu
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA
वासुदेव चला गया और जब तक वह आँखों से ओझल न हो गया दोनों उसे देखते रहे । कमरे में मौन छा रहा। फिर माधुरी बोली
"पशुओं का पागल हो जाना भी बड़ा भयानक होता है।"
"हाँ, और मानव का पागल होना इससे भी भयानक है।" । टंडी-ठंडी वायु चल रही थी। वह ड्योढ़ी से बाहर निकलकर झील के किनारे आ पहुंचे और लहरों का नृत्य देखने लगे। अभी तक माधुरी के मस्तिष्क पर वही घटना छाई हुई थी।
___राजेन्द्र चलते-चलते रुक गया और हरी दूब के एक टुकड़े पर माधुरी को बैठ जाने को कहा। वह झील के किनारे पर अपने पाँव पानी में डालकर बैट गई । राजेन्द्र की ओर उसकी पीठ थी। दोनों अपने-अपने विचारों में खोये बैठे थे। अन्त में राजेन्द्र ने मौन भंग किया और कहा
"माधुरी ! कहते हैं कि स्त्री, पुरुष की सब से बड़ी दुर्बलता है।"
'पुरुषों की दृष्टि में 'मैं तो समझती हूँ कि इस पाड़ में वह स्त्री को खिलौना बनाकर अपना मन बहलाते हैं, और जब मन भर जाता है तो उसे तोड़-फोड़कर फेंक देते हैं।" माधुरी ने बिना उसकी ओर देखे उत्तर दिया। . "किन्तु, तुम से तो कोई ऐसा बरताव नहीं हुमा ? यह खिलौना अभी तो बहुत सुन्दर है।"
"बस, एक दिन यह भी स्वयं ही टूट जायेगा।"
"माधुरी ! ऐसी बात क्यों करती हो' 'मन दुखी होता है।"
"क्यों ?"
"न जाने यह सहानुभूति क्यों !"
"श्राप बनाने लगे क्या ?"
"क्या तुम ऐसा समझती हो' 'मुझे तुमसे यह पाशा न थी।"
'और आप मुझे भुला देंगे मुझे भी आपसे यह पाशा न थी।"
"ब्याह हो जाने के पश्चात् स्त्री पराई हो जाती है और उससे प्यार किया जाना पाप होता है।"
. "आप तो पाप करने से पूर्व ही प्रायश्चित करने लगे।"
"क्यों?"
"मेरा अभिप्राय था ''इनकी याद आई और मिलने चले आये।"
"तुम्हारे पति तो मेरे मित्र हैं।"
"और मैं शत्रु..'यही ना?"
"नही तो मेरा अभिप्राय था, तुम एक स्त्री हो और यह..."
"क्या स्त्री किसी की मित्र नहीं रह सकती!"
'ब्याह के पश्चात् समाज की दृष्टि में ऐसी मित्रता कुछ अनुचित . सी है।"
"यही कि कुछ और भी?"
"और यह कि स्त्री की मित्रता का क्या विश्वास..."
माधुरी झुंझला उठी और पाँव से पानी के छींटे उड़ाती हुई झट उठकर वापस जाने लगी। राजेन्द्र ने लपककर उसका पल्लू पकड़ लिया। माधुरी ने झटके से पल्लू उससे छुड़ा लिया और तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी।
"पशुओं का पागल हो जाना भी बड़ा भयानक होता है।"
"हाँ, और मानव का पागल होना इससे भी भयानक है।" । टंडी-ठंडी वायु चल रही थी। वह ड्योढ़ी से बाहर निकलकर झील के किनारे आ पहुंचे और लहरों का नृत्य देखने लगे। अभी तक माधुरी के मस्तिष्क पर वही घटना छाई हुई थी।
___राजेन्द्र चलते-चलते रुक गया और हरी दूब के एक टुकड़े पर माधुरी को बैठ जाने को कहा। वह झील के किनारे पर अपने पाँव पानी में डालकर बैट गई । राजेन्द्र की ओर उसकी पीठ थी। दोनों अपने-अपने विचारों में खोये बैठे थे। अन्त में राजेन्द्र ने मौन भंग किया और कहा
"माधुरी ! कहते हैं कि स्त्री, पुरुष की सब से बड़ी दुर्बलता है।"
'पुरुषों की दृष्टि में 'मैं तो समझती हूँ कि इस पाड़ में वह स्त्री को खिलौना बनाकर अपना मन बहलाते हैं, और जब मन भर जाता है तो उसे तोड़-फोड़कर फेंक देते हैं।" माधुरी ने बिना उसकी ओर देखे उत्तर दिया। . "किन्तु, तुम से तो कोई ऐसा बरताव नहीं हुमा ? यह खिलौना अभी तो बहुत सुन्दर है।"
"बस, एक दिन यह भी स्वयं ही टूट जायेगा।"
"माधुरी ! ऐसी बात क्यों करती हो' 'मन दुखी होता है।"
"क्यों ?"
