काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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adeswal
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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"कौन ?" वह आहट सुनकर चौंक उठा। ..

''मैं 'माधुरी।"

"माधुरी ! तुम यहाँ कैसे?"

"आपके लिए दूध लाई थी।"

"गंगा नहीं थी क्या ? आज मुझे दूध नहीं पीना।"

"क्यों ? मेरे हाथ लग गये इसलिये...?"

"नहीं, माधुरी''आज मन नहीं चाहता।"

"वही तो मैं पूछ रही हूँयह आपको एकाएक हो क्या गया है ?"

"कुछ नहीं'"

यू ही मन उदास हो गया है।"

"क्यों ?"

"कुछ विशेष बात नहीं...

"आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं।"

"मन का भ्रम. "एक अकारण सा भय...?"

"क्या ?" वह राजेन्द्र के बिल्कुल सनीप आ गई और धड़कते हुए हृदय से उसकी बात सुनने लगी।

."सोचता हूँ कहीं तुम्हारा प्रेम धोखा न हो..."

राजेन्द्र की बात उसके मन पर नश्तर के समान लगी और वह तेजी से दूर हट गई। ऐसा करते हुए मेज को ठोकर लगी और दूध का गिलास उलट गया।

उसने एक दृष्टि गिरे हुए दूध पर और दूसरी राजेन्द्र पर डाली और झट बाहर निकल गई। राजेन्द्र के मुख पर एक छिपी मुस्कान थी। अभी उसने बाहर पैर रखा ही था कि लैम्प की बत्ती बुझ गई और कमरे में अंधेरा छा गया ।

रात बढ़ती जा रही थी। खिड़की खुली थी और बाहर हवा के झोंके एक भन्द सी मधुर जलतरंग बजा रहे थे ।
राजेन्द्र की आँखों में नींद न थी । अंधेरे में लेटे उसके मस्तिष्क के छाया-पट पर स्वयं अतीत के चित्र उतरने लगे। उसकी आँखों के सामने वह दृश्य फिर गया जब वह और वासुदेव सैनिकः कालिज में इकट्रे शिक्षार्थी थे। दोनों बड़े गूढ़ मिनथे । शिक्षा समाप्त होने पर दोनों को अलग-अलग यूनिटों में बदल दिया गया । वह मद्रास में चला गया और वासुदेव को ब्रह्मा की सीमा पर जाना पड़ा।

जहाँ इस भयंकर युद्ध ने संसार भर में हाहाकार मचा दी वहाँ वासुदेव भी इसके प्रभाव से न बच सका। राजेन्द्र को उसका रहस्य आज ही ज्ञात हुआ । अभी तक उसके कानों में अपने मित्र के दुःख-भरे शब्द गूंज रहे थे। उसने अपनी पूरी आत्मकथा उसे सुना दी थी।

जापानियों से लड़ते हुए उसकी कम्पनी शत्रु के घेरे में आ गई और वह बन्दी बना लिये गये ! उसे दस और साथियों के साथ पहाड़ में खोदकर बनाये गये एक ऐसे कमरे में कैद कर दिया गया जिसके बाहर लोहे की मोटी सीखों का छोटा सा किवाड़ था। एक ओर छत से मिला हा एक झरोखे का स्थान था जो लोहे की मोटी जाली से ढका हमा था जिससे थोड़ा सा उजाला उन तक पहुँचता । केवल इसी उजाले से वह दिन-रात का अनुमान लगा सकते थे । खाना और पानी उन्हें नाम मात्र को ही दिया जाता था। यहीं वह जीवन की अन्तिम साँसे गिन रहे थे।

एक रात उन्होंने साहस किया और मिलकर उस दीवार को खोदने लगे जिसमें झरोखा था । भाग्य ने उनका साथ दिया और दो रातों में वह उस झरोखे में इतना स्थान खोदने में सफल हो गये जिसमें से रेंगकर वह बाहर निकल सके।

