काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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adeswal
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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उसी समय दोनों ने एक साथ माधुरी को देखा । वह चुपचाप किसी विचार में डूबी धीरे-धीरे चाय पी रही थी। उसके माथे पर पसीने की बूदें झलक रही थीं।

वासुदेव ने प्यार से माधुरी का हाथ अपनी हथेली में लेकर कहा "क्या मैंने झूठ कहा है, माधुरी ?"

"जी ! आप..," वह चौंक गई और फिर सँभलते बोली, "प्राप कभी झूठ कह सकते हैं !"

यह कहकर वह उठी और चाय का पानी लेने बाहर चली गई। राजेन्द्र ने पहले उसे और फिर वासुदेव को देखा। वह झंप गया। आँगन में गंगा खड़ी थी, उसने माधुरी के हाथ से चायदानी ले ली। माधुरी भीतर लौट आई और उनके पास से होकर दूसरे कमरे में जाने लगी। अभी वह कमरे में ही थी कि राजेन्द्र ने होंटों पर हँसी उत्पन्न करते हुए
कहा

"तो भाई ! एक लड़की ढूढ़ दो ना !"

"कैसी लड़की चाहिये ?"

"जैसी तुम पसन्द करो।"

"मेरी पसन्द ! वह तो माधुरी जैसी ही होगी।"

"तो ऐसी ही ला दीजिये।"

वासुदेव झेप गया और चुप हो गया। राजेन्द्र ने उसके मन में उठते हुए ज्वार-भाटे को भांप लिया था और साथ ही पर्दे के नीचे उन लाल सलीपरों को भी देख लिया था जो संगमरमर के समान कोमल और गोरे-गोरे पैरों को छिपाये हुए थे। माधुरी छिपकर उनकी बातें सुन रही थी। थोड़े समय तक दोनों चुप रहे । गंगा ने आकर चाय का पानी रख दिया और राजेन्द्र प्यालों में चाय उडेलने लगा।

'वासुदेव ! इन पहाड़ियों में क्या तुम्हारा मन नहीं घबराता ?" राजेन्द्र ने पूछा।

"मैं यहाँ अकेला तो नहीं. 'माधुरी है और उसके साथ क्या बुरा लगेगा !"

“मेरा अभिप्राय है-यह वातावरण, यह सूना-सूना घर'"एक-दो बच्चे होते तो यह मौन दीवारें चहकने लगतीं।"

"राजेन्द्र ने ध्यानपूर्वक देखा। यह बात सुनकर वासुदेव का मुख पीला पड़ गया था। चाय का प्याला कठिनता मे उसके हाथ से गिरते गिरते बचा था। उसने उसके और माधुरी के खाली प्याले में चाय उडेली और हिलते हुए पर्दे को देखकर ऊंचे स्वर में पुकारा। _ माधुरी झट दूसरे कमरे से निकल आई। राजेन्द्र ने प्याला उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा
"लो''चाय ठंडी हो रही है।"

"और इच्छा नहीं।"

"अब तो ले लो बना हुआ है साथ के लिए ही सही।"

वह चुप हो गई और प्याला थामकर चाय पीने लगी। तीनों चुप थे. अपने-अपने विचार में, किन्तु तीनों के विषय का केन्द्र एक था।

"माधुरी !"

"मोह ! पाप !"

"वासुदेव कहाँ है ?"

"चले गये।"

"कहाँ ?” राजेन्द्र विस्मय से बोला।

"भील के उस पार''आधीरात को कोई व्यक्ति आया था। कोचवान की दशा कुछ बिगड़ गई है 'शायद उसे शहर ले जाना पड़े।"

"कब लौटेगा?"