"न जाने यह सहानुभूति क्यों !"
"श्राप बनाने लगे क्या ?"
"क्या तुम ऐसा समझती हो' 'मुझे तुमसे यह पाशा न थी।"
'और आप मुझे भुला देंगे मुझे भी आपसे यह पाशा न थी।"
"ब्याह हो जाने के पश्चात् स्त्री पराई हो जाती है और उससे प्यार किया जाना पाप होता है।"
. "आप तो पाप करने से पूर्व ही प्रायश्चित करने लगे।"
"क्यों?"
"मेरा अभिप्राय था ''इनकी याद आई और मिलने चले आये।"
"तुम्हारे पति तो मेरे मित्र हैं।"
"और मैं शत्रु..'यही ना?"
"नही तो मेरा अभिप्राय था, तुम एक स्त्री हो और यह..."
"क्या स्त्री किसी की मित्र नहीं रह सकती!"
'ब्याह के पश्चात् समाज की दृष्टि में ऐसी मित्रता कुछ अनुचित . सी है।"
"यही कि कुछ और भी?"
"और यह कि स्त्री की मित्रता का क्या विश्वास..."
माधुरी झुंझला उठी और पाँव से पानी के छींटे उड़ाती हुई झट उठकर वापस जाने लगी। राजेन्द्र ने लपककर उसका पल्लू पकड़ लिया। माधुरी ने झटके से पल्लू उससे छुड़ा लिया और तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी।
मेरी नशीली चितवन Running.....मेरी कामुकता का सफ़र Running.....गहरी साजिश Running.....काली घटा/ गुलशन नन्दा ..... तब से अब तक और आगे .....Chudasi (चुदासी ) ....पनौती (थ्रिलर) .....आशा (सामाजिक उपन्यास)complete .....लज़्ज़त का एहसास (मिसेस नादिरा ) चुदने को बेताब पड़ोसन .....आशा...(एक ड्रीमलेडी ).....Tu Hi Tu
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA
"बुरा मान गई क्या ?" राजेन्द्र ने कुछ सोचते हुए नम्र स्वर में पूछा।
"पाप बातें जो ऐसी करने लगे।"
"वह तो मैं हंस रहा था 'माधुरी ! तुम्हें क्या बताऊँ कि इतने समय बाद अकस्मात् तुम्हें यहाँ देखकर मैं कितना प्रसन्न हुआ हूँ !"