तीसरी रात बाहर निकलने की योजना बनी । वासुदेव का पांचवा नम्बर था। उससे पहले उसके चार साथी बाहर निकलकर झाड़ियों में छिप गये थे । जब सन्नाटा छा गया और वह निश्चिन्त हो गये कि वह लोग सुरक्षित हैं तो उसने धीरे से गर्दन बाहर निकाली और चारों ओर दृष्टि दौड़ाई । सर्वत्र मौन था । दूर दो सन्तरी पहरा दे रहे थे। वासुदेव ने शरीर को समेटकर ऊपर उठाया, नीचे वाले साथियों ने सहारा दिया और वह रेंगता हुआ बाहर आ गया। ज़रा सी पाहट हुई तो उसने अपने आप को झाड़ियों में छिपा लिया और धरती पर लेट गया ।
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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सन्तरी आपस में मुड़कर बातें करने लगे तो उसने धीरे-धीरे रेंग कर बढ़ना आरम्भ किया । कुछ आगे चलकर उठ खड़ा हुआ और दौड़ने लगा । दुर्भाग्य से उसका पाँव फिसला और वह गिर पड़ा । सन्तरियों ने झट से ललकारा । एक ने हवा में गोली छोड़ी और सर्च-लाइट घुमा कर देखा।

सर्च-लाइट की रोशनी ज्यों-ज्यों उसके समीप पा रही थी, उसकी साँस ध्रुटी जा रही थी । जीवन मृत्यु की सीमा पर दिखाई दे रहा था। बच निकलने का कोई मार्ग न था, करे तो क्या करे ? रोशनी उसके आगे होकर मुड़ गई। उसने साहस बटोरा और पूरे बल से भामा । मर्च लाइट मुड़कर उस पर आ पड़ी और इसके साथ ही गोलियों को एक बौछार उसके पास-पास होने लगी। वह धरती पर गिर गया। - गोलियों की बौछार समाप्त हुई तो घायल वासुदेव से स्वयं को अधेरी झाड़ियों में फेंक दिया। भाग्य से उसके दूसरे साथी भी वहीं छिपे बैठे थे। इससे पहले कि सन्तरी उस स्थान पर पहुँचते, उसके साथी घायल वासुदेव को लेकर नदी में उतर गये और रात के अंधेरे में तैरते हुए उसे पार कर गये।

वासुदेव के प्रारण तो बच गये किन्तु, वह अति घायल हुअा था। एक गोली उसकी जाँच में घुस गई थी। कैम्प में तत्कालीन चिकित्सा दी गई और शीघ्र ऑपरेशन के लिए पीछे भिजवा दिया गया। गोली निकल गई और प्रॉपरेशन सफल रहा । घाव भरने तक दो महीने उसे हस्पताल में ही रहना पड़ा।

जब उसका हस्पताल से जाने का दिन आया तो डाक्टर ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा

"वासुदेव! तुम बड़े भाग्यशाली हो।" .

"सब आपकी कृपा है डाक्टर ! वरन मुझे तो बचने की कोई आशा न थी।"

ऐसा मत कहो वासुदेव ! मैंने तो अपना कर्त्तव्य ही पालन किया है. बचाने वाला तो भगवान ही है । अच्छा, अब तुम यहाँ से जा रहे हो तो मैं तुमसे तुम्हारे जीवन सम्बन्धी कुछ कहना चाहता हूँ।"

.. "क्या ?"

"तुम एक जिम्मेवार मिलिट्री अफ़सर हो और मैं तुम्हें अँधेरे में
नहीं रखना चाहता।"

"मैं समझा नहीं, डाक्टर !"
"तुम्हें जीवन तो अवश्य मिल गया है, किन्तु खेद है कि मुझे तुम्हारी कुछ खुशियाँ छीननी पड़ी।"
"डाक्टर'..!"

"हाँ, वासुदेव ! तुम्हारे जीवन के लिए मुझे विवशतः ऐसा करना पड़ा । गोली जाँघ में बहुत गहरी चली गई थी।"

"तो...?"

"प्रापरेश्न करते समय मुझे तुम्हारी कुछ ऐसी नसें काटनी पड़ी जो फिर नहीं मिल सकतीं।"

वासुदेव आश्चर्यचकित डाक्टर की ओर देखने लगा। उसकी समझ में कुछ न पा रहा था कि डाक्टर क्या कहना चाहता था । किन्तु जब उसते मुह मोड़कर धीमे स्वर में उससे कहा, "वासुदेव ! अब नपुंसक हो गये हो और स्त्री-सम्भोग के योग्य नहीं रहे," तो उसके मस्तिष्क पर एक हथौड़े की सी चोट लगी। उसका रोम-रोम कांप उठा ..."उसे यू लगा मानो किसी ने उसकी युवा-आकांक्षाओं का गला घोंट दिया हो कोई बर्फ का तोदा उस पर आ गिरा हो और उसका शरीर सुन्न हो गया हो। वह सिर निहोड़ाये चुपचाप हस्पताल से बाहर निकल प्राया।