"कुछ कह नहीं गये 'यदि शहर चले गये तो सम्भव है रात हो जाये।"

राजेन्द्र उसकी बात सुनकर चुप हो गया। वह अभी-अभी बिस्तर से उठा था और वासुदेव को ढूंढता हुअा माधुरी के कमरे में आया था। वह उस समय ड्रेसिंग टेबल को ठीक लगा रही थी। राजेन्द्र ने मेज पर रखा अखबार उठाया और बालकनी में कुर्सी बिछाकर उसको पढ़ने लगा।
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सवेरे का सुहाना समय था। झील की ओर से प्राती हुई शीतल पवन शरीर में नवजीवन भर रही थी। प्रारम्भ के दिनों में वासुदेव के चले जाने पर राजेन्द्र को बड़ा विचित्र सा लगता था। उसकी अनुपस्थिति में वह बड़ा एकाकीपन सा अनुभव करता और दिन भर खोया-खोया

सा रहता, किन्तु अब उसे उसकी अनुपस्थिति न अखरती। माधुरी के साथ अकेले में बोलने-चालने और हँसने-खेलने में उसे एक मानसिक तृप्ति मिलती। उसके होते दोनों में कोई भी खुलकर बातें कर सकता। माधुरी ऐसी स्थिति में क्या सोचती होगी, क्या अनुभव करती होगी, इसका वह ठीक अनुमान नै लगा सकता था।

उसकी पीठ पर आहट हुई, किन्तु ; वह मुड़ा नहीं । आने वाले के पैरों की चाप उसकी जानी-पहचानी थी। बालकनी का पर्दा हटा और माधुरी चाय का प्याला लिये हुए उसके सामने आ खड़ी हुई । राजेन्द्र ने सरसरी दृष्टि उस पर डाली और कहा
"गंगा से कह दिया होता।"

"अतिथि का ध्यान जितना हम रख सकते हैं. नौकर नहीं रख सकते।"

"तो क्या तुम अभी तक मुझे अतिथि ही समझ रही हो ?" "जी''आपका अपना व्यवहार ही कुछ अतिथियों सरीखा है।" "क्यों ? मैंने ऐसी क्या बात की है ?"

"जब से मन की बात कही है 'आप अनजान से बन बैठे हैं... अपरिचितों का सा व्यवहार करने लगे हैं. दोष मेरा ही है। मुझे आप से यह सब कुछ न कहना चाहिये था।" ___

"नहीं माधुरी ! ऐसी बात नहीं-सोचता हूँ भावना में प्राकर भूल से कुछ ऐसी बात न कर बैलूं कि मित्र की दृष्टि में मुझे हीन होना पड़े..."

"अाप तो बड़ी दूर की सोचने लगे।"

राजेन्द्र ने कोई उत्तर न दिया और चाय पीने लगा। कुछ देर बाद बोला, "अाज दिन क्योंकर कटेगा ?"
"कुछ हँसते और कुछ रोते ।”

"वह कैसे ?"

'यही तो जीवन है ''कुछ हँस के कट जाता है और कुछ रोकर ।"

"जब रोने लगो तो मुझे पहले बता देना''मुझे रोना कठिनता से आता है।"

राजेन्द्र की बात सुनकर माधुरी खिल-खिलाकर हँस पड़ी। अाज उसको मुस्कान में कुछ विशेष मोहनी थी जो इससे पहले उसने कभी अनुभव न की थी । उसका मुख पहले से खिला हुआ था जैसे मलया निल से कोई कली फूट पड़ी हो। . उसी समय चौकीदार वासुदेव का सन्देश लेकर आया, “मालिक
रात तक न आ पायेंगे।"

"क्यों? सब कुशल तो है ?"

"कोचवान के शरीर में विष फैल गया है और वह उसे शहर में बड़े हस्पताल ले गये हैं।"

चौकीदार यह सूचना देकर चला गया। राजेन्द्र ने देखा, उसका मुख क्षण भर के लिए मलिन हुना और फिर खिल उठा । राजेन्द्र से आँखें मिलाते हुए धीरे से कहा

"चलो, यह कष्ट भी दूर हुआ।"

"कैसा कष्ट ?"

"प्रतीक्षा का 'वह रात से पहले न लौटेंगे।"

"तब तो दिन मेरे लिए पहाड़ बन जायेगा।" राजेन्द्र ने बनते हुए कहा।

"क्यों ? क्या मैं आपके पास नहीं हैं ?"