"पुरुषों को बनाना खूब प्राता है।"
"क्या करें. स्त्रियां भी तो यही चाहती हैं,"-राजेन्द्र ने मुस्कराते हुए कहा । माधुरी के गम्भीर मुख पर भी मुस्कान खेलने लगी और वह फिर वहीं बैठ गई।
___ इन छोटे-छोटे चुभते हुए वाक्यों में दोनों को प्रानन्द पा रहा था । कालिज में भी वह ऐसे ही एक-दूसरे को छेड़ा करते थे । एक समय के पश्चात् दोनों के मन में एक साथ सोई हुई आकांक्षायें जाग्रत हुई। ___ वासुदेव को गये हुए बड़ा समय हो चुका था। दोनों सब कुछ भुला कर झील के किनारे अतीत को याद करके बातों में व्यस्त थे। वही पुरानी घनिष्ठता लौटती आ रही थी। माधुरी हरी, कोमल दूब पर पेट के बल लेटी एक हाथ से झील के पानी को चीर रही थी और राजेन्द्र पास ही बैठा उसके मदमाते यौवन को निहार रहा था।
झील की लहरों के समान राजेन्द्र के मस्तिष्क में कई विचार उठ रहे थे। वह सोचने चला, 'वासुदेव को माधुरी से प्रेम नहीं और माधुरी के लिये विवाहित जीवन पहाड़ सा बन रहा है। ऐसे में वह फिर माधरी को पाने का प्रयत्न करे तो इसमें बुरा क्या है...! वह दोनों तो एक दूसरे को अब भी वैसे ही चाहते हैं । वह एक-दूसरे को भली प्रकार समझते हैं, इकट्ठ पढ़े हैं, उनके विचार मिलते हैं।'
फिर सहसा उसे यह विचार प्राता कि वासुदेव उसका प्रिय मित्र है वह मित्र से विश्वासघात करे ? उसकी विवाहिता पत्नी के विषय में । सोचे और उसके अपवित्र विचार इस नई लहर से धुल जाते । परन्तु, फिर माधुरी पर दृष्टि पड़ती, उसका सौन्दर्य... उसका अंग-अंग उसे पुकारता हुआ दिखाई पड़ता और फिर वही पहली लहरें चलने लगती... उन दोनों ने मिलकर प्रेम-निर्वाह का प्रण किया था. कल्पना में अपने भावी जीवन के कितने सुन्दर महल बनाये थे ---- उन्होंने एक ही मन से मिलकर प्राज से कितना समय पहले कल्पना में अपने भविष्य का निर्माण किया था जिसमें वसंत ही वसंत होगी, फूल ही फूल होंगे और होगी भीनी भीनी दो साँसों की सुगंध, दो हृदयों का संगीत-किन्तु, समय-चक्र आया और उसे युद्ध पर जाना पड़ा वह अलग हो गये, कल्पना के महल ढह गये और जब वह युद्ध से लौटा तो उसे पता चला कि माधुरी ने व्याह कर लिया है।
- अपने प्रेम का यह अन्त देखकर उसका मन टूट गया. उसका रुपा रुग्राँ पीड़ा से कराहने लगा."उसे संसार से घृणा सी हो गई और उसने कभी ब्याह न करने का प्रण कर लिया बरसों वह इस ज्वाला में जलता रहा । उसने उसे भुला देने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु, वह उसकी छवि को बिल्कुल मन से न मिटा सका" समय बीतता गया और वह शान्त होता गया 'अतीत और माधुरी का विचार उसके लिये इतना कष्टप्रद न रहा। ___ और अकस्मात् जब वह अपने मित्र के यहाँ आया तो बरसों की दबी ज्वाला धधक पड़ी। उसे इस बात का लेश-मात्र भी विचार न था कि वह अपनी प्रेमिका को देख पायेगा, और वह भी इतना निकट से।
माधरी अब उठ बैठी थी और राजेन्द्र उसे एकटक देखे जा रहा था। भाग्य ने उन दोनों को दूर करके फिर मिला दिया था। न जाने कितनी देर बह उसे ही देखता रहता, यदि माधुरी यह प्रश्न न कर देती---
"यह आप मुझे घूर-पूरकर क्रोध से क्यों देख रहे हैं ?"
"क्रोध से नहीं, प्यार से..." ..
"आपका मुख तो कुछ और ही कह रहा है।"
"किसी अन्यायी पर क्रोध आ रहा है ।" .
"किस पर?"
"तुम्हारे पति पर, जो तुम्हें यूं तड़पाकर अतृप्त मार रहा है, जो तुम्हारे यौवन से इतना विमुख है।"
माधुरी के मन को ठेस सी लगी । वह घुटनों में मुंह देकर कुछ सोचने लगी। राजेन्द्र ने देखा कि उसके माथे पर पसीने की बूंदें एकत्र हो गई थीं। कुछ देर यू ही मौन छाया रहा और फिर राजेन्द्र बोला
"माधुरी ! एक बात पूछता हूँ, चतामोगी ?"