राजेन्द्र को उसका दुख और विवशता जानकर एक आघात सा लगा । उसे स्वयं से घृणा होने लगी। माधुरी के विचार से भी उसका सीना जलने लगता "उसने अपने मित्र की पीठ में खंजर घोंपा था'.. कितना गिरा हुआ कार्य था."उसे अपने मानव होने पर भी शंका होने लगी।

वासुदेव में कितया धैर्य था. 'सचमुच वह देवता था.. अपनी पत्नी के विरुद्ध उसने एक शब्द मुह से न निकाला और माधुरी'? वह उसे पत्थर समझती है "कितनी शीघ्र वह अपना प्रेम और कर्तव्य सब कुछ भूल गई. उसे वासुदेव के यह कहे हुए शब्द स्मरण हो पाये, "मैं अब जान पाया कि प्रेम कुछ नहीं"इसका प्राधार कामुकता पर है... और वह यदि न हो तो प्रेम एक धोखा है, अलावा है ..."

रात भर वह इन्हीं विचारों में उलझा रहा और सवेरा होने की प्रतीक्षा करता रहा । उसने सोचा, क्यों न वह यह स्थान छोड़कर चला जाये और आजीवन उसे अपना मुह न दिखाये।
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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उसने रात ही को भाग जाने की सोची, किन्तु सहसा उसे फिर वासुदेव के दुख का विचार पाया और उसके पांव रुक गये।

अबको वह उसे धोखा न देना चाहता था।

"यह क्या?" "वासुदेव ! अब प्राज्ञा चाहिये।"

"पागल' तो नहीं हो गये.."तुम नहीं जा सकते ।" वासुदेव ने उसके हाथ से लेकर कपड़े अलमारी में रख दिये और फिर बोला, "याद है, तुमने एक वचन दिया था ?"

"क्या ?"

"मुझे मझधार में छोड़कर न जानोगे।"

• "मैं तो स्वयं डूब रहा हूँ, तुम्हारी क्या सहायता करूँगा ?"

"कभी तिनके का सहारा भी बहुत बड़ा सहारा बन जाता है।" "तुम तो जानते हो अब मेरा यहाँ रहना तुम दोनों के लिए अच्छा

"ऐसा तो तुम सोचते हो राजी ! मैं नहीं । मन की बात कह दूं ?"

"तुम्हारी दो दिन की संगत में माधुरी का जीवन बदल गया... तुम दोनों के मन में प्रेम का नव-संचार हुआ है 'इस बस्ती को फिर से उजाड़ने में क्या लाभ...?"

"यह तुम कह रहे हो?" "हाँ, मैं ही कह रहा हूँ.... 'मेरा और माधुरी का यही सम्बन्ध है

कि वह दुनिया वालों के सामने मेरी पत्नी है किन्तु, मैं उसके जीवन को यू नीरस' बनाये रखू, यह करना मेरे लिये सम्भव नहीं.''अब मेरी यही इच्छा है कि तुम दोनों सुखी रहो तुम दोनों युवा हो, तुम्हारा पहले का प्रेम है 'भगवान इस प्रेम को बनाये रखे, इसी में मेरी प्रसन्नता

___"परन्तु, वासुदेव ! यह कितनी विचित्र बात है इस से तुमको
जलन न होगी ?"

- "जलन ! मुझे तो अब जीवन भर ही जलत रहेगी. परन्तु उस निर्दोष को भी अपनी ज्वाला में क्यों धकेलू !"

"तो क्या स्वयं उसे यह पाप करने को कहोगे स्वयं अपनी प्रांखों के सामने...?" - "इस पाप का भार तो मुझ पर है "उस पर नहीं।"

"नहीं-नहीं"तुम उसके साथ मुझसे भी यह पार करायो यह सम्भव नहीं।"

___ "तो राजेन्द्र ! क्या यह अच्छा होगा कि वह मुझे छोड़कर एक दिन किसी और के साथ भाग जाये और मैं किसी को मुह न दिखा सकू..". वह दूसरों के सामने मेरा रहस्य खोल दे और लोग मेरा उपहास उड़ायें और मैं तंग आकर आत्महत्या कर लू...?"