"तुम हो तो क्या ? उनकी और बात है । वह पुरुष, तुम ठहरी स्त्री। स्त्री से तो मन खोलकर बात भी नहीं कर सकते ।"

राजेन्द्र की व्यंगात्मक बात सुनकर वह गम्भीर हो गई और मुंह बनाकर बाहर जाने लगी। राजेन्द्र ने उसे रोककर कहा

"बिगड़ गईं ?" "मैं कोई पुरुष तो नहीं हूँ, जो आप मेरे साथ को साथ समझे । मैं
कौन होती हूँ आपकी ?"

"इसीलिए तो कहता हूँ, स्त्री का मन बहुत छोटा होता है।"

"कहिये तो चौकीदार को भिजवा दू! पुरुष है और शरीर से तगड़ा भी। आपका दिन अच्छा कट जायेगा।" __ माधुरी की बात सुन वह जोर से हंसने लगा। उसने देखा कि वह भी दबे होंटों मुस्करा रही है । राजेन्द्र ने उसे बाँह से थामते हुए कहा

"एक बात कहूँ, मानोगी ?"

"कहिये !"

"चलो, कहीं पिकनिक को चलें !"

उसका प्रश्न सुनकर माधुरी घबरा गई थी कि न जाने वह क्या कहेगा ; किन्तु, पिकनिक का प्रस्ताव सुनकर उसका मुख चमक उठा। क्षण भर के लिये उसने कुछ सोचा और स्वीकृति में सिर हिलाते भीतर भाग गई।
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कुछ समय पश्चात् दोनों झील के किनारे हाथ में हाथ दिये बढ़ते जा रहे थे । पिकनिक के सामान के झोले उन्होंने कंधों से लटका रखे थे।

उन्होंने पिकनिक के लिये वही स्थान चुना, जहाँ एक दिन वह तीनों पाये थे। उस दिन की अपेक्षा आज वह अति प्रसन्न थे । आज उन्हें कोई भय न था, वह स्वतंत्र थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि विधि ने उन्हें एक ऐसे गोलाकार में रख दिया जो धीरे-धीरे छोटा होता जा रहा है यहाँ तक कि वह शीघ्र एक दूसरे में मिल जायेगे, एक हो जायेंगे। ____
"आज तैरना न सिखाओगे ?" माधुरी न बैठते हुए धोरे से राजेन्द्र को कहा।

"एक वचन पर।"

"क्या ?" माधुरी सोच में पड़ गई कि वह कौनसा वचन मांगने वाला है । उसका मुख फिर गम्भीर पड़ गया ।

"मेरे साथ मंझधार तक चलना पड़ेगा।"

“यदि डूब गई तो...?"

"नहीं, मैं किसलिये हैं ?"

"आपका क्या विश्वास-कहीं हाथ छोड़ दें तो..."

"तो मैं कहाँ जाऊँगा ?" हँसते हुए राजेन्द्र बोला।"

"धोखा दिया तो?"

"राजेन्द्र ने उसकी बाँह पकड़ ली और अपनी ओर खींचते हुए बोला, "धोखा तो स्त्री देती है, पुरुष नहीं।"

यह कहते हुए वह उसे खींचकर अपने साथ पानी में ले गया । स्थिर पानी में हलचल सी मच गई और दूर-दूर तक लहरें वृत्ताकार से बनाती चली गईं। हाथ-पांव चलाने से पानी उछलने लगा। माधुरी की चीखों से और फिर दोनों की मिली-जुली हंसी से वातावरण गूजने लगा। राजेन्द्र हाथों से उसकी पीठ को सहारा दिये हुए था और वह धीरे-धीरे तैरती हुई गहरे पानी की ओर जा रही थी। कभी कोई मछली धीरे से उसके शरीर को छू जाती तो एक बिजली सी दौड़ जाती और वह एक गुदगुदी सी अनुभव करने लगती।