"क्या ?"
"वचन दो कि झूठ न कहोमी ।"
"पाप पूछिये तो !"
"क्या तुम अब भी मुझ से प्यार करती हो?"
राजेन्द्र की यह बात सुनकर वह सहसा कॉप सी गई और झट मुंह मोड़कर खड़ी हो गई । अभी वह अपने प्रश्न को दोहरा भी न पाया था कि झील में चप्पुत्रों की ध्वनि सुनकर दोनों एक साथ मुड़े और सामने फैली हुई झील को देखने लगे । दूर उस पार से एक नाव मा रही थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा और माधुरी बोली
"चलिये ! वह आ गये।" ।
दोनों वहाँ से उठकर चोरों की भांति घर में आये और अपने-अपने कमरे में चले गये, मानो घर से बाहर गये ही न थे।
"पाप बातें जो ऐसी करने लगे।"
"वह तो मैं हंस रहा था 'माधुरी ! तुम्हें क्या बताऊँ कि इतने समय बाद अकस्मात् तुम्हें यहाँ देखकर मैं कितना प्रसन्न हुआ हूँ !"
"पुरुषों को बनाना खूब प्राता है।"
"क्या करें. स्त्रियां भी तो यही चाहती हैं,"-राजेन्द्र ने मुस्कराते हुए कहा । माधुरी के गम्भीर मुख पर भी मुस्कान खेलने लगी और वह फिर वहीं बैठ गई।
___ इन छोटे-छोटे चुभते हुए वाक्यों में दोनों को प्रानन्द पा रहा था । कालिज में भी वह ऐसे ही एक-दूसरे को छेड़ा करते थे । एक समय के पश्चात् दोनों के मन में एक साथ सोई हुई आकांक्षायें जाग्रत हुई। ___ वासुदेव को गये हुए बड़ा समय हो चुका था। दोनों सब कुछ भुला कर झील के किनारे अतीत को याद करके बातों में व्यस्त थे। वही पुरानी घनिष्ठता लौटती आ रही थी। माधुरी हरी, कोमल दूब पर पेट के बल लेटी एक हाथ से झील के पानी को चीर रही थी और राजेन्द्र पास ही बैठा उसके मदमाते यौवन को निहार रहा था।
झील की लहरों के समान राजेन्द्र के मस्तिष्क में कई विचार उठ रहे थे। वह सोचने चला, 'वासुदेव को माधुरी से प्रेम नहीं और माधुरी के लिये विवाहित जीवन पहाड़ सा बन रहा है। ऐसे में वह फिर माधरी को पाने का प्रयत्न करे तो इसमें बुरा क्या है...! वह दोनों तो एक दूसरे को अब भी वैसे ही चाहते हैं । वह एक-दूसरे को भली प्रकार समझते हैं, इकट्ठ पढ़े हैं, उनके विचार मिलते हैं।'
फिर सहसा उसे यह विचार प्राता कि वासुदेव उसका प्रिय मित्र है वह मित्र से विश्वासघात करे ? उसकी विवाहिता पत्नी के विषय में । सोचे और उसके अपवित्र विचार इस नई लहर से धुल जाते । परन्तु, फिर माधुरी पर दृष्टि पड़ती, उसका सौन्दर्य... उसका अंग-अंग उसे पुकारता हुआ दिखाई पड़ता और फिर वही पहली लहरें चलने लगती... उन दोनों ने मिलकर प्रेम-निर्वाह का प्रण किया था. कल्पना में अपने भावी जीवन के कितने सुन्दर महल बनाये थे ---- उन्होंने एक ही मन से मिलकर प्राज से कितना समय पहले कल्पना में अपने भविष्य का निर्माण किया था जिसमें वसंत ही वसंत होगी, फूल ही फूल होंगे और होगी भीनी भीनी दो साँसों की सुगंध, दो हृदयों का संगीत-किन्तु, समय-चक्र आया और उसे युद्ध पर जाना पड़ा वह अलग हो गये, कल्पना के महल ढह गये और जब वह युद्ध से लौटा तो उसे पता चला कि माधुरी ने व्याह कर लिया है।