राजेन्द्र यह सुनकर सटपटा गया । उससे कोई उत्तर न बन पहा और वह मुट्ठियाँ भींचता हुआ खिड़की के पास जा खड़ा हुआ ! अभी पी ही फटी थी। उसने दूर क्षितिज में झांका, उसे किसी प्रकार चैन न था । वासुदेव उसके पीछे आ खड़ा हुआ और धीरे से बोला-~--

'किसी दूसरे के पास जाने से तो अच्छा होगा कि वह तुम्हारी हो जाये तुम्हारा यह उपकार मैं जीवन भर न भूलूंगा।"

'एक बार फिर सोच लो, वासुदेव !" बह मुड़ते हुए बोला। -- "यह सब कुछ सोच-विचारकर ही कह रहा हूं।"

"तो एक वचन देना होगा।"

"क्या?"

"तुम हमारे प्रेम में बांटा न बनोगे."और माधुरी पर कभी प्रगट न होने दोगे कि तुम उससे असा करते हो।"

"घृणा" ! मैंने उससे सदा प्रेम किया है और प्रेम करता रहूँगा।" "वह कहाँ है ?" राजेन्द्र ने पूछा।

"सो रही है । तुम उसे जगा लामो मैं सैर के लिए घोड़ों का प्रबन्ध करता हूँ।"

"उसे तुम स्वयं ही जगायो।"

"नहीं भाई ! चले भी जाओ,"~-वासुदेव ने मुस्कराते हुए कहा और बाहर चला गया।

राजेन्द्र ने उसकी मुस्कराहट में छिपी हुई पीड़ा का अनुमान लगाया। वह कैसा पति है जो अपनी पत्नी को दुराचार की खाई में धकेलकर अपने मन की शान्ति खोज रहा है ? कहीं वह उसकी परीक्षा तो नहीं ले रहा ? उसकी समझ में कुछ न पा रहा था कि वह क्या करे "इतनी बड़ी मानसिक समस्या उसके सामने उत्पन्न हो सकती है, यह उसने कभी न सोचा था
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अनमने मन से यह माधुरी के कमरे की ओर रवाना हुआ। बरामदे में रखे फूलों के गमलों से उसने गुलाब का एक फूल तोड़ा और मुट्ठी में । रख लिया। - माधुरी अपने बिस्तर पर न थी। उसने चारों मोर दृष्टि दौड़ाकर देखा । स्नान गृह का बार खुला था जिससे प्रगट हो रहा था कि वह अभी-अभी भीतर गई है। वह पर्दे की प्रोट में खड़ा होकर उसके बाहर पाने की प्रतीक्षा करने लगा।

'थोड़ी ही देर में वह बाहर निकली और तौलिये से मुंह पोंछती हुई दर्पण के सामने केश सँवारने लगी। राजेन्द धीरे-धीरे दबे पांव
उसके पीछे जा खड़ा हुआ और गुलाब के फूल को उसके पूड़े में टाँकने लगा। दर्पण में छाया सो देखकर माधुरी झट से मुड़ी और राजेन्द्र को देखकर उखड़े हुए सांस में बोली ---

"मोह ! पाप"इस सम ?"

फूल राजेन्द्र के हाथ से फर्श पर जा गिरा! माधुरी ने घबराहट में चारों ओर देखा और नीचे झुककर पूल उठाने लगी। उसी समय राजेन्द्र भी मुका। दोनों के हाथ टकराये. और शारीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। माधुरी का हाथ ढीला पड़ गया। राजेन्द्र ने फूल उठा लिया और मुस्कराकर उसकी ओर देखते हुए बोला
."अनुमति हो तो इसे तुम्हारे बालों में टॉक दूं।"

लज्जा से माधुरी के मुख पर घबराहट सी उत्पन्न हुई । राजेन्द्र समझ गया और नीचे संकेत करते हुए बोला---

"तुम्हारे पति महोदय तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।"

"कहाँ ?"

"नीचे "ड्योढ़ी में ""

घोड़ों पर घूमने का विचार है।"

"मुझसे तो नहीं कहा ।"

"किन्तु, मुझको तुम्हें ही लाने के लिये भेजा है।' यह जानकर कि वासुदेव नीचे है, माधुरी ने सांत्वना की सांस ली और फिर से दर्पण में देखने लगी । राजेन्द्र ने बढ़कर फूल उसके जूड़े में टोंक दिया। ____"कहिये, रात कैसे कटी ?" माधुरी ने होटों को सिकोड़ते हुए धीमे
स्वर में पूछा। ..