• तैरते-तैरते वह थक गई। उसके हाथ-पांव शिथिल पड़ गये और राजेन्द्र ने दोनों हाथों में उसके कोमल शरीर को थाम लिया। माधुरी ने शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया और गठड़ी सी बनी उसकी बाँहों में प्रा गई। इस शीतल जल में भी उसके गोरे शरीर की हल्की सी गर्मी उसे रोमांचित कर रही थी। उसने प्यारभरी दृष्टि से उसको देखा और उसके अतृप्त जीवन पर उसे तरस सा पाने लगा।

पानी से निकालकर उसने धीरे से उसे झील के किनारे की हरी दुब पर खड़ा कर दिया। उसके शरीर से चिपके हुए कपड़ों से पानी निचुड़ रहा था और वह आँखें बन्द किये अपने शरीर का बोझ उस पर डाले खड़ी थी। राजेन्द्र ने हल्के से उसके गालों को थपथपाया । उन्मा दित अखड़ियाँ धीरे से खुली और वह अपने पाँव पर खड़ी हो गई।

राजेन्द्र ने सहारा देकर उसे घास पर बिठा दिया और स्वयं थोड़ी दूर औंधा लेटकर सुस्ताने लगा।

न जाने कितनी देर तक दोनों बेसुध पड़े रहे। राजेन्द्र अभी तक उस गुदगुदाहट का आनन्द ले रहा था, जो माधुरी के शरीर के स्पर्श से अनुभव हुआ था।

बहुत देर के मौन के पश्चात् राजेन्द्र ने धड़ उठाकर माधुरी को कुछ कहने के लिये उसकी ओर देखा । अभी उसका नाम ही उसके होंटों से निकला था कि एकाएक चुप हो गया और भौंचक इधर-उधर देखने लगा। वह अपने स्थान पर न थी।

वह तेजी से उठा और चबूतरे की ओर देखने लगा । सामान ज्यों का त्यों वहाँ रखा था, किन्तु माधुरी वहाँ न थी। उसने झील में दृष्टि दौड़ाई किन्तु, वहाँ भी कुछ दिखाई न दिया। अचानक जहाँ बह लेटी थी वहाँ धरती पर खुदे कुछ शब्द देखकर वह रुक गया। गोली धरती पर अंग्रेजी में खुदा हुआ लिखा था-"Love you."

राजेन्द्र ने फिर एक बार चारों ओर ध्यानपूर्वक देखा। घूमती हुई उसकी दृष्टि सामने झाड़ियों पर जा रुकी, जहाँ माधुरी के कपड़े फैले सूख रहे थे। उसने एक बार फिर धरती पर खुदे हुए शब्दों को पढ़ा और उस और बढ़ने के लिए पाँव उठाये, किन्तु कुछ सोचकर रुक गया और गर्दन मोड़कर दूसरी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसने फिर मड़कर झाड़ियों की ओर देखा । अब कपड़े वहाँ न थे। अभी वह सोच ही रहा था कि माधुरी झाड़ियों से निकली। राजेन्द्र ने उसे देखा और दूसरी ओर गर्दन मोड़ ली मानो अभी तक उसे देखा ही न हो। __माधुरी ने चोर-दृष्टि से उसे अपनी ओर देखते हुए भांप लिया था

और उस ओर आने के स्थान पर खंडहर की उस गुफा की ओर मुड़ गई जहाँ राजेन्द्र के यहाँ पाने पर एकान्त में उनकी प्रथम भेंट हुई थी, और माधुरी ने अपने दुखी मन का रहस्य उससे कह डाला था। गुफा के भीतर जाने से पूर्व उसने एक बार मुड़कर फिर राजेन्द्र की ओर देखा । वह अभी तक वहीं बैठा हुआ था, जाने किस कल्पना, किस सोच में था। ____ वह गुफा के भीतर ओट में खड़ी होकर उसकी प्रतीक्षा करने लगी। जो बात उसके मुंह से न निकल सकी थी वह उँगली से धरती पर लिख आई थी। उसे विश्वास था कि वह अवश्य आयेगा"इस एकान्त में वह उसके पास अवश्य आयेगा और उसके मन की धड़कन धरती पर लिखे हुए शब्दों को स्वयं दोहरा देगी। वास्तव में राजेन्द्र से वह प्रेम करती थी 'वासुदेव उसके प्रेम को न जीत सका था।
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उसने गुफा में से झांककर फिर बाहर देखा । वह अभी तक अपने स्थान पर बैठा था। माधुरी के मन को चोट सी लगी। वह अधीर हो रही थी और वह उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ वहीं बैठा था। वह सोचने लगी, 'क्या उसे निराश होना पड़ेगा. पर ऐसे क्योंकर हो सकता है ? वह स्वयं ही तो कई बार बातों-बातों में उस से प्रेम जता चुका है।'