- अपने प्रेम का यह अन्त देखकर उसका मन टूट गया. उसका रुपा रुग्राँ पीड़ा से कराहने लगा."उसे संसार से घृणा सी हो गई और उसने कभी ब्याह न करने का प्रण कर लिया बरसों वह इस ज्वाला में जलता रहा । उसने उसे भुला देने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु, वह उसकी छवि को बिल्कुल मन से न मिटा सका" समय बीतता गया और वह शान्त होता गया 'अतीत और माधुरी का विचार उसके लिये इतना कष्टप्रद न रहा। ___ और अकस्मात् जब वह अपने मित्र के यहाँ आया तो बरसों की दबी ज्वाला धधक पड़ी। उसे इस बात का लेश-मात्र भी विचार न था कि वह अपनी प्रेमिका को देख पायेगा, और वह भी इतना निकट से।
माधरी अब उठ बैठी थी और राजेन्द्र उसे एकटक देखे जा रहा था। भाग्य ने उन दोनों को दूर करके फिर मिला दिया था। न जाने कितनी देर बह उसे ही देखता रहता, यदि माधुरी यह प्रश्न न कर देती---
"यह आप मुझे घूर-पूरकर क्रोध से क्यों देख रहे हैं ?"
"क्रोध से नहीं, प्यार से..." ..
"आपका मुख तो कुछ और ही कह रहा है।"
"किसी अन्यायी पर क्रोध आ रहा है ।" .
"किस पर?"
"तुम्हारे पति पर, जो तुम्हें यूं तड़पाकर अतृप्त मार रहा है, जो तुम्हारे यौवन से इतना विमुख है।"
माधुरी के मन को ठेस सी लगी । वह घुटनों में मुंह देकर कुछ सोचने लगी। राजेन्द्र ने देखा कि उसके माथे पर पसीने की बूंदें एकत्र हो गई थीं। कुछ देर यू ही मौन छाया रहा और फिर राजेन्द्र बोला
"माधुरी ! एक बात पूछता हूँ, चतामोगी ?"
"क्या ?"
"वचन दो कि झूठ न कहोमी ।"
"पाप पूछिये तो !"
"क्या तुम अब भी मुझ से प्यार करती हो?"
राजेन्द्र की यह बात सुनकर वह सहसा कॉप सी गई और झट मुंह मोड़कर खड़ी हो गई । अभी वह अपने प्रश्न को दोहरा भी न पाया था कि झील में चप्पुत्रों की ध्वनि सुनकर दोनों एक साथ मुड़े और सामने फैली हुई झील को देखने लगे । दूर उस पार से एक नाव मा रही थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा और माधुरी बोली
"चलिये ! वह आ गये।" ।
दोनों वहाँ से उठकर चोरों की भांति घर में आये और अपने-अपने कमरे में चले गये, मानो घर से बाहर गये ही न थे।
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA
वासुदेव ने गोल कमरे में प्रवेश करते ही ऊंचे स्वर में मंगा को पुकारा । दोनों ने उसका स्वर सुना, किन्तु अपने-अपने कमरे में लेटे रहे। वासुदेव ने राजेन्द्र के कमरे में पांव रखा और उसे यू लेटे देखकर चोला-----
"यह क्या, अभी तक नहाये भी नहीं ?"
"नहीं, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।" 'माधुरी कहाँ है ?"
"अपने कमरे में होगी।"
राजेन्द्र की बात सुनकर वासुदेव अपने कमरे में गया । माधुरी कमरे की झाड-पोंछ में लगी हुई थी । द्वार पट आहट हुई और वह संभली । वासुदेव ने पूछा
"क्या हो रहा है ?"
"आपकी प्रतीक्षा ; कहिए ! क्या बना बिचारे कोचबान का ?"