"जैसे-तैसे कट ही गई."हँसकर गुजारे या इसे रोकर गुजार दें।" राजेन्द्र ने अन्तिम वाक्य बड़ा धीरे-धीरे रुक-रुककर बोला। माधुरी मुस्करा दी और बोली, "और अब दिन कैसे कटेगा?" . "वह भी तुम लोगों के संग कट जायेगा।"

"यदि मैं साथ न जा सका तो...?" "तो वासुदेव को अकेले ही जाना पड़ेगा।

और प्राप ?" "मैं."मेरा क्या है.."तुम्हारे बिना तो मैं न जा सकूगा।"

यह उत्तर सुनकर माधुरी चुप हो गई और दर्पण में अपने आपको देखती रही। वह भी मान वहा उसे देखता रहा। नीचे से घोड़ों के हिन हिनाने की ध्वनि पाई तो दोनों चौंककर एक दूसरे को सकने लगे।

राजेन्द्र ने समीप आकर पूछा -----
"क्या विचार है ?" "प्राय चलिये.मैं कपड़े पहनकर अभी आई।"

कुछ दर बाद नीनों घोड़ों पर सवार झील के किनारे-किनारे बड़े जा रहे थे । अभी सूर्य न निकला था। हवा के झोतल झौंकों ने तीनों के मस्तिष्क से एक बोझ सा हटा दिया था। घोड़ों की डोर थामे वह मास-पास के लक्ष्य में खोये चले जा रहे थे "अपनी-अपनी धुन में, अपनी अपनी कल्पना में, बिना बात चीत किये ।

बस्ती को वह बहुत पीछे छोड़ आये थे। सहसा यह देखकर कि वासुदेव उनसे बहुत आगे निकल चुका है, माधुरी पाश्चर्य में पड़ गई । वह दोनों अपने विचारों में इतने गुमसुम थे कि उन्हें पता भी न चला वह बाब उनकी छोड़कर भागे चला गया। उसने दृष्टि फिराकर राजेन्द्र की ओर देखा भीर हया से लहराती हुई लटों को संभालते हुए बोली---
"आप नहीं गये ?"

"कहाँ ?"

"उनके साथ

"घोड़ा दौड़ाने ?"

"तुम्हें अकेला छोड़कर यह कैसे हो सकता है ?"

"आज न जाने क्यों अकेले ही रहने को मन चाहता है।"


"तो ठीक है.'","-राजेन्द्र ने कहा और घोड़े को एड़ लगा दी।

माधुरी ने ऊँचे स्वर में पुकारकर उसे रोकना चाहा, किन्तु क्षण भर में
ही वह दूर पहुंच चुका था। __ थोड़ी ही देर में घोड़ा दौड़ाते हुए वह वासुदेव से जा मिला और उसके घोड़े से घोड़ा मिलाते बोला, “तुम इतनी दूर कहाँ चले आये ?"

"एक हिरन देखा था "न जाने कहाँ चला गया?" वासुदेव ने बंदूक कंधे पर लटकाते हुए उत्तर दिया और फिर उसे अकेला देखकर पूछने लगा, “माधुरी कहाँ है ?"

"पीछे आ रही होगी।"

"अच्छा होता जो तुम उसके साथ रहते अकेले में डर न जाये।"

"डरने की क्या बात है ?" राजेन्द्र ने असावधानी से पूछा।

"स्त्री ही तो है.. देखो ! मैं अपने शिकार की खोज में जंगल में जाता हूँ, तुम यहीं उसके आने की प्रतीक्षा करो । लौटते में मिलेंगे।"

बासुदेव यह कहकर क्षण भर में घोड़े को एड़ लगाकर प्रोझल हो गया । राजेन्द्र । ने घोड़े का मुह पीछे की ओर मोड़ लिया और माधुरी को देखने लगा।

थोड़ी देर में वह भी घोड़ा दौड़ाती, हांफती हुई श्रा पहुँची और बोली, "यह क्या? मुझे अकेले छोड़ पाए ?"

"तुम्हीं तो अकेलापन चाहती थीं।"

"बात तो पूरी सुन ली होती।"

"क्या ?"

"अकेलापन चाहती थी, किन्तु आपके साथ ।"

"तो लो, मैं आ गया।"

“यह आज आपको हुआ क्या है ?"

"क्या ?"

"यह अनूठापग"कुछ बने-बने दीख रहे हैं ?"

"नहीं तो 'बड़े दिनों पश्चात् घोड़े की सवारी की है, इसीलिये ।"

"मैं कौन सी घुड़सवार हूँ"","--उसने कहा और फिर क्षण भर रुककर पूछा, "वह कहाँ चले गये ?"
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