एक बार उसने फिर चोर-दृष्टि से उधर देखा। राजेन्द्र अपने स्थान से उठकर उसकी ओर आ रहा था। उसके मन में गुदगुदी होने लगी और शरीर में सिहरन सी दौड़ गई । वह साँस रोके थोड़ा और आगे बढ़ गई और अंधेरे में छिपकर उसकी प्रतीक्षा करने लगी। उसकी दृष्टि गुफा के प्रवेश द्वार पर लगी हुई थी।

__माधुरी...!'' किसी ने धीरे से पुकारा। वह अंधेरे में दीवार से चिपककर खड़ी हो गई। फिर पुकार सुनाई दी और वह सांस रोककर और सिमट गई । राजेन्द्र अब गुफा में प्रवेश कर चुका था और अंधेरे में उसे टटोलता हुआ उससे आगे बढ़ गया। अब उसने ऊँचे स्वर में उसका नाम लेकर पुकारा । माधुरी छिपी हुई उसे साफ देख रही थी। यह वहीं स्थान था जहाँ कुछ दिन पहले उसने राजेन्द्र से अपने मन की बात कही थी । प्राज फिर वह वहीं इकटु हो गये थे और वह उसे प्रेम का सन्देश देने के लिये व्याकुल हो रही थी। उसके होंट मन की भावनाओं को उगल देने के लिये बेचैन थे''आज वह अपने मन में कुछ गुप्त न रखना चाहती थी।

राजेन्द्र विस्मय में खड़ा अपने सामने देख रहा था। माधुरी धीरे धीरे दबे पाँव उसके पीछे खड़ी हो गई। उसने एक बार फिर जोर से पुकारा, "माधुरी !" आवाज की गूज लौटकर उसके कानों से टकराई। वातावरण में गूज से एक थरथराहट सी हुई। माधुरी ने पीछे से अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया। राजेन्द्र चौंककर मुड़ा और उसने दोनों हाथ उसके गले में डालकर सिर उसके वक्ष से टिका दिया। उसका शरीर अंगारों के समान तप रहा था और वह उखड़े हुए स्वर में धीरे-धीरे बुड़बुड़ाने लगी .

"राजी ! मेरे राजी ! मुझ में और धैर्य नहीं। परीक्षा देने की शक्ति मुझ में नहीं रही 'देखो तो मेरा कलेजा धड़क रहा है. अब और मत तरसायो' मैं कहाँ तक ज्वाला में जलती रहूँ..." . __वह कहे जा रही थी और राजेन्द्र सुने जा रहा था। इसके अपने रोएँ-रोएँ में बिजली सी भर गई । उसने अपनी बांहें उसकी कमर में डालकर उसे भींच लिया और भींच लिया, यहाँ तक कि दोनों हृदयों की घड़कन एक हो गई.."साँसें एक दूसरे से मिल गयीं । इस मिलन में शान्ति थी, सुख था, जिसके लिए वह लगभग तीन वर्ष से तड़प रही थी। राजेन्द्र ने अपने जलते हुए होंट उसके केशों को घनी छाया में रख दिये। ___ माधुरी एक उन्माद में धीरे-धीरे रुककर कहे जा रही थी. वही शब्द जो शायद वर्षों पहले भी उसने राजेन्द्र से कहे हों। परन्तु फिर भी इनमें नवीनता थी."अछूतापन था "प्रेम दोहराने पर पुराना नहीं हो जाता परन्तु, परस्थिति बदल चुकी थी. क्या उसे यह शब्द दोहराने का अधिकार था ? यहाँ अधिकार क्या है, अनधिकार क्या है कोई नहीं जानता है।