"डाक्टरों को सौंप दिया है, प्राशा है ठीक हो जायेगा।"
माधुरी कुछ और पूछना ही चाहती थी कि उसी समय राजेन्द्र द्वार के भीतर आया । उसे देखकर वह झेप सी गई और अल्मारी में कपड़े रखने लगी। - "राजेन्द्र ! तुम दोनों एक साथ कालेज में पढ़ते रहे हो ना ?" वासुदेव ने माधुरी की भेंप को भांपते हुए मुस्कराकर राजेन्द्र की मोर देखा।
"हाँ तो...?" –
"मुझे विश्वास नहीं पा रहा था।"
"क्यों ?"
"इसलिए कि यह एक दूसरे से झपना---अपरिचितों सा बरताव एक ही घर में दोनों का अलग-अलग कमरे में घुसे रहना..." __
_ "तो क्या करते ?" राजेन्द्र ने प्रश्न किया और एक छिपी दृष्टि से माधुरी की अोर देखने लगा।
"कुछ नहीं तो बातें ही करते ।"
"बाने! आपकी पत्नी से ! कैसे सम्भव था ?"
"क्यों?"
"वह तो पाप से भी अपरिचितों के समान रहती है, भला मुझसे क्या बोलेगी।"
वासुदेव संकेत को भांप गया और चुप हो गया ! माधुरी बाहर जाने लगी।
"माधुरी !" वासुदेव ने उसे जाते देखकर पुकारा। "जी" वह रुक गई किन्तु मुड़कर देखने का साहस न कर सकी।
"कहाँ चलीं ?" वासुदेव ने पूछा।
"आपके लिए नाश्ता लाने ।"
"तुम दोनों क्या खा चुके ?"
"नहीं तो, आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे,"-माधुरी यह कहकर बाहर चली गई और बह राजेन्द्र के पास बैठकर उससे बातें करने लगा। श्राज राजेन्द्र के मुख पर कुछ परिवर्तन सा दिखाई पड़ रहा था। उसने चाहा कि अपने अतिथि-मित्र से इस बात का कारण पूछे पर कुछ सोच कर सुप हो गया ।
कुछ समय पश्चात् वे लोग नाश्ते पर बैठे । माधरी चाय बनाने लगी। तीनों में कुछ विचित्र तनाव सा था, घबराये से, घुटे से थे । सब मौन थे । वासुदेव अधिक समय तक इस वातावरण को सहन न कर सका और बोला, "राजी ! मेरी बात मानो तो अब तुम ब्याहकर डालो।"
"सहसा, यह विचार कैसे पाया तुम्हें ?" राजेन्द्र ने पहले उसकी और फिर माधुरी की ओर देखा । माधुरी चाय में चीनी मिला रही थी। वह बात सुनते ही उसका हाथ रुक गया।
वासुदेव ने चाय का प्याला उठाते कहा, "हाँ, जीवन की सुख-सुविधा के लिए।"
"समय पर खाने को मिल जाये, पहनने को कपड़े मिल जायें। हर समय कोई प्रतीक्षा में दीवार पर खड़ा रहे क्या जीवन की सुख-सुवि धायें यहीं तक सीमित हैं ?"
"सुख-सुविधा में तो बहुत कुछ है, किन्तु थोड़ा सा भी सुख देने वाले साथी में एक गुण होना आवश्यक है,"-वासुदेव ने चाय पीते हुए कहा ।
___ "क्या ?" राजेन्द्र ने पूछा। __
"इस सुख और प्यार में उपकार की भावना न हो, जो कुछ हो मन से हो।"
"यह क्या, अभी तक नहाये भी नहीं ?"
"नहीं, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।" 'माधुरी कहाँ है ?"
"अपने कमरे में होगी।"
राजेन्द्र की बात सुनकर वासुदेव अपने कमरे में गया । माधुरी कमरे की झाड-पोंछ में लगी हुई थी । द्वार पट आहट हुई और वह संभली । वासुदेव ने पूछा
"क्या हो रहा है ?"
"आपकी प्रतीक्षा ; कहिए ! क्या बना बिचारे कोचबान का ?"