जब दोनों ज्योड़ी पार करके आँगन में पहुँचे तो शाम अपने पंख फैला चुकी थी। दोनों चुप थे और अभी ही उन्हें सुध आई थी कि वह दिन भर बाहर रहे हैं। 'डर रहे थे कि वासुदेव क्या सोचेगा।

आहट सुनकर गंगा ने बाहर आकर पिकनिक का सामान पकड़ लिया। माधुरी ने धीरे से डरते-डरते पूछा
"बह आ गये कया?"

"नहीं, बीबीजी ! अभी तो नहीं लौटे' 'न कोई और खबर ही आई है,"-गंगा ने गम्भीर मुख से कहा और सामान उठाकर भीतर चली गई।

माधुरी ने आँख उठाकर राजेन्द्र की ओर देखा और दोनों मुस्करा दिये। उनका भय अकारण ही था। . गोल कमरे में प्रवेश करते ही राजेन्द्र ने लैम्प जलाने के लिये हाथ बढ़ाया। माधुरी ने उसका हाथ रोक लिया और अपने गालों पर रखते हुए बोली
"रहने दो..."

"क्यों ?"

"न जाने क्यों ? आज अंधेरा भला सा लग रहा है।"

"अभी तो भला लगता है, किन्तु थोड़ी देर बाद यही खाने लगेगा।"

"कैसे?"

"जब रात और बढ़ जायेगी, सन्नाटा छा जायेगा. मैं अपने कमरे में और तुम अपने कमरे में दोनों अकेले "फिर यही अंधेरा नागिन बन जायेगा।"

'यह आपने कैसे कहा कि मैं अकेली रहूँगी ?"

"वासुदेव अब सवेरे से पहले क्या लौटेगा ?" - "पाप जो हैं,"-वह उसके कोट के बटनों को प्यार से उँगलियों में । भरोड़ते बोली।

"मैं ! तुमसे इतनी दूर..."

"दूरी क्या? मन में तो अन्तर नहीं “राजी! सब पूछो, वह पास भी हों तो यू लगता है जैसे कोसों का अन्तर हो और तुम दूर भी हो तो यू अनुभव होता है मानो पास बैठे हो ।" .

सच माधुरी ! न जाने मन का भय क्यों नहीं जाता: “सोचता हूँ यदि हमारे प्रेम का रहस्य वासुदेव जान गया तो मैं तो कहीं का न रहूँगा।"

"प्रेम और कायरता ? साहस से काम लेना पड़ेगा।"

"यदि उसने हमें य इकठे देख लिया तो..."

"घबराओ नहीं ''बह कुछ न कह सकेंगे "उनमें इतना साहस ही नहीं और सम्भव है तुम्हें प्रेम करते देखकर इD से स्वयं भी प्रेम करना सीख जायें।"

"तो क्या वास्तव में उसके हृदय नहीं?"

"ऐसा ही समझ लो...!"

"उस दिन मस्त घोड़े को उसने कैसे चाबुकों से वश में कर लिया .. था वह दृश्य सामने आता है तो मन काँपने लगता है।"

कुछ क्षण चुप रहने के बाद वह खिसियानी हँसी हंसते बोली . "वह केवल घोड़े को वश में करना जानते हैं."स्त्री को नहीं "प्रेम क्या है ? आकांक्षायें क्या हैं ?''यह वह नहीं जानते 1 मुझे तो विश्वास नहीं कि भगवान् ने उन्हें हृदय भी दिया है !"

यह कहते हुए वह अपने कमरे की ओर जाने लगी। राजेन्द्र ने उसका हाथ पकड़ते पूछा--
"कहाँ ?"

"कपड़े बदलकर अभी आई।"

"कॉफ़ी न पिलायोगी क्या ?"

"आप भी कपड़े बदल लें.. मैं अभी गंगा से..."

"गंगा से नहीं. 'तुम्हारे हाथों से..."

"तो थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"
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