"डाक्टरों को सौंप दिया है, प्राशा है ठीक हो जायेगा।"
माधुरी कुछ और पूछना ही चाहती थी कि उसी समय राजेन्द्र द्वार के भीतर आया । उसे देखकर वह झेप सी गई और अल्मारी में कपड़े रखने लगी। - "राजेन्द्र ! तुम दोनों एक साथ कालेज में पढ़ते रहे हो ना ?" वासुदेव ने माधुरी की भेंप को भांपते हुए मुस्कराकर राजेन्द्र की मोर देखा।
"हाँ तो...?" –
"मुझे विश्वास नहीं पा रहा था।"
"क्यों ?"
"इसलिए कि यह एक दूसरे से झपना---अपरिचितों सा बरताव एक ही घर में दोनों का अलग-अलग कमरे में घुसे रहना..." __
_ "तो क्या करते ?" राजेन्द्र ने प्रश्न किया और एक छिपी दृष्टि से माधुरी की अोर देखने लगा।
"कुछ नहीं तो बातें ही करते ।"
"बाने! आपकी पत्नी से ! कैसे सम्भव था ?"
"क्यों?"
"वह तो पाप से भी अपरिचितों के समान रहती है, भला मुझसे क्या बोलेगी।"
वासुदेव संकेत को भांप गया और चुप हो गया ! माधुरी बाहर जाने लगी।
"माधुरी !" वासुदेव ने उसे जाते देखकर पुकारा। "जी" वह रुक गई किन्तु मुड़कर देखने का साहस न कर सकी।
"कहाँ चलीं ?" वासुदेव ने पूछा।
"आपके लिए नाश्ता लाने ।"
"तुम दोनों क्या खा चुके ?"
"नहीं तो, आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे,"-माधुरी यह कहकर बाहर चली गई और बह राजेन्द्र के पास बैठकर उससे बातें करने लगा। श्राज राजेन्द्र के मुख पर कुछ परिवर्तन सा दिखाई पड़ रहा था। उसने चाहा कि अपने अतिथि-मित्र से इस बात का कारण पूछे पर कुछ सोच कर सुप हो गया ।
कुछ समय पश्चात् वे लोग नाश्ते पर बैठे । माधरी चाय बनाने लगी। तीनों में कुछ विचित्र तनाव सा था, घबराये से, घुटे से थे । सब मौन थे । वासुदेव अधिक समय तक इस वातावरण को सहन न कर सका और बोला, "राजी ! मेरी बात मानो तो अब तुम ब्याहकर डालो।"
"सहसा, यह विचार कैसे पाया तुम्हें ?" राजेन्द्र ने पहले उसकी और फिर माधुरी की ओर देखा । माधुरी चाय में चीनी मिला रही थी। वह बात सुनते ही उसका हाथ रुक गया।
वासुदेव ने चाय का प्याला उठाते कहा, "हाँ, जीवन की सुख-सुविधा के लिए।"
"समय पर खाने को मिल जाये, पहनने को कपड़े मिल जायें। हर समय कोई प्रतीक्षा में दीवार पर खड़ा रहे क्या जीवन की सुख-सुवि धायें यहीं तक सीमित हैं ?"
"सुख-सुविधा में तो बहुत कुछ है, किन्तु थोड़ा सा भी सुख देने वाले साथी में एक गुण होना आवश्यक है,"-वासुदेव ने चाय पीते हुए कहा ।
___ "क्या ?" राजेन्द्र ने पूछा। __
"इस सुख और प्यार में उपकार की भावना न हो, जो कुछ हो मन से हो।"
मेरी नशीली चितवन Running.....मेरी कामुकता का सफ़र Running.....गहरी साजिश Running.....काली घटा/ गुलशन नन्दा ..... तब से अब तक और आगे .....Chudasi (चुदासी ) ....पनौती (थ्रिलर) .....आशा (सामाजिक उपन्यास)complete .....लज़्ज़त का एहसास (मिसेस नादिरा ) चुदने को बेताब पड़ोसन .....आशा...(एक ड्रीमलेडी ).....Tu Hi Tu